Sunday, February 17

"मानवता "16फरवरी 2019

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             ब्लॉग संख्या :-301

💠अब और नहीं💠
मानवता की एक ही पुकार
अब और नहीं अब और नहीं
वीरों की शहादत और नहीं
दानवता का बढ़ रहा अत्याचार
कब तक सहेंगे पीठ पर वार
अब आमने-सामने हो वार
पुलवामा के हादसा देख
दहल गया पूरा हिंदुस्तान
वीरों की शहादत को देख
मानवता चित्कार कर उठी
अब और नहीं अब और नहीं
वीरों की शहादत और नहीं
पाकिस्तान को सबक सिखाना है
अब कड़े कदम उठाना है
मसूद अजहर के सिर पर
रखा है जिस-जिस ने हाथ
मिल के करो उसका बहिष्कार
उठो जागो हुंकार भरो
पाकिस्तान को जवाब दो
अब और नहीं अब और नहीं
आतंकवाद अब और नहीं
***अनुराधा चौहान***© स्वरचित
शहीदों व उनके परिवार को समर्पित 
****************************
प्रेषित शब्द - मानवता 
*********************
मानवता को भूल गया है आज मानव
बन बैठा है ख़ूँख़ार नर -संहारी दानव
ख़ून की नदियों में डूबा आज शैशव
राख की ढेरी में ढूँढता है खोया वैभव।

ऐसी उपज से धरती बंजर ही होती
बाँझ कहलाकर भी वो कभी न रोती 
ऐसे दिये की लौ की व्यर्थ है ज्योति 
रौशनी प्रदत्त जो घर को ही झोंकती ।

आसमान छूने की बातें करता इंसान 
ज़मीं पर खोज रहा है अपनी पहचान
निज स्वार्थ में मतिभ्रषट हुआ नादान
जुटा रहा अपने ही मौत का सामान ।

बहता ख़ून देख हमारे वीर जवानों का
शर्मसार हुई धरा देख तांडव हैवानों का
बेरहमी से घोटा गला माँ के अरमानों का 
वकत लेगा बदला इनके बलिदानों का ।

इनकी क़ुर्बांनी देखो कहीं बेमानी न हो 
माँ के इन लाड़लों का ख़ून पानी न हो
इनके नाम के फूल खिले,वीरानी न हो 
फिर से ह्रदय विदारक नई कहानी न हो ।

आगे बढ़े ,आओ मिलकर संकल्प करें
एकजुट हो शत्रुओं की कायाकल्प करें 
नित नई चुनौती बनें ,नया विकल्प करें
भारत भारती की रक्षा का दृढ़संकल्प करें ।
स्वरचित (c)भार्गवी रविन्द्र ....१६/०२/२०१९

विषय-मानवता
==========================

हम तो सदा ही मानवता के दीप जलाते हैं,
उदास चेहरों पर सदा मुस्कराहट लाते हैं।

हार मानकर बैठते जो कठिन राहों को देख,
हौंसला बढ़ाकर उनको भी चलना सिखाते हैं।

कर देते पग डगमग कभी उलझनें देखकर,
मन में साहस लेकर हम फिर भी मुस्कराते हैं।

मिल जाये साथ सभी का बन जायेगा कारंवा,
मिलकर आओ अब एकता की माला बनाते हैं।

लक्ष्य को पाने में सदा आती हैं कठिनाईयां,
साहस से जो डटे रहते सदा मंजिल वही पाते हैं।

राह रोकने को आती दिवारें सदा बड़ी-बड़ी,
सच्चाई पाने को अब हम दिवारों से टकराते हैं।

फैलायें आओ मानवता को मिलकर चारों ओर,
दुनियां को अपनी एकता आओ हम दिखाते हैं।
....भुवन बिष्ट
रानीखेत (उत्तराखण्ड




इन्सानियत से आदमी दूर कितना हो रहा है। 
खामखाँ में देखिये मजबूर कितना हो रहा है।


तोलती है आदमी को आदमी की हैसियत ।
मालो जर के नशे में चूर कितना हो रहा है। 

खुद को समझे है खुदा नादानियत देखिए। 
हैरान हूँ देखकर मगरूर कितना हो रहा है। 

बे - अदब माहौल है मगरबी सिलसिलो का। 
मुआशरा इन दिनों बेशऊर कितना हो रहा है। 

जुल्मी है जितना पापी है उतना बड़ा नाम है। 
देखिए तो आप भी मशहूर कितना हो रहा है। 

विपिन सोहल


विधा- कविता
**************
मानवता का पाठ पढ़ते-पढ़ते, 
हमने बिता दिये हैं सालों-साल, 
देश के दुश्मन को तो देखो, 
खुलेआम कर रहा नर संहार |

आस्तीन में ही सांप पल रहे, 
विष की बहने लगी है धार, 
अपनों में ही दुश्मन छुपा था, 
जो कर गया इतना बड़ा प्रहार |

मानवता कोई उसको भी सिखा दे,
जो कर गया हम पर पीछे से वार, 
दुश्मन को उसकी औकात दिखा दो, 
देश से निकालो उसको बाहर |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*


विधा लघुकविता
16 02 2019,शनिवार
मानवतावादी इस जग में
मीठे मधुर अमर फल खाते
स्वर्णिम अक्षर वे बनते हैं
भावी यश गान उन्हीं का गाते
मानव हो तो मानव बन लो
मानवता की ओर चलो
सत्य अहिंसा परोपकारिता
पुरुष से पुरुषोत्तम बन लो
भटके को सन्मार्ग दिखाओ
मातपिता गुरु जन की सेवा
सुख शांति संतोषी जीवन को
नित मिलते मिस्री और मेवा
राष्ट्र धर्म का पालन कर लो
तन मन धन वतन को अर्पण
जीवन चञ्चल एक बुलबुला
ज्ञान ध्यान है मुल्क समर्पण
दानवता मानवता द्विपथ
चयन आपको खुद करना है
आन बान शान से जीना
या दरिंदा सा बन मरना है
बैसाखी पर चलो कभी मत
बैसाखी जन जन की बन लो
कड़ी परिश्रम और लगन से
मोती माणक अंचल भर लो
मानव हित होती मानवता
जीवन गरल पीना पड़ता है
स्वंय हेतु तो सब जीती नर
पर हित जग आगे बढ़ता है।।
स्व0 रचित,मौलिक
गोविंद प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

विधा:-पद्य
🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻

सत्य अहिंसा का पथ छोड़ो ,
मानवता का कोट उतारो ।
लेकर मशालें प्रतिशोध की ,
दुश्मन को उसके घर मारो ।

कायरता अरु मानवता में ,
धरा गगन सम अंतर होता ।
मानवता का पहन मुखौटा ,
कायर क्षमाशीलता ढोता ।

विश्व विदित अहिंसा हमारी , 
क्षमा दान प्रतिशोध पर भारी ।
हम कायर न थे न होंगें कभी , 
दानवता सदा हमसे है हारी ।

कुत्सित कर्मों का तम फैला ,
अस्त हुआ सूरज मानवता का ।
पड़ोसी होकर हिंसा फैलाता ,
कुटिल कर्म करे दानवता का ।

भारत गुरु अहिंसा धर्म का ,
मानवता के अर्थ समझाता ।
देखे जब हिंसा दानव की , 
मानव भी दानव हो जाता ।

भारत के वीर सपूतो आओ,
दुश्मन को मानवता सिखलाएँ ।
विषदंत तोड कर अहि शत्रु के ,
फ़न कुचल कर वापिस आएँ ।

स्वरचित :-
ऊषा सेठी
सिरसा 125055 ( हरियाणा )


वक्त पर पहचान न पाया 
रिश्ता करीबी का कहाया ।।

यूँ तो शहरों में भीड़ बहुत है
इंसा मुश्किल से मिल पाया ।।

जब भी कोई राज्य हड़पा 
हाथ करीबी का ही आया ।।

मानव से अच्छे हैं परिन्दे 
छल कपट कभी न भाया ।।

मानव मानव को खा रहा 
दानव मानव में है समाया ।।

मानवता कलंकित हुई है 
डरा रही खुद की ही छाया ।।

संत तो अब चुप रहते हैं
असंत का जमघट कहलाया ।।

कोई डगर न सीधी शान्त 
हर डगर शैतां रौब जमाया ।।

धूल में मिल रही मानवता
जो बचाया 'शिवम'चोट खाया ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 16/02/2019

विधा "तांका"
(1)
कृष्ण मुरारी
क्यों मानवता हारी
बाकी है आस
दर्शन अभिलाष
सर्व कल्याणकारी।
प्रेम जगाओ
शांति,दया सद्भाव
हिय बसाओ
अनगिनत कंस
अब चक्र घुमाओ।
अज्ञान हर्ता
हे!धरा अधिवक्ता
मानव जाग
धर्म,ज्ञान हो श्रेष्ठ
सुकर्म सर्वश्रेष्ठ।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित

मानवता तब
चूर चूर हो गयी
जब लिपटे 
वीर जवान 
तिरंगे में 

दहशतगर्दों का
क्या है काम
इन्सानो की
इस दुनिया में 

क्या 
यह नहीं सोचते
मानवता के हत्यारे
उनके घर नहीं है
माँ बहन बेटी बहू
या फिर नहीं गूंजती 
उनके घर 
बच्चों की किलकारियां ?

शायद बिना
माँ के
पैदा हुआ था
" शैतान " है नाम उसका
सैनिकों अब बन जाओ
काल 
उन मानवता के 
हत्यारों के 

स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल


"मानवता" शीर्षकांतर्गत हायकु रचना का प्रयास--

(1)
बढ़ा उन्माद
"मानवता" कुंठित
व्यर्थ संवाद।

(2)
सोई जनता
कुहके "मानवता"
स्वार्थांध नेता।

(3)
स्वार्थ रोटी
"मानवता" सहमी
भावना सोती।
(4)
सीमा से पार
"मानवता" विचार
हुआ व्यापार।

(5)
रोए विकास
"मानवता" विकार
करो विचार।

(6)
रहे सद्भाव
"मानवता" विकास
सुखी संसार।

(7)
महके जग
"मानवता" सजग
सब कुशल।

(8)
जग उलझे
"मानवता" सुलझे
दिल समझे।

(9)
स्वार्थ त्याग
"मानवता" सौभाग्य
मिटे दुर्भाग्य।

(10)
कटु स्वभाव
"मानवता" हनन
भाव मनन।

--रेणु रंजन
(स्वरचित)
16/02/2019

मुसाफ़िर बन कर चले हम बस चलते ही चले गये,
न रास्ता तय हुआ न मंजिल का ही पता मिला ...

अनजान थे सब एक दूजे से जब सफ़र शुरू हुआ ,
नाम देश संस्कार का फिर सब को तमग़ा मिला ...

आये ..गये ..फिर आये न जाने जग में कितनी बार ,
हर बार नया शरीर नया हमसफ़र नया रास्ता मिला ....

न आये अपनी मर्ज़ी से न जायेगें बिन बुलाये यहां से ,
अजीबोगरीब ये जिन्दगी का सब को तोहफ़ा मिला ...

खुशी और गम की लहरों में गोते लगाते रहे बार बार ,
पर कश्ती या साहिल कब किसी को मनचाहा मिला ...

कुछ बिछड़े बीच राह में कुछ रह जायेंगे हमारे बाद,
यूँ बिछुड़ने वालों का अफ़सोस करके क्या मिला ...

नाम शोहरत या शक्ति सब यहीं है रह जाता है एक दिन 
फिर इनके लिये अशान्ति फैलाकर किसी को क्या मिला ....

मानव बन आये इस अद्भुत जहान को निहारने हम सभी ,
नफ़रत की आग से तबाही मचाकर किसी को क्या मिला ....

कुन्ना .....

मानव रूप में जन्म लेना 
मानवता नही कहलाती
मानवीय गुणों को अपनाए बिना
मानवता परिभाषित ना हो पाती
पंच तत्त्वों से मिलकर 
मानव शरीर की रचना होती
संस्कार आचरण मे ढलकर
जीवंत मानवता हो पाती
प्रेम, एकता और अहिंसा 
गांधी जी ने सिखलाई थी !
पर उस ग़द्दार पाक ने कब
इसमें निष्ठा दिखलाई थी ?
भारत माता के वीरों को
उसने फिर ललकारा है
समझौतों की सारी शर्तों को
नापाक पाक ने दुत्कारा है !
पुलवामा की सड़कों को देखो
देश के सैनिकों का रक्त बह रहा
पाकिस्तान की कायराना हरकत 
हर हिंदुस्तानी का ख़ून खौल रहा
उन चालीस शहीदों की शहादत
मानवता से एक प्रश्न पूछती -?
शांतिप्रियता के उसूल मे हमने
सदा निष्ठा दिखलाई है
पर उस कायर पाकिस्तान ने
सदा ग़द्दारी ही दिखलाई है
कायरता का बारंबार प्रदर्शन कर
ख़ुद को निर्दोष बताता है 
अपने आतंकवाद के गढ़ का
सबूत हमसे ही माँगता है
उसके ज़र्रे ज़र्रे में ग़द्दारी 
कश्मीर में पत्थर भिजवाता
अपने नपुंसक कारनामों से
माँ भारती पर कुदृष्टि डालता
आज हर हिंदुस्तानी आँख रोयी है
अपने चालीस वीर जवानों की
तिरंगे में लिपटी ताबूत बंद
अर्थी कंधों पर भारी मन से ढोयी है 
हिंद देश के वीर जवानों की
क़ुर्बानी व्यर्थ ना जाएगी
हर उस ग़द्दार को सज़ा मिलेगी
तेरी शहादत को एक सलामी होगी

संतोष कुमारी ‘ संप्रीति’
स्वरचित

शब्द है : मानवता

देश आजादी के नेताओं 
देश बर्बादी के नेताओं 
जो बीज तुमने बोया है 
आज रो रहा है हिंदुस्तानीओं । 

चुनावी बिगुल बजाना छोड़ दो 
एक दूसरे की चुगली करना छोड़ दो 
मजहबों की सत्ता करना छोड़ दो 
मानवता को अब रौंदना छोड़ दो ।

ताका झांकी खींचातानी में विपक्षी नेताओं 
परस्त नहीं हुआ है राजदरबार के नेताओं 
उठा लो अब हाथों में मशाल जवानों 
बदल दो रंग आसमानों के हिंदुस्तानीयों ।

उठो जागो भारत वर्ष के नव जवानों 
उठा लो हाथों में मशाल मेरे परवानों 
फूंकने की जिद है तो फूंक डालो 
उन गद्दारों को इन हरामजादों को 
उन मक्कारों को नमक हरामों को ।

जो पलते बढ़ते खाते हैं हिंदुस्तान में 
हिमायत करते हैं नापाक पाकिस्तान के 

देश आजादी के नेताओं 
देश बर्बादी के नेताओं 
मुआवजा देकर अलग 
कर दिया पाकिस्तानों को 
फिर क्यों रहने दिया 
यहां मुसलमानों को ।

फूंकने की जिद है तो 
फूंक दो नौजवानों 
उन गद्दारों को उन हरामजादों को 
उन मक्कारों को नमक हरामों को 
जो पलते बढते खाते हिंदुस्तान में 
गुणगान करते हैं नापाक पाकिस्तान के ।

स्वरचित एवं मौलिक 
मनोज शाह मानस 
सुदर्शन पार्क 

मोती नगर नई दिल्ली

मानवता को भी दानवता खा गयी, 
सुबह-सुबह दानवों को क्या भा गयी, 
मौत डायन बन रक्षकों को खा गयी ।
झूठ फरेब चल गया सच्च के बाजार, 
इंसाफ रह गया किताब बन, सौदागर ।
वतनपरस्ती भूल कर तू गद्धार बन गया ,
देश का सिपाही भी तेरे दीवार बन गया ? औकात पाक तेरी क्या चीनी तलुए चाटता हैं ,
बाँट तू रेवडी़ मासूमों को आतंकी बनाता हैं।
दया, धर्म, ईमान बिक गये दानवता के हाथ, 
अपने हत्यारे बन गये छोड़ मानवता का साथ ।
बर्दाश्त किया खून खराबा, सबक नहीं सिखाया , 
बार-बार समझोता पाक से! व्यर्थ समय गँवाया , 
युद्ध अब अवश्यंभावी इसको पाठ पढा़ना होगा , 
नृशंस हत्याओं का तुमको सबक सीखाना होगा ।
स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा 
'निश्छल'

---------------------
जाति जाति ह्यदय क्षोभ
कुपित क्रोध मन तू बोल
हमसब मनु की संतान 
फिर क्यों मानवता से 
अनजान 

क्यों मनुज?
अधर्ममय शोषण करते हैं 
अधम जातियों से दूर भागते हैं 
रखकर सिर पर कनक छत्र
मानवता को शरमाते हैं 

मानवता का है धर्म सेवा, त्याग, 
पर क्या सब मनुज हैं सेवक, त्यागी
सत्ता किरीट मणिमय आसन का हैं सब अनुरागी 

हे मनुज! विचित्र है तेरी मानवता 
उच्च कुल सम्मान पाते 
निम्न कुल आघात खाते 
गुणों की यहाँ कोई सम्मान नहीं 

हे मनुज! कैसी तेरी पहचान है
हृदय में ग्लानि के भाव
जीवन में अपमान का घाव
मनुज का यहाँ कोई मोल नहीं 
@ शंकर कुमार शाको 
स्वरचित


किसानों का देश,
अरमानों का देश,
गरीबी से त्रस्त

जवानों का देश,
बेरोजगारी सुरसा
है मुह बाये,
हुक्मरानों को
कौन बताये,
सेना की भर्तियों में
जाते हैं ग़रीब,
कब कहां सेना में
जाते हैं अमीर,
किसी ने कभी देखा है,
या किसी ने सुना है,
क्या कभी किसी नेता
की औलादें गयी
सेना में,
फिर क्यों जाये ?
या क्या कभी कोई
नेता मरा है दंगों में,
ऐसा कभी नही होता,
अकाल मौत को हम
गरीब बनें हैं,
ये सब तो सुख
सुविधाओं में
सनें हैं,
दंगों की,
आतंकी हमलों की
ख़ुराक सिर्फ हम
ग़रीब बने हैं,
ये बेशर्म हमारी
लाशों पर भी
राजनीतिक रोटियां
सेंकते हैं,
हमें जाति धर्म भाषा
क्षेत्रवाद में बांटते हैं,
अपनी सत्ता के लिए
हमें जलती आग में
झोंकते हैं,
ये सदियों से चला
आरहा है,
अभी और कब तक
चलेगा,
हमारा देश आखिर
कब तक पुलवामा
जैसी घटनाओं में
जलेगा,
आओ अपने बीच
छिपे गद्दारों दलालों
का पर्दाफाश करें,
मानवता का
साथ दें,
देश हित का
शिलान्यास
करें।।।।
भावुक

मानवता की बात वहाँ बेमानी है

भरा हुआ हो कलुष मनुज के हृदयों में

संस्कार की बात वहाँ बेगानी है
घर घर में बसते हों रावण कंस जहाँ
मानवता की बात वहाँ बेमानी है !

मूल्यहीन हो जिनके जीवन की शैली
आत्मतोष हो ध्येय चरम बस जीवन का
नहीं ज़रा भी चिंता औरों के दुःख की
आत्मनिरीक्षण की आशा बेमानी है !

परदुख कातरता, पर पीड़ा, करुणा का
भाव नहीं हो जिनके अंतर में तिल भर
पोंछ न पाए दीन दुखी के जो आँसू
वैष्णव गुण का ज्ञान वहाँ बेमानी है !

कोई तो समझाए इन नादानों को
जीवनमूल्य सिखाये इन अनजानों को
जानेंगे जब त्याग, प्रेम की महिमा को 
मानेंगे निज हित चिंता बेमानी है ! 

साधना वैद

मानवता का चीरहरण..
कर लिया दानवता ने...
किया वार निहत्थों पर..
जिहादी कट्टरता ने..
लूट लिये मंगलसूत्र..
उन नववधुओं के...
सुने कर दिये आँगन..
उन बिलखती माँओं के..
उठा लिया साया सर से...
उन नवजात शिशुओं के..
तड़फ उठे हृदय भी देखो..
उन लक्ष्मण से भाईयों के..
रोली कंगन बिखर गए सब..
कई जनकसुताओं के..
टूट गये सहारे बुढ़ापे के..
कई बूढ़े पिताओं के..
मानवता हुई शर्मसार..
फिर आसुरी शक्ति से
ले लो बदला पाक से..
फिर वही देशभक्ति से..

स्वरचित :- मुकेश राठौड़



1
बलात्कार दुष्कर्म की,
घटनाओं का जाल।
मंथन को करता विवश, कैसा आया काल।
दिखे न माँ, बेटी,बहन,
राक्षस का अवतार -
दिन पर दिन यों झुक रहा
मानवता का भाल ।
2.
हम पत्थर की पूजा करते
उजियारे की चाह में ।
पीड़ित मानवता कराहती
नन्दन वन की राह में।
भीतर भरी अमावस कारी
बाहर धवल प्रभात रे--
जीवन की सच्चाई दिखती
दुखियारी की आह में ।

******स्वरचित*********
प्रबोध मिश्र 'हितैषी'
बड़वानी(म.प्र)451--551

*'मानवता' तार तार हुई
जब पडोसी की नीयत गद्दार हुई।

चुपके से जब वार किया 
वीरों पर आघात किया ।
दुनिया ने घिघकार किया ।
छुप छुप कर कयों हमला करते ?
सामने आने से कयों डरते?
अबकी लडाई आर पार की!
'मोदी' के शेरों से डरना ,
अब न कोई तुम गलती करना।
तुम न बचोगे, देश मिटेगा
कहीं न तुमको ठौर मिलेगा ।


"मानवता"
छंदमुक्त कविता

हम भारत देश के वासी
मानवता है पहचान हमारी
संस्कार हमारे है परोपकारी
शांति के हम हैं पुजारी।

तू कैसा है अत्याचारी
पहचान तेरी है गद्दारी
छल,कुबुद्धि के हो व्यापारी
पीछे से करता हमला भारी
दानवता के हो अनुरागी।

माँ भारती के हम हैं पूजारी
सुन ले तू ललकार हमारी
हिम्मत है तो सामने आ
दुम दबाकर तू ना भाग
सीने में तू गोली मार

जब-जब हमने कसमें खाई
छठी का दूध तूझे याद दिलाई
गीदड़ों सी है तेरी चतुराई।

अब फिर से हमने तिलक लगाई
शेर की दहाड़ दे रही होगी सुनाई
सामने होगी बारुदी खेल हमारी

घबराकर ना मैदान छोड़ना
उस दिन तुम ना पीठ दिखाना

संस्कारों से हम झुके हुए थे
मानवता के कारण रुके हुए थे
ना समझो इसे हमारी लाचारी
शेरों की छाती होगी सामने तेरी

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल

आज हृदय विदीर्ण हो रहा
मानवता का ह्रास हो रहा
प्रजा का जीवन उजड़ रहा
कट्टरता का उदघोष हो रहा

आतंक का दानव फ़ैल रहा
फ़न काढ़े फ़ुफ़कार रहा
बित्ता सा आतंकी हुंकार रहा
इत्ते बड़े लोकतंत्र को डरा रहा

देश हमारा बिलख रहा
मानवता का दुश्मन अट्टहास कर रहा
सब्र का बांध टूट रहा
सावधान हो जा अब तू हिन्दुस्तान ललकार रहा

गौतम गांधी का देश हमारा
मानवता की रक्षा करना धर्म हमारा
दुश्मन को प्रतिउत्तर देना कर्तव्य हमारा
गीता का कर्म उपदेश है जीवन का मन्त्र हमारा

मन्त्र तन्त्र का केवल पुजारी हमको जो तू समझ रहा
अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित है देश हमारा
हिन्दुस्तान का कण कण यही पुकार रहा
आतंकवाद का सम्पूर्ण विनाश ही 
ध्येय रहा

मनीष श्री
स्वरचित
रायबरेली

मानवता के दुश्मन हो तुम
मानव नही दानव हो तुम
ईमान को बेचने वाले
तुम देश के दुश्मन हो

दया, धर्म को न मानने वाले
रुग्ण है तुम्हारी मानसिकता
ओ दनुज तुम सुधर जाओ
बस मानवता को अपनाओ

अधर्मी, अन्यायी नही
तुम सरस्वती के पुत्र बनो
दुराचार को छोड़कर
मानवता अपनाओ तुम

ओ मानवता के दुश्मन
मत भूलो हो तुम मानव
भूल बस अपनी सुधार लो
मानव हो,मानवता को अपना लो।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।

हाइकु 
विषय:-"मानवता" 
(1)
चीखता भ्रूण 
"मानवता" के आँसू
स्वप्नों का खून 
(2)
ऐसा भी काम 
"मानवता" के नाम 
खोली दुकान 
(3)
स्वार्थ की राह 
खो चुकी "मानवता" 
मिले दानव 
(4)
सेवा से ध्यान 
"मानवता"भी धर्म 
पूजे इंसान 
(5)
मिले तो बता 
मानवता का पता 
रहता खुदा 

स्वरचित 
ऋतुराज दवे


मानवता मरी नहीं,
अभी जिंदा है।
बस बढ़ते पापों से,
वह शर्मिंदा है।
भटक गए हैं रास्ते से ,
कुछ मानव।
भूल मनुज धर्म,
बन गए दानव।
जिंदगी को खिलौना,
समझते हैं वे।
कलंक बन बैठे हैं,
मानवता का वे।
मुखौटौं में छुपी होती ,
इनकी सच्चाई।
कैसे कोई जान पाए,
इनकी सच्चाई।
मानवता से होता नहीं,
नाता इनका।
बोलते बोल मीठे काम,
बनाते अपना।
ऐसे विश्वासघातियों से,
दुखी होती है।
मानवता कमर कस के,
खड़ी होती है।
दुनिया में करूणा ,दया,
क्षमा बाकी है।
परोपकार ,सद्भाव,समता,
न्याय अभी बाकी है।
एक-जुट होके खड़े होने,
का दम है अब भी।
मुसीबतों से टकराने का,
जज्बा है अब भी।
धर्म-जाति से कहीं ,
ऊंची है मानवता।
रोक सके राह उसकी है,
किसमें ये क्षमता।
मानवता जब तक,
जहां में है जिंदा। 
दानवों को होना ही पड़ेगा,
सदा शर्मिंदा।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित


स्वरचित मुक्तक,
अगर भिखारी के अभिनय पर,

लाखों अभिनेता पाता है,
कही अंधेरे के कोने में,
कौरव उसी के संग खाता है।।१।।
अगर नहीं तो केवल अभिनय,
नयेजीवन में ला न सके,
जो जैसा करताहै आखिर,
वह उसका ही फल पाता है।।
म के मूल्यांकन होने पर,
वहीं सर्जना सजने लगती,

माथे की बिंदिया धुंधली सी,
अवमूल्यन से लगने लगती,
३।।
मानव ता के संस्कारों को,
जहां भ्रम उन्नयन मिला हो,
ऊपर सूरज हंसने लगता,
नीचे धरती हंसने लगती है।।
४।।
अपनी ही अंगुली अगर दो,
आंखों के आगे आ जावे,
बिछा हुआ सूरज आंगन में,
नहीं कदापि देख वे पावे।।
स्वरचित रचना देवेन्द्र नारायण दास बसना छ,ग,।।


1)आतंक हाथ
मानवता लजाई
कैसी विदाई?
2)
कोमल हाथ
मानवता पिसती
भीख प्रसाद।।
3)
अधर्म फैला
मानवता चीत्कार
धर्म लाचार।।
4)
गुलाबी मन
कंटीली मानवता
खिलता कहाँ?
5)
चीख पुकार
कैमरा व्यवसाय
धिक् मानवता।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित,मौलिक

क्यो पिघल रहा विश्वास
क्यो धूमिल हो रही आस
कैसा फैला ये तमस
चहुँ और त्रास ही त्रास ।

कोने में सिसक रही कातरता से
मानवता जकड़ी गयी दानवता से
राह दुर्गम ,कंटको से है रुकावट
जन जन शिथिल हो गया थकावट से।

संघर्ष कर तू आत्मबल से 
जिजीविषा को रख प्रबल
भोर की तू आस रख
सत्य मार्ग पर हो अटल ।

आंधियों मे भी जलता रहे
दीप आस की जलाए जा
मन का तमस दूर कर
मानवता का उजियारा फैलाए जा ।

स्वरचित
अनिता सुधीर

2 लघु कविता। 
1सिसकती मानवता 

सिसकती मानवता
कराह रही है
हर ओर फैली धुंध कैसी है
बैठे हैं एक ज्वालामुखी पर
सब सहमें से डरे डरे
बस फटने की राह देख रहे 
फिर सब समा जायेगा
एक धधकते लावे में ।

2 ममानवता का दिवाला

पद और कुर्सी का बोलबाला
मानवता का निकला दिवाला
अधोगमन की ना रही सीमा
नस्लीय असहिष्णुता में फेंक चिंगारी
सेकते स्वार्थ की रोटियाँ
देश की परवाह किसको
जैसे खुद रहेंगे अमर सदा
हे नराधमो मनुज हो या दनुज।
स्वरचित। 

कुसुम कोठारी


विधा .. लघु कविता 
**********************

🍁
मानवता को क्षीर्ण कर दिया,
क्या और कैसे लिखूँगा।
शब्द नही निःशब्द शेर है,
कैसे इस पर लिखूँगा ।
🍁
शेर जवान वो भारत के थे,
छल से जिसको मारा है।
मानवता अस्तित्व शून्य बन,
चिथडो मे कर डाला है।
🍁
रक्त बह रहे दो नयनो से,
हृदय लेखनी काँप रही।
मानवता पर क्या लिखूँ,
प्रतिशोध की ज्वाला भडक रही।

स्वरचित ... Sher Singh Sarraf

1
जागो भारत
शत्रु को जवाब दो
क्यों मानवता
2
आतंकी बलि
मानवता की शूली
वीरों के गले
3
आतंकवाद
लजाती मानवता
है दानवता
4
अबकी जंग
मानवता को छोड़
शत्रु के घर
5
हे!मानवता
आखिर कब तक
सर पे हाथ
6
ले प्रतिकार
मानवता को त्याग
बारुदी फाग

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल


अंतिम सफर पर चला 
देश का वीर शहीद, 
रूकते न अश्रु 
आंखो से लहू धार बह चली ।
छूट रहा अब भारतीयों का धीर 
धन्य हो गया तिरंगा 
लिपट कर शहीद के तन से ।
हो चला विदा वीर 
बिना कुछ कहे 
चुपचाप वतन से ।
मानवता के दुश्मनों से फिर 
आज मानवता छली गई 
हमारे ह्रदय की बासंती होली पर 
फिर पाकिस्तानी कालिख मली गई ।

(स्वरचित )सुलोचना सिंह 
भिलाई (दुर्ग )


विधा-हाइकु

1.

उठो भाइयो
मानवता के लिए
मिल के चलो

2.

ये पाकिस्तान
बनेगा कब्रिस्तान
आतंकियों का

3.

आंतक भारी
मानवता है हारी
उपाय सोचो

4.

ये पाकिस्तान
बर्बाद हो जाएगा
कुकृत्यों से

5.

छि ! पाकिस्तान
ये ओच्छी हरकत
मानवता पे

6.

हे दुष्ट पाक
करले यत्न लाख
बनेगी राख

7.

कोसों दूर है
सच्ची मानवता से
ये पाकिस्तान

8.

हुआ अमन
पथ मानवता का
लहू लुहान

9.

हे दुष्ट पाक
कौन करेगा माफ
बनेगी राख

10.

माँ की गोद में
मानवता पलती
लाड चाव से

********

स्वरचित

अशोक कुमार ढोरिया

मुबारिकपुर(झज्जर)

हरियाणा

मानवता श्रृंगार जमीं का ,
ये फूलों को उपजाता |
सुख दुःख दोनों हालातों में ,
ये सामंजस्य बिठलाता |

इन्सानियत खो गयी कहीं पर ,
सूरज मानवता का डूब रहा |
घृणा द्वेष को रखकर मन में ,
सबको घर का भेदी लूट रहा |

आतंक का साया मानवता पर ,
गिध्द बनकर टूट रहा | 
हवस रह गयी अब बस बाकी ,
सब कुछ पीछे छूट रहा |

हुआ लालच हावी मानवता पर ,
दावानल सा फैल रहा |
धर्म प्रेम के ऑगन में ,
अब नाच ये नंगा नाच रहा |

घिरे बादल ऐसे आसमान पर ,
दानव मन हर्षित होता |
दया क्षमा नहीं शेष खून में ,
हैवानियत की फसलें उगा रहा |

मानवता के हैं शेष सिपाही जो, 
उनको गिन गिनकर निगल रहा |
है व्यथा बड़ी रहती मन में ,
अंर्तमन में ये मंजर खटक रहा |

मानवता के ही दम पर ,
विकास का रथ चलता रहा |
भाव सुरक्षा का जीवों में ,
मानवता से ही बना रहा |

हमें युध्द की बिभीषिका से ,
दूर यही भाव करता रहा |
दुनियाँ में शांति दूत बन के ,
भाव ये विश्व बंधुत्व फैलाता रहा |

कुछ आततायी क्या दुनियाँ में 
मानवता को डस लेगें ,
क्या हम ऐसे ही चुपचाप रहेगें ,
क्या धरे हाथ पर हाथ रहेगें |

जागो उठो करो कुछ तो अब ,
बच्चे हमको न माफ करेंगे |
अभी नहीं जो हमने सोचा ,
फिर आगे कुछ न सोच सकेंगे |

स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश ,

चंद हाइकु 


वीर शहीद 
मानवता रो रही 
मार्मिक क्षण 


अंतिम यात्रा 
अमर शहादत 
रोता अंबर 


रोता सिंदूर 
अमर बलिदान 
वीर जवान 


अधर्म अंत 
मानवता ही धर्म 
कहती गीता 


तिरंगा रोया 
मानवता शहीद 
धैर्य है खोया 

(स्वरचित )सुलोचना सिंह

दिनांक 16.2.2019
दिन शनिवार
विषय मानवता
रचयिता पूनम गोयल

क्यों भूलता जा रहा है मानव ,
मानवता की महत्ता को ।
जबकि बचाती है यही ,
दुनिया में उसकी सत्ता को ।।
मानवता के बिना ,
व्यक्ति है अधूरा ।
चाहे कितना भी
कर ले ,
काम वह पूरा ।।
सिखाती है यह हमें ,
आपस में प्यार करना ।
और पराए को भी पल में ,
बना देती है अपना ।।
परन्तु आज समाज विध्वंस ,
हो चुका है ।
अपने कर्तव्यों को वह ,
किसी गलियारे
में छोड़ चुका है ।।
कहीं भाई-भाई में धन-दौलत को लेकर ,
हो रही हाथा-पाई ।
तो कहीं
रिश्तों को ताक पर रखकर ,
हो रही बेहयाई ।।
कहीं देश के दुश्मन ,
हाथों में नंगी तलवार लिए खड़े हैं ।
तो कहीं अशान्ति के प्रतीक ,
घिनौने कृत्य 
करने में लगे हैं ।।
कोई तो रोके ,
इस गिरते 
मानवता-स्तर को ।
कोई तो बचाए ,

इस बेशक़ीमती वस्तु को ।।

आदमी ही आदमी को खा रहा है,
किससे शिकायत करें हम आपकी
कोई कभी सुनता कहाँ है ध्यान से।
मै कहूं और तुम तुम जल्दी करो,
पर कोई करता नहीं है प्यार से।
क्योंकि हमें स्वार्थ से फुरसत नहीं है
पाप में फिर पाप पलता जा रहा है।
आदमी ही आदमी.........।
पेट ने कुछ को कर दिया है आज व्याकुल
जिंदगी माटी से सस्ती हो गई है।
मारकर गाल में तमको तमाचा
भूख चौराहे पे नंगी सो गई है।
आचरण छोडकर आज हमने
मानवीयता को ठुकरा दिया है।
ओढकर परिधान विदेशी सभ्यता के
स्वयं को ही लज्जित किया है।
जो कभी खाते थे कश्में,
अपनी संस्कृति के नाम की
ना रहा नाता किसी को देश से
खून ही खून से लडता जा रहा है।
आदमी ही आदमी..........।
थोथी सभ्यता की होड में
रूप की नुमाइशें लग गई हैं।
शराफत की गली में थीं जो कतारें
आज इनकी दर्शन बन गई हैं।
जीवन की हर खुशी को हम
प्यार से पाना ही भूल गये हैं।
समाज के पर्दे पर गंदगी उछाल कर
हम मानवमूल्य भूल गये हैं।
निर्माण की दे देकर दुहाई आदमी
विध्वंस ही विध्वंस करता जा रहा है।
आदमी ही आदमी............
आज मानवीयता शिष्टता छोड कर
नहीं लिया है किसी गैर से
जिंदगी गर जर्जर हो गई तो
नहीं शिकायत है हमें भी आपसे
क्योंकि कर्म का फल हर आदमी को मिला है।
दे देकर दोष औरों को
झूठ से ही झूठ बडता जा रहा है।
आदमी ही आदमी को खा रहा है।

स्वरचितःःः
इंजी.शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जय जय श्री राम राम जी
3 भा.16/2/2019( शनिवार)

#मानवता #

प्रेम दिवस पर गद्दारों ने जो प्रेम जताया ,
मानवता को शर्मसार किया।
उस को जोश अभी दिखाना है।
हमे अब प्रेम दिवस नही 
हमें शहीद दिवस मनाना है।
आज जो हुआ उस से 
दिनकर का भी ह्रदय 
विचलित हुआ होगा।
देख कर ये खूनी होली,
उस का भी दिल रोया होगा।
कैसे फिर दुश्मन ने घात लगाई है।
जब प्रेम में डूबी थी दुनियां,
मातृ -प्रेमियो ने अपनी जान गवाई हैं।
हद हो गयी इस हिंसा की,
जो गीदड़ की भांति
पीठ पर आघात करें।
अब कौन सा जोश दिल
में फिर आवाज करें।
कितनो के घर उजड़ गए आज
कितनो की मांग सुनी हुई।
कौन दे जवाब अब इस का।
दुःखी हो गया हर दिल आज।
अश्रुओ से मना वेलेंटाइन आज।
कितनो की मांग सुनी हुई।
कितनी चूड़ी टूट गई,
कितनी बहनों ने भाई को खोया।
कितने बाप ने बेटों को खोया।
कितने लाल जो राह पिता की तकते है।
कितने माताओ ने आज 
अपने शिशु के लिए रुदन देखा होगा।
हर बात का प्रतिकार करो अब,
दुश्मन पर पटलवार करो अब।।

संध्या चतुर्वेदी
अहमदाबाद, गुजरात

तांका

आदमी स्वार्थी
कहाँ है मानवता
धूर्त है नेता
देश को बिकवाता
पहने है मुखौटा//
***************
सत्ता लोलुप
राजनीति क्षुद्रता
शर्मनाक है
कुर्सी की लोलुपता
रोती है मानवता //
****************
ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार

मानव ही मानव का नाश कर रहा
टांग कर सूली पर मानवता को
खून का इतिहास लिख रहा

खुदा का बंदा कह कर 
धर्मांधता में खुदा का ही
कत्ल कर अट्टहास कर 
मानवता का मजाक उड़ा रहा

माँ का बेटा था वो भी 
था आँख का तारा राजदुलारा
कितनी मन्नतों से मांगा होगा
पिता का सहारा बनेगा सोचा होगा

पर आग माँ के दामन ही को लगा गया 
अपनी वहशत में कितनी माँओ की गोद सूनी कर गया

वहशत गर्द था ,मानवता को
छलनी कर गया
अपने पिता को ही नहीं ,कितने
पिताओं को अपाहिज कर गया
बसंत के मौसम में लहु की होली खेल गया

वादी ए जन्नत में शैतान का फेरा हो गया
अमरता की वादियों में मौत का
बवंडर छा गया

बिखर गया मानव तन ऐसे
जैसे छिन्न मुक्ताहार बिखरता
किसका अंग कहाँ ,किस ताबूत आया, फकत इतना हुआ मेरे
देश का बेटा शहीद होकर आया

फिर भी शर्मसार है मानवता ।

डा.नीलम.अजमेर


लोभ, भोग, काम, वासना सब का यहाँ संगम 
ईष्या-द्वेष कलह व्यभिचार सब का यहाँ आलम 
बुराई लड़ाई अनैतिकता से धरती व्याकुल 
ज्ञान त्याग तप साधना 
सब केवल अब सपना 
भय आतंक हिंसा द्रोह 
का यहाँ अब धरना
साधु संत संयासी योगी
कवि ज्ञानी ब्रह्मचारी 
सब तख्त ताज के लोभी 
भोगी,विलासी,अत्याचारी,दुष्ट नृप 
सब सत्ता स्वर्ण धन के अभिलाषी 
कौन करता यहाँ मानवता की चिंता 
चारो ओर मानवता का चीरहरण 
चारो ओर मानवता का प्राण मरण
धिक्कार योग्य आज नर 
दिन रात कुठार चलाता है 
गहता नहीं तरू की छाँव 
शीतल छाया तरूवर को 
काट जाता है
कौन मानवता का मोल समझता 
कौन मानव होने का ऋण उतारता 
कौन धर्मराज होकर टहलता 
ग्लानि ग्लानि मानवता है 
साम्राज्य भोगना सब का लक्ष्य 
हे मनुज !अब तेरा अंत
@ शंकर कुमार शाको 
स्वरचित


१६-०२-२०१८
कल धरा पर शुभ होवै।
नित हित मंगल हो प्रभात्।
कुटिल जनो मे समरसता।
मानवता को हो प्रसार ।
आतातायी भी बहुनृशंस बनै।
कठिन घडी मै भारतवसुधा।
पुनः राम कृष्ण जन्मै।
हम ही पहलै मानव बनै।
मानवता के पुजारी बने।
न भय हो किसी मै।
सब जग को निर्भय करे।
सचराचर मानवता का भक्त ।
हम मानव बनै पहलै।
मानवीयता को प्रसार करै।
🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
स्वरचितः

राजेन्द्र कुमार अमरा


आजाद होना हैं हमें पिछड़ी रूढ़िवादी सोच से 
ऊँची उड़ान भरनी हैं हमें आसमान में 
ऊपर उठना हैं हमें सिसकती मानवता से 

एक नया सूरज उदय करना हैं हमें नवयुग में .

आजादी लानी हैं हमें खोखली मानसिकता से 
अपने जमीर को फिर से जगाना हैं 
सबके दिल में फिर से मानवता को लहराना हैं 
फरेब झूठ मक्कारी को सबके दिल से मिटाना हैं .

फिर से आदर्शशों की नींव को जगाना हैं 
फिर से मानवता को जग में जगाना हैं 
महक मानवता की फिर से सबके दिल में जगाना हैं 
कलयुग में फिर से आगाज करना सतयुग की मानवता का .
स्वरचित:- रीता बिष्ट


Sarita Dadhich 'मानवता'
भाप बन आहें उठी,
तेजाब बनकर बरसेंगी।

रूह भी जल जाएगी,
चीखने को तरसेगी।

है जो दम आ सामने,
कर वार ओ कायर !सुनो,

पैर की इक थाप से,
दल जाओगे हिंसक जनों।

हम वीर हैं,हम धीर हैं,
ये गुण हैं कायरता नहीं।

छुप कर करो तुम वार,
पशुता है ये मानवता नहीं।


सरिता विधुरश्मि😪🙏


चरित्र मानवता को हमेशा पहचान देती -
वही चरित्र चरित्रहीन होकर के बिकती 

क्षणिक सुख के ख़ातिर रात में चुप कर -
चंद काग़ज़ के टुकड़ों से देह ख़रीद कर

समाज के काम की भूख को तृप्त करती -
रात के अंधरे में बिस्तर वो ख़ूब सजाती

इस समाज ने चरित्रहीन को ग्रहण किया -
नंगा कर बदन की मुँह माँगी क़ीमत दिया 

दिन के उजाले में बेटी कहता जिसे समाज -
रात में हवस मिटाने देता चुपके से आवाज़

बदन को नचाकर के कपड़ों को उतार दिया -
चरित्रहीन की चौकठ पर हवस मिटा लिया

वेश्या / रंडी / छिनार कहके गली देने वालों -
शरम छोड़ कर गरम किया तुम्हें ये ना भूलो

✍🏻..राज मालपाणी
शोरापुर - कर्नाटक


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