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ब्लॉग संख्या :-286
"इंसान"(1)प्रस्तुति
****************
कर्म से तपा हुआ
सत्य में ढला हुआ
कपटता को त्यागता
निश्छल सा भाव ले
प्रेम-सद्भाव से
करता सुकर्म जो
सांचा वो आदमी।😊
कल्पना के घोड़ों को
थाम के विचार को
लक्ष्य को भेदता
सफलता को चूमता
वृहद विस्तार दे
अविरल सी धार दे
सांचा वो आदमी।😊
देवों के देव सा
शिव सा जो प्रेम करें
जीवन निस्सार कर
लोक-कल्याण करें
भेद में अभेदता
खोजे जो विप्रवर
सांचा वो आदमी।😊
निरंतर प्रयास से
टूटे न हार से
हौसले बुलंद गढ़े
निर्भय,उछाह से
कर्तव्यों में लीन जो
दर्प में न चूर हो
सांचा वो आदमी।😊
निस्तेज हो जो शिराएं
वीर की गाथाएँ सुन
जाग्रत उत्थित श्वासें
दौड़े भुजबल में जब
आन-बान-शान से
हिंद के जो काम आए
सांचा वो आदमी।😊
नारी सम्मान में
नज़रों से मान दे
छलावे का आचरण
चरणों मे डाल दे
इज्जत रक्षार्थ जो
हर क्षण तैयार हो
सांचा वो आदमी।।😊
वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित,मौलिक रचना
1/2/2019
****************
कर्म से तपा हुआ
सत्य में ढला हुआ
कपटता को त्यागता
निश्छल सा भाव ले
प्रेम-सद्भाव से
करता सुकर्म जो
सांचा वो आदमी।😊
कल्पना के घोड़ों को
थाम के विचार को
लक्ष्य को भेदता
सफलता को चूमता
वृहद विस्तार दे
अविरल सी धार दे
सांचा वो आदमी।😊
देवों के देव सा
शिव सा जो प्रेम करें
जीवन निस्सार कर
लोक-कल्याण करें
भेद में अभेदता
खोजे जो विप्रवर
सांचा वो आदमी।😊
निरंतर प्रयास से
टूटे न हार से
हौसले बुलंद गढ़े
निर्भय,उछाह से
कर्तव्यों में लीन जो
दर्प में न चूर हो
सांचा वो आदमी।😊
निस्तेज हो जो शिराएं
वीर की गाथाएँ सुन
जाग्रत उत्थित श्वासें
दौड़े भुजबल में जब
आन-बान-शान से
हिंद के जो काम आए
सांचा वो आदमी।😊
नारी सम्मान में
नज़रों से मान दे
छलावे का आचरण
चरणों मे डाल दे
इज्जत रक्षार्थ जो
हर क्षण तैयार हो
सांचा वो आदमी।।😊
वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित,मौलिक रचना
1/2/2019
इंसान
इंसान की पहचान मानवता।
दयाभाव सद्भावना उपकारी।
नही तनिक भी पाशुविक ता।
समरसता सदार्द्रचित्ता मनोभावः।
इंसान प्रकृति का रक्षा मे तत्पर।
वन्य जीव जन्तु वृक्षसंवर्धन मे संलग्न।
इंसान बनो नही आदमखोर बेइंसान।
जाति धर्म मे न बंटो न बांटो।
एक रहो एक पथ चलो।
राक्षसी कुटिलता परखो इंसान बनो।
हम सब अब जागो कब तक सोओगै।
अभी नही जागे तब सोते रह जाओगे।
आओ आज इंसान बने सब।
बे इंसानी बन नाइंसाफी न करो।
यह देश सभी का यह देशवासी सभी के।
इनके साथ चलो इनके साथ रहो।
इंसान बनो इंसाफ करो।
🌄🌄🌄🌄🌄🌄🌄
स्वरचितः
राजेन्द्र कुमार अमरा
इंसान की पहचान मानवता।
दयाभाव सद्भावना उपकारी।
नही तनिक भी पाशुविक ता।
समरसता सदार्द्रचित्ता मनोभावः।
इंसान प्रकृति का रक्षा मे तत्पर।
वन्य जीव जन्तु वृक्षसंवर्धन मे संलग्न।
इंसान बनो नही आदमखोर बेइंसान।
जाति धर्म मे न बंटो न बांटो।
एक रहो एक पथ चलो।
राक्षसी कुटिलता परखो इंसान बनो।
हम सब अब जागो कब तक सोओगै।
अभी नही जागे तब सोते रह जाओगे।
आओ आज इंसान बने सब।
बे इंसानी बन नाइंसाफी न करो।
यह देश सभी का यह देशवासी सभी के।
इनके साथ चलो इनके साथ रहो।
इंसान बनो इंसाफ करो।
🌄🌄🌄🌄🌄🌄🌄
स्वरचितः
राजेन्द्र कुमार अमरा
सचराचर कई जीव बनाये
नर मादा कई आकार
इंसानियत पथ चलता जो
स्वप्न करे वही साकार
सोच समझ इंसान बनाया
बुद्धि शिक्षा उसमें भर दी
करनी जैसी करेगा मानव
वैसी ही फल सिद्धि कर दी
जो हिंसा से दूर ही रहता
अहिंसा परमोधर्म निभाता
मंगल गीत सदा वह गाता
ऐसा नर इंसान कहलाता
आसमान से बातें करता
अंतरिक्ष में ध्वज लहराता
सागर की सतह में जाकर
मन मोती माणक बहलाता
हैवानियत पर कभी न चलता
परोपकार नित हाथ बढ़ाता
कीर्तिमान बनाता अपने वह्
मन निर्मल जन इंसान कहाता
पर आत्मा परमात्मा समझे
कर्तव्य मार्ग सदा वह् चलता
स्वार्थ त्यागता मन से हँसता
कथा कविता वह् खुद बनता
नमन योग्य वह् महापुरुष है
जो जगति को दिशा दिखाता
पुरुषों में पुरूषोत्तम बनता
जन जीवन इंसा कहलाता।।
स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
नर मादा कई आकार
इंसानियत पथ चलता जो
स्वप्न करे वही साकार
सोच समझ इंसान बनाया
बुद्धि शिक्षा उसमें भर दी
करनी जैसी करेगा मानव
वैसी ही फल सिद्धि कर दी
जो हिंसा से दूर ही रहता
अहिंसा परमोधर्म निभाता
मंगल गीत सदा वह गाता
ऐसा नर इंसान कहलाता
आसमान से बातें करता
अंतरिक्ष में ध्वज लहराता
सागर की सतह में जाकर
मन मोती माणक बहलाता
हैवानियत पर कभी न चलता
परोपकार नित हाथ बढ़ाता
कीर्तिमान बनाता अपने वह्
मन निर्मल जन इंसान कहाता
पर आत्मा परमात्मा समझे
कर्तव्य मार्ग सदा वह् चलता
स्वार्थ त्यागता मन से हँसता
कथा कविता वह् खुद बनता
नमन योग्य वह् महापुरुष है
जो जगति को दिशा दिखाता
पुरुषों में पुरूषोत्तम बनता
जन जीवन इंसा कहलाता।।
स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
** बदल गया इन्सान**
इंसान , इंसान न रहा
ना रही अब इंसानियत,
सूरज , चाँद , सितारें वही
ना बदले धरती आसमान
कितना बदल गया इंसान,
मिलता जो गले मिलकर
खोंपे वही पीठ में खंजर,
रंग बदलते देख ये सब
गिरगिट भी है हैरान
कितना बदल गया इंसान,
रघुकुल रीत सदा चली आई
प्राण जाई पर वचन न जाई,
हर तरफ झूठ का बोलबाला
चाहे हाथ धरो गीता- कुरान
कितना बदल गया इंसान,
भाई से भाई लड़ रहा
रिश्तों की दीवार पाट रही,
कानों कान घुलता हलाहल
देख ,विषधर भी हैं हैरान
कितना बदल गया इंसान,
जन्मदाता बन गए बोझ
हो रहा तिरस्कार नारी का,
बहन-बेटियां हुई असुरक्षित
मानव बन गया हैवान
कितना बदल गया इंसान,
स्वरचित
बलबीर सिंह वर्मा
रिसालियाखेड़ा सिरसा(हरियाणा)
ना रही अब इंसानियत,
सूरज , चाँद , सितारें वही
ना बदले धरती आसमान
कितना बदल गया इंसान,
मिलता जो गले मिलकर
खोंपे वही पीठ में खंजर,
रंग बदलते देख ये सब
गिरगिट भी है हैरान
कितना बदल गया इंसान,
रघुकुल रीत सदा चली आई
प्राण जाई पर वचन न जाई,
हर तरफ झूठ का बोलबाला
चाहे हाथ धरो गीता- कुरान
कितना बदल गया इंसान,
भाई से भाई लड़ रहा
रिश्तों की दीवार पाट रही,
कानों कान घुलता हलाहल
देख ,विषधर भी हैं हैरान
कितना बदल गया इंसान,
जन्मदाता बन गए बोझ
हो रहा तिरस्कार नारी का,
बहन-बेटियां हुई असुरक्षित
मानव बन गया हैवान
कितना बदल गया इंसान,
स्वरचित
बलबीर सिंह वर्मा
रिसालियाखेड़ा सिरसा(हरियाणा)
आज तो इंसान की इंसान से ही जंग है
वह अपने दुख से न और के सुख से तंग है ।।
क्या होगा आखिर समाज परिवार का ,
हमसे अच्छा तो वो उड़ता हुआ विहंग है ।।
बेशक हमने बनाये महल किले
मगर दिल से दिल नही मिले ।।
औरों की तो छोड़ो अपनों को
अपनों से हैं आज शिकवे गिले ।।
जिस माने इंसा इंसा कहाये वो भूल गये
अपनी तरक्की औ स्वार्थ में ऐसे झूल गये ।।
आज पड़ोसी को पड़ोसी की नही खबर
पता न हम कौन सी तरक्की में फूल गये ।।
जिसमें इंसान इंसान न रहे वह पाप है
आज दौलत शोहरत बेशक अड़नाप है ।।
मगर सुख तो कब का गायब ''शिवम"
वह तो अन्दर रहे हमारे बाहर पदचाप है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 01/02/2019
वह अपने दुख से न और के सुख से तंग है ।।
क्या होगा आखिर समाज परिवार का ,
हमसे अच्छा तो वो उड़ता हुआ विहंग है ।।
बेशक हमने बनाये महल किले
मगर दिल से दिल नही मिले ।।
औरों की तो छोड़ो अपनों को
अपनों से हैं आज शिकवे गिले ।।
जिस माने इंसा इंसा कहाये वो भूल गये
अपनी तरक्की औ स्वार्थ में ऐसे झूल गये ।।
आज पड़ोसी को पड़ोसी की नही खबर
पता न हम कौन सी तरक्की में फूल गये ।।
जिसमें इंसान इंसान न रहे वह पाप है
आज दौलत शोहरत बेशक अड़नाप है ।।
मगर सुख तो कब का गायब ''शिवम"
वह तो अन्दर रहे हमारे बाहर पदचाप है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 01/02/2019
शीर्षक : इंसान
1
इंसान ऐसा मानव है
जिसकी मृत्यु, कभी होती नहीं
2
कितनी अजीब है दुनिया
कि इंसानों की झुंड में
हजारों इंसान हैं
मगर इंसान तू नहीं है
3
इंसानियत में खो जाने से अच्छा है
इंसान हो जाएं
4
तुम्हारे प्रेम रंग में रंगने से
मैं रंगीन हो गया
इससे पहले तन था
अब इंसान हो गया
5
क्रेता और विक्रेता का रूप नहीं है
इंसान महामानव है
मिट्टी की देह नहीं
6
हे इंसान!
तुझे कहीं और तलाश करूँ कैसे
जब तू ध्वनि करता है मेरी रूह में
7
इंसान मैं नहीं
इंसान तू नहीं
इंसान तन नहीं
इंसान राख नहीं
इंसान संज्ञा नहीं
इंसान रूप नहीं
इंसान विचार नहीं
इंसान दर्शन नहीं
इंसान मूल्य नहीं
इंसान अंकुरण नहीं
इंसान प्रस्फुटन नहीं
इंसान अपना नहीं
इंसान पराया नहीं
इंसान क्रेता नहीं
इंसान विक्रेता नहीं
इंसान अकेला नहीं
इंसान झुंड नहीं
इंसान धर्मी नहीं
इंसान कर्मी नहीं
इंसान पत्थर नहीं
इंसान देव नहीं
इंसान पापी नहीं
इंसान पुण्य नहीं
इंसान है नहीं
इंसान होता नहीं
इंसान अहंकारी नहीं
इंसान अभिमानी नहीं
इंसान बड़ा नहीं
इंसान छोटा नहीं
इंसान सम्मानित नहीं
इंसान अपमानित नहीं
इंसान राजा नहीं
इंसान रंक नहीं
इंसान अमीर नहीं
इंसान निर्धन नहीं
इंसान शब्द नहीं
इंसान ध्वनि नहीं
इंसान काव्य नहीं
इंसान ज्ञान नहीं
इंसान अनुभव नहीं
इंसान अनुभूति नहीं
जिसमें तू नहीं
जिसमें मैं नहीं
मैं हिं तो हूँ
मैं हिं तो हूँ
मैं हि इंसान हूँ
इंसान ही मैं हूँ।
@ शंकर कुमार शाको
स्वरचित
इंसान ऐसा मानव है
जिसकी मृत्यु, कभी होती नहीं
2
कितनी अजीब है दुनिया
कि इंसानों की झुंड में
हजारों इंसान हैं
मगर इंसान तू नहीं है
3
इंसानियत में खो जाने से अच्छा है
इंसान हो जाएं
4
तुम्हारे प्रेम रंग में रंगने से
मैं रंगीन हो गया
इससे पहले तन था
अब इंसान हो गया
5
क्रेता और विक्रेता का रूप नहीं है
इंसान महामानव है
मिट्टी की देह नहीं
6
हे इंसान!
तुझे कहीं और तलाश करूँ कैसे
जब तू ध्वनि करता है मेरी रूह में
7
इंसान मैं नहीं
इंसान तू नहीं
इंसान तन नहीं
इंसान राख नहीं
इंसान संज्ञा नहीं
इंसान रूप नहीं
इंसान विचार नहीं
इंसान दर्शन नहीं
इंसान मूल्य नहीं
इंसान अंकुरण नहीं
इंसान प्रस्फुटन नहीं
इंसान अपना नहीं
इंसान पराया नहीं
इंसान क्रेता नहीं
इंसान विक्रेता नहीं
इंसान अकेला नहीं
इंसान झुंड नहीं
इंसान धर्मी नहीं
इंसान कर्मी नहीं
इंसान पत्थर नहीं
इंसान देव नहीं
इंसान पापी नहीं
इंसान पुण्य नहीं
इंसान है नहीं
इंसान होता नहीं
इंसान अहंकारी नहीं
इंसान अभिमानी नहीं
इंसान बड़ा नहीं
इंसान छोटा नहीं
इंसान सम्मानित नहीं
इंसान अपमानित नहीं
इंसान राजा नहीं
इंसान रंक नहीं
इंसान अमीर नहीं
इंसान निर्धन नहीं
इंसान शब्द नहीं
इंसान ध्वनि नहीं
इंसान काव्य नहीं
इंसान ज्ञान नहीं
इंसान अनुभव नहीं
इंसान अनुभूति नहीं
जिसमें तू नहीं
जिसमें मैं नहीं
मैं हिं तो हूँ
मैं हिं तो हूँ
मैं हि इंसान हूँ
इंसान ही मैं हूँ।
@ शंकर कुमार शाको
स्वरचित
दौड़ रही नस नस में मानवता ,
परवाह नहीं जिसे निज सुख की |
करूणा का आवरण जिसका ,
द्रवित हृदय मूरत जो ममता की |
आसमान बनाये जो हौसलों का ,
कदमों तले हो जिसके धरती |
बसे मन में आदर सभी बुज़ुर्गों का ,
सम्मानित हो जिससे देश की नारी |
रहे आत्म सम्मान आभूषण हमेशा ,
भ्ष्टाचार से जो रखे दुश्मनी |
करे नमन जो अपने देश को सदा ,
आये न मन में कभी बेईमानी |
संस्कार सदाचार का हो रखवाला ,
प्यारी हो जिसको अपनी संस्कृति |
बैरभाव नफरत को दूर जो रखता ,
समानता एकता का हो जो अनुगामी |
मुस्कराहट की दौलत को जो करे इकठ्ठा ,
ज्योति जलाये प्रेम की इंसान वही |
इंसान सभी को रब ने बनाया ,
बदल जाता मानव अपनी परिस्थिति |
संसार बने जो हमारा ऐसा ,
जो कटुता मन में न पैदा होती |
बहता रहता स्नेह का झरना ,
इंसानों की न हो पाती कमी |
स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश
परवाह नहीं जिसे निज सुख की |
करूणा का आवरण जिसका ,
द्रवित हृदय मूरत जो ममता की |
आसमान बनाये जो हौसलों का ,
कदमों तले हो जिसके धरती |
बसे मन में आदर सभी बुज़ुर्गों का ,
सम्मानित हो जिससे देश की नारी |
रहे आत्म सम्मान आभूषण हमेशा ,
भ्ष्टाचार से जो रखे दुश्मनी |
करे नमन जो अपने देश को सदा ,
आये न मन में कभी बेईमानी |
संस्कार सदाचार का हो रखवाला ,
प्यारी हो जिसको अपनी संस्कृति |
बैरभाव नफरत को दूर जो रखता ,
समानता एकता का हो जो अनुगामी |
मुस्कराहट की दौलत को जो करे इकठ्ठा ,
ज्योति जलाये प्रेम की इंसान वही |
इंसान सभी को रब ने बनाया ,
बदल जाता मानव अपनी परिस्थिति |
संसार बने जो हमारा ऐसा ,
जो कटुता मन में न पैदा होती |
बहता रहता स्नेह का झरना ,
इंसानों की न हो पाती कमी |
स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश
बे ब्रह ग़जल
वक़्त जिसका बिगाड़ न पाया उस फ़रिश्ते को देखते चलें,
दूजे का दर्द जिसके सीने में हो उस इंसान को देखते चलें l
ज़माने में जो बाँट रहे औरों को नसीहतें,
चलो चलते हैं आज उनका भी घर देखते चलें l
सभ्यता की गगनचुम्बी मीनारें हैं जहाँ खड़ी,
संवेदनाओं से भरा हुआ वो शहर देखते चलें l
इंसान को अब इंसान होना भी गवारा नहीं,
धर्म-जाति के संस्कारों का असर देखते चलें l
इंतिहा हो चुकी मर चुकी आज इंसानियत भी,
"राज"अब उस खुदा का कहर देखतें चलें l
स्वरचित
ऋतुराज दवे
वक़्त जिसका बिगाड़ न पाया उस फ़रिश्ते को देखते चलें,
दूजे का दर्द जिसके सीने में हो उस इंसान को देखते चलें l
ज़माने में जो बाँट रहे औरों को नसीहतें,
चलो चलते हैं आज उनका भी घर देखते चलें l
सभ्यता की गगनचुम्बी मीनारें हैं जहाँ खड़ी,
संवेदनाओं से भरा हुआ वो शहर देखते चलें l
इंसान को अब इंसान होना भी गवारा नहीं,
धर्म-जाति के संस्कारों का असर देखते चलें l
इंतिहा हो चुकी मर चुकी आज इंसानियत भी,
"राज"अब उस खुदा का कहर देखतें चलें l
स्वरचित
ऋतुराज दवे
II इंसान - मुर्दा II
ढो रहे थे काँधे पे रो रहे थे सभी....
लाश उसकी ज़िंदा रहा था जो कभी...
थे संगी सखा कुछ बचपन के....
रिश्ते में...घर के लोग..रो रहे सभी...
प्राण गए तो मर गया ज़िंदा था जो अभी अभी...
ज़िंदा था तो रिश्ता था मुर्दा है तो कुछ नहीं...
है मुर्दे की पहचान यही भाव जिसमें नहीं कोई...
घर...समाज...धर्म...क़ानून सब पराये हो जाते हैं...
घर में रहने की इजाज़त नहीं...शमशान ले जाते हैं...
मुर्दे की है पहचान यही....
ज़िंदा हैं तो भाव हैं...मर गया कोई सुख दुःख नहीं...
मुर्दे की पहचान यही....
बीच चौराहे पे हुआ क़त्ल सब ने देखा पर नहीं असर...
कोख में बच्ची क़त्ल, दिल किसी में रहम नहीं...
तार तार हुई अस्मत, दिन दहाड़े एक नारी की...
चीत्कार सुनी अनसुनी रही दिल में दर्द की कमी रही...
पत्थर दिल बन रह गए सभी, आँखों में थी नमी नहीं...
शमशान बना है जब सारा शहर जिसमें मुर्दों की कमी नहीं...
फिर क्यूँ मुर्दा है सिर्फ वही जिसके प्राण बचे नहीं....
क्या मुर्दे की पहचान यही....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
ढो रहे थे काँधे पे रो रहे थे सभी....
लाश उसकी ज़िंदा रहा था जो कभी...
थे संगी सखा कुछ बचपन के....
रिश्ते में...घर के लोग..रो रहे सभी...
प्राण गए तो मर गया ज़िंदा था जो अभी अभी...
ज़िंदा था तो रिश्ता था मुर्दा है तो कुछ नहीं...
है मुर्दे की पहचान यही भाव जिसमें नहीं कोई...
घर...समाज...धर्म...क़ानून सब पराये हो जाते हैं...
घर में रहने की इजाज़त नहीं...शमशान ले जाते हैं...
मुर्दे की है पहचान यही....
ज़िंदा हैं तो भाव हैं...मर गया कोई सुख दुःख नहीं...
मुर्दे की पहचान यही....
बीच चौराहे पे हुआ क़त्ल सब ने देखा पर नहीं असर...
कोख में बच्ची क़त्ल, दिल किसी में रहम नहीं...
तार तार हुई अस्मत, दिन दहाड़े एक नारी की...
चीत्कार सुनी अनसुनी रही दिल में दर्द की कमी रही...
पत्थर दिल बन रह गए सभी, आँखों में थी नमी नहीं...
शमशान बना है जब सारा शहर जिसमें मुर्दों की कमी नहीं...
फिर क्यूँ मुर्दा है सिर्फ वही जिसके प्राण बचे नहीं....
क्या मुर्दे की पहचान यही....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
इन्सानियत से आदमी दूर कितना हो रहा है।
खामखाँ में देखिये मजबूर कितना हो रहा है।
तोलती है आदमी को आदमी की हैसियत ।
मालो जर के नशे में चूर कितना हो रहा है।
खुद को समझे है खुदा नादानियत देखिए।
हैरान हूँ देखकर मगरूर कितना हो रहा है।
बे - अदब माहौल है मगरबी सिलसिलो का।
मुआशरा इन दिनों बेशऊर कितना हो रहा है।
जुल्मी है जितना पापी है उतना बड़ा नाम है।
देखिए तो आप भी मशहूर कितना हो रहा है।
विपिन सोहल
खामखाँ में देखिये मजबूर कितना हो रहा है।
तोलती है आदमी को आदमी की हैसियत ।
मालो जर के नशे में चूर कितना हो रहा है।
खुद को समझे है खुदा नादानियत देखिए।
हैरान हूँ देखकर मगरूर कितना हो रहा है।
बे - अदब माहौल है मगरबी सिलसिलो का।
मुआशरा इन दिनों बेशऊर कितना हो रहा है।
जुल्मी है जितना पापी है उतना बड़ा नाम है।
देखिए तो आप भी मशहूर कितना हो रहा है।
विपिन सोहल
"इंसान"(3)प्रस्तुति
**************
गगनचुंबी फरमाइशें
सीमित जीवन समय
तोड़-मरोड़,लूट-खसोट
स्वहित में रमता इंसान।
सीमित अन्न क्षुधा
असीमित आडम्बर
सत्य को झुठलाता
ये कैसा इंसान।
स्वार्थसिद्धि
परमलक्ष्य
सेवाभाव त्यागता
यथार्थ भूलता कलयुगी इंसान।
आस्तिक-नास्तिक
अविवेकी वार
स्वयं की राहों में
भटका इंसान।
स्वयं खोदा
दलदली कुआँ
बचकर कैसे फांदेगा
सत्य दीवार।
सीमित जीवन
असीमित उद्देश्य
अंधेरे में उजाला करें
वही इंसान।।
वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित ,मौलिक
**************
गगनचुंबी फरमाइशें
सीमित जीवन समय
तोड़-मरोड़,लूट-खसोट
स्वहित में रमता इंसान।
सीमित अन्न क्षुधा
असीमित आडम्बर
सत्य को झुठलाता
ये कैसा इंसान।
स्वार्थसिद्धि
परमलक्ष्य
सेवाभाव त्यागता
यथार्थ भूलता कलयुगी इंसान।
आस्तिक-नास्तिक
अविवेकी वार
स्वयं की राहों में
भटका इंसान।
स्वयं खोदा
दलदली कुआँ
बचकर कैसे फांदेगा
सत्य दीवार।
सीमित जीवन
असीमित उद्देश्य
अंधेरे में उजाला करें
वही इंसान।।
वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित ,मौलिक
तोड़ गुलामी की जंजीरें,
बांधा जिसने है विचारों को।
आजादी दुबकी सिसक रही,
आज कोसती दुर्विचारों को।
कुविचारों की भेंट चढ़ी,
कितनी बेटियाँ हुई शहीद ।
होली कितनी बेरंग हुई,
और बेरंग दिवाली ईद।
हे! मानव तुम आँखें खोलो,
देखो आज बदलता युग ।
कलुष विचार धो लो अंतर के,
पावनता भर लो अपने दृग।
हो रहा शर्मसार अपना भारत,
धवलता इसकी धूमिल हुई।
उठो निज का विचार करो,
लिखो इबारत आज नई।
डॉ उषा किरण
बांधा जिसने है विचारों को।
आजादी दुबकी सिसक रही,
आज कोसती दुर्विचारों को।
कुविचारों की भेंट चढ़ी,
कितनी बेटियाँ हुई शहीद ।
होली कितनी बेरंग हुई,
और बेरंग दिवाली ईद।
हे! मानव तुम आँखें खोलो,
देखो आज बदलता युग ।
कलुष विचार धो लो अंतर के,
पावनता भर लो अपने दृग।
हो रहा शर्मसार अपना भारत,
धवलता इसकी धूमिल हुई।
उठो निज का विचार करो,
लिखो इबारत आज नई।
डॉ उषा किरण
हे दीनदयाल दयाकर हमें इनसान बना देना।
दिलों में इनसानियत के बीज प्रभु उगा देना।
हमारे कर्म हों सदकर्म मानवता सिखा देना।
निजधर्म पर चलते रहें सदा वरदान तुम देना।
ये जीवन कभी कलंकित नहीं हो परमात्मा,
ऐसे सदगुणों से परिपूरित हमें तुम कर देना।
सदव्यवहारी बनें हम परमार्थ ही करते रहें,
ऐसी सदबुद्धि हमारे मस्तिष्क में भर देना।
मानवीयता का सिर्फ चोला ही हम न ओढें,
कुछ धरातल पर भी लाऐं हमें यह बता देना।
जिंन्दगी वख्शी है अगर अखिलेश तुमने तो,
दिलों में इनसानियत के बीज प्रभु उगा देना।
हमारे कर्म हों सदकर्म मानवता सिखा देना।
निजधर्म पर चलते रहें सदा वरदान तुम देना।
ये जीवन कभी कलंकित नहीं हो परमात्मा,
ऐसे सदगुणों से परिपूरित हमें तुम कर देना।
सदव्यवहारी बनें हम परमार्थ ही करते रहें,
ऐसी सदबुद्धि हमारे मस्तिष्क में भर देना।
मानवीयता का सिर्फ चोला ही हम न ओढें,
कुछ धरातल पर भी लाऐं हमें यह बता देना।
जिंन्दगी वख्शी है अगर अखिलेश तुमने तो,
जीवन जीने की कलाऐं भी हमें सिखा देना।
स्वरचितःःः
इंंजी शंम्भूसिह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म।प्र.
स्वरचितःःः
इंंजी शंम्भूसिह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म।प्र.
प्रस्तुति (2)
----------'''---------
1
जो यात्रा करते हैं
समग्र श्रद्धा से
संकल्प से
समर्पण से
जिनके रास्ते
सीधे हों साफ हों
सहज हों सरल हों
चित्त
निर्दोष हों
मन
कोरे कागज सा हों
जिनके वचन
अनूठे हों
वो इंसान अदभूत है
अदभूतों में अदभूत
बेजोड़ है
जिनमें अद्वितीयता हो
जिनमें मूल हो
जिनमें रस हो
जिनमें सुगंध हो
जिनकी भाषा प्रेम की भाषा हो
जिनके साथ
ना तर्क हो
ना विवाद हो
जिनसे सिर्फ प्रेम का प्रवाह हो
जिनमें परमात्मा का अवतरण हो
जिनमें परमात्मा का प्रकटीकरण हो
जिनके गहन अंतस्तल में फूल खिलते हों
वो इंसान अदभूत है
अदभूतों में अदभूत
बेजोड़ है
ऐसे अदभूत इंसान को
महिमा से मत उतारो
सिंहासनों से मत उतारो
नभ से खींचकर
धूल में मत गिराओ
बुद्ध हो महावीर हो
या हों गुरु नानक
इनकी ज्योति पर
कालिख मत पोतो
2
अदभूत इंसान तो जानता है कि
मेरे में मेरा
कुछ भी नहीं है
सब कुछ परमात्मा का है
वह अपने भीतर
चैतन्य का अनुभव करता है
अपने भीतर अमृत का दर्शन करता है
वह ब्रह्मणत्व को उपलब्ध होता हैं
वह वैभव से मुक्त रहता है
उसे पद-प्रतिष्ठा, धन में असारता अनुभव होती है
@शंकर कुमार शाको
स्वरचित
----------'''---------
1
जो यात्रा करते हैं
समग्र श्रद्धा से
संकल्प से
समर्पण से
जिनके रास्ते
सीधे हों साफ हों
सहज हों सरल हों
चित्त
निर्दोष हों
मन
कोरे कागज सा हों
जिनके वचन
अनूठे हों
वो इंसान अदभूत है
अदभूतों में अदभूत
बेजोड़ है
जिनमें अद्वितीयता हो
जिनमें मूल हो
जिनमें रस हो
जिनमें सुगंध हो
जिनकी भाषा प्रेम की भाषा हो
जिनके साथ
ना तर्क हो
ना विवाद हो
जिनसे सिर्फ प्रेम का प्रवाह हो
जिनमें परमात्मा का अवतरण हो
जिनमें परमात्मा का प्रकटीकरण हो
जिनके गहन अंतस्तल में फूल खिलते हों
वो इंसान अदभूत है
अदभूतों में अदभूत
बेजोड़ है
ऐसे अदभूत इंसान को
महिमा से मत उतारो
सिंहासनों से मत उतारो
नभ से खींचकर
धूल में मत गिराओ
बुद्ध हो महावीर हो
या हों गुरु नानक
इनकी ज्योति पर
कालिख मत पोतो
2
अदभूत इंसान तो जानता है कि
मेरे में मेरा
कुछ भी नहीं है
सब कुछ परमात्मा का है
वह अपने भीतर
चैतन्य का अनुभव करता है
अपने भीतर अमृत का दर्शन करता है
वह ब्रह्मणत्व को उपलब्ध होता हैं
वह वैभव से मुक्त रहता है
उसे पद-प्रतिष्ठा, धन में असारता अनुभव होती है
@शंकर कुमार शाको
स्वरचित
इंसान हो तो सदा सदकर्म करो
या चुल्लू भर पानी में डूब मरो
चार दिन की चटक चाँदनी
फिर तो अंधेरी रात है।
ये जीवन अभिनय मंच है
कुछ नहीं संग में जात है
साँसे मिली है गिनती में
कभी इसे ना ब्यर्थ करो।
मुठ्ठी बाँध आए जग में
बस हाथ पसारे जाना है।
रंगमंच रे दुनिया सारी
सपनों का ताना बाना है।
पलक खोलकर देख मुसाफिर
हवाओं में ना रंग भरो।
कामनाओं की तप्त मरू पर
मन- मृगा भटका जाए।
जाने कब तृष्णा मिटेगी
मृत्यु बैठी है घात लगाए।
तोड़ दो बंदिशे ब्यर्थ की
मन पावन निर्मल करो।
मन चंगा तो कठौती में गंगा
कहते सब मुनि- ज्ञानी हैं।
मन को ही साध ले प्यारे
जिंदगी आनी -जानी है।
काम क्रोध औ मद लोभ से
मन को सदा विजयी करो।
स्वरचित
सुधा शर्मा
राजिम छत्तीसगढ़
या चुल्लू भर पानी में डूब मरो
चार दिन की चटक चाँदनी
फिर तो अंधेरी रात है।
ये जीवन अभिनय मंच है
कुछ नहीं संग में जात है
साँसे मिली है गिनती में
कभी इसे ना ब्यर्थ करो।
मुठ्ठी बाँध आए जग में
बस हाथ पसारे जाना है।
रंगमंच रे दुनिया सारी
सपनों का ताना बाना है।
पलक खोलकर देख मुसाफिर
हवाओं में ना रंग भरो।
कामनाओं की तप्त मरू पर
मन- मृगा भटका जाए।
जाने कब तृष्णा मिटेगी
मृत्यु बैठी है घात लगाए।
तोड़ दो बंदिशे ब्यर्थ की
मन पावन निर्मल करो।
मन चंगा तो कठौती में गंगा
कहते सब मुनि- ज्ञानी हैं।
मन को ही साध ले प्यारे
जिंदगी आनी -जानी है।
काम क्रोध औ मद लोभ से
मन को सदा विजयी करो।
स्वरचित
सुधा शर्मा
राजिम छत्तीसगढ़
इंसान भूला अपना किरदार,
कर रहा प्रकृति पर प्रहार।
कर रहा है दोहन वृक्षों का,
बन रहा खुद का गुनहगार।
इंसान भूला अपना किरदार,
कर रहा भ्रूण हत्या सा पाप।
कर रहा चोट स्वअस्तित्व पर,
बनने को सिर्फ बेटे का बाप।
इंसान भूला अपना किरदार,
लीन हो रहा नशे के दलदल में।
बन रहा जानवर से भी बदतर,
हिंसा कर रहा अपने ही घर में।
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
कर रहा प्रकृति पर प्रहार।
कर रहा है दोहन वृक्षों का,
बन रहा खुद का गुनहगार।
इंसान भूला अपना किरदार,
कर रहा भ्रूण हत्या सा पाप।
कर रहा चोट स्वअस्तित्व पर,
बनने को सिर्फ बेटे का बाप।
इंसान भूला अपना किरदार,
लीन हो रहा नशे के दलदल में।
बन रहा जानवर से भी बदतर,
हिंसा कर रहा अपने ही घर में।
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
"इंसान"(4)प्रस्तुति
***************
रँग बदलते देखकर,उर में उठे सवाल
मानव क्यों दानव हुआ,पल में करे हलाल।।
सत्य सुपथ पर चल रहा,लेकर मानव धीर
राह सुगम औ सरल हो,हृदय अति गम्भीर।।
प्रेम-भाव को भूल कर,अहंकार में मस्त
कैसा तू मानव हुआ,चाल-ढाल भी त्रस्त।।
कटु शब्दों को बोलकर, मानव दे आघात
जिह्वा मिश्री सम कहीं,ढूंढे मिले न बात।।
वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित,मौलिक
***************
रँग बदलते देखकर,उर में उठे सवाल
मानव क्यों दानव हुआ,पल में करे हलाल।।
सत्य सुपथ पर चल रहा,लेकर मानव धीर
राह सुगम औ सरल हो,हृदय अति गम्भीर।।
प्रेम-भाव को भूल कर,अहंकार में मस्त
कैसा तू मानव हुआ,चाल-ढाल भी त्रस्त।।
कटु शब्दों को बोलकर, मानव दे आघात
जिह्वा मिश्री सम कहीं,ढूंढे मिले न बात।।
वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित,मौलिक
विधा:- छंदमुक्त कविता
आज के इंसान की
सबसे बद त्रासदी है
समय
पल पल की जिंदगी
जो घूम रही है
चक्रव्यूह में फंसी
दिन रात
मकड़ी जल में
हारे हुये पांसे 'कलि 'की तरह!
जिसे-
फैलते-बिखरते-सिमटते
हमने स्वयं निर्मित किया
एक दायरे में।
तब भी -
जीते जागते अनुभव
पुनरावृत्त हो रहे
युग परिवर्तन की तरह
और
भाग रहे हैं हम
एक दूजे के पीछे
उड़ते गिध्दों की तरह
अज्ञात शिकंजे में जकड़े
एक
गोल घेरे में फंसे
शून्य,दिशाशून्य होकर
अपनी ही पीठ में
छुरा घोंपने की अभिलिप्सा में
भटकते, मतिशून्य
उल्लू की तरह
जो निरन्तर दौड़ रहा है
दिवा स्वप्न से प्रेरित हो कर
कलयुग में
स्वर्ग पाने की लालसा से
आँखें मूंदे
आज के "इंसान "की तरह।
स्वरचित:
डॉ. स्वर्ण सिंह रघुवंशी, गुना (म.प्र.)
आज के इंसान की
सबसे बद त्रासदी है
समय
पल पल की जिंदगी
जो घूम रही है
चक्रव्यूह में फंसी
दिन रात
मकड़ी जल में
हारे हुये पांसे 'कलि 'की तरह!
जिसे-
फैलते-बिखरते-सिमटते
हमने स्वयं निर्मित किया
एक दायरे में।
तब भी -
जीते जागते अनुभव
पुनरावृत्त हो रहे
युग परिवर्तन की तरह
और
भाग रहे हैं हम
एक दूजे के पीछे
उड़ते गिध्दों की तरह
अज्ञात शिकंजे में जकड़े
एक
गोल घेरे में फंसे
शून्य,दिशाशून्य होकर
अपनी ही पीठ में
छुरा घोंपने की अभिलिप्सा में
भटकते, मतिशून्य
उल्लू की तरह
जो निरन्तर दौड़ रहा है
दिवा स्वप्न से प्रेरित हो कर
कलयुग में
स्वर्ग पाने की लालसा से
आँखें मूंदे
आज के "इंसान "की तरह।
स्वरचित:
डॉ. स्वर्ण सिंह रघुवंशी, गुना (म.प्र.)
इंसान गुम
खोजेंगे हम तुम
गधे की सींग।।
इंसान रोये
इंसानियत ख़त्म
हैवान बढ़े।।
इंसान हंसे
सब है दिखावटी
अंदर रोये।।
आदमी गाये
अपना पराक्रम
आत्म-मुग्धता।।
इंसान नाचे
कर्म खूब नचाये
कठपुतली।।
भावुक
खोजेंगे हम तुम
गधे की सींग।।
इंसान रोये
इंसानियत ख़त्म
हैवान बढ़े।।
इंसान हंसे
सब है दिखावटी
अंदर रोये।।
आदमी गाये
अपना पराक्रम
आत्म-मुग्धता।।
इंसान नाचे
कर्म खूब नचाये
कठपुतली।।
भावुक
विधा .. लघु कविता
************************
🍁
सत्य निष्ठा, श्रेष्ठता के द्वंद मे उलझा रहा।
काम ,तृष्णा मोह, के बन्धन मे ही उलझा रहा।
🍁
चाहतो की पूर्णता मे रात-दिन उलझा रहा।
सब हुआ आगे बढा इन्सान पीछे रह गया।
🍁
उम्र के लम्बे सफर के आखिर इस दौर मे।
सोचता हूँ मै अकेला क्या मिला क्या खो दिया।
🍁
चाहतो से पूर्ण रिश्ते वक्त ना था खो दिया।
कितने संगी शेर के थे बेखुदी मे खो दिया।
🍁
भावना मै शून्य होकर अपनो को ही खो दिया।
आदमी तो ठीक था इन्सान पर मै खो दिया।
🍁
स्वरचित .. Sher Singh Sarraf
************************
🍁
सत्य निष्ठा, श्रेष्ठता के द्वंद मे उलझा रहा।
काम ,तृष्णा मोह, के बन्धन मे ही उलझा रहा।
🍁
चाहतो की पूर्णता मे रात-दिन उलझा रहा।
सब हुआ आगे बढा इन्सान पीछे रह गया।
🍁
उम्र के लम्बे सफर के आखिर इस दौर मे।
सोचता हूँ मै अकेला क्या मिला क्या खो दिया।
🍁
चाहतो से पूर्ण रिश्ते वक्त ना था खो दिया।
कितने संगी शेर के थे बेखुदी मे खो दिया।
🍁
भावना मै शून्य होकर अपनो को ही खो दिया।
आदमी तो ठीक था इन्सान पर मै खो दिया।
🍁
स्वरचित .. Sher Singh Sarraf
क्या जरूरी है हिन्दू या मुसलमां होना।
काफी नहीं है आदमी का इन्सां होना।
बडे छोटे खरे खोटे में भेद नहीं मालूम।
बेहतर अन्धेरों से छोटी सी शमा होना।
पानी गिरे हो पत्थर कैसी है मेहरबानी।
जैसे खामोशी का कटीली जुबां होना।
इल्म की कोई इन्तहा कहीं नहीं होती।
समझना इसे मिल्कियत है गुमां होना।
इबादत को दस्तक कहां दूं, क्या जरूरी।
जो हर जगह हो उसका भी मकां होना।
विपिन सोहल
काफी नहीं है आदमी का इन्सां होना।
बडे छोटे खरे खोटे में भेद नहीं मालूम।
बेहतर अन्धेरों से छोटी सी शमा होना।
पानी गिरे हो पत्थर कैसी है मेहरबानी।
जैसे खामोशी का कटीली जुबां होना।
इल्म की कोई इन्तहा कहीं नहीं होती।
समझना इसे मिल्कियत है गुमां होना।
इबादत को दस्तक कहां दूं, क्या जरूरी।
जो हर जगह हो उसका भी मकां होना।
विपिन सोहल
मैं हूँ इंसान
इंसानियत है मेरी पहचान
राग देव्ष माया मोह
सभी है मेरे पास
दैवी गुण क्षमा, दया, त्याग
सभी गुण भी है हमारे पास
इंसानी फितरत" मैं"से भी है
हमारा सरोकार।
दैविक गुण को हम सदा
दे हम तरजीह
वही होते सच्चा इंसान
वही होते बलबीर
इंसान व इंसान के बीच
करें न कोई भेदभाव
हिन्दू मुस्लिम, सीख ईसाई
या हो नर या नार सभी है इंसान
दूसरों की पीड़ा को देखकर
इंसानियत न जगे
यह कैसी रूसवाई
इंसान है तो इंसानियत
मत छोड़ो मेरे भाई
सभी जीवों में श्रेष्ठ है मनु
इसे मत भूलो मेरे भाई
इंसान ही इंसान के काम आते है
यही है सच्चाई।
इंसानों की दूनिया मे
इंसानियत मत भूलो मेरे भाई
हो रहा इसका अवमूल्यन
इसे रोको मेरे भाई।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।
इंसानियत है मेरी पहचान
राग देव्ष माया मोह
सभी है मेरे पास
दैवी गुण क्षमा, दया, त्याग
सभी गुण भी है हमारे पास
इंसानी फितरत" मैं"से भी है
हमारा सरोकार।
दैविक गुण को हम सदा
दे हम तरजीह
वही होते सच्चा इंसान
वही होते बलबीर
इंसान व इंसान के बीच
करें न कोई भेदभाव
हिन्दू मुस्लिम, सीख ईसाई
या हो नर या नार सभी है इंसान
दूसरों की पीड़ा को देखकर
इंसानियत न जगे
यह कैसी रूसवाई
इंसान है तो इंसानियत
मत छोड़ो मेरे भाई
सभी जीवों में श्रेष्ठ है मनु
इसे मत भूलो मेरे भाई
इंसान ही इंसान के काम आते है
यही है सच्चाई।
इंसानों की दूनिया मे
इंसानियत मत भूलो मेरे भाई
हो रहा इसका अवमूल्यन
इसे रोको मेरे भाई।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।
विधा- हाइकु
***********
(1)
हर इंसान
है सामाजिक प्राणी
चाहता साथ
(2)
नैतिक गुण
अपनाकर बनें
अच्छे इंसान
(3)
देता सम्मान
सुन्दर व्यवहार
गुणी इंसान
(4)
भू पर मिला
है बुद्धिमान प्राणी
यही इंसान
(5)
बना इंसान
इच्छाओं का सागर
फिर भी प्यासा
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
***********
(1)
हर इंसान
है सामाजिक प्राणी
चाहता साथ
(2)
नैतिक गुण
अपनाकर बनें
अच्छे इंसान
(3)
देता सम्मान
सुन्दर व्यवहार
गुणी इंसान
(4)
भू पर मिला
है बुद्धिमान प्राणी
यही इंसान
(5)
बना इंसान
इच्छाओं का सागर
फिर भी प्यासा
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
II इंसान - ३ II
मौत को मेरी ज़िन्दगी ने मुझ सा बना दिया....
अपने चेहरे को उसपे लगा दिया....
मौत बदहवास हो भाग रही है...
हर पल छुपती....
कभी यहां...कभी वहां....
अपनी पहचान भूल कर....
अपने को मारने को...
अपनी ही तलाश कर रही है....
मौत मौत से ही हार रही है......
जैसे इंसान अपने से हार रहा है....
पल पल...
हर पल....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
मौत को मेरी ज़िन्दगी ने मुझ सा बना दिया....
अपने चेहरे को उसपे लगा दिया....
मौत बदहवास हो भाग रही है...
हर पल छुपती....
कभी यहां...कभी वहां....
अपनी पहचान भूल कर....
अपने को मारने को...
अपनी ही तलाश कर रही है....
मौत मौत से ही हार रही है......
जैसे इंसान अपने से हार रहा है....
पल पल...
हर पल....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
रंग बदलती
दुनियां में
हर चीज
बदलते देखी है
चेहरे पर
मुस्कान लपेटे
इंसान बदलते
देखें हैं
कांँच से है
रिश्ते आज़ के
कब टूट जाएंँ
किसी बात पर
कदम फूंँक-फूंँक
कर रखना
फिर भी दिलों में
कांँटों से चुभना
गिरगिट खुद
शर्मिंदा होता
जब इंसानों को रंग
बदलते देखता
सोचता हम तो
बेकार ही बदनाम है
रंग बदलने में तो
माहिर इंसान है
मुस्कान के पीछे
छुपे चेहरे में
न जाने कितने
राज गहरे हैं
कहीं दर्द छिपा
रखें हैं तो
कहीं बेवफाई
के मुखोटे हैं
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित रचना
दुनियां में
हर चीज
बदलते देखी है
चेहरे पर
मुस्कान लपेटे
इंसान बदलते
देखें हैं
कांँच से है
रिश्ते आज़ के
कब टूट जाएंँ
किसी बात पर
कदम फूंँक-फूंँक
कर रखना
फिर भी दिलों में
कांँटों से चुभना
गिरगिट खुद
शर्मिंदा होता
जब इंसानों को रंग
बदलते देखता
सोचता हम तो
बेकार ही बदनाम है
रंग बदलने में तो
माहिर इंसान है
मुस्कान के पीछे
छुपे चेहरे में
न जाने कितने
राज गहरे हैं
कहीं दर्द छिपा
रखें हैं तो
कहीं बेवफाई
के मुखोटे हैं
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित रचना
*सच्चा इंसान*
नफरत की दीवार को तोड़,
प्यार की घोल दे मिठास,
फैला दे जो मुस्कान,
वही होता सच्चा इंसान |
दूसरे के दर्द को समझ ले,
दान पुण्य कुछ कर ले,
खुशियाँ बाँटे हजार,
वही होता सच्चा इंसान |
जिसका मजहब एक हो,
दिल में न उसके बैर हो,
इंसानियत जिसकी महान,
वही होता सच्चा इंसान |
इरादे जिसके नेक हो,
झूठ से उसे परहेज हो,
सभी का रखे जो ध्यान,
वही होता सच्चा इंसान |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
नफरत की दीवार को तोड़,
प्यार की घोल दे मिठास,
फैला दे जो मुस्कान,
वही होता सच्चा इंसान |
दूसरे के दर्द को समझ ले,
दान पुण्य कुछ कर ले,
खुशियाँ बाँटे हजार,
वही होता सच्चा इंसान |
जिसका मजहब एक हो,
दिल में न उसके बैर हो,
इंसानियत जिसकी महान,
वही होता सच्चा इंसान |
इरादे जिसके नेक हो,
झूठ से उसे परहेज हो,
सभी का रखे जो ध्यान,
वही होता सच्चा इंसान |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
हाय... रे इंसान..
क्या सच में है तू इंसान,
घुस गया तुझमे शैतान,
मर जाती इंसानियत तेरी,
देखता जब तू पर नारी,
जाग जाता तुझमे हैवान
क्या सच में है तू इंसान..
जब देखता तू.. गरीब को
फेर लेता है मुख को क्यों,
क्यों मदद नहीं कर सकता,
रोटी देकर उस भूखे को...
क्यों मर जाता अंदर तक इंसान,
क्या सच में है तू इंसान
कुसुम पंत" उत्साही "
स्वरचित
देहरादून
क्या सच में है तू इंसान,
घुस गया तुझमे शैतान,
मर जाती इंसानियत तेरी,
देखता जब तू पर नारी,
जाग जाता तुझमे हैवान
क्या सच में है तू इंसान..
जब देखता तू.. गरीब को
फेर लेता है मुख को क्यों,
क्यों मदद नहीं कर सकता,
रोटी देकर उस भूखे को...
क्यों मर जाता अंदर तक इंसान,
क्या सच में है तू इंसान
कुसुम पंत" उत्साही "
स्वरचित
देहरादून
"इंसान"(6)प्रस्तुति
1)
पिरामिड*
है
पूज्य
इंसान
सत्यवान
कर्मठ योगी
योग से निरोगी
दया,प्रेम का आंत्र।।
(2)
ये
छद्म
मुखोटा
स्वार्थसिद्धि
भूखा भेड़िया
लूट पाट राज
दुराचार ही काज।।
वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित,मौलिक
1)
पिरामिड*
है
पूज्य
इंसान
सत्यवान
कर्मठ योगी
योग से निरोगी
दया,प्रेम का आंत्र।।
(2)
ये
छद्म
मुखोटा
स्वार्थसिद्धि
भूखा भेड़िया
लूट पाट राज
दुराचार ही काज।।
वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित,मौलिक
"इंसान"
विधा -कविता (छंद मुक्त )
वाह रे इंसान
कहीं कत्ल,
कहीं निशां
पशुओं से अधिक बुद्धि
पर वह कुटिलता से बंदी ,
अपने छल - बल से,
धक्का दे आगे दुर्बल से
मेवा, मिश्री, नेवैद्य
मिष्ठान उड़ा रहे हैं ,
नाम धम्म, यज्ञ, हवन
अनुष्ठान करा रहे हैं ।
नाम से इंसान पर हैवान हैं ,
पोषाक सफेद पर शैतान हैं।
मानव -मानव को खा रहा ,
पाप कर ढे़रो तीर्थांटन जा रहा ।
परोपकार, दया , मानवता
सरे आम बाजार बिक रहे हैं।
वेद,ऋचाएँ महाकाव्य छोड़कर
युवा - काम दुराचार सीख रहे हैं।
जीवन लक्ष्य कहीं अटक गया हैं ,
इस दुनियाँ में इंसान भटक गया
विधा -कविता (छंद मुक्त )
वाह रे इंसान
कहीं कत्ल,
कहीं निशां
पशुओं से अधिक बुद्धि
पर वह कुटिलता से बंदी ,
अपने छल - बल से,
धक्का दे आगे दुर्बल से
मेवा, मिश्री, नेवैद्य
मिष्ठान उड़ा रहे हैं ,
नाम धम्म, यज्ञ, हवन
अनुष्ठान करा रहे हैं ।
नाम से इंसान पर हैवान हैं ,
पोषाक सफेद पर शैतान हैं।
मानव -मानव को खा रहा ,
पाप कर ढे़रो तीर्थांटन जा रहा ।
परोपकार, दया , मानवता
सरे आम बाजार बिक रहे हैं।
वेद,ऋचाएँ महाकाव्य छोड़कर
युवा - काम दुराचार सीख रहे हैं।
जीवन लक्ष्य कहीं अटक गया हैं ,
इस दुनियाँ में इंसान भटक गया
वसुदेव कुटूम्बकम केवल नारे हैं ,
माँ-बाप के लिए वृद्धाश्रम सहारे है।
रेशम की डोर पतंग से हो गये हैं ,
रिश्ते नापाक अनंग से हो गये हैं।
बडे़ -गुरूओं का आदर सत्कार नहीं ,
महिलाओं के लिए शिष्टाचार नहीं।
जिस दिन घडा़ पाप भर जाएगा ,
दानव मिटेंगे, इंसानी प्यार छा जाएगा ।
स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा 'निश्छल',
माँ-बाप के लिए वृद्धाश्रम सहारे है।
रेशम की डोर पतंग से हो गये हैं ,
रिश्ते नापाक अनंग से हो गये हैं।
बडे़ -गुरूओं का आदर सत्कार नहीं ,
महिलाओं के लिए शिष्टाचार नहीं।
जिस दिन घडा़ पाप भर जाएगा ,
दानव मिटेंगे, इंसानी प्यार छा जाएगा ।
स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा 'निश्छल',
प्रेम भाव की माला जपते
सत्य पथ की राह अपनाते
हर मुश्किल में रहे खड़े हो
नही कभी किसी से डरते
कर्म सदा ही जिनकी पूजा
सफल सदा जीवन मे होते
न तेरा ,न मेरा कुछ हो
गीत एकता सदा ही गाते
ऐसे इंसाँ मिलते कम है
वो,इंसाँ नही फरिश्ते होते।।
स्वरचित
सत्य पथ की राह अपनाते
हर मुश्किल में रहे खड़े हो
नही कभी किसी से डरते
कर्म सदा ही जिनकी पूजा
सफल सदा जीवन मे होते
न तेरा ,न मेरा कुछ हो
गीत एकता सदा ही गाते
ऐसे इंसाँ मिलते कम है
वो,इंसाँ नही फरिश्ते होते।।
स्वरचित
ईश्वर की अनुपम कृति इंसान,
देवत्व की प्रतिष्ठा है इंसान।
सभी प्राणियों में श्रेष्ठतम,
निभाए गर अपना धर्म इंसान।
बुद्धि-विवेक से है समृद्ध,
ज्ञान से बनता है प्रबुद्ध।
सद्गुणों का है भंडार,
संस्कार से है समृद्ध।
कर्म-पथ का बने पथिक,
सत्कर्म करे मानवोचित।
परहित धर्म का करे पालन,
दुराचार न करे किंचित।
समत्व भाव को अपनाए,
करूणा-नेह का भाव जगाए।
दीन-हीन का बने वो मीत,
जग में प्रेम-प्रकाश फैलाए।
अपना हर कर्त्तव्य निभाए,
संकीर्णता से ऊपर उठ जाए।
पशुता की प्रवृति को त्यागे,
तभी इंसान, इंसान कहलाए।
देवत्व को जीवन की आन
बनाए,
दानवत्व को जग से मिटाए।
इंसानियत को धर्म बनाए,
तभी श्रेष्ठ प्राणी कहलाए।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
देवत्व की प्रतिष्ठा है इंसान।
सभी प्राणियों में श्रेष्ठतम,
निभाए गर अपना धर्म इंसान।
बुद्धि-विवेक से है समृद्ध,
ज्ञान से बनता है प्रबुद्ध।
सद्गुणों का है भंडार,
संस्कार से है समृद्ध।
कर्म-पथ का बने पथिक,
सत्कर्म करे मानवोचित।
परहित धर्म का करे पालन,
दुराचार न करे किंचित।
समत्व भाव को अपनाए,
करूणा-नेह का भाव जगाए।
दीन-हीन का बने वो मीत,
जग में प्रेम-प्रकाश फैलाए।
अपना हर कर्त्तव्य निभाए,
संकीर्णता से ऊपर उठ जाए।
पशुता की प्रवृति को त्यागे,
तभी इंसान, इंसान कहलाए।
देवत्व को जीवन की आन
बनाए,
दानवत्व को जग से मिटाए।
इंसानियत को धर्म बनाए,
तभी श्रेष्ठ प्राणी कहलाए।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
"विनाश की ओर"....
बढ़ती हुई आबादी,
बोझ बन रही है,
आज इंसान नहीं
भेड़ों की तरह,
भीड़ बन रही हैl
भीड़ के वजूद में,
इंसान का कोई मूल्य है?
आदमी और जानवर,
दोनों एक से तुल्य है l
हां जीते है लोग यहाँ,
और जीने का भी मूल्य नहीं,
एक के सर पे छत नहीं
एक भूखा पेट मरा कहींl
महंगा हुआ है सोना
और आदमी..??
सस्ता हुआ है,
निहित स्वार्थों के खातिर,
प्रकृति के प्रति,
लापरवाह हुआ है,
आधुनिकता के नाम पर,
स्वयं भी बिक गया है,
दांव लगा प्रकृति को,
स्वयं जुआरी बन गया है।
जैसी बो रहे फसल,
वैसी ही काट रहे,
आज हम इंसान नहीं,
पशुओं की भीड़ बना रहे,
जो मूक है, निःस्तब्ध है,
लाचार संघर्षबद्ध है,
और...
बंद एक घेरे में हम,
अपनी कुमान्यताओं के.
जाल बुने जा रहें हैं,
धीरे-धीरे ही सही,
विनाश की ओर..
कदम बढ़ा रहें हैं.. l
स्वरचित
ऋतुराज दवे
बढ़ती हुई आबादी,
बोझ बन रही है,
आज इंसान नहीं
भेड़ों की तरह,
भीड़ बन रही हैl
भीड़ के वजूद में,
इंसान का कोई मूल्य है?
आदमी और जानवर,
दोनों एक से तुल्य है l
हां जीते है लोग यहाँ,
और जीने का भी मूल्य नहीं,
एक के सर पे छत नहीं
एक भूखा पेट मरा कहींl
महंगा हुआ है सोना
और आदमी..??
सस्ता हुआ है,
निहित स्वार्थों के खातिर,
प्रकृति के प्रति,
लापरवाह हुआ है,
आधुनिकता के नाम पर,
स्वयं भी बिक गया है,
दांव लगा प्रकृति को,
स्वयं जुआरी बन गया है।
जैसी बो रहे फसल,
वैसी ही काट रहे,
आज हम इंसान नहीं,
पशुओं की भीड़ बना रहे,
जो मूक है, निःस्तब्ध है,
लाचार संघर्षबद्ध है,
और...
बंद एक घेरे में हम,
अपनी कुमान्यताओं के.
जाल बुने जा रहें हैं,
धीरे-धीरे ही सही,
विनाश की ओर..
कदम बढ़ा रहें हैं.. l
स्वरचित
ऋतुराज दवे
मेरे सामने खड़े इंसा तू ही बोल।
तुझे इंसा कहूँ या नकाबपोश।
जिसे देखता हूँ वो तू नही
मानवपन की केवल कलई है।
मानवता उसमें कहीं नहीं,
अंदर तो तेरे पशुता है
पशुता की ही तेरी परिधि,
और पैशाचिक प्रवृत्ति,
पर पशु नहीं तू ,
पशु तो तुमसे बेहतर होते,
प्रकृति संगत गुण-धर्म कभी न खोते,
घातक तेरी प्रवृत्ति,ओढ़े पशुता की खोल।
मेरे सामने खड़े इंसा तू ही बोल।
क्यूँ इस कदर अवमर्दित हुआ तू ?
क्यूँ हैवान बन गर्वित हुआ तू ?
इंसानियत पर क्या तरस न आती?
तेरी आँखें क्यूँ बरस न पाती ?
अंतर्तम को साक्ष्य रख ,चित्त शांत कर।
पलभर को हो, पैशाचिक प्रवृत्ति से बाहर।
तू अपने हाथो इंसानियत को तोल ।
मेरे सामने खड़े इंसा तू ही बोल ।
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
तुझे इंसा कहूँ या नकाबपोश।
जिसे देखता हूँ वो तू नही
मानवपन की केवल कलई है।
मानवता उसमें कहीं नहीं,
अंदर तो तेरे पशुता है
पशुता की ही तेरी परिधि,
और पैशाचिक प्रवृत्ति,
पर पशु नहीं तू ,
पशु तो तुमसे बेहतर होते,
प्रकृति संगत गुण-धर्म कभी न खोते,
घातक तेरी प्रवृत्ति,ओढ़े पशुता की खोल।
मेरे सामने खड़े इंसा तू ही बोल।
क्यूँ इस कदर अवमर्दित हुआ तू ?
क्यूँ हैवान बन गर्वित हुआ तू ?
इंसानियत पर क्या तरस न आती?
तेरी आँखें क्यूँ बरस न पाती ?
अंतर्तम को साक्ष्य रख ,चित्त शांत कर।
पलभर को हो, पैशाचिक प्रवृत्ति से बाहर।
तू अपने हाथो इंसानियत को तोल ।
मेरे सामने खड़े इंसा तू ही बोल ।
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
हाइकु
विषय:-"इंसान"
(1)
रोबोट काम
डिजिटल दुनियां
ढूँढो इंसान
(2)
दर्द की गली
मुस्कान को बाँटता
मिला इंसान
(3)
धर्म दीवार
बंटा हुआ इंसान
दुःखी आकाश
(4)
रहीम-राम
कर्मों के बल पर
पुजा इंसान
(5)
स्वार्थ जो दिखे
गिरगिट इंसान
रूप बदले
स्वरचित
ऋतुराज दवे
विषय:-"इंसान"
(1)
रोबोट काम
डिजिटल दुनियां
ढूँढो इंसान
(2)
दर्द की गली
मुस्कान को बाँटता
मिला इंसान
(3)
धर्म दीवार
बंटा हुआ इंसान
दुःखी आकाश
(4)
रहीम-राम
कर्मों के बल पर
पुजा इंसान
(5)
स्वार्थ जो दिखे
गिरगिट इंसान
रूप बदले
स्वरचित
ऋतुराज दवे
विधा=हाइकु
==========
(1)लालच वश
भूला इंसानियत
आज इंसान
🤓🤓🤓
(2)ईश्वर कृपा
सबसे बुद्धिमान
दिया इंसान
🤓🤓🤓
(3)करे इंसान
खो के इंसानियत
सच की खोज
🤓🤓🤓
(4)धोखा दे रहा
अपने ही आपकों
आज इंसान
🤓🤓🤓
(5)काश ना होता
इंसान ही रहता
लालच गुण
🤓🤓🤓
स्वरचित
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश
==========
(1)लालच वश
भूला इंसानियत
आज इंसान
🤓🤓🤓
(2)ईश्वर कृपा
सबसे बुद्धिमान
दिया इंसान
🤓🤓🤓
(3)करे इंसान
खो के इंसानियत
सच की खोज
🤓🤓🤓
(4)धोखा दे रहा
अपने ही आपकों
आज इंसान
🤓🤓🤓
(5)काश ना होता
इंसान ही रहता
लालच गुण
🤓🤓🤓
स्वरचित
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश
काश पहचानता अपनी खूबी इंसान
दे जाता वह दुनिया को कोई मुस्कान ।।
मगर इंसान भी क्या शै देखे बाहर
औरों से करे तुलना और रहे हैरान ।।
कोशिश भी करे पर गहराई में न उतरे
सागर से मोती कभी उथले में निकरे ।।
छोटे रास्ते गलत रास्ते में कुछ न मिला
जो लम्बे चले देर तक तपे वही निखरे ।।
इंसान का यह जीवन बड़ा अनमोल है
झोल भी यहाँ एक नही हजार झोल है ।।
सच्चा गुरू गर मिल जाये कोई वक्त पर
इस ईश्वरीय कृपा का न कोई मोल है ।।
नया बुनने लगे इंसा ये निर्वाण अवस्था है
मत डरो जग से जग अच्छों पर हंसता है ।।
मानिये सदा अपने अन्तर्मन की ''शिवम"
वही इंसा का हितेषी वह उर में बसता है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 01/02/2019
दे जाता वह दुनिया को कोई मुस्कान ।।
मगर इंसान भी क्या शै देखे बाहर
औरों से करे तुलना और रहे हैरान ।।
कोशिश भी करे पर गहराई में न उतरे
सागर से मोती कभी उथले में निकरे ।।
छोटे रास्ते गलत रास्ते में कुछ न मिला
जो लम्बे चले देर तक तपे वही निखरे ।।
इंसान का यह जीवन बड़ा अनमोल है
झोल भी यहाँ एक नही हजार झोल है ।।
सच्चा गुरू गर मिल जाये कोई वक्त पर
इस ईश्वरीय कृपा का न कोई मोल है ।।
नया बुनने लगे इंसा ये निर्वाण अवस्था है
मत डरो जग से जग अच्छों पर हंसता है ।।
मानिये सदा अपने अन्तर्मन की ''शिवम"
वही इंसा का हितेषी वह उर में बसता है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 01/02/2019
इन्सान की ये वेदना कट रहा
अपनो से वो दरख्त की भातिं
क्या सीमाओं को लाँघ रहा है
या अपना आसमान चाह रहा है
उडना चाहत है परिंदों सा वो
जहाँ कोई रोक टोक न हो
जीना चाहता है अपना आसमान
अपने तरीक़े से अपनी पहचान
हाँ शायद सच है सदियों से यही
इन्सान इसी कोशिश मे तो लगा है
पर क्या इन्सान की यही आशा है
नहीं उसकी अपेक्षा अधिक है
जडों से कटना नियति नहीं
पहचान तो उसकी जडों से ही है
अपना बजूद खो कर बढेगा कैसे
जिन जडों से वो जुडा है भुलादे कैसे
माँ बाप भी जड के समान है
उनके ही तुम अंकुर हो
हे इन्सान तुमको भी दरख्त बनना है
अपनी जडों मे रहना है
नव अंकुर को सींच कर
अपनी जडों मे शामिल करना है
स्वरचित
नीलम शर्मा # नीलू
अपनो से वो दरख्त की भातिं
क्या सीमाओं को लाँघ रहा है
या अपना आसमान चाह रहा है
उडना चाहत है परिंदों सा वो
जहाँ कोई रोक टोक न हो
जीना चाहता है अपना आसमान
अपने तरीक़े से अपनी पहचान
हाँ शायद सच है सदियों से यही
इन्सान इसी कोशिश मे तो लगा है
पर क्या इन्सान की यही आशा है
नहीं उसकी अपेक्षा अधिक है
जडों से कटना नियति नहीं
पहचान तो उसकी जडों से ही है
अपना बजूद खो कर बढेगा कैसे
जिन जडों से वो जुडा है भुलादे कैसे
माँ बाप भी जड के समान है
उनके ही तुम अंकुर हो
हे इन्सान तुमको भी दरख्त बनना है
अपनी जडों मे रहना है
नव अंकुर को सींच कर
अपनी जडों मे शामिल करना है
स्वरचित
नीलम शर्मा # नीलू
ज़िंदगी कभी फ़ुरसत से बताना और कितने इम्तिहान बाक़ी हैं,
कितनों से मिलना-बिछुड़ना है,कितनों से जान पहचान बाक़ी है।
हर वो शै जो तुमसे बावस्ता थी तुझको ही लौटा रहे हैं हम ,
अब लौटाने को और कुछ नहीं,बस,अपना चंद सामान बाक़ी है ।
कम हो चला है लोगों का हज़ूम भी ,अब तो रफ़्ता - रफ़्ता ,
जो अपने थे वो चले गए,यहाँ अभी फ़क़त मेहमान बाक़ी है ।
साहिल की ख़ामोशी से नाख़ुदा भी ख़ौफ़ज़दा हुआ है अकसर,
कश्तियों के मुक़द्दर में न जाने कैसा ख़ौफ़नाक तूफ़ान बाक़ी है ।
आहिस्ता चल ऐ ज़िंदगी ! दम भर तो ठहर ,ज़रा दम ले लूँ मैं ,
अभी तो आँखों में ख़्वाब सजे हैं ,अभी रंगों की उड़ान बाक़ी है ।
उजड़ गई दिलों की बस्तियाँ , दफन हो गईं वो नेक हस्तियाँ
आलम -ए -वहशत है हर सूँ ,घर मिट गए , मकान बाक़ी है ।
ज़ख़्मों पे जो मरहम लगाते, वो हाथ न जाने कहाँ खो गए
इंसानियत खो गई बेनामोनिशां,यहाँ महज़ इंसान बाक़ी है ।
स्वरचित (c)भार्गवी रविन्द्र ....१/२/२०१९....
बावस्त - जुड़ा हुआ, संबंधित ; हज़ुम -भीड़ ; नाखुदा - नाविक
कितनों से मिलना-बिछुड़ना है,कितनों से जान पहचान बाक़ी है।
हर वो शै जो तुमसे बावस्ता थी तुझको ही लौटा रहे हैं हम ,
अब लौटाने को और कुछ नहीं,बस,अपना चंद सामान बाक़ी है ।
कम हो चला है लोगों का हज़ूम भी ,अब तो रफ़्ता - रफ़्ता ,
जो अपने थे वो चले गए,यहाँ अभी फ़क़त मेहमान बाक़ी है ।
साहिल की ख़ामोशी से नाख़ुदा भी ख़ौफ़ज़दा हुआ है अकसर,
कश्तियों के मुक़द्दर में न जाने कैसा ख़ौफ़नाक तूफ़ान बाक़ी है ।
आहिस्ता चल ऐ ज़िंदगी ! दम भर तो ठहर ,ज़रा दम ले लूँ मैं ,
अभी तो आँखों में ख़्वाब सजे हैं ,अभी रंगों की उड़ान बाक़ी है ।
उजड़ गई दिलों की बस्तियाँ , दफन हो गईं वो नेक हस्तियाँ
आलम -ए -वहशत है हर सूँ ,घर मिट गए , मकान बाक़ी है ।
ज़ख़्मों पे जो मरहम लगाते, वो हाथ न जाने कहाँ खो गए
इंसानियत खो गई बेनामोनिशां,यहाँ महज़ इंसान बाक़ी है ।
स्वरचित (c)भार्गवी रविन्द्र ....१/२/२०१९....
बावस्त - जुड़ा हुआ, संबंधित ; हज़ुम -भीड़ ; नाखुदा - नाविक
मैं इंसान, मेरी उड़ान नभ से आगे ,
समुद्र भी सीखे गहराई मेरे मन से,
मैं स्वाभिमानी प्रखर सूर्य सा ।
शीतलता आँचल मेरा,
पंचतत्व से मैं बना,
ईश्वर की सर्वोत्तम रचना।।
में था ,में हूं, में रहूंगा।
हर सांचे में ढल जाना मेरी क्षमता,
अस्तित्व मेरा आकाशगंगा ,
रवि की महत्ता जैसे तिमिर से,
अच्छाई, दया, मानवता,
परिभाषित जैसे,
बुराई, क्रूरता, हैवानियत से ।
कृष्ण की पूजा जैसे,
असुरों के नाश से।।
प्रकृति में संतुलन सबका सदा।
मानव क्यों परखे मानव को,
पैमाने की बोलो कसौटी क्या?
मैं था, में हूं ,मैं रहूंगा ..,
परिवर्तित रूपों में ,
इस धरा पर सदा सदा...।।
नीलम तोलानी
स्वरचित।
समुद्र भी सीखे गहराई मेरे मन से,
मैं स्वाभिमानी प्रखर सूर्य सा ।
शीतलता आँचल मेरा,
पंचतत्व से मैं बना,
ईश्वर की सर्वोत्तम रचना।।
में था ,में हूं, में रहूंगा।
हर सांचे में ढल जाना मेरी क्षमता,
अस्तित्व मेरा आकाशगंगा ,
रवि की महत्ता जैसे तिमिर से,
अच्छाई, दया, मानवता,
परिभाषित जैसे,
बुराई, क्रूरता, हैवानियत से ।
कृष्ण की पूजा जैसे,
असुरों के नाश से।।
प्रकृति में संतुलन सबका सदा।
मानव क्यों परखे मानव को,
पैमाने की बोलो कसौटी क्या?
मैं था, में हूं ,मैं रहूंगा ..,
परिवर्तित रूपों में ,
इस धरा पर सदा सदा...।।
नीलम तोलानी
स्वरचित।
खोगयी आज जग मैं कैसी मानवता
हर जगह दिखाई देती आज विषमता।
मानावता के हैं पुष्प आज कुम्लाने
अपनों के भाव यहाँ लगते अंजाने।
ईमान कहाँ मिलता है.कहाँ से लाऊँ
कैसे.फँसले मानवता की में आज उगाऊँ।
इंसानियत और इंसान का नाता है।
आदमी नहीं इंसान हमें भाता है।
हर जगह दिखाई देती आज विषमता।
मानावता के हैं पुष्प आज कुम्लाने
अपनों के भाव यहाँ लगते अंजाने।
ईमान कहाँ मिलता है.कहाँ से लाऊँ
कैसे.फँसले मानवता की में आज उगाऊँ।
इंसानियत और इंसान का नाता है।
आदमी नहीं इंसान हमें भाता है।
आज,
वसुधा पर,
इन्सान नहीं दिखता,
माया मोह के,
दुनिया के मेले में,
छल, कपट,
भौतिकतावाद की हवा में,
आदमी,
सद्व्यहार,
सदाचार,
सहानुभूति,
मैत्री,
बंधुत्व भाव भूल,
केवल खोखली हंसी के,
ऊपरी ढोंग कर ता है।
इन्सान वह है,
हर आदमी के,
भाई चारा, बंधु तरल भाव ,
निभा अपनाप्रेम,
प्रगट करताहै।
ईश्वर ने वसुधा पर,
भाई चारा, बंधु त्वप्रेम
मैत्री, सहयोग की भावना।
ही, देवगुण है।
अच्छे, सद्व्यहार ही, देव चरित्रहै।
जिस आदमी में देव चरित्रहै,
वह ही इन्सान है।
नहीं तो ,
केवल वह भी,
अन्तर जी वोंके समान वह,
एक प्राणी है।।
देवेन्द्र नारायण दास बसना छ,ग,।।
वसुधा पर,
इन्सान नहीं दिखता,
माया मोह के,
दुनिया के मेले में,
छल, कपट,
भौतिकतावाद की हवा में,
आदमी,
सद्व्यहार,
सदाचार,
सहानुभूति,
मैत्री,
बंधुत्व भाव भूल,
केवल खोखली हंसी के,
ऊपरी ढोंग कर ता है।
इन्सान वह है,
हर आदमी के,
भाई चारा, बंधु तरल भाव ,
निभा अपनाप्रेम,
प्रगट करताहै।
ईश्वर ने वसुधा पर,
भाई चारा, बंधु त्वप्रेम
मैत्री, सहयोग की भावना।
ही, देवगुण है।
अच्छे, सद्व्यहार ही, देव चरित्रहै।
जिस आदमी में देव चरित्रहै,
वह ही इन्सान है।
नहीं तो ,
केवल वह भी,
अन्तर जी वोंके समान वह,
एक प्राणी है।।
देवेन्द्र नारायण दास बसना छ,ग,।।
"इंसान"
वक्त की रफ्तार में
दौड़ रहे हैं सभी....
अपनी अपनी जिंदगी में
मन की शांति ढूँढ रहे हैं
जिंदगी के सफर में.....
मिल जाए ऐसा अगर...
दिलों को जितने का हो हुनर
कुछ पल तू जा ठहर...
रंग बदलती दुनिया में...
अपना रंग ना बदला हो यदि
ईमान का पक्का हो कोई..
मन से सच्चा हो कोई...
उसकी खातिर ...
वक्त अपना न्योछावर कर..
देव ना समझो वो इंसान है
उनसे ही ये सुंदर जहान है
ऐसे इंसान .....
अपने विचारों और आदर्शों से
जग प्रसिद्ध हो जाते हैं।।
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
वक्त की रफ्तार में
दौड़ रहे हैं सभी....
अपनी अपनी जिंदगी में
मन की शांति ढूँढ रहे हैं
जिंदगी के सफर में.....
मिल जाए ऐसा अगर...
दिलों को जितने का हो हुनर
कुछ पल तू जा ठहर...
रंग बदलती दुनिया में...
अपना रंग ना बदला हो यदि
ईमान का पक्का हो कोई..
मन से सच्चा हो कोई...
उसकी खातिर ...
वक्त अपना न्योछावर कर..
देव ना समझो वो इंसान है
उनसे ही ये सुंदर जहान है
ऐसे इंसान .....
अपने विचारों और आदर्शों से
जग प्रसिद्ध हो जाते हैं।।
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
चाह नहीं कि श्रीराम ही बनूं,
हर नारी का सम्मान करूँ,
ऐसा एक इंसान बनूं।
चाह नहीं कि गौतम बुद्ध ही बनूं,
परोपकार ही हो उद्देश्य मेरा,
ऐसा एक इंसान बनूं।
चाह नहीं कि गाँधी ही बनूं,
अहिंसा ही परमोधर्म हो मेरा,
ऐसा एक इंसान बनूं।
चाह नहीं कि विवेकानंद ही बनूं,
संस्कृतियों का सदा सम्मान करूँ,
ऐसा एक इंसान बनूं।
चाह नहीं कि धनवान ही बनूं,
दीन दुखियों के काम आऊं,
ऐसा एक इंसान बनूं।
चाह नहीं कि श्रवण कुमार ही बनूं,
परिवार को सदा खुश रखूं,
ऐसा एक इंसान बनूं।
चाह नहीं कि श्रीकृष्ण ही बनूं,
मित्रों संग मित्रता निभाऊं,
ऐसा एक इंसान बनूं।
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
हर नारी का सम्मान करूँ,
ऐसा एक इंसान बनूं।
चाह नहीं कि गौतम बुद्ध ही बनूं,
परोपकार ही हो उद्देश्य मेरा,
ऐसा एक इंसान बनूं।
चाह नहीं कि गाँधी ही बनूं,
अहिंसा ही परमोधर्म हो मेरा,
ऐसा एक इंसान बनूं।
चाह नहीं कि विवेकानंद ही बनूं,
संस्कृतियों का सदा सम्मान करूँ,
ऐसा एक इंसान बनूं।
चाह नहीं कि धनवान ही बनूं,
दीन दुखियों के काम आऊं,
ऐसा एक इंसान बनूं।
चाह नहीं कि श्रवण कुमार ही बनूं,
परिवार को सदा खुश रखूं,
ऐसा एक इंसान बनूं।
चाह नहीं कि श्रीकृष्ण ही बनूं,
मित्रों संग मित्रता निभाऊं,
ऐसा एक इंसान बनूं।
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
भगवान की सर्वश्रेष्ठ कृति है इन्सान
मति के कारण यह है बडा़ बलवान
पर अपने स्वार्थी कार्यकलापों से
यह हो रहा दिन पर दिन शैतान।
इन्सान प्रकृति का वैभव उजाड़ रहा
अपने को ही जि़न्दा गाड़ रहा
विकास की अन्धी लहर में
सारे समीकरण बिगाड़ रहा।
जल स्त्रोत दम तोड़ रहे
सूखे से सम्बन्ध जोड़ रहे
हम मंगल जाने के सपनोंमें
यहाँ अपनी किस्मत फोड़ रहे।
इन्सान इन्सान, का रक्त बहाता
इन्सान इन्सान को ,अशक्त बनाता
ये बम और ये, रसायनिक हथियार
इन्सान के ही तो, ख़त्म करेंगे परिवार।
इन्सान है पर इन्सानियत खो रही
इन्सानी प्रवृति ही नफ़रत के बीज बो रही
आज सबकी मानसिकता न जाने कहाँ सो रही
हमारे द्वारा ही हमारी पीढ़ी आज रो रही।
मति के कारण यह है बडा़ बलवान
पर अपने स्वार्थी कार्यकलापों से
यह हो रहा दिन पर दिन शैतान।
इन्सान प्रकृति का वैभव उजाड़ रहा
अपने को ही जि़न्दा गाड़ रहा
विकास की अन्धी लहर में
सारे समीकरण बिगाड़ रहा।
जल स्त्रोत दम तोड़ रहे
सूखे से सम्बन्ध जोड़ रहे
हम मंगल जाने के सपनोंमें
यहाँ अपनी किस्मत फोड़ रहे।
इन्सान इन्सान, का रक्त बहाता
इन्सान इन्सान को ,अशक्त बनाता
ये बम और ये, रसायनिक हथियार
इन्सान के ही तो, ख़त्म करेंगे परिवार।
इन्सान है पर इन्सानियत खो रही
इन्सानी प्रवृति ही नफ़रत के बीज बो रही
आज सबकी मानसिकता न जाने कहाँ सो रही
हमारे द्वारा ही हमारी पीढ़ी आज रो रही।
इन्सान की इंसानियत कहीं खो गई हैं
इस जमाने की भरी भीड़ में
ढूँढ रही हूँ जिसे मैं इन्सान के ईमान में
बिक रही हैं इन्सान की इंसानियत मन के पैमाने में .
पहले इन्सान ने जमीं को बाँट दिया
फिर घरों की दीवार को बाँट दिया
इन्सान अपने आप में कितना सिमट किया
इन्सान ने अपनी इंसानियत को ही बाँट दिया .
इंसानियत इन्सान को इंसानियत सीखा देती हैं
आस्था और विश्वास राह को आसान बना देती हैं
ऐसे ही नहीं जाते हैं लोग देवालयों में
मन की लग्न सच्ची भावना पत्थर को भगवान बना देती हैं .
ना गीता में हैं ना कुरान में हैं
इन्सान की इंसानियत इन्सान के ईमान में हैं
ना अमीरी में हैं ना दिखावे में हैं
इन्सान की सच्ची इंसानियत एक भूखे को दो निवाले अपने हिस्से के देने में हैं .
स्वरचित:- रीता बिष्ट
इस जमाने की भरी भीड़ में
ढूँढ रही हूँ जिसे मैं इन्सान के ईमान में
बिक रही हैं इन्सान की इंसानियत मन के पैमाने में .
पहले इन्सान ने जमीं को बाँट दिया
फिर घरों की दीवार को बाँट दिया
इन्सान अपने आप में कितना सिमट किया
इन्सान ने अपनी इंसानियत को ही बाँट दिया .
इंसानियत इन्सान को इंसानियत सीखा देती हैं
आस्था और विश्वास राह को आसान बना देती हैं
ऐसे ही नहीं जाते हैं लोग देवालयों में
मन की लग्न सच्ची भावना पत्थर को भगवान बना देती हैं .
ना गीता में हैं ना कुरान में हैं
इन्सान की इंसानियत इन्सान के ईमान में हैं
ना अमीरी में हैं ना दिखावे में हैं
इन्सान की सच्ची इंसानियत एक भूखे को दो निवाले अपने हिस्से के देने में हैं .
स्वरचित:- रीता बिष्ट
प्रकृति की अनुपम कृति हो तुम
ईश्वर की नव आकृति हो तुम
बल, बुद्धि ,साहस आभूषण
वेद पुराण की संस्कृति हो तुम।
ज्ञानवान हो शीलवान हो
धरती पर तुम गुण निधान हो
ज्योति प्रदीप्ति अज्ञान तिमिर में
मनु के वंशज तुम इन्सान हो।
ईमान सदा सर्वोपरि जिसका
परमार्थ रहा है धर्म उसी का
न्याय , धर्म की रक्षा करना
अधर्म मात उद्देश्य किसी का।
उच्च विचार जगत में पूजित
दुत्कार मिले यदि कर्म हो कुत्सित
आदर्शों को पथ में सजाकर
जीवन जग को करते प्रेरित।
पृथ्वी को है स्वर्ग बनाया
विकास पथ पर भागता आया
जीवन को संकट के द्वार पर
आज इंसान स्वयं ले आया।
स्वरचित
गीता गुप्ता 'मन'
ईश्वर की नव आकृति हो तुम
बल, बुद्धि ,साहस आभूषण
वेद पुराण की संस्कृति हो तुम।
ज्ञानवान हो शीलवान हो
धरती पर तुम गुण निधान हो
ज्योति प्रदीप्ति अज्ञान तिमिर में
मनु के वंशज तुम इन्सान हो।
ईमान सदा सर्वोपरि जिसका
परमार्थ रहा है धर्म उसी का
न्याय , धर्म की रक्षा करना
अधर्म मात उद्देश्य किसी का।
उच्च विचार जगत में पूजित
दुत्कार मिले यदि कर्म हो कुत्सित
आदर्शों को पथ में सजाकर
जीवन जग को करते प्रेरित।
पृथ्वी को है स्वर्ग बनाया
विकास पथ पर भागता आया
जीवन को संकट के द्वार पर
आज इंसान स्वयं ले आया।
स्वरचित
गीता गुप्ता 'मन'
तू इन्सान बन कर
रहना सीख
फरेब , चापलूसी जो
कूट कूट कर भरी है तुझ में
उससे निकल और
इन्सानियत से जीना सीख
ईश्वर ने दिया है
ये मानव शरीर
उसे मानवता और
नेक काम में लगा
तेरे काम ही
तेरी पहचान है
चाहे तो इज्जत
कमा ले
नहीं तो करोड़ों
इन्सान हैं यहाँ पर
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव
भोपाल
प्रस्तुति : 3
जरा चिन्तन करो इंसान
हवा तप रही है
गगन में
पानी सूख रहा है
नदी में
चमन उजड़ रहा है
तुम्हारे कर्मो से
जिधर जाती है दृष्टि
उधर धुँध ही धुँध है
जरा चिन्तन करो इंसान
तोड़ दिया है तुमने
पर्वत को
झरना को
सागर को
तोड़ दिया है तुमने
सूरज को
चाँद को
गगन को
कब आनंदित हुआ इंसान
तोड़कर प्रकृति से रिश्तों को
अनुभव करो अनुभूति करो
प्रकृति के दर्द को
उसके आँसूओं को
उसके शोक को
मत रोक टोक उसे
महकने दो उसे
चहकने दो उसे
कलरव करने दो उसे
सुवासित होने दो उसे
अगर जल गए धरती अंबर
तब तुम भी विलुप्त हो जाओगे
जरा चिन्तन करो इंसान
@शंकर कुमार शाको
स्वरचित
जरा चिन्तन करो इंसान
हवा तप रही है
गगन में
पानी सूख रहा है
नदी में
चमन उजड़ रहा है
तुम्हारे कर्मो से
जिधर जाती है दृष्टि
उधर धुँध ही धुँध है
जरा चिन्तन करो इंसान
तोड़ दिया है तुमने
पर्वत को
झरना को
सागर को
तोड़ दिया है तुमने
सूरज को
चाँद को
गगन को
कब आनंदित हुआ इंसान
तोड़कर प्रकृति से रिश्तों को
अनुभव करो अनुभूति करो
प्रकृति के दर्द को
उसके आँसूओं को
उसके शोक को
मत रोक टोक उसे
महकने दो उसे
चहकने दो उसे
कलरव करने दो उसे
सुवासित होने दो उसे
अगर जल गए धरती अंबर
तब तुम भी विलुप्त हो जाओगे
जरा चिन्तन करो इंसान
@शंकर कुमार शाको
स्वरचित
"इंसान"(9)प्रस्तुति
तांका कविता ,प्रथम प्रयास।
************************
कर्मठ योगी
सत्य संकल्प पूर्ण
नैतिक गुण
इंसानियत कर्म
सर्वश्रेष्ठ ये धर्म
ईमानदार
दो सूखी रोटी में भी
शांत हृदय
न कोई कौतूहल
जय जय श्री राम
झूठ फरेब
ताके न उर द्वार
स्वर्ण चमक
मुख मंडल हार
पूर्ण जीवन सार
शुद्ध विचार
प्रेम दया के भाव
श्री कृष्ण मान
गुणी श्याम व्यक्तित्व
श्रेष्ठ ये पहचान
ईश्वर वास
इज्जत व सत्कार
शालीन नर
न जाति धर्म भेद
बस प्रेम ही प्रेम।।
वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित,मौलिक
तांका कविता ,प्रथम प्रयास।
************************
कर्मठ योगी
सत्य संकल्प पूर्ण
नैतिक गुण
इंसानियत कर्म
सर्वश्रेष्ठ ये धर्म
ईमानदार
दो सूखी रोटी में भी
शांत हृदय
न कोई कौतूहल
जय जय श्री राम
झूठ फरेब
ताके न उर द्वार
स्वर्ण चमक
मुख मंडल हार
पूर्ण जीवन सार
शुद्ध विचार
प्रेम दया के भाव
श्री कृष्ण मान
गुणी श्याम व्यक्तित्व
श्रेष्ठ ये पहचान
ईश्वर वास
इज्जत व सत्कार
शालीन नर
न जाति धर्म भेद
बस प्रेम ही प्रेम।।
वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित,मौलिक
आर्त चीत्कार
भेडिये बलवान
लाश इंसान |
दुर्घटनाएं
सड़क शमशान
मौन इंसान |
सहायतार्थ
प्राकृतिक आपदा
सच्चे इंसान |
बाँटते खुशी
चेहरों पर हसी
इंसान यही |
जर्जर तन
पहुँचे बृध्दाश्रम
खोये इंसान |
स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश ,
II इंसान - भरोसा II 4
मेरे घर के पिछवाड़े में आयी एक प्यारी सी माणों बिल्ली...
सुन्दर प्यारे बच्चे ३ वो साथ थी लाई...
म्याऊं म्याऊं जब किया बच्चों ने...दूध कटोरी मैंने रख दी..
अब तो रोज़ सुबह और शाम...दूध पीते...मस्ती करते..इधर उधर थे घूमते...
कुछ दिन में ही दोस्त बन गए...
पर माँ उनकी थी चौकन्नी...गुर्राती...जब किसी को था मैं पकड़ता...
धीरे धीरे गुर्राना कुछ कम हुआ पर कभी भी वो मेरे पास ना आई....
एक शाम जब घर आया तो उसकी रोती सी आवाज़ आयी......
बाहर निकला देखा बच्चे उसके २ थे साथ...शायद एक था गायब.....
मैंने इशारों में पुछा...और लगा बच्चे को ढूंढने...
वो भी जैसे समझ गयी...जहाँ जहाँ मैं जाता वह भी साथ ही जाती...
फिर एक जगह जा कर बार बार वो रोने लगी......
देखा जा कर उस साइड पे बच्चा उसका था मरा पड़ा....
गर्दन उसकी कटी हुई थी...शायद कोई बिल्ला उसको था खा गया...
उसको उठाया...कपडे में लपेट दफनाने बाहर ले गया...
इस अंतिम यात्रा में उसकी माँ भी मेरे साथ ही थी...
फिर घर आ कर मैंने दूसरे बच्चों को कटोरी में दूध डाला ही था...
उनकी माँ भी आ गयी...
पहली बार वो मेरे पास आ कर बैठी...
मैंने धीरे से उसकी पीठ पे हाथ फेरा...वह कुछ नहीं बोली...
हाँ पूँछ हिलाती रही...
पता नहीं कौन किस को दिलासा दे रहा था...
फिर एक दिन महीनों बाद आयी एक माणों बिल्ली...
साथ में उसके २ बच्चे...म्याऊँ म्याऊं करते...
मेरे कमरे के बाहर प्यारी सी आवाज़ लगाई...
मैं बाहर निकला दूध की कटोरी में दूध डाला...
बच्चों की पीठ पे प्यार से हाथ फेरने लगा...
माँ उनकी ना गुर्राई...मैं सोच में पड गया...
यह वो वाली तो बिल्ली नहीं है...वह भूरी थी यह सफ़ेद और काली...
फिर मन में आया यह शायद उसकी बच्ची है...जो मेरे हाथ से दूध पीती थी...
आज माँ बनी तो बच्चों को जैसे मिलाने लाई है...
बच्चों को मेरे साथ खेलता देख वो कहीं निकल गयी...
उसको जैसे भरोसा था मुझपर...
और मैं सोच में पड गया...
काश! हम इंसान भी ऐसे ही भरोसा कर सकते तो...
रिश्ते पीढ़ी दर पीढ़ी प्यार से निभते...
काश....ऐसा भरोसा कर सकते...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
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मेरे घर के पिछवाड़े में आयी एक प्यारी सी माणों बिल्ली...
सुन्दर प्यारे बच्चे ३ वो साथ थी लाई...
म्याऊं म्याऊं जब किया बच्चों ने...दूध कटोरी मैंने रख दी..
अब तो रोज़ सुबह और शाम...दूध पीते...मस्ती करते..इधर उधर थे घूमते...
कुछ दिन में ही दोस्त बन गए...
पर माँ उनकी थी चौकन्नी...गुर्राती...जब किसी को था मैं पकड़ता...
धीरे धीरे गुर्राना कुछ कम हुआ पर कभी भी वो मेरे पास ना आई....
एक शाम जब घर आया तो उसकी रोती सी आवाज़ आयी......
बाहर निकला देखा बच्चे उसके २ थे साथ...शायद एक था गायब.....
मैंने इशारों में पुछा...और लगा बच्चे को ढूंढने...
वो भी जैसे समझ गयी...जहाँ जहाँ मैं जाता वह भी साथ ही जाती...
फिर एक जगह जा कर बार बार वो रोने लगी......
देखा जा कर उस साइड पे बच्चा उसका था मरा पड़ा....
गर्दन उसकी कटी हुई थी...शायद कोई बिल्ला उसको था खा गया...
उसको उठाया...कपडे में लपेट दफनाने बाहर ले गया...
इस अंतिम यात्रा में उसकी माँ भी मेरे साथ ही थी...
फिर घर आ कर मैंने दूसरे बच्चों को कटोरी में दूध डाला ही था...
उनकी माँ भी आ गयी...
पहली बार वो मेरे पास आ कर बैठी...
मैंने धीरे से उसकी पीठ पे हाथ फेरा...वह कुछ नहीं बोली...
हाँ पूँछ हिलाती रही...
पता नहीं कौन किस को दिलासा दे रहा था...
फिर एक दिन महीनों बाद आयी एक माणों बिल्ली...
साथ में उसके २ बच्चे...म्याऊँ म्याऊं करते...
मेरे कमरे के बाहर प्यारी सी आवाज़ लगाई...
मैं बाहर निकला दूध की कटोरी में दूध डाला...
बच्चों की पीठ पे प्यार से हाथ फेरने लगा...
माँ उनकी ना गुर्राई...मैं सोच में पड गया...
यह वो वाली तो बिल्ली नहीं है...वह भूरी थी यह सफ़ेद और काली...
फिर मन में आया यह शायद उसकी बच्ची है...जो मेरे हाथ से दूध पीती थी...
आज माँ बनी तो बच्चों को जैसे मिलाने लाई है...
बच्चों को मेरे साथ खेलता देख वो कहीं निकल गयी...
उसको जैसे भरोसा था मुझपर...
और मैं सोच में पड गया...
काश! हम इंसान भी ऐसे ही भरोसा कर सकते तो...
रिश्ते पीढ़ी दर पीढ़ी प्यार से निभते...
काश....ऐसा भरोसा कर सकते...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
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