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ब्लॉग संख्या :-299
पावन मेरे देश की माटी जग ने गाथा गायी
यहाँ जन्मे श्री राम यहाँ जन्मे कृष्ण कन्हाई ।।
गौतम नानक की जननी भारत भूमि कहाई
हमें गर्व इस मिट्टी पे यहाँ की आवोहवा भायी ।।
कण कण यहाँ का सोना कण कण करिश्माई
धन धान्य से भरा देश दुनिया ने नजर टिकाई ।।
गंगा जमुना सींचे जिसे मिट्टी ने किस्मत पाई
हिमालय जिसकी रक्षा में गाथा जाय न गायी ।।
हजार जन्म न्यौछावर प्रभु अर्ज यही लगाई
जब भी जन्म लूँ 'शिवम' हो भारत माँ मेरी माई ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित14/02/2019
यहाँ जन्मे श्री राम यहाँ जन्मे कृष्ण कन्हाई ।।
गौतम नानक की जननी भारत भूमि कहाई
हमें गर्व इस मिट्टी पे यहाँ की आवोहवा भायी ।।
कण कण यहाँ का सोना कण कण करिश्माई
धन धान्य से भरा देश दुनिया ने नजर टिकाई ।।
गंगा जमुना सींचे जिसे मिट्टी ने किस्मत पाई
हिमालय जिसकी रक्षा में गाथा जाय न गायी ।।
हजार जन्म न्यौछावर प्रभु अर्ज यही लगाई
जब भी जन्म लूँ 'शिवम' हो भारत माँ मेरी माई ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित14/02/2019
सुन सुन कर "मिट्टी के माधव"
उठ खड़ा हुआ वह माटी का लाल
मूर्ख बना जब बुद्धिमान
दीन बना अब बेमिसाल
लक्ष्य एक साधकर
उम्मीद की डोर पकड़ी अब
देश की मिट्टी की लाज रखने
निकल पड़ा वह हमजोली लेकर
दुश्मनों के छक्के छुड़ा कर
देश पर किया वह जान न्योछावर
धन्य धन्य है वह माँ भारती
जिसके कण कण में है देशप्रेमी
जिस मिट्टी में है जन्में
उस मिट्टी की हम रखे लाज
मिट्टी का देह मिट्टी मे मिल जाये
इसे सदा हम रखें लाज
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
उठ खड़ा हुआ वह माटी का लाल
मूर्ख बना जब बुद्धिमान
दीन बना अब बेमिसाल
लक्ष्य एक साधकर
उम्मीद की डोर पकड़ी अब
देश की मिट्टी की लाज रखने
निकल पड़ा वह हमजोली लेकर
दुश्मनों के छक्के छुड़ा कर
देश पर किया वह जान न्योछावर
धन्य धन्य है वह माँ भारती
जिसके कण कण में है देशप्रेमी
जिस मिट्टी में है जन्में
उस मिट्टी की हम रखे लाज
मिट्टी का देह मिट्टी मे मिल जाये
इसे सदा हम रखें लाज
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
विषय - माटी
माटी से यह तन बना , माटी में मिल जाय
काल तुझे ले जाएगा , फिर काहे इतराय
माटी का पूजन करें , माथे तिलक लगाय
यह माता हम सभी की , हम सपूत कहलाय
माटी की सौंधी महक , मेरे मन को भाय
बारिश की बूंदें पड़ें , तन मन भीगत जाय
माटी है संसार सब , लोभ न होने पाय
छूटेगा सब कुछ यही ,संग न कछु ले जाय
रज के कण कण में छिपे ,रहें सदा भगवान
मन्दिर मस्जिद ढूंढता , तू काहे इंसान
माटी सोना उगलती , हीरों की है खान
वीर सपूतों की धरा , भारत की पहचान
पंच तत्व से है बना , मानव सकल शरीर
माटी में मिल जाएगा, तोड़ सकल जंजीर
सरिता गर्ग
स्व रचित
माटी से यह तन बना , माटी में मिल जाय
काल तुझे ले जाएगा , फिर काहे इतराय
माटी का पूजन करें , माथे तिलक लगाय
यह माता हम सभी की , हम सपूत कहलाय
माटी की सौंधी महक , मेरे मन को भाय
बारिश की बूंदें पड़ें , तन मन भीगत जाय
माटी है संसार सब , लोभ न होने पाय
छूटेगा सब कुछ यही ,संग न कछु ले जाय
रज के कण कण में छिपे ,रहें सदा भगवान
मन्दिर मस्जिद ढूंढता , तू काहे इंसान
माटी सोना उगलती , हीरों की है खान
वीर सपूतों की धरा , भारत की पहचान
पंच तत्व से है बना , मानव सकल शरीर
माटी में मिल जाएगा, तोड़ सकल जंजीर
सरिता गर्ग
स्व रचित
माटी से तू जन्मा मानव!
माटी पर तू गुमान करें ! साज सजावट कपड़े लत्ते ,
भांति भांति के व्यंजन सारे,
भोग विलास मदिराखाने!
अनमोल सांसे बर्बाद करें!
देखो कभी नन्हे बालकों को,
जीवन किलकता जैसे वही!
देख कभी मस्त जवानी को ,
नशा हो सब कुछ पाने को !
देख जरा कभी उस बुढ़ापे को ,
रोग झुर्रियों से भरी काया को!
उलझ मत नादानी में
जीवन चक्र है प्यारे,
तेरा मेरा सब का वही!
खोल चक्षु घुम आ ,
कभी अस्पतालों में,
जी ले पल पल ऐसे जैसे ,
अंतिम क्षण हो खोने को!
जीवंत मरिए भवजल तरीऐ!
उड़ जा पंछी बेदाग परों से !
अंतिम अपनी मंजिल को..
नीलम तोलानी
स्वरचित।
विधा-हाइकु
1.
ओ मूर्तिकार
मिट्टी को दे आकार
मूर्ति बनाओ
2.
मूर्ति मिट्टी की
मूर्तिकार बनाता
रूप अनेक
3.
मिट्टी को पूजा
दिल से शहीदों ने
देश के लिए
4.
पहली वर्षा
महक उठी मिट्टी
फूटे अंकुर
5.
आई बरखा
कोमल हुई मिट्टी
फूटे अंकुर
*******
अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर(झज्जर)
हरियाणा
धूल मिट्टी और पत्थर।
रास्ते मे जो न हो अगर।
फिर रहा कैसा मजा।
आसान हो जो सफर।
राह दुष्कर जो मिले।
मन में हिम्मत है फले।
बढते आगे है सदा जो।
राह की ठोकरों मे पले।
धुंधलायेगी भी नजर।
घबरायेगा भी जिगर।
गिरने का गम तू न कर।
न पथ से डिगना मगर।
हिम्मत बढती जायेंगी।
मेहनत तेरी रंग लायेगीं।
बस हौसला कायम रहे।
मजिंले पास आयेगी।
विपिन सोहल
रास्ते मे जो न हो अगर।
फिर रहा कैसा मजा।
आसान हो जो सफर।
राह दुष्कर जो मिले।
मन में हिम्मत है फले।
बढते आगे है सदा जो।
राह की ठोकरों मे पले।
धुंधलायेगी भी नजर।
घबरायेगा भी जिगर।
गिरने का गम तू न कर।
न पथ से डिगना मगर।
हिम्मत बढती जायेंगी।
मेहनत तेरी रंग लायेगीं।
बस हौसला कायम रहे।
मजिंले पास आयेगी।
विपिन सोहल
भगतसिंह सुखदेव राजगुरु
भारत मिट्टी पर कुर्बानअमर शहीदों पुण्य शहादत
नित गायेगी मंगल गान
उर्वरा मिट्टी के कारण ही
भारत कृषि प्रधान बना है
वन उपवन पुण्य धरा पर
प्राणवायु से आज सना है
मिट्टी सोना मिट्टी चांदी
मिट्टी का कण कण प्यारा
सारे विश्व से अति उत्तम है
हिय प्रिय यह देश हमारा
मिट्टी पर ही हम जन्मे हैं
मिट्टी पर ही हम खेलें हैं
संघर्षों से नित जूझें हम
फिर जीवन मे पले बढ़े हैं
रंगबिरंगे सुमन खिले हैं
सौरभता नित उड़े बहार
मिट्टी का कण स्वर्णिम है
नमन नमन नित बारम्बार
आकर्षक मिट्टी भारत की
सुर नर मुनि इसके कायल
ललनाएँ सजधज नित गाती
छम छमा छम बजती पायल
मिट्टी के सम्मान में लिखना
जितना लिखो कम पड़ता है
सिर झुकाऊँ कण कण ता को
देह समाहित करना पड़ता है।।
स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
मिट्टी
तू मुस्कान है या आँसू
तेरा रंग कैसा है
प्रेम का रंग
या नफरत का रंग
धर्म का रंग
या अधर्म का रंग
ये जो मनुष्यों के बीच
दीवारें खड़ी हैं
किस मिट्टी की है
कहीं मंदिर की दीवारें
कहीं मस्जिद की दीवारें
कहीं वर्ग की दीवारें
कहीं वर्ण की दीवारें
ऐ मिट्टी ! बता क्या तुझ में भी भेद है
तू दीवार बनाती नहीं
गिराती है
फिर ये अलंघ्य दीवारें क्यों है?
मिट्टी का बना मनुष्य है
फिर असमानता क्यों है ?
मनुष्य से मनुष्य के बीच
द्वेष क्यों है
घृणा क्यों है
प्रेम क्यों नहीं
शत्रुता क्यों है
अधिकार लिप्सा की
तृप्ति की चाह क्यों है
ऐ मिट्टी!
जब तू है जीवन का आवरण
तब
ये अशोभन क्यों
ये अधार्मिक क्यों
सुना है
कुछ धार्मिक तेरा व्यापार करते हैं
शोषण का स्तंभ खड़ा करते हैं
शोषकों को पुण्यात्मा
शोषितों को पापी कहते हैं
क्यों अछूतों को मंदिरों में
प्रवेश निषेध करते है
ऐ मिट्टी! बता
पुरोहितों का तन
किस मिट्टी का है
प्रेम की मिट्टी का
या नफरत की मिट्टी का
क्या प्रेम भी दीवार पसंद करता है
क्यों सहमे रहते हैं अछूत
क्या अछूत के तन की मिट्टी अशुद्ध है
देखो देवालय की कैसी मिट्टी है
असमानता, शोषण की
मिट्टी है
क्या चिता जल जाने के बाद
पुरोहितों की मिट्टी का रंग
अछूतों की मिट्टी के रंग से अलग होगा
ऐ मनुज!मानवता के ह्यदय पर
घात ना कीजिए
आप प्रेम का वाहक हैं
प्रेम का संचार कीजिए
सदैव निरपेक्ष, असंग रहिए
कोई माँ के आँचल में दुबके ना
किसी को भयक्रांत ना कीजिए
मंद समीर सा तालियाँ बजाइये
जीवन जुगनू सा है
एक दिन गायब हो जाता है
इसलिए प्रेम का प्रवाह कीजिए
अछूतों के जीवन से
दूर कर कृष्ण पक्ष
शुक्ल पक्ष, पूर्णिमा का उदय कीजिए
अछूतों के जीवन में भी
सूर्य का उदय कीजिए
सुबह की अलसाई सी
अंगड़ाई का ऐहसास कराइये
उन में जीवंतता का प्रवाह कीजिए
जीवन कलरव नाद है
सब में मधुरता का संचार कीजिए
@ शंकर कुमार शाको
स्वरचित
विषय मिट्टी
रचयिता पूनम गोयलमिट्टी में मैं जन्मी ,
इक दिन मिट्टी में मिल जाऊँगी ।
रोल-रोल के
हुई बड़ी मिट्टी में ,
इक दिन मिट्टी बन , रूल जाऊँगी ।।
जीवन से मृत्यु तक का सफर ,
है जब केवल मिट्टी ,
तो क्यों घमण्ड करूँ मैं ?
क्यों किसी का दिल दुखाऊँ ?
क्यों इतना इतराऊँ मैं ?
मैं भी मिट्टी ,
तू भी मिट्टी ,
एक दिन सब
मिट्टी बन जाने हैं ।
हर जीवन के ये
किस्से हैं ,
हर किसी के
ये फसाने हैं ।।
मिट्टी बन , फिर भी हमें ,
कुछ काम ऐसे कर जाने हैं ।
जिससे याद करें ,
जग वाले हमको ,
जब दुनिया से हम ,
चले जाने हैं ।।
जिस्म मिट्टी ही तो है....
जिस्म मिट्टी है सुना बहुत मैंने...
पहले यकीं न था पर अब...
होने लगा है....
जिस्म मिट्टी है...
हर कोई आता है नश्तर ले के...
खोदता है अच्छी तरह से...
गढ्ढा बनाता है और...
अपने मतलब का पौधा लगा जाता है...
माली की तरह अनुशासित हो...
हवा...पानी भी ज़रुरत मुताबिक़...
समय समय पे आ देता है...
पौधे कुछ तो बहुत ही कंटीले हैं...
हलकी सी हवा चलने पे भी...
बहुत चुभते हैं...
कभी कभी खूँ निकाल देते हैं...
और ज़मीं लाल कर देते हैं....
और फिर उस लाली से...
मिट्टी उपजाऊ होती जाती है...
नए पौधे निकलते आते हैं...
जिस्म मिट्टी ही तो है....
नए पौधों की संभाल...देख रेख...
बहुत ही ज़रूरी है...
एक कुशल माली अपनी जरूरत मुताबिक़...
हवा पानी देता है....
आस पास सुरक्षा घेरा भी बना देता है....
कोई और पौधे को हवा...पानी...खाद न दे दे...
पौधे भी 'उस माली' की खुराक से लहलहाने लगते है....
जिस ज़मीं पे पैदा हुए...उसी को खाने लगते हैं...
लहूलुहान करने लगते हैं...अपने काँटों से....
जिस्म मिट्टी में मिलाने लगते हैं....
क्यूंकि...
जिस्म मिट्टी ही तो है....
क्या करून मैं इन मालियों का आकाओं का....
पडोसी दुश्मन है मेरा...
कह कर पल्ला नहीं झाड़ सकता....
जब पौधे हमारे हैं तो हम माली क्यूँ नहीं उनके...
कांटे हम बो रहे हैं खुद....
तो पौधे कांटे वाले ही होंगे...
और हमारे बोये कांटे...हमें ही लहूलुहान करेंगे...
क्या हम तभी जागेंगे...
जब अपने आँगन के पौधे कटेंगे....
लहूलुहान होंगे....
मिट्टी में मिल जाएंगे...
क्या तब हम सच में माली बन रक्षा करेंगे....
याँ यूं ही देखते रहेंगे...
जिस्म मिट्टी में मिलते...
और कहेंगे मिट्टी था जिस्म...
मिट्टी में मिल गया...
कुदरत का नियम है ये...
कायर...डरपोक...स्वार्थवश....
हम कंधे बदल देते हैं....
जानते हुए की कुदरत...
किसी के साथ भेद भाव नहीं करती...
फिर हम क्यूँ ?
अपने मतलब के पौधे को पानी, खाद देते हैं...
और दूसरे को प्यासा मरने देते हैं...
और कड़कती धूप की मार भी देते हैं...
एक दिन यही पौधे अपनी धरती की नमी न मिलने से...
सूख जाते हैं...मर जाते हैं...
फिर कोई आता है...चिंगारी दिखाता है...
और आग बन भभकते हैं...यह सूखे पौधे...
और रह जाती है राख...
मिट्टी में मिलने को....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
जिस्म मिट्टी है सुना बहुत मैंने...
पहले यकीं न था पर अब...
होने लगा है....
जिस्म मिट्टी है...
हर कोई आता है नश्तर ले के...
खोदता है अच्छी तरह से...
गढ्ढा बनाता है और...
अपने मतलब का पौधा लगा जाता है...
माली की तरह अनुशासित हो...
हवा...पानी भी ज़रुरत मुताबिक़...
समय समय पे आ देता है...
पौधे कुछ तो बहुत ही कंटीले हैं...
हलकी सी हवा चलने पे भी...
बहुत चुभते हैं...
कभी कभी खूँ निकाल देते हैं...
और ज़मीं लाल कर देते हैं....
और फिर उस लाली से...
मिट्टी उपजाऊ होती जाती है...
नए पौधे निकलते आते हैं...
जिस्म मिट्टी ही तो है....
नए पौधों की संभाल...देख रेख...
बहुत ही ज़रूरी है...
एक कुशल माली अपनी जरूरत मुताबिक़...
हवा पानी देता है....
आस पास सुरक्षा घेरा भी बना देता है....
कोई और पौधे को हवा...पानी...खाद न दे दे...
पौधे भी 'उस माली' की खुराक से लहलहाने लगते है....
जिस ज़मीं पे पैदा हुए...उसी को खाने लगते हैं...
लहूलुहान करने लगते हैं...अपने काँटों से....
जिस्म मिट्टी में मिलाने लगते हैं....
क्यूंकि...
जिस्म मिट्टी ही तो है....
क्या करून मैं इन मालियों का आकाओं का....
पडोसी दुश्मन है मेरा...
कह कर पल्ला नहीं झाड़ सकता....
जब पौधे हमारे हैं तो हम माली क्यूँ नहीं उनके...
कांटे हम बो रहे हैं खुद....
तो पौधे कांटे वाले ही होंगे...
और हमारे बोये कांटे...हमें ही लहूलुहान करेंगे...
क्या हम तभी जागेंगे...
जब अपने आँगन के पौधे कटेंगे....
लहूलुहान होंगे....
मिट्टी में मिल जाएंगे...
क्या तब हम सच में माली बन रक्षा करेंगे....
याँ यूं ही देखते रहेंगे...
जिस्म मिट्टी में मिलते...
और कहेंगे मिट्टी था जिस्म...
मिट्टी में मिल गया...
कुदरत का नियम है ये...
कायर...डरपोक...स्वार्थवश....
हम कंधे बदल देते हैं....
जानते हुए की कुदरत...
किसी के साथ भेद भाव नहीं करती...
फिर हम क्यूँ ?
अपने मतलब के पौधे को पानी, खाद देते हैं...
और दूसरे को प्यासा मरने देते हैं...
और कड़कती धूप की मार भी देते हैं...
एक दिन यही पौधे अपनी धरती की नमी न मिलने से...
सूख जाते हैं...मर जाते हैं...
फिर कोई आता है...चिंगारी दिखाता है...
और आग बन भभकते हैं...यह सूखे पौधे...
और रह जाती है राख...
मिट्टी में मिलने को....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
मैं मिट्टी का पुतला भगवन,
तुमने मुझे बनाया है।कर्मक्षेत्र यह जगत है मेरा,
कुछ कुछ समझ में आया है।
सान सान माटी को तुमने,
कितनी मूर्ति बनाईं हैं।
समझ नहीं पाया इनमें क्यों
मुझको जगह दिलाई है।
मिट्टी का पुतला जब प्रभुजी,
मिट्टी में मिल जाऊंगा।
पाप पुण्य सत्कर्मों के बल पर,
शरण तुम्हारी आऊंगा।
सेवा भाव जगाऐं परमेश्वर,
कुछ परोपकार कर पाऊँ मै।
जिस माटी में जन्म लिया है,
कभी उसका कर्ज चुकाऊं मैं।
शुभचिंतन मनन दिनचर्या में आऐ।
कुछ भक्ति भाव मन में जग जाऐ।
रहूँ सदैव सत्य निष्ठ सचरित्र फिर,
जब चाहे मिट्टी,मिट्टी में मिल जाऐ।
स्वरचितःःः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म।प्र.
यह सुबह कब बीत जानी है
मिट्टी के घड़े सी जिंदगी
पता नहीं कब फूट जानी है
हाड़-मांस का सुंदर संसार
कब मिट्टी में मिल जाए
पंछी बन जीवन की ज्योति
आसमान में उड़ जाए
पाप-पुण्य के खेल में
मत जीवन को घेर
मानवता सबसे बड़ा धर्म है
नहीं रखो किसी से बैर
क्यों तेरा-मेरा करने में
अपने जीवन को यूं खोते हो
जब समय हाथ से जाता है
फिर हाथ मलते क्यों रोते हो
करो बड़ो का आदर
छोटों से करो प्यार
चार दिन की जिन्दगी है
क्यों करते वक्त बर्बाद।
***अनुराधा चौहान***© स्वरचित
प्राणियों का संसार है मिट्टी,
फसलों की जान है मिट्टी,
हमारी तो पहचान है मिट्टी |
सूक्ष्म जीवों का घर है मिट्टी,
संसार को रचती है मिट्टी,
किसान की रोजी है मिट्टी,
दिवाली के दीयों में मिट्टी |
भारत की शान है मिट्टी,
वीरों का बलिदान है मिट्टी,
जननी सबकी है ये मिट्टी,
दिलों जान तुझ पे कुर्बान है मिट्टी |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
ये संसार मिट्टी का घड़ा,
मिट्टी में मिल जाएगा।
सोच रहा तू क्या बंदे!
क्या लेकर के जाएगा?
मिट्टी से बना शरीर,
मिट्टी में मिल जाएगा ।
सोच रहा तू क्या बंदे!
क्या लेकर के जाएगा?
बात सही थी लेकिन तुझको,
अब तक भी न खबर हुई।
मेरा-तेरा करते-करते,
तेरी पूरी उमर हुई।
ये मिट्टी का घड़ा शरीर,
आत्मा इसका निवास स्थान।
जिस दिन त्यागा उसने इसको,
पहुंच जाएगा तू श्मशान।
आंखे खोलकर देख सत्य को,
करले अपना जीवन आसान।
वेद-पुराण भी इस सत्य का,
करते आए सदा बखान।
मिट्टी से मिट्टी का नाता
कभी नहीं है टूटा ।
खाली हाथ जाना है सबको,
जो जोड़ा सब यहीं छूटा।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
अपने देश की मिट्टी से
तो ना मिलने देना तुम
इस भारत देश की आन,
बान,शान को मिट्टी में।
बहा देना तुम अपने खून
के इक इक कतरे की बूंद
को अपने देश की शान में
और लगा अपने माथे पर
तिलक इस देश की मिट्टी
का, सदा गौर्वांवित कराना
तुम अपने भारतवासियों को।
मिट्टी की काया है अपनी
यारों तो ना करना गम तुम
कभी भी यारों मिल जाने
का अपने प्यारे भारत देश
की मिट्टी में।
है अभिमान हमें तो अपने
इस देश की मिट्टी पे, होने
ना देंगे हम कभी भी इस
देश के नापाक दुश्मनों को
कामयाब अपने भारत देश
की सरज़मीं पे।
ना झुका था,ना झुका है,
ना ही झुकेगा कभी भी
सर हमारा शर्म से,है हमें
गुमान बड़ा ही देश के जाँ-
बाज़ सिपाहियों पे जो हो
गए हैं कुर्बान हँसते हँसते
अपने भारत देश की मिट्टी में।
रौशनी अरोड़ा (रश्मि)
मिट्टी से जुड़ा हूँ..
मिट्टी में ही पला हूँ..
मिट्टी की ही काया है..
मिट्टी का ही खाया है..
मिट्टी ही संसार है..
मिट्टी ही माया है..
मिट्टी से ही सपने है..
मिट्टी के ही घरौंदे है..
मिट्टी के ही हाथी घोड़े..
मिट्टी के ही परिंदे है..
मिट्टी मेरा कर्म है..
मिट्टी ही अब धर्म है..
मिट्टी ही मेरी माता है..
मिट्टी से ही नाता है..
सकल सृष्टि की पालक..
मिट्टी ही शाश्वत विधाता है...
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
बड़े जतन से पानी देदे रौन्द कर बनी कुछ घड़े माटी ।
सुखाया तपाया फिर प्रेम से लगाया उनपे नाना रंग ,
बाज़ार गई तब सज कर घड़े का रूप ले कर माटी ।
आकार प्रकार रंग रुप देख मोल लगा फिर उसका ,
अपनी अपनी क़िस्मत से देखो कहाँ कहाँ गई ये माटी ।
सुन्दरता पे इतराती मटकी पर , मन चला दीवाने का ,
मदिरा भर उसे रखा सजाकर , इस ज़िल्लत पर रोई माटी ।
कुछ गई सज्जनों के घर , प्याऊ पर लोगों की प्यास बुझाने ,
तपती धूप मे देती रही ठंडा पानी ,कर्म अपना निभाती माटी ।
इक गई मसान मे देखा मातम और लगाया चिता का फेरा ,
कार्य पूरा होते ही फोड़ा घड़ा , पुनः माटी से मिल गई माटी ।
इक विकृत सी बोली मुझमें तो है छेद मुझे कौन चाहेगा भला ,
स्थापित हो शंकर पर कर रही रूद्राभिषेक ,धन्य हो गई ये माटी ।
कुन्ना ...
विधा :: छंद - ताटक ( ३० मात्रा १६,१४ यति, पदांत ३ गुरु अनिवार्य)
हर क्षण दिन है डूबा जाए, दिल धड़कन भी समझाए...
बाँध रखा बरसों का सामां, "मैं" सूरज चढ़ता जाए...
ईंट सीमेंट गारा लीपा, तोड़ कर दम बनाया घर...
निकला दम सब धरा रह गया, कण रेत न ले जाया पर...
क्षण ही मीठा ओ क्षार बने, शत्रु मीत भी सबका यह...
पल में अहम मिटटी मिलाता, जीत छीन ले जाता यह
जीवन है अनमोल ख़जाना, हर किसी को नहीं मिलता...
'प्यार बसा जिसके दिल 'चन्दर', वो दुनिया रौशन करता....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
रात भर जलता,
अंधेरे से लड़ ता,
लेकिन वह,
अपना दर्द बांट,
सबको उजाला दें।।१। सेदोका है।
२/जीवन मिला,
मिट्टी की कोख पा के,
वसुधा के आंगन,
मिट्टी में हंसे,
बादल और हवा,
जीवन को हंसाया।।२।
३/धरती पुत्र,
हलधर किसान,
सपने जिंदगी के,
बीज को बोता,
फसल भी उगाता,
सर्व भूख मिटा ता।।३।।
पावनता है चंदन की।
ईश यही अल्लाह यही,
गाऊँ गीत मैं वंदन की।
इस मिट्टी में खेलें राम - कृष्ण,
यहीं नानक और बुद्ध हुए।
वेदों का सृजन हुआ यहीं,
ऋषि - मुनि कितने प्रबुद्ध हुए।
पावन गंगा उतर स्वर्ग से,
कण -कण माटी का सींच रही।
अमृत घूँट पी कर यहीं,
ऋचाएं जग के बीच रहीं।
जप - तप योग ध्यान का सूत्र,
इसी माटी में पनपा है।
सारे जग को वरदान स्वरूप,
यह भेंट हमने ही सौपा है।
सत्य अहिंसा के दर्शन से,
विस्मित होता है जग सारा।
अपनी माटी के कण - कण पर,
है हमने भी अपना जीवन वारा।
स्व रचित
डॉ उषा किरण
मिट्टी
उर्वर मृदा सोंधी महक
मैं प्रकृति का वरदान हूँ
नहीं आदि अंत हैं मेरा
मैं सृष्टि का मन प्राण हूँ
वक्ष पर शोभित है सारे
विपिन पर्वत श्रृंखलायें
झील समंदर महासागरें
कलकल करती सरितायें
सदियों से हूँ रत्न गर्भा
हेम हीरक खनिज खान हूँ
मेरे दामन में पलते हैं
जीव जन्तु सकल प्राणी
अन्न धन उपजा कर बनी
सबकी हूँ जीवन दानी
मुझ बिन कहाँ जीवन बोलो
आन बान और शान हूँ
मेरी ही छाती पर लगते
सृष्टि के सुख दुःख मेले
साक्षी बनती सदियों सदी
छोड़ा ना किसी को अकेले
जाता अनंतिम पथ कोई
गोद में देती सम्मान हूँ
सूरज चंदा करे आलोकित
मेरी असीम काया को
देवता भी पाने को तरसते
मेरी अदभूत माया को
दुश्मन को भी गले लगाती
देती जीवन दान हूँ
स्वरचित
सुधा शर्मा
राजिम
छत्तीसगढ़
सोना है इस देश की मिट्टी
किसानों ने कर्मो से इसे सिंचे है
अन्नदाता वो हमारे
सोना ही उपजाते हैं।
मातृशक्ति है इस देश की मिट्टी
सबपर अपना स्नेह बरसाती है
रक्षा की खातिर
शत्रुओं से ना घबराती है
बन शेरनी दहाड़ती है।
लक्ष्मी है इस देश की मिट्टी
गर्भ में अपने,
रत्न का भंडार छुपाई है
यह समृद्धि को दर्शाती है
ज्ञान है इस देश की मिट्टी
घर-घर विद्या की जननी है
वेद पुराणों की गाथा गाती है
चंदन है इस देश की मिट्टी
वीरों की कुर्बानी समाई है
गाथा ये सदियों पुरानी है
सोंधी गंध से ये अपनी
पहचान बताती है।।
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
अब मिट्टी में वो उर्वरकता नही
कण कण रज रंग गया
लहू था शहीदों का
कौन चुका पायेगा ऋण
मातृभूमि के सपूतों का
अब मिट्टी में वो उर्वरकता नही
जो ऐसे सपूत पैदा कर दे
अब प्रतिष्ठा के मान दण्ड
बदल रहे हैं प्रतिपल
देश भक्ति अब बस
है बिते युग की बातें
परोसी हुई मिली आजादी
कौन कीमत पहचाने
अपना दर्द सर्वोपरि है
दर्द देश का कौन जाने
वर्षों से एक भी प्रताप
सा योद्धा नही देखा
ना राज गुरु ना भगत सिंह
ना कोई सुख देव दिखा
ना आजाद ना पटेल
ना कोई सुभाष दिखा
और बहुत थे नामी गुमनामी
अब कदाचित ऐसे महा वीर
दृष्टि गोचर होते नही
ये धरा का दुर्भाग्य है
या है कोई संकेत कयामत का
सब कुछ समझ से बाहर है
कोई राह सुलझी नही।
अब मिट्टी में वो उर्वरकता रही नही।
स्वरचित।
कुसुम कोठारी।
विषय : मिट्टी
जग मृतिका
माटी है अनमोल
जाने कुम्हार
ये तन माटी
मिल जाना रज में
कैसा गरूर
खेले माटी में
पले धरा की गोद
खाया रेणु से
सावन मास
गीली मिट्टी सुगंध
खुश किसान
मिट्टी चन्दन
माथे पर धारण
वीर कुर्बान
स्वरचित
बलबीर सिंह वर्मा
रिसालियाखेड़ा सिरसा (हरियाणा)
होती अजब कहानी माटी तेरी , तुझको सबसे प्रीत घनेरी,
सबकी खातिर ही तू जीती , फिर भी कीमत नहीं है तेरी |
तन माटी का जीती है माटी ,बनती आत्मा इसमे घराती ,
पालन पोषण करती माटी ,फिर माटी में मिल जाये माटी |
हमें चंदन अबीर लगै है माटी ,देश भक्त के ये दिल में रहती ,
हीरा मोती भी उगले माटी , ऋण किसी का नहीं ये रखती |
मकान बनकर ये छाया देती,शीतल जल से प्यास बुझाती,
जाने कितने ही ये करतब करती , रंग बिरंगे रूपों को धरती |
माटी से ही है ये धरती , सृष्टि को यही तो बाँध कर रखती ,
सम्मान इसका बड़ा जरूरी ,उपकार सभी पै करती मिट्टी |
स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश ,
सबसे बड़ा कौन है भाई,
सबसे पहले आकाश आया,
सब दुनिया मुझमे समाई l
दूजी अग्नि इठलाती आयी,
ताप बिना मानव नहीं भाई,
मेरे बिना सब कुछ शीतल,
मुझसे ही दुनिया गरमाई l
तीजी माटी इतराती आयी,
बोली बिन मेरे पुतला कहाँ भाई
रूप मानव का मुझसे ही है,
मुझमे ही है दुनिया समाई l
चौथा जल कल कल कर आया,
ये सब क्या है मेरे भाया,
मेरे बिना कैसा शरीर,
इक पल भी न कोई जी पायाl
अब तो हवा गुस्से मे आयी,
बहुत सुनी तुम सबकी बढ़ाई,
बिन मेरे श्वांस कहाँ है,
सोचो जान कहाँ से आयी l
बोली एकता मे शक्ति मेरे भाई,
एक दूजे मे दुनिया समाई,
हम सब मिलकर ही रहेंगे,
इसमें ही है सबकी भलाई l
कुसुम पंत 'उत्साही '
स्वरचित
देहरादून
मिट्टी का है तू हे बंदे
मिट्टी में मिल जाएगा
जपले हरि नाम बंदे
भक्ति मुक्ति पाएगा।
मिट्टी से तू आया हे बंदे
मिट्टी में ही तू समाएगा
छोड़दे तू इस गफ़लत की
माया को जपता जा तू उस
हरि का नाम निरंतर जिसने
ये सारा ब्रह्माण्ड रचाया।
ना कर यूँ अभिमान अपनी
इस हस्ती पर ए बंदे जो इक
रोज़ मिट्टी में मिल जानी है
हरि बिना क्या वजूद तेरा
जिसके बिना तो, है हर
प्राणी का जीवन अधूरा।
रौशनी अरोड़ा (रश्मि)
तू अविनश्वर है
तू जलकर भी मिट्टी है
तू मिटकर भी मिट्टी है
तुझ में अमरता है
कितने तेज अनल
तुमने देखा है
कितने अक्षय कीर्ति को
तुमने देखा है
तुम्हीं बताओ ! कौन यहाँ
करूणा का अभिलाषी है
युगों युगों से कौन सहता रहा अचल वेदना है
हम किस मिट्टी के बने हैं
बार बार सोचते हैं
सोच सोचकर ह्यदय में
ग्लानि के भाव उठते हैं
क्यों जाति गोत्र ही केवल
आदर पाते हैं यहाँ
क्यों गुणों को सम्मान नहीं यहाँ
कौन वीर दानी है यहाँ
कौन कुल के अभिमानी है यहाँ
कौन वैभव लिप्सा में
लिप्त यहाँ
ऐ मिट्टी !सबका हिसाब
तेरे पास है
राजा हो या रंक
सब तेरा अंश हैं
कौन किस कुल वंश में
जन्म ले
मनुज के बस की यह बात नहीं
क्या जरूरी है मनुज
विविध जातियों में बंट जाये
बड़े कुल सम्मान पाएं यहाँ
छोटे कुल पर आघात हो यहाँ
क्यों जाति बड़ी
गुण छोटे यहाँ
ऐ मिट्टी! बताओ तेरे रंग की तरह
वर्ण भेद है क्यों यहाँ
@ शंकर कुमार शाको
स्वरचित
प्रकृति का सुन्दर कितना प्रबन्ध
पहली बारिश में अनुपम मिट्टी
की गन्ध
दूर का कोना भी महका देती
सबके मन को चहका देती।
मिट्टी बिना सब मिट्टी है
मिट्टी से ही सारी सृष्टि है
मिट्टी के कारण ही अन्नपूर्णा धरा
मिट्टी से ही गेहूँ चावल अन्न भरा।
मिट्टी के कटाव में विनाश है
मिट्टी के रखाव में विकास है
मिट्टी से ईंट बनती निर्माण होता
मिट्टी से ही सभ्यता का उत्थान होता।
जल प्लावन जब कर देता कटाव
हो जाता सब ओर जब बिखराव
कट्टो में मिट्टी भर कर ही
रोकते हैं इसका तुरन्त फैलाव।
और अन्त में परिणाम मिट्टी है
जब मिलती मौत की चिठ्ठी है
श्मशान इसका प्रत्यक्षदर्शी है
यह अन्त बड़ा ही मर्म स्पर्शी है।
विधा-हाइकु
मिट्टी खेत की
जिन्दगी किसान की
ग्राम्य जीवन
माथे लगाता
प्रत्येक नागरिक
मिट्टी तिलक
मिट्टी निर्मित
हर एक शरीर
पंचतत्व से
लोग बनाते
मिट्टी के मृदभाण्ड
जरूरी वस्तु
मिट्टी की ईंटें
घर को बनाती हैं
निवास स्थान
मिट्टी में मिलें
बहुमूल्य खनिज
विपुल धन
जीवन निधि
वसुंधरा की मिट्टी
जन्म-मरण
चिप बनते
मिट्टी की सिलिका से
संचार क्रान्ति
मनीष श्रीवास्तव
स्वरचित
मिट्टी रौंदते
जीवन हैं पालते
मिट्टी नें रौंदा।।
महंकी मिट्टी
बरसा पानी आज
बढ़ी उमस।।
मिट्टी लपेटे
अभी नहाया बच्चा
डांटती माता।।
मिट्टी जीवन
उगा है उपवन
काटते वन।।
मिट्टी से घृणा
रईसों के चोंचले
मिट्टी में मिले।।
मिट्टी आधार
पलें जीव अपार
यही संसार।।
भावुक
वतन की खुशबू
मिट्टी में समाई
माथे लगा लूँ
सारी जिन्दगी की
ये है कमाई
मिट्टी के खिलोने
खेलते बीता बचपन
मिट्टी के घड़े सलोने
ठंडा पानी देते हरदम
मिट्टी में खेले
मिट्टी में बड़े हुऐ
अब निभाओ फर्ज
मिट्टी से न करों गद्दारी
मिट्टी में ही मिल जाना है
एक दिन
फिर किसका है अहं
चंद दिनों की है जिन्दगी
इन्सानियत ईमानदारी
मिल जुल कर जियो जिन्दगी
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
किस बात पे बनते हो
क्यों इतना उफनते है
क्या रखा है अकड़न में
क्यों बात बात तनते हो
मालूम है तुमको ,,,,,,,,,,,!
सोचा है क्या कभी ?
ये संसार क्या है ?
इस दुनिया में क्या है ?
कुछ भी तो नहीं,,,,,,,,,,,,!
सब कुछ मिटटी है
जो प्रकृति ने बनाया वो भी
और जो मानुष ने प्रतिपादित किया वो भी
अंत सभी का सिर्फ एक ,,,,
वो है मिटटी
अंतत: क्या है मात्र मिटटी ,,,,,,,,,,!
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उम्र का भार
सह न सका घर
मिट्टी में मिला
🌹🌹🌹
ढह ही गया
पुराना था मकान
मिट्टी की जल्दी
🌹🌹🌹
पहली वर्षा
मिट्टी की सौंधि खुश्बू
हवा में फैली
🌹🌹🌹
मिट्टी गुल्लक
सदकर्मों के सिक्के
मोक्ष की राह
🌹🌹🌹
मिट्टी का स्वाद
बचपन की मार
आज भी याद
🌹🌹🌹
मिट्टी का तन
भ्रमित है जन यह
ईश का धन
🌹🌹🌹🌹
===रचनाकार ===
मुकेश भद्रावले
विधा :-मत्तसवैया छंद
🌻🌹🌻🌹🌻🌹🌻
मिट्टी जीवन आधार बनी ,
मिट्टी करती संचार प्राण
ये नदियाँ झरने जो दिखते ,
सब मिट्टी से हैं ऊर्जावान ।।
ऊँचे गिरि होते मिट्टी के
बनते सीमाओं के प्रहरी ।
फ़सलें उगती हैं मिट्टी में
दिखता अनुपम रूप सुनहरी ।।
पानी रहता है मिट्टी में ,
अरु मिट्टी रहती पानी में ।
मिट्टी निर्मित तन में पानी ,
और पानी भरा प्राणी में ।।
सब रासायन खनिज धातुएँ ,
मिट्टी के अन्तस में रहती ।
उनकी ऊर्जा देह रक्त में ,
प्राण संचार कर के बहती ।।
भू मंडल के खेल खिलौने ,
आयु भोग मिट्टी में मिलते ।
मिट्टी निर्मित पंक कीच में ,
रहकर पद्म निर्लिप्त खिलते ।।
कुम्हार कूट कर थापी से ,
देता मिट्टी को कई आकार ।
नाना भाँति की कला कृतियाँ ,
मोह लेतीं सारा संसार ।।
क्षण भंगुर जीवन कृति पाती ,
मिट्टी में आख़िर मिल जाती ।
अनंत रूप धार के मिट्टी ,
मिट्टी में मिट्टी मिल जाती ।।
काया बनती पंच तत्व से ,
परंतु तन मिट्टी कहलाता ।
दूजे तत्व नही है दिखते
पर मिट्टी का तन दिख जाता ।
स्वरचित :-
ऊषा सेठी
सिरसा 125055 ( हरियाणा )
कदम मेरे हर बार फिसलते रहे
अश्क कहर बनकर हर बार गिरते रहे
फिर भी उम्मीद का दामन मैं थामे रही .
हर इन्सान मिट्टी का खिलौना हैं
सबको मिट्टी में मिल जाना हैं
इस मिट्टी की देह को मिटटी में जाना हैं
ये जानकर हर इन्सान फिर भी अनजाना हैं .
ना जाने कैसी हैं ये मिट्टी की सौंधी सी महक
कभी बचपन की प्यारी यादों जैसी
कभी बीते हुये यादों और मन की कल्पना जैसी
कभी धुंधली यादों की पोटली जैसी .
मेरी तो बस इतनी सी हैं पहचान
दिल में मेरा समस्त हिन्दुस्तान
मिल जाये मेरा तन ये जब मिट्टी में
कफ़न हो मेरा तिरंगे में लिपटी हो तन में मिट्टी वतन की .
स्वरचित:- रीता बिष्ट
मेरा अपना ज्ञान विज्ञान
मिट्टी ही है मेरा शुभनाम
विविध रूपों में आती काम
मेरी गोद में खेल खेलकर
बाल गोपाल आनंदित होते
बलिष्ठ उनका शरीर बनाती
पहलवानी के दाँव सिखाती
खेल प्रतिभा पहचान कराती
तिरंगे का ख़ूब मान बढ़ाती
कुंभकार के हाथों में ढलकर
किसी रमणी की गोद सजाती
रास रचैया, गऊ चरैया की
प्रिय माखन मटकी बन लुभाती
बाल गोपाल जब करते रूदन
खिलौनों से उनका बहलाती मन
खेत खलिहानों में उर्वरा रूप
अन्न उगाकर अन्नदाता कहलाती
पाकर मेरा अमूल्य स्पर्श
शान बढ़ाते सेना जवान
मेरी आन बान और शान पर
पल भर में कर देते प्राणों का दान
विदेशी धरती पर रहते मेरे लाल
वापस आकर मिट्टी से सजाते भाल
मिट्टी हूँ मैं मिट्टी हूँ
जीवंतता की चिट्ठी हूँ
पंचतत्त्व का अभिन्न अंग
जीवन मे समा जाती हूँ
जीवन यात्रा का होवे समापन
शरीर मिट्टी का मिट्टी मे मिलाती
जीवन का सार बतला देती हूँ ।
संतोष कुमारी ‘संप्रीति’
स्वरचित
मैंने देखा है बालक को सिंसकते हुए
मैंने देखा है किसानों को मरते हुए
मैंने देखा है आपस में लड़ते हुए
देखा है लोगों को मिट्टी में मिलते हुए ।
जनहित जनकल्याण विकास के बात करो
फिर से इस मिट्टी को कुरुक्षेत्र मत बनाओ
भारत को भारत ही रहने दो राज नेताओं
भारत में अब महाभारत मत होने दो ।
अब इतिहास पुनः मत दोहराने दो
यशोदाबैन यशोदा यशोधारा को रहने दो
हम सब से चुनी हुई सरकार रहने दो
महात्मा रहे न महावीर मोदी को रहने दो ।
मैंने देखा है चंद लम्हों में सरकार गिरते हुए
एक कुर्सी के लिए सैकड़ो को मरते हुए
जय राम हे रहमान के नारे रहने दो
जय जवान जय किसान के नारे गुंजने दो ।
राहु बना दुर्योधन कर्ण बना मनमोहन
धृष्टराष्ट्र सोनिया को बना दिया
सवा सौ करोड़ जनता ने अर्जुन रथ पर
सवार कर मोदी को दुनियां घुमा दिया ।
भारत दांव पर मान निष्ठा दांव पर
प्रत्येक जनता की मतदान दांव पर
मैंने देखा है बिना फूफा के बुआ
मैंने देखा है बिना जीजा के दीदी
भारत को भारत ही रहने दो भ्रष्ट नेताओं
भारत में अब महाभारत मत होने दो ।
स्वरचित एवं मौलिक
मनोज शाह मानस
सुदर्शन पार्क
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