परिचय :
नाम : नफे सिंह योगी मालड़ा
माता : श्रीमती विजय देवी
पिता : श्री बलवीर सिंह (शारीरिक प्रशिक्षक)
पत्नी : श्रीमती सुशीला देवी
संतान : रोहित कुमार, मोहित कुमार
जन्म : ९ नवंबर १९७९
जन्म स्थान : गांव मालड़ा सराय, जिला महेंद्रगढ़(हरि)
शैक्षिक योग्यता : जे .बी .टी. ,एम.ए.(हिंदी प्रथम श्रेणी)
अन्य योग्यताएं : शिक्षा अनुदेशक कोर्स
शारीरिक प्रशिक्षण कोर्स
योगा कोर्स में स्वर्ण पदक
वॉलीबॉल कोचिंग कोर्स
जूनियर कम्बैट लिडर कोर्स
कार्यक्षेत्र सैनिक कर्तव्य
अभिरुचियाँ : कविता लिखना,गाना,
योग करना-करवाना और जोश भरना
प्रकाशित पुस्तकें : देश की बात
मंजिल से पहले रुकना मत
मौत से मस्ती (काव्य संग्रह)
प्रकाशनाधीन कृति
मिलन (कहानी संग्रह)
ये फर्ज अदा करना होगा (काव्य संग्रह)
म्हारी माटी म्हारी शान (रागनियाँ)
विशिष्ट उपलब्धियाँ : १८ वर्षों से सैन्य पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का निरंतर प्रकाशन। सेना में डिवीजन स्तर पर कविता पाठ, निबंध लेखन एवं वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में अनेक बार पुरस्कृत। हिंदी रक्षक मंच (hindirakshak.com) सहित… हिंदी साहित्य की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का निरंतर स्वागत। स्वामी रामदेव योग गुरु द्वारा प्रशंसा पत्र। संयुक्त राष्ट्र संघ शांति सेना सेवा के दौरान ब्रिगेड कमांडर द्वारा पुरस्कृत। निर्मला स्मृति हरियाणा गौरव साहित्य सम्मान से सम्मानित। भारतीय सेना के दक्षिणी कमान के कमान अधिकारी महोदय द्वारा विशिष्ट उपलब्धियों हेतु प्रशंसा पत्र और सेना में सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भागीदारी एवं मंच संचालन का २० वर्षों का अनुभव।
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विद्या :- पद ( छंदबद्ध कविता)
दिनांक :-14/02/2020
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पद, प्रतिष्ठा छोड़कर ,और छोड़कर उपाधियाँ ।
हाथ जोड़कर खड़े हैं वन,घन,नदी व वादियाँ ।।
मंदिर , मस्जिद , गुरुद्वारा , चर्च जाएँ बाद में ।
सबसे पहले पूजते हैं शहीदों की समाधियाँ ।।
कविता की चाहत
मैं नहीं चाहती सुनकर मुझको , कोई रूठा मुस्काए ।
मैं नहीं चाहती की महफिल की खुशियों में गाया जाए।।
मैं नहीं चाहती प्रशंसा कर , प्रेमिका को रिझाया जाए ।
मैं नहीं चाहती मंदिर में गा , हरि को हर्षाया जाए ।।
मैं नहीं चाहती भूले, भटके राहगीर को राह दिखलाऊँ ।
मैं नहीं चाहती पत्थर दिल को,मोम बनाकर पिंघलाऊँ।।
मैं नहीं चाहती कि हिंसक को ,पाठ प्रेम का सिखलाऊँ ।
मैं नहीं चाहती सहानुभूति दे , आँखों आँसू बरसाऊँ ।।
गा देना नफे सरहद पर जहाँ अड़े,खड़े हों वीर जवान ।
जिनके दम पर नींद चैन की सोता सारा हिंदुस्तान।।
मुझे गा देना जहाँ न पहुँचें , औहदे और उपाधियाँ ।
जिनकी यादों में खड़ी हों, गुम - शुम,मूक समाधियाँ ।।
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बिन सरहद के जिंदगी तो जीना ही बेकार है।
दंड कड़ा हो या बड़ा हो,
सब मुझको स्वीकार है।
बिन सरहद के जिंदगी तो,
जीना ही बेकार है।।
हाथों से हथियार छीन लो ,
रखेंगे न मर्जी से ।
रिश्ता गहरा मजहब पहरा ,
तम ,तूफान, सर्दी से ।।
खुदगर्जी में रिश्ता तोड़े ,
तो उसे धिक्कार है ।
बिन सरहद के जिंदगी तो ,
जीना ही बेकार है ।।
अपने सपने व जवानी ,
छोड़ा तब तो पाया ये ।
रिश्ते व फरिश्ते त्यागे,
पर इक नहीं गंवाया ये ।।
जो काम वतन के न आये ,
वह मानव मक्कार है ।
बिन सरहद के जिंदगी तो ,
जीना ही बेकार है ।।
महक -समीर ,नमी -नीर व ,
जख्म -पीर का जो नाता।
कुछ तो लौ में है ,किट जो ,
पागल हो प्राण गवाता ।।
सहास पास होने पर सिंह ,
जो करता न शिकार है ।
बिन सरहद के जिंदगी तो,
जीना ही बेकार है ।।
दुर्घटना , बीमारी , चिंता ,
अत्याधिक फिक्र हुआ ।
वो मारना भी क्या मरना ,
जिसका कहीं न जिक्र हुआ।।
मजहब पर मर कर अमर ,
आज होने का विचार है ।
बिन सरहद के जिंदगी तो ,
जीना ही बेकार है ।।
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
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जब याद गाँव की आती है
एकांत रात में सरहद पर,
जब याद गाँव की आती है।
सिसकी से खिसकीआँखों से,
सरिता स्वागत कर जाती है।।
कहती है वो याद गाँव की ,
अपनी ही सादी बोली में ।
क्या सीमा से समय मिलेगा,
तुम आ पाओगे होली में ।।
सुना है कि घुस्पैठियों संग,
व्यस्त हो आँख मिचोली में।
क्या तब भी न आ पाओगे,
जब बैठे बहना डोली में ।।
परम्परा या फर्ज निभाऊँ ,
ये ही तो चिंता खाती है ।
सिसकी से खिसकीआँखों से,
सरिता स्वागत करजाती है।।
शेर गाँव का सीना ताने ,
आज बर्फ के बीच खड़ा है।
नहीं हटूँगा कभी हटाया ,
दृढ़संकल्पी बना अड़ा है ।।
पता चला न कभी भी उसको,
किसके आगे कौन बड़ा है ?
देश कहे कि गाँव बड़ा है,
गाँव कहे की देश बड़ा है ।।
मकड़जाल में फँसा पड़ा मन,
वह बना बड़ा जज्बाती है।
सिसकी से खिसकीआँखों से,
सरिता स्वागत करजाती है।।
रिश्ता गाँवों की मिट्टी का ,
निंभा कोई नहीं पाता है ।
काबिल होने पर उठा बैग,
सब दौड़ शहर को जाता है।।
पर सरहद से औढ तिरंगा,
गाँव कभी कोई आता है ।
गर्व के मारे दिल भर जाता,
सीना चौड़ा हो जाता है ।।
है सरहद से गाँवों का नाता ,
मिली वहीं से ख्याति है ।
सिसकी से खिसकीआँखों से,
सरिता स्वागत करजाती है।।
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
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पग पग पर परेशानी प्यारे,
मत बाधाओं से डरना तू।
नया बना खुद अलग रास्ता,
मत पीछे पीछे चलना तू ।
मुसीबतों मुश्किलों को देख,
तू पथ में रखना घुटना मत।
नींद आराम आलस्य दुश्मन,
तू इन के आगे झुकना मत।।
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
जो दिखता है वो बिकता है
सुंदर पुष्प पिरो माला में ,
कहो किसे धागा दिखता है।
दुनिया की है रीत पुरानी ,
जो दिखता है वो बिकता है।।
कंधे ऊपर किल बेचारी ,
लेकर फोटो अडिग खड़ी है।
सब कहते वाह कितनी सुंदर,
कभी कील न नजर पड़ी है।।
स्याही हो कुर्बान पेज पर ,
बोलें सभी पैन लिखता है ।
दुनिया की है रीत पुरानी ,
जो दिखता है वो बिकता है।।
नीले अंबर पतंग पितम्बर ,
हवा के संग भरे हिलोरी ।
सब प्रशंसा करें पतंग कि ,
नहीं दिखती पतली डोरी।।
करतब करे कमाल आसमां,
किसे पता धागा खिचता है।
दुनिया की है रीत पुरानी ,
जो दिखता है वो बिकता है ।।
तेल साथ में जलकर बाती,
करती रोशनी तम भगाती।
सब कहते हैं दीपक जलता,
जबकि बाती बदन जलाती।।
बाती की ना पीड़ा जानी,
ध्यान सदा लौ पर टिकता है।
दुनिया की है रीत पुरानी ,
जो दिखता है वो बिकता है।।
खजूर देख सब करें अचम्भा ,
चली न चर्चा कभी जड़ों के।
सभी जीत का दावा करते ,
दुआ कभी ना दिखे बड़ों की।।
सब तारीफ करें झरने की,
बूंद --बूंद पानी रिश्ता है ।
दुनिया की है रीत पुरानी ,
जो दिखता है वो बिकता है।।
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
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दिनांक : 2 फरवरी 2020
विषय : न्याय
विधा : पद (छंदबद्ध कविता)
निर्भया की माँ रोती देखी
भारत माता भी भावुक होकर आज धैर्य खोती देखी ।
फुटपाथ पर फूट-फूटकर, निर्भया की माँ रोती देखी।।
वकील विपक्षी चैलेंज करें कि फाँसी नहीं होने देंगे ।
कोट , पैंट और टाई की हम हाँसी नहीं होने देंगे ।।
असहाय अकेली लज्जित माँ,आँसू से मुँह धोती देखी।
फुटपाथ पर फूट-फूटकर ,निर्भया की माँ रोती देखी ।।
बिना कुसूर पंख कटते हैं , उड़ते आकाश परिंदों के ।
जमीर जजों के बिके हुए, जो लेते पक्ष दरिंदों के ।।
गद्दार गोद में न्याय व्यवस्था सरेआम सोती देखी ।
फुटपाथ पर फूट-फूटकर निर्भया की माँ रोती देखी।।
घायल बीच सड़क पर बेटी, रोयी खूब राजधानी में।
सात साल तक न्याय मिला ना,कसर नहीं हैरानी में ।।
"आग लगा दी पानी में"वो ही बात सफल होती देखी।
फुटपाथ पर फूट-फूटकर निर्भया की माँ रोती देखी।।
बेटी बचाओ व पढ़ाओ , न्याय नारे की चीख माँगती ।
निर्भया की माँ झोली फैला,रो न्याय की भीख मांगती।।
भारत माता पोट पाप की ,सिर पर रखकर ढोती देखी ।
फुटपाथ पर फूट -फूटकर , निर्भया की माँ रोती देखी ।।
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित रचना
मौलिक"
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स्वागत है ऋतुराज का
झूम-झूमकर नाचे तितली,संगीत मधुकर की साज का।
पीली चुनरी ओढ़े धरती ,करती स्वागत ऋतुराज का।।
रंग बिरंगे फूल खिले हैं ,खेत , बाग सब महक रहे हैं ।
तीतर,मोर ,पपीहा ,तितली,शाखा -शाखा चहक रहे हैं।।
क्या कहूँ लिखा नहीं जाता,ये अद्भुत नजारा आज का ।
पीली चुनरी ओढ़े धरती ,करती स्वागत ऋतुराज का।।
जीव जंतु मानव सब प्राणी,जिक्र कर रहे हरियाली का।
बसंत ऋतु संदेशा लाई है धरती पर खुशहाली का ।।
पैदावार फ़सल की कहती,घर होगा भरा अनाज का ।
पीली चुनरी ओढ़े धरती ,करती स्वागत ऋतुराज का।।
सभी पुलकित वन,उपवन हुए,राग हवा ने दिया है छेड़।
मंद - मंद हँसती है कलियाँ ,फसलों के संग नाचें पेड़ ।।
अली कली को दे संदेशा,सभी खुशियों के आगाज का।
पीली चुनरी ओढ़े धरती ,करती स्वागत ऋतुराज का।।
मौसम में बदलाव हुआ है , नित बसंत ऋतु के आने में।
मधुमक्खियाँ वयस्त बहुत हैं,भँवरों संग आज गाने में।।
आनंद लेते सब वन्य प्राणी,इस मौसम खुशमिजाज का।
पीली चुनरी ओढ़े धरती ,करती स्वागत ऋतुराज का।।
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित रचना
मौलिक
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दर्द
तुझे तकलीफों का
तकिया कहूँ
या फिर....
दुख का दरवाजा
तेरे आने पर ही तो
पता चलता है
अपनों का
और ...
आराम की अहमियत का
तुझमें इतनी स्थिरता है
कि ...
मन की चंचलता भी
हार मान लेती है
ध्यान को भटकने का
मौका ही नहीं देते हो तुम
बैठा लेते हो
हाथ पकड़ कर
अपने पास ही
क्योंकि ....
तुम्हारे सिद्धांत ही
अटल हैं
नो के पहाड़े की तरह
आगे से पढ़ो
या पीछे से
किसी भी हाल में
अर्थ कभी
बदली हो ही नहीं सकता
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित रचना
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जख्म कसम में बाधक कैसे
जख्म कसम में बाधक कैसे?
देख नहीं मैं डर जाऊंगा ,
काम अधूरे बाकी काफी ,
ऐसे कैसे मर जाऊंगा ?
फर्ज करें फरियाद आज ये ,
सिर पर है सरहद का कर्जा।
जब तक इसे निभा न दूँगा ,
कैसे मिले शहीद का दर्जा ?
बेशक हाथ पैर कट जाएँ ,
फिर भी सागर तर जाऊंगा ।
काम अधूरे बाकी काफी ,
ऐसे कैसे मर जाऊंगा ?
नज़र टिकी दुश्मन चौकी पे,
जहाँ तिरंगा झंडा होगा।
एक हाथ से गोली दागूँ ,
दूजे परचम डण्डा होगा।।
जुनून जवानों के हृदय में ,
ठोक -ठोककर भर जाऊंगा ।
काम अधूरे बाकी काफी ,
ऐसे कैसे मर जाऊंगा ?
गिर पैरों में दर्द पुकारे ,
मैं पीघलूँगा न अर्जी से ।
तूफान तरु पर दया करे न,
वह रुकता अपनी मर्जी से।।
धड़कन धड़के ,नाड़ी फड़के,
कैसे कहो पसर जाऊंगा ?
काम अधूरे बाकी काफी,
ऐसे कैसे मर जाऊंगा ।।
हिंदुस्तान के दिल के ऊपर ,
मुझे अभी छाना है बाकी।
पहले पेज छपी फोटो पर ,
सबको हर्षाना है बाकी ।।
देश दुनिया में मां -बाप का ,
नाम अमर मैं कर जाऊंगा ।
काम अधूरे बाकी काफी,
ऐसे कैसे मर जाऊंगा ?
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
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दिनांक : 13 जनवरी 2020
वार : सोमवार
विशेष : परिस्थिति
विधा: पद (छंदबद्ध कविता)
उपजे_उर से उम्मीद उमंग
जुनून जीत का जिद्दी होकर,जज्बातों संग लड़ता जंग।
विजय विरासत बने बशर्ते,उपजे उर से उम्मीद उमंग।।
हालातों को हरा हराकर , हिम्मत हृदय की बढ़ती है ।
बैठा जहन में ये ही बात ,चट्टानों चींटी चढ़ती है ।।
वजन बदन से ज्यादा होता, पहुँचे मंजिल पाकर तंग ।
विजय विरासत बने बशर्ते,उपजे उर से उम्मीद उमंग।।
दुर्गम पथ है ,दूर पथिक है ,पथ फिर भी पैरों के नीचे ।
इम्तिहान ले बोझ बैल का ,कर बर्दाश्त दर्द रथ खींचे।।
मंजिल को पाने की चाहत ,कर देती है सभी को दंग ।
विजय विरासत बने बशर्ते,उपजे उर से उम्मीद उमंग।।
भाग्य भागे कर्म के पीछे , कर्म रहे मेहनत के पास ।
मेहनत मोहताज निष्ठा की,निष्ठा काबिलियत की दास ।।
काबिलियत में कमी एक ही,बिनअवसर के होती अपंग।
विजय विरासत बने बशर्ते ,उपजे उर से उम्मीद उमंग ।।
कैसे बिंब दर्शाए दर्पण ,जब तक साफ करो नहीं धूल ।
हु-ब-हू फतेह की फितरत ,भूल कर न दोहराओ भूल ।।
'नफे' भूल है भयंकर बिच्छू , काटता उसे रहे जो संग ।
विजय विरासत बने बशर्ते , उपजे उर से उम्मीद उमंग।।
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित कविता
मौलिक
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दिनांक 18 दिसंबर 2019
विषय : सलाह / सुझाव
विधा : पद (छंदबद्ध कविता)
योग करो रहो तंदुरुस्त
व्यस्त रहोगे, स्वस्थ रहोगे ,
देता आज मशवरा मुफ्त।
सौ बातों की बात एक है ,
योग करो रहो तंदुरुस्त ।।
जीवन में है खिचम खिंचाई ,
सब लेते हर रोज दवाई।
रोगों से यूँ लड़ते - लड़ते,
सारी जिंदगी व्यर्थ गवायी।।
हम बनें रहे सदा अज्ञानी,
नहीं समय की कीमत जानी।
दशा नशे ने ऐसी कर दी ,
दे दी यौवन की कुर्बानी ।।
अब भी वक्त है सोच समझलो,
बचा बुढ़ापा करलो दुरुस्त।
सौ बातों की बात एक है ,
योग करो रहो तंदुरुस्त।।
कब खाना है , क्या खाना है ,
कितना खाना ,कितनी बार?
किसके संग में,क्या खाना है,
क्या नहीं खाना किस के बाद?
जब तक इसका ज्ञान न होता ,
देख कभी आराम न होता।
बकरी की ज्यों खाने से ,
कभी कोई पहलवान ना होता ।।
कर लो वादा , खाएँ सादा ,
तले , भुने से हो कर मुक्त ।
सौ बातों के बाद एक है ,
योग करो रहो तंदुरुस्त ।।
शुद्ध हवा माहौल शांत बिन ,
कभी न मन को मिलता चैन ।
बुद्धि को विद्या मिले खाना ,
और आँखों को निंद्रा रैन ।।
बरसे दिल सहयोग, सहायता ,
भरता जो तन मन में ताकत।
स्वच्छ सोच उपज हो उर की,
ये ही योग की अलग नजाकत।।
आसन , प्राणायाम ,ध्यान से ,
मार आलस्य करो तन चुस्त ।
सौ बातों की बात एक है ,
योग करो रहो तंदुरुस्त ।।
आँखों पर सम्मान बिठाकर ,
मानवता की सैर कराए।
बौध्दिकता में नैतिकता भर ,
शिक्षा संग संस्कार सजाए।।
कर में थमाँ ज्ञान का दीपक ,
भटकों को यह राह दिखाए।
मन से मारे क्रोध और घृणा ,
सबको प्रेम पाठ सिखाए ।।
करे नफरत नष्ट"नफे" नर की ,
योग विद्या में होकर लुप्त ।
सौ बातों की बात एक है ,
योग करो रहो तंदुरुस्त ।।
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित कविता
मौलिक
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दिनांक : 17.12.2019
विषय : घटना
विधा : पद (छंदमुक्त कविता)
तैयार रहना
जब बिना प्रयास
परिश्रम
त्याग व तकलीफ के
कुछ भी हासिल होता हो
जब जिंदगी
अत्यधिक आराम
मौज ,मस्ती
व नींद के दौर से गुजर रही हो
जब मुफ्त का मिलने पर
खुशी मिलती हो
बिना संघर्ष किये
नाम व सौहरत प्राप्त होता हो
जब सफलता के मार्ग में
ठोकरों से स्वागत नहीं होता हो
तो याद रखना
सब कुछ विपरीत चल रहा है
तैयार रहना
कभी भी
कहीं भी
कोई भी
घटना घटित हो सकती है
जिसे....
हमेशा दुर्भाग्य समझा जाता है
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित कविता
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विषय : आक्रोश
. वेदना से चेतना
सुरक्षित नारी जाति नहीं , देश के किसी भी कोने में।
लूटे आबरू सरे आम चौराहे बचा ही क्या खोने में ।।
सब बने भेड़िए कामुक भूखे , शर्म नहीं है आँखों में ।
पता है उन्हें कुछ नहीं होगा,मिलती मौज सलाखों में।।
महाभारत कि आज द्रोपती, खड़ी है नंगी लाखों में ।
कायर हैं सब देखने वाले ,नहीं है कोई माँ का लाल ।
बनके कृष्ण,उठाके कपड़ा ढकदे सिर के बिखरे बाल।
तो कैसे भारत हो खुशहाल, कैसे भारत हो खुशहाल।।
ये वो हिंदुस्तान जहाँ पर ,जान शान पर वारी जाती ।
भ्रष्ट हो गई बुद्धि सबकी , कोख में बेटी मारी जाती ।।
पेट के अंदर और बाहर भी , निर्दोषी वह जुर्म सहे ।
लज्जा व शर्म की मारी न हाल किसी को कभी कहे ।।
ये जिंदे मुर्दे नहीं जानेंगे क्यों उन आँखों से नीर बहे ?
भीड़ में कोई मारके सिटी जब उल्टी-सीधी बात कहे।
सब सुनने वाले मरे हुए जो न लें सिर पर कोई बवाल ।
तो कैसे भारत हो खुशहाल, कैसे बाहर हो खुशहाल।।
मैं हूँ इक साधारण नारी , कैसे सीता बन दिखलाऊँ ?
चोर खड़े हर चौराहे पर , बचकर कैसे घर को जाऊँ??
कोई भी ना जगह सुरक्षित , नहीं जहाँ पर घात लगी है ।
जिक्र फिक्र में होते मेरे ,जब - जब होने रात लगी है ।।
सब मौके की ताक में बैठे , सोच - सोचकर दंग रहजाऊँ।
चोर खड़े हर चौराहे पर , बचकर कैसे घर को जाऊँ ??
लेखन में नारी को कहते कि प्रेम की ये साकार मूर्ति ।
पर देखन में भाव अलग हैं , तिरछी नजर कटार घूरती।।
जगह - जगह जहरीले बिच्छू , कैसे अपनी जान बचाऊँ ?
चोर खड़े हर चौराहे पर , बचकर कैसे घर को जाऊँ ??
बची कोंख से , फँसी प्रेमछल और ऊपर से दहेज दानवी।
उत्पीड़न की पीड़ पचासों , बींध गए दिल तीर मानवी ।।
काँटों भरी कंटीली राही , कैसे आगे कदम बढ़ाऊँ ?
चोर खड़े हर चौराहे पर , बचकर कैसे घर को जाऊँ ??
बेटी बचाओ लिखते हैं सब , कार्ड और परिवहनों पर ।
अपने हाथों आप तमाचा , मारते अपनी बहनों पर ।।
इतनी नीचे सोच गिरी है , कैसे ऊपर कहो उठाऊँ ?
चोर खड़े हर चौराहे पर ,बचकर कैसे घर को जाऊँ??
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
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विषय : कुर्सी
विधा: पद (ग़ज़ल)
कुर्सी
ये कितनी झूठ बुलाती है ।
सब की आँखें खुलवाती है।।
दुश्मन मजदूर, किसानों की ।
बिन खाए रोज सुलाती है ।।
मतलब की बात करो केवल।
बस बात यही बतलाती है ।।
जब गर्ज गधे को बाप कहो ।
यह खोल इसे समझाती है ।।
केवल सत्ता हथियाने को ।
नित दाव नये सिखलाती है।।
काबू गर कोई ना आए ।
धोखे का पाठ पढ़ाती है ।।
पढ़ने-लिखने का काम नहीं।
अनपढ़ रुजगार दिलाती है।।
बहला-फुसलाकर पल में ये।
वादों की झड़ी लगाती है ।।
न नफे कोई प्यारा इसको ।
रिश्तों को रोज जलाती है ।।
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित रचना
मौलिक
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25.11.2019
विषय: सबक,सीख
विधा : पद (छंदबद्ध कविता)
तू हालातों में ढलता चल
ले आशा की चिंगारी दिल,
बिन थके निरंतर चलता चल।
चूमें चरण सफलता साथी,
तू हालातों में ढलता चल ।।
चुने चोंच से तिनका चिड़िया,
उड़-उड़कर रखती शाखा पर।
कहे अरमानों का आशियाना ,
बनता है केवल आशा पर ।
हिला घोंसला गिरा जमीन पर ,
आया तेज हवा का झोंका ।
कहती चिड़िया मुझे मिला है ,
और ठीक बुनने का मौका ।
नहीं निराशा आये मन में ,
सदा हँसी-खुशी उछलता चल।
चूमें चरण सफलता साथी ,
तू हालातों में ढलता चल ।।
पथ का साथी बनकर जिसने ,
खुद तन,मन तुझे भरोसा था।
गर छोड़ गया मझधार बीच ,
समझ की तुम पर भरोसा था।
पता उसे तेरी ताकत का ,
न तुझे जरूरत सहारे की ।
कभी रुक न सकती वो कश्ती,
है जिसको लगन किनारे की ।
न दोष लगा उस साथी को ,
मत भावों में तू पिघलता चल ।
चूमें चरण सफलता साथी ,
तू हालातों में ढलता चल ।।
मानों एहसां उस पत्थर का ,
जो ठोकरें बनकर लगा तुम्हें ।
एहसास कराकर गलती का ,
ठीक वक्त दिया जगा तुम्हें ।
गिरकर उठ संभल कर चलना,
उस ठोकर ने सीखलाया है ।
लक्ष्य कितना दूर है तुमसे ,
उसने तुम्हें बतलाया है ।
गलती से मत गलती करना ,
तू खुद ही खुद संभलता चल।
चूमें चरण सफलता साथी,
तू हालातों में ढलता चल ।।
एक-एक पल बचा-बचाकर ,
वक्त को सख्त बना लो तुम ।
प्रशिक्षण में बहाकर पसीना ,
युद्धों में रक्त बचा लो तुम ।
इक- इक सिक्का डालने से,
एक दिन गुल्लक भर जाती है।
आवाज उठे जब मिल सबकी,
सिंह की सूरत डर जाती है ।
मत नखरे नफरत करो नफे,
तू परेशानियों में पलता चल।
चूमें चरण सफलता साथी ,
तू हालातों में ढलता चल ।।
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित कविता
मौलिक
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दिनांक : 23.11.2019
विषय: प्यार
विधा: पद (छंदबद्ध कविता)
ये प्यार नहीं तो क्या है यार !...
सब मौत हाथ में लेकर चलते,
बस बचते हैं घायल दो- चार ।
जलते दीप पर मंडराते ,
प्यार में पागल पतंग हजार ।।
है पता उन्हें जलकर मरना ,
फिर भी नहीं जान से प्यार ।
ये प्यार नहीं तो क्या है यार,
ये प्यार नहीं तो क्या है यार ??
कल्पना,करुणा की कवि कलम,
भावनाओं को जब करे सलाम।
सुर से करे साधना गायक ,
रियाज करे सुबह और शाम ।।
बाहर चोट अंदर सहला ,
माट्टी से मटका गढ़े कुम्हार ।
ये प्यार नहीं तो क्या है यार ,
ये प्यार नहीं तो क्या है यार ??
इक चीरे सीना धरती का ,
सोना उपजाए पकड़ लगाम ।
इक खुश हो कुर्बान देश पे,
झुक भारत माँ को करे सलाम ।।
इक पीट - पीटकर लोहे को ,
मेहनत बल बुनता औजार ।
ये प्यार नहीं तो क्या है यार ,
ये प्यार नहीं तो क्या है यार ??
तपा - तपा अग्नी में सोना ,
सुनार सँजोए सुंदर हार ।
मूरत के मुख से बुलवाता ,
ब्रूश के दम पर चित्रकार ।।
आपस में दो दिलों के अंदर ,
होता सुख - दुख का व्यापार ।
ये प्यार नहीं तो क्या है यार ,
ये प्यार नहीं तो क्या है यार ??
इक हाथ माँ लिये है बच्चा ,
दुख सह दूजे से काम करें ।
पिता वंचित पर बच्चों खातिर ,
सुविधाएँ पूरी तमाम करें ।।
थके हुए को देकर हौसला ,
गुरु जोश भर करता तैयार ।
ये प्यार नहीं तो क्या है यार ,
ये प्यार नहीं तो क्या है यार ??
इक पल की ना सहन जुदाई ,
दूरी कर देती है बुरा हाल।
विरह सिसकियाँ बंद न होती ,
गिरते आँसू भीगते गाल।।
बेवश मन हरहाल में चाहे ,
आँखों ही आँखों इजहार ।
ये प्यार नहीं तो क्या है यार ,
ये प्यार नहीं तो क्या है यार ??
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
विषय: प्यार
विधा: पद (छंदबद्ध कविता)
ये प्यार नहीं तो क्या है यार !...
सब मौत हाथ में लेकर चलते,
बस बचते हैं घायल दो- चार ।
जलते दीप पर मंडराते ,
प्यार में पागल पतंग हजार ।।
है पता उन्हें जलकर मरना ,
फिर भी नहीं जान से प्यार ।
ये प्यार नहीं तो क्या है यार,
ये प्यार नहीं तो क्या है यार ??
कल्पना,करुणा की कवि कलम,
भावनाओं को जब करे सलाम।
सुर से करे साधना गायक ,
रियाज करे सुबह और शाम ।।
बाहर चोट अंदर सहला ,
माट्टी से मटका गढ़े कुम्हार ।
ये प्यार नहीं तो क्या है यार ,
ये प्यार नहीं तो क्या है यार ??
इक चीरे सीना धरती का ,
सोना उपजाए पकड़ लगाम ।
इक खुश हो कुर्बान देश पे,
झुक भारत माँ को करे सलाम ।।
इक पीट - पीटकर लोहे को ,
मेहनत बल बुनता औजार ।
ये प्यार नहीं तो क्या है यार ,
ये प्यार नहीं तो क्या है यार ??
तपा - तपा अग्नी में सोना ,
सुनार सँजोए सुंदर हार ।
मूरत के मुख से बुलवाता ,
ब्रूश के दम पर चित्रकार ।।
आपस में दो दिलों के अंदर ,
होता सुख - दुख का व्यापार ।
ये प्यार नहीं तो क्या है यार ,
ये प्यार नहीं तो क्या है यार ??
इक हाथ माँ लिये है बच्चा ,
दुख सह दूजे से काम करें ।
पिता वंचित पर बच्चों खातिर ,
सुविधाएँ पूरी तमाम करें ।।
थके हुए को देकर हौसला ,
गुरु जोश भर करता तैयार ।
ये प्यार नहीं तो क्या है यार ,
ये प्यार नहीं तो क्या है यार ??
इक पल की ना सहन जुदाई ,
दूरी कर देती है बुरा हाल।
विरह सिसकियाँ बंद न होती ,
गिरते आँसू भीगते गाल।।
बेवश मन हरहाल में चाहे ,
आँखों ही आँखों इजहार ।
ये प्यार नहीं तो क्या है यार ,
ये प्यार नहीं तो क्या है यार ??
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
विषय : जिम्मेदारी
विधा : छंदबद्ध कविता
. पता नहीं कब पहल करोगे
ढेर , ईंट, सीमेंट , रेत का ,
कहो खड़ा कब महल करोगे।
फिर-फिर कहकर फिरते रहते,
पता नहीं कब पहल करोगे ।।
लंगड़े भी तो दौड़ रहे थे
लेकर अपने दर्द पाँव में
पेड़ अगर बोता बचपन में
बैठा होता आज छाँव में
नहीं बैठकर मिलती मंजिल ,
पहुँचोगे जब, टहल करोगे।
फिर-फिर कहकर फिरते रहते,
पता नहीं कब पहल करोगे ।।
पहल हमेशा करता वो ही ,
होता जो आत्मविश्वासी ।
रखता जो तैयार योजना ,
नहीं साथ में नींद उदासी ।
पता नहीं कब दिलो,जुबां पर,
तुम भी चहल-पहल करोगे ।
फिर-फिर कहकर फिरते रहते,
पता नहीं कब पहल करोगे
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित कविता
मौलिक
विधा : छंदबद्ध कविता
. पता नहीं कब पहल करोगे
ढेर , ईंट, सीमेंट , रेत का ,
कहो खड़ा कब महल करोगे।
फिर-फिर कहकर फिरते रहते,
पता नहीं कब पहल करोगे ।।
लंगड़े भी तो दौड़ रहे थे
लेकर अपने दर्द पाँव में
पेड़ अगर बोता बचपन में
बैठा होता आज छाँव में
नहीं बैठकर मिलती मंजिल ,
पहुँचोगे जब, टहल करोगे।
फिर-फिर कहकर फिरते रहते,
पता नहीं कब पहल करोगे ।।
पहल हमेशा करता वो ही ,
होता जो आत्मविश्वासी ।
रखता जो तैयार योजना ,
नहीं साथ में नींद उदासी ।
पता नहीं कब दिलो,जुबां पर,
तुम भी चहल-पहल करोगे ।
फिर-फिर कहकर फिरते रहते,
पता नहीं कब पहल करोगे
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित कविता
मौलिक
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दिनांक : 14.11.2019
विधा: कविता
बच्चे का नाम: मोहित कुमार मालड़ा
कक्षा: दसवीं
शीर्षक: वो सिर्फ मेरी माँ ही है
वो सिर्फ मेरी माँ ही है
जिसको मैंने
सबसे ज्यादा
दुख, दर्द दिये
और जिसने मेरे लिए
सबसे ज्यादा
दुख , दर्द
हँस-हँसकर सहे
वो सिर्फ मेरी माँ ही है
जो कहती है कि...
मैं तुमसे बहुत नाराज हूँ
नहीं बोलूँगी तुमसे
कह कर अगले ही पल ...
चुपचाप खाना खा ले नहीं तो पिटेगा
कहने वाली
सिर्फ मेरी माँ ही है
तीन तक गिनती गिनूँगी
अगर नहीं आया तो ....
कभी नहीं बुलाऊँगी
और अगले ही पल
एक .. डेढ़... पोने दो ....
से गिनती बढ़ाने वाली
सिर्फ मेरी माँ ही है
मेरी सबसे ज्यादा
परवाह करने वाली
चोट लगने पर
मेरे से भी ज्यादा
दर्द महसूस करने वाली
और "तेरे बगैर मैं कैसे रहती"
कहने वाली
सिर्फ मेरी माँ ही है
मेरी खुशी पर
सबसे अधिक खुश होने वाली
मेरे लिए
पिताजी से भी लड़ने वाली
और जब कोई
मेरा विश्वास नहीं करें
तब मैं हूँ ना तेरे साथ
कहने वाली
सिर्फ मेरे माँ ही है
मोहित कुमार मालड़ा ©
स्वरचित कविता
मौलिक
विधा: कविता
बच्चे का नाम: मोहित कुमार मालड़ा
कक्षा: दसवीं
शीर्षक: वो सिर्फ मेरी माँ ही है
वो सिर्फ मेरी माँ ही है
जिसको मैंने
सबसे ज्यादा
दुख, दर्द दिये
और जिसने मेरे लिए
सबसे ज्यादा
दुख , दर्द
हँस-हँसकर सहे
वो सिर्फ मेरी माँ ही है
जो कहती है कि...
मैं तुमसे बहुत नाराज हूँ
नहीं बोलूँगी तुमसे
कह कर अगले ही पल ...
चुपचाप खाना खा ले नहीं तो पिटेगा
कहने वाली
सिर्फ मेरी माँ ही है
तीन तक गिनती गिनूँगी
अगर नहीं आया तो ....
कभी नहीं बुलाऊँगी
और अगले ही पल
एक .. डेढ़... पोने दो ....
से गिनती बढ़ाने वाली
सिर्फ मेरी माँ ही है
मेरी सबसे ज्यादा
परवाह करने वाली
चोट लगने पर
मेरे से भी ज्यादा
दर्द महसूस करने वाली
और "तेरे बगैर मैं कैसे रहती"
कहने वाली
सिर्फ मेरी माँ ही है
मेरी खुशी पर
सबसे अधिक खुश होने वाली
मेरे लिए
पिताजी से भी लड़ने वाली
और जब कोई
मेरा विश्वास नहीं करें
तब मैं हूँ ना तेरे साथ
कहने वाली
सिर्फ मेरे माँ ही है
मोहित कुमार मालड़ा ©
स्वरचित कविता
मौलिक
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नमन भावों के मोती
दिनांक: 07.11.2019
विषय: कोशिश
विधा: पद (छंदबद्ध कविता)
. इक कोशिश तो करके देखो
दिल में दबोच इक नई सोच,
अंदाज अलग चलके देखो।
खड़ी किनारे,जीत निहारे,
इक कोशिश तो करके देखो।।
क्या मैं भी ये कर पाऊँगा ,
ऐसी बातें क्यों करते हो ?
भीड़,पीड़ से ऊपर आओ,
गिरने से तुम क्यों डरते हो ?
बनो गुब्बारा,उठो दोबारा ,
फिर जोश भरो उड़के देखो।
खड़ी किनारे जीत निहारे ,
इक कोशिश तो करके देखो।।
सहज न डूबे सागर में भी ,
इक उम्मीद सहारा जिनका ।
आशा की आदत है आखिर ,
देता लगा किनारा तिनका ।
कूदो,खड़े न सोचो तट पर,
तुम तरण ताल तरके देखो ।
खड़ी किनारे जीत निहारे ,
इक कोशिश तो करके देखो ।।
जीत - हार ,लाभ और हानि ,
निश्चय ही निश्चित करता है ।
पहलवान पहल करे पहले ,
मुश्किल को भी चित्त करता है ।।
बाँध के नाड़ा ,कूद अखाड़ा,
तुम भी कुश्ती लड़के देखो ।
खड़ी किनारे जीत निहारे ,
इक कोशिश तो करके देखो।।
संभावना में भावना हो तो ,
संभव होने में देर नहीं ।
मात मौत को दे सकते हो ,
साहस से बढ़कर शेर नहीं।
बस एक दफे तुम सुनो नफे ,
इक बार जोश भरके देखो ।
खड़ी किनारे जीत निहारे,
इक कोशिश तो करके देखो।।
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित रचना
मौलिक
दिनांक: 07.11.2019
विषय: कोशिश
विधा: पद (छंदबद्ध कविता)
. इक कोशिश तो करके देखो
दिल में दबोच इक नई सोच,
अंदाज अलग चलके देखो।
खड़ी किनारे,जीत निहारे,
इक कोशिश तो करके देखो।।
क्या मैं भी ये कर पाऊँगा ,
ऐसी बातें क्यों करते हो ?
भीड़,पीड़ से ऊपर आओ,
गिरने से तुम क्यों डरते हो ?
बनो गुब्बारा,उठो दोबारा ,
फिर जोश भरो उड़के देखो।
खड़ी किनारे जीत निहारे ,
इक कोशिश तो करके देखो।।
सहज न डूबे सागर में भी ,
इक उम्मीद सहारा जिनका ।
आशा की आदत है आखिर ,
देता लगा किनारा तिनका ।
कूदो,खड़े न सोचो तट पर,
तुम तरण ताल तरके देखो ।
खड़ी किनारे जीत निहारे ,
इक कोशिश तो करके देखो ।।
जीत - हार ,लाभ और हानि ,
निश्चय ही निश्चित करता है ।
पहलवान पहल करे पहले ,
मुश्किल को भी चित्त करता है ।।
बाँध के नाड़ा ,कूद अखाड़ा,
तुम भी कुश्ती लड़के देखो ।
खड़ी किनारे जीत निहारे ,
इक कोशिश तो करके देखो।।
संभावना में भावना हो तो ,
संभव होने में देर नहीं ।
मात मौत को दे सकते हो ,
साहस से बढ़कर शेर नहीं।
बस एक दफे तुम सुनो नफे ,
इक बार जोश भरके देखो ।
खड़ी किनारे जीत निहारे,
इक कोशिश तो करके देखो।।
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित रचना
मौलिक
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नमन भावों के मोती
दिनांक: 05.11.2019
विधा: पद (छंदमुक्त कविता)
विषय: परिवेश
पनपते राक्षस
हाथ में मोबाइल
सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम
पढ़ा लिखा समाज
और आधुनिक सोच
होने के बावजूद भी ...
जब सूर्य की रोशनी
धुंधली पड़ने लगती है
धीरे-धीरे अंधेरा
पैर पसारने लगता है
गगन के पक्षी जब ...
वापस घोंसलों की ओर
उड़ान भरते हैं
तब....
एक चिंतित पिता
बार-बार घड़ी देखकर
शहर से आने वाली
आखिरी बस का
टकटकी लगाकर
ऐसे इंतजार करता है जैसे...
घायल लक्ष्मण के लिए
श्री राम हनुमान के आने का
क्योंकि... हर रोज
नई-नई बढ़ती
दुष्कर्म और उत्पीड़न की खबरें
उसकी शांति को छीन लेती हैं
विश्वास को अधमरा कर देती हैं
दुश्मन की गोलियों से बचना
आसान है पर...
जहर उगलती कामुक
भूखी नजरों से बचना
बहुत मुश्किल है
वह बस से उतरने वाली
हर एक सवारी को
ऐसे निहारता है जैसे...
गरीब भिखारी
गिनती करते समय सिक्कों को
सहसा बस से उतरती
बेटी को देख ...
उसका चिंतित चेहरा
ऐसे खिल उठता है जैसे...
बड़े होते हुए दीए में
घी ढल गया हो
क्योंकि...
उसे पता है कि...
अच्छे संस्कारों के सिवाय
बेटी को सम्मान
और सुरक्षा पाना
मरुस्थल में
बारिश के पानी को
इकट्ठा करने के बराबर है
वह जानता है कि...
दम तोड़ते संस्कार
बेटियों के लिए
बढ़ता हुआ खतरा है
और ...अकेली शिक्षा
बेचारी असमर्थ है
इस मामले में
तभी तो पनप रहे हैं
इसी डर से
भ्रूण हत्यारे व
दानवी दहेज रूपी राक्षस
घरों में
बचे तो कैसे बचे ???
बेचारी बच्ची
सैकड़ों राक्षसों से
इसलिए ...एक पिता
बच्ची को लेकर तनाव में रहता
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित रचना
मौलिक
दिनांक: 05.11.2019
विधा: पद (छंदमुक्त कविता)
विषय: परिवेश
पनपते राक्षस
हाथ में मोबाइल
सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम
पढ़ा लिखा समाज
और आधुनिक सोच
होने के बावजूद भी ...
जब सूर्य की रोशनी
धुंधली पड़ने लगती है
धीरे-धीरे अंधेरा
पैर पसारने लगता है
गगन के पक्षी जब ...
वापस घोंसलों की ओर
उड़ान भरते हैं
तब....
एक चिंतित पिता
बार-बार घड़ी देखकर
शहर से आने वाली
आखिरी बस का
टकटकी लगाकर
ऐसे इंतजार करता है जैसे...
घायल लक्ष्मण के लिए
श्री राम हनुमान के आने का
क्योंकि... हर रोज
नई-नई बढ़ती
दुष्कर्म और उत्पीड़न की खबरें
उसकी शांति को छीन लेती हैं
विश्वास को अधमरा कर देती हैं
दुश्मन की गोलियों से बचना
आसान है पर...
जहर उगलती कामुक
भूखी नजरों से बचना
बहुत मुश्किल है
वह बस से उतरने वाली
हर एक सवारी को
ऐसे निहारता है जैसे...
गरीब भिखारी
गिनती करते समय सिक्कों को
सहसा बस से उतरती
बेटी को देख ...
उसका चिंतित चेहरा
ऐसे खिल उठता है जैसे...
बड़े होते हुए दीए में
घी ढल गया हो
क्योंकि...
उसे पता है कि...
अच्छे संस्कारों के सिवाय
बेटी को सम्मान
और सुरक्षा पाना
मरुस्थल में
बारिश के पानी को
इकट्ठा करने के बराबर है
वह जानता है कि...
दम तोड़ते संस्कार
बेटियों के लिए
बढ़ता हुआ खतरा है
और ...अकेली शिक्षा
बेचारी असमर्थ है
इस मामले में
तभी तो पनप रहे हैं
इसी डर से
भ्रूण हत्यारे व
दानवी दहेज रूपी राक्षस
घरों में
बचे तो कैसे बचे ???
बेचारी बच्ची
सैकड़ों राक्षसों से
इसलिए ...एक पिता
बच्ची को लेकर तनाव में रहता
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित रचना
मौलिक
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दिनांक:03.11.2019
विधा : पद (छंदमुक्त कविता)
नहीं कभी नहीं
मानते हैं कि...
चिड़ियाघर में बंद शेर
शिकार करना भूल जाता है
और ....
कारागार में बंद कैदी
विचार करना भूल जाता है
क्या कभी सुना है
कि ...वृद्ध आश्रम में
बंद कोई माता-पिता
प्यार करना भूल जाता है
नहीं ... कभी नहीं
जिस प्रकार जमीन
अनाज पैदा करना
नहीं भूलती
ठीक उसी प्रकार
ममता भी
प्यार करना नहीं भूलती
इसलिए...
ममता का मान करो
दिल से सम्मान करो
मात-पिता घर की शोभा हैं
इस बात का भी ध्यान करो
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित रचना
मौलिक
विधा : पद (छंदमुक्त कविता)
नहीं कभी नहीं
मानते हैं कि...
चिड़ियाघर में बंद शेर
शिकार करना भूल जाता है
और ....
कारागार में बंद कैदी
विचार करना भूल जाता है
क्या कभी सुना है
कि ...वृद्ध आश्रम में
बंद कोई माता-पिता
प्यार करना भूल जाता है
नहीं ... कभी नहीं
जिस प्रकार जमीन
अनाज पैदा करना
नहीं भूलती
ठीक उसी प्रकार
ममता भी
प्यार करना नहीं भूलती
इसलिए...
ममता का मान करो
दिल से सम्मान करो
मात-पिता घर की शोभा हैं
इस बात का भी ध्यान करो
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित रचना
मौलिक
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विषय : दीपावाली
विधा : पद ( छंदबद्ध कविता)
आओ मिलकर दीप जलाएँ
फैला जग में तिमिर बहुत है,
आओ मिल सब दीप जलाएँ ।
लक्ष्मी पूजन और दिवाली ,
मिलजुलकर हम साथ मनाएँ।
पहला दीया शहीदों हेतु ,
हर घर में प्रज्वलित होगा ।
त्याग व बलिदान का सूचक ,
लक्ष्मी माँ को अर्पित होगा।।
नाम शहीदों का लेकर हम ,
आओ मन ही मन हर्षाएँ ।
लक्ष्मी पूजन और दिवाली ,
मिलजुलकर हम साथ मनाएँ।
गरीब झोपड़ी में एक दीया ,
जाकर आज जलाना होगा।
पर्व प्यार की है परिभाषा ,
दे उपहार बताना होगा ।
तोड़ के बंधन जात-पात के,
सीमाओं से दूर भगाएँ ।
लक्ष्मी पूजन और दिवाली ,
मिलजुलकर हम साथ मनाएँ।
एक दीप घर के दरवाजे ,
मात-पिता के नाम का होगा।
संस्कार , मर्यादा मन में ,
सेवा और सम्मान का होगा ।
मात-पिता हों घर की शोभा ,
आओ मिल हम प्यार जताएँ।
लक्ष्मी पूजन और दिवाली ,
मिलजुलकर हम साथ मनाएँ।
एक दीया मन के मंदिर में ,
हम पक्का आज जलाएँगे।
रंजिश,नफरत,हीन भावना,
जड़ से हम आज मिटायेंगे।
क्षमा दान व माफी देकर ,
आओ सबको गले लगाएँ ।
लक्ष्मी पूजन और दिवाली ,
मिलजुलकर हम साथ मनाएँ।
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित रचना
मौलिक
विधा : पद ( छंदबद्ध कविता)
आओ मिलकर दीप जलाएँ
फैला जग में तिमिर बहुत है,
आओ मिल सब दीप जलाएँ ।
लक्ष्मी पूजन और दिवाली ,
मिलजुलकर हम साथ मनाएँ।
पहला दीया शहीदों हेतु ,
हर घर में प्रज्वलित होगा ।
त्याग व बलिदान का सूचक ,
लक्ष्मी माँ को अर्पित होगा।।
नाम शहीदों का लेकर हम ,
आओ मन ही मन हर्षाएँ ।
लक्ष्मी पूजन और दिवाली ,
मिलजुलकर हम साथ मनाएँ।
गरीब झोपड़ी में एक दीया ,
जाकर आज जलाना होगा।
पर्व प्यार की है परिभाषा ,
दे उपहार बताना होगा ।
तोड़ के बंधन जात-पात के,
सीमाओं से दूर भगाएँ ।
लक्ष्मी पूजन और दिवाली ,
मिलजुलकर हम साथ मनाएँ।
एक दीप घर के दरवाजे ,
मात-पिता के नाम का होगा।
संस्कार , मर्यादा मन में ,
सेवा और सम्मान का होगा ।
मात-पिता हों घर की शोभा ,
आओ मिल हम प्यार जताएँ।
लक्ष्मी पूजन और दिवाली ,
मिलजुलकर हम साथ मनाएँ।
एक दीया मन के मंदिर में ,
हम पक्का आज जलाएँगे।
रंजिश,नफरत,हीन भावना,
जड़ से हम आज मिटायेंगे।
क्षमा दान व माफी देकर ,
आओ सबको गले लगाएँ ।
लक्ष्मी पूजन और दिवाली ,
मिलजुलकर हम साथ मनाएँ।
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित रचना
मौलिक
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
दिनांक: 22.10.2019
विधा : पद (छंदबद्ध कविता)
विषय आधारित रचना
शीर्षक-" पंछी"
काश! अगर मैं पंछी होता
खुला आसमां मेरा होता ,
सुखमय रैन बसेरा होता ।
चूमें ऊँचे पेड़ गगन को ,
शाखाओं पर डेरा होता ।
काश!अगर मैं पंछी होता।।
मनमौजी बन मन की करता,
तजकर दिल से रंज व रंजिश।
न कोई होती हद व सरहद ,
न कोई बाधा, बंधन, बंदिश ।
काश !अगर मैं पंछी होता है।।
प्रकृति की गोद में खेलूँ ,
लूँ मनोहर, मोहक नजारा।
आकर्षक आवाज लोहानी,
सुंदरता का करूँ इशारा ।
काश ! अगर मैं पंछी होता।।
पनपे नहीं प्रेम से पीड़ा ,
लेकर देश ,धर्म, जाति को।
एक जैसा सबको चाहता ,
जितना संबंधी नाती को ।
काश !अगर मैं पंछी होता।।
बस मेहनत बलबूता होता ,
लगाम कभी न लगे लगन पे।
उड़ता पंखों को फैलाकर ,
राज करूँ मैं नील गगन पर ।
काश !अगर मैं पंछी होता ।।
चिंता मुक्त चेतना चित में ,
उर आजाद करे नभ विचरण।
हिला - हिलाकर पंख बुलाता ,
मुक्त प्यार का करता वितरण।
काश ! अगर मैं पंछी होता ।।
बन निष्छल , निर्मल , निर्मोही,
न पड़े छवि पर छल की छाया।
न कोई इच्छा व अभिलाषा ,
जितना पाया , उतना खाया ।
काश ! अगर मैं पंछी होता ।।
बस मौसम मजबूरी मेरी ,
आँधी ओले राह न आएँ ।
पलभर में मंजिल पर पहुँचूँ ,
महीने भर रथ से लग जाएँ।
काश !अगर मैं पंछी होता ।।
अंबर के आँचल को चूँमूँ ,
जब करता मन भरूँ उड़ारी ।
गलती से न गमन हो उस पथ,
घात लगा जित बैठ शिकारी ।
काश ! अगर मैं पंछी होता ।।
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित रचना
मौलिक
विधा : पद (छंदबद्ध कविता)
विषय आधारित रचना
शीर्षक-" पंछी"
काश! अगर मैं पंछी होता
खुला आसमां मेरा होता ,
सुखमय रैन बसेरा होता ।
चूमें ऊँचे पेड़ गगन को ,
शाखाओं पर डेरा होता ।
काश!अगर मैं पंछी होता।।
मनमौजी बन मन की करता,
तजकर दिल से रंज व रंजिश।
न कोई होती हद व सरहद ,
न कोई बाधा, बंधन, बंदिश ।
काश !अगर मैं पंछी होता है।।
प्रकृति की गोद में खेलूँ ,
लूँ मनोहर, मोहक नजारा।
आकर्षक आवाज लोहानी,
सुंदरता का करूँ इशारा ।
काश ! अगर मैं पंछी होता।।
पनपे नहीं प्रेम से पीड़ा ,
लेकर देश ,धर्म, जाति को।
एक जैसा सबको चाहता ,
जितना संबंधी नाती को ।
काश !अगर मैं पंछी होता।।
बस मेहनत बलबूता होता ,
लगाम कभी न लगे लगन पे।
उड़ता पंखों को फैलाकर ,
राज करूँ मैं नील गगन पर ।
काश !अगर मैं पंछी होता ।।
चिंता मुक्त चेतना चित में ,
उर आजाद करे नभ विचरण।
हिला - हिलाकर पंख बुलाता ,
मुक्त प्यार का करता वितरण।
काश ! अगर मैं पंछी होता ।।
बन निष्छल , निर्मल , निर्मोही,
न पड़े छवि पर छल की छाया।
न कोई इच्छा व अभिलाषा ,
जितना पाया , उतना खाया ।
काश ! अगर मैं पंछी होता ।।
बस मौसम मजबूरी मेरी ,
आँधी ओले राह न आएँ ।
पलभर में मंजिल पर पहुँचूँ ,
महीने भर रथ से लग जाएँ।
काश !अगर मैं पंछी होता ।।
अंबर के आँचल को चूँमूँ ,
जब करता मन भरूँ उड़ारी ।
गलती से न गमन हो उस पथ,
घात लगा जित बैठ शिकारी ।
काश ! अगर मैं पंछी होता ।।
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित रचना
मौलिक
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