Friday, February 1

"गगन "31जनवरी2019

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             ब्लॉग संख्या :-285
मुक्तक(1)गगन
रात्रि में जो तारिकायुत दृश्यता है वह गगन है।
या कि घट के बाह्यान्तः भासता है वह गगन है।
आद्यान्त वह परिभाष होता है धरा के स्वत्व बल से, 
पंख फैलाकर पखेरू घूमता है वह गगन है।।

(2)चर्ख़=आकाश

चर्ख़ पर छा गए वह ख़ुद ही क़हक़शां बनकर ।
पेश आने लगे जो हुस्ने फ़ुरोज़ा बनकर ।
उन्हें मेरे सिवा अब कौन बन्दगी देगा,
हस्रतें जुड़ गईं उनसे हैं मुसल्मां बनकर ।।
हुस्ने फ़ुरोज़ां=प्रकाशमान सौन्दर्य
क़हक़शां=छायापथ.आकाश गंगा

(3)फ़लक़=आकाश

तुम मेरे मंज़िल मुनव्वर मिस्ल ज़ुह्रा क़हक़शां ।
लुट रहा क़ुर्बान तुम पर मैं हमातन जाने जां ।
जब चले जाते हो पीछे याद यूँ बनती लकीर,
जिस तरह बनता फ़लक़ पर यान के पीछे धुवां ।।
मुनव्वर=प्रकाशित।ज़ुह्रा=शुक्र ग्रह
हमातन=सरापा शरीर
स्वरचित-"अ़क्स" दौनेरिया

खुला आस्मां कितनों का साया है
बेचारे कितनों ने न आशियां बनाया है ।।
धरती माँ और आसमां का प्यार है
उसी में रह कर जीवन ये बिताया है ।।

महलों वाले भूल गये कुदरत का प्यार
कुदरत से तो जैसे उनकी है तकरार ।।
कितना सुन्दर होता था वो छत पे सोना
रात रात भर तारों को रहते थे निहार ।।

आसमां में उड़ते पंछी की उमंग
न दौलत न शोहरत मस्ती है संग ।।
तारे तोड़ कर वह भी नही लायेंगे
पर जीते अपनी शैली में ये विहंग ।।

आस्मां में आकर्षण है पर जागना होगा
खुले आसमां में हमें उसको आंकना होगा ।।
ऐ सी में रह कर के क्या कुछ हम पायेंगे
आज 'शिवम' ये बात मस्तक में टांकना होगा ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्

तड़ित द्युति
नभ घन गर्जन
कम्पित मन

नीलाभ नभ

सूर्य चन्द्र सितारे
ईश्वर लीला

प्राची उदित

गगन प्रकाशित
रवि रश्मियाँ

नीला आकाश

मनभावन प्रकृति
मन पतंग

विस्तृत व्योम 

स्वछंद विचरण
पंछी प्रसन्न

सरिता गर्ग

स्व रचित
नील गगन पे इन्द्र धनुस इक,
सतरंगी है उभरा।
बादल के अनन्त कोर से,
मनमोहक छवि उभरा।
🍁
थोडी-थोडी धूप हुई है,
बादल भी कुछ बरसा।
मन मयूर आनन्दित होकर,
नाच रहा मन हर्षा।
🍁
बाँगो मे कोयल की कुँहू- कूँहू,
आम रहे मौराये।
सोन्ही सी मिट्टी की खुँशबू,
हृदय गये बौराये।
🍁
ऐसा भाव जगे है मन मे,
कैसे तुम्हे बताए।
शेर हृदय उतराऐ गये है,
भाव ना लिखा जाए।
🍁

स्वरचित ... Sher Singh Sarraf

दूर गगन में प्राची लाली
तन मन कली कली खिले
दूर क्षितिज में अवनी जाकर
वह् नभ प्रियतम गले मिले
सूर्योदय लाली नभ फैले
कलरव करे उड़े मिल साथ
दूर गगन मन वांछित होकर
मिलकर करते रहते हैं बात
शरद ऋतु कौहरे की चादर
हाड़ कम्पाते शीतल झौखे
झम झमाझम मावट बरसे
अम्बर से गिरते नित ओले
चले गगन में तेज हवाएं
ऋतु परिवर्तन हो जाता
भीषण गर्मी आग बरसती
तन बदन तर तर हो जाता
अद्भुत काले बदरा आते
कड़के बिजली जल का शौर
मूसल धार तेजी से बरसे जल
अद्भुत नृत्य करे नित मिल मोर
पश्चिम में जाता नित सूरज
गगन मध्य सुहावनी लाली
निहारिकायें गगन सजाती
पहने निशा स्वर्णिल बाली
उत्तर में ध्रुव तारा शौभित
रजनी रानी गगन सुहाती
तारों की साड़ी पहने वह्
कभी लजाती या इठलाती
नीलाम्बर परिधान पहनकर
पल पल गगन रूप बदलता
जगति की सारी विपदा खुद
स्वयं अकेला वह् खुद हरता।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

—————————————————-
तुम क्यों अकसर
आसमान को छूने की बात करते हो,
या, फिर 
आसमान को ज़मीं पर 
उतारने की बात करते हो।
देखो तो सही
आसमान ने उँडेल दिया है-
तारों से भरा थाल मेरे दामन में 
और
ज़मीं ने टाँक दिए हैं पंख 
मेरी पैरहन में ।
मिट गए हैं सारे फ़ासले,
दरमियाँ ज़मीं आसमां के।
दरख़्तों की शाख़ों पर 
परिंदे फुदकने लगे हैं ।
नवेली दुल्हन की आँखों में 
फिर कुछ हंसीन सपने
सजने,सँवरने लगे हैं ।
दूर पनघट पर
ढोलकिया की ताल पर
पैरों की पायल,
बज उठी अचानक
तो,जाने क्यों
उन्मादित सी हो गई शाम
मुखरित हो गई शाम !
आसमान को ज़मीं पर ,
झुकता देख 
गुलमोहर सी लाल हो गई शाम !
शर्म से बावली हो गई शाम !!
क्यों ?
क्यों तुम नाहक 
आसमान को छूने की बात करते हो ?
स्वरचित (c)भार्गवी रविन्द्र....बेंगलोर

फूंस की ठंडी हवा और
छाई कोहरे की धुंध
कहाँ खो जाती है चांदनी
अमावश्या की रात चुपके से।

दिन की उजली धूप और कालिमा

बदलते आयामी दायरे
कहाँ खो जाती है अरुण प्रभा
आज -कल के बीच चुपके से।

मुक्त उड़ते पंछी और कूहें

सुदूर शून्य आकाश में
कहाँ खो जाती है प्रणय अठखेलियाँ
पिंजरे में कैद चुपके से।

उठते तूफान-बवंडर-बिम्ब

अभिजात्य निर्वसनी सी जिंदगी
कहाँ खो जाती है धुंधली यादें
समय के संधिकाल मैं चुपके से।

स्वरचित:

डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी, गुना(म.प्र.)

उन्नत विचार हो सदैव ।
निरंतरता हो जीवन लक्ष्य ।
नही रुके है नही रुकेगे ।
दुर्गम पथ पर नित चलेगे ।
धरा हो या गगन नम पथ ।
चलना हे अब चलते रहना ।
न दौडे है न रुकना है ।
चलना और चलते रहना है ।
सुर्य कि चाहे अग्नि ज्वालाऐ ।
शुक्र का हो चाहे बर्फीला तुफान ।
जल विहिन यदि मंगल हो ।
वृहस्पती हो यदि अनन्त गुणा ।
शनि के भी छल्लों अब वेधन करणा ठान ।
चलना हे अब चलते रहना ।
हर पथ पर अब बढते रहना ।
🌻🌻स्वरचित🌻🌻
टिकेश्वरी भण्डारी 
शुदुरपश्चिमाअञ्चल , नेपाल
2019/01/31

आ नए कलेवर में रच ले जीवन के बचे पलों को |
कुछ साज नए कुछ कुछ शब्द नए गा लें कुछ नव गीतों को |
हर धुन्द भरी चादर को आओ उतार कर फेंके -
नूतन प्रकाश भर जाए आने दे नव किरणों को |

उत्साह भरा अनुराग भरा जीवन हो अब भारत में |
बरसे बादल सुख शांति भरे भय क्लेश न हो भारत में|
सब एक साथ सबका विकास यह मंत्र सिद्ध हो जाए -
सम्पत्र रहे हर गाँव - गली छाए बसंत भारत में |

धरती से नील गगन तक गूँजे जयघोष हमारा |
बादल बन बरस पड़े फिर बस नेह प्रेम की धारा |
यह सकल विश्व हो जाए जिसकी धारा से पावन -
विस्तृत इस नील गगन में लहराए तिरंगा प्यारा |

© मंजूषा श्रीवास्तव 'मृदुल'
लखनऊ ,उत्तरप्रदेश

लाशता है तुम्हें क्यों दिल। 
जमीं से ले, आसमान तलक।


बसे हुए हो, सिर्फ़ तुम्ही तुम।
गज़ल से मेरी दास्तान तलक।

हंसा है यूं खाक कर के मुझे। 
हरीफ क्या है पासबान तलक।

देखते हरेक शै, जो न देखते।
वो सिर्फ वहमोगुमान तलक। 

शायरी , कर्ज है मुझपे तेरा। 
मेरे ज़हन से ज़ुबान तलक। 

उतर न पाए नशा, मैकशी का। 
बिके हैं, साजो सामान तलक। 

ये सियासत को खेल कहते हैं। 
मिटा दिए हैं खानदान तलक। 

विपिन सोहल


आकाश और धरती का
कभी मिलन न हो पाता
फिर भी इन दोनों का
जन्मों का नाता
नभ हर रात 
ओस कण
धरा पर बरसाता
सितारों जड़ी 
नीली ओढ़नी ओढ़ा
धरती को अपनी 
दुल्हन बनाता
हर पल संग बिताता
मधुयामिनी मनाता
सुबह रवि किरणों से
मुख चूम उसका
अलसाई धरा को 
धीरे से जगाता
गर्भ से धरती के
नए बीज
अंकुरित हो पाते
कालांतर में वही
पेड़ पौधे बन लहलहाते
धरती की संतान का
सम्पूर्ण प्रकृति का
जड़ चेतन का
पिता बनने का
गौरव पाता
अपनी संतान को
बाहों में भरता
कण कण का
हम सब का
वही पिता कहलाता

सरिता गर्ग
स्व रचित

नीले अंबर के आँंगन में
छाते जल से भरे सघन घन
शीतल चलती पवन हर्षित मन
भीगे धरा का आँचल
कहीं दूर दिखाई देता
धरती से गगन का होता मिलन
सूरज चाँद का गगन में भ्रमण
गगन में लगता जब तारों का डेरा
झिलमिलाता अंबर लगता प्यारा
सुबह ऊषा की लालिमा लिए
रात निशा की कालिमा लिए
अपने रूप बदलता है गगन
कुछ ऐसा ही है जीवन बदले
कभी सुख की सुंदर अनुभूति
तो दुःख के काली बादली है
मन को पँछी बन उड़ने दो
सपनों को पूरा करना है तो
अपने कर्मो पर भरोसा कर
हृदय गगन सा विशाल रखो
हो प्रेम, भावना,सद्भाव सदा 
उत्तम आचार विचार रखो
छाएं प्रेम के बादल सदा
हृदय हो विशाल गगन-सा
मन प्रेम का बने समंदर
आशा झिलमिल तारे-सी
नदिया की बहती धारा-सी
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित रचना


विधा.. कविता
समदर्शी हो गगन तुम कैसे
तुम्हारी दृष्टि में सब एक जैसे
सब की छत हो हिन्दू मुसलिम ईसाई
आपकी कभी भेद पूर्ण दृष्टि नहीं पाई
हो कुदरत की अजब माया
मन्दिर मस्जिद को देते समान
धूप छाया।
भेजते हो इस जंमी पर रोशनी की बहरों को
सभांले हो आगोश में चाँद और सितारों को
बिजली के झंझाबातों से मगन हो
कितने प्यारे गगन हो।

अभय 
अलीगढ़
पंछी था मैं उन्मुक्त गगन का, 
क्यूँ मुझको यहाँ कैद किया, 
क्यूँ ना समझे मेरे दर्द को, 
क्या मैने था बैर किया l

बांध दिया मुझे बंधन मे, 
क्यूँ ये अत्याचार किया, 
जरा ना सोचा मेरे बारे मे, 
क्यूँ ये आघात किया l

याद आता मुझे उन्मुक्त गगन, 
जिसमे विचरा करता था, 
इस डाली से उस डाली पर, 
खूब फुदकता फिरता था l

खूब अच्छा दाना देता मुझको, 
कभी सूखे मेवे भी देता, 
पर तू ही बता मुझको, 
कौन पिंजरे मे खुश रह सकता l

कितना लालची तू है मानव, 
क्यूँ नहीं मुझे आजाद करता, 
काहे बना है रे तू दानव, 
क्यूँ ना मेरी ह्रदय पीर समझता

माना कूक मेरी अच्छी लगती, 
तुझको वो बहुत भाती हैं,
पर जरा सोच हे मानव, 
कैद किसे है सुहाती हैl

वादा करता हूँ तुझसे मैं, 
आजाद करे जो तू मुझको, 
प्रतिदिन यहाँ पर आऊंगा, 
अपना प्यारा सा राग रोज 
तुझे सुनाऊंगा l
कुसुम पंत उत्साही 
स्वरचित
किसी कल्प भुवन पे पैर धरे
चल नीलगगन की सैर करें
तपती धूप,सूरज का उजियारा
मिटे सकल विश्व का अँधियारा
स्थित अखंड ऊर्जा-स्रोत लिये
जगहित-धर्म परम स्त्रोत लिये
थक आज चले कुछ हुए क्लांत
ले आई निशा भरी छाँव एकांत
फिर मंद हुआ खगकुल-कुंजन
पर दीप्तित कैसे ये नील गगन
है शीतल चाँद व चकमक तारे
संग मिल बैठे हैं नखत भी सारे
कुछ चित्र विचित्र बन रहे निराले
उन्मुक्त पवन घन खेल मतवाले
अब नींद निगोड़ी हमसे बैर करे
चल नील गगन की सैर करें
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित


हे गगन,
सब तुझमें मगन।
चाँद सितारों से सजा,
सदा तेरा आँगन।

निज बल पर है टिका 
धरा का है आवरण तू 
धुआं-धुआं तेरा आवरण 
मेघों का आशियाँ तू 

हर पंछी की चाह रही,
तुझको सदा पाने की।
अपने दृढ़ हौसलों से,
तुझको सदा हराने की।

ताके किसान तुझे,
लेकर चाह मन में।
अबके बरसेगा जमके,
खुशियाँ होगी आँगन में।

त्राहि त्राहि करे जन-जन,
पर ठहरा निष्ठुर तू।
अल्पवर्षा करे कहीं,
कहीं करे अतिवृष्टि तू।

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

विधाःःः गीतलेखनःःः

कहाँ छिपे हो कृष्ण कन्हैया,
दूर गगन की छांव में।
तुम्हें तलाशते सभी यहां पर,
कब आओगे भाव में।
कहाँ छिपे हो.............
नटखट नंन्ददुलारे सबके।
राधेमोहन प्यारे सबके।
बस जाओ स्वभाव मेंः
कहाँ छिपे हो........
देख चित्र तुमको हर्षाते।
बंशीवाले तुम्हें बुलाते।
चित्तचोर मनमोहन मेरे,
आजाओ इस गांव में।
कहाँ छिपे हो..........
गगन निहारूँ तुम्हें बिसारूँ।
रोज रोज मै तुम्हें निहारूँ।
भीगे मन के भाव में।
कहाँ छिपे हो............
बादल बहुत मतवाले,
आसमान में छाऐ हुऐ हैं।
सभी ढूंढते नभ में फिर
अपने उर के ठांव में।
कहाँ छिपे हो .......
कृष्ण कन्हाई मुरलीवाले।
कहीं खोए तुम गैयन वाले।
जनजन के प्रभाव में।
कहाँ छिपे हो..........

स्वरचितःःः, स्वप्रमाणित
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय

उन्मुक्त उड़ान भरकर 
पावन परिंदा सा मेरा मन।
बादलों के उस पार जाकर
छूना चाहता है गगन।।

रह न जाये कोई अधूरी,
हर ख्वाहिश हो जाये पूरी।
आनन्दित हो जाये जीवन,
खिला रहे मन का उपवन।।

है विधाता तेरी हर रचना,
कितनी पावन और महान।
चाँद तारे ग्रह नक्षत्र,
ये धरती और आसमान।।

रचनाकार 
जयंती सिंह

"आकाश"
आकाश क्यों खामोश है
बादलों का भी पहरा है
आज राज कुछ गहरा है

ज्योतिर्मय आकाश है
स्वर्णिम सा सवेरा है...
आशाओं का मेला है..

सतरंगी आकाश है..
यह किरणों का खेल है
खुशियों ने डाला डेरा है

झुक रहा आकाश है...
धरा को दे रहा सहारा है
देककर मन हैरान है...

सज गया आकाश है
चाँद तारों की बारात है
महकती हुई रात है

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल


"उन्मुक्त गगन"
शाश्वत श्वेतअंबर का शांत शीतल सफ़र,
कितना सुन्दर कितना निर्मल मन,

खग विहगों का होता, नित मिलन,
वसुधा से अंबर की शान बढातें पंक्षी,
रिमझिम-रिमझिम बारिश बरसें,सघन घन,
शीत बूंदो से गिरते ओले, धरती के आचंल,
जैसे उन्मुक्त गगन ,निहारता बर्फ की चादर,
मंद -मंन्द मुस्कराती ,शीतल पवन भीगे धरती,
मेरा मन हर्षित होता, सुन्दर दृश्य देखे नयन,
नूतन सपनें ओढें, छोड़कर दु:ख के काले बादल,
मै चाँद तारों को छू लू,अशियाना उन्मुक्त गगन,
सूर्योदय में सुनहरी किरणों की उज्ज्वल आभा,
नदियों का करती दीदार, जैसे कृषक निहारे खेत,
चाँद पूर्णिमा का नूतन प्रकाश, गगन अंधेरा मिटाता,
तारों से चमकता आचंल,आसमां का झिलमिलाता,
प्रातःकाल खगकलरव करतें, उन्मुक्त गगन के पंक्षी,
सुन्दर-सुन्दर रंगबिरगी फूलों की महक महकायें गगन,
योग ध्यान ऋषि मुनियों की, भजन संगीत ध्वनि तरंगे,
उन्मुक्त गगन के पंक्षी को, जैसे प्रभु भक्ति रस में रंग दे,
स्वरचित: सुनीता पंवार 
(उत्तराखण्ड)

छिपाए न जाने
कितने रहस्यों को
सदियों से
विस्मित करता
लिए स्वयं में
विस्तृत मौन....!
अनगिनत
आकाशगंगाओं को
लिए अपने आगोश में
कल्पनाओं की तरह ढलती
कितनी कहानियों में.... ।
वह साक्षी है
युगों - युगों से
कितनी सभ्यताओं और
संस्कृतियों के
उत्थान और पतन की
वह निःशब्द मूकद्रष्टा
तप में लीन
जो आज भी अभेद्य है
आत्मसात किए स्वयं में
कितने रहस्य लोक
वह विस्तृत मौन
गगन.......!

स्व रचित
डॉ उषा किरण
 चूमें गगन
प्रतिभा के सहारे
रहें मगन।।


गगन छोटा
इच्छाओं का महल
ख़्याली पुलाव।।

झुका गगन
बलिदानी तेवर
सुस्वागतम।।

रोये गगन
बढ़ता प्रदूषण
बरसे अम्ल ।।।

नील गगन
कोई ओर न चोर
मचाये शोर।।
भावुक
आकाश नीलाकाश, 
जिसका होता स्वच्छ प्रकाश ।
गगन वही जो आकाश नहीं ! 
गगन राह पर जहाज विचरते
नभ पर सब तारे चमकते 
अम्बर, व्योम ईश्वर के नाम 
ताने सभी अंतरीक्ष में शस्त्र, 
सूर्य, ग्रह, उपग्रह, तारे -नक्षत्र, 
धरती-पर फैला ये आकाश, 
लेते सभी इसी से सांस ।
पँछी सब विचरण करते हैं , 
सभी उजाला इसी गगन से
बात करो तुम बड़ी लगन से ।
धरती की क्षुधा मिटाने को
लाता मेघ बरसात यही ।
नहीं रहा स्वच्छ अब यह भी , 
होता निश-दिन प्रदूषित यह भी ।
आओ हम इसमें विचरण करें , 
अपना भी स्थान तय करें ।
यह भेद नहीं करता हैं , 
सब को जगह देता हैं , 
बँटवारा यह नहीं करता हैं।
मुट्ठी आसमां ढूंढ़ता हर कोई
अपने पँखों को फैलाकर, 
खुला मैदान देता हैं यह
कोई कर सकता सीमा रेखा ? 
तुमने क्या देखा इसमें 
इसने सब कुछ देखा हैं तुम में ! 
स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा 'निश्छल',
"गगन/नभ/आकाश"
1
मेघ पहरा
खामोश है आकाश
रात गहरा
2
मेघों के संग
सतरंगी आकाश
खेल किरण
3
मन का पंछी
उन्मुक्त आसमान
करे विहार
4
मासूम प्रश्न
आकाश की ऊँचाई
नापता कौन
5
धरा का प्यार
नभ के छाँव तले
जीवन खिले
6
उड़ी पतंग
हाथ में डोरी थाम
नभ विहार
7
नभ तर्जनी
चन्द्रमा की संगीनी
हँसी रजनी
8
पूर्णिमा चाँद
ज्योतिर्मय आकाश
श्वेत चाँदनी

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
आओ हम और तुम मिलकर 
आज एक हो जाएँ
इस जग जीवन में चलो
नेक काम कर जाएँ
अज्ञानता तिमिर को दूर भगाएँ
आओ सूरज बनकर 
ज्ञान का प्रकाश फैलाएँ
नई सुबह की नव ऊर्जा लेकर
दबे कुचलों को समर्थ बनाएँ
सूरज की लालिमा लेकर
दीन हीन की ख़ुशियों में रंग बिखराएँ
सूरज के ताप से तापित होकर
दबी प्रतिभाओं को पहचान दिलाएँ
नील गगन में देखो अब 
चाँद चमक दमक रहा
आओ उसकी सीरत से भी 
हम कुछ उधार ले आएँ
चाँद से लेकर सौंदर्य का ज्ञान
मानवता में चार चाँद लगाएँ
उसकी शीतलता का लेकर अंश
ईर्ष्या द्वेष के जलते अंगारे बुझाएँ
आओ हम और तुम मिलकर 
आज एक हो जाएँ
इस जग जीवन में चलो
नेक काम कर जाएँ .....

संतोष कुमारी ‘ संप्रीति ‘
स्वरचित
मर्मादा का यही पुजारी इसने ही बस मर्यादा समझी ,

आसमान कितना विशाल ,रहता है खड़ा चुपचाप ही |

गगन अति गंभीर ,होता अहं रहित ,सामर्थ असीम बड़ी, 

यह है पालनकर्ता ,आश्रयदाता ,नहीं कोई चाहत रहती |

हर्षित सदैव ये पर उपकारी मुश्किल है इसकी राह बड़ी, 

यह आदर्श बना सबका, मन ये लुभाता ,देता है खुशी |

यहाँ कामना रहित तो कोई गगन सा मिलता ही नहीं, 

चाँद, सूरज और तारे बसेरा कर रहे यहाँ पर सभी |

स्वरूप सबने है बदला गगन ने न रूप बदला है कभी ,

है लक्ष्य पै कायम गगन ये नहीं डगमगाया है कभी भी |

चाहत सबको है इसी की चाहते हैं सब छाया इसकी ,

आकाश उसको मिल ही जाता धरती पै आया है जो भी 

स्वरचित , मीना शर्मा ,मध्यप्रदेश ,|
ये नीला अनंत विस्तार,
ये रहस्यमयी संसार।
कौन रहता है वहां,
उस नील नभ के पार।
सुना है एक लोक,
गगन के उस पार है।
नहीं कोई दुख वहां,
सुखद वह संसार है।
ये ज्योतिर्मय सूर्य नभ में,
उस लोक का पता बता रहा।
ये गगन की नीलिमा है या,
पट किसी का फहरा रहा।
लो रजनी ने डाला डेरा ,
खो गई अब नीलिमा।
पहन कर तारों का हार,
शोभती है ये कालिमा।
वो झांकता है चंद्र या,
चंद्र मुख कोई झांकता।
या गगन ही चंद्र रूप में,
रहा धरा को ताकता।
मिलकर भी मिलते नहीं,
धरती-गगन साथ में।
दूर क्षितिज पर लग रहा,
डाले हाथों में हाथ हैं।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित
नीला गगन है कितना प्यारा, 
सूरज का इसमें उजियारा, 
धरती पर फैले जब किरणें,
मानों जंगल में भागे हिरणें |

बादल की गड़गड़ाहट जब होय, 
मोर, पपीहा नाचे और गाये, 
झमझमाहट बारिश हो जाये, 
धरती की प्यास तब बुझ जाये |

रात को चाँद गगन में चमके, 
तारों की चादर खूब दमके,
देख देख मन मेरा हर्षाये, 
नैनों को खूब सुख मिल जाए |

पंछी बन उड़ जाऊँ गगन में, 
बार-बार मन मेरा ये चाहे, 
घर अपना बन जाये गगन में, 
मन ऐसी कल्पना कर जाये |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*
साँझ के आँचल तले
ताकती नभ मंजुषा
एक विरहन की दशा

छिटके तारे नभ तले
ओढे लाज को यूँ चली
धरती को अम्बर यूँ तके

फूलों सी नाजुक डोर
आँखों मे चमकती भोर
लाज को डाले मुँख पर
चंचल सी एक चकोर

मन में लिए एक आस
पी से मिले मधुमास
खुलने. लगे एहसास
हँसने लगे तरूण आस

स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू
नीलगगन बिना इस सृष्टि की ,
कौन कल्पना कर है सकता ।
ईश्वर जैसी विराट अनुभूति ,
अंतरिक्ष में भर है सकता ।

शक्ति सम्पन्न अरु क्रियाशील ,
पंच भूतों में है आकाश ।
हर पोले और ठोस पदार्थ में ,
होता आकाश का ही वास ।

बीज मंत्रों की सुने ध्वनियाँ ,
केवल है आकाश का काम 
किसने पार पाई ब्रह्मांड की ,
लघु ब्रह्मांड से चलता तमाम । 

छटा निराली नीलगगन की ,
सबल सहायक सबका होता ।
दस दिशाओं में बँधा वितान ,
निर्धन की छत अम्बर होता ।

मेघ दामिनी श्याम घटाएँ ,
इंद्र धनुष की छटा निराली ।
पृष्ठ भूमि मे नील गगन से , 
रवि रश्मियाँ दिखें मतवाली ।

श्वेत श्याम मेघों के चित्रांकन ,
उनके चहुँओर रजत रेखाएँ ।
रश्मी रथी का रथ स्पर्श कर ,
नभचर स्वच्छंद कंठ से गाएँ ।

रजनी बाला के दुकूल पर , 
सितारे सजाता है नभ नीला ।
नभ -गंगाओं की बेलों से , 
बनता शशि मुख है गर्वीला।

नील गगन की महिमा अनंत , 
अनंत ईश्वर जैसा विस्तार ।
शशि तारों संग महिमा मंडन ,
सबकी इच्छाओं का अभिसार ।

स्वरचित 
ऊषा सेठी
सिरसा 125055 ( हरियाणा 
मत रोको मेरा हाथ पंछी बनकर उड़ने दो 
अपनों ख़्वाबों को नवीन रंग भरने दो 
पंछी बनकर गगन में हौसलों की उड़ान भरने दो 

खुले गगन में मुझे भी जीने दो .

हर विघ्न बाधा से मुझे लड़ने दो 
अपना खुद का आशियां मुझे बनाने दो 
गगन से ऊँचा मकाम मुझे बनाना हैं 
सारे जमाने को मुझे ये बताना हैं .

ह्रदय में मेरे हैं अथाह विश्वास 
कभी तो खत्म होगी मेरी हौसलों की तलाश 
चली हूँ मैं अपनी अरमानों की राह 
लेकर एक नई उम्मीद की चाह.

ऊँचे गगन में हैं ये मेरी ऊँची उड़ान 
नैनों में समाया हैं मेरे ये समस्त आसमान 
करने हैं मुझे पूरे अपने हर अरमान 
चाहे क्यों ना बैरी हो जाये मेरा ये जहाँ.
स्वरचित:- रीता बिष्ट
पिता हमारे 
उदाहरण गगन 
पालन कर्ता 
छाया आवश्यकता 
उदारता हृदय |

ऊँची उडान 
मन का एहसास 
होता हमारा 
आसमान का चाँद 
गगन का सितारा |

गगन चुम्बी 
कारीगरी महान 
मनभावन 
पर्यटक बहार 
इमारतें कितनीं 

नीला आकाश 
धरती पुरूस्कार 
मानव जाति
विशालता हृदय 
मन बने गगन |

इन्द्रधनुष 
हरीतिमा धरती 
जीवन आस 
गगन का कमाल 
आभारी है संसार |

स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश ,
नील गगन को देख मन मे उठे भाव
झुकने को तैयार नही जो वही है आकाश
कर्तव्य पथ पर जो रहे अडिग
वही रचे इतिहास

सूर्य चंद्र सितारों से भरा 
अद्भुत है उसका संसार
उसकी सुंदरता देख कर
चकित है संसार

पंक्षी उड़े आकाश में
लेकर ऐसी चाह
अंनत गगन को नाप ले 
पर पा सके ना पार
अद्भुत है आकाश

जीवन लंबा हो या छोटा
बस बने मिसाल
अंनत उड़ान भरने से पहले
व्यक्तित्व बने आकाश समान।
स्वरचित-आरती -श्रीवास्तव।
गगन में उड़ने की
चाह थी उसकी
बैठा खिडकी के पास
देखता गगन में 
उडते पंछी 
पर वह लाचार था
पैर से असहाय थे

वह था
मन का पक्का 
ठान लिया था 
गगन में उड़ना
वह बैठा रहता 
व्हील चेयर पर

एक दिन एक पंछी
आ बैठा खिडकी पर
लगा बात करने वह उससे
हिम्मत उसने दिलाई
पैर उठाए विश्वास से

पहले उठा फिर गिरा 
फिर संभला फिर चलने लगा
पंछी की चि चि बढ गयी थी
खुशी से नाच उठे दोनों

सच है
कोशिश करने वाली
हार नहीं होती
हौसला रखने वाले ही
पहुंचते है
गगन की ऊँचाईयों पर

स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
सब हो जाते हैं मगन
जब देखते हैं वे गगन
सूर्य दिखता तमतमाता
चन्द्र दिखता जगमगाता।

चम चम चमकता रहता तारा
झूमता रहता बादल आवारा
कभी इन्द्रधनुष रंगीला प्यारा 
बना देता गगन को सुन्दर न्यारा।

हम नापते ऊँचाई सदा गगन से
इसका सम्बन्ध बताते लगन से
और जब भी बेतहाशा धूप छाती
कहते सूर्य बरसाता ये गोले अगन से।

गगन के पार जाने की कल्पना है
और यह भी एक विडम्बना है
कि संसार सारा इसमें जुटा है
बहुत सारा धन इसी में लुटा है।

गगन भरा संभावनाओं से,
मन बँधा अवधारणाओं से, 
उड़ते परवाजों से सीखना, 
चहकना, एकता धुन गुनना, 
अब वक़्त किसके पास है? 
अपने स्वप्नों के आस्मां की, 
आज सभी को तलाश है l

रात-दिन, सुख-दुःख का वास है 
ज़िंदगी पूर्णता लिए विरोधाभास है,
किसी को दो गज़ जमीं मयस्सर नहीं, 
किसी के जमीं पे पैर पड़ते नहीं, 
हर दौड़ अधूरेपन को भरने की प्यास है, 
मन का पंछी पिंजरे में कैद है, 
किसकी मुट्ठी में पूरा आकाश है? 

स्वरचित 
ऋतुराज दवे
मन की है आज 
स्वच्छंद उड़ान 
कल्पना लोक मे
विचरता गतिमान
खुले गगन के नीचे बैठे
ख्वाबों और जिज्ञासा की 
उड़ान जा पहुँची नील गगन 
चाँद तारों की दुनिया मे
अभी कितने रह्स्य अनसुलझे 
कैसे अपनी धुरी पर गतिमान
सब ग्रह लय मे हैं बँधे हुए ,
अपनी "कल्पना" को 
कैसा दिखा होगा 
नीला ग्रह ,नील गगन से 
दुखद रहा उसका गमन।
अगली उड़ान भरी मन ने
उड़ते उड़ते जा पहुँचा 
लाल ग्रह पर अपना यान
वैज्ञानिकों को सलाम
जिनसे है देश का मान ।
उड़ता रहे मन
और ऊंची उड़ान
बौद्धिक क्षमता की 
कमी नहीँ देश मे
रहस्यों की तह तक
अभी जाना है
याद है मन
आज उड़ान पर है
चलते है 
गगन के पार अपना 
आशियाना बनाना है ।

स्वरचित 
अनिता सुधीर श्रीवास्तव
शीर्षक : गगन

गगन
-------
1

ऐ गगन! तेरा प्रतिबिम्ब 
अपने अन्तर बनाता रहा 
तेरे निरभ्र फैलाव को 
अपलक ताकता रहा 

2

ऐ गगन! क्या तुम शून्य हो 
उतरकर मेरे अन्तर में समा जाओ
आनंद क्या है? अनुभूति करा जाओ



ऐ गगन! अपनी दिव्यता 
महसूस करा जाओ 
कैद न रहूँ कभी लोहे की दीवारों में 
अपनी निर्मलता 
महसूस करा जाओ 

4

मत टुकड़े कर गगन को 
जड़ जड़ता से पापों से 
मत रक्तिम कर गगन को
अविवेक अभिशापों से 
अंधा न बन
मन को न गला 
गगन की गरिमा पर 
कालिख न पोत 
दिशा -दिशा ज्योति कर 
डगर-डगर उमंग भर
सड़कों गलियों में 
मधुमय गीत गायन कर 
जीवन को उपवन बना 
वसंत पल पल सजा 
सुगंध की अभिलाषा कर 

5

ऐ गगन! तेरा आँगन भी लाजवाब है 
कभी सूरज कभी चाँद चमकते हैं 
तेरे असीम आँगन में 
कहीं सितारें कहीं मेघ चमकते हैं 
@ शंकर कुमार शाको 
स्वरचित
विधा:: हाइकु 

१.
माँ का दिल
गगन सा विशाल
बच्चे सितारे 

२.
गगन धरा 
हर कोई पिसता
दो पाटों में 

३. 
मनमोहक 
सितारों का कारवां 
आकाशगंगा 

४. 
आकाशगंगा 
पृथ्वी सौर मंडल 
प्रयागराज

५.
'भावों के मोती'
साहित्यिक गगन 
कवि सितारे 

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
सपने थोड़े
सोते ज़मीं पे
आकाश ओढ़े

ये क्या अजब जमाने की अब आजमाइश है
चांद की सतह पर आशियाने की फरमाइश है
बेचते-बेचते जब बची ना ज़मीं बेचने को
वो कहते है अब आसमां बेचने की ख्वाहिश है

झुके आकाश
दृढ़ हौसले औ
मन विश्वास

तेरा मेरा साथ
जैसे धरती और आकाश
मिल के भी नहीं मिलते
जाने कैसे बुझेगी प्यास

पिंजरे में कैद एक पंछी,सुना रहा था अपनी व्यथा...
सहचर संग मुग्ध- मधुर, ऊँची उड़ान की कथा...
ताकता वह था आकाश के खुले, कपाट की ओर...
लौटती अंतिम किरण या ओज की वह भोर...
विह्वलता से सुनता था वह, चूँ चूँ चुनमुन शोर...
ललचाया सा देख रहा था बैठा चुप,क्षितिज की ओर...
देखता वह दीन होकर अपना 
पंख- विन्यास...
ओह ! रुद्ध - कपाट और विश्राम का अचल-आवास...
हक है उसको पंख पसारे, उड़ने का सुख मिले निर्बाध...
पंछी को करना कैद ! हुआ यह तो अक्षम्य, अधम अपराध...
अस्त हुआ जीवन पंछी का , हुई विलीन उमंग...
प्रमुदित हुआ मनुज है, भर कर अपने जीवन में वह रंग...
आह अधम ! यह मुझसे है, मानव तेरा कैसा स्नेह...
कैसे पेट भरेगा मेरा, बंधे अन्न से तेरे गेह...
सिंधु की लहरों पर तिरकर आता , पंखों में उमंग...
सोचूं कि झरने पर चढ़कर मैं करता,नृत्य नव-छंद...
हूँ तुम्हारी कैद में मैं एक शिथिल,निरीह काया...
चाहता उस डाल बैठूँ, जहाँ वृक्ष की मधुरिम छाया...
झुरमुट में करता था मैं अपने सहचर संग मधुर-किलोल...
ढूंढ रही होगी मुझको वह,लिए
अश्रुपूर्णित लोचन लोल...
खोल कर पिंंजरा किया जब मैंने, उसको बंधन-मुक्त...
देखते तब नयन उसके, मुझको स्नेहिल आभार-युक्त...
स्वरचित
'पथिक रचना'
विधा - हाइकु

पूर्णिमा चाँद
चमके गगन में
चाँदनी रात

मोतियों सम
सितारों भरा नभ
देखो चमक

काली घटाये
उमड़ी आसमान
खुश किसान

पंछी विचरे
आजाद गगन में
प्रसन्न मुद्रा

पिता सूरज
परिवार गगन
माँ धरा सम

मन गगन
विचरता ख्यालों में
प्रसन्नचित

कवि चंद्रमा
कविताएं गगन
शब्द सितारें

स्वरचित

बी एस वर्मा
रिसालिया सिरसा
हरियाणा से

"पंछी
 बनूँ, उड़ती जाऊं, नील-गगन में"
----------------------------------------------------------
नाचे मनमा मयूर बन, आज मगन में।
पंछी बनूँ, उड़ती फिरूँ, नील - गगन में।-2(टेक)
*********************************
अंतरा-
होकर मगन, खत भेजा है मेरा सजन,
अब मिट गया है रे, मेरे दिल की अगन। 
हँसती रहूँ, डोलती फिरूँ, आज मगन में।
पंछी बनूँ, उड़ती जाऊं, नील - गगन में।

नाचे मनमा मयूर बन, आज मगन में।
पंछी बनूँ, उड़ती जाऊं, नील - गगन में।
*********************************
अंतरा -
दिख रहा चारों ओर, सब कुछ खिला-खिला,
लोग भी दिखने लगे, हर ओर मिला-जुला।
गाती रहूँ , नाचती रहूँ, आज लगन में।
पंछी बनूँ, उड़ती जाऊं, नील - गगन में।

नाचे मनमा मयूर बन, आज मगन में।
पंछी बनूँ, उड़ती जाऊं, नील - गगन में।
*********************************
अंतरा-
हृदय से आयी आवाज, भुला हर बात,
मधुर मिलन को, निहारूँ प्रियतम का बाट। 
गाड़ी बनूं , दौड़ती जाऊं, मैं मगन में।
पंछी बनूँ, उड़ती जाऊं, नील - गगन; में।

नाचे मनमा मयूर बन, आज मगन में।
पंछी बनूँ, उड़ती जाऊं, नील - गगन में।
*********************************
--रेणु रंजन 
( स्वरचित )
31/01/2019

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