Thursday, February 7

"डोर/पतंग "06फरवरी 2019

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             ब्लॉग संख्या :-291

अदृश्य धागे का एक डोर
बंध संबंध अंबर का छोर
इतराती पल-पल पवन संग
बड़ी निर्भीक निच्छल पतंग
माँझे में कोई कटु अपमिश्रण
हुआ क्षीण डोर,अस्तित्व क्षरण
इस डोर से फिर ऐसे टूटे पतंग
अरे अब अधर में कैसे लूटे पतंग
अवलंब कहीं जो किसी डाल पर
कुछ पल मचलकर निज हाल पर
दिभ्रमित करते पवन के झोंके
कौन सी पात यहाँ जो इसे रोके
बंधा नेह डोर जबतक अचल 
परिमल पवन ही सुखद संबल 
संबल सारे संग छोड़ चले
धागे को जो ये तोड़ चले
कितना निरुपाय,है निराश्रय
कुछ पल में ही बस जीवन क्षय
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
विषय - डोर ,पतंग

डोरी पतंग
उड़ती लहराती
नीला आकाश

जीवन डोर
साथिया प्रियतम
अटूट रिश्ता

मन पतंग
विचारों का आकाश
ऊँची उड़ान

कटी पतंग 
हृदय विचलित
आहत मन

डोरी बन्धन
रसरी जकड़न
तन बेचैन

सरिता गर्ग
स्व रचित


कटी पतंग हूँ तेरे हाथों से,
प्रभु पकड लें यही चाहता।
माया की कट जाऐ डोरी,
आप जकड लें राम चाहता।

मनमंदिर ईश बन जाऐ मेरा।
नहीं कषायों का होऐ अंधेरा।
डोर कटे गर भवबंधन की तो
सुखद जीवन हो आऐ सबेरा।

कटी पतंग कभी नहीं उड पाती।
फटी पतंग क्या कहीं जुड पाती।
टूटी फटी पतंग डोरी भी कटी तो,
किसी काम में भी नहीं जुट पाती।

जीवन पतंग सोंप दी तेरे हाथों में,
जैसा चाहो तुम अब इसे उडा लो।
मै असक्त हुआ अब हे अखिलेश्वर,
जीव पतंग जहाँ जी चाहे झुला लो।

स्वरचितःःः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.

उड़ता है जन मानस
किसी पतंग की तरह
सपनों की रँगीली दुनियाँ 
में खो जाता है ।
नही सुन पाता किसी बेबस
के ह्रदय का चीत्कार,
सिर्फ अपनी 
सौंपता है मर्जियाँ
उनपर,,,,,
चाहे अनचाहे ,
टूट ही जाती है
डोर
,रंगीन सपनोँ की पतंग
धराशायी हो ही जाती है
शायद किसी गरीब की 
हाय,,
उसे ले डूबती है,,,.,।
____==______=_=
उपमा आर्य,लखनऊ

हम पतंग उडाकू और है
नहीं दिखता संभाले बहुत् है
आसमान से बातें करते हम
प्रभु जग तेरी कृपा बहुत है
पवन झांकोरो से खेले नित
पँहुचे सदा गगन उत्तुंग
धरती पर संक्रांति पर्व पर
अतिशय थाप पड़े मृदंग
हम पतंग अस्तित्वहीन है
नहीं स्वतंत्र अति दीन हैं
रंगबिरंगा लगा मुखौटा
कब कट जांय यही पीर है
खगकुल से नित वार्ता करते
करते हैं आपस मिल होड़
रहते मिलकर दूर गगन में
पतंग पतंग ही देती है तोड़
अपनों से अपनों का डर है
कभी अमीय कभी गरल है
बोलो किसको अपना समझें
सबसे बड़ा तो यही कहर है
परमपिता ने अति स्नेह से
प्यारी सुन्दर पतंग बनाई
रंगबिरंगे सुन्दर रंग से
कर कमनीय उसे सजाई
वह् रक्षक है भक्षक नहीं है
क्षीण हीन जाना पड़ता है
चाइना का मांझा विफल है
माया मोह से मुक्त करता है
स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम

जिन्दगी उड़ती हुई पतंग है
डोर है तो हवाओं से जंग है ।।
हमने जोड़ रखी प्रभु से डोर
उसीसे पुलकित अंग अंग है ।।

प्रभु इस पतंग की रखना लाज
तुम से ही तो है इसमें परवाज़ ।।
कब तक कैसे उड़ेगी नही पता
नही छोड़ना कभी इसका साथ ।।

कितना यहाँ हवाओं ने बदला रूख
सब सहे न तुमसे कभी हुये बिमुख ।।
डोर तुम्हारी ही तो है यह ''शिवम"
नतमस्तक मैं रहूँ सदा तुम्हरे सम्मुख ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 06/02/2019

🍁
वो डोर से टूटी पतंग,
गिरती सी आसमान से।
जाने कहाँ ले जाएगी,
दुर्भाग्य या सौभाग्य से।
🍁
नन्ही कली सी वो पंतग,
बाँधा सा जिसको डोर से।
जा जी ले अपनी जिन्दगी,
थामा हूँ तेरी डोर को ।
🍁
आकाश मे उडने लगी,
निर्भीक वो लगने लगी।
बाबुल ने पकडा डोर है,
निश्चिन्त वो उडने लगी।
🍁
वो भूल करके जिन्दगी,
उन्मुक्त सी बहने लगी।
वो बादलो के पास थी,
वो डोर संग उडने लगी।
🍁
निश्चिन्त थी वो भाव से,
दुनिया के रीति-रिवाज से।
कुछ मनचले से थे पतंग,
भरने लगे उसे बाँह मे ।
🍁
पहले डरी फिर उड चडी,
विश्वास मे ऐसे पडी।
बाबुल ने खींचा डोर पर,
विश्वास से वो ठग गयी।
🍁
वो डोर से ही कट गयी,
जाने कहाँ पे वो गिरी।
कुछ ने तो थामा डोर पर,
कुछ को तो चिथडो मे मिली।
🍁
कविता मेरी ना पूर्ण है,
मन शेर कुछ अधीर है।
लिखना था डोरी/पंतग पे,
पर भाव ना परिपूर्ण है।
🍁

स्वरचित ... Sher Singh Sarraf



जब तलक 
जुड़ी हैं 
जिन्दगी , सांस से
उड़ती है पतंग 
आसमां में 

अनजान जगह

अनजानों के बीच 
उड़ती है पतंग 
बैरानी सी आसमां में 

देखती आसमां से 

पतंग
दुनियां की बेवफाईयाँ
सब तरफ है 
लूट खसोट और
हैवानियाँ 

अपनी ऊँचाईयों पर 

इतना मत इतरा 
ऐ इन्सान 
डोर जब तलक 
जुड़ी है
उड़ती रहेगी 
ये पतंग
न जाने कब 
कट जाऐगी
डोर जिन्दगी की और
गुजारेगी
गुमनाम जिन्दगी 
ये पतंग

स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव 

भोपाल 

कब कट जाए डोर

भरोसा नहीं

पतंग...इक लफ्ज़...
या ज़िन्दगी का गूढ़ रहस्य...
हमेशा मेरे विचारों में....
उथल पुथल मचाता रहा...
खंगालता रहा मुझे...
और मैं...
उड़ता रहा....
भावों के पंखों पे सवार...
जानने के लिए... 
पतंग उड़ती कैसे है... स्वछन्द...
कैसा लगता होगा...इसे...
अबोधपन कहो या जिज्ञासा...
कुछ भी कहो आप...
पर मैं पतंग को जानना चाहता था...

बचपन में पतंग बनाना....
फिर उड़ाना...
एक दूसरे की काटना...
कटी पतंग को लूटना...
मजा आता था....
अबोधपन था शायद....

जवानी में जोश संग...
बहुत ज़ियादा समझ आ गयी...
अपने मन को...
पतंग की मानिंद उड़ाने लगा...
देह को संवारने लगा...
रंग बिरंगे वस्त्रों से...
कभी वस्त्र कम कर दिए...
कभी शरीर पे रंग बिरंगे चित्र बना...
'पतंग' सजा 'मैं' खूब इतराया....
अब 'पतंग' पतंगा बन गयी...
बहुत उड़ी यहां वहां...
सब ने अपनी मर्ज़ी से तुनके मारे...उड़ाया...
बहुत मजा आया....
फिर... जब कटी... होश आया...
याद आया दूसरों की पतंग...
काट कर मजा लेने का हश्र....

संभाला... खुद को...
फिर... घर गृहस्थी में....
अपने को भगाता रहा...
उड़ कर कटूंगा एक दिन...
जानता था... फिर भी उड़ा...
मजबूरी थी... कर्तव्य था...
या कहीं विश्वास कि शायद...
मेरे साथ मेरा परिवार...'पतंगें'...
मुझे थाम लेंगी....पर...
फिर कटा...धड़ाम से...
होश आया तो पाया...
मेरी डोर तो मेरे हाथ नहीं थी...
रे मना...फिर क्यूँ उड़ा...

डोर...
मैं पकड़ रखने के काबिल नहीं था...
मन रुपी पतंग टूट चुकी थी...
डंडी कहीं तो डोर कहीं...

फिर एक दिन....
सधी आत्मा के सधे हाथ मिल गए...
मेरी 'पतंग' को 'डंडी' मिल गयी....
'साधक' ने डोर रुपी सांसों को...
मांजना सिखाया....
भावों की 'तनियों' का सामंजस्य बिठा...
आत्मा के संग जो गाँठ बाँधी....
'पतंग' को उड़ने का 'आनंद' आया...
समझ आया... 
सधी पतंग के उड़ने का...
'उस आसमाँ' में विचरण करने का...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
०६.०२.२०१९

कटी पतंग
गरीबों की जिंदगी
उतरा रंग।।


उड़ी पतंग
पीछे भागते बच्चे
भरे उमंग।।

बढ़ी पतंग
हम लड़ायें पेंच
छिड़ी है जंग।।

उलझी डोर
सुलझना मुश्किल
जैसे जिंदगी।।

जीवन डोर
परमात्मा के हाथ
ओर न छोर।।
भावुक
पतंग-सी है जिंदगी,
उड़ान बस भर रही।
डोर किसके हाथ है!
साधता इसे कौन है?
पेंच नए लड़ रही,
ख्बाव नए गढ़ रही।
छूती आसमान को,
कल्पना की उड़ान को।
भूल कर सत्य ये,
लक्ष्य से भटक ये।
इधर-उधर डोलती,
वक्त को है तोलती।
टूटता गुमान है,
छूटता आसमान है।
डोर छोड़ती है साथ,
फिर पड़े ये किसके हाथ?
जिंदगी पतंग -सी,
बंधी सांसों की डोर से।
टूटती सांसों की डोर,
पतंग को न कोई ठौर।
निष्प्राण हो कर पड़ी,
जिंदगी की रीत है बड़ी।
डोर का ही काम सारा,
पतंग तो है बेसहारा।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित
(1)
"डोर/पतंग"
वर्ण पिरामिड
1

मन
पतंग
डोरी संग
प्रेम बंधन
विश्वास पवन
चल दूर गगन
2
मैं
देखूँ
गगन
आस नैन
आस्था की डोरी
साहस बटोरी
एक कटी पतंग

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल

है मन पतंग जो उड़ चला,
थामे हसरतों की डोर।
हैं जो हौंसले बुलंद तो,
अवश्य आएगी भोर।

चाहे मार्ग अवरुद्ध हो,
या वक्त हो बाम।
रहना संग सदा तुम मेरे,
डोर को मेरी थाम।

समय कहाँ और कब रुका,
पल - पल छीजता जाता।
सबसे बड़ा गुरु यही,
जीवन का मोल बताता।

दो पल की ये जिन्दगी,
पल दो पल का साथ।
सुख - दुख में थामे रहें,
एक - दूजे का हाथ।

गम और खुशियाँ संग - संग,
हों जैसे नदी के तीर।
स्थिर रह बहता रहे,
दोनों बीच जीवन नीर।

स्व रचित
डॉ उषा किरण

आज प्रगति का बिगुल बजा है प्राची के अंतर में घोर।
आज अर्क ने पथ बदला है दक्खन से उत्तर की ओर।
तिल में जितना स्नेह भरा है मन में भी वही भरजाए-
ऊँचे ऊँचे ही हम जाएं जैसे हो पतंग की डोर ।
2
लगातार उड़ती रहे,जिन्दगी की पतंग।
बहुजन के हित छांव करसजती रहे मलंग ।
जन हित जग हित के लिए,न्योछावर निज कोष---
सदा ' हितैषी 'रूप हो, जैसे हो बजरंग।

******स्वरचित********
प्रबोध मिश्र 'हितैषी'
बड़वानी(म.प्र)451-551
जीव पतंग,
सांसों की डोर,

थामे,
वह वसुधा पर,
माया मोह के फांस,
सांसों की डोर थामे,
वह जीवन पतंग,
वह उड़ा रहा,
जीव उसके इशारे से,
उड़ रहा हे।
सांसों की डोर, 
जब तक मजबूत हो
जीव पतंग के संग,
पतंग बाज,
पतंग संग अपना,
मायावी खेल,
खेल ने में ,वह
मस्त खेल ता है।
जी्व रुपी पंतग,
मायावी हवाओं से,
जब कमजोर हो जाता है,
उसका खेल खत्म
समझ, चुपचाप,
हों कर अपनी
रचना संसार में फिर से
व्यस्त हो जाता है।।
स्वरचित रचना है
देवेन्द्र नारायण दास बसना छ,ग,।।
मैंपतंग बन डोर संग उड़ना चाहती हूँ
विस्तृत नभ को मापना चाहती हूँ
आज पचपन की उम्र में-
बचपन पाना चाहती हूँ!!
बच्चों को बहुत सिखाया..
अब उनसे कुछ नया -
सीखना चाहती हूं!
अब तक डर बंदिशों में 
गया जीवन-
अब खुलकर जीना चाहती हूं!
मौसम से आज रूप बदल 
रहे है --- रिश्ते...
उन तमाम रिश्तों में 
गर्माहट लाना चाहती हूं !
एक अरसे की तमन्ना 
कुछ मुरझाये चेहरों पर 
मुस्कान लाना चाहती हूं!!
गए साल जो गलत किया
उसे सुधारना चाहती हूं...
भले ही साल दर साल
उम्र चुकती जा रही है
पर अभी मेरी 'उड़ान बाकी है' !!!

जिंदगी की पतंग
कि डोर कभी टूटे नहीं 
किसी की भी ।
प्रभु इतनी दया रखना 
तुम्हारा साथ कभी छूटे नहीं 
किसी की भी ।
जीवन चक्र चलता रहे 
दुख में , सुख में , मानव 
अच्छे कर्म करता रहे 
इसी जीवन में , तुम्हारा हाथ 
सिर से कभी हटे नहीं 
किसी के भी ।
नादानियां हम करें नहीं 
सन्मति इतनी देना तुम 
लक्ष्य हो , उद्देश्य हो जब 
भी उठे हाथ , परोपकार 
कर सकें , लाचार , असहाय 
की मदद करने से हम कटे नहीं 
किसी की भी । 
जिंदगी की डोर ......कभी टूटे नहीं 
🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼
तनुजा दत्ता (स्वरचित )
बुधवार
💐💐
मैंपतंग बन डोर संग उड़ना चाहती हूँ
विस्तृत नभ को मापना चाहती हूँ
आज पचपन की उम्र में-
बचपन पाना चाहती हूँ!!
बच्चों को बहुत सिखाया..
अब उनसे कुछ नया -
सीखना चाहती हूं!
अब तक डर बंदिशों में 
गया जीवन-
अब खुलकर जीना चाहती हूं!
मौसम से आज रूप बदल 
रहे है --- रिश्ते...
उन तमाम रिश्तों में 
गर्माहट लाना चाहती हूं !
एक अरसे की तमन्ना 
कुछ मुरझाये चेहरों पर 
मुस्कान लाना चाहती हूं!!
गए साल जो गलत किया
उसे सुधारना चाहती हूं...
भले ही साल दर साल
उम्र चुकती जा रही है
पर अभी मेरी 'उड़ान बाकी है' !!!
कुछ धुंधला सा परतों में दबा
भूला भूला याद आता है।
छत पर मेरा यूँ दबे पाँव आना 
फिर तुम्हारा मुस्कराना याद आता है।
पतंग की डोर तुम थामे खड़े
पीछे मुड़ देखना तुम्हारा याद आता है।
तुम पतंग को ऊँचाइयों पर ले जाते रहे
मेरा डोर को ढील देना याद आता है।
पेंच लड़ते रहे तुम्हारे हवा में
वो चरखी धीरे धीरे घुमाना याद आता है।
पतंगों पर विजय और वर्चस्व का तुम्हारे
वो फसाना याद बहुत याद आता है।
साथ जो देखे थे सपने उड़ने के 
छन से टूटना उनका आज भी दिल तोड़ जाता है
पतंग कब जा गिरी किसी और आँगन में
पल पल रिसता घाव अब भी याद आता है
वर्षों बाद जब भी पतंग देखी है 
जीवन का बीता रंगीन सफर याद आता है
नसीब में ना था हमारा मिलना
जीवन डोर अब छूटने को है
रूह का रूह से मिलन याद आता है ।

स्वरचित
अनिता सुधीर श्रीवास्तव

सप
नों की उड़ती जब पतंग
तो मेहनत की डोर लाती रंग
ठुमके प्रगति के भरती उमंग
सफलतायें भी होती संग।

डोर मेहनत की ना हो कच्ची
पूरी लगन हो बिल्कुल सच्ची
प्रयासों की हवा चलती ही रहे
न होगी उड़ने में माथापच्ची।

आकाश में स्थान चाहिए 
धरती पर मकान चाहिए
तो डोर और पतंग के लिये
ऊँचा सदा अरमान चाहिए।

कुछ भी कच्चा नहीं चलेगा
ऊँचाई पर सच्चा ही चलेगा 
धडा़म से गिरेगा ऊँचाई से झूठा
वहाँ पर गच्चा नहीं चलेगा।
"शीर्षक-डोर/पंतग
आसमान छूनो को व्याकुल है पंतग

बोले अपनी डोर से कुछ ऐसी वह व्यंग्य
क्यों उलझ गये हो तुम?
क्या मुझसे डर गये हो तुम

जल्दी अपनी उलझन सुलझाओ
मुझे अपनी मंजिल पहूचाँओ
सुन पंतग की ऐसी बात
डोर ने बोली सिर्फ एक ही बात

धर्य रखो और रखो अपनो पर विश्वास
तभी तुम छू सकोगे आसामान
सुन डोर की सुंदर बाते
पंतग ने समझी सारगर्भित बाते।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
डोर/पतंग"
लघु कविता
पतंग पे लिखकर दिया संदेशा
बाधकर डोरी माँ तूझको भेजा।

संदेशा पढ़कर माँ तू लौट आना
मेरा हाथ पकड़ सबको दिखला देना

मैं तो हूँ तेरा राजदूलारा 
दुनिया को यह बतला देना

रातों को मैं जागता रहता
आकर मुझे लोरी सुना देना

पूछते रहते मेरे बंधु सारे
तेरी माँ गई है कौन से द्वारे

सूनी अँखियाँ आकाश निहारे
अब जल्दी ही तू लौट आरे।

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल

विषय-डोर /पतंग
1. पागल मन
मन मतंग रिश्ता
सिसक रहा ।
2. आत्मा की डोर 
कटि पतंग मन
भटकी राह
3. सांसों की डोर
धँस गयी धरती 
तड़पे राम ।
4. कोरा जीवन
कागज की पतंग 
बहते नाले ।
5. जीवन डोर 
हैं हाथ किसी और 
नाजुक रिश्ता ।
स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा 'निश्छल',
#स्वरचित कविता 

परवरदिगार!
मेरे करतार!
तू डोर मेरी मजबूत
मैं हूं पतंग
कमजोर बड़ी 
उड़ पाऊं 
तेरे ही संग 

मेरा अंकुश
तू बने सदा
सीखूं जीने का ढंग
पाखी सी बनकर 
धरती पर
हो जाऊं रंग बिरंग

हो साथ मेरे
नभ को छू लूं
खुशियों के झूले
में झूलूं
परवाज मेरी
ऊंची लखकर
दुनिया रह जाए दंग

______
डा.अंजु लता सिंह 
नई दिल्ली

उड़ती मन पतंग सुध बुध बिसार आगे आगे सबसे आगे बादलों के पार अम्बर की ओर 

जीवन की डोर रखती संयम कभी लहराती कभी तन जाती मंडराती कभी भाव विभोर |

ये पतंग लिऐ रंग हजार हर पल बुने सपनों के जाल खुशियों की चाहत में बड़ी बेकरार |

जाने मगर माने नहीं कटना ही सत्य टिकना नहीं चलती चले हारे नहीं वो जीवन से हार |

जब तक जियो उडते रहो लक्ष्य को छोडो नहीं आकाश से मिलना ही है फिर कैसी हार |

स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश ,

कटी पतंग सी है जिंदगी,
लड़खड़ाती डगर डगर।
कमजोर सी होती रही,
डोर सांसों की पहर पहर।

कटी पतंग सी है जिंदगी..
उलझी मोह के जंजाल में।
फड़फड़ाती पंख गोरैया,
जैसे बहेलिए के जाल में ।

कटी पतंग सी है जिंदगी,
खो जाती हवा के बहाव में।
उपवन की कली हो जैसे,
मुरझाती पानी के अभाव में।

स्वरचित :- मुकेश राठौड़
-----🔷🔷------
मन एक पतंग
आशा की डोर बंधी
ख्वाहिशों को 
साथ लेकर
मंज़िल की ओर उड़ी
चाह है गगन छुए
हवाएं रुख़ बदलती
विचारों के धागों में
जाकर कहीं उलझती
पर फिर भी
हौसला न छोड़ती
लहराती, 
डूबती-उतरती
मजबूत होती 
आशा की डोर
विचारों के बादलों से
सदा ही इसकी होड़ है
ज़िंदगी की 
हलचलों पर
नहीं चले किसी का जोर
मजबूत हो गर 
आशा की डोर
रुख़ पतंग का मोड़ दे
हवा चले जिस ओर
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित रचना
विधा=हाइकु 
~~~~~~~~
(1)जीने की राह 
छू लेगी आसमान
कर्म की डोर 
🌹🌹🌹
(2)डोर जीवन 
हाथ से छूटी आज
ईश्वर थामें
🌹🌹🌹
(3) पतंग मे भी-
गला काट हो रही
प्रतियोगिता 
🌹🌹🌹
(4)आत्मा पतंग 
काटने बैठा यम
सांसों की डोर
🌹🌹🌹
(5)कवि उड़ाता
साहित्य के आसमां 
शब्द पतंग 
🌹🌹🌹
===रचनाकार ===
मुकेश भद्रावले हरदा 
06/02/2019

ंद हाइकु 
विषय:-"पतंग" 

पतंग
(1)
साँसों की डोर 
पतंग सा जीवन 
ईश्वर हाथ 
(2)
"पतंग"बोली 
सपनों को दे ढील
खोल चकरी 
(3)
विश्वास डोर
मित्रता की"पतंग"
तूफाँ में संग
(4)
यादें ही हाथ
बेटी कटी "पतंग"
घर उदास
(5)
"पतंग" बन
चाँदनी की डोर से
उड़ता चांद
(6)
रिश्तों को खोया 
स्वार्थ काटे पतंग 
दुःख लपेटा
(7)
दुःखी पतंग
ईर्ष्या ने लड़ा पेच 
मिट्टी में प्रेम

स्वरचित 
ऋतुराज दवे
विधा :- पद्य 

जीव पतंग और ब्रह्म डोर है ,
उसकी इच्छा से उड़ता रहता ।
इशारे देता डोर खींच कर ,
प्राणी वैसे ही मुड़ता रहता ।

जीव खिलौना उसके हाथ का ,
खेल खेलता और देता तोड़ ।
माला साँसों की जब तक चलती ,
हाथ से धागा नहीं देता छोड़ ।

मसलें तितलियाँ लड़के आवारा ,
उसको वैसे ही हैं हम प्राणी ।
हर्ष विषाद से निर्लिप्त ब्रह्म है , 
माया जीव नहीं समझे अज्ञानी ।

पतंग समान जीव अहंकारी , 
सिर ऊँचा कर उड़ता व्योम में ।
कटी पतंग है कब बन जाना , 
होगा जीवन का अंत होम से ।

जड़ चेतन पर रहे आच्छादित ,
केवल ईश की ठगिनी माया ।
डोर खींच नचाता कठपुतलियाँ ,
प्राण विहीन कब कर दे काया ।

हाड़ मास नाड़ी का पींजरा ,
सुग्गा जीव बीच बँधा डोर से ।
मुक्त आत्मा जब करता ब्रह्म है ,
उड़ जाए सुग्गा बिना शोर के ।

स्वरचित :-
ऊषा सेठी 
सिरसा 125055 ( हरियाणा )
आज फिर मैंने यादों की पतंग 
फलक पर ख़ुशी से लहराई हैं 
देखकर इन रंग बिरंगी पतंगों का नजारा 

फिर याद आ गया मुझे बचपन सारा .

देखकर ये फलक का खूबसूरत नजारा 
मिल गया मानो फिर से मुझे बचपन प्यारा 
लहराती रही मैं फलक पर यादों की डोर 
मन मेरा झूमने लगा बनकर भोर .

मन मेरा गाने लगा झूमकर 
ह्रदय की खुशियां पतंग बनकर उड़ने लगी 
आरजू की पतंग हौसलों की डोरी संग 
मिल गया जैसे एक पल के लिये प्यारा बचपन .

फलक पर पतंग लहराकर मन को बहला लिया 
पतंग की डोर बचपन को फिर से याद कर लिया 
मन के अहसासों को फिर बचपन बनकर जी लिया 
मन को जैसे फिर से कोई नया सुकून मिल गया .
स्वरचित:- रीता बिष्ट
उम्मीदों सी उड़ती है यह पतंग भी
विश्वास के खुले ऊँचे आकाश में
लेकर अपनी तकदीर की फिरकी में

मंजे हौंसलों का मजबूत मांझा लेकर
नजर बस रखना इसकी ऊँचाई पर
देना देखकर इसको ढील
बुरी नजरों के है बहुत पेंच यहाँ
कामयाबी उड़ती सबको है अखरती
विनम्रता बनाये रखना जितनी ऊँची हो उड़ान
हर पतंग यही समझाती गिरते वक्त नहीं लगता
अपना संयम अपने प्रयास सब रखो नजर संभाल
ना फिर कटेगी पतंग और ना तेरे हौसले बेशुमार
-----नीता कुमार


विश्वास डोर 
उमंग की पतंग 
ह्रदय नभ 


ऊँची उड़ान 
अरमान पतंग 
दूर गगन 


प्रभु के हाथ 
आस्था की है पतंग 
प्राणों की डोर 


विश्वास डोला 
कटी प्रेम पतंग 
ढीली जो डोर 


छोटी पतंग 
बड़ी ऊंची उड़ान 
आशा की डोर 

(स्वरचित )सुलोचना सिंह 
भिलाई
तुम पतंग मै डोर पिया जी, 
एक दूजे के छोर पिया जी, 
संग संग चलेंगे जीवन भर,
मै साँझ तुम भोर पिया जी ll

मेरे दिल के तुम चोर पिया जी, 
काहे जमाते ज़ोर पिया जी, 
दो दिल और एक जान है हम, 
मै चाँद तुम चकोर पिया जी ll
कुसुम पंत "उत्साही "
स्वरचित 
देहरादून


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"अंदाज"05मई2020

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