Sunday, February 10

"शारदे /सरस्वती/वसंत/ऋतुराज"09फरवरी 2019

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             ब्लॉग संख्या :-294
नमन माँ शारदे
ज्ञान ज्योति का प्रकाश भर
बैर भाव भूल कर
नव उमंग संचार कर।
कमलासन विराजमान
मधुरिम वीणा की झंकार
वेद ज्ञान का उत्तम दान
प्रदान करो माँ शारदे।
ऋतु वसंत है आ गई
नव कपोलें खिल गई
मन भ्रमर बन उड़ रहा
तान वीणा सुन रहा।।
विनीत भाव है हम खड़े
कर कल्याण माँ शारदे
हो शिक्षा का विस्तार माँ
ऐसा तू वरदान दें।
नमन माँ शारदे🙏

वीणा शर्मा वशिष्ठ 
स्वरचित


हाइकु वाणी वंदना

अनुप्राणित

होवे सकल जग
लेखनी दो मां।।

मैं लिख सकूँ
संत्रास पीड़ा दर्द
वर्तनी दो मां।।

ज्ञान वीणा से
करूं झंकृत धरा
रागिनी दो मां।।

चरण तेरे
मेरे माथे पे रहें
चांदनी दो मां।।

ज्वलंत प्रश्नों
के मैं उत्तर गढूं
रोशनी दो मां।।

जला दूं ज्वाल
जले आतंकी जहां
दामिनी दो मां।।

@गंगा पाण्डेय 
भावुक

हे शारदे माँ शारदे
भव बन्धन से तार दे ।।

तूँ ही एक आसरा है
जीवन को आधार दे ।।

भटकूँ मैं भवसागर में
कश्ती को पतवार दे ।।

जन्मों का बोझ है माँ
यह बोझ माँ उतार दे ।।

तेरे ज्ञान की गरिमा माँ
ज्ञान से इसे सँवार दे ।।

हर बिगड़ी बन जाये माँ
ऐसा 'शिवम' को सार दे ।।

मुश्किलें न मुझे डरायें 
ऐसा ज्ञान अपार दे ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्

वसंत-चोका

ऋतु वसंत
पुलकित दिगंत
खिली कलियाँ
झूमे,अठखेलियाँ
भरे पराग
सुवासित है बाग
रस रंजन
भ्रमर का गुंजन
बना बावला
रस पी मतवाला
बाजे मृदंग
अंग-अंग अनंग
प्रेम आलाप
हृदय मृदु थाप
नैनों में लाज
चहुँ खूब साज
रसिक ऋतुराज
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित

विधा- छन्द
=======================
🙏🙏शारदे माँ🙏🙏
धरि नेह सुभूति मेरे हिय में,
कर जोरि रहौं मेरी शारदे माँ ।
सुत आपनु मोहि बखानि सदा,
रट तेरी लहौं मेरी शारदे माँ ।
यहि प्रीति सदा निबहौ कविता,
रसखानि गहौं मेरी शारदे माँ ।
निशि-वासर तोइ नमामि कहौं,
प्रणमामि कहौं मेरी शारदे माँ ।
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
🌻🌻पुष्पराज🌻🌻
पीत पट पहरि पुष्प राज पापी पाछें परौ,
पीत पन पेखि पिय पीति पनपानी है।
डासति भुजंगी सम रैन बिन संगी मोइ,
चित चतुरंगिनी सी चाह चररानी है।
मानहुँ पखेरू चहुँ ओर मनु डोलति री,
थिर न थिरात भरि ल्यात दृग पानी है।
आली दै भली सी सीख तोपै आजु माँगौं भीख,
वेगि आवै तासौं निर्मोही ठान ठानी है।।
स्वरचित -राम सेवक दौनेरिया

मातृशक्ति की ज्ञान भवानी,
तुम पर जीवन अर्पण।
बुद्धि विनय सम्पूर्ण ज्ञान है,
तू जीवन हम जड।
🍁
वीणा की झँकार तुम्ही से,
तुम सुर सरिता माते।
सृष्टि शून्य है मात तेरे बिन,
जो तुम ज्ञान ना बाजे।
🍁
तेरा वन्दन तुझको अर्पण,
श्वेतवसन पित माला।
भावों के मोती को गुँथ कर,
शेर हृदय ले आया।
🍁
कृपा बनाए रखना मात,
और नही कुछ चाहे।
चरण वन्दना करते है हम,
दृष्टि भक्त ये माँगे ।
🍁
पीले-पीले पुष्प खिले माँ,
जब तुम सृष्टि समाये।
ऋतु बन्सत ऋतुराज पधारे,
दिव्य छंटा बन जाये।
🍁

स्वरचित .. Sher Singh Sarraf

कविता 
ऋतू आती है ऋतू जाती है, 
हर ऋतू सन्देश देकर जाती है, 
ग्रीष्म ऋतू की गर्मी हमको, 
दुःख मे जीना दिखलाती है l
ऋतू आती..... 

फिर वर्षा ऋतू इठलाती आतीहै, 
गर्मी के प्रकोप से बचाती है,
फिर रोज रोज बरस कर,
प्रियसी को ख़ूब तड़पाती है l 
ऋतू आती.... 

शरद ऋतू जब आ जाती है, 
हमको बड़ा तड़पाती है, 
शीतल ठन्डे हाथ शीत के, 
सबको जीना बतलाती है l
ऋतू आती.....

अब बसंत ऋतू आती है, 
हरियाली चहुँ और छाजाती है, 
पशु पक्षी हो या मानव, 
सबको खुशियाँ दे जाती है l
ऋतू आती.... 
कुसुम पंत 'उत्साही '
स्वरचित 
देहरादून 
उत्तराखंड

"वसंत/ऋतुराज/शारदे"
िरामिड
(1)
है
माँ
शारदे
शिक्षा हार
कुबुद्धि मार
जीवन संचार
सर्व हित संचार।।

(2)
ये
ऋतु
वसंत
अभ्युत्थान
प्रकृति गान
भ्रमर गुँजन
मधुर पदचाप।।

(3)
है 
मन 
वसंत
नव गति
जग से प्रीति
ओढ़ चुनरियाँ
चंचल अठखेली।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित


दिव्य सुन्दर पवन पावन,
ऋतु बसंत ऋतुराज बसंतम् ।
पीली-पीली पुष्प पल्लवित,
नवजीवन शुभ राष्ट्र मंगलम् ।
🍁
सप्त कोटि जागृति शुभ भारत,
उदित सुर्य नभ दमकत हर पल।
जीवन अंकुर मिटा पराभव,
श्रेष्ठ दिवस माँ शारदे अवतल ।
🍁
वीणा की झँकार सुशोभित,
हर कण-कण मे प्राण अलौकिक ।
सरस सुधा से जागे हर मन,
दिव्य छंटा अदभुद हर लौकिक ।
🍁
मात शारदे तुम्हे समर्पित,
जीवन का हर बिन्दू है अर्पित ।
तुक्ष्य रहेगा शेर ये हरदम,
कृपा रहे माँ ये ही अर्जित ।
🍁

स्वरचित .. Sher Singh Sarraf


बसंत 

लो फिर, कविमन जीवंत हो गया !
कण- कण बसंत हो गया !!

अब न उठेगी फटी बिवाईयों में टीस,
अब न होगी मखमली रजाइयों से रीस,
अब न कांपेंगे अम्मा के हाथ लाचार,
अब न करेगा छोटू, नए स्वेटर की गुहार,
क्रूर शीत की यातनाओं का अंत हो गया !!

लो फिर , कविमन जीवंत हो गया !
कण-कण बसंत हो गया !!

वीणा-वादिनी ने ,वीणा का सुर साधा,
ज्ञान का वर दो माँ ,हर लो सब बाधा,
पवित्र पीले पुष्पों के अनुपम हार चढ़े, 
विद्या- बुद्धि ,सुदृढ़ कर सुकुमार पढ़ें,
ऋतुओं का राजा ,जैसे संत हो गया !!

लो फिर , कविमन जीवंत हो गया !
कण-कण बसंत हो गया !!

फसलों ने ओढ़ी ली चूनर पीली वाली,
पीली हो चली ,अब सूरज की लाली,
गेरू रंग पोत गया कोई आज नभ पर,
नव रंगत है , नवीन उत्साह है सब पर,
नव ऋतु का आनंद ,अनंत हो गया !! 

लो फिर , कविमन जीवंत हो गया ! 
कण-कण बसंत हो गया ! 

स्वरचित 
संध्या बक्शी
जयपुर।

माघ महीना
बसन्त आगमन
शुक्ल पंचमी


हिन्दू त्योहार
सरस्वती पूजन
वासन्ती वस्त्र

राग वसन्त
हिंदुस्तानी पद्धति
प्राचीन प्रथा

मनभावन
ऋतुराज बसन्त
सृष्टि यौवन

बसन्त ऋतु
प्राकृतिक सौंदर्य
पीली सरसों

सरिता गर्ग
स्व रचित

नमन करूँ माँ चरण वँरु
कलम को माँ शक्ति दे दे
तिमिर हिय में ज्ञानामृत से
तमसोमाज्योतिर्गमय करदे
मधुमास ऋतुराज पधारे
रंगबिरंगे सुमन सुहाय
गेंदा और गुलाब चमेली
जन मन प्रिय अति भाये
काव्य में मोती माँ भरदे
रसना में मीठे स्वर करदे
वरदे वरदे मात सरस्वती
खाली झोली माँ तू भरदे
है कल्याणी वीणापाणी
तेरा नहीं कोई जग सानी
श्वेता पद्मासना सुहानी
हो तुम जग प्रिय महादानी
जगति का कल्याण करो माँ
छल कपट मन द्वेष हरो माँ
तुम हरति जगति हर पीड़ा
शांति सुख संतोष भरो माँ।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम्

विषय:-"वसंत " 

कूकते हुए बागों में,
तितलियों का नर्तन,
फूलों में भर मकरंद,
फिर आया वसंत.... 

भवंरो को बुलाकर,
सरसों ने मुस्कुराकर, 
धरा के तन को,
पहनाया पीत वसन,
फिर आया वसंत..... 

कोंपल की अँगड़ाई 
पवन खिलखिलाई 
जिजीविषा जीवन,
शिला में हँसा सुमन, 
फिर आया वसंत..... 

रंगों को बरसाता,
फागुन चंग बजाता,
चैत्र को महकाकर,
खिलाता मस्त चमन,
फिर आया वसंत..... 

स्वरचित 
ऋतुराज दवे

जब ठिठुरन हवा हो धुंध अनंत।
तब समझो ? यही है बसंत !
जब पेंड़ लगे खाली-खाली,
जब वस्त्र हीन हुई डाली, 
जब संगम करे उदय अंत,
तब समझो ? यही है बसंत !

जब धूप मिठास-नमकीन लगे,
जब आम पे मोजरा हसीन लगे,
जब कोंपल-कोंपल हो सृजंत,
तब समझो ? यही है बसंत !

जब ठिठुरन हवा हो धुंध अनंत।
तब समझो ? यही है बसंत !
सन्तोष परदेशी

बसंती हवाओं में
झूमतीं फसलें
महकती अमराई
सूरज की किरणों से
धरती इठलाई
पीले लहराते
सरसों के खेत
जैसे पीली चूनर
ओढ़कर गोरी
झूम उठी
साजन से मिलकर
धूप ने भी
बदले हैं कुछ तेवर
लगती है अब
थोड़ी गरमाती
कोयल कूह-कूह
का मधुर गीत सुनाती
फूलों के ऊपर
मोती-सी
बिखरी ओस की बूँदें
सूरज की
किरणों से शरमातीं
बसंत ऋतु में
प्रकृति का
अनुपम नजारा
होता है
बहुत ही प्यारा
रंग बिरंगे फूलों पर
भंवरों की गुनगुनाहट
त्यौहारों की सौगात
लेकर आया है ऋतुराज
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित रचना


माँ सरस्वती, हँसवाहिनि,बीणा वादिनी
सुन लो मेरी पुकार
मै अज्ञानी जान न पाऊँ
कैसे करूँ मनुहार

माँ सरस्वती वीणावादिनी, सुन लो मेरी पुकार

तू सर्वज्ञ मईया मेरी
सुन लो मेरी पुकार
श्वेताम्बर,श्वेत पुष्पों की माला
अबीर सोहे तुम्हरे भाल

माँ सरस्वती, हँसवाहिनि सुन लो मेरी पुकार

दिव्य रूप है मईया तेरी
दे दो,दर्शन करो निहाल
तू अलौकिक मईया मेरी
करो मेरा कल्याण

माँ सरस्वती, बीणावादिनी, सुन लो मेरी पुकार

नही चाहूँ मैं धन व दौलत
दे दो सद्बुद्धि, ज्ञान
क्षणिक सुख मे भूली मै मईया
परलोक दो सुधार।
माँ सरस्वती, हँसवाहिनि सुन लो मेरी पुकार।

स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।

जब ओढ पीली चुनरी
धरा लगे नई नवेली
खिले सुमन डाली- डाली
फूल बने, कली- कली
चारों और फैले केसरी गंध
जब आए ऋतुराज बसंत।।

अम्बर चंचल, भू पर यौवन
प्रीति सांस सा मलय समीकरण
आम्र बौर में गूंथे स्वर्ण कण
भ्रमर मस्त पीकर मकरंद
जब आए ऋतुराज बसंत।।

मोर है नाचे चिड़िया चहके
,प्रीत गीत संग,कोयल कुहके
रंग - बिरंगे हो उपवन महके
प्रेमी जोड़े बहके - बहके
चले बयार मद मस्त
जब आए ऋतुराज वसंत

स्वरचित
गीता लकवाल
गुना मध्यप्रदेश

१/शारदे पर हाइकु मुक्तक,
लिख रहा हूं/विमल विचार दो,/मातु शारदे/

रस के धाम/भाव रस बहाओं/मातु शारदे/
काव्य सुमन/तुम्हेंअर्पण करुं/पग तुम्हारे/
चित न धरो/मेरे अवगुण को/मातु शारदे।।१।
२/वसंत पर हाइकु मुक्तक,
भौरें गाते हैं/पक्षी तान सुनाते, वसंत आया/
रंग बिरंगे/फूलों को साथ लिए/वसंत आया/
वासंती मन/फिर से झूम उठा/प्रियप्राणेश/
दुख को भूले/झूम रहा ब्रहाण्ड/वसंत आया।।२।।
स्वरचित हाइकु मुक्तक।
देवेन्द्र नारायण दास बसना छ,ग,।।

चामर छंद 
÷÷÷÷÷÷
212121212121212=23 ( मूल छंद पर आधारित ,वार्णिक )
समांत-आर ,,पदांत दो

माँ शारदा वंदना "( गीतिका)
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आजु है बसंत पर्व ;आइए वसंतिका,
मातु शारदे वरा,,, सुप्रेम में निखार दो !!
***
शारदे विशारदे ,,,,सुकाव्य की सुसाधिका ,
शब्द भाव गम्य हो , सुलेखनी सुधार दो ।।
***
मातु ज्ञान -देवि हो सुज्ञान दान दो मुझे,
शीश पे अशीष दो , सनेह-भाव सार दो ।।
***
ज्ञान दृष्टि दीजिए विधा वरा सुभासनी,
मानसी कृपामयी , सुतीव्र बुद्धि धार दो ।।
***
लेखनी,,हितोपदेश के लिए लिखें सदा,
कामना सदैव मातु ,,,साधना प्रसार दो ।।
***
मूढ हूँ विमूढ हूँ हिया -तमो भरी निशा 
देवयानि साधिका ,प्रबोधनी विचार दो ।।
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ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार

वसंत
आवरित चहुँ हरित वितान
पहने धरा वासंती परिधान
फूली सरसों का खिला रंग
मादकता लेकर आया अनंग
कूकती कोयल काली काली
पुलक फिरती है डाली डाली
मदिर मस्त है भ्रमर मतवाले
पीकर जीभर छके प्रेम प्याले
सुरभित पुष्प लिए प्रेम-पराग
पंखुड़ियों में भरे अति अनुराग
बौराया आज रसराज रसाल
लहराये डाल मधु मंजरीजाल
आया ऋतुराज, मारक वसंत
पुलकित अंग,परदेश में कंत
विरह विदग्ध बेबस-सी बाला
अंतस में धधक एक ज्वाला
करे बादलों से करबद्ध गुहार
आ बरस बन सरस रसधार
हर ले ताप-तरस, नैनों में बस
भर रात गात रही बड़ी बेकस
ये सेज सुहानी भी पानी पानी
लव मुस्काये, बड़ी अभिमानी
बिछुड़न का क्यों गीत मिले
जो मीत मिले तो प्रीत खिले
स्पर्श लालायित मैं,एक अछूत
वो छुपे कहाँ बनकर अवधूत
विरह विषपान है तपन अनंत
कैसा शिशिर और कैसा वसंत
हूकी पिकी भी विरह वबाली
पपीहे-सा पी की बनी सवाली
चल जा कहीं दूर मुझसे वसंत
क्या विरह व्यथा का होगा अंत
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित


आए हैं ऋतुराज वसंत,
वसुधा मुस्काई आ गए कंत।
ओढ़ी पीली चुनरिया उसने,
फूलों के पहने हैं गहने।
वृक्षों ने नवश्रृंगार किया है,
हरीतिमा को ओढ़ लिया है।
कोयल मीठे गीत सुनाए,
भंवरे गुन-गुन करते आए।
रंग-बिरंगी तितलियां उड़ती,
कोमल कलियां हैं खिलती।
बसंत में प्रकृति हुई बासंती,
बहती बयार हुई मधुमाती।
पीत वर्णी पुष्पों की शोभा,
देख-देख मन उठता लोभा।
खुशियां लेकर आया बसंत,
प्रकृति की शोभा हुई अनंत।
शब्द सुंदरता कैसे करें वर्णन,
अनुभूति का होता स्पंदन।
मां सरस्वती की होती पूजा
उन के सम न कोई दूजा
ज्ञानदीप वे मन में जलाएं
अंधकार को दूर भगाएं।
असत्य और अज्ञान मिटाएं,
जीवन-ज्योति उज्ज्वल हो जाएं।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित

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🙏 वसुधा-वसंत गीत

प्रकृति पीत रंग में नहाई हुई ।
ये वसुधा दुल्हन बन के आई हुई ॥

इस धरा ने धरा था हरा रूप जब ।
सम्मोहित हुआ ऋतुओं का भूप तब ।
और धरा से वसंत की सगाई हुई ॥
प्रकृति पीत रंग में नहाई हुई ।

माघ से मिल वसुधा के मन प्रीत है ।
गा रही कोकिला प्यार के गीत है ।
महक महुए की मादक बौराई हुई ॥
प्रकृति पीत रंग में नहाई हुई ।

आम्र मंजरियों से सर-कलश सज गया ।
वर वसंत को लिवाने दुरद गज गया ।
और मधुप गण की धुन शहनाई हुई ॥
प्रकृति पीत रंग में नहाई हुई ।

सुमन शिरीष के कानों में डाले हुए ।
फूल सेवंती-चुनर संभाले हुए ।
फिर धरा सुंदरी की विदाई हुई ॥
प्रकृति पीत रंग में नहाई हुई ।

स्वप्न आंखों के इनके रंगीले हुए ।
पुष्प सूरजमुखी सब सजीले हुए ।
गेहूं पीला हुआ पीली राई हुई ॥
प्रकृति पीत रंग में नहाई हुई ।

जगत हित में वधू है मधु बांटती ।
प्रीत की पीत से घोर तम छांठती ।
सकल पीली मधुर अमराई हुई ॥
ये वसुधा दुल्हन बन के आई हुई ॥

प्रकृति पीत रंग में नहाई हुई ।
ये वसुधा दुल्हन बन के आई हुई ॥

रचना स्वरचित एवं मौलिक है ।
©®🙏
-सुश्री अंजुमन मंसूरी 'आरज़ू'
छिंदवाड़ा मप्र


प्रणाम करूं माँ शारदे
सबकुछ वरदे शारदे
ज्ञानज्योति जले हे माँ,
सबको इतना प्यार दे।

नई उमंग भर जाऐं हे माँ
हर मानव प्रफुल्लित हो जाऐ।
सौहार्दपूर्ण वातावरण बने तो
हृदय सुमन पुलकित हो पाऐ।

मन मकरंद घुले हर उर में,
सुरभित हर बगिया हो जाऐ।
रहें सहयोगी हम एकदूजे के,
कुसुमित सब कलियां हो जाऐ।

ज्ञानवान वलवान बनें सभी
निर्झर प्रेम पुष्पित हो जाऐ।
दुनिया के किसी ओरछोर में 
न रागद्वेष विकसित हो पाऐ।

स्वरचितःःः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जय जय श्री राम राम जी

1भा;9/2/2019( शनिवार) 


शब्दों की साधना करती हूँ ,
शब्दों की साधना करती हूँ।

माँ वीणावादिनी तुझे नमन करती हूँ ।🌺🌺🌺🌺🙏🙏
माँ विनती है मेरी तुमसे इतनी सी ,
जिव्हा पे मेरे तुम सदा वास करना, 
आहत न कर सकुं किसी को 
दया अपनी बनाये रखना । 🙏🙏

आओ माँ हंसवाहिनी,🙏🙏पधारो , खुले हैं दिल के द्वार,

​आह! रूपहली चादर बिछाई आसमां ने किसके लिये,
किसी श्वेतपरी के आने का संदेश फैलाये।

माँ शारदा की वीणा का गुंजन ,
माँ सरस्वती के आगमन का उत्कंठन,

आओ माँ हंसवाहिनी , 🙏🙏पधारो , खुले हैं दिल के द्वार ।

अब नवपल्लव फूटेगें ,
किसलयों के मधुर हास से मन के बंधन टूटेगें ।

गाओ रे मन गीत बसंत का ,
अब कोयल के सुर गुजेगें।

आओ माँ हंसवाहिनी,🙏🙏पधारो, खुले हैं दिल के द्वार।

सुमित्रा 'अपराजिता'

विधा :-दोहा 🌼🌼🌹🌷🌼🌼🌸🌼🌷🌹🌼🌻🌻🌕🌼🌕
शारदे:-
मात शारदे उर बसो , काव्य बने रसखान ।
सुरसरि सम दोहे बनें , सबका हो कल्याण ।।१।।
सरस्वती:-
सदबुद्धि दो सरस्वती , माँगू यह वरदान ।
कर्म करूँ दिन रात मैं , होय नहीं अवसान ।।२।।
बसंत:-
झुमके पहन शिरीष के , प्रकृति किया शृंगार ।
आया देख बसंत को , भ्रमर करें मनुहार ।।३।।

प्रणय निवेदन के लिए , करते भ्रमर गुँजार ।
कलियाँ आतुर मिलन को , बसंत बही बयार ।।४।।

मस्त बसंती फाग लख , विदा हुआ हेमंत ।
प्रखर सुरों में कोकिला , गाती देख बसंत ।।५।।

ऋतुराज:-
चँवर बने ऋतुराज के , पुष्प खिले कचनार ।
महक रहा मधुमास है , प्रकृति बनी उपहार ।।६।।

आया लख ऋतुराज को , सखा काम मुस्काय ।
मँजरि देख बौरा गई ,भ्रमर रहें ललचाय ।।७।।

स्वरचित :-
ऊषा सेठी 
सिरसा 125055 ( हरियाणा )

आया ऋतुराज वसंत
लेकर सुरभित बयार
पुलकित करने, झंकृत करने
तन-मन के तारों को
किरणें झिलमिलाने लगीं
दिग दिगंत हँसने मुस्काने लगे
वन उपवन
फूलों से सुसज्जित होने लगे
पुष्प वल्लरियाँ पेड़ों पर
तोरण बन खिलने लगीं
मधुमास मन की तृष्णा मिटा रही है
मादक तरुणाई इठलाई है
मौसम ने ली अंगड़ाई है
हरी धरती लहराने लगी है
हरितिमा दुशाला बन बिछ गई खेतों में
आम्र मंजरी की मादक महक
मतवाला कर रही है प्रकृति को
बागों में कोयल की मधुर कूक
भृंगों के मधुरम गुंजन
रति विरह व्यथा का अंत करने लगी।
"पिनाकी"
धनबाद (झारखण्ड)
#स्वरचित


देखो , बसन्त ऋतु है आई 
बागों में बहार है लाई ....

1) पीले पीले सरसों फूले 
रंग बिरंगे फूल हैं फूले । 
पल्लव विहीन ठूँठ पर भी 
खिलते हैं फूल और पत्ते ।
शाखाओं का मधुर आलिंगन 
मधुमास मुस्कान है लाई ।
देखो बसन्त ऋतु है आई .....
2) गाओ रे , अब गीत बसन्त के 
अब कोयल के सुर गूँजेंगे ।
मन दर्पण हो जाये सन्त 
प्रीत जगाए हर धड़कन ।
चहुँओर सुगन्धित हो आई 
देखो बसन्त ऋतु है आई ...
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
तनुजा दत्ता (स्वरचित )

====================
माँ वर दे मुझको सत्य लिखूँ।

जब चारों ओर अन्धेरा हो 
असत्य ने सच को घेरा हो 
उजियारा तम के वशीभूत
हर ओर हर तरफ झूठ झूठ
तब अंधियारे से युद्ध लिखूँ
सच से होकर प्रतिबद्ध लिखूँ 
माँ वर दे मुझको सत्य लिखूँ।

जब कलम के साधक चाकर हों 
गंदे नाले रत्नाकर हों 
कवि भाँड़ मिरासी बन जाएँ 
पद पुरस्कार पर बिक जाएँ 
तब कलम बनाकर अस्त्र लिखूँ
ना लिखूँ मगर न असत्य लिखूँ 
माँ वर दे मुझको सत्य लिखूँ। 

ख़िलअत के लिए सर नहीं झुके 
सब बिके ये गैरत नहीं बिके 
चहिये न ताज की वाह वाह 
जन-मन की वाह की रहे चाह
हर चाह से होकर मुक्त लिखूँ 
जन कवि के भाव से युक्त लिखूँ
माँ वर दे मुझको सत्य लिखूँ। 

हर ओर हर तरफ क्रंदन हो 
सत्ता -ताक़त का वंदन हो 
सब रावण के अनुयायी हों 
और राम के साथ न भाई हों 
तब छंद नहीं कर्तव्य लिखूँ 
प्राणों के भय से मुक्त लिखूँ 
माँ वर दे मुझको सत्य लिखूँ।

अवतारों को अवतार लिखूं 
गद्दारों को गद्दार लिखूं 
ना दीन बनूँ ना रण छोड़ूँ 
गीता का सूत्र हर बार लिखूं 
जैसे हों जिसके कृत्य लिखूं
कुकृत्यों को न सुकृत्य लिखूं 
माँ वर दे मुझको सत्य लिखूँ।
=========================
"दिनेश प्रताप सिंह चौहान"
(स्वरचित)
एटा --यूपी


बसंत की शहनाई

गूँज उठी दिशा - दिशा,
हँस रही दिवा - निशा,
ली प्रकृति ने अंगराई, 
बजी बसंत की शहनाई। 

खिल उठे हैं फूल - फूल,
गाते हैं भौंरे झूम - झूम,
जड़-चेतन पर छाई तरुणाई, 
बजी बसंत की शहनाई ।

देख सजे हैं खेत बाग, 
गूँज उठा है ऋतु राग,
मदमाती देखो अमराई,
बजी बसंत की शहनाई। 

सुबह हुई बड़ी सुहानी, 
रात गढ़ती नई कहानी,
सृष्टि ने पायल छनकाइ,
बजी बसंत की शहनाई। 

गाती कोयल कूक - कूक,
हँसता सूरज मूक - मूक,
धरा नवेली भी सकुचाई,
बजी बसंत की शहनाई। 

डॉ उषा किरण

आगमन ऋतुराज का ,
संदेशा मीठा दे गया |
सजाया ऑचल धरा का ,
रंग बसंती दे गया |

वृक्षों को जो छू लिया ,
तन मन हरा हो गया |
फूलों संग हँसने लगा ,
गुलशन नया हो गया |

हवा में नया जोश छाया ,
असर मधुमास का हो गया |
लहराया ऑचल प्रियतमा का ,
प्रिय का निमंत्रण हो गया |

धरती गगन का रूप बदला ,
ऋतुराज जब से छू गया |
उम्मीदों का मौसम आया ,
मन भी कुछ बदल गया |

रंग टेसू का है निखरा ,
आम भी बौरा गया |
खेत सरसों का महकता ,
नजदीक फगुआ आ गया |

ऋतुराज ने सबको जगाया ,
नये जीवन का पथ दिखा गया |
वो देखो हौले हौले मुस्करा ,
स्वर्ग से जीवन का तौहफा दे गया |

स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश 



1)पीली चुनर,
ओढ़े माँ सरस्वती,
आया बसंत।

2)ये ऋतुराज,
काम-रति के संग,
फैलाते प्रेम।

3)कवि कल्पना,
मधुमास अंबर,
ऊँची उड़ान।

4)पर्व बसंत,
ऋतु परिवर्तन,
धरा महकी।

5)भाव संदेश,
मधुमास डाकिया,
पिया लुभाता

6)कृपा शारदे
मूढ़मति मानव
तिमिर मिटा।

@सारिका विजयवर्गीय"वीणा"
नागपुर(महाराष्ट्र)

माँ शारदे
-------------
माँ शारदे तुम्हारी जय हो ,
सदा विजय हो।
सबके लिए जिएँ हम यह भावना उदय हो ।

हम सीखने की मन में सतत भावना जगाएँ।
कर्तव्य हम करें पर परिणाम पर न जाएँ।
जो कुछ छिपा हृदय में उसका सहज उदय हो---

पशु पक्षियों से सीखें,हर वक्त चहचहाना।
कितनी भी हो मुसीबत रख धैर्य मुस्कुराना।
पाएँ जहाँ अच्छा, अंतर में वो विलय हो -----

आलोक ज्ञान का भी हर ओर हो प्रकाशित।
हर कंठ से सदा ही मृदु बोल हों प्रवाहित।
मन हृदय ताप हरती, बहती पवन मलय हो-----

द्वेष का पातक मिटे, हो अमिट सद्भावना ।
जीव का कल्याण हो, पूर्ण हो शुभ कामना।
जड़ता तिमिर खतम हो,स्वीकार ये विनय हो ।
माँ शारदे तुम्हारी जय हो सदा विजय हो ।

********स्वरचित*******
प्रबोध मिश्र 'हितैषी'
बड़वानी(म.प्र.)451-551

-------------------
श्वेत वस्त्र धारिणी, वीणावादिनी,
हंसवाहिनी, ज्ञानदायिनी
हे माँ शारदे! सम्पूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर दे 

हे वीणापाणि,वाग्देवी, वागेश्वरी, माँ सरस्वती!
विद्या, चिंतन में परम उत्कर्ष भर दे 

भय और अंधकार से दूर कर दे 
कीर्ति, पराक्रम, यश का आशीष दे दे 

वतन के लिए प्रेम,त्याग, बलिदान कुर्बानी उर में भर दे 
बल, बुद्धि, सहिष्णुता, मानवता, प्रेम की मति दे दे 

मेरे जीवन को
नव गति, नव लय,नव राग, नव तान दे दे 
ईष्या-द्वेष, कलह, हिंसा से रहूँ दूर सदा
ज्योतिर्मय जगमगाता भारत देश कर दे 
@ शंकर कुमार शाको 
स्वरचित


🙏 चिर-वसंत

ओ मनमोहन!!!
तुमसे लगा जब मेरा मन
मेरे जीवन का हर पल
वसंत हो गया...
और मेरा आनंद
अनंत हो गया..
मुझ में ही समा गया
सारा वासंती मधुमास...

तुम्हारे प्रेम कै अहसास से
बज उठते हैं...
बांसुरी से...
मेरे रोम रोम.....
मन वीणा के तार
झंकृत हो जाते हैं...
बिना किसी
श्रृंगार के
मेरे अंग अंग
अलंकृत हो जाते हैं...

तेरे प्रेम के वासंती रंग में
रंग गयी मेरी चुनर ....
आँखें
लजीली हो गयी
और मैं
सजीली हो गयी
सदा के लिए...

जब तुम,चले गए
मुझसे दूर
देकर मुझे चिर वियोग...
तब भी तो,तुम नहीं गए
मेरे मन से
मेरे नयन से..
तो कैसे कह दूँ...???
मैं विरह विष पीती हूँ....
चिर वसंत जीती हूँ !
मैं चिर वसंत जीती हूँ! !!

रचना स्वरचित एवं मौलिक है ।
©®🙏
-सुश्री अंजुमन मंसूरी 'आरज़ू'
छिंदवाड़ा मप्र

सतरंगी चुनर ओढ़ी वसुंधरा 

आया ऐसा दिवस है, ॠतुराज के साथ।
सतरंगी चुनर ओढ़ी, 
वसुंधरा ने आज।

नवपल्लवित लोहित किसलय, 
पीपल ने है पाई।
बूढ़े बरगद में भी देखो,
छाई नई तरुणाई।

ऐसे फूले सरसों खेत,
चढ़ी केशर हल्दी तेल।
उपनयन हुआ हो जैसे,
लता लिपटी अमरबेल। 

गीत प्रणय का गा रहा
है अदभूत सौगात। 

सतरंगी चुनर---

कलकल गीत सुना रही,
बहती पावन सरिता।
सारस बैठे खेतों पर,
ज्यूं बाँच रहें हों गीता।

फुदकने लगे पखेरू, 
हरे चने के खेत में। 
जगमग सोना सा चमके,
नदी किनारे रेत रे।

प्रीत की छेड़े रागिनी 
पुरवाई हर साँझ।

सतरंगी चुनर----

रेशम- रेशम धूप लगती
सुनहरी सी दोपहर
वसंत यूं आच्छादित हुआ 
हँसता आठों पहर

स्वप्निल- स्वप्निल आँखें हैं,
उनींदी सी शाम।
ओ वसंत का पदार्पण 
है तुझको प्रणाम। 

सिंदूरी गगन हुआ ,
भरती देह में लाज
सतरंगी चुनर----

पक गए निबौरी,
महुआ हुए नशीले। 
अमरईया सौरभ बिखेरे,
बौर पीले- पीले। 
वसंत तेरी अगुवाई में ,
पुरवा हुई दीवानी ।
नया रंग प्रकृति पर ,
छाई नयी जवानी ।

भावों की डोली है,
शब्दों की बारात।
कविता दुल्हन बनी,
स्वागत है ॠतु राज। 

सतरंगी चुनर-----

स्वरचित 
सुधा शर्मा
राजिम छत्तीसगढ़ 

विधा-हाइकु
1.
स्वर ज्ञान का
गूँजता शारदे में
साज वीणा का
2.
पीली चुनरी
ओढ़े माँ सरस्वती
सजी वल्लरी
3.
आया वसंत
नए रंग रूप में
पल्वित तरु
4.
आया वसंत
खिलती किसलय
फूली सरसों
5.
हे माँ शारदे
ज्ञानवान बना दे 
नमन तुझे

अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर(झज्जर)

विधा- कविता
वर दे ,माँ शारदे वर दे
नव विचार ,नव छंद अंकुर बन 
मन मानस में भर दे 
वर दे ,माँ शारदे वर दे ।
नव छंद सजे, नव कंठ सजे 
नव बंध बने , नव गान सजे 
नित नूतन उमंग भर दे।
वर दे ,माँ शारदे वर दे।
धरा ओढ़े पीत चूनरी 
नव बधू बन गई बावरी 
नव नित खुशियाँ भर दे ।
वर दे ,माँ शारदे वर दे ।
ज्ञान विद्या के अंकुर फूटें 
अज्ञानता के अँधेरे टूटे 
प्रेम दया का सागर भर दे ।
वर दे ,माँ शारदे वर दे ।
ऋतुराज का स्वागत करने 
धरती ओढ़े ,अप्रतिम गहने 
नव उल्लास जनों में भर दे ।
वार दे, माँ शारदे वर दे ।
स्वरचित -मोहिनी पांडेय


1-
स्वर्णिम धरा,
सरस्वती वंदन,
ऋतु बसंत ।

2-
निढाल वृक्ष, 
तन में क्यों स्पंदन ?
स्पर्श बसंत ।

3-
हर्ष अनंत,
सृष्टि का स्वयंवर,
वर बसंत । 

4-
नभ निनाद, 
पुलकित संसार, 
झूमा बसंत । 

-- नीता अग्रवाल 
#स्वरचित

बसंत गीत
*********
मन बसंत में बहक गया है,
ऐसा बहाव कभी क्या आया?
पुलकितहुई द्वार और देहरी,
ऐसी बंदनवार है लाया ।
स्वप्न सजीले महका जीवन,
मुस्काता कुसुमाकर आया ।
बंजारे भंवरे की गुन-गुन ,
गंधगीत वसुधा ने गाया। ।
बसंत ने अब गीत सुनाकर,
चुभन-चुभन को सुमन बनाया,
अधखिले फूलों को खिलाकर,
फाग-फबीला राग है गाया ।।
***"***
रंजना सिन्हा सैराहा***"



खिलने लगी हर कली कली
महकने लगी हर गली गली
लगने लगे है बसंत के मेले
लहरा रही सरसों पीली पीली

गूँजती प्रकृति भ्रमर गूँजन से
तितलियां खिलखिलाने लगी
जब ऋतु पावन बसंत की आई
हर चमन व बेला महकने लगी

सरसों फूलि और धरा मुस्काई
पवन भी लेती है अब अंगड़ाई
आई फसलें ले आई खुशहाली
चहुँओर सुखसमृद्धि अब छाई

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

विधा --दुर्मिल सवैया 

112 112 112 112 112 112 112 112 
मन चेतन में दृग दृष्टि धरो, मति तेज करो शुभदा वर दो ।
मसि से हर गूढ़ उमंग रचें, सब के हृद संबल से भर दो ।
दस छोर बहे यश मान बढ़े, धवला!शुभता दुगुनी कर दो।
तम नाश रहे उर ज्ञान गहे , मुझको लय ताल सधे स्वर दो।
****
शुभ मंगल हो यह आस रहे , जग में शुचि से प्रतिमान गढ़े।
उर में नित मोद प्रमोद भरो, हमसे नव नूतन ज्ञान कढ़े।
विमला पग वंदन रोज करूँ, गुण दो जिससे मम मान बढ़े।
सत की सब लोक रचें कविता,प्रभु का बस चिंतन ध्यान चढ़े।
*************************************
आशा अमित नशीने 
राजनांदगाँव

विधा -छंद मुक्त कविता

🌼झूमता बसंत🌼

झूमती आयी हवा झूलता हर पुष्प है
नेह से लगकर गले झूमता ऋतुराज हैं

बसंती फूलों से लदी वादियों मे शोर है
कह रही सखियाँ सभी साजन कित ओर है

राधा चली मिलने श्याम मेरा कित ओर है
ऋतु सुहानी आ गई मादकता हर ओर है

चंचल कली खिलने लगी भंवरा की गूंज हर ओर है
ढूँढे पपीहा बन मचला दिलकस नजर किस ओर है

बसंत भी देखो जरा ये क्यूँ इतना मगरूर है
प्रेमिका को देखकर लहराने लगा चहुँ ओर है

स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू

विद्या : छंद , छंद मुक्त कविताएं 
शब्द है : शारदे /सरस्वती /वसंत /ऋतुराज

जय मां सरस्वती.., जय मां सरस्वती..! 
करते हैं हम सब तुम्हारी आरती ...!!

माथ परते हैं शरण में हैं हम अज्ञानी ..!
हम सबको दो तुम ज्ञान की खानी..!!

भक्ति करते हैं परते हैं तुम्हारी चरण में !
शक्ति दो शक्ति दो हैं तुम्हारी शरण में !!

चरण में हैं शरण में हैं करते हैं भक्ति !
हम सब करते हैं तुम्हारी आरती ...!!
जय मां सरस्वती.., जय मां सरस्वती..!!

शारदे ! सरस्वती !! नाम है तेरा ..!
अज्ञानी को ज्ञान देना काम है तेरा !!

वसंत है बसंत पंचमी है तेरे नाम से !
ऋतुराज जगत राज तेरे नाम से ...!!

सेवा करूं भक्ति करूं कर्म है हमारा !
ज्ञान दो विद्या दो धारणा है हमारा ..!!

यही धारणा है करो तुम पूरती..! 
करते हैं हम सब तुम्हारी आरती ..!!
जय मां सरस्वती.., जय मां सरस्वती .!!

सरस्वती नाम है.., है तु परमेश्वरी..! 
रूप में सौंदर्य है.., तुम सप्त सुंदरी !!

सफेद वस्त्र धारणी तुम्हारी बदन में..!
तुम्हारी ही नाम हमारे तन मन में..!!

अंधकार में है.., दो ज्ञान की ज्योति..! 
करते हैं हम सब तुम्हारी आरती ..!!
जय मां सरस्वती.., जय मां सरस्वती.!!

स्वरचित एवं मौलिक 
मनोज शाह मानस 
सुदर्शन पार्क 
मोती नगर नई दिल्ली 
विनय करूँ माता वीणावादनी। 
जय जय शारदे माँ वरदानी।। 
मातु सदा ही वाणी विराजे।
हाथ सदा ही वीणा साजे।। 
हंस वाहिनी माँ कहलाती। 
राह सदा ही माँ दिखलाती। 
जय जय शारदे ज्ञान की दानी। 
जय वीणापाणी माँ वरदानी।। 
अंधकार जग से मिट जाये। 
ज्ञान दीप मन में जल जाये।।
जब जब बजती वीणा की झंकार।
चहुं दिशा में ज्ञान का होता संचार।
सदमार्ग साहस सदा ही देना।
आलोकित हर पथ कर देना।। 
वंदन करते हम सब नित नित।
जग पूजे सब जग के ज्ञानी।।
विनय करूँ माता वीणावादनी। 
जय जय शारदे माँ वरदानी।। 
...........भुवन बिष्ट
रानीखेत (उत्तराखंड) 

ऋतुराज बसंत अबके बरस,
वासंती चुनर मेरी भी रंग दो ।
शीत ने छीनी सारी लुनाई ,
तुषार मेरे मन की पिघला के,
सुनहली भोर मेरे घर भी कर दो ।
ऋतुराज वसंत ,नवकोपल,
नवांकुर,नवआग्रह तरुणाई के,
दग्ध मरू हिय में मेरे ,
अंकुरित कर दो...
ऋतुराज वसंत अब की चुनर ,
मेरी भी वसंती रंग दो ।
कूके कोयल अमराई मेंअंगना,
पुष्प पल्लवित गेंदा बसंती,
मधुर भंवरों की गुंजन
यौवन का वर दो।
प्रफुल्लित मन तन लिए,
में खड़ी पिया विरहणी,
अब के बरस चुनर मेरी भी रंग दो।।

नीलम तोलानी
स्वरचित

अंबर पर बादल छाए हैं, धरती भी मुस्काई है।
खेलो, नाचो, झूमो, गावों, अब बसंत ऋतु आई है।

उर के भीतर खुशियाँ भर लो, सपने रंगीन सजाओ।
बैर भाव सभी छोड़कर के,सब जन को गले लगाओ।
तन भी हर्षित मन भी हर्षित, चहुँओर खुशी छाई है।
खेलो, नाचो, झूमो, गावों, अब बसंत ऋतु आई है।

कोयल कूकें चिड़िया चहकें,महुँआ फूलें सरसों फूलें।
सँवर गएं सब बाग बगीचें, सज गए रेशमी झूलें।
नई नवेली दुल्हन घर पर, खिड़की भी शरमाई है।
खेलो, नाचो, झूमो, गावों, अब बसंत ऋतु आई है।

पूजन कर लो अर्पण कर लो,धारण करके फूल लड़ी।
सारे दुख का तर्पण कर लो, देखो आई नेक घड़ी।
सजी हुई दुल्हन सी धरती, सबके मन हरसाई है।
खेलो, नाचो, झूमो, गावों, अब बसंत ऋतु आई है।

शीश नवातें माँ सरस्वती, कंठ विराजो आ कर के।
ऐसी तान हमें देना माँ , गीत सुनाएं गा कर के।
तेरा आश्रय पाकर के माता प्रकृति गुनगुनाई है।
खेलो, नाचो, झूमो, गावों, अब बसंत ऋतु आई है।

टेसू फूलें, फूलें पलाश, भीनी - भीनी गंध बहें।
गाँव-गाँव की गली- गली में, सब बसंती गीत कहें।
रूप सुहाना देख प्रकृति का,धरती भी इठलाई है।
खेलो, नाचो, झूमो, गावों, अब बसंत ऋतु आई है।

स्वरचित
रामप्रसाद मीना'लिल्हारे'
चिखला बालाघाट (म.प्र.)
विधा - हाइकु

ये मधुमास
सरस्वती वन्दन 
विद्या का दान

पर्वों का पर्व
ऋतुराज बसन्त
खुशी अनन्त

पतंग डोर
बसन्त की हिलोर
पिया विभोर

हे माँ शारदे 
बुद्धि व संस्कार दे
करूँ नमन

स्वरचित
बलबीर सिंह वर्मा
रिसालियाखेड़ा सिरसा (हरियाणा)
दिनाँक - 09-02-2019 कविता-छंद मुक्त 
सुरवंदिता , वाग्देवी , माँ भारती , 
शारदा, पद्माक्षी , वीणा वादिनी ।
ज्ञान, साधना , आराधना , सृजना , 
ज्ञान, कला , संगीता , वेद निपुणा।
शब्द, सुर, ताल, लय, सरगम , 
करते हम स्तुती , पूजा अर्पण ।
श्री प्रदा , पद्मानिलया महामाया , 
श्वेत पद्मासन,पद्माक्षी शुभ्रकाया ।
सुवासनी, कमलासनी ,वीणापाणि , 
शिवानुजा , रमा, परा , तुम वैष्णवी ।
ज्ञानमुद्रा, महापाशा, विमला , कमला ,
ऋतुराज वसंत कोंपल, सरसों पीला ।
ज्ञान की भण्डार सबकी भरती घाघर, 
ध्यावे सच्चे मन से भर देती सागर ।
मैं अज्ञानी माते यह उपकार कर दे , 
अपनी बुद्धि , ज्ञान, कौशल से भर दे ।
हँस सम श्वेत ज्ञान से भले-बुरे का ज्ञान हो , 
भरा अंधकार हिय में यह प्रकाशमान हो ।
स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा "निश्छल",


इस फागुनी बयार का अहसास चुभन है।
तन की है और मन व आँसुओं की छुवन है।।
आमों की डालियों में आया बौर देख के। 
बौराई धरा है औ ये बौराया गगन है।। 
ऋतुराज आ गया है संवेदना लिये। 
छाया है जो बसन्त उसका मीत मदन है।। 
तन ही व्यथित नहीं है मन हृदय विकल है।। 
अन्तस् में तेरे स्मरण की ही तो तपन है ।। 
तुम आते या न आते मुझको ये तो बताते। 
मैं दौड़ी चली आती, मिलने की लगन है।। 
इस ऋतु का ऐसा कुछ कह नहीं सकती। 
मधुमास को, मदन को, गीता का नमन है।।





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