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ब्लॉग संख्या :-477
नमन नंच🙏💐
सुप्रभात गुरूजनों व मित्रों 🙏😊
दिनांक- 14/8/2019
शीर्षक- "छलिया"
***************
वो है छलिया, छैल-छबीला,
भेष बदल करता है लीला,
मनिहारी का वो भेष बनाये,
चूड़ी बेचन वृंदावन आ जाये |
रंग-बिरंगी चूड़ी वो लाये,
हाय री सखी! मन ललचाये,
जोर-जोर से आवाज लगाये,
कान्हा है, पहचान में न आये |
छलिया तेरी बात निराली,
बंशी बजावे तु मतवाली,
गोपियों संग रास रचाये,
राधा को तु दिल में बसाये |
कंस को तु मथुरा में पछाड़े,
देवकी नंदन तुम सबके प्यारे,
अवगुण मेरे भी हर लो सारे,
प्रभु आई हूँ मैं शरण तिहारे |
स्वरचित- "संगीता कुकरेती"
सुप्रभात गुरूजनों व मित्रों 🙏😊
दिनांक- 14/8/2019
शीर्षक- "छलिया"
***************
वो है छलिया, छैल-छबीला,
भेष बदल करता है लीला,
मनिहारी का वो भेष बनाये,
चूड़ी बेचन वृंदावन आ जाये |
रंग-बिरंगी चूड़ी वो लाये,
हाय री सखी! मन ललचाये,
जोर-जोर से आवाज लगाये,
कान्हा है, पहचान में न आये |
छलिया तेरी बात निराली,
बंशी बजावे तु मतवाली,
गोपियों संग रास रचाये,
राधा को तु दिल में बसाये |
कंस को तु मथुरा में पछाड़े,
देवकी नंदन तुम सबके प्यारे,
अवगुण मेरे भी हर लो सारे,
प्रभु आई हूँ मैं शरण तिहारे |
स्वरचित- "संगीता कुकरेती"
तेरे नयनो की चमक छली।
मोहित मन के अनुरागो को।
मन द्रवित प्राण रंजित जैसे।
हो गये नेह-मेह के फागों से।
तेरे विरक्त मन सी निश्चलता।
थी जो मुझको बहुत सताती।
तुम मुझको याद बहुत आती।
क्यूँ मुझको याद बहुत आती।
वो समय लौटकर फिर आए।
आ जाए फिर फिर वही हवाएं।
तन मन भीग रहे संग- संग।
जले अगन लगन की ज्वालाएं।
किन्तु समय की कालचक्रिका।
वापस कभी लौट नहीं पाती।
तुम मुझको याद बहुत आती।
क्यूँ मुझको याद बहुत आती।
वो साल समय का फेरा था।
खुशियों का एक जादू डेरा था।
मधुर स्वप्न - सजीली थी रातें।
स्वर्णिम प्रतिदिवस सवेरा था।
मन मे कलरव की मीठी धुन।
उम्मीदों की चिड़िया गाती थीं।
तुम मुझको याद बहुत आती।
क्यूँ मुझको याद बहुत आती।
यूँ तो मै अब भी लिखता हूं।
यूँ तो मैं अब भी पढता हूं।
हैं प्राण - हीन सभी रचनाएं।
कहां जीवंत सौंदर्य गढता हूँ।
कलम उकेरती है शब्द मात्र।
परन्तु कविता नहीं बन पाती।
तुम मुझको याद बहुत आती।
क्यूँ मुझको याद बहुत आती।
स्वरचित विपिन सोहल
मोहित मन के अनुरागो को।
मन द्रवित प्राण रंजित जैसे।
हो गये नेह-मेह के फागों से।
तेरे विरक्त मन सी निश्चलता।
थी जो मुझको बहुत सताती।
तुम मुझको याद बहुत आती।
क्यूँ मुझको याद बहुत आती।
वो समय लौटकर फिर आए।
आ जाए फिर फिर वही हवाएं।
तन मन भीग रहे संग- संग।
जले अगन लगन की ज्वालाएं।
किन्तु समय की कालचक्रिका।
वापस कभी लौट नहीं पाती।
तुम मुझको याद बहुत आती।
क्यूँ मुझको याद बहुत आती।
वो साल समय का फेरा था।
खुशियों का एक जादू डेरा था।
मधुर स्वप्न - सजीली थी रातें।
स्वर्णिम प्रतिदिवस सवेरा था।
मन मे कलरव की मीठी धुन।
उम्मीदों की चिड़िया गाती थीं।
तुम मुझको याद बहुत आती।
क्यूँ मुझको याद बहुत आती।
यूँ तो मै अब भी लिखता हूं।
यूँ तो मैं अब भी पढता हूं।
हैं प्राण - हीन सभी रचनाएं।
कहां जीवंत सौंदर्य गढता हूँ।
कलम उकेरती है शब्द मात्र।
परन्तु कविता नहीं बन पाती।
तुम मुझको याद बहुत आती।
क्यूँ मुझको याद बहुत आती।
स्वरचित विपिन सोहल
माँ शारदा को नमन ,मंच भावों के मोती को नमन ।
दिन -बुधवार,24/8/2019
विषय :-छलिया ।
विधा -कविता
छलिया छल ही करे
कभी नसीधी बात कहे
वह सबसे टेढ़ी ही कहे
कल कल बसकहता रहै।
सदा ही छल सेबातें करे
मन मोहेबतरस बतियां
नयनन् नेह भरे हैं उसके
मोह रही मुरली की धुन
सुनकर सब जग बहके।
सांवली सूरत भोलीभाली
चाल चले वह मतवाली
छद्मवेष धर चले कुचाली
छलिया छल बल से करे ।
स्वरचित -उषासक्सेना
दिन -बुधवार,24/8/2019
विषय :-छलिया ।
विधा -कविता
छलिया छल ही करे
कभी नसीधी बात कहे
वह सबसे टेढ़ी ही कहे
कल कल बसकहता रहै।
सदा ही छल सेबातें करे
मन मोहेबतरस बतियां
नयनन् नेह भरे हैं उसके
मोह रही मुरली की धुन
सुनकर सब जग बहके।
सांवली सूरत भोलीभाली
चाल चले वह मतवाली
छद्मवेष धर चले कुचाली
छलिया छल बल से करे ।
स्वरचित -उषासक्सेना
छलिया
छलिया घूमता हैं,
गाँव-शहर की गलिया ।
शब्द श्रृंगार,मीठे बोल की,
साथ लेकर गोलिया ।
बहकती हैं कुछ कलिया ।
इन गोलियों के लालच में ।
फसती हैं छलिया के ,
फेके हुए गोलियों के,
बूने हुए जाल में ।
नहीं समझ पाती,
छलिया का छल ।
नहीं दिखता उसे,
आने वाला कल ।
बहकती हैं,
गोलियों की नशा में ।
पहुंचती हैं एक,
दर्द भरी दशा में ।
कलियों से निवेदन,
छलिया मिलेंगे,
गली के हर मोड़ पर,
ना जाओं अपने,
प्यारे माँ बाप को छोड़कर ।
आपके जाते ही,
श्मशान बन जाता घर ।
झुक जाता शर्म से,
माँ बाप का सर ।
✍प्रदीप सहारे
छलिया घूमता हैं,
गाँव-शहर की गलिया ।
शब्द श्रृंगार,मीठे बोल की,
साथ लेकर गोलिया ।
बहकती हैं कुछ कलिया ।
इन गोलियों के लालच में ।
फसती हैं छलिया के ,
फेके हुए गोलियों के,
बूने हुए जाल में ।
नहीं समझ पाती,
छलिया का छल ।
नहीं दिखता उसे,
आने वाला कल ।
बहकती हैं,
गोलियों की नशा में ।
पहुंचती हैं एक,
दर्द भरी दशा में ।
कलियों से निवेदन,
छलिया मिलेंगे,
गली के हर मोड़ पर,
ना जाओं अपने,
प्यारे माँ बाप को छोड़कर ।
आपके जाते ही,
श्मशान बन जाता घर ।
झुक जाता शर्म से,
माँ बाप का सर ।
✍प्रदीप सहारे
शीर्षक-- छलिया
प्रथम प्रस्तुति
न पहले भी हम कम थे
न अब भी हम कम हैं ।।
गम यही जाने न मुझे
मेरे ही जो सनम हैं ।।
वो हमसे हम उनसे
करे छल कहें सितम है ।।
पर सितम जागीर बने
रखो हरदम वो दम हैं ।।
कहो छलिया कहो रसिया
हर गम की अब मरहम है ।।
दिल में बसायी मूरत तो
पुजारी भी हुए हम हैं ।।
कृष्ण को जानो जानोगे
प्यार वफ़ायें पुर-नम है ।।
ज्ञान की बातों में उन
सम सानी न परम है ।।
नजर अपनी अपनी
होती सदा 'शिवम' है ।।
कृष्ण को कोई कुछ कहे
पर रखें न मन में गम है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 14/08/2019
प्रथम प्रस्तुति
न पहले भी हम कम थे
न अब भी हम कम हैं ।।
गम यही जाने न मुझे
मेरे ही जो सनम हैं ।।
वो हमसे हम उनसे
करे छल कहें सितम है ।।
पर सितम जागीर बने
रखो हरदम वो दम हैं ।।
कहो छलिया कहो रसिया
हर गम की अब मरहम है ।।
दिल में बसायी मूरत तो
पुजारी भी हुए हम हैं ।।
कृष्ण को जानो जानोगे
प्यार वफ़ायें पुर-नम है ।।
ज्ञान की बातों में उन
सम सानी न परम है ।।
नजर अपनी अपनी
होती सदा 'शिवम' है ।।
कृष्ण को कोई कुछ कहे
पर रखें न मन में गम है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 14/08/2019
4/8/2019
छलिया
💐💐💐
नमन मंच भावों के मोती।
सुप्रभात गुरुजनों, मित्रों।
तेरे नैनों ने जादू किया।
ओ छलिया!
मेरा मन मोह लिया।
जब मैं गई थी यमुना के तट पर,
तूने वरजोड़ी किया।
ओ छलिया!
मेरा मन मोह लिया।
तन,मन मेरे वश में रहा ना अब,
कैसा छल ये तूने किया।
ओ छलिया!
मेरा मन मोह लिया।
पहले की माखन की चोरी,
फिर दिल चुरा लिया।
ओ छलिया!
मेरा मन मोह लिया।
💐💐💐💐💐💐💐💐
वीणा झा
स्वरचित
बोकारो स्टील सिटी
छलिया
💐💐💐
नमन मंच भावों के मोती।
सुप्रभात गुरुजनों, मित्रों।
तेरे नैनों ने जादू किया।
ओ छलिया!
मेरा मन मोह लिया।
जब मैं गई थी यमुना के तट पर,
तूने वरजोड़ी किया।
ओ छलिया!
मेरा मन मोह लिया।
तन,मन मेरे वश में रहा ना अब,
कैसा छल ये तूने किया।
ओ छलिया!
मेरा मन मोह लिया।
पहले की माखन की चोरी,
फिर दिल चुरा लिया।
ओ छलिया!
मेरा मन मोह लिया।
💐💐💐💐💐💐💐💐
वीणा झा
स्वरचित
बोकारो स्टील सिटी
नमन भावों के मोती
आज का विषय, छलिया
दिनांक, 1 4,8,2019,
दिन, बुधवार
हे मुरलीधर तुम हो छलिया,
जग सारा यही कहता है ।
जन कल्याण छुपा जो मन में,
देख नहीं कोई पाता है ।
गीता का वाचन कर तुमने,
महत्व कर्म का समझाया है।
झूठे लालच औ मोह बंधन से,
मानव का परिचय करवाया है।
हमें रिश्तों की मर्यादा रखना,
महाभारत से समझाया है ।
जहाँ रिश्तों में रहे ईमान नहीं,
उन रिश्तों को ठुकराया है।
रहता प्रेम सदा सबसे ऊँचा,
खुद को राधेय कहलाया है।
रास रचाया गोपियों के संग ,
चोरी करके माखन खाया है।
हे मनमोहन तुम हो छलिया,
या कि मानव ही भरमाया है ।
मानव भेद तुम्हारा हे जगदीश्वर
बस अंर्तमन में ही गह पाया है।
स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,
आज का विषय, छलिया
दिनांक, 1 4,8,2019,
दिन, बुधवार
हे मुरलीधर तुम हो छलिया,
जग सारा यही कहता है ।
जन कल्याण छुपा जो मन में,
देख नहीं कोई पाता है ।
गीता का वाचन कर तुमने,
महत्व कर्म का समझाया है।
झूठे लालच औ मोह बंधन से,
मानव का परिचय करवाया है।
हमें रिश्तों की मर्यादा रखना,
महाभारत से समझाया है ।
जहाँ रिश्तों में रहे ईमान नहीं,
उन रिश्तों को ठुकराया है।
रहता प्रेम सदा सबसे ऊँचा,
खुद को राधेय कहलाया है।
रास रचाया गोपियों के संग ,
चोरी करके माखन खाया है।
हे मनमोहन तुम हो छलिया,
या कि मानव ही भरमाया है ।
मानव भेद तुम्हारा हे जगदीश्वर
बस अंर्तमन में ही गह पाया है।
स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,
नमन मंच
दिनांक .. 14/8/2019
विषय .. छलिया
***********************
पूछ रही गोपी उद्धव से, लाये क्या संदेश।
श्याम सखी के मन मे अब भी, क्या हमसे है प्रेम॥
**
निरखत नैन लिये सब गोपी, प्रेम भक्ति संयोग।
क्या ब्रज श्याम से बिसर गया है, ना मिलने का योग॥
***
जा देना संदेश श्याम को, रोता है ब्रजधाम।
राधा ललिता सब गोपी के, हृदय बसे है श्याम ॥
***
छल के चले गये छलिया वो, भूल गये हर बात।
क्यो निष्ठूर हो गये बेदर्दी, क्या लग गयी कोई बात॥
***
कण-कण मे तेरे श्याम बसें है, 'शेर' प्रेम से जान ।
उद्धव ग्यानी का गोपियों ने, हर लिया अभिमान II
***
स्वरचित ... शेर सिंह सर्राफ
दिनांक .. 14/8/2019
विषय .. छलिया
***********************
पूछ रही गोपी उद्धव से, लाये क्या संदेश।
श्याम सखी के मन मे अब भी, क्या हमसे है प्रेम॥
**
निरखत नैन लिये सब गोपी, प्रेम भक्ति संयोग।
क्या ब्रज श्याम से बिसर गया है, ना मिलने का योग॥
***
जा देना संदेश श्याम को, रोता है ब्रजधाम।
राधा ललिता सब गोपी के, हृदय बसे है श्याम ॥
***
छल के चले गये छलिया वो, भूल गये हर बात।
क्यो निष्ठूर हो गये बेदर्दी, क्या लग गयी कोई बात॥
***
कण-कण मे तेरे श्याम बसें है, 'शेर' प्रेम से जान ।
उद्धव ग्यानी का गोपियों ने, हर लिया अभिमान II
***
स्वरचित ... शेर सिंह सर्राफ
भावों के मोती
बिषय- छलिया
वक्त से बड़ा शायद कोई छलिया नहीं
सोचा हुआ यहां कभी कुछ होता नहीं।
इक पल में बदल जाता है दृश्य पर्दे का
हंसते हुए किरदार को रूला देता यही।
चलते चलते रुक जाते हैं कदम हमारे
राह में आ जाती हैं अनायास अड़चनें कई।
घमंड न करना कभी भी किसी चीज का
वक़्त कब तोड़ दे तेरा घमंड पता नहीं।
औरों के दर्द को अपना ही समझो करो
दोस्तों,प्रेम से बड़ी, कोई दौलत ही नहीं।
स्वरचित-निलम अग्रवाल, खड़कपुर
बिषय- छलिया
वक्त से बड़ा शायद कोई छलिया नहीं
सोचा हुआ यहां कभी कुछ होता नहीं।
इक पल में बदल जाता है दृश्य पर्दे का
हंसते हुए किरदार को रूला देता यही।
चलते चलते रुक जाते हैं कदम हमारे
राह में आ जाती हैं अनायास अड़चनें कई।
घमंड न करना कभी भी किसी चीज का
वक़्त कब तोड़ दे तेरा घमंड पता नहीं।
औरों के दर्द को अपना ही समझो करो
दोस्तों,प्रेम से बड़ी, कोई दौलत ही नहीं।
स्वरचित-निलम अग्रवाल, खड़कपुर
नमन मंच
भावों के मोती
14/8/2019
विषय-छलिया
...............
जब किसी पर अति का भरोसा होता है
वो अक्सर छलिया बनकर,हमें छल कर चला जाता है..
हमने सोचा ताउम्र रहेगी ये रोशनी
मगर अंधकार उजाले को छल कर चला जाता है..
ख्वाबों में एक सुंदर संसार सजाया मैंने
मन रूपी छलिया उसे छल कर चला जाता है..
उनींदी पलकों पर एक सपना उतर आया
वो भी उम्मीद जगा कर,छल कर चला जाता है..
ये सारा जग छलावा ही तो लगता है
पल भर का साथ,फिर जग संसार बिछड़ जाता है..
कृष्ण को शायद इसीलिए छलिया कहते हैं
वो मनमोहक छवि दिखाकर, छल कर चला जाता है..!!
✍️वंदना सोलंकी©स्वरचित
भावों के मोती
14/8/2019
विषय-छलिया
...............
जब किसी पर अति का भरोसा होता है
वो अक्सर छलिया बनकर,हमें छल कर चला जाता है..
हमने सोचा ताउम्र रहेगी ये रोशनी
मगर अंधकार उजाले को छल कर चला जाता है..
ख्वाबों में एक सुंदर संसार सजाया मैंने
मन रूपी छलिया उसे छल कर चला जाता है..
उनींदी पलकों पर एक सपना उतर आया
वो भी उम्मीद जगा कर,छल कर चला जाता है..
ये सारा जग छलावा ही तो लगता है
पल भर का साथ,फिर जग संसार बिछड़ जाता है..
कृष्ण को शायद इसीलिए छलिया कहते हैं
वो मनमोहक छवि दिखाकर, छल कर चला जाता है..!!
✍️वंदना सोलंकी©स्वरचित
सादर नमन
छलिया
छवि सुरभित मनहारिणी, मुरली की मधु तान ।
नट नटखट बेकल करे, अधर मधुर मुस्कान ।
नैन भींच खींचि आवे, सुध बुध मन बिसराय
छन-छन छलिया छल करे , होवत कबहुँ न भान।
***** *****
रैन बैन बेचैन हिय, हलक रुष्ट हलकान ।
कुम्हलत जात गोपियाँ, मोहन बिन निष्प्राण।
अति बैरी विरह छलिया, पीर नीर बरसाय
ताप तरश हर ले पिया, मिलन मोद वरदान ।
-©नवल किशोर सिंह
14-08-2019
स्वरचित
छलिया
छवि सुरभित मनहारिणी, मुरली की मधु तान ।
नट नटखट बेकल करे, अधर मधुर मुस्कान ।
नैन भींच खींचि आवे, सुध बुध मन बिसराय
छन-छन छलिया छल करे , होवत कबहुँ न भान।
***** *****
रैन बैन बेचैन हिय, हलक रुष्ट हलकान ।
कुम्हलत जात गोपियाँ, मोहन बिन निष्प्राण।
अति बैरी विरह छलिया, पीर नीर बरसाय
ताप तरश हर ले पिया, मिलन मोद वरदान ।
-©नवल किशोर सिंह
14-08-2019
स्वरचित
विधाःः काव्यःः
जय जय मेरे कृष्ण कन्हाई,
हे नटवर नटनागर बनवारी।
छलिया तुम हो बडे कन्हैया
मनमोहक मोहन गिरधारी।
अब रास रचाऐं रास रचैया।
कैसे नटखट कृष्ण कन्हैया।
जीवन कर दिया तेरे हवाले,
तू ही सब कुछ बंशी बजैया।
छलता कपटी गिरधरनागर।
तू छलिया तू करूणासागर।
बांकेबिहारी सब दुखसंहर्ता,
मधुवनबिहारी हे सुखसागर।
छलिया हमें छल से बचाना।
नहीं हमसे कुछ पाप कराना।
सदा छलकपट से दूर रहें हम,
प्रभु सन्मार्ग पर हमें चलाना।
स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जय जय मेरे कृष्ण कन्हाई,
हे नटवर नटनागर बनवारी।
छलिया तुम हो बडे कन्हैया
मनमोहक मोहन गिरधारी।
अब रास रचाऐं रास रचैया।
कैसे नटखट कृष्ण कन्हैया।
जीवन कर दिया तेरे हवाले,
तू ही सब कुछ बंशी बजैया।
छलता कपटी गिरधरनागर।
तू छलिया तू करूणासागर।
बांकेबिहारी सब दुखसंहर्ता,
मधुवनबिहारी हे सुखसागर।
छलिया हमें छल से बचाना।
नहीं हमसे कुछ पाप कराना।
सदा छलकपट से दूर रहें हम,
प्रभु सन्मार्ग पर हमें चलाना।
स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
नमन "भावो के मोती"
14/08/2019
"छलिया"
**********************
मधुवन में कन्हैया...
वंशी बजाने लगा है..
छलिया बनके.गोपियों को
रिझाने लगा है....।
सखियों संग राधा...
गिरती पड़ती भागी आई
होश कहाँ था..
कहाँ गुम हुआ..बिछुआ.
छलिया ने जो वंशी बजाई।
कदम की डाली पे कन्हैया
गोपियों का वस्त्र चुराया
कपटी-छलिया बनकर
सबक सिखाने लगा है.।
बावरी राधा..प्रेम में हारी..
मनमोहना की हुई दीवानी
शरमाई राधा ....जो देखा कन्हैया..
मन को छलिया का रुप ही भाया.....।।
स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल।।
14/08/2019
"छलिया"
**********************
मधुवन में कन्हैया...
वंशी बजाने लगा है..
छलिया बनके.गोपियों को
रिझाने लगा है....।
सखियों संग राधा...
गिरती पड़ती भागी आई
होश कहाँ था..
कहाँ गुम हुआ..बिछुआ.
छलिया ने जो वंशी बजाई।
कदम की डाली पे कन्हैया
गोपियों का वस्त्र चुराया
कपटी-छलिया बनकर
सबक सिखाने लगा है.।
बावरी राधा..प्रेम में हारी..
मनमोहना की हुई दीवानी
शरमाई राधा ....जो देखा कन्हैया..
मन को छलिया का रुप ही भाया.....।।
स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल।।
नमन मंच
छलिया
दोहे
मधुबन गुंजित हो उठा, सुनकर बंशी तान।
दर्शन को व्याकुल सभी,होते है हैरान।
मुदित हुए छवि देखकर, नैन हुए अभिराम
नटखट नन्दकिशोर है, राधा के घनश्याम।
सभी गोपियाँ ढूँढती, कहाँ गए चितचोर
छल करते है प्रेम से,नटवर नन्दकिशोर।
उड़ा चुनरिया ले गए,कहाँ गए है श्याम
खोज रही निश दिन तुझे,लेकर तेरा नाम।
प्रेम बीज उर रोप के,कहाँ चले मुँह मोड़
छलिया हो छल से हमें, गए राह में छोड़।
नीर बहाते नैन है, संग ले गए प्राण
बनवारी आकर मिलों, दुख का कर दो त्राण।
स्वरचित
गीता गुप्ता 'मन
छलिया
दोहे
मधुबन गुंजित हो उठा, सुनकर बंशी तान।
दर्शन को व्याकुल सभी,होते है हैरान।
मुदित हुए छवि देखकर, नैन हुए अभिराम
नटखट नन्दकिशोर है, राधा के घनश्याम।
सभी गोपियाँ ढूँढती, कहाँ गए चितचोर
छल करते है प्रेम से,नटवर नन्दकिशोर।
उड़ा चुनरिया ले गए,कहाँ गए है श्याम
खोज रही निश दिन तुझे,लेकर तेरा नाम।
प्रेम बीज उर रोप के,कहाँ चले मुँह मोड़
छलिया हो छल से हमें, गए राह में छोड़।
नीर बहाते नैन है, संग ले गए प्राण
बनवारी आकर मिलों, दुख का कर दो त्राण।
स्वरचित
गीता गुप्ता 'मन
नमन भावों के मोती
दिनांक १४/८/२०१९
शीर्षक-छलिया"
मानव मन छलिया बड़ा
इससे कौन बच पाये
पल पल बदले रूप अपना
जगत में नाच नचाये।
मन पर जो काबू रखें
वहीं जीते संसार
इसके भ्रम में पड़कर
चैन खोये दिन रात।
दुर्योधन ने छल किया
हुआ महाभारत आगाज
छल करें दूसरों के संग
पहले हानी हो आप।
प्रभु ने छलिया रूप धरा
किया लीला अपार
गोपियों के संग रास रचाये
लीला उनका महान
हर गोपी को यही लगे
कृष्ण उनके साथ
अलौकिक है लीला उनका
महिमा अपरम्पार।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
दिनांक १४/८/२०१९
शीर्षक-छलिया"
मानव मन छलिया बड़ा
इससे कौन बच पाये
पल पल बदले रूप अपना
जगत में नाच नचाये।
मन पर जो काबू रखें
वहीं जीते संसार
इसके भ्रम में पड़कर
चैन खोये दिन रात।
दुर्योधन ने छल किया
हुआ महाभारत आगाज
छल करें दूसरों के संग
पहले हानी हो आप।
प्रभु ने छलिया रूप धरा
किया लीला अपार
गोपियों के संग रास रचाये
लीला उनका महान
हर गोपी को यही लगे
कृष्ण उनके साथ
अलौकिक है लीला उनका
महिमा अपरम्पार।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
नमन भावों के मोती🙏
🌹शुभ संध्या🌹
१४/८/२०१९
शीर्षक - छलिया
विधा-हाइकु
द्वितीय प्रस्तुति
🌹🌹🌹🌹🌹
.१.
मन हर ले
वो छलिया मोहन
बंसी बजाके
.२.
मोहित करे
छलिया की मूरत
सुध न रहे
.३.
प्रेम की डोर
*चिन्मय-चितचोर
छल..ना..शोर
.४.
उपाय ढूंढ
बहक मत जाना
मन छलिया
.५.
छलिया जाने
मम मन की व्यथा
अज्ञानी हम
.............
*चिन्मय=कृष्ण
✍️वंदना सोलंकी©स्वरचित
🌹शुभ संध्या🌹
१४/८/२०१९
शीर्षक - छलिया
विधा-हाइकु
द्वितीय प्रस्तुति
🌹🌹🌹🌹🌹
.१.
मन हर ले
वो छलिया मोहन
बंसी बजाके
.२.
मोहित करे
छलिया की मूरत
सुध न रहे
.३.
प्रेम की डोर
*चिन्मय-चितचोर
छल..ना..शोर
.४.
उपाय ढूंढ
बहक मत जाना
मन छलिया
.५.
छलिया जाने
मम मन की व्यथा
अज्ञानी हम
.............
*चिन्मय=कृष्ण
✍️वंदना सोलंकी©स्वरचित
शुभ साँझ
नमन मंच
विषय-- छलिया
बुन्देलखंडी लोकगीत
मो से छल करे गिरधारी
आली कहो यशोदा माँ से ...
मो से पनघट पे करे रारी
आली कहो यशोदा माँ से...
लेंय मटकी माखन निकली
राह में मटकी फोड़ डारी ...
आली कहो यशोदा माँ से...
बंशी बट पे बंशी बजाय
सारीं गऊयें होवें ठाड़ी ...
आली कहो यशोदा माँ से ...
जमुना तट पे रास रचाय
ऐसो रसिया रास बिहारी...
आली कहो यशोदा माँ से...
सारे ग्वाल 'शिवम' नसाने
मानें बात न एक हमारी ...
आली कहो यशोदा माँ से ...
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 14/08/2019
नमन मंच
विषय-- छलिया
बुन्देलखंडी लोकगीत
मो से छल करे गिरधारी
आली कहो यशोदा माँ से ...
मो से पनघट पे करे रारी
आली कहो यशोदा माँ से...
लेंय मटकी माखन निकली
राह में मटकी फोड़ डारी ...
आली कहो यशोदा माँ से...
बंशी बट पे बंशी बजाय
सारीं गऊयें होवें ठाड़ी ...
आली कहो यशोदा माँ से ...
जमुना तट पे रास रचाय
ऐसो रसिया रास बिहारी...
आली कहो यशोदा माँ से...
सारे ग्वाल 'शिवम' नसाने
मानें बात न एक हमारी ...
आली कहो यशोदा माँ से ...
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 14/08/2019
नमन मंच
14/08/19
छलिया
****
अधर बाँसुरी,शीश मुकुट धरे
मगन हो छलिया बंसी बजाय।
श्याम राधा जब रास रचाय
छटा हिय में मनोहर समाय ।।
श्याम सँग राधा सुध भुलाय
मगन हो प्रीत पलकें झुकाय।
सजा आभूषण से गौर रँग
ओढ़ चूनर धानी सकुचाय।।
रूप धर छलिया उर तरसाय
जगत को प्रेम करना सिखाय ।।
जपे जो रसना राधेश्याम
मुक्ति का द्वार हमें मिल जाय ।।
स्वरचित
अनिता सुधीर
14/08/19
छलिया
****
अधर बाँसुरी,शीश मुकुट धरे
मगन हो छलिया बंसी बजाय।
श्याम राधा जब रास रचाय
छटा हिय में मनोहर समाय ।।
श्याम सँग राधा सुध भुलाय
मगन हो प्रीत पलकें झुकाय।
सजा आभूषण से गौर रँग
ओढ़ चूनर धानी सकुचाय।।
रूप धर छलिया उर तरसाय
जगत को प्रेम करना सिखाय ।।
जपे जो रसना राधेश्याम
मुक्ति का द्वार हमें मिल जाय ।।
स्वरचित
अनिता सुधीर
नमन् भावों के मोती
14/08/19
विषय:छलिया
छलिया यह संसार भी,
व्यक्ति विषय का द्वार।
माया,मोह छद्म सभी,
जीवन सारा निस्सार।।
छलिया बन मोहन बसें,
सब गोपिन के संग।
प्रेम सुधा बारिस करें,
जीवन के हर रंग।।
छलिया है मेरा पिया,
दिल को गया रुलाय।
प्यार में है कैद किया,
कौन छुड़ावै आय।
मनीष श्री
14/08/19
विषय:छलिया
छलिया यह संसार भी,
व्यक्ति विषय का द्वार।
माया,मोह छद्म सभी,
जीवन सारा निस्सार।।
छलिया बन मोहन बसें,
सब गोपिन के संग।
प्रेम सुधा बारिस करें,
जीवन के हर रंग।।
छलिया है मेरा पिया,
दिल को गया रुलाय।
प्यार में है कैद किया,
कौन छुड़ावै आय।
मनीष श्री
नमन भावों के मोती
14 अगस्त 19 बुधवार
विषय - छलिया
विधा - हाइकु
💐💐💐💐💐💐
छलिया बन
गोपियों को रिझाता
मुरली वाला👍
💐💐💐💐💐💐
माया लगाके
छलिया छलता है
कृष्ण कन्हैया👌
💐💐💐💐💐💐
माखन चोर
छलता है बहुत
नन्द किशोर💐
💐💐💐💐💐💐
श्रीराम साहू अकेला
14 अगस्त 19 बुधवार
विषय - छलिया
विधा - हाइकु
💐💐💐💐💐💐
छलिया बन
गोपियों को रिझाता
मुरली वाला👍
💐💐💐💐💐💐
माया लगाके
छलिया छलता है
कृष्ण कन्हैया👌
💐💐💐💐💐💐
माखन चोर
छलता है बहुत
नन्द किशोर💐
💐💐💐💐💐💐
श्रीराम साहू अकेला
भावों के मोती:
#दिनांक:14"8"2019:
#विषय:छलिया:
#विधा:काव्य:
*""""+""""*छलिया*"""+""""*
सर मोर मुकुट गले गुंज की माल,
हाथ चक्र बंधी कमर मुरलिया,
फिरता मथुरा वृंदावन की गलियां
माखन चोर था वो बाँका छलिया,
रास रचाता गोपियों को छकाता,
धुन में मुरली की वो गाय चराता,
खेल खेल में कालिया दह को नाथे,
शैशव काल में ही पूतना को हराता,
था वो बड़ा ही नटखट मनमोहन,
जमुना के तट का रास रचैया,
चुनरिया खींचे राधिका को भी छेड़े,
गोपियों को नचाये ता ता थैया,
ग्वाल बाल संग सखा मिल जुल,
करें चोरी माखन किशन कन्हैया,
पकड़े ही जाते थे ज़ब वो रंगे हाथों
कहते नहीं माखन खायो मैंने मैया,
इंद्र गोवर्द्धन पर ज़ब कहर बन टूटे,
संकट गोकुल पर गंभीर उभर आया,
अंगुली में उठाकर गिरिराज समूचा,
गिरधर बनकर बृज को भी बचाया,
*"*रचनाकार*"*दुर्गा सिलगीवाला सोनी भुआ बिछिया जिला मंडला
#दिनांक:14"8"2019:
#विषय:छलिया:
#विधा:काव्य:
*""""+""""*छलिया*"""+""""*
सर मोर मुकुट गले गुंज की माल,
हाथ चक्र बंधी कमर मुरलिया,
फिरता मथुरा वृंदावन की गलियां
माखन चोर था वो बाँका छलिया,
रास रचाता गोपियों को छकाता,
धुन में मुरली की वो गाय चराता,
खेल खेल में कालिया दह को नाथे,
शैशव काल में ही पूतना को हराता,
था वो बड़ा ही नटखट मनमोहन,
जमुना के तट का रास रचैया,
चुनरिया खींचे राधिका को भी छेड़े,
गोपियों को नचाये ता ता थैया,
ग्वाल बाल संग सखा मिल जुल,
करें चोरी माखन किशन कन्हैया,
पकड़े ही जाते थे ज़ब वो रंगे हाथों
कहते नहीं माखन खायो मैंने मैया,
इंद्र गोवर्द्धन पर ज़ब कहर बन टूटे,
संकट गोकुल पर गंभीर उभर आया,
अंगुली में उठाकर गिरिराज समूचा,
गिरधर बनकर बृज को भी बचाया,
*"*रचनाकार*"*दुर्गा सिलगीवाला सोनी भुआ बिछिया जिला मंडला
नमन मंच को
दिन :- बुधवार
दिनांक :- 14/08/2019
विषय :- छलिया
छलिया बन उम्र...
हर समय छल रही...
दे रही उम्मीदें कईं..
पर स्वयं ढल रही...
जिम्मेदारियों की पोटली थमाकर...
स्वयं साथ छोड़ रही...
कभी ढील देकर श्वांसों को...
उड़ाती उन्मुक्त गगन में...
गति मंद करती कभी...
डालती कभी उलझन में...
सजाए हैं अरमान कईं..
इस छोटी सी जिंदगी में...
मिल जाए मंजिल सपनों को...
इस ढलती हुई जिंदगी में....
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
दिन :- बुधवार
दिनांक :- 14/08/2019
विषय :- छलिया
छलिया बन उम्र...
हर समय छल रही...
दे रही उम्मीदें कईं..
पर स्वयं ढल रही...
जिम्मेदारियों की पोटली थमाकर...
स्वयं साथ छोड़ रही...
कभी ढील देकर श्वांसों को...
उड़ाती उन्मुक्त गगन में...
गति मंद करती कभी...
डालती कभी उलझन में...
सजाए हैं अरमान कईं..
इस छोटी सी जिंदगी में...
मिल जाए मंजिल सपनों को...
इस ढलती हुई जिंदगी में....
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
नमन मंच को
दिन :- बुधवार
दिनांक :- 14/08/2019
विषय :- छलिया
द्वितीय प्रस्तुति
छलिया बन घूम रहे सब....
धवल खादी की आड़ लिए...
तोड़ रहे राष्ट्र खंड खंड में...
निरपेक्षता की ढाल लिए....
देशवासी बन रहा मोहरा...
इनकी सियासी शतरंज का....
खेल घिनौना खेल रहे ये...
लोकतांत्रिक पैबंद का...
छलिया बन छल रहे हैं....
मानवीय अधिकारों को...
धर्म का फैला रहें जाल ये...
तोड़ रहें आपसी भाईचारों को...
आग लगाकर इस घर में...
उस घर को बचा रहे....
फैला रहें झूठा प्रोपेगेंडा...
विश्वभर में देश लजा रहे...
बंद हो रहा सब खेल अब...
छलिया बन छला अब तक...
पीट रहे सब छाती अपनी...
सत्ता मिलेगी अब कब...
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
दिन :- बुधवार
दिनांक :- 14/08/2019
विषय :- छलिया
द्वितीय प्रस्तुति
छलिया बन घूम रहे सब....
धवल खादी की आड़ लिए...
तोड़ रहे राष्ट्र खंड खंड में...
निरपेक्षता की ढाल लिए....
देशवासी बन रहा मोहरा...
इनकी सियासी शतरंज का....
खेल घिनौना खेल रहे ये...
लोकतांत्रिक पैबंद का...
छलिया बन छल रहे हैं....
मानवीय अधिकारों को...
धर्म का फैला रहें जाल ये...
तोड़ रहें आपसी भाईचारों को...
आग लगाकर इस घर में...
उस घर को बचा रहे....
फैला रहें झूठा प्रोपेगेंडा...
विश्वभर में देश लजा रहे...
बंद हो रहा सब खेल अब...
छलिया बन छला अब तक...
पीट रहे सब छाती अपनी...
सत्ता मिलेगी अब कब...
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
"नमन भावों का मंच"
विषय -छलिया
दिनांक 14 -7 -2019
नाच नचा ,बांसुरी धुन पर।
छलिया करे, राज मन पर।
सदा मिले ,जमुना तट पर ।
चुनरी ले भागे, छलिया वट पर ।
कैसे रहूं अब, छलिया से दूर ।
वह तो है अब, मेरा गुरूर ।
बिन देखे अब, ना जी पाऊं।
सुन बांसुरी धुन ,दोड़ी जाऊं ।
छलिया बन, छलता रहा मुझे।
प्रेम जाल में ,बाँधा मुझे।
रंग दिया उसने,अपने रंग में मुझे।
अब न भाए ,कोई ओर मुझे ।
वीणा वैष्णव
कांकरोली
विषय -छलिया
दिनांक 14 -7 -2019
नाच नचा ,बांसुरी धुन पर।
छलिया करे, राज मन पर।
सदा मिले ,जमुना तट पर ।
चुनरी ले भागे, छलिया वट पर ।
कैसे रहूं अब, छलिया से दूर ।
वह तो है अब, मेरा गुरूर ।
बिन देखे अब, ना जी पाऊं।
सुन बांसुरी धुन ,दोड़ी जाऊं ।
छलिया बन, छलता रहा मुझे।
प्रेम जाल में ,बाँधा मुझे।
रंग दिया उसने,अपने रंग में मुझे।
अब न भाए ,कोई ओर मुझे ।
वीणा वैष्णव
कांकरोली
नमन-भावो के मोती
दिनांक-14/08/2019
विषय-छलिया
छलिया की कामना और वासना क्षणिक होती है...
छलिया मौन मगन है
सजल चांदनी ,सजा गगन है
तारों की गलियों में घूमो
अवनि की अलकों को चुमो।
छलिया मौन मगन है...........
सपनों की सुषमा रंगीन
बिछा हुआ है जाल रश्मि का
आभा है तेरी कितनी संगीन
छलिया मौन मगन है.............
प्रेम कभी-कभी राक्षसी भूख हो जाता है...?
जहां प्रेम राक्षसी भूख से
क्षण-क्षण है अकुलाता
प्रथम ग्रास में ही
जीवन ज्योति निगल जाता।
भून देता है रूप को
दैहिक आलिगंन से
छवि को प्रभाहीन बना देता
ताप तृप्ति के चुंबन से।
वाटिका को पतझर बना देता
चूमता सुंदरता की ठठरी को.........
छलिया मौन मगन है........
छलिया छलता अधरों की मुस्कान
रात बिरह बन के डसती
पतझर ठूँठ निरिह थकान।।
चंचल मन निश्चल उड़ान
छलिया छलता सपनों के अरमान।।
मौलिक रचना
सत्य प्रकाश सिंह प्रयागराज
दिनांक-14/08/2019
विषय-छलिया
छलिया की कामना और वासना क्षणिक होती है...
छलिया मौन मगन है
सजल चांदनी ,सजा गगन है
तारों की गलियों में घूमो
अवनि की अलकों को चुमो।
छलिया मौन मगन है...........
सपनों की सुषमा रंगीन
बिछा हुआ है जाल रश्मि का
आभा है तेरी कितनी संगीन
छलिया मौन मगन है.............
प्रेम कभी-कभी राक्षसी भूख हो जाता है...?
जहां प्रेम राक्षसी भूख से
क्षण-क्षण है अकुलाता
प्रथम ग्रास में ही
जीवन ज्योति निगल जाता।
भून देता है रूप को
दैहिक आलिगंन से
छवि को प्रभाहीन बना देता
ताप तृप्ति के चुंबन से।
वाटिका को पतझर बना देता
चूमता सुंदरता की ठठरी को.........
छलिया मौन मगन है........
छलिया छलता अधरों की मुस्कान
रात बिरह बन के डसती
पतझर ठूँठ निरिह थकान।।
चंचल मन निश्चल उड़ान
छलिया छलता सपनों के अरमान।।
मौलिक रचना
सत्य प्रकाश सिंह प्रयागराज
मंच को नमन
दिनांक -14/8/2019
विषय - छलिया
कलयुग की इस आपाधापी में
माहौल ऐसा अब बन रहा
वह नीर क्षीर विवेकी मानव
ख़ुद मानवता को छल रहा
जिस मात पिता ने पाला पोसा
जीवन उनका बदहाल किया
उनके बुढ़ापे का छीन सहारा
ममता का छलिया झूम रहा
संयुक्त परिवार अब उसे अखरता
स्वच्छंदता लगती बड़ी प्यारी
घर का आँगन मकड़जाल समझ
सम्बन्धों का छलिया झूम रहा
नारी सृष्टि की जननी कहलाती
उसके सृजन को अपमानित किया
तार तार करके उसकी अस्मत को
बलात्कारी बन इधर उधर झूम रहा
सुविधाभोगी जीवन जीना चाहता
कर्मठता को ही नज़रंदाज़ किया
बेईमानी को आधार बनाकर वह
ईमानदारी का छलिया झूम रहा
प्रकृति पर निज अधिकार समझता
साधन संसाधनो का भोग लगाता
चिंता नही तनिक उसके संरक्षण की
पर्यावरण का छलिया झूम रहा
देश की राजनीति पर रोटी सेंकना
इसको बहुत अब भाता है
माटी के क़र्ज़ को दफ़नाकर
देशद्रोही बनकर झूम रहा
जीवन मूल्यों को संक्रमित करके
पाश्चात्य संस्कारो की पूजा करता
रीति-रिवाज इसे लगते एथनिक
सभ्यता का छलिया झूम रहा
छलिया बनकर कब तक जीओगे
क्या मानवता को ऐसे ही ढोओगे ?
अपनी उत्तमता को तजकर तुम
क्या केवल छलिया बनकर जीओगे !
✍🏻 संतोष कुमारी ‘ संप्रीति ‘
स्वरचित
दिनांक -14/8/2019
विषय - छलिया
कलयुग की इस आपाधापी में
माहौल ऐसा अब बन रहा
वह नीर क्षीर विवेकी मानव
ख़ुद मानवता को छल रहा
जिस मात पिता ने पाला पोसा
जीवन उनका बदहाल किया
उनके बुढ़ापे का छीन सहारा
ममता का छलिया झूम रहा
संयुक्त परिवार अब उसे अखरता
स्वच्छंदता लगती बड़ी प्यारी
घर का आँगन मकड़जाल समझ
सम्बन्धों का छलिया झूम रहा
नारी सृष्टि की जननी कहलाती
उसके सृजन को अपमानित किया
तार तार करके उसकी अस्मत को
बलात्कारी बन इधर उधर झूम रहा
सुविधाभोगी जीवन जीना चाहता
कर्मठता को ही नज़रंदाज़ किया
बेईमानी को आधार बनाकर वह
ईमानदारी का छलिया झूम रहा
प्रकृति पर निज अधिकार समझता
साधन संसाधनो का भोग लगाता
चिंता नही तनिक उसके संरक्षण की
पर्यावरण का छलिया झूम रहा
देश की राजनीति पर रोटी सेंकना
इसको बहुत अब भाता है
माटी के क़र्ज़ को दफ़नाकर
देशद्रोही बनकर झूम रहा
जीवन मूल्यों को संक्रमित करके
पाश्चात्य संस्कारो की पूजा करता
रीति-रिवाज इसे लगते एथनिक
सभ्यता का छलिया झूम रहा
छलिया बनकर कब तक जीओगे
क्या मानवता को ऐसे ही ढोओगे ?
अपनी उत्तमता को तजकर तुम
क्या केवल छलिया बनकर जीओगे !
✍🏻 संतोष कुमारी ‘ संप्रीति ‘
स्वरचित
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