विधा-दोहा कार्यशाला (मिथिलेश कायनात )



"भावों के मोती" - दोहा कार्यशाला
                                     ( सौजन्य :- श्री मिथिलेश  कायनात )

सबसे पहले दोहा - छंद की जानकारी अतिआवश्यक है।
दोहा - छंद एक अतीव लोकप्रिय छंद है। यह अर्धसममात्रिक है। इसमे कुल 48 मात्राएँ होती है। 24-24मात्रा की दो पंक्ति जिसमें चार चरण होते हैं। दो - दो चरण तुकांत होता है। यति प्रत्येक पंक्ति में 13,11पर होती है।
विषम चरण (प्रथम एवं तृतीय चरण)
1.कुल मात्रा =13
2.आदि में जगण व पंचकल न हो, इसका ध्यान रखें। नहीं तो लयभंग होना तय है।
3.अंत गुरु वर्ण से हो।
4.11वीं मात्रा लघु अनिवार्य है, इसे यति का नियम कहते हैं। अपवाद-भक्ति दोहा
5.कलों का संयोजन-
चौकल 4+चौकल 4+त्रिकल 3+द्विकल 2=13 मात्रा
या,
त्रिकल 3+त्रिकल 3+द्विकल 2+त्रिकल 3+द्विकल 2=13मात्रा

सम चरण -
1.कुल मात्रा =11
2.अंत गुरु-लघु से अनिवार्य एवं दोनों पंक्ति में तुकांत का ध्यान रखें।
3.कलों का संयोजन-
चौकल 4+चौकल 4+त्रिकल 3=11 मात्रा
या,
त्रिकल 3+त्रिकल 3+द्विकल 2+त्रिकल 3=11 मात्रा

#दोहा में प्रवाह बना रहे इसके लिए पर्यायवाची शब्द का प्रयोग करें।

इन सभी नियमों को एक दोहा के माध्यम से समझते हैं -
"जितने गहरे भाव हों, उतनी गहरी पीर।
 दोहा तो ऐसा लगे, ज्यों उर भेदी तीर।। "
      

1.विषम चरण-
प्रथम चरण -
जितने 4+ गहरे 4+ भाव 3+हों 2=13
तथा,
तृतीय चरण-
दोहा तो ऐसा लगे
दोहा तो ऐ/सा ल/गे
4+4+3+2=13
11 वीं मात्रा व एवं ल लघु (1) है एवं अंत में हो एवं गे एक गुरु वर्ण है।

2.सम चरण -
द्वितीय चरण-
उतनी 4+गहरी 4+पीर 3=11
तथा,
चतुर्थ चरण -
ज्यों उर 4+भेदी 4+तीर 3=11
अंत पीर तथा तीर से हुआ है जो गुरु - लघु है एवं तुकांत भी है।

दोहा को गुनगुनाकर देखिए लय भी बाधित नहीं है।

ध्यान रहे खड़ी बोली के दोहे में आय, जाय, लाय, बनाय जैसे देशज शब्द का प्रयोग न हो। 

दोहा के विषम चरण की शुरुआत जगण से नहीं होनी चाहिए। जगण से शुरू करने पर लयभंग हो जाती है।
 जगण-जभान-121
अर्थात वैसे शब्द जिनके आदि में लघु, मध्य गुरु एवं अंत लघु हो। 
जैसे - गरीब - 121
अमीर-121
शरीर-121
जगण को एक अशुभ गण भी माना जाता है और हिंदी काव्य में किसी भी छंद की शुरुआत अशुभ गण से नहीं करना चाहिए। 

यमाताराजभानसलगा 
य-यगण-यमाता-122
मा-मगण-मातारा-222
ता-तगण-ताराज - 221
रा-रगण-राजभा-212
ज-जगण-जभान-121
भा-भगण-भानस-211
न-नगण-नसल-111
स-सगण-सलगा-112
कुल आठ गण होते हैं।



✍️ मिथिलेश क़ायनात

अब जिन सदस्यों को मात्रा गणना में कठिनाई आती है, उनके लिए -
मात्रा गणना के नियम-

वर्ण दो प्रकार के होते हैं
१- हस्व वर्ण
२- दीर्घ वर्ण

१- हस्व वर्ण - हस्व वर्ण को लघु मात्रिक माना जाता है और इसे मात्रा गणना में १ मात्रा गिना जाता है तथा इसका चिन्ह "|" है|

२- दीर्घ वर्ण - दीर्घ वर्ण को घुरू मात्रिक माना जाता है और इसे मात्रा गणना में २ मात्रा गिना जाता है तथा इसका चिन्ह "S" है

मात्रा-
वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे मात्रा कहते हैं जो समय हस्व वर्ण के उच्चारण में लगता है उसे एक मात्रिक मानते हैं इसका मानक हम "क" व्यंजन को मान सकते हैं क उच्चारण करने में जितना समय लगता है उस उच्चारण समय को हस्व मानना चाहिए| जब किसी वर्ण के उच्चारण में हस्व वर्ण के उच्चारण से दो गुना समय लगता है तो उसे दीर्घ वर्ण मानते हैं तथा दो मात्रिक गिनाते हैं जैसे - "आ" २ मात्रिक है

याद रखें -
स्वर = अ - अः
व्यंजन = क - ज्ञ
अक्षर = व्यंजन + स्वर

यदि हम स्वर तथा व्यंजन की मात्रा को जानें तो -
अ इ उ स्वर एक मात्रिक होते हैं
क - ह व्यंजन एक मात्रिक होते हैं
यदि क - ह तक किसी व्यंजन में इ, उ स्वर जुड जाये तो भी अक्षर १ मात्रिक ही रहते हैं
उदाहरण - कि कु १ मात्रिक हैं
अर्ध चंद्रकार बिंदी युक्त स्वर अथवा व्यंजन १ मात्रिक माने जाते हैं
कुछ शब्द देखें -
कल - ११
कमल - १११
कपि - ११
अचरज - ११११
अनवरत १११११

आ ई ऊ ए ऐ ओ औ अं अः स्वर दीर्घ मात्रिक हैं
यदि क - ह तक किसी व्यंजन में आ ई ऊ ए ऐ ओ औ अं अः स्वर जुड जाये तो भी अक्षर २ मात्रिक ही रहते हैं
उदाहरण - ज व्यंजन में स्वर जुडने पर - जा जी जू जे जै जो जौ जं जः २ मात्रिक हैं
अनुस्वार तथा विसर्ग युक्त स्वर तथा व्यंजन भी दीर्घ होते हैं
कुछ शब्द देखें -
का - २
काला - २२
बेचारा - २२२

अर्ध व्यंजन की मात्रा गणना
अर्ध व्यंजन को एक मात्रिक माना जाता है परन्तु यह स्वतंत्र लघु नहीं होता यदि अर्ध व्यंजन के पूर्व लघु मात्रिक अक्षर होता है तो उसके साथ जुड कर और दोनों मिल कर दीर्घ मात्रिक  हो जाते हैं
उदाहरण - सत्य सत् - १+१ = २ य१ अर्थात सत्य = २१
इस प्रकार कर्म - २१, हत्या - २२, मृत्यु २१, अनुचित्य - ११२१,

यदि पूर्व का अक्षर दीर्घ मात्रिक है तो लघु की मात्रा लुप्त हो जाती है
राष्ट्र - राष्/ट्र 21
महाराष्ट्र - म/हा/राष्/ट्र 1221

जब अर्ध व्यंजन शब्द के प्रारम्भ में आता है तो भी यही नियम पालन होता है अर्थात अर्ध व्यंजन की मात्रा लुप्त हो जाती हैं |
उदाहरण - स्नान - २१

अपवाद -1. जहाँ अर्ध व्यंजन के पूर्व लघु मात्रिक अक्षर हो परन्तु उस पर अर्ध व्यंजन का भार न् पड़ रहा हो तो पूर्व का लघु मात्रिक वर्ण दीर्घ नहीं होता
उदाहरण - कन्हैया - १२२ में न् के पूर्व क है फिर भी यह दीर्घ नहीं होगा क्योकि उस पर न् का भार नहीं पड़ रहा है।

2.जब दो दीर्घ वर्ण के बीच में अर्ध वर्ण के रूप में स्/त् हो तो उसकी मात्रा एक गिनी जाएगी।
जैसे-आत्मा-आ/त्/मा 212
रास्ता-रा/स्/ता 212

संयुक्ताक्षर जैसे = क्ष, त्र, ज्ञ द्ध द्व आदि दो व्यंजन के योग से बने होने के कारण दीर्घ मात्रिक हैं परन्तु मात्र गणना में खुद लघु हो कर अपने पहले के लघु व्यंजन को दीर्घ कर देते है अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी स्वयं लघु हो जाते हैं
उदाहरण = पत्र= २१, वक्र = २१, यक्ष = २१, कक्ष - २१, यज्ञ = २१, शुद्ध =२१ क्रुद्ध =२१
गोत्र = २१, मूत्र = २१,
यदि संयुक्ताक्षर से शब्द प्रारंभ हो तो संयुक्ताक्षर लघु हो जाते हैं
उदाहरण = त्रिशूल = १२१, क्रमांक = १२१, क्षितिज = १२
संयुक्ताक्षर जब दीर्घ स्वर युक्त होते हैं तो अपने पहले के व्यंजन को दीर्घ करते हुए स्वयं भी दीर्घ रहते हैं अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी दीर्घ स्वर युक्त संयुक्ताक्षर दीर्घ मात्रिक गिने जाते हैं
उदाहरण = प्रज्ञा = २२  राजाज्ञा = २२२,

क्योकि यह लेख मूलभूत जानकारी साझा करने के लिए लिखा गया है इसलिए यह मात्रा गणना विधान अति संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया है
अब कुछ शब्दों की मात्रा देखते हैं

छन्द - २१
विधान - १२१
तथा - १२
संयोग - २२१
निर्माण - २२१
सूत्र - २१
समझना - १११२
सहायक - १२११
चरण - १११
अथवा - ११२
अमरत्व - ११२१

सभी सदस्यों से अनुरोध है कि पहले इसको पढ़े, मनन करें। तभी दोहा सृजन करें। समीक्षा  का समय रात्रि 9बजे से है। उठाइए लेखनी और रच डालिए सुंदर, मनोरम दोहे। दोहा लिखकर गुनगुनाना ना भूलें।

          ✍️ मिथिलेश क़ायनात


"जितने गहरे भाव हों, उतनी गहरी पीर।
 दोहा तो ऐसा लगे, ज्यों उर भेदी तीर।। "

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कलमकारों को दोहा लिखने में मदद हेतु सादरः
दोहा_छंद :
 दोहा लिखने का मूलभूत नियम
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दोहा एक ऐसा छंद है जो शब्दों की मात्राओं के अनुसार निर्धारित होता है। इसके दो पद होते हैं तथा प्रत्येक पद में दो चरण होते हैं। पहले चरण को विषम चरण तथा दूसरे चरण को सम चरण कहा जाता है। विषम चरण की कुल मात्रा 13 होती है तथा सम चरण की कुल मात्रा 11 होती है। अर्थात दोहा का एक पद 13-11 की यति पर होता है. यति का अर्थ है विश्राम। यानि भले पद-वाक्य को न तोड़ा जाय किन्तु पद को पढ़ने में अपने आप एक विराम बन जाता है।
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दोहा छंद मात्रा के हिसाब से 13-11 की यति पर निर्भर न कर शब्द-संयोजन हेतु विशिष्ट विन्यास पर भी निर्भर करता है। बल्कि दोहा छंद ही क्यों हर मात्रिक छंद के लिए विशेष शाब्दिक विन्यास का प्रावधान होता है।
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यह अवश्य है कि दोहा का प्रारम्भ यानि कि विषम चरण का प्रारम्भ ऐसे शब्द से नहीं होता जो या तो जगण (लघु गुरु लघु या ।ऽ। या 121) हो या उसका विन्यास जगणात्मक हो।
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अलबत्ता, देवसूचक संज्ञाएँ जिनका उक्त दोहे के माध्यम में बखान हो, इस नियम से परे हुआ करती हैं। जैसे, गणेश या महेश आदि शब्द।
दोहे कई प्रकार के होते हैं। कुल 23 मुख्य दोहों को सूचीबद्ध किया गया है। लेकिन हम उन सभी पर अभी बातें न कर दोहा-छंद की मूल अवधारणा पर ही ध्यान केन्द्रित रखेंगे। इस पर यथोचित अभ्यास हो जाने के बाद ही दोहे के अन्यान्य प्रारूपों पर अभ्यास करना उचित होगा। जोकि, अभ्यासियों के लिये व्यक्तिगत तौर पर हुआ अभ्यास ही होगा।
दोहे के मूलभूत नियमों को सूचीबद्ध किया जा रहा है।
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1. दोहे का आदि चरण यानि विषम चरण विषम शब्दों से यानि त्रिकल से प्रारम्भ हो तो शब्दों का संयोजन 3, 3, 2, 3, 2 के अनुसार होगा और चरणांत रगण (ऽ।ऽ) या नगण (।।।) होगा.
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2. दोहे का आदि चरण यानि विषम चरण सम शब्दों से यानि द्विकल या चौकल से प्रारम्भ हो तो शब्दों का संयोजन 4, 4, 3, 2 के अनुसार होगा और चरणांत पुनः रगण (ऽ।ऽ) या नगण (।।।) ही होगा।
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देखा जाय तो नियम-1 में पाँच कलों के विन्यास में चौथा कल त्रिकल है। या नियम-2 के चार कलों के विन्यास का तीसरा कल त्रिकल है। उसका रूप अवश्य-अवश्य ऐसा होना चाहिये कि उच्चारण के अनुसार मात्रिकता गुरु लघु या ऽ। या 21 ही बने।
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यानि, ध्यातव्य है, कि कमल जैसे शब्द का प्रवाह लघु गुरु या ।ऽ या 1 2 होगा। तो इस त्रिकल के स्थान पर ऐसा कोई शब्द त्याज्य ही होना चाहिये। अन्यथा, चरणांत रगण या नगण होता हुआ भी जैसा कि ऊपर लिखा गया है, उच्चारण के अनुसार् गेयता का निर्वहन नहीं कर पायेगा। क्योंकि उस तरह के त्रिकल के अंतिम दोनों लघु आपस में मिलकर उच्चारण के अनुसार गुरु वर्ण का आभास देते हैं और विषम चरणांत में दो गुरुओं का आभास होता है।
3. दोहे के सम चरण का संयोजन 4, 4, 3 या 3, 3, 2, 3 के अनुसार होता है। मात्रिक रूप से दोहों के सम चरण का अंत यानि चरणांत गुरु लघु या ऽ। या 2 1 से अवश्य होता है।
कुछ प्रसिद्ध दोहे :-
कबिरा खड़ा बजार में (13), लिये लुकाठी हाथ (11)
जो घर जारै आपनो (13),  चलै हमारे साथ (11)
.
बड़ा हुआ तो क्या हुआ (13), जैसे पेड़ खजूर (11)
पंछी को छाया नहीं (13), फल लागै अति दूर (11)
साईं इतना दीजिये (13), जामै कुटुम समाय (11)
मैं भी भूखा ना रहूँ (13), साधु न भूखा जाय(11)
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विद्या धन उद्यम बिना
112     11  121  12
 (13), कहो जु पावै कौन (11)
बिना डुलाये ना मिले (13), ज्यों पंखे का पौन (11)
        

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