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ब्लॉग संख्या :-487
नमन मंच भांवो के मोती
विषय लाचारी,मजबूरी
विधा काव्य
27 अगस्त 2019,मंगलवार
लाचारीऔर मजबूरी से
हर इंसान यँहा लड़ा है।
मेहनत खून पसीने से ही
प्रगतिपथ सदा बड़ा है।
जीवन फूलों की शैया नहीं
जीवन काँटों का बिछौना ।
सदा साथ जो देता दुःख में
उस नर को न कभी भुलाना।
मीरा की अपनी मजबूरी
कृष्ण स्नेह की वह लाचारी।
अगर स्नेह सच्चा होता है
प्रकट होते हैं खुद बनवारी।
मजबूरी लाचारी सहकर ही
जग जीवन में मंजिल पाता।
संघर्षो से सदा जूझता वह
जीवन में नव फल ही खाता।
स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
विषय लाचारी,मजबूरी
विधा काव्य
27 अगस्त 2019,मंगलवार
लाचारीऔर मजबूरी से
हर इंसान यँहा लड़ा है।
मेहनत खून पसीने से ही
प्रगतिपथ सदा बड़ा है।
जीवन फूलों की शैया नहीं
जीवन काँटों का बिछौना ।
सदा साथ जो देता दुःख में
उस नर को न कभी भुलाना।
मीरा की अपनी मजबूरी
कृष्ण स्नेह की वह लाचारी।
अगर स्नेह सच्चा होता है
प्रकट होते हैं खुद बनवारी।
मजबूरी लाचारी सहकर ही
जग जीवन में मंजिल पाता।
संघर्षो से सदा जूझता वह
जीवन में नव फल ही खाता।
स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
नमन भावों के मोती,,👏👏
आज के विषय पर एक प्रयास
लाचारी
""""""""""
अनन्त यात्रा के पथिक
चल देते है अनजान राहों पर
सांसों की लय छोड़कर
और,,,बे ताल कर जाते है
बचे अपने शेष साज को
बिखरे तारों की तरंगित ध्वनि
बेसूरी बजने लगती है...
लौटकर कभी नहीं आता पथिक
ना संदेश, ना स्वप्न में
एहसासों के बवंडर
दस्तक देते है लाचार होकर
मन मस्तिष्क पर...
बेचैनी मंडराने लगती है
दरोदीवारों से टकराती,लहराती
आँखों में तस्वीरें चक्रव्यूह रचती है
विदाई कहें या जुदाई
दर्द की टीस उठती है
रह-रह कर...
सांसारिक भाषा गढ़ ली है
जीवन ने समझौते की
और उसे नाम दे दिया है
मृत्यु का..
जो शाश्वत है,,अंतिम सत्य है..
लाचारी का...।।
✍🏻 गोविन्द सिंह चौहान
भागावड़,भीम
आज के विषय पर एक प्रयास
लाचारी
""""""""""
अनन्त यात्रा के पथिक
चल देते है अनजान राहों पर
सांसों की लय छोड़कर
और,,,बे ताल कर जाते है
बचे अपने शेष साज को
बिखरे तारों की तरंगित ध्वनि
बेसूरी बजने लगती है...
लौटकर कभी नहीं आता पथिक
ना संदेश, ना स्वप्न में
एहसासों के बवंडर
दस्तक देते है लाचार होकर
मन मस्तिष्क पर...
बेचैनी मंडराने लगती है
दरोदीवारों से टकराती,लहराती
आँखों में तस्वीरें चक्रव्यूह रचती है
विदाई कहें या जुदाई
दर्द की टीस उठती है
रह-रह कर...
सांसारिक भाषा गढ़ ली है
जीवन ने समझौते की
और उसे नाम दे दिया है
मृत्यु का..
जो शाश्वत है,,अंतिम सत्य है..
लाचारी का...।।
✍🏻 गोविन्द सिंह चौहान
भागावड़,भीम
सादर नमन
विधा-हाईकु
विषय-लाचार
१
लाचार मन
जंजीरों में जकड़ा
चाहे उड़ना
२
टूटे हौंसलें
लाचारी का बहाना
जीवन हारा
३
आलस तन
नाकामयाबी हाथ
नाम लाचारी
***
स्वरचित-रेखा रविदत्त
27/8/19
मंगलवार
विधा-हाईकु
विषय-लाचार
१
लाचार मन
जंजीरों में जकड़ा
चाहे उड़ना
२
टूटे हौंसलें
लाचारी का बहाना
जीवन हारा
३
आलस तन
नाकामयाबी हाथ
नाम लाचारी
***
स्वरचित-रेखा रविदत्त
27/8/19
मंगलवार
शीर्षक -- लाचारी/मजबूरी
प्रथम प्रस्तुति
हर जगह मजबूरी का रोना है
इंसान क्या एक खिलौना है ।।
चार दिन रोना एक दिन हंसना
फिर भी हमें ख्वाब सँजोना है ।।
दूसरा कोई चारा भी तो नही
हर हाल दिल के तार पिरोना है ।।
पितामह की मजबूरी अर्जुन पर
तीर चलाना ज्यों भूल ढोना है ।।
दशरथ की मजबूरी एक रानी
के पीछे लाल जुदा होना है ।।
मजबूरी माने अश्रु बेशक बुरा-
बेटा, माँ की आँख भिंगोना है ।।
मजबूरी की बेड़ी सबको पड़ी
बीज पहले से अब क्या बोना है ।।
प्रारब्ध पहले बतायँ कहाँ फूल-
सेज, कहाँ कंकड़ पर बिछोना है ।।
मौत भी माँगे न मिले हर एक
'शिवम' कहीं आधा कहीं पौना है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 27/08/2019
प्रथम प्रस्तुति
हर जगह मजबूरी का रोना है
इंसान क्या एक खिलौना है ।।
चार दिन रोना एक दिन हंसना
फिर भी हमें ख्वाब सँजोना है ।।
दूसरा कोई चारा भी तो नही
हर हाल दिल के तार पिरोना है ।।
पितामह की मजबूरी अर्जुन पर
तीर चलाना ज्यों भूल ढोना है ।।
दशरथ की मजबूरी एक रानी
के पीछे लाल जुदा होना है ।।
मजबूरी माने अश्रु बेशक बुरा-
बेटा, माँ की आँख भिंगोना है ।।
मजबूरी की बेड़ी सबको पड़ी
बीज पहले से अब क्या बोना है ।।
प्रारब्ध पहले बतायँ कहाँ फूल-
सेज, कहाँ कंकड़ पर बिछोना है ।।
मौत भी माँगे न मिले हर एक
'शिवम' कहीं आधा कहीं पौना है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 27/08/2019
नमन मंच भावों के मोती
27 /8 / 2019
बिषय ,, लाचारी,, मजबूरी,,
बुढ़ापा अत्यंत लाचार होता है
बची जिंदगी को ब्याज में ढोता है
सब कुछ होते हुए भी नहीं कोई सहारा
मझधार में नैया को मिलता नहीं किनारा
वहीं नेता जी हाथ जोड़ खड़े रहते
कुर्सी के कारण जनता के पांव पर पड़े रहते
मजबूरी बस द्वार द्वार जाते
फिर पाँच साल तक मुँह भी न दिखाते
अधिकांशतः मानव लाचारी में अटका
कुछ कर पाने की चाह में कहां कहां भटका
कहीं बाबूगिरी की उलझन कहीं आफीसरों के चक्कर
कहीं अस्पताल ,डाक्टर कहीं नेताओं के दफ्तर
सब पैसे का चक्कर पद की माया
जेब गर्म तो आदमी इतराया
इंसान को बनाकर घबराया
हे माटी के पुतले तूने.मुझे ही घुमाया
स्वरिचत,, सुषमा ,, ब्यौहार
27 /8 / 2019
बिषय ,, लाचारी,, मजबूरी,,
बुढ़ापा अत्यंत लाचार होता है
बची जिंदगी को ब्याज में ढोता है
सब कुछ होते हुए भी नहीं कोई सहारा
मझधार में नैया को मिलता नहीं किनारा
वहीं नेता जी हाथ जोड़ खड़े रहते
कुर्सी के कारण जनता के पांव पर पड़े रहते
मजबूरी बस द्वार द्वार जाते
फिर पाँच साल तक मुँह भी न दिखाते
अधिकांशतः मानव लाचारी में अटका
कुछ कर पाने की चाह में कहां कहां भटका
कहीं बाबूगिरी की उलझन कहीं आफीसरों के चक्कर
कहीं अस्पताल ,डाक्टर कहीं नेताओं के दफ्तर
सब पैसे का चक्कर पद की माया
जेब गर्म तो आदमी इतराया
इंसान को बनाकर घबराया
हे माटी के पुतले तूने.मुझे ही घुमाया
स्वरिचत,, सुषमा ,, ब्यौहार
नमन मंच भावों के मोती
27/08/19
विषय - लाचारी /मजबूरी
विधा - काव्य
"""""""""''''''"""""""""""""""""""""""""""""""""""
मैं मज़बूरी में जी रही
एक विक्षिप्त भिखारीन हूँ
जो दूसरों की दया पर पलती हूँ
मैं बाजार के चौराहे पर रहती हूँ
कभी-कभी भूखे ही सोती हूँ
मेरे तन पर कपड़े भी
किसी की दया से ही रहते हैं
कपड़े अस्त-व्यस्त रहते हैं तो
कोई दयालु महिला कपड़े ठीक भी कर जाती है
मैं अवाक सी देखती रह जाती हूँ
कुछ समझ नहीं पाती हूँ
मैं किसी से कुछ कभी नहीं पाती हूं
फिर भी रोती हूं चिल्लाती हूँ
भूख से तड़पती हूँ
मैं भी चाहती हूं प्यार के दो बोल कोई बोले
पास से मेरे जब गुजरता है कोई
पागल बुढ़िया कहकर झिड़कता है कोई
कभी कभी नफरत और हिकारत भरी नजरों से देखता है
क्यों यह नहीं सोचता कोई
मैं भी तो इंसान हूँ
मुझे भी तो प्रभु ने ही बनाया है
फिर मेरे लिए इंसान की संवेदनाएं क्यों मर जाती है
मेरी बेबसी लाचारी को देखकर भी दया नहीं आती है
मैं विक्षिप्त हूं इसलिए तो चिल्लाती हूँ
फिर आप क्यों मेरे ऊपर झल्लाते हैं
आपको खुदा ने तो की ठीक-ठाक गढ़ा है
काश मैं भी विक्षिप्त नहीं होती
तो मेरी भी जिंदगी ठीक-ठाक होती |
-सूर्यदीप कुशवाहा
स्वरचित व मौलिक
27/08/19
विषय - लाचारी /मजबूरी
विधा - काव्य
"""""""""''''''"""""""""""""""""""""""""""""""""""
मैं मज़बूरी में जी रही
एक विक्षिप्त भिखारीन हूँ
जो दूसरों की दया पर पलती हूँ
मैं बाजार के चौराहे पर रहती हूँ
कभी-कभी भूखे ही सोती हूँ
मेरे तन पर कपड़े भी
किसी की दया से ही रहते हैं
कपड़े अस्त-व्यस्त रहते हैं तो
कोई दयालु महिला कपड़े ठीक भी कर जाती है
मैं अवाक सी देखती रह जाती हूँ
कुछ समझ नहीं पाती हूँ
मैं किसी से कुछ कभी नहीं पाती हूं
फिर भी रोती हूं चिल्लाती हूँ
भूख से तड़पती हूँ
मैं भी चाहती हूं प्यार के दो बोल कोई बोले
पास से मेरे जब गुजरता है कोई
पागल बुढ़िया कहकर झिड़कता है कोई
कभी कभी नफरत और हिकारत भरी नजरों से देखता है
क्यों यह नहीं सोचता कोई
मैं भी तो इंसान हूँ
मुझे भी तो प्रभु ने ही बनाया है
फिर मेरे लिए इंसान की संवेदनाएं क्यों मर जाती है
मेरी बेबसी लाचारी को देखकर भी दया नहीं आती है
मैं विक्षिप्त हूं इसलिए तो चिल्लाती हूँ
फिर आप क्यों मेरे ऊपर झल्लाते हैं
आपको खुदा ने तो की ठीक-ठाक गढ़ा है
काश मैं भी विक्षिप्त नहीं होती
तो मेरी भी जिंदगी ठीक-ठाक होती |
-सूर्यदीप कुशवाहा
स्वरचित व मौलिक
नमन एवं मंगलकामनाएं
मै अपने दोस्तों से दूर हूँ लेकिन।
नहीं मगरूर पर मजबूर हूँ लेकिन।।
मंजिल कहां मुझको नहीं मालूम ।
मै चलता रहा बदस्तूर हूँ लेकिन।।
भुला बैठा है मुझको गांव मेरा ।
मै शहरों मे बड़ा मशहूर हूँ लेकिन।।
मेरी हर बात कर दी अनसुनी तुमने ।
मै लिखता रहा जरूर हूँ लेकिन।।
जिन्हें मैं एक पल भी ना सुहाया ।
उन्हीं से मिलने बेसबूर हूँ लेकिन।।
जमाना मुझको कुछ समझे न समझे।
मै आंखों का मां की नूर हूँ लेकिन।।
स्वरचित विपिन सोहल
मै अपने दोस्तों से दूर हूँ लेकिन।
नहीं मगरूर पर मजबूर हूँ लेकिन।।
मंजिल कहां मुझको नहीं मालूम ।
मै चलता रहा बदस्तूर हूँ लेकिन।।
भुला बैठा है मुझको गांव मेरा ।
मै शहरों मे बड़ा मशहूर हूँ लेकिन।।
मेरी हर बात कर दी अनसुनी तुमने ।
मै लिखता रहा जरूर हूँ लेकिन।।
जिन्हें मैं एक पल भी ना सुहाया ।
उन्हीं से मिलने बेसबूर हूँ लेकिन।।
जमाना मुझको कुछ समझे न समझे।
मै आंखों का मां की नूर हूँ लेकिन।।
स्वरचित विपिन सोहल
भावों के मोती
शीर्षक- लाचारी/ मजबूरी
लाचारी इंसान से करवाती है वो सब
जिसे करने का वो सोचता भी नहीं।
सड़कों पर भीख मांगता है कभी
तो कभी किसी के तलवे चाटता है।
जिसे देख कर रौना आता है
उसे देख कर मुस्कुराता है।
जिस माहौल से दूर भागना चाहता है
वहीं पर हर लम्हा गुजारता है।
मेवा पकवान खाने वाला
सुखी रोटी को तरस जाता है।
महलों में ऐसोआराम से रहने वाला
फुटपाथ पर दिन गुजारता है।
आजादी से जीवन जीने वाला
सौ बंदिशों में दिन गुजारता है।
लाचारी जो न करवाएं कम है
औरों पर हुक्म चलाने वाला
जी हुजूरी में दिन रात गुजारता है।
स्वरचित- निलम अग्रवाल, खड़कपुर
शीर्षक- लाचारी/ मजबूरी
लाचारी इंसान से करवाती है वो सब
जिसे करने का वो सोचता भी नहीं।
सड़कों पर भीख मांगता है कभी
तो कभी किसी के तलवे चाटता है।
जिसे देख कर रौना आता है
उसे देख कर मुस्कुराता है।
जिस माहौल से दूर भागना चाहता है
वहीं पर हर लम्हा गुजारता है।
मेवा पकवान खाने वाला
सुखी रोटी को तरस जाता है।
महलों में ऐसोआराम से रहने वाला
फुटपाथ पर दिन गुजारता है।
आजादी से जीवन जीने वाला
सौ बंदिशों में दिन गुजारता है।
लाचारी जो न करवाएं कम है
औरों पर हुक्म चलाने वाला
जी हुजूरी में दिन रात गुजारता है।
स्वरचित- निलम अग्रवाल, खड़कपुर
दि- 27-8-19
विषय-लाचारी/ मजबूरी
सादर मंच को समर्पित -
♨️ माँ की लाचारी , बचपन को अभिशाप ☀***************************************
☀️🌾 हाइकु 🌵🌰
🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀
माँ का पसीना
बच्चे को रुलाता
भूख मिटाता
🍥🍲🌻
बोझ ढोकर
बिलखती संतान
क्या समाधान
🍔🍪🍩
भूख पेट की
ममता है अधूरी
है मजबूरी
🍂🌵⛅
हाय गरीबी
नंगी भूखी संतान
माँ श्रम भोगी
🌺🍁🌻
पुत्र पुकारे
मजदूर दुर्दशा
कौन विचारे
🌋☔☀️
धनी कुबेर
करते हैं शोषण
कैसे पोषण
❄🌞😘
माँ तो खटती
बचपन कराहे
लाड़ न पाये
😙💧🍎
भूख लाचारी
बच्चे की सिसकियाँ
पेट दिहाड़ी
☀♨️🎈🌻
🍎💧❄****.....रवीन्द्र वर्मा आगरा
विषय-लाचारी/ मजबूरी
सादर मंच को समर्पित -
♨️ माँ की लाचारी , बचपन को अभिशाप ☀***************************************
☀️🌾 हाइकु 🌵🌰
🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀
माँ का पसीना
बच्चे को रुलाता
भूख मिटाता
🍥🍲🌻
बोझ ढोकर
बिलखती संतान
क्या समाधान
🍔🍪🍩
भूख पेट की
ममता है अधूरी
है मजबूरी
🍂🌵⛅
हाय गरीबी
नंगी भूखी संतान
माँ श्रम भोगी
🌺🍁🌻
पुत्र पुकारे
मजदूर दुर्दशा
कौन विचारे
🌋☔☀️
धनी कुबेर
करते हैं शोषण
कैसे पोषण
❄🌞😘
माँ तो खटती
बचपन कराहे
लाड़ न पाये
😙💧🍎
भूख लाचारी
बच्चे की सिसकियाँ
पेट दिहाड़ी
☀♨️🎈🌻
🍎💧❄****.....रवीन्द्र वर्मा आगरा
भावों के मोती
27/08/19
विषय-लाचारी,मजबुरी ,(बेबसी)
आसमां रोया
रात भर
तुषार बिंदु
आंसू ही होगें ,
बिखरे पड़े
फूलों ,पत्तियों,
घास दूब पर
चारों ओर अपनी
"बेबसी" लिए ,
क्या गम है
विराट अंबर का,
सुबह से पहले
शशी से बिछोह,
या टूटते तारों का गम ,
शून्य का दर्द,
या दिन भर भानु के
तेज से जलना,
कौन से अनदेखे
छालों को
आंचल में समेटे
बैठा है,जो जब
हद से गुजरता है,
तो ओस बन
बिखरता है
चारों ओर एक
शीतल आह लिये ।
स्वरचित।
कुसुम कोठारी ।
27/08/19
विषय-लाचारी,मजबुरी ,(बेबसी)
आसमां रोया
रात भर
तुषार बिंदु
आंसू ही होगें ,
बिखरे पड़े
फूलों ,पत्तियों,
घास दूब पर
चारों ओर अपनी
"बेबसी" लिए ,
क्या गम है
विराट अंबर का,
सुबह से पहले
शशी से बिछोह,
या टूटते तारों का गम ,
शून्य का दर्द,
या दिन भर भानु के
तेज से जलना,
कौन से अनदेखे
छालों को
आंचल में समेटे
बैठा है,जो जब
हद से गुजरता है,
तो ओस बन
बिखरता है
चारों ओर एक
शीतल आह लिये ।
स्वरचित।
कुसुम कोठारी ।
भावों के मोती🌷
🙏नमन मंच🙏
27/8/2019
विषय-लाचारी/मजबूरी
***********
फुटपाथ पर बैठी
वो निर्धन लड़की
छोटे-फटे कपड़े पहने
अपने नंगे बदन को
छुपाने का
उसका प्रयास सतत जारी है
अमीर बालाओं की तरह
ऐसे वस्त्र पहनना
शौक नहीं है
बल्कि उसकी लाचारी है
तन पर कपड़े नहीं
पेट पीठ में मिल गया
ज़माना उन्हें
अनदेखा कर आगे बढ़ गया
अक्सर यही होता है
हफ्ते में चार दिन
इन गरीबों का
उपवास होता है
भूख का प्यास में
बदल जाना उनकी लाचारी है
माँ खाली पतीली में
कलछन चलाती है
बेबस बच्चों की आस
माँ को उम्मीद से निहारती है
बच्चों को दिल बहलाना भी तो
माँ की ही ज़िम्मेदारी है...!!
**वंदना सोलंकी**©स्वरचित
🙏नमन मंच🙏
27/8/2019
विषय-लाचारी/मजबूरी
***********
फुटपाथ पर बैठी
वो निर्धन लड़की
छोटे-फटे कपड़े पहने
अपने नंगे बदन को
छुपाने का
उसका प्रयास सतत जारी है
अमीर बालाओं की तरह
ऐसे वस्त्र पहनना
शौक नहीं है
बल्कि उसकी लाचारी है
तन पर कपड़े नहीं
पेट पीठ में मिल गया
ज़माना उन्हें
अनदेखा कर आगे बढ़ गया
अक्सर यही होता है
हफ्ते में चार दिन
इन गरीबों का
उपवास होता है
भूख का प्यास में
बदल जाना उनकी लाचारी है
माँ खाली पतीली में
कलछन चलाती है
बेबस बच्चों की आस
माँ को उम्मीद से निहारती है
बच्चों को दिल बहलाना भी तो
माँ की ही ज़िम्मेदारी है...!!
**वंदना सोलंकी**©स्वरचित
नमन मंच
27/08/2019
मंगलवार
र्शीर्षक -- मजबूर ,लाचार
विधा - मुक्त छंद कविता
कितनी मजबूर हूं मैं!
तुम्हारे प्यार की परिधि म़े बंधी,
निकलना चाहूं तब भी,
निकल भी नहीं पाती,
समझ नहीं आता,
यह कौन सा बंधंन है?
लोग कहते है सात जनम का!
है सात जनम का तो,
तुम छोड़ क्यों गये मुझे लाचार!
अब तो मैं,
न जीती हूं न मरती हूं!
बस एक आस लगाये बैठी हूं!
कभी तो तूम आओगे!
कम से कम उस दिन
जिस दिन मैं भी
र्निर्वाण प्राप्त करुंगी!
प्रिय तुम जरुर आना!
हाथ पकड़ मुझे उस पार ले जाना!
स्वरचित डॉ.विभा रजंन(कनक)
नयी दिल्ली
27/08/2019
मंगलवार
र्शीर्षक -- मजबूर ,लाचार
विधा - मुक्त छंद कविता
कितनी मजबूर हूं मैं!
तुम्हारे प्यार की परिधि म़े बंधी,
निकलना चाहूं तब भी,
निकल भी नहीं पाती,
समझ नहीं आता,
यह कौन सा बंधंन है?
लोग कहते है सात जनम का!
है सात जनम का तो,
तुम छोड़ क्यों गये मुझे लाचार!
अब तो मैं,
न जीती हूं न मरती हूं!
बस एक आस लगाये बैठी हूं!
कभी तो तूम आओगे!
कम से कम उस दिन
जिस दिन मैं भी
र्निर्वाण प्राप्त करुंगी!
प्रिय तुम जरुर आना!
हाथ पकड़ मुझे उस पार ले जाना!
स्वरचित डॉ.विभा रजंन(कनक)
नयी दिल्ली
नमन मंच भावों के मोती
आज का कार्य
शीर्षक- मजबूरी
विधा- छंद मुक्त
27/8/2019
हसरतें पाली हैं, ज़माने ने मुझ सा बनने की,
कुछ और नहीं मेरे मालिक की मेहर है,
कोई इरादतन तो कोई मजबूरी में चल रहा है,
हां, मुझे मानने में कोई गुरेज नहीं.....
कि ज़माना मेरे पीछे चल रहा है।
कब मैंने कहा कि तू मेरे पीछे हैं और मैं सबसे आगे हूं
यह तो तेरी सोच है जिसमें बस मैं ही मैं हूं।
न मैंने किसी को मात देने की सोची, न किसी को पछाड़ने की सोची। किया तो अपना काम।
क्या जमाना मेरे पीछे चल रहा है?
न किसी को दबाया न किसी से दबे न किसी की मजबूरी का फायदा उठाया ना कभी किसी और को उठाने दिया।
शालिनी अग्रवाल
स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित
आज का कार्य
शीर्षक- मजबूरी
विधा- छंद मुक्त
27/8/2019
हसरतें पाली हैं, ज़माने ने मुझ सा बनने की,
कुछ और नहीं मेरे मालिक की मेहर है,
कोई इरादतन तो कोई मजबूरी में चल रहा है,
हां, मुझे मानने में कोई गुरेज नहीं.....
कि ज़माना मेरे पीछे चल रहा है।
कब मैंने कहा कि तू मेरे पीछे हैं और मैं सबसे आगे हूं
यह तो तेरी सोच है जिसमें बस मैं ही मैं हूं।
न मैंने किसी को मात देने की सोची, न किसी को पछाड़ने की सोची। किया तो अपना काम।
क्या जमाना मेरे पीछे चल रहा है?
न किसी को दबाया न किसी से दबे न किसी की मजबूरी का फायदा उठाया ना कभी किसी और को उठाने दिया।
शालिनी अग्रवाल
स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित
नमन "भावो के मोती"
27/08/2019
"लाचार/मजबूर"
**********************
भवसागर की लहरों से न
घबराना..
सुनामियों से लाचार न होना
हौसला सदैव कायम रखना..
मिल ही जायेगा तिनके का सहारा...।
जिंदगी के सफर में चलते जाना...
मिले फूल या काँटों का बिछौना...
हर हाल में मुस्कुरा कर जीना.....
परिस्थितियों से लाचार न होना...।
खुशी मिले या गम मिले..
गमों के आगे मजबूर न होना
मौसम होगा एक दिन सुहाना
दामन आस का न छोड़ना.।।
स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।।
27/08/2019
"लाचार/मजबूर"
**********************
भवसागर की लहरों से न
घबराना..
सुनामियों से लाचार न होना
हौसला सदैव कायम रखना..
मिल ही जायेगा तिनके का सहारा...।
जिंदगी के सफर में चलते जाना...
मिले फूल या काँटों का बिछौना...
हर हाल में मुस्कुरा कर जीना.....
परिस्थितियों से लाचार न होना...।
खुशी मिले या गम मिले..
गमों के आगे मजबूर न होना
मौसम होगा एक दिन सुहाना
दामन आस का न छोड़ना.।।
स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।।
1भा.नमन साथियों
तिथि ः27/8/2019/मंगलवार
बिषयःः# लाचारी/मजबूरी#
विधाःः काव्यः ः
यहाँ नहीं कोई मजबूरी मेरी,
उसने सबकुछ मुझे दिया है।
हाथ पैर मस्तिष्क मिले तो,
सबसे अच्छा शरीर दिया है।
तन ढंकने को वस्त्र दिऐ तो,
राशन पानी बहुत दिया है।
जिऊँ जिंदगी मन भरके मैं,
हमें ईश्वर ने खूब दिया है।
कुछ रो रो कर ही जीते है।
कुछ हंस कर भी जीते हैं।
माना किसी की हो लाचारी,
कुछ हंसते गाते ही जीते हैं।
हम मजबूरी में रखें होंसला।
नहीं अपनों से रखें फासला।
सुकर्म करें सहयोगी बनकर,
क्यों मानें ये कोई ढकोसला।
स्वरचित ः
इंंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जयजय श्री राम राम जी
1भा.#लाचारी /मजबूरी#काव्यः ः
27/8/2019/मंगलवार
तिथि ः27/8/2019/मंगलवार
बिषयःः# लाचारी/मजबूरी#
विधाःः काव्यः ः
यहाँ नहीं कोई मजबूरी मेरी,
उसने सबकुछ मुझे दिया है।
हाथ पैर मस्तिष्क मिले तो,
सबसे अच्छा शरीर दिया है।
तन ढंकने को वस्त्र दिऐ तो,
राशन पानी बहुत दिया है।
जिऊँ जिंदगी मन भरके मैं,
हमें ईश्वर ने खूब दिया है।
कुछ रो रो कर ही जीते है।
कुछ हंस कर भी जीते हैं।
माना किसी की हो लाचारी,
कुछ हंसते गाते ही जीते हैं।
हम मजबूरी में रखें होंसला।
नहीं अपनों से रखें फासला।
सुकर्म करें सहयोगी बनकर,
क्यों मानें ये कोई ढकोसला।
स्वरचित ः
इंंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जयजय श्री राम राम जी
1भा.#लाचारी /मजबूरी#काव्यः ः
27/8/2019/मंगलवार
नमन भावों के मोती
शीर्षक-लाचारी/मजबूरी
दिनांक-27-8-19
विधा --दोहा मुक्तक
1.
मजबूरी की जिन्दगीसदा सालती मीत।
मजबूरी के कर्म में, मन की सदा फजीत।
हार न मन में मानिए,कितने भी मजबूर--
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
2.
मजबूरी की ओढ़नी ,जिसने दई उतार ।
वही सफलता का जनक, वही खुशी हकदार।
मजबूरी को चूर कर,मुस्काता इंसान-
धीरे धीरे विजयश्री ,का पाता है प्यार ।
******स्वरचित*******
प्रबोध मिश्र ' हितैषी '
बड़वानी(म.प्र.)451551
शीर्षक-लाचारी/मजबूरी
दिनांक-27-8-19
विधा --दोहा मुक्तक
1.
मजबूरी की जिन्दगीसदा सालती मीत।
मजबूरी के कर्म में, मन की सदा फजीत।
हार न मन में मानिए,कितने भी मजबूर--
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
2.
मजबूरी की ओढ़नी ,जिसने दई उतार ।
वही सफलता का जनक, वही खुशी हकदार।
मजबूरी को चूर कर,मुस्काता इंसान-
धीरे धीरे विजयश्री ,का पाता है प्यार ।
******स्वरचित*******
प्रबोध मिश्र ' हितैषी '
बड़वानी(म.प्र.)451551
नमन :🙏भावों के मोती🙏
दिनांक -२७-८-१९
विषय -लाचारी /मजबूरी
बेटी ने जब जन्म लिया, माँ हुई लाचार थी।
सब ने लगाई आस बेटे की,खुशी काफूर थी।।
डर-डर के मैं बड़ी हुई ,यह कैसी तकदीर थी ।
हर क्षेत्र में मजबूरी ,और बाधा चहुँओर थी।।
बाल विवाह कर दिया, सब की मजबूरी थी।
समाज के आगे मजबूर, मैं बहुत लाचार थी ।।
पुरुष प्रधान समाज मेरा,बाधा सदा बना।
बहुत किया मजबूर,कुर्बानी मेरे सपनों की थी।।
वीणा वैष्णव
कांकरोली
दिनांक -२७-८-१९
विषय -लाचारी /मजबूरी
बेटी ने जब जन्म लिया, माँ हुई लाचार थी।
सब ने लगाई आस बेटे की,खुशी काफूर थी।।
डर-डर के मैं बड़ी हुई ,यह कैसी तकदीर थी ।
हर क्षेत्र में मजबूरी ,और बाधा चहुँओर थी।।
बाल विवाह कर दिया, सब की मजबूरी थी।
समाज के आगे मजबूर, मैं बहुत लाचार थी ।।
पुरुष प्रधान समाज मेरा,बाधा सदा बना।
बहुत किया मजबूर,कुर्बानी मेरे सपनों की थी।।
वीणा वैष्णव
कांकरोली
आज का विषय लाचारी,
ग़ज़ल पेश हैसाथियो।।
खाना पकाओं रात बाकी है,
चूल्हा जगाओ रात बाकी है।।१।।
भूखे हैं बच्चे,इन्हें खिला दो,
इनको जगाओ ,रात बाकी है।।२।।
यह रुठने का समय नहीं है,
इन्हें हंसाओ रात बाकी है।।३।।
सारा घर तय में डूबा हुआ है,
दीप जलाओं,रात बाकी है,
घर बगिया को महकाना है,
पास बच्चों बुलाओ,रात बाकी है,
फूलों के लिए जीना लाचारी है,
प्राणहंसाओ ,रात बाकी है।।
स्वरचित देवेन्द्र नारायण दास बसनाछ,गया,।
ग़ज़ल पेश हैसाथियो।।
खाना पकाओं रात बाकी है,
चूल्हा जगाओ रात बाकी है।।१।।
भूखे हैं बच्चे,इन्हें खिला दो,
इनको जगाओ ,रात बाकी है।।२।।
यह रुठने का समय नहीं है,
इन्हें हंसाओ रात बाकी है।।३।।
सारा घर तय में डूबा हुआ है,
दीप जलाओं,रात बाकी है,
घर बगिया को महकाना है,
पास बच्चों बुलाओ,रात बाकी है,
फूलों के लिए जीना लाचारी है,
प्राणहंसाओ ,रात बाकी है।।
स्वरचित देवेन्द्र नारायण दास बसनाछ,गया,।
नमन भावों के मोती,
आज का विषय, लाचारी, मजबूरी,
दिन, मंगलवार ,
दिनांक, 27, 8, 2019,
मजबूरी एक मात -पिता की,
दिल ही उनका समझे है ।
कहे किसे तकलीफ हृदय की,
ममता रस्ता रोके है ।
कुछ मजबूरी है नगर वधू की ,
छुप- छुप आहें भरे है ।
मालिक पाक साफ दिल की ,
दामन छलनी करे है ।
क्या लाचरी है उस गरीब की,
जो भूखा बच्चों को सुलाये है ।
मेहनत में कोई कसर नहीं की,
फिर भी रब नहीं रीझे है ।
मजबूरी रहती स्वाभिमान की ,
आत्मसम्मान संभाले है ।
चमक रही किस्मत चमचों की ,
खुद्दारी माटी फांके है ।
यहाँ मजबूरी है हर मानव की,
सब दुनियाँदारी समझे है ।
परवाह नहीं करता है दिल की,
कठपुतली सा नाचे है ।
स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश
आज का विषय, लाचारी, मजबूरी,
दिन, मंगलवार ,
दिनांक, 27, 8, 2019,
मजबूरी एक मात -पिता की,
दिल ही उनका समझे है ।
कहे किसे तकलीफ हृदय की,
ममता रस्ता रोके है ।
कुछ मजबूरी है नगर वधू की ,
छुप- छुप आहें भरे है ।
मालिक पाक साफ दिल की ,
दामन छलनी करे है ।
क्या लाचरी है उस गरीब की,
जो भूखा बच्चों को सुलाये है ।
मेहनत में कोई कसर नहीं की,
फिर भी रब नहीं रीझे है ।
मजबूरी रहती स्वाभिमान की ,
आत्मसम्मान संभाले है ।
चमक रही किस्मत चमचों की ,
खुद्दारी माटी फांके है ।
यहाँ मजबूरी है हर मानव की,
सब दुनियाँदारी समझे है ।
परवाह नहीं करता है दिल की,
कठपुतली सा नाचे है ।
स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश
नमनःभावों के मोती
दि.27/8/19.
शीर्षकःलाचारी/मजबूरी
*
अतिरंजन नहीं , न अनुरंजन
मेरा हर क्षण , पागल - पागल।
बेबस लाचारी , लौट रही
केवल खटका - खटका साँकल।
कैसे उसकी कल कथा कहूँ
है माप सका , आकाश कौन?
वह मौन सही , जो सच कह दे
झूठा सच कहकर , बचा कौन?
--डा.'शितिकंठ'
दि.27/8/19.
शीर्षकःलाचारी/मजबूरी
*
अतिरंजन नहीं , न अनुरंजन
मेरा हर क्षण , पागल - पागल।
बेबस लाचारी , लौट रही
केवल खटका - खटका साँकल।
कैसे उसकी कल कथा कहूँ
है माप सका , आकाश कौन?
वह मौन सही , जो सच कह दे
झूठा सच कहकर , बचा कौन?
--डा.'शितिकंठ'
नमन-भावो के मोती
दिनांक-27/08/2019
विषय-लाचारी
किसी के घर में पूरी रोटी
किसी के घर में आधी है
यह कैसी लाचारी है............
कोई महलों की जीनत
कोई सड़कों की शहजादी है
यह कैसी लाचारी है..........।
संघर्षों की पृष्ठभूमि में में
एक अधूरी आजादी है
यह कैसी लाचारी है.......।
अंतर्द्वंद की निश्चलता मे
कौन दुर्दांत शिकारी है
यह कैसी लाचारी है.......।
भूख की धूप सलोनी है।
मधुर मधुर खुमारी है
यह कैसी लाचारी है.....।
आंखों में है सुर्ख शोले
तड़प लेखनी जारी है
यह कैसी लाचारी है......।
स्याही का दर्द किससे कहें
कागज उदास एक क्यारी है।
यह कैसी लाचारी है.......।
मौलिक रचना
सत्य प्रकाश सिंह प्रयागराज
दिनांक-27/08/2019
विषय-लाचारी
किसी के घर में पूरी रोटी
किसी के घर में आधी है
यह कैसी लाचारी है............
कोई महलों की जीनत
कोई सड़कों की शहजादी है
यह कैसी लाचारी है..........।
संघर्षों की पृष्ठभूमि में में
एक अधूरी आजादी है
यह कैसी लाचारी है.......।
अंतर्द्वंद की निश्चलता मे
कौन दुर्दांत शिकारी है
यह कैसी लाचारी है.......।
भूख की धूप सलोनी है।
मधुर मधुर खुमारी है
यह कैसी लाचारी है.....।
आंखों में है सुर्ख शोले
तड़प लेखनी जारी है
यह कैसी लाचारी है......।
स्याही का दर्द किससे कहें
कागज उदास एक क्यारी है।
यह कैसी लाचारी है.......।
मौलिक रचना
सत्य प्रकाश सिंह प्रयागराज
नमन् भावों के मोती
27अगस्त2019
विषय:लाचारी/मजबूरी
विधा:हाइकु
सड़क गृह
गरीबी में जीवन
मजबूरी में
रोटियां ढूढ़ें
मजबूरी में भिखारी
कूड़े के ढेर
अधूरे स्वप्न
पैसों की मजबूरी
शिक्षा अधूरी
निर्बल देह
कोशिशें हैं बेकार
लाचारी हाथ
मनीष श्री
स्वरचित
रायबरेली
27अगस्त2019
विषय:लाचारी/मजबूरी
विधा:हाइकु
सड़क गृह
गरीबी में जीवन
मजबूरी में
रोटियां ढूढ़ें
मजबूरी में भिखारी
कूड़े के ढेर
अधूरे स्वप्न
पैसों की मजबूरी
शिक्षा अधूरी
निर्बल देह
कोशिशें हैं बेकार
लाचारी हाथ
मनीष श्री
स्वरचित
रायबरेली
नमन- मंच- भावो के मोती
दिनांक- २७- ८- १९
दिन- मंगलवार
विषय- लाचारी /मजबूरी
विधा- हाइकु
दूर रहेंगी
ठान लेना दिल से
है मजबूरी
बढ़ने देगी
लाचारी है मन में
दूर तलक
लाचारी खाज
कर देती है स्वाहा
अपना तन
प्रयास कम
आस पास रहेगी
तो मजबूरी
रानी कोष्टी म प्र गुना
स्वरचित एवं मौलिक
दिनांक- २७- ८- १९
दिन- मंगलवार
विषय- लाचारी /मजबूरी
विधा- हाइकु
दूर रहेंगी
ठान लेना दिल से
है मजबूरी
बढ़ने देगी
लाचारी है मन में
दूर तलक
लाचारी खाज
कर देती है स्वाहा
अपना तन
प्रयास कम
आस पास रहेगी
तो मजबूरी
रानी कोष्टी म प्र गुना
स्वरचित एवं मौलिक
विषय:-मजबूरी/ लाचारी
विधा:- विधाता छंद
1222. 1222, 1222 1222
सुनो मजबूर होकर के, निशा तुम को बुलाती है ।
मिलन की आस में जागी ,विरह के गीत गाती है ।।
कभी आँसू बहाती है,कभी सपने सजाती हैं।
कहीं कोई कली चटकी,यही प्रिय को जताती हैं ।।
खुले बंधन खुली अलकें, हृदय बहका रही जैसे ।
घटा काली घिरी मुख पर, लटें सुलझा रही ऐसे ।।
चली है बाबरी होकर, प्रणय प्रिय से रचाने वो ।
चली मदमस्त मधुबाला, गली अपनी सजाने को ।।
स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू
विधा:- विधाता छंद
1222. 1222, 1222 1222
सुनो मजबूर होकर के, निशा तुम को बुलाती है ।
मिलन की आस में जागी ,विरह के गीत गाती है ।।
कभी आँसू बहाती है,कभी सपने सजाती हैं।
कहीं कोई कली चटकी,यही प्रिय को जताती हैं ।।
खुले बंधन खुली अलकें, हृदय बहका रही जैसे ।
घटा काली घिरी मुख पर, लटें सुलझा रही ऐसे ।।
चली है बाबरी होकर, प्रणय प्रिय से रचाने वो ।
चली मदमस्त मधुबाला, गली अपनी सजाने को ।।
स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू
नमन भावों के मोती
दिनांक-२७/८/२०१९
शीर्षक-लाचारी/मजबूरी
ऐसी भी क्या मजबूरी है?
आदत बन गई लाचारी है
क्यों बने हैं हालात लाचार
करें संघर्ष,हो सुखद परिणाम।
छोड़ दें अपनी बुरी आदतों को
आये जीवन में जो मजबूरी
अनुचित न हो कदम कभी
धर्य वह संघर्ष सदैव साथ
सुबह सुहानी करें इंतजार।
लाचारी का नाम लेकर
ईमानदारी को न दें त्याग
चलना है जिंदगी का नाम
चलते रहना हमारा काम।
अपनी लाचारी याद रहे
दुसरो की लाचारी नादानी है
कदम कदम पर हम सही
दूसरों में सदैव बेईमानी है।
यही तो गलत सोच हमारा
हम सब को भरमाये है।
लाचारी में उम्मिद का पतवार
रखना होगा हमें सदा साथ
परिस्थिति तो जाय सुधर
कर्म बिगड़े तो फिर कौन बचाये?
बिगड़े कर्म तो फिर कौन बचाये?
स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
दिनांक-२७/८/२०१९
शीर्षक-लाचारी/मजबूरी
ऐसी भी क्या मजबूरी है?
आदत बन गई लाचारी है
क्यों बने हैं हालात लाचार
करें संघर्ष,हो सुखद परिणाम।
छोड़ दें अपनी बुरी आदतों को
आये जीवन में जो मजबूरी
अनुचित न हो कदम कभी
धर्य वह संघर्ष सदैव साथ
सुबह सुहानी करें इंतजार।
लाचारी का नाम लेकर
ईमानदारी को न दें त्याग
चलना है जिंदगी का नाम
चलते रहना हमारा काम।
अपनी लाचारी याद रहे
दुसरो की लाचारी नादानी है
कदम कदम पर हम सही
दूसरों में सदैव बेईमानी है।
यही तो गलत सोच हमारा
हम सब को भरमाये है।
लाचारी में उम्मिद का पतवार
रखना होगा हमें सदा साथ
परिस्थिति तो जाय सुधर
कर्म बिगड़े तो फिर कौन बचाये?
बिगड़े कर्म तो फिर कौन बचाये?
स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
नमन भावों के मोती
विषय-लाचारी
🌹मुखौटा🌹
हर आदमी ने चेहरे पर मुखौटा पहना भारी।
देव है या दानव ये पहचानने में होती लाचारी।
धोखेबाजो पर भोली जनता कर लेती विश्वास-
फिर सारी जिंदगी ठोकर खा बनती हैं बेचारी।
इंसा बना हुआ आधा मानव आधा शैतान
स्वंय के परिजन को ही करता ये परेशान
ना किसी रिश्ते की इसको होती है मर्यादा
माँ बहन को देखकर बन जाता है हैवान
स्वरचित कुसुम त्रिवेदी
विषय-लाचारी
🌹मुखौटा🌹
हर आदमी ने चेहरे पर मुखौटा पहना भारी।
देव है या दानव ये पहचानने में होती लाचारी।
धोखेबाजो पर भोली जनता कर लेती विश्वास-
फिर सारी जिंदगी ठोकर खा बनती हैं बेचारी।
इंसा बना हुआ आधा मानव आधा शैतान
स्वंय के परिजन को ही करता ये परेशान
ना किसी रिश्ते की इसको होती है मर्यादा
माँ बहन को देखकर बन जाता है हैवान
स्वरचित कुसुम त्रिवेदी
नमन मंच-भावों के मोती
दिनांक-27/08/2019
विधा-काव्य
प्रथम कृति
विषय-लाचारी/मजबूरी
इतनी है लाचारी कैसी!इतनी है मजबूरी।
यादें दामन नहीं छोड़ती ये कैसी है दूरी।।
यादों के मोती सागर में, अब भी चमक रहें हैं।
दूर सनम तुमसे होकर,हम अब भी तड़प रहे हैं।
प्यार वफ़ा की बातें,हमको लगती अभी अधूरी।
इतनी है लाचारी कैसी......
चाँद दुप्पटे से ढँक करके,चुपके-चुपके तकना,
अगर चाँद सरमा जाए तो,धीरे से मुँह ढकना।।
मन को नहीं बता पाता मैं,मिटे किस कदर दूरी।
इतनी है लाचारी कैसी.....
यादें सिमट,सिमट जाती हैं,कुछ भी न कर पाता।
जब भी तेरी झलक देखता,मन कितना!घबराता।।
दिल में उठती बड़ी उमंगें,कब तक होंगी पूरी।
इतनी है लाचारी कैसी........
दिल से दिल को याद करो,फिर न होगी ये दूरी।
इतनी है लाचारी कैसी! इतनी है मजबूरी।।
लाल चन्द्र यादव(अम्बेडकर नगर उत्तर प्रदेश)
दिनांक-27/08/2019
विधा-काव्य
प्रथम कृति
विषय-लाचारी/मजबूरी
इतनी है लाचारी कैसी!इतनी है मजबूरी।
यादें दामन नहीं छोड़ती ये कैसी है दूरी।।
यादों के मोती सागर में, अब भी चमक रहें हैं।
दूर सनम तुमसे होकर,हम अब भी तड़प रहे हैं।
प्यार वफ़ा की बातें,हमको लगती अभी अधूरी।
इतनी है लाचारी कैसी......
चाँद दुप्पटे से ढँक करके,चुपके-चुपके तकना,
अगर चाँद सरमा जाए तो,धीरे से मुँह ढकना।।
मन को नहीं बता पाता मैं,मिटे किस कदर दूरी।
इतनी है लाचारी कैसी.....
यादें सिमट,सिमट जाती हैं,कुछ भी न कर पाता।
जब भी तेरी झलक देखता,मन कितना!घबराता।।
दिल में उठती बड़ी उमंगें,कब तक होंगी पूरी।
इतनी है लाचारी कैसी........
दिल से दिल को याद करो,फिर न होगी ये दूरी।
इतनी है लाचारी कैसी! इतनी है मजबूरी।।
लाल चन्द्र यादव(अम्बेडकर नगर उत्तर प्रदेश)
भावों के मोती
#दिनांक:27"82019:
#विषय:लाचारी:मज़बूरी:
#विधा:काव्य:
*+*+* #लाचारी *+*+*
क्या कभी आपने यह भी सोचा है ,
आपके वश मैं भी क्या कोई बात,
सुबह शाम और दिन को छोड़िये,
क्या आपके वश मैं है कोई रात,
आपको यह भी सोचना होगा,
स्वजन्म पर है क्या खुद का हाथ,
स्वैच्छिक नहीं मृत्यु हम सब की
मनुष्य तेरी है ही क्या औकात,
ज़ब भी आप यह विचार करेंगे,
कुदरत से मिली लगेगी हर सौगात,
गर्मी और ठण्ड का मौसम बनाया,
सुखद जीवन बनाती है बरसात,
खुद से भी कभी किया कीजिये,
आग पानी और हवा पर सवालात,
वक़्त भी तुझे प्रकृति से मिला है,
वर्ना मुफ़लिस होता आदम जात,
फल फूल बेल और पेढ और पौधे,
पशु पक्षी कीट और नदी समंदर,
प्रकृति के आगे लाचारी है सबकी,
नहीं ताकत रब सी किसी के अंदर,
"*"रचनाकार *+*
दुर्गा सिलगीवाला सोनी भुआ बिछिया
मंडला मध्यप्रदेश,
#दिनांक:27"82019:
#विषय:लाचारी:मज़बूरी:
#विधा:काव्य:
*+*+* #लाचारी *+*+*
क्या कभी आपने यह भी सोचा है ,
आपके वश मैं भी क्या कोई बात,
सुबह शाम और दिन को छोड़िये,
क्या आपके वश मैं है कोई रात,
आपको यह भी सोचना होगा,
स्वजन्म पर है क्या खुद का हाथ,
स्वैच्छिक नहीं मृत्यु हम सब की
मनुष्य तेरी है ही क्या औकात,
ज़ब भी आप यह विचार करेंगे,
कुदरत से मिली लगेगी हर सौगात,
गर्मी और ठण्ड का मौसम बनाया,
सुखद जीवन बनाती है बरसात,
खुद से भी कभी किया कीजिये,
आग पानी और हवा पर सवालात,
वक़्त भी तुझे प्रकृति से मिला है,
वर्ना मुफ़लिस होता आदम जात,
फल फूल बेल और पेढ और पौधे,
पशु पक्षी कीट और नदी समंदर,
प्रकृति के आगे लाचारी है सबकी,
नहीं ताकत रब सी किसी के अंदर,
"*"रचनाकार *+*
दुर्गा सिलगीवाला सोनी भुआ बिछिया
मंडला मध्यप्रदेश,
भावों के मोती दिनांक 27/8/19
लाचारी / मजबूरी
नहीं होती
सफलता में
बाधक
कोई लाचारी
लांघ सकते है
दिव्यांग भी पर्वत
सब चाहिए
हिम्मत- हौसला
भविष्य बनते हैं
माता पिता
बच्चों का
हो चाहे कोई
मजबूरी
लड़ता है
सैनिक
देश की खातिर
दूर कर सब
लाचारियां
मजबूरियाँ
घर परिवार की
न दे
बुढापे में
ईश्वर
लाचारी
होता है
और मुश्किल
जीवन
जब छोड़
जाते हैं
अकेला बच्चे
नहीं समझते
मजबूरी
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
लाचारी / मजबूरी
नहीं होती
सफलता में
बाधक
कोई लाचारी
लांघ सकते है
दिव्यांग भी पर्वत
सब चाहिए
हिम्मत- हौसला
भविष्य बनते हैं
माता पिता
बच्चों का
हो चाहे कोई
मजबूरी
लड़ता है
सैनिक
देश की खातिर
दूर कर सब
लाचारियां
मजबूरियाँ
घर परिवार की
न दे
बुढापे में
ईश्वर
लाचारी
होता है
और मुश्किल
जीवन
जब छोड़
जाते हैं
अकेला बच्चे
नहीं समझते
मजबूरी
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
मजबूर ~
दिल में लगी आग को बुझाता कौन है??
बेबसी के चूल्ह पडे ठंडे जलाता कौन है ??
इक मजदूर के पेट की आग मजबूरी है उसकी
कमरतोड मँहगाई में भूखे बच्चों की सुनता है सिसकी
करके दिनरात मेहनत दो जून की रोटी जुटा पाता है
सारा मुनाफा तो मिल मालिक की जेबों में जाता है
तन हो रोगी या हो घर में लगी हो हारी बीमारी
दवा दारू में रोटी का जुगाड भी सबपे भारी
ये बेबस, निरीह मजदूर यूँ ही मजदूरी करता है
सेठ, साहूकार के पैर पकड गुलामी भी करता है
जो नून, तेल, रोटी भी बडी मुश्किल से जुटाता है
वो खुशी भरे कल की आस में पानी पी कर भी सो जाता है
रोता है दिल इनकी बेबसी, लाचारगी पर
ऊँचे महलों के बिगडैल इतना उडा देते हैं आवारगी पर
प्यारे प्रभु काश! तुमने सबको एक सा बनाया होता
दीन, ईमान, धर्म, ऊँच, नीच, जात, पात का भेद मिटाया होता
इंसान से इंसानियत की जिन्दा रहती पहचान
तोडके सारे बँधन बस, मानवता ही होती इक निशान ||
✍ सीमा गर्ग " मंजरी "
मेरी स्वरचित रचना ©
मेरठ
दिल में लगी आग को बुझाता कौन है??
बेबसी के चूल्ह पडे ठंडे जलाता कौन है ??
इक मजदूर के पेट की आग मजबूरी है उसकी
कमरतोड मँहगाई में भूखे बच्चों की सुनता है सिसकी
करके दिनरात मेहनत दो जून की रोटी जुटा पाता है
सारा मुनाफा तो मिल मालिक की जेबों में जाता है
तन हो रोगी या हो घर में लगी हो हारी बीमारी
दवा दारू में रोटी का जुगाड भी सबपे भारी
ये बेबस, निरीह मजदूर यूँ ही मजदूरी करता है
सेठ, साहूकार के पैर पकड गुलामी भी करता है
जो नून, तेल, रोटी भी बडी मुश्किल से जुटाता है
वो खुशी भरे कल की आस में पानी पी कर भी सो जाता है
रोता है दिल इनकी बेबसी, लाचारगी पर
ऊँचे महलों के बिगडैल इतना उडा देते हैं आवारगी पर
प्यारे प्रभु काश! तुमने सबको एक सा बनाया होता
दीन, ईमान, धर्म, ऊँच, नीच, जात, पात का भेद मिटाया होता
इंसान से इंसानियत की जिन्दा रहती पहचान
तोडके सारे बँधन बस, मानवता ही होती इक निशान ||
✍ सीमा गर्ग " मंजरी "
मेरी स्वरचित रचना ©
मेरठ
भावों के मोती
विषय=लाचारी/मजबूरी
================
आज विचलित हो उठा मन
देख कर कुछ ऐसा मंजर
यह कैसी लहर चली है
बुढ़ापे में अकेले छोड़ देते हैं
यह कैसी कलयुगी संतानें हैं
निर्दयी निष्ठुर भावना से परे
नहीं कोई दया
नहीं कोई करूणा
जिन्हें किसी का डर नहीं
असहनीय कष्ट देते
अपने जनक को
भूल गए उनके त्याग को
आज विचलित हो उठा मन
बढ़ती उम्र की लाचारी
देख संतान की कठोरता
हो जाते मजबूर
भूल गए ममता उनकी
भूल गए वो कष्ट
जो उन्हें सुखी करने के लिए
मां बाप ने झेले थे
बेदखल कर देते घर से
तोड़ देते हैं स्वप्न
जो उन्होंने संजोए थे
मन्नतों से पाया था जिसे
खरोंच जरा भी आती थी
तो फूट फूट कर रोते थे
आज उन्हीं बच्चों के दिए दर्द से
फिर फूट फूट कर रोते हैं
उफ ये कैसी निर्दयी संतानें हैं
देख के उनका यह रूप
आज विचलित हो उठा मन
*** अनुराधा चौहान***स्वरचित
विषय=लाचारी/मजबूरी
================
आज विचलित हो उठा मन
देख कर कुछ ऐसा मंजर
यह कैसी लहर चली है
बुढ़ापे में अकेले छोड़ देते हैं
यह कैसी कलयुगी संतानें हैं
निर्दयी निष्ठुर भावना से परे
नहीं कोई दया
नहीं कोई करूणा
जिन्हें किसी का डर नहीं
असहनीय कष्ट देते
अपने जनक को
भूल गए उनके त्याग को
आज विचलित हो उठा मन
बढ़ती उम्र की लाचारी
देख संतान की कठोरता
हो जाते मजबूर
भूल गए ममता उनकी
भूल गए वो कष्ट
जो उन्हें सुखी करने के लिए
मां बाप ने झेले थे
बेदखल कर देते घर से
तोड़ देते हैं स्वप्न
जो उन्होंने संजोए थे
मन्नतों से पाया था जिसे
खरोंच जरा भी आती थी
तो फूट फूट कर रोते थे
आज उन्हीं बच्चों के दिए दर्द से
फिर फूट फूट कर रोते हैं
उफ ये कैसी निर्दयी संतानें हैं
देख के उनका यह रूप
आज विचलित हो उठा मन
*** अनुराधा चौहान***स्वरचित
नमन भावों के मोती
दिनांक -27/08/2019
विषय- लाचारी/मजबूरी
खाने को रोटी नहीं पहनने को धोती नहीं
कैसी यह लाचारी हाय कैसी है लाचारी ।
जीवन बीते फुटपातों में सर्दी गर्मी बरसातों में
कैसी यह लाचारी , हाय कैसी यह लाचारी ।
बचपन बीता अभावों में ,जवानी में तड़पन भारी
कैसी यह लाचारी ,हाय कैसी यह लाचारी ।
कहीं तिजोरी भरी पड़ी हैं ,कहीं है दुखड़ा भारी
कैसी यह लाचारी ,हाय कैसी यह लाचारी।
किसीको छप्पन भोग मिले और किसी को टुकड़ा भारी
कैसी यह लाचारी ,हाय कैसी यह लाचारी ।
प्रकृति ने सबको सबकुछ दीन्हा ,मानव ने डंडी मारी
कैसी यह लाचारी ,हाय कैसी यह लाचारी ।
सोचो यदि ऐसा हो जाय, थोड़ा-थोड़ा सबको मिल जाए
न हो फिर लाचारी ,जी हाँ न हो फिर लाचारी।
स्वरचित
मोहिनी पांडेय
दिनांक -27/08/2019
विषय- लाचारी/मजबूरी
खाने को रोटी नहीं पहनने को धोती नहीं
कैसी यह लाचारी हाय कैसी है लाचारी ।
जीवन बीते फुटपातों में सर्दी गर्मी बरसातों में
कैसी यह लाचारी , हाय कैसी यह लाचारी ।
बचपन बीता अभावों में ,जवानी में तड़पन भारी
कैसी यह लाचारी ,हाय कैसी यह लाचारी ।
कहीं तिजोरी भरी पड़ी हैं ,कहीं है दुखड़ा भारी
कैसी यह लाचारी ,हाय कैसी यह लाचारी।
किसीको छप्पन भोग मिले और किसी को टुकड़ा भारी
कैसी यह लाचारी ,हाय कैसी यह लाचारी ।
प्रकृति ने सबको सबकुछ दीन्हा ,मानव ने डंडी मारी
कैसी यह लाचारी ,हाय कैसी यह लाचारी ।
सोचो यदि ऐसा हो जाय, थोड़ा-थोड़ा सबको मिल जाए
न हो फिर लाचारी ,जी हाँ न हो फिर लाचारी।
स्वरचित
मोहिनी पांडेय
नमन भावों के मोती
विषय - मजबूरी/ लाचारी
27/08/19
मंगलवार
कविता
सहारे सब यहाँ छूटे
नियति की वह तो मारी है,
मगर हिम्मत न हारे जो
वही भारतीय नारी है।
सुबह होते कमर कसकर
वहअपने पथ पर जातीं है,
पड़े हों पैर में छाले
मगर संघर्ष जारी है।
जिंदगी इसकी तो कांटों
भरी राहों से है गुजरी ,
सदा से पेट भरने के
लिए इसकी लाचारी है।
गरीबी व बेकारी ने सभी
घर -द्वार है छीना ,
पति की बेबसी में
काम करना जिम्मेदारी है।
इसी उम्मीद में दिन-रात
श्रम में व्यस्त रहती है,
बहुत सबको दिया प्रभु ने
अब शायद उसकी बारी है।
स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर
विषय - मजबूरी/ लाचारी
27/08/19
मंगलवार
कविता
सहारे सब यहाँ छूटे
नियति की वह तो मारी है,
मगर हिम्मत न हारे जो
वही भारतीय नारी है।
सुबह होते कमर कसकर
वहअपने पथ पर जातीं है,
पड़े हों पैर में छाले
मगर संघर्ष जारी है।
जिंदगी इसकी तो कांटों
भरी राहों से है गुजरी ,
सदा से पेट भरने के
लिए इसकी लाचारी है।
गरीबी व बेकारी ने सभी
घर -द्वार है छीना ,
पति की बेबसी में
काम करना जिम्मेदारी है।
इसी उम्मीद में दिन-रात
श्रम में व्यस्त रहती है,
बहुत सबको दिया प्रभु ने
अब शायद उसकी बारी है।
स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर
विधा -कविता
दिनांक -27-08-2019
::************************
जिनको न मिले कभी वस्त्र नये,
पादुका न मिलीं पग पहनन को|
दिनभर करते धनु की सेवा,
फिरभी ना दूध मिला उनको|
जो रोज नहाते नदियों में,
वो बाँध बनाया करते हैं||
जिनको नहीं मिलते रुल-रबर,
वो भी पढ़ जाया करते हैं||
जिनकी होली कीचड़ के संग,
टेसू संग मनती दीवाली|
दस रूपये में कर आते मेला,
फिर भी जीवन में खुशहाली|
जो पौध लगाते धानों की,
वो मील चलाया करते हैं||
जिनको नहीं मिलते रुल-रबर,
वो भी पढ़ जाया करते हैं||
दिनभर जंगल में वृक्ष तले,
करते अनुजों की रखवाली|
हाथों में पकड़ रोटी खाते,
ना देखी मनमोहक थाली|
जो बड़े हुये रज में मिलकर,
वो देश चलाया करते हैं||
काँटों में भी राह बना,
अम्बुज खिल जाया करते हैं||
🙏स्वरचित-गीतानौहवार
दिनांक -27-08-2019
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जिनको न मिले कभी वस्त्र नये,
पादुका न मिलीं पग पहनन को|
दिनभर करते धनु की सेवा,
फिरभी ना दूध मिला उनको|
जो रोज नहाते नदियों में,
वो बाँध बनाया करते हैं||
जिनको नहीं मिलते रुल-रबर,
वो भी पढ़ जाया करते हैं||
जिनकी होली कीचड़ के संग,
टेसू संग मनती दीवाली|
दस रूपये में कर आते मेला,
फिर भी जीवन में खुशहाली|
जो पौध लगाते धानों की,
वो मील चलाया करते हैं||
जिनको नहीं मिलते रुल-रबर,
वो भी पढ़ जाया करते हैं||
दिनभर जंगल में वृक्ष तले,
करते अनुजों की रखवाली|
हाथों में पकड़ रोटी खाते,
ना देखी मनमोहक थाली|
जो बड़े हुये रज में मिलकर,
वो देश चलाया करते हैं||
काँटों में भी राह बना,
अम्बुज खिल जाया करते हैं||
🙏स्वरचित-गीतानौहवार
भावों के मोती नमन
दिनांक -27/8/2019
विषय -लाचारी /मजबूरी
पर्वत से भारी लाचारी
कहती है यह दुनियादारी
कभी हालात कभी जज़्बात
लाचारी की बिछाते बिसात
प्रतिकार जब ना कर पाएँ
समझौतवादी बनते जाएँ
ऐच्छिक विषय नही लाचारी
विकल्प खोज में समझदारी
लाचारी विकराल हो जाती
अंतर्मन पर तब घात लगाती
घुट घुटकर जीना ही पड़ता
वेदनाओं को भी पीना पड़ता
ऐसा करना कहलाता लाज़मी
आज बड़ा ख़राब है आदमी
लाचारी का फ़ायदा उठाते
बनकर व्यापारी सौदा करते
आनंदित होकर उपहास उड़ाएँ
माँगो लो मदद तो बहाने बनाएँ
ख़ुद ही ख़ुद को सहारा बना लो
लाचारी को पराजित करके दिखाओ ।
✍🏻 संतोष कुमारी ‘ संप्रीति ‘
स्वरचित एवं मौलिक
दिनांक -27/8/2019
विषय -लाचारी /मजबूरी
पर्वत से भारी लाचारी
कहती है यह दुनियादारी
कभी हालात कभी जज़्बात
लाचारी की बिछाते बिसात
प्रतिकार जब ना कर पाएँ
समझौतवादी बनते जाएँ
ऐच्छिक विषय नही लाचारी
विकल्प खोज में समझदारी
लाचारी विकराल हो जाती
अंतर्मन पर तब घात लगाती
घुट घुटकर जीना ही पड़ता
वेदनाओं को भी पीना पड़ता
ऐसा करना कहलाता लाज़मी
आज बड़ा ख़राब है आदमी
लाचारी का फ़ायदा उठाते
बनकर व्यापारी सौदा करते
आनंदित होकर उपहास उड़ाएँ
माँगो लो मदद तो बहाने बनाएँ
ख़ुद ही ख़ुद को सहारा बना लो
लाचारी को पराजित करके दिखाओ ।
✍🏻 संतोष कुमारी ‘ संप्रीति ‘
स्वरचित एवं मौलिक