Tuesday, February 12

"लौ "12फरवरी 2019

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             ब्लॉग संख्या :-297

मन की अगणित परतों मे दबी ढकी आग 
कभी सुलगती कभी मद्धम कभी धीमी फाग।

यूं न जलने दो नाहक इस तेजस अनल को 
सेक लो हर लौ पर जीवन के पल-पल को।

यूं न बनाओ निज के अस्तित्व को नीरस
पकालो इस लौ पर आत्मीयता की मधुर पायस।

गहराई तक उतर के देखो सत्य का दर्पण
मन की कलुषिता कर दो इस लौ में तर्पण ।

अज्ञान का कोहरा ढकता मति लौ को कुछ काल
मन मंथन का गरल पी शिव बन, उठा निज भाल।
स्वरचित 
कुसुम कोठारी।


हवायें भी कितनी बेसबब बेरहम 
दिये की लौ पर करें जुल्मोसितम ।।
दिये की लौ की इम्तहान की घड़ी 
सिखाये ये सीख और कितने मरम ।।

स्वार्थ तो स्वार्थ निस्वार्थ भी लपड़े
अपने स्वभाव में दोनो हैं जकड़े ।।
देखकर हवाओं का मनमाना चलन 
भुजायें फड़कीं कलम को पकड़े ।।

दिये की लौ का रहेगा गुणगान 
जब तक रहेगा 'शिवम' ये जहान ।।
दी है उसने बड़ी कठिन परीक्षा 
हरा के भी शर्मिन्दा रहेगा तूफान ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 12/02/2019

लौ अनल है लौ चिंगारी
जब जले कौहराम होता
घर मकान अट्टारीकाये
नर जीवन सब कुछ खोता
लौ लगे जब शिक्षा की
दानव भी मानव बन जाता
परम् ज्यौति से अज्ञानी भी
कविकुल कालिदास कहाता
लौ लगे जब क्रीड़ा में
स्वर्ण पदक भी भागे आते
निष्ठा विश्वास और लगन से
विश्व कप कर हाथ उठाते
लौ लगे जब भक्ति की
भिलनी झूठे बैर खिलावे
छप्पन भोग त्याग दुर्योधन
साग मधुर विदुर घर खावे
लौ लगे जब देश प्रेम की
भगतसिंह फाँसी पर झूले
इन्कलाब जय भारत के
नारे सदा वतन पर गूँजे
लौ लगे जब सत्य स्नेह की
केवट राम निज पांव पखारे
गोप गोपियां पागल बनकर
श्री कृष्ण पद पदम् निहारे
लौ सनक है लौ भनक है
लौ सदा मंजिल पंहुचाती
लौ प्रज्वलित मन मानस में
हर मुश्किल संभव हो जाती।।
स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम

कांटो पर चलने वाले
मुकाम पा जाते हैं 
मखमल पर चलने वाले
अक्सर भटक जाते है

महलों की चमक 
इरादों से भटका देती है
झोपड़ी वाले
महान हो जाते हैं 

आग घर की 
रोटी बनाती है
भड़क जाऐ तो
शीला बन जाती है

दिल से चाहे तो 
अपने है
नफरत आँखो से
गिरा देती है

लौ से करो 
मोहब्बत इतनी
रोशन करें 
जिन्दगी सब की

अगर बन गयी 
शौला वो तो
तबाह करेगी
ज़िन्दगियाँ सब की

स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव 
भोपाल


************
साहस की लौ जलती रहे सदा, 
रुख कैसा भी हो तेरा ,ऐ हवा !
मेरे देश की जलती रहे मशाल, 
सुन ऐ! दुश्मन तेरी क्या औकत?

घर-घर से निकलें हैं ये जो चिराग़, 
माँ भारती से करते हैं बेहद प्यार, 
इनकी लौ को तु क्या बुझायेगा,
तु है क्या? सिर्फ एक पत्थरबाज |

रात के अंधेरे में देते हैं सैनिक पहरा, 
सीमा मत लांघना, बुरा हाल करेंगे तेरा,
साहस की लौ,मजबूत है इनकी, 
ऐ दुश्मन मत देना तु कोई धमकी |

सलामती चाहता है गर तु अपनी, 
इंसान बन, हैवानियत छोड़ दे अपनी, 
शेरों की माँद में न डाल अपना हाथ, 
जान से धोना पड़ेगा ऐ धुर्त! तुझे हाथ |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*

लौ लगी कृष्णा तेरी मन में... 
सृष्टि दैदीप्य लगे कण कण में... 

मन पथिक हर राह निहारे... 
कान्हा आएंगे कौन से द्वारे... 
आँख न मीचे मन व्याकुल ये...
अब आएंगे प्राण प्यारे....
देखूं आतुर हर इक जन में....
देखूं आतुर हर इक जन में....
लौ लगी कृष्णा तेरी मन में 

कारी बदरिया घिर है आयी...
उम्र गगरिया भी भर आयी...
नैनाँ पुकारें सांसें निहारें...
कब आओगे प्रीतम प्यारे...
डूबी जाऊं मैं हर क्षण में....
डूबी जाऊं मैं हर क्षण में....
लौ लगी कृष्णा तेरी मन में

'चन्दर' जग न भाये मन को....
न चाहे अब ये इस तन को....
चाह इसे रम जाऊं तुझ में...
तेरी लौ हूँ थम जाऊं तुझ में...
संग तेरे विचरूँ कण कण में...
संग तेरे विचरूँ कण कण में...

लौ लगी कृष्णा तेरी मन में....
सृष्टि दैदीप्य लगे कण कण में... 

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II

लौ लगे मुझे ईश भक्ति की।
लौ लगे मुझे प्रेम शक्ति की।
लोक रीति से अलग होकर,
नहीं लगे लौ आसक्ति की।

भक्ति भाव हो मेरे मन में।
स्नेह प्रीति हो मेरे मन में।
प्रभु लगाना लौ ऐसी कि,
स्वराष्ट्रवाद हो मेरे मन में।

सबके हित की बात करूँ मै।
नहीं किसी से घात करूँ मै।
नहीं जले प्रतिशोध की लौ,
सुखद सदा प्रेमालाप करूँ मै।

जीवनज्योत जले जबतक ये,
करूं सदैव सत्कर्म यहां पर।
लौ जलती रहे परोपकार की,
जबतक अंतिम सांस यहां पर।

स्वरचितःःः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जय जय श्री राम राम जी

12/2/2019( मंगलवार


आ गई है ऋतु सुहानी 
छा गई है बागवानी


पुष्प पुष्पित फिर हुए हैं
है धरा का रंग धानी

रंग फागुन भी चढ़़ा है
होलिका बस है जलानी

#लौ जलाकर प्रेम की अब
दूरियों की रति मिटानी

हर्ष मोहन मुख चढ़ा है
राधिका करती शैतानी

पर्व होली आगमन अब
मिल सभी को है मनानी

लौ लगी भगवान से उस ईश को पा जायेंगे
मिटा दे जो संकटों को , पार हम हो जाएंगे

लौ लगी मन में अगर , तम दूर फिर हो जायेगा
मन में खुशियों का समंदर , फिर मेरे लहरायेगा

ज्ञान की लौ हम जलायें , ज्ञान बांटे सर्वदा
निरक्षर को साक्षर बना ,हम फर्ज कर देंगे अदा

अर्चना के थाल में जलती रहेगी लौ सदा
ईश पर विश्वास से भरता रहेगा मन सदा

लगन प्रिय से जब लगी , न मैं रही न वो रहा
डूब कर फिर प्यार में , तब होश जग का न रहा

लौ लगाना जिंदगी में , मन वचन औ कर्म से
ईश मिल जायेंगे हमको गर पुकारें मर्म से

यहाँ मर्म का प्रयोग अन्तर्मन या हृदय के लिए किया गया है ।

सरिता गर्ग
स्व रचित


कुछ नही समझें अगर वो,
प्यार की गहराइयों को,
मन के अंदर प्यार का फिर,
लौ जलाना कब मना था------

कर रहा तुम पर असर जो,
देंह का जादू निराला,
सब्र जिसको देख कर,
फेरता ख्वाबों की माला,
झील सी आंखों में फिर,
डूब जाना कब मना था------

जो गढ़े थे पात्र तुमने,
खेल उनके हो गये,
झाकियां सारी खत्म कर,
पात्र सारे सो गये----

एक कहानी गर खत्म तो,
दूसरी फिर से गढ़ो तुम,
दो नया उत्साह पग को,
और पर्वत पर चढो तुम,

गिर गया पर्दा अगर जो,
गिर गया पर्दा अगर जो,
इस गिरे पर्दे को फिर,
फिरसे उठाना कब मना था---

है घृणा भारी सभी पर,
प्रेम कुछ कमजोर है,
पाप है पुरजोर लेकिन,
पुण्य कुछ कमजोर है,

प्रेम का नव पौध बो दो,
प्रेम नव सृजित करो,
त्याग कर अभिमान अपना,
प्रेम कुछ अर्जित करो,

फैलते इन स्याहतों में,
फैलते इन स्याहतों में-----
दीपक जलाना कब मना था-----

है नियम प्रकृति क्रूर,
जो सृजित है संहार उसका,
फिर बनाना फिर गिराना,
है नियम आधार उसका,

जो बनाया वो गिराया,
जो बनाया वो गिराया,
पर गिरा जो उसको फिर,
से बनाना कब मना था------

तुम गयी जो छोड़ मुझको,
क्या बुरा इस रीत का,
हमने देखी है जगत में,
है हस्र यही प्रीत का,

जो तुम गये तो क्या हुआ,
जो तुम गये तो क्या हुआ---
जो गये थे फिर से तेरा,
लौट आना कब मना था-----

राकेश पांडेय..स्वरचित,

जलती रही वो लौ सदा..
जिम्मेदारी की तूफानों में भी..
देती रही असीम ऊर्जा सदा...
जीवन के झंझावतों में भी..

संघर्ष की की थी पराकाष्ठा..
न हारे कभी न थके कभी..
करते रहे हर आरजू पूरी..
पर ईमान से न बिके कभी..

वो लौ थी एक पिता की..
वो लौ थी एक पति की..
कड़वे घूँट पीकर जीवन के..
नींव रखी एक परिवार की..

हर रिश्ते की नींव रखी..
दिया संबल सबको सदा..
दरिद्रता भी थी थकी हारी..
कर्तव्यनिष्ठा की की पराकाष्ठा..

अब जब लौ बुझने को थी..
सांस भी पड़ रही थी मद्धम..
बंधा रहे थे साहस सबको..
कहकर ये सफर है अंतिम

स्वरचित :- मुकेश राठौड़


 लौ हुई प्रज्वलित कुछ ऐसी
जीवन में मेरे लगन की
हर मुश्किल आसान बन गई

आने वाले भविष्य की
ईश्वर से भक्ति की लौ
वरदानों की आराधना से लौ
मंजिलों की साधना से लौ
संघर्षों को सफलता से लौ
बचपन को जवानी से लौ
जवानी को अधिकारों की लौ
वापस फिर उम्र की दहलीज पर
अधिकारों को बचपन की लौ
जो मिला नहीं उनको ख्वाबों की लौ
ख्वाबों को आने के लिये नींदों की लौ
शहीद होते जीवनों को शहादत की लौ
सलामत रहे देश यह कुर्बानियों की लौ
लगन बनकर हर दिल में जल रही है
यह लौ है जीवन की प्राप्ति की
जीवन रहते हर पल रोशन हो रही है
-----नीता कुमार (स्वरचित)





दीप की लौ सम
झिलमिलाती 
अंतस की लौ देती प्रेरणा।
जगाती साहस..
बनाती कर्मण्य..
तूफानों से लड़ती !
ये छोटी सी लौ..!
बनती जिजीविषा,
जगाती जिज्ञासा,
बलवती होती इच्छा,
लाती क्रांति,
होते परिवर्तन,
करके सर्वस्व समर्पण,
वीर-धीर-कर्मवीर,
बन उत्साही ,
सतत होते अग्रसर।
यह लौ है जगत का आधार,
सतत जगत चलायमान,
निरंतर दिपदिपाती,
इस नन्ही सी लौ से..!
देती संघर्ष की शक्ति,
जीवन को गति,
व्यक्ति को मति,
बनती स्वाभिमान,
आन -बान-शान,
जागता स्वावलंबन,
इस लौ का झिलमिलाना!
जीवन का प्रतीक,
जब तक जलती रहेगी,
अंतस में लौ !
मानवता खिलती रहेगी,
जिंदगी हंसती रहेगी,
भाव जगते रहेंगे,
सद्गुण जाग्रत रहेंगे।
देशभक्ति का भाव होगा,
इंसानियत का सम्मान होगा।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित


कविता 
आशा की एक लौ 
व्यक्ति को आगे बढा़ती, 
झूनून पैदा कर देती हैं, 
वह दिन- रात उसी धुन में
आगे बढ़ता चला जाता हैं , 
शायद इसी तरफ सिद्धि , 
बुद्धि और समृद्धि , 
अंधकार बीच उजाला, 
ईश्वर भजन, सृजन, 
अर्थोपार्जन, 
मशाल थाम हाथों में
जागृति , चेतना, क्रांति 
लाने की एक कोशीस टिमटिमाती आस, 
रोशनी की एक किरण 
ढूंढ़ते , टकटकी लगाए 
बाट निहार रहे हैं, 
दीपशिखा सी देह 
अपने में अरमान समेटे 
बरबस प्रिय की साधना में, 
देशभक्त एकता की धुन ले, 
विद्यार्थि अध्ययन की लगन से , 
खुशी के दीप की लौ जलती हो , 
हर दिशा में ढूंढ़ रहे हैं ! उसी लहर में , सैनिक भी ! 
अपनी मंजिल की तलाश में
कहाँ हैं आग? रोशनी ? 
दिखाओ हमें लौ! लौ! लौ ! 
स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा 
'निश्छल'


🔥
सुज्ञान की लौ
अज्ञानता का त्याग
धधकी आग
🔥
मन दीपक
नयनन के द्वारे
प्रीत बनी लौ
🔥
विश्वास की लौ
बनी है प्रीत ज्योति
कभी ना बुझी
🔥
है मद्धिम लौ
पचपन के पार
जीव लाचार
🔥
भोर का तारा
हर दिल सवेरा
जली आशा लौ
🔥
सत्कर्मों की लौ
उद्देश्य परमार्थ
भाव नि:स्वार्थ
🔥
दीपक की लौ
बूढ़ी आँखों की आस
निराशा हाथ
🔥
प्रीत का दीया
अन्तर्मन की ज्योति
आस्था लौ जली

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल


शीर्षक - "लौ"

शब्द है : लौ


विधा=हाइकु 
🌹🌹🌹🌹
(1)सांसों का तेल
आत्मा लौ प्रकाश
देह दीपक
🌹🌹🌹
(2)भक्ति लौ लगी
कृष्ण ने पीड़ा हरी
मीरा बावरी
🌹🌹🌹
(3)लगी जब लौ 
जो चाहा मिलेगा वो
कर्म में जा खो
🌹🌹🌹
(4)ईश्वर में लौ
लगे जग नश्वर 
मोक्ष की ओर
🌹🌹🌹
(5)इश्क लौ लगी
दुनिया बुरी लगी
भली तू लगी
🌹🌹🌹
===रचनाकार ===
मुकेश भद्रावले 

हरदा मध्यप्रदेश 

लघु कविताएं
****-----****
(१)
चलें हवाएं बड़ी जोर
कहीं लौ न बुझ जाए
शमा की चाहतों में
परवाना जला जाए
कैसी है यह मोहब्बत
जो सदियों से मशहूर है
जल जाता है परवाना 
शमा की लौ जले ज्यों
यह अनबोली चाहतें हैं
अपनी ही लौ में जीतीं
परवाने के जलने पर भी
रोशन जहाँ को करती
(२)
लौ जले मन में सदा
देशभक्ति के भाव की
लौ जले मन में सदा
नारी के सम्मान की
लौ जले मन में सदा
हम एक थे हम एक हों
लौ जले मन में सदा
न जात-पात का भेद हो
लौ जले मन में सदा
बेटी पढ़े बेटी बढ़े
लौ जले मन में सदा
आतंकवाद जड़ से मिटे
लौ जले मन में सदा
भारत की हम शान बने
लौ जले मन में सदा
जग में ऊँचा नाम हो
***अनुराधा चौहान*** स्वरचित

ौ जले !सब में विज्ञान की
लौ जले !राष्ट्र के सम्मान की
लौ जले !स्वच्छ हिन्दुस्तान की
लौ जले !अपने स्वाभिमान की। 

लौ जले !देश के उत्थान की
लौ जले !स्वच्छ गंगा के अभियान की
लौ जले! कन्या भ्रूण के सुरक्षित प्रान की
लौ जले !नारी के लिये सम्मान की।

लौ जले !भ्रष्टाचार समाप्त हो
लौ जले !कृषक को आमदनी पर्याप्त हो
लौ जले !आतंकियों में भय व्याप्त हो
लौ जले !सबको अन्न जल शुद्ध प्राप्त हो।

लौ जले !वन सदा फलते रहें
लौ जले !कली पुष्प खिलते रहें
लौ जले !पेड़ पौधे घर घर में पलते रहें
लौ जले !प्रदूषण जन जन को खलते रहें।

यदि सब में ही यह लौ जल जायेगी
तो स्वर्ग भूमि धरा पर आने को मचल जायेगी।

विषय लौ 
1प्रेम भक्ति लौ 
मीरा रहे जगाये 
श्याम को पाए 
2
तन है दिया 
कर्म बनते तेल 
साँसो की है लौ 
3
देश भक्ति लौ 
चुनते सियाचिन 
शान तिरंगा 
4
राधा की भक्ति 
अध्यात्म बनती लौ 
प्रेम थी शक्ति 
कुसुम पंत उत्साही 
स्वरचित 
देहरादून

अध्यात्म का मैं अपने जीवन में 
सहारा चाहती हूँ
अपने अंतर्मन में अध्यात्म की
लौ जगाना चाहती हूँ 
अध्यात्म का अपने जीवन में
सहारा चाहती हूँ
अपने मन में अब ज्ञान का 
उजाला चाहती हूँ
मैं भी अध्यात्म को अब 
जानना चाहती हूँ
अध्यात्म को पहचाना चाहती हूँ
अध्यात्म का मैं अपने जीवन में 
सहारा चाहती हूँ
अब मैं अध्यात्म में ही 
खो जाना चाहती हूँ
अध्यात्म की उस ज्योतिपुंज
को मैं भी एहसास करना चाहती हूँ
अध्यात्म का मै अपने जीवन में
सहारा चाहती हूँ
और नही कुछ जीवन में बस
अध्यात्म की लौ जगाना चाहती हूँ
इस स्वार्थ भरी दुनिया से 
अब में छुटकारा चाहती हूँ
इन उलझे रिश्तो से मैं 
छुटकारा चाहती हूँ
इस मोह जाल के बंधन से 
मैं मुक्त होना चाहती हूँ
अध्यात्म के इस ज्ञान को
मैं भी जानना चाहती हूँ मैं भी पाना चाहती हूँ 
मैं भी अपने जीवन में 
आध्यात्मिक लौ जगाना चाहती हूँ 
🌹🙏🏻स्वरचित हेमा जोशी🙏🏻
मैं तो पत्थर हूं ,
मेरे पूर्वज शिल्पकार हैं ।
मेरी हर तारीफ के 
वो हकीक़त हक़दार है ।।

मैं 'लौ' हूं 
बुझा अन बुझा 
मैं रोशनी हूं 
दिशा अन दिशा 
वो असली मार्ग 
दिखाने वाले 
मार्ग दर्शक 
नेक राह दिखाने वाले 
नेक राहगीर ।।

मैं लहू हूं उनका ही 
सुस्त अन सुस्त 
वो जुनून पैदा करने वाले 
रक्त रक्षक 
स्वयं संरक्षक ।।

मैं 'लौ' हूं 
बुझा अन बुझा 
वो पवन के 
मध्यम मध्यम झोंके 
जो हमें कभी 
बुझने नहीं देते ।।

स्वरचित एवं मौलिक 
मनोज शाह मानस 
सुदर्शन पार्क 
मोती नगर नई दिल्ली


दिये की लौ तबतक जलती है।
जबतक उसमे तेल है।
मानव जीवन का भी कुछ।
ऐसा हीं अद्भुत खेल है।

तेल खत्म होते हीं।
दीये की लौ बुझ जाती है।
बस वैसे हीं साँस के रुकते।
जिन्दगी खत्म हो जाती है।

मन में रखो भाव प्रेम की।
जबतक जीना, ख़ुशी से जीना।
सबसे खुश होकर मिलना।
होठों में मुस्कान लिये।
अपने अंदर के लख़्मों को सीना।।

लौ तबतक सुंदर लगता है।
जबतक दीये में तेल है।
मानव जीवन में सांसों से।
रिश्ता ये अनमोल है।।
🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟
स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी

चहुँ और फैला है तमस
धूमिल पड़ रही है आस
खो रहा मानुस अब विश्वास,
मिटाने धरा का त्रास
आओ दीये की लौ
बन कर हम जले
स्वयं मिट कर भी
औरों का मार्ग प्रशस्त करे।
लौ ज्ञान की हम जलाएं
अंधियारे से उजियारे 
की ओर कदम बढ़ाएं।
एक लौ कर्म का बन जाए हम 
सतत सत्मार्ग पर बढ़ते रहें कदम
एक दीप में सदविचारों की लौ जलाएं
कुरीतियों को दूर करने की अलख जगायें
मानवता का एक दीप जलाएं
समर्पण का तेल डाल 
अंतस को निचोड़ हम बाती बनाये 
इस लौ का प्रकाश सर्वत्र फैलाएं।

स्वरचित
अनिता सुधीर श्रीवास्तव

----------------------

लगन बिना कोई काम न होता , 
दृढ़ निश्चय बड़ा जरूरी |
लगन लगा ले कर्म से अपने ,
नहीं होगी कोई मजबूरी |

लौ जले जब मन में प्यार की ,
दुनियाँ छोटी पड़ जाती |
रहे अपना पराया कोई नहीं ,
घर घर जलै प्रेम की बाती |

लौ जले जब कभी ज्ञान की ,
अमृत वाणी बरसाती |
होती प्रकाशित जीवन ज्योति ,
सीख के बरसते मोती |

ज्ञान और विज्ञान मिले जब ,
अबिष्कारो की झड़ी लग जाती |
लौ अगर नहीं होती मन में ,
टेक्निक नयी क्या होती |

हरी प्रेम में डूबा मन जब ,
गहरी लगन लगाई |
पदार्थ सब तुच्छ लगे तब ,
भक्ति की मोती पाई |

लौ मन में रहे सजग तो ,
जीवन ने गति पाई |
नहीं रहा कोई झगडा टंटा ,
राह विकास की पाई |

स्वरचित , मीना शर्मा ,मध्यप्रदेश ,


कीट-पतंग प्रफुल्ल हुए लो
महफिल में छाया उजियारा
जले शमा उठती गिरती लौ
करने लगती उन्हें इशारा 

आओ मेरे आसपास तुम
तपन अगन में हो जाओ गुम
हौले-हौले नशा निशा का
चढ़े सभी पर जैसे पारा

कीट-पतंग प्रफुल्ल हुए लो
महफिल में छाया उजियारा
जले शमा उठती गिरती लौ
करने लगती उन्हें इशारा

परवाज भरें प्यार में खोकर
प्रेमी लौ की रौ में बहकर
खाक होएं सब कीट पतंग
हा !कैसी ये विवश उमंग? 
दोष मढ़ें लौ पर ही सारा

कीट-पतंग प्रफुल्ल हुए लो
महफिल में छाया उजियारा
जले शमा उठती गिरती लौ
करने लगती उन्हें इशारा

-----------
#स्वरचित डा.अंजु लता सिंह 
नई दिल्ली


हे ईश्वर मन के अँधेरे में
उजाले की लौ जलाए रखना ।
अज्ञानता के अँधेरे को दूर करने में 
ज्ञान की लौ जलाए रखना ।
जब अविश्वास घर करने लगे 
उसमे विश्वास की लौ जलाए रखना ।
नफरत की उठती भावनाओं में 
एक प्रेम की लौ जलाए रखना ।
जब संबंधों में कड़वाहट सेंध लगाने लगे 
उसमें प्रीति की लौ जलाए रखना।
कभी न क्रोध की आग में जलूँ 
उसमें दया , की वर्षा कराए रखना। 
जब भी भटकूँ दिशा भ्रमित होकर
दिशा निर्देश की लौ जलाए रखना ।
सब कुछ पा लेना ही इच्छा न बने 
मन में देने की लौ जलाए रखना ।
हे ईश्वर इस जीवन के भँवर जाल में 
जब भी हर तरफ़ निराशा ही निराशा हो 
उम्मीदों की लौ जलाए रखना ।
इस जीवन में विध्वंसक नहीं 
एक सृजनकर्ता की लौ जलाए रखना। 
स्वरचित
मोहिनी पांडेय




प्रतिदिन एक लौ जला रहा हूं 

नव आशाओं के कमल 
उन पर गाते भंवरों के दल 
अँधेरों में आकांक्षाएं प्रबल 
गीत प्रीत के रचा रहा हूं
प्रतिदिन एक लौ जला रहा हूं 

भाग्यहीन जीवन पथ पर 
चढ़ कर्मों के ही रथ पर 
विश्वासों को यूँ मथ कर
राहें नई बना रहा हूं 
प्रतिदिन एक लौ जला रहा हूं 

जीवन में खुशियों के पल 
भावों की सरिता की कल कल 
सागर मंथन के मध्य अचल 
मयूर मन के नचा रहा हूँ
प्रतिदिन एक लौ जला रहा हूं

मीनाक्षी भटनागर
स्वरचित

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