Monday, February 11

"ज़हर "11फरवरी 2019

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             ब्लॉग संख्या :-296
इक प्याले मे दूध लिए,
पत्नी आयी, मुस्कायी ।
तुमको मेरे प्राणनाथ,

नाग पंचमी की बधाई ।
🍁
पी लो हे प्रिय नटराजा के,
जहर ही तेरी वाणी है।
एक वर्ष मे एक बार ही,
विष मे धार लगानी है।
🍁
क्यो मै ढूँढू अन्य नाग को,
जब मै तुम संग ब्याही।
जन्म- मरण और पाप-पुण्य,
सब तुमरे ऊपर वारी।



विधा- कविता
*************
जिन्दगी जीना कठिन हो गया है, 
सांस लेना दूभर हो गया है, 
दम अब घुटने लगा है, क्योंकि
हवाओं में जहर घुलने लगा है |

इंसान तो बस पुतले से लग रहे हैं, 
पैसे के पीछे भाग रहे हैं, 
नहीं किसी को किसी की फिक्र, 
रिश्तों में जहर घुलने लगा है |

प्यार की अहमियत न रही कुछ, 
अहंम तो सिर चढ़ बोल रहा है, 
व्यवहार में सौम्यता नहीं दिखती, 
वाणी में जहर घुलने लगा है |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*

  

पता नही कहाँ जिन्दगी की शाम हो जाये 
कहाँ अमृत कहाँ जहर तेरे नाम हो जाये ।।
कोई नही जान पाया यहाँ जिन्दगी को
कब अच्छे का भी बुरा अन्जाम हो जाये ।।

बड़े बिचित्र हैं जिन्दगी के मोड़
यहाँ एक नही हजारों हैं कोढ़ ।।
टूट ही जाता है इंसान एकदिन
जब अपना ही देता पंजा मरोड़ ।।

तब लगती यह जिन्दगी जहर
मुश्किल से गुजरते शामोसहर ।।
सिवाय ईश्वर के कोई न 'शिवम'
भजले उसीको लेले उसकी मेहर ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 11/02/2019

गरल सरल नहीं जीवन मे
फिर भी तो पीना पड़ता है
संघर्षों से सदा जूझता नित
वह नर जग आगे बढ़ता है
परोपकार जग हित ही
नील कंठ महादेव बने
लेने से पहले जग देना
फिर जीवन वितान तने
आस्तीन में नाग पल रहे
उठकर नित जन को मारे
करें खात्मा कैसे उनका
दूध पिलाकर हमने पाले
जहर जहर को जहर दबाता
जो सोए जग उन्हें जगाता
जीवन मे निष्कर्म सदा ही
इस जीवन को सदा सजाता
जहर का प्याला मीरा पी गई
गिरधारी की प्रिय बन गई
यमराज संघर्षरत सावित्री
सतीत्व इतिहास बन गई
निज कर से हँसते हँसते
परहित पीते सदा गरल
निज अहम बोध भूलते
जीवन बनता सदा सरल
जहर मौत है सब डरते हैं
नर श्रेष्ठ पीड़ा ही सहते हैं
शुद्ध कर्म पर डटे रहो बस
रोते हँसते सब मरते हैं।।
स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम।


जहर विहीन हो जाऊँ प्रभु मै,
नहीं कभी इसके बीज भी आऐं।
पिया हलाहल जैसा शंकर ने,
सदबिचार शिव शंम्भू घर आऐं।

भरा क्रोध मेरे मन अंतस में,
प्रभु सारा गरल निकल जाऐ।
नहीं रहें मोह लोभ मानस में,
तभी जीवन निर्मल बन पाऐ।

क्यों बिष वेल उगी मेरे मन में,
कारण कुछ समझ नहीं पाया।
नहीं निश्छल सरल हृदय बना,
अबतक भेद समझ नहीं आया।

कुछ परोपकार पुरूषार्थ करूँ मै।
सद्व्यवहार कुछ परमार्थ करूँ मैं।
जिऊँ सदैव स्वाभिमान से अपने,
सुन सदोपदेश सब भावार्थ गहूँ मै।

नहीं कलंकित हो ये जीवन मेरा,
सिर्फ विश्वबंधुत्व लक्ष्य हो जाऐ।
कहीं तोड सकूँ बिषदंत अपने मैं,
मलिन हृदय साफ स्वच्छ हो पाऐ।

स्वरचितःःः 
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.


न मंजिल है न , है कोई सफर अब। 
न पाने का है न, खोने का डर अब। 


क्या हम कहें औरो का क्या हाल है।
रहती नहीं हमें खुद की खबर अब।

चलो उनको अपना ठिकाना मिला। 
किसी तरह जिन्दगी होगी बसर अब।

वादा है तुमसे न तुमको चाहेंगे हम। 
शर्त हैं ख्वाबों में न आना मगर अब।

उनसे बडी मुश्किलों से हुई दोस्ती। 
जमाना हुआ है, दुश्मन मगर अब। 

मै क्या करूँ जिक्र उनके सितम का। 
क्या हाले दिल क्या हाले जिगर अब।

पी गया हूँ गमों गुस्सा मै सब्र करके। 
पीने को खाली बचा है ज़हर अब।

विपिन सोहल

ग़ज़ल,
ग़म के ज़हर पीया कीजिए,
जीवन गीत लिखा कीजिए।।१।।
सूरज जैसा चला कीजिए,
सच के सांचे ढला कीजिए।।२।।
कहां तक जाना कौन जाने,
जीवन का सफर चला कीजिए।।३।।
छेड़ी है ग़ज़ल बादल ने,
फूल सा तुम महका कीजिए।।४।।
प्यार करके देखो सबसे,
चांद बनके आया कीजिए।।५।।
झोपड़ों को बस अंधेरा मिला,
रौशनी के लिए लड़ा कीजिए।।६।।
ख़त मुझको ही लिखा कीजिए
मेरी ग़ज़लें पढ़ा कीजिए।।७।।
स्वरचित देवेन्द्र नारायण दास बसना छ,ग


जहर सी है जिन्दगी, अमृत सा है मां का प्यार।
धूप सी है जिन्दगी, छांव सा है मां का प्यार।।
ईश्वर प्रदत्त शायद, यही सर्वोत्तम उपहार है,

पहली खुशबू,पहला अहसास है मां का प्यार।
धैर्य, ममता की पुंजी, सहनशीलता की कुंजी है,
हौसलों की एक सही मिसाल है मां का प्यार।
 जो भी मांगोगे मिल जाएगा वैगेर किसी ना-नुकुर के,
भानुमती का अदृश्य पिटारा है मां का प्यार।
असफलता में भी होता है सफलता का गुमान,
बिगडी हर बात बनाने वाला होता है मां का प्यार।
नामुमकिन इस अहसास को शब्दों में कह पाना,
ऐसा दुआओं का अखंड भंडार है मां का प्यार।
निलम अग्रवाल, खड़कपुर

जहर जुबां का ढाता कहर,
जिंदगी होती दोजख और बेजार।
टूटते दिल शब्दों की मार से,
तीर और तलवार से भी,
तेज होती इनकी धार,
पनपतीे विष की अमर बेल ।
सोखती जीवन का रस,
सूख जाता प्रेम का वृक्ष।
संबंधों में घुलता जहर,
इंसान बेमौत जाता है मर।
दिल पर लगे घाव बनते नासूर,
जिंदगी होती जाती है बेनूर।
अपनी ही लाश को,
ढोता है आदमी..!
रहती सदा उसकी, 
आंखों में नमी ...!
सर्प भी शर्मसार हैं,
इंसान के विष से..!
सुनते हैं जब,
ऐसे जहरीले किस्से।
उगलता जहर इंसान!
वातावरण बनता है जहरीला।
इंसानियत का मुंह भी,
पड़ जाता है पीला।
घृणा,द्वेष,ईर्ष्या निंदा का ,
जहर उगलता।
दिल उसका पत्थर का 
जो नहीं पिघलता।
प्रकृति भी इंसान के,
जहर से न बची।
संस्कृति भी बेचारी ,
घुट-घुट के मर रही।
कैसा जहर ये ...!
जिसका न तोड़ है।
काल से लगाई ...!
इसने होड़ है।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित

साँप ज्यादा जहर भरा है
इन्सान में 
अपना बन कर काटता है
आस्तीन में ही छिपा रहता है
इन्सान की

भाई, भाई के लिए 
उगलता है ज़हर 
फिर डसता अपने ही 
परिवार को

सास - बहू की जहरीली नौकझौक से
दिल हो जाता है तार तार
हर कोई जहर खिलाता 
रहता है बार बार

हाँ जहर तो मारता है
एक बार 
रिश्तों के जहर मारते है
जिंदगी भर

जहर बदनाम हो कर भी
है वफादार 
इन्सान वफादारी का ढोंग 
करते हुए भी 
है बदनाम

स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव 
भोपाल

========
(1)शब्द जहर
बहुत विस्फोटक 
इंसान पास

(2)विष-अमृत 
समुद्र के मंथन
निकले दोनों 

(3)मात्रानुसार
औषधि उपयोगी 
धन्य जहर

(4)आज ज़हर 
किसी न किसी रूप 
पी रहा शहर

(5)फ़िजा में आज
फेक्ट्री का केमिकल 
घोले ज़हर 

(6)कुछ दरिंदे
निगाहों में जहर
भर घूमते

===रचनाकार ===
मुकेश भद्रावले 
हरदा मध्यप्रदेश 

घुलता जहर जब कानों में,
बढ़ती दरारें आशियानों में।
शब्द,शब्द बनते जहर तीर,
कराते बिखराव इंसानों में।

घुलता जहर जब कानों में,
खोता आपा इंसान अपना।
क्रोध के आवेश में जलता,
नहीं देखता पराया,अपना।

घुलता जहर जब कानों में,
नहीं इलाज है दवाखानों में।
भुलाकर रिश्तों को अपने,
फंस जाता झूठे अफसानों में।

दुश्मन होता भाई भाई का,
घुलता जहर जब कानों में।
खींच जाती है तब दीवारें,
खुशियों से भरे मकानों में।

स्वरचित :- मुकेश राठौड़




जहर बड़ा ही घातक होता है , ये जान सभी की लेता है ,

हमें भूले से नहीं इसे छूना है , अवचेतन मन ये कहता है |

बिषधर चंदन से लिपटा रहता है ,पर चंदन शीतल ही होता है ,

हलाहल से सब जग डरता है , पर एकत्रित इसे ही करता है |

वाणी में तो कभी चितवन में , कोई मुस्कान में भी इसे रखता है ,

जहर रिश्तों में छिपा कर रख्खा है, दिल में भी तो छुपा ये रहता है| 

अब मत पूछो कहाँ पर नहीं है ये ,जहाँ न चाहो वहाँ पर होता है ,

ये जल वायु खाद्यान वातारण में , चप्पे चप्पे में समाया रहता है| 

हर हाल में हम जी लेते हैं , हमें मर मर के जीने की आदत है |

जो संम्हल जायें तो अच्छा है , कौन अमर यहाँ पर होता है |

हम स्वस्थ्य रहें सानंद रहें , हमें चैन से जीने की लालसा होती है |

जीवन में कुछ सुधार हमें करने हैं , फिर अमृतमय जग हो जाना है |

स्वरचित , मीना शर्मा, मध्यप्रदेश ,

हाइकु
1
रिश्तों के बीच
अविश्वास जहर
खींचा लकीर
2
गम का आँसू
गालों पर लुढ़का
जहर सम
3
इसां का दर्द
जहर बेईमान
फैली बीमारी
4
वायु दूषण
जहर ही घोलता
त्रस्त जीवन
5
जहर वाणी
मन की दुर्बलता
घोले कटुता
6
ये कुसंस्कार
सामाजिक जहर
समझे कौन
7
नशे की लत
ग्रंथि हो रहे सुप्त
धीमा जहर

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल

विकास की मदिरा बना कर, 
फिर उसे दवा का नाम दिया,
मिलावट और प्रदूषण ने मिल, 
जीवन को जहर बना दिया... 

संस्कारों की होली जला, 
संस्कृति को बदनाम किया,
कहीं रिश्तों का करके खून , 
जीवन को जहर बना दिया...

महत्वाकांक्षाओं की बस्ती में, 
स्वार्थ ने घर बना लिया, 
मर्यादाओं को करके तार, 
जीवन को जहर बना दिया...

तंत्र लाचार,गरीब रहा गरीब 
नीति, मूल्यों का ह्रास किया 
विषमता के बीज बो कर 
जीवन को जहर बना दिया... 

स्वरचित 
ऋतुराज दवे


------------------
घुल रहा सांसों में जहर
जिम्मेदार तो हम ही हैं
खो रही रौनक फिजाएं
जिम्मेदार तो हम ही हैं
जहर भरी चलती हवाएं
क्यों करते अब परवाह
इंसान ही इंसान को मारे
नफ़रत का भरकर जहर
जहर बनकर नशा लील रहा
नौनिहालों का जीवन
कारखानों से बहते जहर ने
लीला नदियों का जीवन
कल-कल कर बहती नदी
अब आती गंदी नाले सी नजर
रासायनिक मिलावट से हुआ
खाना-पीना भी अब ज़हर
आतंकवाद का जहर लीले है
मासूम लोगो का जीवन
मर रहा है हर आम इंसान
भ्रष्टाचार का जहर है ऐसा
इस जहर को मार सके
वो तोड़ अब कहाँ से लाएं
इस जहर के कहर से तो
अब ऊपरवाला भी न बचाए
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित रचना

(1) ये प्रदूषण 
जीवन में कहर
घोले जहर

(2)
हैं नीलकंठ
महादेव शंकर
पीयें जहर

(3)
मीरा मगन
कृष्ण भक्ति लगन
पीये जहर

(4)
गंगा की धारा
गंदगी का कहर
घुला जहर

(5)
कटु वचन
हैं जहर समान
मिले न मान

स्वरचित *संगीता कुकरेती*


कोई भी सीमा नहीं ज़हर की
यह पीड़ा सारे आठ पहर की
यह जीते जी घोंट देती साँसें
यह विषैली हवा है कहर की।

वाणी में विष भरा पड़ा है
इसमें तो एक नरक गडा़ है
महाभारत उठा कर देखो
षड्यन्त्र भरा हर वाक्य सडा़ है। 

खाने के ज़हर की अपनी सीमा है
कोई तेज है तो कोई धीमा है
पर भाषा का ज़हर तो ऐसा है
जो मिटाती सारी गरिमा है।

सबसे कटु ज़हर है वाणी का
यही सबब है बड़ी नादानी का
ये साम्प्रदायिक दंगे छुआछूत
ये साक्ष्य है प्रगति की हानि का।


* काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह का बोलबाला
* इंसानियत संग हो रहा अजब घोटाला
* स्वार्थ भाव के बन रहे अनुरागी
* परोपकार की भावना ही त्यागी
* रिश्तों में चहुँ ओर दिखे छलावा
* विश्वसनीयता बस महज़ भुलावा
* धर्म आस्था का कैसे मान घटाया
* नक़ली बाबाओ ने जाल बिछाया
* पहन गांधी टोपी सफ़ेद खद्दरधारी
* दाँवपेचों में उलझी प्रजा बेचारी
* जाति संरक्षण मुद्दा संक्रमण झेल रहा
* आरक्षण के नाम पर जुआ खेल रहा
* छद्म वेश में खुले घूमते व्याभिचारी
* चरित्र कलंकित रोए अस्मत बेचारी
*ओछी मूल्यहीनता लाती विपत्ति
* अज्ञानता बन जाती है विकृति
* लेखनी तत्पर शब्द अव्यवस्थित
* कैसे करूँ ज़हर को परिभाषित
* समझ लो मानव हैं
* एक महा समुद्र
* अब करना होगा
* पुनः समुद्र मंथन
* जोराज़ोरी करते मानव अमानव
* ज़हर का प्याला पुकारता शिव
* चौदह रत्नों की हो फिर उत्पत्ति
* सफल जीवन मूल्यों की हो निष्पत्ति ।

संतोष कुमारी ‘ संप्रीति’ 
स्वरचित

1.
पानी जहर
कैसे बचे जिगर
हवा जहर
2.
जहरी नाग
आतंकवाद बना
गले का हार
3.
किसे दिखाऊँ
मन रमा जहर
कौन देखेगा
4.
जहर बना
रिश्तों बीच दीवार
विश्वासघात
5.
कलंक बना
उफान जहर का
आतंकवाद
6.
जहर बना
हमारी जिंदगी में
चरित्रहीन
7.
फैला जहर
मानव जिंदगी में
नशा बन के
8.
मीठा जहर
सिगरेट मदिरा
खैनी तम्बाकू
*********
अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर(झज्जर)
हरियाणा

1
जीवन विष 
मन है कलुषित 
मनु भ्रमित 
2
दारु जहर 
नवयुवक डूबे 
शामो सहर 
3
जहर घूंट 
श्याम धुन में रमी 
मीरा ने पिया 
1
धुंआ जहर 
शहरो में कहर 
साँसों का काल 
5
कच्चा जहर 
उत्तराखंड पीता 
काल समाता 
6
वाणी जहर 
कलह की है जड़ 
लाती है कहर 
कुसुम पंत उत्साही 
स्वरचित 

देहरादून

कविता (छंद मुक्त)
लोगों के ताने , 
कटु मुस्कानें, 
अलग-अलग सुर, 
घर-घर कलह, 
व्यंग्य बाण, 
कब मिलेगा त्राण, कैसे बचेंगे प्राण ।
रात विश्राम, फिर सहर, 
कब ठहरेगा यह कहर, 
जीवन में भर गया जहर, . कोई खैर न खबर! 
कुछ चैन से जीने दे ठहर! 
चांवल -चने-चून में पत्थर, 
घी में चर्बी दुध - यूरिया जहर! 
दवा में मिलावट, हवा में प्रदूषण, 
अफवाहों का बाजार गर्म शौषण ।
शराब से मौत, मिला हैं जहर, 
तम्बाकू गुटखा हर-गली शहर, 
महँगा जीवन सस्ता हैं जहर ।
किसी को मारता वाणी का जहर, 
डस ले किसी को जहरीला जानवर।
नहीं मरता जहर से यह चमत्कार, 
यही तो मिलावटखौरों का उपकार ।
स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा 'निश्छल',


विषमतियों का पीकर हलाहल
तुम बन जाओ भोले-शंकर
कष्टदायक है सेवा का गरल

तुम दूर करो दुखियों के कष्ट विकल
पी जाओ विपदाओं के हलाहल
नीलकंठ भोलेशंकर अनंत अनादि
बनो तुम करूणाकार हे प्रलयंकर
पीड़ा दर्द आपदाओं का कहर
रहा निःसहाय मानव ठिठुर
तुम बन गरमाहट पी लो यह जहर
समाज की कुरीतियाँ उगलती हलाहल
विषपान नहीं हर किसी को संभव
तुम उमापति बन आओ गरलपान कर 
नीलकंठेश्वर कहलाओ

-----नीता कुमार (स्वरचित)


जफा जहर 
दम तोड़ते रिश्ते 
अमिय वफा 


हे नीलकंठ 
सांप्रदायिक विष 
मूर्छित देश 


तरू ही प्राण 
जहर प्रदूषण 
गांव शहर 


विषैली बातें 
बेहोश होते रिश्ते 
जियेंगे कैसे 


घातक विष 
स्वार्थ की राजनीति 
मरता देश 

(स्वरचित )सुलोचना सिंह 

भिलाई


होले होले मिट्टी में दबे,
अंगारों सा धधकता ।
उतरता है जहर ,
तेरी बातों का,
कानों से आंखों के रास्ते,
रिसता है कुछ-कुछ हिय मे मेरे।
बिच्छू के डंक सा, 
चुभता है जैसे,
सिहरन हो बदन में,
जब भी घुलता है रक्त में,
मारता है लम्हा लम्हा,
यूं तो एंटी डॉट है उपलब्ध,
सारे अस्पतालों में।
इलाज सारे विषेले
जीव जंतु काटे का
इलाज होता.. कभी,
काश दिल के दुःखयारो का।
मीरा नहीं विष पी अमर हो जाऊंगी,
ना मैं शिवजी जैसी भोली,
कंठ में रख जगत कल्याणी बन जाऊं।
गरल मिला है मुझे..
गरल ही तुम पाओगे..
जाओ तरंगे मेरी हर जगह ,
पीछे अपने पाओगे।

नीलम तोलानी
स्वरचित।


विषय:-ज़हर 
वि
धा :-हाइकु 

प्रेम गह्वर
जुदाई का ज़हर 
मृत्यु ठहर 

हारा इंसान 
ज़हर संजीवनी 
रिक्त मकान 

रूप ज़हर 
अजगर का श्वास
बनाता दास

ज़हर घुला 
हवा संस्कारहीन
बुढ़ापा दीन 

धुँआ जहर
औद्योगिक लहर 
आठ पहर 
🌻☘️🌻☘️🌻

स्वरचित :-
ऊषा सेठी 
सिरसा 125055 ( हरियाणा )

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