Sunday, February 10

"स्वतंत्र लेखन "10फरवरी 2019

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             ब्लॉग संख्या :-295

"वीणा वागेश्वरी"
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हे वीणा वागेश्वरी
वर दो वीणा वादिनी
कर कमलों में तेरे मइया
नित नित ध्यान धरूँ मैं।।

हर विपदा को तू ही हरती
मधुर मधुर सुभाषिणी
वेदों का मइया सार ही तू है
जीवन अनूप बनाती।।
हे वीणा वागेश्वरी,
वर दो वीणा वादिनी।।

भावों के मोती में मईया
आकर ध्यान धरों
कृपा दृष्टि ऐसी तुम डालों
रचना में प्राण रचों।।
हे वीणा वागेश्वरी
वर दो वीणा वादिनि।।

विधा की देवी तुम मइया
अवगुण दूर करो
सद्गुण देकर तुम मइया
सर्व मंगल कल्याण करों।।
हे वीणा वागेश्वरी
वर दो वीणा वादिनि।।

शतरूपा भी तुम कहलाती
वाहन मयूर है न्यारा
हाथों में मइया वेद औ वीणा
कमलासन रूप निराला।।
हे वीणा वागेश्वरी
वर दो वीणा वादिनि।

मन की भावना ओर संवेदना
तुमको अर्पण कर दी
त्रिविध समन्वय मइया तुम ही
मेरी खाली झोली भर दी।।
हे वीणा वागेश्वरी
वर दो वीणा वादिनि।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित,मौलिक

िधा - ग़ज़ल

हमेंसमझने में उनको जमाने लगे 
चाह कर भी अब वो ना भुलाने लगे ।।

कुछ यूँ हुआ उनकी सोहबत का असर 
धीरे धीरे हमें .....वो रास आने लगे ।।

आँखें मेरी भी उनकी राह तकने लगी 
मेरी गलियों में जबसे वो आने जाने लगे ।।

इश्क में कर लिया है नजरबन्द तो 
स्वप्न भी राहों को यूँ सजाने लगे ।।

दिल की बेताबियाँ बढ़ीं कुछ इस कदर 
हम पलकों में उनके ख्वाब सजाने लगे ।।

तनूजा दत्ता(स्वरचित)

विषय- बेटियाँ

नव निर्माण का आगमन,
बेटियों का होता जनम।
मानसिक तुच्छता को त्याग,
ओ मानव!अब तो तू जाग।

कुरीतियों की बेड़ियों में, 
बेटियों को मत बाँध।
शिक्षा की लड़ियों में
सफल बने लक्ष्य को साध।

बेटियाँ है राष्ट्र का अभिमान,
शिक्षा से होगा उत्थान।
इनके हाथ भविष्य का निर्माण,
आनेवाले कल की पहचान।

धैर्यता व मर्यादा का रूप,
बेटियों के हैं रूप अनूप।
कभी माता, भगिनी व पत्नी,
तो कभी हैं शक्तिस्वरूप।

बेटियाँ सफल बने जहाँ,
तो होता देश का कल्याण।
ईश ने भी दिया वरदान,
माँ बन देती हैं प्राण।

बेटियों के रक्षा की जिम्मेदारी,
सशक्त बने नारी पड़े सबपे भारी।
खुद करे वो अपनी रक्षा,
यही मूलमंत्र करे अब जारी।

आओ, हर क्षेत्र में इन्हें बढ़ाये,
यही दृढ़ संकल्प अपनाएं।
नारी को मिले सम्मान,
राष्ट्र को उत्कृष्ट बनाएं।

स्वरचित एवं मौलिक
मोनिका गुप्ता

लो आ गया ऋतुराज बसंत, 
चारो तरफ हरियाली छायी,
मौसम ने भी ली अँगड़ाई, 
पतझड़ की हुई रुसवाई |

माघ महीना सबको भाये, 
बसंत पंचमी त्यौहार लाये, 
खेतों में सरसों लहरायें, 
जैसे पीली चुनर लहरायें |

माँ सरस्वती को करें अभिवादन, 
संगीत की गूँजे चहुँ ओर सरगम, 
विद्या का मिले सबको वरदान,
माँ शारदे तुम्हें कोटिश प्रणाम |

आज तो पतंग बाजी होगी, 
पतंगें भी रंग-बिरंगी होंगी, 
बच्चे,जवान सब होंगे उत्साही, 
खुशियों की बारिश होगी |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*
कितना हसीन और मुबारक है दिन। 
आज दोनों जहाँ क्या महकने लगे हैं। 
राज़ की बात मत पूछिए दिल से कुछ। 

बन के अरमान , पंछी चहकने लगे हैं। 

है फूलों की रंगत, बड़ी खुशनुमा सी। 
हवा चल रही है, कि हो दिलरुबा सी। 
रोके रुके न कैसी अजब सरसराहट। 
ताल में ढल के घुंघरू छनकने लगे हैं। 

सजी संवरी क्या सूरत मेरे सामने है। 
अभेदी है मुस्कान जाने क्या मायने हैं। 
मुखड़े पे लो आ गयी हंसी रोशनी सी। 
बैरी पायल के घुंघरू खनकने लगे हैं।

कूक कलरव कहीं, कहीं चहचहाहट। 
ठंडक मे भाती हैं धूप की गुनगुनाहट। 
महीनों से पडे थे घर में सिकुड़े बेचारे। 
आज उनके भी चेहरे चमकने लगे हैं। 

विपिन सोहल
विधा - गजल

पीली - पीली सरसों खेतों में मुस्काने लगी,
हरियाली धरती अंग - अंग अंगड़ाने लगी,

बसन्ती महीना नाचे तितली संग भौरें भी
फूलों की ओढ़नी ओढ़ धरती लहलाने लगी,

ओस की बूंदे चमक रही फूलों पर मोती सम
रवि किरणें स्वर्णिम प्रकाश में नहलाने लगी,

नवीन कोंपले फूट रही पौधों पर आया बौर
हुई प्रकृति जवां स्वयं धरा भी हर्षाने लगी,

रंग - बिरंगी पतंगों से हुआ गगन सतरंगी
पिया हाथ डोर दिल पतंग फड़फड़ाने लगी,

पर्वों का पर्व ऋतुराज बसन्त है आया
नव रूप में देख सब प्रकृति भी शरमाने लगी,

स्वरचित
बलबीर सिंह वर्मा
रिसालियाखेड़ा सिरसा (हरियाणा)
हम ढूँढते रहे फुलवारियाँ शहरभर
देखें वसंतपंचमी के दिन नज़र भर
सुवासता का सुमन सजे श्रृंगार

कैसे आया वसंत आम्र मंजरी पहर।

अपने-अपने सुख-दुख बाँटती चाय प्याली
शक्कर संग जो मुस्कान उसने जरा डाली
जन्नत मेरा तो सज रहा सदियों उसी से 
भल बैठ दूर आम की डाली ओ आली।। 
बीना

मनहरण घनाक्षरी छन्द में लिखने का प्रयास किया है 

ये वर्णिक छन्द है ।
चार पद ,चार चरण ,31 वर्ण
8 8 8 7, सम तुकांत 
अंत लघु गुरू
*****

शिक्षा कला संगीत की,देवी तुम हो शारदे 
हृदय में प्रीत भरो, जीवन को तार दे ।

विचार और भावना,मन में हो संवेदना
करते यह प्रार्थना, जन्म ये सुधार दे ।

धवल वस्त्र धारिणी ,मयूर हंस वाहिनी ,
सद्बुद्धि विद्या दायिनी, ज्ञान से सवाँर दे।

वीणा वादिनि तुमको, पूजते विष्नु महेश
देकर आशीष अब, जीवन निखार दे ।

स्वरचित
अनिता सुधीर श्रीवास्तव
शीर्षक - ''जी भर जाना"

जब जी भर जाये तब बता देना 

चुपके से दामन मत हटा लेना ।।
रोता है दिल अपनों को खोकर 
ये नादान करे नादानी भुला देना ।।

यह घायल है रातों को है रोता 
तहस में जरूर अंगार संजोता ।।
समझो दिमाग से समझौता नही
जो किये हैं उन्हे कुछ नही होता ।।

मिलावट का कारोबार इसे नही भाया 
यह भी है शायद यह बहुत है सताया ।।
बीमारेदिल लाचार बालमन से न रूठते 
इनके प्रति 'शिवम' दया का भाव बताया ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 10/02/2019
वन उपवन में छाया वसंत
कण कण शौभित प्रिय वसंत
गेंदा और गुलाब चमेली
झूम रही है डाली डाली
कुहू कुहू मिल कोयल बोले
विरही अब तन मन डोले
भँवरे फूलों पर मंडराते
कानों में नव गीत सुनाते
मधुमास ऋतुराज पधारे
वे हरियाली को संग लाये
कलियां चटके फूल महकते
सौरभता तन मन अति छाये
मदन तरकश तीर चलावे
मनवा धक धक कर जावे
केसरिया पलाश महकते
ललना मधुर गीत सुनावे
पीले सुमन सरसों महके
हजारा सूरजमुखी दहके
शस्यश्यामल वसुंधरा पर
सब लगते हैं बहके बहके
सर्वसुखाय सर्वहिताये
सुस्वागत प्रिय ऋतुराज
प्रति वर्ष सृंगारित होकर

सुखों की करते बरसात।।
स्व0 गोविन्द प्रसाद गौतम

मनहरण घनाक्षरी
।। ऋतुराज ।।


शिशिर के जाने पर
वसंत बहार आयी 
पुष्पों की सारी खुशियां
घर लौट है आयी।

धूल भरी हवा चली
कहीं शंखनाद बजे
सरस्वती मंदिर में
बैठ कविता रची।

धरा पर हल्दी लगी
उपवन खिल उठे
भ्रमर-पुष्प धरा को
नूतन कर चली।

केरी डाल पर जब
बौर की बारी है आयी
ऋतुराज के आते ही
फुलवारी है छायी।

भाविक भावी
रचना-बसंत बहार
===========================
(बसंत बहार) 
पीताबंर ओढ़े है धरती। 
आयी है बसंत बहार।। .....
जय जय वीणावादनी।
जय वीणा की झंकार।। 
सद्बुद्धि सदमार्ग मिले। 
कृपा मातेश्वरी तुम्हारी।। 
ज्ञान का मन में हो संचार। 
मिटे अशिक्षा अत्याचार।। 
राग द्वेष से मुक्त हो जग।
बहे प्यार खुशियों की धार।। 
पीताबंर ओढ़े है धरती। 
आयी है बसंत बहार।। .....
जय जय वीणावादनी।
जय वीणा की झंकार।। 
ज्ञान कला संगीत की। 
माता भरती हो भंडार।। 
खेत खलिहानों ने भी ओढ़ी। 
नयनाभिराम हैं पुष्प सुगंधित।। 
रंग बिरंगी धरा पिताबंरी। 
मन में भी जागे संचार।। 
पीताबंर ओढ़े है धरती। 
आयी है बसंत बहार।। .....
सुख दुःख का यह ज्ञान कराता। 
पतझड़ बित बसंत आ जाता।। 
ज्ञान के चक्षु खुल जायें। 
मानव मानवता दिखलायें।। 
मानव के हृदय में जगा दे। 
सद्गुण साहस सुविचार।। 
पीताबंर ओढ़े है धरती। 
आयी है बसंत बहार।। .....
जय जय वीणावादनी।
जय वीणा की झंकार।। 
...........भुवन बिष्ट 
रानीखेत, उत्तराखंड
प्रिय आ जाओ
हिय में हूक उठी
फूली अमराई
कोयलिया कूक उठी
कलियांँ चटकी
फुलवारी खिल उठी
फूलों पर हो रहा
भंवरों का गान 
प्रिय आ जाओ
हिय में हूक उठी
फूल उठी सरसों 
आई ऋत मनभावन
पीली चूनर ओढ़ धरा
दिखलाती अपना यौवन
प्रिय आ जाओ
हिय में हूक उठी
पेड़ों के झुरमुट से
झांकती धूप
झील के पानी में
दिखे तेरा ही रूप
याद तेरी तड़पाए
विरह की आग जलाए
प्रिय आ जाओ
हिय में हूक उठी
मौसम बहारों का
ले आया ऋतुराज
देर न कर प्रिय आ जाओ
कहीं बीत न जाए मधुमास
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित रचना

शीर्षक - "मां सरस्वती" 

नमो नमो जयश्री सरस्वती दयामयी
विद्या दो माता दु:खभंजन
छविमयी
वसंत पंचमी शुभद दिवस पर
जन्मी तुम मंगलमयी
वीणापाणि हे कल्याणी! परिवेश है सुरमयी
सब पतितों को पार लगाओ
नृत्य,गान,सुर-साज सजाओ
चरणों में मां तेरे ही बस
हरदम शीश नवाऊं मैं
क्षमाप्रार्थी दोषों के हम
बात सदा दोहराऊं मैं
सरस सुमंगल बातें मन में
वास करे शुभ मंगल तन में
मां शारदे!कोटि-कोटि नमन
विहंस रहे भक्तों के तन-मन

खिले पुष्प महका परिवेश
वासन्ती परिधान विशेष
वसंत पंचमी प्रमुदित जन
चरणों में शत बार नमन.
#स्वरचित कविता 

डा.अंजु लता सिंह 

नई दिल्ली

पागल अल्हड़ हवा बसंती 
भोर के तारे संग जागती ।
कलियों के मुख चूम चाट के ,
रख कर सिर पर पाँव भागती ।

स्वर्ण गेंदे पर रुकती पल भर, 
करती चम्पे से है मनुहार ।
महुए की गंध से है बौराई,
निर्लज्ज हुई करती अभिसार ।

आम मंजरियों संग झूलती 
मस्तमौला बन निडर घूमती ।
गेहूँ बालियों को झकझोर के ,
पुष्प पीत सरसों के चूमती ।

शीतल मंद सुगंध से बहती ,
उतर के मलयाचल से आई ।
संयोग प्रेम को करे रोमांचित , 
विरह अग्नि को करे सवाई ।

बावरी हवा को देख घूमते , 
कर शिंगार ऋतुराज आ गया ।
नभ जल थल प्राणी जगत में ,
प्रेम मिलन उन्माद छा गया ।

भ्रमरावलियाँ संग तितलियाँ ,
मुख कलियों के चूम के गाएँ ।
गा गाकर उपवन में लिखते 
मनसिज रति की प्रेम कथाएँ 

छुप कर बैठी आम्र पल्लव में ,
बोल प्रखर वनप्रिय है बोले ।
पंचम स्वर में गाए विरह को ,
हो निस्संग रति रंग को घोले ।

एक छलाँग में पवन बसंती , 
लेती महल कँगूरों को नाप ।
दूब बिछौने पर अगले ही पल , 
लेटती नयन मूँद चुपचाप ।

स्वरचित :-
ऊषा सेठी 
सिरसा 125055 ( हरियाणा )
विधा लघुकथा 

तकिया

"पिताजी जैसे ही मुझे मालूम हुआ आपने अपना छोड़ कर अलग किराये का कमरा लिया है तो मैं अपनेआप को रोक नहीं सकी और फौरन चली आई ।"
संगीता ने दुखी मन से पिताजी से 
कहा ।
" हाँ बेटी तूने अच्छा किया ।"
रामलाल ने कहा ।

"लेकिन ऐसा क्या हुआ जो आपने इतना बड़ा फैसला किया मैं तो सोच रही थी आपसे सुखी और कोई नही होगा भईय्या - भाभी आफिसर है , पोते पोती मकान गाडी नौकर और अच्छा खाना सब कुछ तो है ।"
संगीता ने कहा ।

दुखी मन से रामलाल ने कहा :
"बेटी जिसने पूरी जिन्दगी ईमानदारी की रोटी नमक खाई है जो स्वाभिमानी जीवन जिया है उसके घर में रात रात पार्टियाँ हो रिश्वतबाजी चलती हो पैसा ही ईमानधर्म हो , सब अपने मन के हो अनुशासन , नैतिकता नहीं हो ऐसे माहौल में मैं नही रह सकता । 
मैं अपनी छोटी सी पेंशन से अपना गुजर बसर कर लूँगा कम से कम मुझे आत्मसंतुष्ट तो है ।"
संगीता को याद है वह पुरानी बात जब वह छोटी थी और उसके पिताजी पुलिस विभाग में इन्क्वायरी कैस डील करते थे तब एक इंस्पेक्टर जो सस्पेंड था पिताजी के पास कुछ रूपये ले कर आया था और कैस रफा-दफा करने का कह रहा था तब पिताजी उसका गिरेबान पकड़ कर एसपी के पास ले गये थे और कहा था :
" साहब गलत काम करके ये सस्पेंस होते है और वही उम्मीद ये मुझ से करते है ।"

अपनी ईमानदारी के कारण ही उनकी पूरी नौकरी उसी सेक्शन में गुजरी थी और आज भी लोग उनका नाम ईज्जत से लेते है ।"

रामलाल कह रहे थे :
"बेटी हम तकिया आराम के लिए लगाते है लेकिन अगर वही तकिया परेशानी का सबब बन जाए तो हटा देना ही अच्छा है । "
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव 
भोपाल
विषय-स्वतन्त्र
विधा-हाइकु

बसंत आती
किसलय संग में
असंख्य लाती

गुल खिलाता
बसंत इतराता
उपवन में

महक उठा
आँचल शारदे का
प्यारा बसंत

संगीत देवी
सदबुद्धि दायिनी
सरस्वती माँ

स्तुति करती
वीणावादिनी माँ की
आम की डाली

अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर(झज्जर)
जब बुद्धि,कौशल हो जन,जन में।
पढ़े,लिखे हों सब।
तब समझो आ गया वसन्त।

जब जागृत हो अंतर्मन।
झूठों का करे बंटाधार।
तब समझो..........

जब सत्ता,पैसे के लिये नहीं हो।
करे जनता का उद्धार।
तब समझो.......

खुशियाँ हो जनजीवन में।
सबमें विद्या का हो संचार।
तब समझो...........

जब सबके पास हो घर।
कोई ना हो बेघर।
तब समझो........
छोटे कामगार ना हों।
उनके साथ हो सही व्यवहार।
तब समझो...........

जब हों ना भाई,भाई का दुश्मन।
सब मिलकर मनायें त्यौहार।
तब समझो..........
🌹🌹🎉🎉🌷🌷🎉🎉
स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी

माँ शारदा स्तुति

हे माँ शारदे...
धवलवर्ण श्वेत पद्मासना..
या वीणावादिनि..
कर जोड़े करूं आराधना...
श्वेत हंसवाहिनी..हे माँ शारदे..
अज्ञान के अंधकार से तार दे...
वर दे..वर दे..वर दे..
शब्द सुर साधना..उर भर दे..
हे माँ शारदे..हे माँ शारदे..
वर दे..वर दे..वर दे..
लेखनी को मेरी वर दे..
भटके न सद्मार्ग से..
न भटकें कभी परमार्थ से..
हे माँ शारदे..हे माँ शारदे..
हे विद्यादायिनि..
अक्षर..अक्षर..तेरी वाणी है..
तू सकल वेद की निर्माणी है..

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
क्या प्रेम वही है जो वर्णित है?
कवि कल्पित गाथाओं में।
या प्रेम वही है जो देखी!
भूली-भटकी राधाओं में।।
मेरे जीवन का ये प्रश्न बड़ा!
क्या सत्य कहीं है और पड़ा??

क्या प्रेम कहीं हो सकता है?
बस नैनों के आकर्षण से।
क्या प्रेम कहीं बढ़ सकता है?
बस नख-शिख के विश्लेषण से।।
फिर क्यों हृदय का मोल नही?
बस हो जाता है देंह बड़ा.....!!

माँ का अपने बेटे से जग में,
प्रेम बड़ा विलक्षण हैं।
पर तजा जो जननी ने सुत को,
ये जीवन का कैसा छण है?
क्या ममता कलुषित-कुंठित है?
क्या मान नेह से हुआ बड़ा...?

हाय प्रेम तरुणाई का!
जब हृदय का आदान हुआ।
गुण और रूप न्योछावर सब,
पर कब कुल मिलना आसान हुआ?
फिर प्रेम कहाँ पूरा जग में ?
जब प्रेम से है कुलमान बड़ा....

कुछ प्रश्न जगत के रौद्र बड़े,
कुछ प्रश्न धरा पर मौन पड़े।
क्या झूठा? क्या सच है जग में?
ये कवि सोचे है खड़े-खड़े।।
सब झूठ के रथ पर हैं बैठे,
कब सच के खातिर कौन लड़ा?

जब सूरज अपनी ज्योति को,
हर घर में पहुंचाता है।
जब निश्छल भाव भरे घन,
हर आंगन में बरसाता है।।
जब ऊँच-नीच से परे वायु,
हर प्राणी को सहलाता है।।
जब शशि अपने धवल-मोती से,
हर मन शीतल कर जाता है।
तब हो अधीर कवि मन सोचे,
कुछ ऊँच-नीच नही जग में,
बस जीवन में उपकार बड़ा,
जो बांट सको तो बांट चलो।
बस मनु का मनु से है प्यार बड़ा।।

विषय==स्वतंत्र लेखन 
===
===========
जो कहना था उनसे अनकहा रह गया 
यह एक हमारे दिल में वाकया रह गया

वह छोड़कर हमसे जुदा क्या हो गये
सिर्फ उनकी यादों का आईना रह गया

18 और 22 वर्ष में कुछ महीने कम है
हमारा कुछ ही दूरी का फासला रह गया

हमारे बीच मजहब की दीवार खड़ी हो गई
इसलिए अब तो नज़रों का इशारा रह गया

शान-ए- शौकत में ही वह मारा गया
महल था अब वहां झोपड़ा रह गया

====रचनाकार ====
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश 

विषय - बसन्तोत्सव
विधा - चौपाई छन्द

==================
है बसन्त ऋतुओं का राजा I
जिसने भूमण्डल को साजा ll
सरसों ने पीला पट धारा I
दृश्य मनोहर अतिसय न्यारा ll 1 Il

कोयल गीत सुनाने आई I
सबका मन बहलाने आई ll
दशों दिशायें हुईं सुगन्धित I
अनुपम छटा सभी सम्बन्धित ll 2 ll

फसलों से श्रंगार हुआ है I
ऋतु बसन्त आगाज हुआ है ll
स्वागत में तैयार धरा यह I
आ बसन्त सब उठे यही कह ll 3 ll

बड़ा सुनहरा यह मौसम हो I
गर्मी - सर्दी बिल्कुल कम हो Il
हरे सघन सब वृक्ष सुहाये I
आम रसीले भी बौराये ll 4 ll

सबको ही मधुमास सुहाये I
कामदेव सुत यह कहलाये ll
निखरा सबका अजब रंग है I
नवयौवन सिर चढ़ा भंग है ll 5 ll

जन्म माह शारद का आया l
कवि यह जान बहुत हर्षाया ll
सबके उर माँ ज्योति जलाओ l
अन्धकार अज्ञान मिटाओ ll 6 ll

#स्वरचित
#सन्तोष कुमार प्रजापति "माधव"
#कबरई जिला - महोबा ( उ. प्र. )

शीर्षक : ख्वाहिश बसंत की ! 

वाह रे,
आसमाँ वाले !
तेरी शीत का रवैया ,
इस बार इतना क्रूर हो गया !
कि पलकों पर सजे ,
मखमली ख्वाबों सा ,
नाज़ुक बचपन ,
टाट ओढ़ने को मजबूर हो गया !
रोज़ करता था ,
अम्मा से एक ,
स्वेटर की गुहार, 
सपने पूरे ना हो सके आजतक ,
पहनने ओढ़ने के ...।
कपकपाती इच्छाएं भी ,
ठंडी पड़ चुकीं ,अब तो ।
आस बंधाती थी ,गुनगुनी धूप , 
कि ,पसार लें ,चलो आज 
चादर से बाहर ,पैर ! 
और ,फ़टे टाट से झांक लें 
शायद ,खबर हो कोई ,
बसंत के आगमन की ,
छोटी सी ख्वाहिश ,
नन्हे से ,बालमन की ....! 

स्वरचित ,
संध्या बक्शी 
जयपुर ,राजस्थान ।
वसंत की रात,
आज की रात,

बड़ी नटखट है,
चाहजगाती,
अनंग तरंगित,
अंग अंग में,
सूनी पड़ी आंखों में,
स्वप्न ही सारे
मचल उठे आज,
प्राण में प्यास,
वसंत की रात में,
चुंबन रास, 
अधरतट पर,
प्राण शृलभ,
दीप की रुप शिखा,
मचल रहा,
वसंत की रात में,
प्राण मेप्यास,
अतृप्त विलास है,
अभी बाकी है
मिलन की घड़ी भी,
बहुत छोटी,
हृदय व्यापार,
हमारा प्यार,
प्राण में प्रयास शेष,
अभी न जाओ,
वसंत की रात है,
अभी दुर है,
उषा के प्राची द्वार,
प्रणय पत्र,
देखते देखते ही,
चांद नभ में
छुप जायेगावह
वसंत की रात है।।
स्वरचित देवेन्द्र नारायण दास बसना छ,ग,।।


हाइकु 
ऋतू वसंत 
धरा मस्त मगन 
बनी दुल्हन 
2
पीत वसन 
ऋतुराज के संग 
धरा धारण 
3
धरा दुल्हन 
हरियाली चुनर 
दूल्हा वसंत 
कुसुम पंत उत्साही 
स्वरचित 
देहरादून
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
शारदे शारदे जय माँ शारदे
शारदे शारदे जय माँ शारदे

वीणा वादिनी, ज्ञान वरदायिनी
श्वेत पद्मासनी जय माँ शारदे।

शारदे शारदे जय माँ शारदे
शारदे.........................

ज्ञान प्रदायिनी, ग्रंथ विहारिणी
मंजूगीत मोहिनी जय माँ शारदे

शारदे शारदे जय माँ शारदे
शारदे .........................

शरणों में लेके तू ज्योति पथ दिखा दे
अज्ञान तम हारिणी जय माँ शारदे

शारदे शारदे जय माँ शारदे
शारदे........................

चरणों में तेरी मैं शीश झुकाऊँ
शत-शत माँ तुझको नमन।।

शारदे शारदे जय माँ शारदे
शारदे...................

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल

हे सरस्वती माँ मेरी... 

हे सरस्वती करुणामयी अनुकंपा करो माँ मेरी....
ओज भरी मधुर हो वाणी सरस हो मेरी लेखनी....
ओज भरी मधुर हो वाणी सरस हो मेरी लेखनी....
हे सरस्वती करुणामयी अनुकंपा करो माँ मेरी....

कर्म हो निज स्वार्थ रहित परमार्थ मेरा लक्ष्य हो...
कर्म हो निज स्वार्थ रहित परमार्थ मेरा लक्ष्य हो...
उर मेरा प्रेम भरा रहे मन कमल हो मेरा भारती....
मन कमल हो मेरा भारती....
हे सरस्वती करुणामयी अनुकंपा करो माँ मेरी....

रहूँ ज्ञान पथ मैं अग्रसर तेरे नयनों से प्रकाश हो....
रहूँ ज्ञान पथ मैं अग्रसर तेरे नयनों से प्रकाश हो....
ना क्रोध भय उन्माद हो चन्दन बनूँ मैं परमेश्वरी.....
चन्दन बनूँ मैं परमेश्वरी.....
हे सरस्वती करुणामयी अनुकंपा करो माँ मेरी....

करून हाथ जोड़ मैं वंदना मुझे दम्भ ना ही द्वेष हो...
करून हाथ जोड़ मैं वंदना मुझे दम्भ ना ही द्वेष हो...
'चन्दर' की तुझ से प्रीत हो तेरा ध्यान वीणावादिनी.....
हो तेरा ध्यान वीणावादिनी.....
हे सरस्वती करुणामयी...अनुकंपा करो माँ मेरी....

माँ शारदे हंसवाहिनी माँ भारती भुवनेश्वरी.....
तिमिरहारिणी वाघीश्वरी हे सरस्वती माँ मेरी....
हे सरस्वती माँ मेरी......हे सरस्वती माँ मेरी.

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II


"गंगा मैया धन्य हो गई"

संगम तट पर बरस रहा है, देवों का आशीष।
देखो जिसको लगा हुआ है, पाने को आशीष।।
माँ गंगा के जयकारे से, गूंज रहा संगम का तट।
लगा रहे सब मिलकर डुबकी, क्या राजा क्या रंक।।
कुंभ का आगाज हो गया, निकला जुलूस विशाल।
संत समाज है मग्न हो रहा, लगा रहा जयकार।।
गंगा के पावन तट पर है, बरसा स्नेह अपार।
कोई अर्पित करे अर्ग ,तो कोई सेवा में मसगूल।।
कोई खोया राम धुनि में, कोई लिए समाधि लीन।
नागा बाबा को तुम देखो, मल रहे हैं भभूत।।
संगम तट की मोहकता का ,कैसे करूँ बखान।
शब्द नहीं हैं उर मे मेरे, जो कर पाऐं गुणगान।।
योगी जी की व्यस्था ने, मन है सबका मोह लिया।
वत्स देता साधुवाद उन्हें, जो किया सफल आयोजन यह।।
ऐसे सपूत को नमन मेरा, जिसने नाम बढाया संगम का।
प्रयाग राज को पहुँचाया है, विश्व पटल के हर कोने में।।
बारमबार नमन है मेरा, माँ भारती के लाल को।
गंगा मैया भी धन्य हो गई, देख भव्यता संगम की।।
गंगा मैया भी धन्य हो गई, देख भव्यता संगम की।।
(अशोक राय वत्स) स्वरचित
जयपुर

माँ सरस्वतीआराधना
-----------------------------------------------
हे जगदीश्वरी, हे वागिश्वरी,
हममें बुद्धि ज्ञान प्रकाश भरो।
***************************

फैले हुए मन मैल हटाओ,
हर हृदय सुंदर भाव सजाओ।
हे कल्याणी, वीणावादिनी,
हर जन पर माँ कल्याण करो।

हे जगदीश्वरी, हे वागिश्वरी,
हममें बुद्धि ज्ञान प्रकाश भरो।
***************************

रहे न किसी में अज्ञान का तम,
मिटे सभी के मन का हर भ्रम।
हे वीणापाणी , हे हंसवाहिनी,
जीवन का सब संताप हरो।

हे जगदीश्वरी, हे वागिश्वरी,
हममें बुद्धि ज्ञान प्रकाश भरो।
***************************

दुखी जग, सुख आभास कराओ,
ज्ञान बुद्धि माँ सबमें विकसाओ।
हे माँ शारदा, हे माँ भारती,
संकट से जगत का त्राण करो।

हे जगदीश्वरी, हे वागिश्वरी,
हममें बुद्धि ज्ञान प्रकाश भरो।
***************************
--रेणु रंजन
( स्वरचित)
10/02/2019

स्तुति माँ शारदानमो नमो शारदे सुख करनी
नमो नमो शारदे अज्ञान हरनी

निरंकार है ज्योति तुम्हारी
तुम्हें सदा पूजे नर नारी

ज्ञान के दीप से फैली उजियारी
राजा रंक भी आगे झुके तुम्हारी

हंस वाहिनी , ज्ञान प्रकाशिनि
श्वेत वस्त्र धारण तुम करती

धरा से अज्ञान दीप तुम हरती।।
ज्ञान प्रकाश की बर्षा तुम करती

स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू

🌹वंदना🌹
मात चरण वंदन करता हूँ ।
धी से अभिनंदन करता हूँ ।
तेरी महती अनुकंपा से,
ज्ञान बुद्धि अर्जन करता हूँ ।।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
🌾💐वसंत💐🌾
(विरहिन वेदना अपनी सखी से)
विधा- सिर्फ एक भाव प्रवाह
🌵🌵🌵🌵🌵
अलि,देख देख आया वसंत
चहुँ ओर छोर छाया वसंत
इसनेआकर ली अँगड़ाई
बैरिन सुधि प्रियतम की आई
मन पोर पोर भननाता है
अब जी में कुछ न सुहाता है
यह खड़ा टिसू हुंकार रहा
आलस पै क्रोध उतार रहा
स्फूर्ति जगाता है सब में
नद काम बहाता है सब में
इसका है चेहरा लाल लाल
करता है सबका ग़ैरहाल
यह सरसों पीलापन ओढ़े
मुकुलित श्रृंगार नहीं छोड़े
टूटा है सब्र छटाओं का
इन ओद भरी कुलटाओं का
जब फूलों में मकरंद बहे
अलि भी आने से नहीं रहे
इठला इठला सा आता है
यह भनन भनन भननाता है
बनते है ऐसे समीकरण
कोकिल करती है चैन हरण
यह पपिहा आग लगाता है
पिउ पिउ का गान सुनाता है
ये वर्फीली आँधीं घूमें
धरती का ठौर ठौर चूमें
इतने पै पिया नहीं आए
सुधि में तन मन गोता खाए
यौवन पल पल अँगड़ाता है
आली,अब कुछ न सुहाता है
मैं बैठी हूँ डूबी डूबी
जीवन से हूँ ऊबी ऊबी
त्रुटि कश्चित् का परिताप न हो
यह दुर्वासा का श्राप न हो
यह क्षोभ क्षरण तब ही होगा
प्रियतम का आलिंगन होगा
इसलिए कहूँ अब जा वसंत
मेरे आगे मत आ वसंत
बैरी वसंत रे रिपु वसंत
तू कितनों का अच्छा वसंत ।।
इतिम्
@स्वरचित-राम सेवक दौनेरिया 'अ़क्स'
बाह-आगरा (उ०प्र०)


मन जलतरंग हुआ,
धड़कनों ने गुनगुनाया है।
पुरवा कहती है-----
फिर वसंत आया है।

झूम रही वासंती,
खिल उठी कलियाँ
भ्रमर गीत गूंज रहे, 
बागों की गलियाँ 

पीउ- पीउ कह पपीहे ने,
शोर मचाया है।
पुरवा कहती है------
फिर वसंत आया है।

मदिर - मदिर मँहुआ ,
और बौर -बौर अमियाँ
तन -मन सुवासित हो, करें अठखेलियाँ 

दहक उठा पलाश,
तन अगन लगाया है।
पुरवा कहती है, ----
फिर वसंत आया है।

यौवन फूटे धरा के, 
फिर जवानी आई है
उमंग हिलोर मारे ,
रुत सुहानी आई है

उमर मतंग हुई, 
मन बौराया है।
पुरवा कहती है-------, 
फिर वसंत आया है।

नाच उठे अंग-अंग, 

सपनों ने ली अंगड़ाई 
बासंती चुनरी ओढ़
,नूतन छवि है पाई

नवजीवन पा वसुधा ने,
प्रणय गीत गाया है ।
पुरवा कहती है------
फिर वसंत आया है ।

रचो कोई गीत नया,
आज गीतकार तुम
मनोभाव बाँध- बाँध,
करो सुर श्रृंगार तुम

सप्तसुर जगाओ माँ, 
ॠतुराज आया है ।
पुरवा कहती है-------
फ़िर वसंत आया है।

स्वरचित 
सुधा शर्मा 
राजिम छत्तीसगढ़ 
10-2-2019


मुझे परिचित करवा दो कोई
इस मौन करुणा की परिभाषा
नीति के समांतर खड़ा हूँ मैं
फिर क्यों अपूर्ण है अभिलाषा।
कष्टों के घूंट पी-पीकर देखो
जीवन की राह पर वह चल रहा
अभ्युदय की चाह मन में पर
यह पथ अंत की ओर ढ़ल रहा।
जिन खेतों को उसने जोता था
आज उनमें कुछ उसे मिला नही 
परिश्रम से कितना स्वेद बहाया
पर उसका कोई बीज खिला नही।
अब चलेगी कैसे जीविका उसकी
कैसे अंधेरा मिटकर, प्रकाश होगा।
कैसे भूखग्रस्त उस निवास में?
खुशियाली का रूप, पलाश होगा।

परमार प्रकाश

 ज्ञान दे माँ वरदान दे माँ
हूँ अनभिज्ञ पहचान दे माँ
श्वेत वर्ण सा बना मन मेरा

अच्छाई का भान दे माँ
वीणा के तारों सी झंकृत कर जिह्वा
मुझे शब्दों में गुंजर दे माँ
कमल आसन तू विराजती
श्वेत हंसशोभनी शुभ वरदायनी
मानव मन उदार मेरा बना माँ
मृगमरीचिका ना कलुषित करे
सुंदर सुशोभित कर आराधना माँ
बुध्दि ज्ञान विवेक साधना 
जीवन की बन जाये परिक्रमा 
हर अंधकार दूर कर सकूँ मैं
जला मुझको ज्ञान की ऐसी ज्योति बना माँ
ज्ञान दे वरदान दे माँ
बनूँ इंसान प्रभु की बन संतान
ऐसी मनोधारणा दे माँ
हे शारदे माँ हे शारदे माँ
छेड़ मधुर वीणा के तार 
फैला ज्ञान का प्रकाश माँ

----नीता कुमार

शीर्षक - "मां सरस्वती" 

नमो नमो जयश्री सरस्वती दयामयी
विद्या दो मां दु:खभंजन
छविमयी
शुभ्रवसन सज्जित सुहावनी
हंस सवार दैदीप्य-दामिनी
पुस्तक-प्रेमी भक्त क्षमामयी
नमो नमो जयश्री सरस्वती दयामयी
विद्या दो माता दु:खभंजन
छविमयी

सब पतितों को पार लगाओ
नृत्य,गान,सुर-साज सजाओ
वसंत पंचमी शुभद दिवस पर
जन्मी तुम मंगलमयी
नमो नमो जयश्री सरस्वती
दयामयी
विद्या दो माता दु:खभंजन
छविमयी

चरणों में मां तेरे ही बस
हरदम शीश नवाऊं 
अज्ञानी को शिक्षा दे बस
बात यही दोहराऊं 
वीणापाणि हे कल्याणी!
परिवेश है सुरमयी
नमो नमो जयश्री सरस्वती
दयामयी
विद्या दो माता दु:खभंजन
छविमयी

सरस सुमंगल बातें मन में
वास करे शुभ मंगल तन में
ऐसी कल्याणी दिशा-दिशा 
आभामयी
नमो नमो जयश्री सरस्वती
दयामयी
विद्या दो माता दु:खभंजन
छविमयी 

मां शारदे!कोटि-कोटि नमन
विहंस रहे भक्तों के तन-मन
चतुर्दिक हौले- हौले महके पुरवाई
नमो नमो जयश्री सरस्वती
दयामयी
विद्या दो माता दु:खभंजन
छविमयी

खिले पुष्प महका परिवेश
वासन्ती परिधान विशेष
मां के अंचल तले-तले ही
मलयानिल लहराई 
नमो नमो जयश्री सरस्वती
दयामयी
विद्या दो माता दु:खभंजन
छविमयी

वसंत पंचमी प्रमुदित जन
चरणों में शत बार नमन
निराला की अराध्यदेवी! तुम
जग में यें छाई
छटा निराली जिसपर पड़ती
उसकी बन आई
नमो नमो जयश्री सरस्वती
दयामयी
विद्या दो माता दु:खभंजन
छविमयी

#स्वरचित कविता 

डा.अंजु लता सिंह 
नई दिल्ली

विषय-सरस्वती वंदना

हे माँ शारदे!...
करती मैं तुझे नमन,
करू मैं तेरा वंदन बारम्बार।
श्री गणेश संग सरस्वती,
पधारो मेरे मनमंदिर
माँ सरस्वती!...पूजा करू तेरी निशदिन।
मेरे हृदय का तिमिर मिटा,
और भर दे उर,अपने ज्योतिपुंज से।
हे माँ!...विधि न जानू पूजा की,
मन भरा भावों से,
करती मैं मनभाव तुझको अर्पण,
कर कृपा पहचान मेरा समर्पण।
ओ ज्ञान की देवी !....
मैं मूढ़मति अज्ञानी,
थोड़ी कृपा बरसा दे अपनी,
जड़मति हो रही बुद्धि,
दे माते इसे थोड़ी सुबुद्धि।
हे माँ !...... वीणा वादिनी
तेरा ही "आसरा" है,
मेरी बुद्धि को निर्मल करना,
हृदयगंगा को साफ - स्वच्छ रखना ,
देना मेरी लेखनी को ऐसे शब्द की,
शब्द - शब्द बन मोती ,
उतर जाये हर हृदयगंगा में,
भावों को मेरे तू प्राण देना,
नाम को मेरे पहचान देना,
संसार के इस रैन -बसेरे में,
तेरा ही एक "आसरा"है, हे माँ!
मेरी लेखनी को एक विस्तृत आकार देना।
मेरी लेखनी को एक विस्तृत आकार देना....

©सारिका विजयवर्गीय "वीणा"
नागपुर (महाराष्ट्र)


नीलम ...!
हाथों के एक उंगली के मुंद्रिका में 
नीलम को समावेश करना चाहा 
भाग्य बदलने के लिए किंतु 
लकीर के फकीर ही निकले 
फिर सोचा नीलम को दिल में बसा लेते हैं 
वहां पहले से ही दर्द में घर बना रखा था ।

नीलम ...! 
तुझसे मैं अपना 'म' को अलग करना चाहा 
तुम 'नीला' बन गए 
मैं तुम्हें पुकारना चाहा
नीला आकाश खुला आकाश 
दिन बिना कहां है उज्जवल प्रकाश 
मैं तुम्हें आवाज़ देना चाहा 
तुमने कहा 'नीला आसमां सो गया है 
मुझे लगा नीला आसमां खो गया है 
मैं तुम्हें नीला आसमां में ढूंढना चाहा 
वहां भी नगण्य शून्य शून्यता मिला 
नीला समुंद्र के आंचल में ढूंढता रहा ।

नीलम...!
मैं तुम्हें अर्धरात्रि की नीलिमा में ढूंढना चाहा 
वहां भी तुम खामोश के खामोशियों में खामोश थी 
मुझे लगा नीला आसमां खो गया है
फिर तुमने नीला से 'आ'हटाना चाहा 
'नील' बनकर 'नील' बना दिया 
नील नील कहकर पुकारने लगे 
आवाज़ सुना अनसुना लगा 
हाथ बढ़ाकर छूना भी चाहा 
परंतु छुआ अनछुआ सा लगा ।

नीलम...!
तुम मुझे नील नील कहकर पुकारते रहे 
मैं तुम्हें नीलकमल में ढूंढता रहा
नीलकमल के पंखुड़ियों में ढूंढता रहा 
नीली झील में नीले क्षितिज में ढूंढता रहा 
तुम नील नील कहकर पुकारते रहे 
मैं नीले गगन के तले भटकता रहा 
मैं तुम्हें नील गगन में ढूंढता रहा 
तुम नील नील कहकर पुकारते रहे 
मैं तुम्हें मस्त पवन में ढूंढता रहा ।

नीलम...!
पर्त दर पर्त तुम्हें उघारना चाहा 
नील से भी ललकार वाली 'ल' को हटाना चाहा 
सवाल अस्तित्व की आ गई 
सवाल रूहानी की आ गई 
ऐसा लगा जैसे बिना वस्त्र के नीलम ।

नीलम...!
ललकार वाली लव ने ललकारा भी 
पागल पथिक की तरह 
क्यों ना रहूं मैं नंगे 
मुझे तो कहीं पुरुष दिखाई ही नहीं देता 
हम सब स्त्री हैं 
पुरुष तो परमात्मा है 
वही रूहानी है वही सुहानी है 
मैं भी पागल पथिक 
पुरुष होकर परमात्मा ढूंढ रहा हूं 
मृतक शरीर में आत्मा ढूंढ रहा हूं ।

स्वरचित एवं मौलिक 
मनोज शाह मानस 
सुदर्शन पार्क 


बसंतोत्सव 

========

पलाश फूलों से लदा बसंत /
दहकता है पीले रंगों में,
यौवन के नव अख्यान सा बसंत /
नवल प्रसूनों में झिलमिलाया ,
नवल रंगो का वरदान है बसंत /
छा गया मथुमास चहुँओर 
हर्ष व् उल्लास छाया , ,
जीवन का उमंग - तरंग बसंत /
टेशू फूलों में प्रस्फुटित लालिमा,
प्रेम राग से गुंजित बसंत /
कली कली खिल गई 
यौवन की कसक जग गई /
लताएँ लिपट चली ,
तरुओं के अलसित प्यार में,
नैनों में रंग गुलाबी बनकर 
मद भर गया है अनंग- बसंत /
उड़े गुलाल प्रीतम के संग ,
तन मन को लुभाता गया,
प्रीत का साथी प्रिय बसंत ।।
====================
रचनाकार = ब्रम्हाणी वीणा हिंदी साहित्यकार

चल पड़ी शीतल सुगन्धित, है पवन आया वसंत ।
बाग में पक्षी चहकते, छा रहीं खुशियाँ अनंत ।

दे रहा है भानु स्वर्णिम, गुनगुनी अति नीक आग ।
भोर में भिनसार की, कहती किरण अब जाग जाग ।।
कूकती कोयल मधुर स्वर, गा रही है प्रीत राग ।
आहटें देने लगे हैं, मंजरी सतरंग फाग ।।

आ रही अब ऋतु सुहानी, हो रहा है शीत अंत ।
चल पड़ी शीतल सुगन्धित, है पवन आया वसंत ।

गा रहा पीहू पपीहा, खोलता ज्यों प्रेम- राज ।
मोर नाचे बाग में, पूरा किए श्रंगार साज ।।
पीत पट पहने धरा भी, ओढ़ धानी रंग आज ।
गूँजती कल-कल नदी की, छन-छनकती बाज बाज ।।

है मनोहर शोभना, -धरती सजी दुलहन दिगन्त ।
चल पड़ी शीतल सुगन्धित, है पवन आया वसंत ।

बाग में भँवरे उड़े, गु़नगुन करें होकर मलंग ।
आम पर है बौर आया, तितलियाँ उड़तीं अनंग ।।
खेत में जौ-बालियाँ, सरसों लहकती ले तरंग ।
झूमती पुलकित प्रकृति, भरती नई अनुपम उमंग ।।

हो रहा प्रखरित परम सुख, रूप मौसम का सुखंत ।
चल पड़ी शीतल सुगन्धित, है पवन आया वसंत ।

बाग में पक्षी चहकते, छा रहीं खुशियाँ अनंत ।
चल पड़ी शीतल सुगन्धित, है पवन आया वसंत ।
#,,, _
मेधा.
"स्वरचित"

-मेधा नरायण.

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