वीणा शर्मा वशिष्ठ(एडमिन)





"लेखिका परिचय"

01)नाम:-वीणा शर्मा वशिष्ठ 02)जन्मतिथि:- सहित):-25 मई 03)जन्म स्थान:-दिल्ली 04)शिक्षा:-एम.ए 05)सृजन की विधाएँ:-विशेषतः क्षणिका एवं सभी। 06)प्रकाशित कृतियाँ:------- 07)कोई भी सम्मान:-हिंदी साहित्य श्री 2018,पिरामिड शिरोमणि,साहित्य ज्योति। 08)संप्रति(पेशा/व्यवसाय):गृहिणी


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29/2/2020

"फुर्सत मिले तो"

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फुर्सत मिले तो यारों, शहीदों को याद रखना

तन-मन पर दिए गहरे जख्मों को याद रखना

सुलग रहा क्यों अमन पसन्द देश मेरा भारत
नजरअंदाज न करें वहशीपन को याद रखना।

सदियों से झेले ज़ख्म, चुप का है ये नतीजा
" अतिथि देवो भवः " उसका है ये नतीजा
फुर्सत मिले तो देखो,इतिहास दे रहा गवाही
अनदेखा करके सहते उसका है ये नतीजा।

फुर्सत मिले तो यारों,वेदों को मन रमाना
गीता के मर्म समझों जन को सब बताना
सनातन संस्कृति ने सबको गले लगाया
विश्व भारती शिवा की,सत्यम शिवम समाना।।

स्वरचित
वीणा शर्मा वशिष्ठ


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29/02/2020(दूसरी प्रस्तुति)

"फुर्सत मिले तो"फुर्सत मिले तो एक कहानी लिखना

दिल के जज्बातों को

पानी पर तराशती

तेरे मेरे बीच की कहानी लिखना

हाँ... ऐसी प्रेम कहानी
जिसको लिखते ही पानी जम जाए
अनन्त काल तक स्थिर हिमखंड बन जाए
जैसे...अंटार्टिका के हिमखंड।
जिस पर विरोधी दृष्टि न जा पाए
अमर प्रेम कहानी वह बन जाए।
सूर्य की तपित किरणें, तीखी चुभन भरी
प्रेम को हमारे नही बहा पाए।
फुर्सत मिले तो प्रियवर,
पानी पर तराशती प्रेम कहानी लिखना।।

स्वरचित
वीणा शर्मा वशिष्ठ


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"सुप्त"

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🌹भावों के मोती🌹

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सुप्त चित्त सा हो गया,प्रेम गली बैचैन।

हर-मन मे कुंठा भरी, आँखियां ढूंढे चैन।।


मीरा-राधा देखती
कहाँ छिपे श्री आप
बिन दर्शन तन-मन जले
बढ़ता तन में ताप।।

सुप्त चित्त सा हो गया,प्रेम गली बैचैन।
लहरों में कुंठा भरी, नदियाँ ढूंढे चैन।।

सागर तो मदहोश है
करता रहे गुमान
नदियों को लेकर जिए
बढ़ा रहा है शान।।

सुप्त चित्त सा हो गया,प्रेम गली बैचैन।
मतभेदों से रुष्ठ हो,सखियाँ ढूंढे चैन।।

भावों को जो त्याग दे
करे सदा अपमान
सखियाँ वो झूठी रही
नहीं मिले सम्मान।।

सुप्त चित्त सा हो गया,प्रेम गली बैचैन।
हर मन में कुंठा भरी,आँखियाँ ढूंढे चैन।।

स्वरचित,मौलिक,वीणा शर्मा वशिष्ठ, पंचकूला।



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14/02/2020

"वीर/शहीद/नम/यादें"

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नम नयनों ने नेह नीर ,छलक-छलक छलकाए

पग-पग पारस प्रेम पुष्प ,पथ पर बिछते जाए

जय - जय भारत - भारती,नारे नर-मन मुख
अंतस ,अंबर, आकुल-आतुर, श्रद्धा पुष्प बरसाए।।

किंचित कायर कुटिल कदम,करे छदम प्रहार
धधक धैर्य ज्वाला रही, धीरज धर ना नार
चंदन चित्त ,चंदा चले,चक्षु,चकवा रोए
लांघ लाज रावण रहे,कर काट शीश तन तार।।

स्वरचित,वीणा शर्मा वशिष्ठ


10/02/2020

"सफलता"

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हौसले हो अगर अडिग तो

सफलता मिल ही जाती है।

अंधेरे में भी किरण से राह
यकीनन,दिख ही जाती है।
कर्मपथ से न च्युत होना कभी
सफलता इतिहास रच ही देती है।
थपेड़े खा कर भी तट किनारे
वृक्ष हौसले खोता नही।
धीरे-धीरे,बढ़ते-बढ़ते
फल-फूल से लदता वही।
सफलता नही चुटकियों का खेल है
समय,धैर्य,शांति का अनुपम मेल है।
अक्सर युवा हताश होते दिखते हैं
क्यों नही सहनशीलता पाठ पढ़ते है।
बुद्धि,विवेक होकर भी
न जाने क्यों गलत राह चलते हैं।

स्वरचित,वीणा शर्मा वशिष्ठ



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3/02/2020

"शगुन"

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झूम रही कांधे पर मेरे,कदम-चाल अभी बाकी है।

नन्ही-मुन्नी राजदुलारी,शगुन अभी तो बाकी है।।


पग-पग जब चल जाएगी
खुशियाँ मन-भर आएंगी
भोर-दोपहरी,साँझ-रात्रि
मटक-मटक इठलाएगी।

समय गया ये जल्दी बीत,राजदुलारी बनी कुमारी।
चिंता बाबा की नई हुई,शगुन अभी तो बाकी है।।

चंचल चितवन भोली-भाली
लाड प्यार में थी वो पाली
समय हाथ पीले का आया
शर्म,हया,मुख में थी लाली।
क्रमशः



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2.02.2020

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ढूंढ रहे सम्बन्धों को

जिन पर हाय नजर लगी

प्रेम कली जो महकी रहती

सूख न जाने कहाँ गिरी?


चली हवा थी सर सर सर
भटक गया पत्तियों का झुंड
ढूंढ न पाए अपनी पत्ती
भूल गया क्या खुद का मन?

प्रेम किया गर पत्ती से तो
स्नेह निशानी दी होगी
सूख गई पत्ती तो क्या
अमर निशानी तो होगी?

जाँच परख ले अपने मन को
नमी कहीं क्या है बाकी
ले ले सारी सूखी पत्तियां
बना खाद फिर महके क्यारी।

सदा कहाँ रहता है सावन
पतझड़ जीवन का हिस्सा
निर्वाहन हो प्रेम अगर तो
फलीभूत जीवन का रिश्ता।।

स्वरचित,
वीणा शर्मा वशिष्ठ, पंचकूला।


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25/01/2020

"अंतिम"

ूसरी प्रस्तुति

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आज,

साक्षात ,अंतिम समय,
सत्य से मुलाकात हुई,
सभी परिग्रह,मिथ्या धारणाएँ,
स्वतः ही झकझोर गई।
करुणा, संयम,सन्तोष सभी भाव,
यह मुलाकात दर्शा गई।
अंतिम समय सत्य से,
मुलाकात की परिभाषा बतला गई।
ओढनी अहंकार की स्वतः ही,
श्वेत वस्त्र में दिखला गई।
सभी अहंकार,दम्भित भावनाएं,
अंत समय गंगामय हो गई।
इस मुलाकात से
जीवन डगर बदल गई,
परन्तु आह!
मुलाकात सत्य की ,
पहले न हो सकी।
काश,
कुछ मुलाकातें,
पहले होती...
जीवन रँगीन बनाती,
दम्भ,द्वेष,कपट त्याग,
सत्य राह अपना कर..
सन्तोष,शांति अभय को,
कर्मों की झोली में सजाती।
अंतिम समय..….
सत्य की शैया पर पड़े -पड़े,
जीवन की समस्त,गुजरी मुलाकातें,
पटल पर आ रही थी।
प्रेम स्नेह की मुलाकातों को मनु
दर किनार क्यो कर देता है????
मात्र लालची,दम्भी बना ....
धन को परिजन मान लेता है।
हाथ से समय,
अब निकल गया था....।
रेत सा फिसलता ,
जीवन ढह गया था।
सत्य की अंतिम मुलाकात ने,
जीवन 'श्रवण 'बना दिया था।
राम,कृष्ण के कर्मों की महत्ता को,
अंतिम समय की मुलाकात ने,
सत्य क्या है.....
समझा दिया था।
काश !
हृदय के द्वार को....
न बंद करता....
अपनत्व के झरोखें भी
सदा,खुले ही रखता।
प्रेम की पावन पवन
मेरे अंतर्मन को जाग्रत करती..।
परन्तु ,स्वयं ही
चाँद-तारों की ,
ओढ़नी ओढ़ने की,
लालसा ने ...
आह!!!!
मुझे अंत समय
ग्लानि भाव से भर दिया।
चंद क्षणों के लिए ....
सुख की चादर ,
पाने के लिए,
मानव ने जीवन के...
सार से ही मुहँ मोड़ लिया।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित,पंचकूला


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22/01/2020
"स्याहा/श्याम"
*
*******
मैं सैनिक
*******
काली अंधेरी स्याह रातों में
मावस की गहन मुलाकातों में
मैं सैनिक ,हौसलों के नेत्र खोले
संजय समकक्ष बढ़ता गया,,चलता गया
कल्पतरु सा अडिग,देश हितार्थ
अंगद बनता गया,बनता गया......
लक्ष्य का संघान कर
न प्राणों पर अभिमान कर
मैं सैनिक,राही निडर बन
अर्जुन सा कर्म करता,चलता गया ,चलता गया
मौसम,बेमौसम की मार सहता
शीत, फुहारें ,पुष्प, वर्षा मान, राष्ट्रहित बढ़ता गया.....
वीरभूमि मृत्तिका को
चंदन मान तिलक धर
मैं सैनिक, महक दूर तक फैलता
बढ़ता गया,बढ़ता गया....
कण-कण इसके लहू से अपने
समर्पण,कर्तव्य के हस्ताक्षर करता गया.....
मातृभूमि को वंदन करता
लहू से शौर्य गाथाएँ लिखता
मैं सैनिक,लिपट तिरंगे घर आता
चंद जयचंदों के कारण,इतिहास नया बन जाता हूँ।लौट के घर आता हूँ।

वीणा शर्मा वशिष्ठ

स्वरचित मौलिक


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18/01/2020
"आँगन/अहाता"
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*************
अहाते मध्य
खटिया पर चर्चा
सजी चौपाल।।
*************
अंबिया डाली
आँगन में कूकती
कोयल काली।।
*************
अहाते पड़ी
सुनहरी किरण
नव उमंग।।
*************
बेटी पायल
चहकता आँगन
तीनो पहर।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ, स्वरचित।


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6/01/2020
"व्यवहार"
निर्मल सा व्यवहार हो,
मिले मान-सम्मान।
दंभ,क्रोध में आदमी,
बन जाता शैतान।।

धरो प्राण में शिष्टता,
समावेश हो ज्ञान।
सर्वोत्तम व्यवहार की,
अद्भुत यह पहचान।।

अमन,चैन की जिंदगी,
जीवन का हो ध्येय।
मृदुल-मृदुल व्यवहार सा,
सुधा,सोम सा पेय।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ, स्वरचित


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"मन चंचलता चाहता है"
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न जाने क्यों वक्त बेवक्त
मन चंचलता चाहता है
तन्हाई की बदली में
मन बहलाना चाहता है।।

शांत हुई जलधारा में
हिचकोले लाना चाहता है
याद कागजी नावों की
फिर,तैरना चाहता है।।

रुदन हृदय में आहों की
लड़ी पिरोना चाहता है
देख निशा में तारो को
मन बहलाना चाहता है।।

सँगी साथी छूट न जाए
प्रेम तराना चाहता है
साथ तेरे हाथों का फिर से
मन मतवाला चाहता है।।

तपत हुई दोपहरी में
राग भैरवी चाहता है
निशा,चांदनी,तारो सँग
ये राग पुराना चाहता है।।

अहंकार की दुनिया में
निर्मल गंगा चाहता है
शांत,पावनी,शीतलता का
तिलक लगाना चाहता है।।

हरी डाल पर तोता -मैना
चहक पुरानी चाहता है
बात-बात पर चोंच लड़ा कर
गीत सुनना चाहता है।।

टूट रहा श्वासों का मेला
पवन भोर की चाहता है
महक रही फुलवाड़ी से
पुष्प चुराना चाहता है।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ

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20/12/2019
"जीवन शैली"
1
)
जीवन शैली हो सरल,ईश्वर में हो ध्यान।
सत्कर्मों की राह पर,चलकर मिलता मान।।
2)
जीवन शैली प्रेम की,सदा लीजिए थाम।
झोली भर-भर बाँटना, कुसमित होंगे राम।।
3)
ध्यान,योग से तुम करो,जीवन मे बदलाव
शैली ये अनुपम सदा,तन-मन पुष्पित भाव।।
4)
चल चित्रों में रम गए,भूले दिन अरु रात।
जीवन शैली भूल कर,हित की भूले बात।।

स्वरचित
वीणा शर्मा वशिष्ठ

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30/12/2019प्रेम भाव को थाम कर,भूलो बीता साल।
दो दिन की ये जिंदगी,मिलकर पूछो हाल।।

बहुत हो गई दुश्मनी,त्यागो मिलकर बैर।
लम्हे बीते याद कर, प्रेम गली की सैर।।

गांठ बाँध कर आज हम,छोड़े मन की खार।
बीते पल को भूल कर,सोचे नवल विचार।।


वीणा शर्मा वशिष्ठ

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दिनांक-21/12/2019

विधा-हाइकु(5/7/5) 


िषय :-"निःस्वार्थ"

(1)
पालनकर्ता


निस्वार्थ भू से जुड़ा
हरित वृक्ष।।

2
प्रेम की जड़े
निस्वार्थता से जुड़े
कौमुदी खिले।।

3
निस्वार्थ प्रेम
ममतामय उर
वसंत जैसा।।

स्वरचित
वीणा शर्मा वशिष्ठ


19/12/2019
"क्षमा/माफी"
ाइकु
******
1)
कांपी न जिह्वा-
बलात्कारी की माँग
क्षमा महान।
2)
टूटा जो कांच
बेसहारा सी बाई
क्षमा सहारे।
3)
क्षमा की ज्योति
जगमग प्रभात
स्वर्णिम आस।
4)
क्षमा,विश्वास
प्रेम का परिधान
खिलता मन।
5)
गहरे डूबे
क्षमा के सागर में
प्रेम माणिक।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ

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कहने को सेवक है, रक्षक वो है होता

लिए सदा वो अपने कांधे, घर का बोझा ढोता।

भोर-रात न शाम दिखे,बस भागा दौड़ी रहती

और घर के बाशिंदो की,निगाह उसी पर रहती।


हाथ दो और दो पैरों पर,नापें कोना- कोना
शिकन नही हो चहरे पर,हाँ-हाँ दिन भर कहना।
दूध-मलाई,बर्फी पुड़े ,प्लेट सजा कर रखता
मुँह मे पानी लिए सदा ही,तांका-झांका करता।

बैठ गया दिल उसका उस दिन,काका जब थे गुजरे
कौन करे अब मेरी रक्षा,प्रेम भरे दिन बिसरे।
चुपके-चुपके काका उसको,रोटी जी भर देते
डांट पड़े जब उसको तो,आँसू मन भर पीते।

कहाँ तेरहवीं किसकी होती,अब दो दिन का मेला
बांट लिया दो दिन में सब कुछ,मिटा अश्क का मैला।
टूट गया सब सपना उनका,मुंशी जब घर आया
हाथ लिया लंबा आदेश,पढ़ कर उन्हें सुनाया।

"सेवक कहने को सेवक है,रक्षक वो होता है
मिले संपत्ति आधा हिस्सा",काका ने बोला है।
लुढ़क पड़े सुन कर सब बातें,मौन हो गया सारा घर
सेवक के नयनों का झरना, फूट पड़ा काका के दर।।

क्रमशः
स्वरचित
वीणा शर्मा वशिष्ठभावों के मोती।

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17/12/2019

"घटना"

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जीवन संगिनी हैं घटनाएं
गतिशील जीवन का एहसास है घटनाएं
अच्छे -बुरे,सुख- दुख की
पक्की लकीर हैं घटनाएं।
कहीं मखमली चादर का बिछोना
कहीं कांटों से उपजा दर्द हैं घटनाएं
घटनाएं जीवंतता की निशानी है
यथार्थ झिलमिलाता कामरानी है।
गाय़बाना घटनाएं असीमित हैं
मानो न मानो सर्वथा नही अहित है
दुखद घटना जीवन मजबूती सिखाती है
सुखद घटना नव उजास दिखाती है।
घटनाएं तो मानो जीवन मेला है
बिन इसके बेरंगा ठेला है
चहरे मुस्कान से सरोबार रखा करो
कांटे की भनक दिल मे रखा करो।
हौसलों की उड़ान घटनाओं से है
मुकम्मल जहां भी घटनाओं से है
लिए हौसलों के परवाज रुकना नही
मिल जाएगा ठिकाना भी यहीं-कहीं।

स्वरचित
वीणा शर्मा वशिष्ठ

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5/12/2019
"विवाह"
ाइकु

1
खड़ी मुश्किलें
अंतरजातीय प्रेम
विवाह स्वप्न।।
2
प्रेम विवाह
दो दिलों का मिलन
ज्यों नभ धरा।।
3
कैसा विवाह
धन ,तन चूसते
लालची पिस्सू।।
4
भिखारी वर
शादी के मंडप पे
धन की माँग।।
5
फूल सी कन्या
परिणय विच्छेद
पल में झड़ी।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ, स्वरचित

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4/12/2019
वादा*हाइकु*
1

लुभाते वादे
झूठी बुनियाद में
खड़े इरादे।।
2
कसमें वादे
अंतिम हथियार
जीतता प्यार।।
3
मैं आऊँगा माँ..
वादे की आस तले
दबती श्वास।।
4
मक्खन वादे
हम आस में बैठे
फटता दूध।।
5
गुलाबी वादे
यौवन दहलीज
तितली लगे।।

स्वरचित,वीणा शर्मा वशिष्ठ

28/11/2019
"सड़क
/फुटपाथ"
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1
अकेला खड़ा
फुटपाथ पे खोजे
अपनापन।।
2
रत्नों को खाए
बदहाल सड़क
रोती ममता।।
3
लूट की नीति
अंधेरी सड़क पे
सियार बनी।।
4
प्रेमी सड़क
रूठे दिल मिलाए
चारों पहर।।
5
आतंकी डर
दिन में लगी रात
सुप्त सड़क।।
6
कच्ची सड़क
तपन से दरकी
टूटा ज्यों मन।।
7
बॉम्बे सड़क
दिन रात दौड़ती
रेल सी बनी।।

8
वसंत आया
सड़क मन भाया
फूलों का फर्श।।
9
काली सड़क
रँग रैली मनाते
आवारा जन।।
10
सन्नाटा खत्म
सड़क पे चीखती
निर्भया रानी।।

स्वरचित
वीणा शर्मा वशिष्ठ

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27/11/2019

"पड़ाव"


"पल पल बदलते पड़ाव हैं गम न करना
मुहब्बत जो मिली है वह कम न करना।।"

"रफ्ता रफ्ता जिंदगी के पड़ाव पर आ गए
मिलता जहाँ सुकूँ हैउस शैया पर आ गए।।"

"सीखना गुलाब से हर पड़ाव पर मुस्कुराना
कांटों भरी जिंदगी में कभी न तिलमिलाना।।"

"सूरज-चाँद ,सुख-दुख ये आते-जाते रहेंगे
पड़ाव से क्यों घबराना ,गम सहलाते रहेंगे।।"

वीणा शर्मा वशिष्ठ, स्वरचित


""सत्यता"" काश! मर्त्य संसार की सत्यता मनु जान ले जीवन-मरण के सत्य को अति शीघ्र वो पहचान ले।। सद्गति हो कर्म की पथ-भ्र्ष्ट न होना कभी मोह रति आलिंगन में बुद्धि न खोना कभी।। उदार हृदय,धैर्य से लक्ष्य अनुसंधान कर धर,अधीर प्रवाह को न स्वयं पर अभिमान कर।। अल्पज्ञ ज्ञानी,बुद्धि हरता कर्तव्य च्युत ,मधान्त चित्त सर्वज्ञानी कल्पतरु सा सुरकानन विचार हित्त।। अडिग रहे कर्तव्यों पर दिनचर्या पर विस्तार दो अंशुमाली बन सदा निस्वार्थता पर ध्यान दो।। जीते जी अपकीर्ति सदैव मृत्यु समान है सँग लेकर क्यों जिए कीर्ति अनुष्ठान है।। बिछा जाल है झूठ फरेबी बहक कहीं कदम न जाए सत्य की बगिया में रहना तन मन प्रफुल्लित हो जाए।। मन मोहिनी छद्म वेष क्रीड़ा बड़ी अलबेली है क्रोध ,कृत,कुबुद्धि की अनसुलझी अजब पहेली है।। वीणा शर्मा वशिष्ठ


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"आसरा""

आसमा है सर के ऊपरकिस आसरे की तलाश हैहै मुट्ठी में कर्म तेरेफिर क्यों उदास है।।

जोश है उमंग हैफिर क्यों निढाल हैचंद पल की जिंदगी हैउसमे बवाल है।।

उन्मुक्त हो,निर्भय होविपदा से क्यों हलाल हैक्या निस्तेज है तेरी शिराएंजोश क्यों न बरकरार है।।

मनोबल ही तेरा आसराझक मारता है क्योंईश्वर अनुपम रचना है तूसंशय फिर पालता है तू।।

हौसलों से नीड़ बुनप्राण मोह त्याग करनव सृजन स्व भाग्य रचन आसरे की तलाश कर।।
एक कदम अब तू बढ़ाआसरा खुद से बनाक्यों ताक बगुला अब रहाश्वेत कमल खुद को बना।।
वीणा शर्मा वशिष्ठ

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अपरिमित नभ को निहारता
भविष्य के स्वप्न बुनता
सागर की गहराई नापता
मैं,
रुके समय को अनदेखा कर
सतरंगी उजास को स्वीकारता
नवजीवन के ताने बाने बुन रहा हूँ।
हाँ,
समय बेशक ठहर,रुक गया हो
पर मैं,झुके वृक्ष में भी
नवजीवन संचार की
आशाएं देख रहा हूँ।
शीतल,ऊर्जावान
स्वप्नों के चरितार्थ हेतु
सफल जीवन के ठहराव हेतु
हौसले बुलंद कर रहा हूँ।
हाँ,मैं मनुष्य,लक्ष्य के संधान हेतु
सदा प्रयत्न शील हूँ।
वीणा शर्मा वशिष्ठ।

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दोहे
(1)
तुंग हिमालय कह रहा,रखना धैर्य संभाल
विचलित मत होना कभी,बन दुश्मन का काल।।
(2)
बेसुध होती बेटियाँ, बिलख रहा परिवार
घोड़ा-घोड़ा कौन अब,खेले पालनहार।।
(3)
अंग-भंग सब देख कर,धरती करे पुकार
मानवता क्यों बिक गई,कैसा यह व्यापार।।
(4)
है भारत के वीर हम,सूरज-चंद्र समान
दिन हो चाहे रात हो,रखते सीना तान।।।
(5)
देख शेर वो हिंद के,करता छिप कर वार
कर ले आकर सामना,पक्की तेरी हार।।
(6)
शिव सा तांडव देख कर,करना चीख पुकार
होगा प्रलय पाक में,रूदन औ चीत्कार।।
वीणा शर्मा वशिष्ठ

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"स्वतंत्र"

विधा:-पिरामिड






1)

ये

नारी

दामिनी

सीता तुल्य
अभिनन्दन
खिला उपवन
अद्भुत द्रव्य मन।।

2)
ये
शुचि
जननी
हरियाली
प्रेम संस्कार
वेद ग्रँथ सार
अभिनन्दित भूमि।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित मौलिक

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मैं सैनिक
******
काली अंधेरी स्याह रातों में
मावस की गहन मुलाकातों में
मैं सैनिक ,हौसलों के नेत्र खोले
संजय समकक्ष बढ़ता गया,,चलता गया
कल्पतरु सा अडिग,देश हितार्थ
अंगद बनता गया,बनता गया......
लक्ष्य का संघान कर
न प्राणों पर अभिमान कर
मैं सैनिक,राही निडर बन
अर्जुन सा कर्म करता,चलता गया ,चलता गया
मौसम बेमौसम की मार सहता
शीत फुहारें पुष्प वर्षा मान, राष्ट्रहित बढ़ता गया.....
वीरभूमि मृत्तिका को
चंदन मान तिलक धर
मैं सैनिक, महक दूर तक फैलता
बढ़ता गया,बढ़ता गया
कण-कण इसके लहू से अपने
समर्पण,कर्तव्य के हस्ताक्षर करता गया.....
मातृभूमि को वंदन करता
लहू से शौर्य गाथाएँ लिखता
मैं सैनिक,
लिपट तिरंगे घर आता हूँ
चंद जयचंदों के कारण
इतिहास नया बन जाता हूँ।
आह!लौट के घर आता हूँ।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ

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होली विशेष पर रचित।।
21/3/2019
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रोम-रोम में बस गए,राधे मुरली श्याम
प्रेम सुधा बरसा रहें,लेते तनिक न दाम।।

होली के हुड़दंग में,शीतल हो व्यवहार
गलियारों में प्रेम की,गूँजे स्नेहिल धार।।

रंग प्रीत का चढ़ गया,हुई शर्म से लाल
नैन मेरे उठते नही,साजन ताके भाल।।

बरसाने की गोपियाँ,अद्भुत सुंदर नार
लुक छुप देखो जा रही,बच कर कान्हा द्वार।।

देखों सब पर चढ़ गया,होली का त्यौहार
ढोल-मजीरे थाम कर,नाच रहे नर-नार।।

रंगों से कर दो प्रिय,मेरा तुम श्रृंगार
उर भी चंचल हो रहा,बहकी मधुर बयार।।

होली से तुम त्याग दो,बैर-भाव दुर्भाव
प्रेम डोर से बांध कर,अपना लो सद्भाव।।

मन मलंग सा हो गया,देख फाग की रीत
अँग-रँग से सज गए,चौतरफा है प्रीत।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
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साथी/साथ

जीवन साथी बिन कहाँ, जीवन मे आराम
उसकी हर मुस्कान से,खिलती मन की शाम।।

आओ बैठो साथ मे,ओ साथी दिलदार
तेरे मेरे बीच की,दूर करें दीवार।।

मुस्कानों से बांट ले,साथी मिलकर प्रीत
पतझड़ भी सावन लगे,गाए मधुरिम गीत।।

साथी तेरे बिन सदा,जीवन मे है क्षोभ
क्षण है बिता जा रहा,त्याग क्रोध अरु लोभ।।

ईश्वर ने मुझको दिया,अनुपम यह उपहार
दोनों मिलकर रच रहे,,खुशियों का संसार।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित।

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प्रिय नीरस मन में आकर प्रिय खुशियों का संसार रचो मन उपवन सा खिल-खिल जाए ऐसा कुछ श्रृंगार करो।। धधक रही ज्वाला को प्रिय हौले - हौले शांत करो अमर प्रेम की बूँद छिड़क सागर सा प्रशांत धरो।। नेह आलिंग्न में भर लो ऐसे खिली कली बन हरषाऊँ बोझिल मन की क्यारी में चम्पा सी रंगत पा जाऊँ।। श्वास तेरी वो भीनी-भीनी मन मेरा बहकाती हैं मलयनील सी चंचल चितवन अंग मेरा सहलाती है।। वीणा शर्मा' वशिष्ठ'


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मुलाकात आज, साक्षात ,अंतिम समय, सत्य से मुलाकात हुई, सभी परिग्रह,मिथ्या धारणाएँ, स्वतः ही झकझोर गई। करुणा, संयम,सन्तोष सभी भाव, यह मुलाकात दर्शा गई। अंतिम समय सत्य से, मुलाकात की परिभाषा बतला गई। ओढनी अहंकार की स्वतः ही, श्वेत वस्त्र में दिखला गई। सभी अहंकार,दम्भित भावनाएं, अंत समय गंगामय हो गई। इस मुलाकात से जीवन डगर बदल गई, परन्तु आह! मुलाकात सत्य की , पहले न हो सकी। काश, कुछ मुलाकातें, पहले होती... जीवन रँगीन बनाती, दम्भ,द्वेष,कपट त्याग, सत्य राह अपना कर.. सन्तोष,शांति अभय को, कर्मों की झोली में सजाती। अंतिम समय..…. सत्य की शैया पर पड़े -पड़े, जीवन की समस्त,गुजरी मुलाकातें, पटल पर आ रही थी। प्रेम स्नेह की मुलाकातों को मैंने, दर किनार क्यो कर दिया था???? मात्र लालची,दम्भी बना मैं.... धन को परिजन मान रहा था। हाथ से समय, अब निकल गया था.... रेत सा फिसलता , जीवन ढह गया था। सत्य की अंतिम मुलाकात ने, जीवन 'श्रवण 'बना दिया था। राम,कृष्ण के कर्मों की महत्ता को, अंतिम समय की मुलाकात ने, सत्य क्या है..... समझा दिया था। काश ! हृदय के द्वार को.... न बंद करता.... अपनत्व के झरोखें भी, सदा,खुले ही रखता, प्रेम की पावन पवन, मेरे अंतर्मन को जाग्रत करती.. परन्तु ,स्वयं ही, चाँद-तारों की , ओढ़नी ओढ़ने की, लालसा ने ... आह!!!! मुझे अंत समय.... ग्लानि भाव से भर दिया.... चंद क्षणों के लिए .... सुख की चादर , पाने के लिए, मैंने जीवन के... सार से ही मुहँ मोड़ लिया। वीणा शर्मा वशिष्ठ

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🙏पुलवामा के शहीदों को समर्पित🙏
भावों के मोती
15/2/2019

"शहीद/शहादत"
आज उर आहत है, व्यथित है
रुदन,चीत्कार कर रहा है
चाह यही है अब बाकी
शिव सा तांडव होना चाहिये
लिए चिथड़े हाथों में
अब, शिव सा तांडव होना चाहिए।
प्रेम की भाषा छोड़ कर अब
लिए बंदूक हाथों में
शिव सा तांडव होना चाहिए
रौद्र रूप और भृकुटि नाचे
थर-थर कापें ये आतंकी
ऐसा शिव सा ,तांडव होना चाहिए।
शहीद दिवस कितने मनाएं
कतरा कतरा लहू का अब
बदला लेना चाहिए,
हाँ, शिव सा अब तांडव होना चाहिए।
पाक ओढ़नी ओढ़े जो
बेरंग कफन अब उनका होना चाहिए।
......व्यथित मन से...
वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित




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1/2/2019
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"इंसान"(1)प्रस्तुति
****************
कर्म से तपा हुआ
सत्य में ढला हुआ
कपटता को त्यागता
निश्छल सा भाव ले
प्रेम-सद्भाव से
करता सुकर्म जो
सांचा वो आदमी।😊




कल्पना के घोड़ों को
थाम के विचार को
लक्ष्य को भेदता
सफलता को चूमता
वृहद विस्तार दे
अविरल सी धार दे
सांचा वो आदमी।😊

देवों के देव सा
शिव सा जो प्रेम करें
जीवन निस्सार कर
लोक-कल्याण करें
भेद में अभेदता
खोजे जो विप्रवर
सांचा वो आदमी।😊

निरंतर प्रयास से
टूटे न हार से
हौसले बुलंद गढ़े
निर्भय,उछाह से
कर्तव्यों में लीन जो
दर्प में न चूर हो
सांचा वो आदमी।😊

निस्तेज हो जो शिराएं
वीर की गाथाएँ सुन
जाग्रत उत्थित श्वासें
दौड़े भुजबल में जब
आन-बान-शान से
हिंद के जो काम आए
सांचा वो आदमी।😊

नारी सम्मान में
नज़रों से मान दे
छलावे का आचरण
चरणों मे डाल दे
इज्जत रक्षार्थ जो
हर क्षण तैयार हो
सांचा वो आदमी।।😊

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित,मौलिक रचना
1/2/2019


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18/1/2019
"सरल"
(1)
जाग्रत चित्त
सरल भाव खींचे
प्रेम के चित्र।।😊
(2)
सरल बन
सुमधुर जीवन
कर्म सफल।।
(3)
सरल भाषा
पतझड़ में हरे
प्रेम के पुष्प।।
(4)
शांत स्वभाव
कर्त्तव्य निर्वाहन
सरल राह।।
(5)
सहज जीत
क्रोध पे प्रेम लेप
मन भी हंसी।
(6)
सरल निधि
मुस्कान पूर्ण विधि
विधा परिधि।।
(7)
सरल भाषा
कुबुद्धि छत्र धोती
आत्मिक शांति।।
(8)
शिक्षा का दान
सरल प्रतिमान
विधा सम्मान।।
(9)
प्रेम की गाँठें
उदारता के धागे
खुले सरल।।
(10)
चतुर स्त्री
सरलता से रँगे
प्रेम के धागे।।
(11)
कहे गुलाब
काँटों सँग रहना
कहाँ सरल?




स्वरचित
वीणा शर्मा वशिष्ठ


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11/1/2019
दूसरी प्रस्तुति
"सरगम"
क्षणिका
*******
श्वासों की सरगम
और
नश्वर देह की
अजब जुगलबंदी.....।
ज्यों ,
दीपक और बाती
अविच्छन स्नेह,
तू चल,मैं आया.....।



वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित,मौलिक


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10--1--2019
हिंदी
*************************
मैं हिंदी हूँ,
राष्ट्र का गौरव,अभिमान हूँ।
उच्छल, जलध,तरंग सी....
कल -कल सरिता सी प्रवाहित होती...
अनुपम शब्दों की धार लिए...
मैं हिंदी हूँ।।
मैथिली शरण गुप्त की,
"भारत-भारती"हूँ..
इतिहास को समेटे...
क्षुप्त अवस्था को तरंगित करती...
स्वयं पर अभिमानी हूँ।
आत्म-चेतना को
प्रकाशित करती,दिव्य ज्योति हूँ।
तत्सम,तद्भव की निर्मल गंगोत्री....
वैज्ञानिकता को स्वीकारती....
ओजस्वी भाषा हूँ।
"कालजयी"रूप लिए,
अशोक के भावों को स्वरूप दिए...
भवानी की गौरीशंकर सी...
स्वच्छ, पवित्र,गूढ़,
शब्दावली लिए....
मैं हिंदी हूँ।।
सदा ,नवीनता को खोजती....
अकथनीय क्रांति को,
कथनीयता का रूप देती...
मनोभावों चिंतनपरकता को,
सदा,सफलता से उद्भासित करती....
मैं हिंदी हूँ।
मंदिर में उच्चारित,
शुचि शब्द शृंखला की गूँज बनती...
नमस्कार को हृदयस्पंदित करती,
वाणी से अनुग्रहित ...
मैं हिंदी हूँ।।
अनमोल शब्दशिल्प लिए,शब्दार्थों में..
रहस्य लिए.....
मैं हिंदी हूँ।।
बड़े शब्द, परिवार को...
माला में पिरोती हूँ,
अनेक शब्दों के एक शब्द व मुहावरे से
सजाती हूँ...
ऊपर-नीचे,दाएं -बाएं से शब्दों को...
शब्द युग्म बनाती हूँ...
जी हाँ, मैं अनेकता में एकता की
मशाल ज्वलित करती.....
हिंदी हूँ।।🙏



वीणा शर्मा वशिष्ठ


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7/1/2019
"तरंग"
क्षणिका



दिव्यांग,
मन तरंग से,
उमंगित....अरुणिम......।
ठिठोली करती ,
जिह्वा,
नयन को,
सदा मजबूर करती.....
"हौंसलों को मेरे.....
निहारो......।"

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचि


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28/12/2018
❤️" दिल "❤️
हाइकु
1
गुलाब दिल
तन मन में खिला
श्वास से जुदा।❤️
-/-/-
2
मन के चोर
दिल की सलाखों में
प्रेम की बेड़ी।❤️
-/-/-/
3
दिल घायल
मासूम तेरी हँसी
कातिल छुरी।❤️
-/-/-?-/
4
प्रेम संचार
दिल से जुड़े तार
मन की बात।❤️
-/-/-/
5
इश्क नौलखा
सांसो का हार बना
दिल पे सजा।❤️
-/-/-
6/चाँद की रात
दिल मदहोश सा
प्रीत के साथ।❤️
-/-/-
7
लम्हें संजोय
दिल की एलबम
याद पिरोए।।❤️
-/-/-
8
शोख,चंचल
अदा दीवानगी सी
घायल दिल।❤️
-/-/-
9
दिल चँदा सा
उमंग तारों भरी
झलक रही।❤️
-/-/-
10
दिल को थाम
मदमस्त लहर
बह न जाए❤️
-/-/-
11
प्रेम संचार
दिल से जुड़े तार
मन की बात❤️
#
12
दिल मंदिर
प्रेम भावों की शाला
विश्वास माला।❤️
-//-
13
मोहन बंसी
मन मोहिनी काया
अधरों तले।❤️
-/-/-
14
मन मोहिनी
दाबेली स्वाद लगी
जिह्वा सजी।❤️
-/-/-
❤️वीणा शर्मा वशिष्ठ❤️
❤️स्वरचित,मौलिक


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किवाड़
26/12/2018




मन के किवाड़ पर,
जब तुमने दी दस्तक,
सच मानों प्रिय,
अनुपम तरंगे बज उठी....

दोनों पल्ले,
खुले धीरे-धीरे,
मलयनील सी पवन
मन को बहका गई.....

दिल के रंगीन दरवाजे,
क्यों न अब,बंद कर लूँ.....
आशंकित हूँ,
कहीं बहका कर चले न जाओ...
बदरा बन आए हो अभी,
फिर न सुखें में छोड़ जाओ।

धक-धक धड़कन,
धीरे-धीरे बज रही,
श्वासों में,
धौकनी सी,लहर रही....

किवाड़ों को ,
अब है बंद कर लिया,
चंदन ,सुमेरु सा,
तुमको नज़रबंद कर लिया।

महक गई है ,
दिल की गलियाँ,
घर,आँगन प्रफुल्लित हर बगिया।

सुनो सजन.......
तुम अब , बंदी बन चुके,
सुर,साज,लय बद्ध,
तूम अब सज गए।

किवाड़ों की वो,
खिलखिलाती दस्तक,
जीवन की अनमोल,
धुन बन गई।
तरंगित हो गई,
मन की सोई हर गली....

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित,मौलिक


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19/12/2018
"देशप्रेम"
क्षणिका




देश प्रेम!
याद नही क्या...
मिला था कभी,
फंदो पर झूलकर।
वो फंदे,
आज,
ठहाका लगा रहे है।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
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19/12/2018
"देशप्रेम"
क्षणिका



देशप्रेम के तमगे,
मन से लापता।
मेरा,मेरा,मेरा,
बस...मेरा....
आह!हृदय द्रवित..
देशप्रेम,
नारों में,
स्वाहा....

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित मौलिक


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15/12/2018
क्षणिका

गरीब के गाल
ताकते
मुस्कान,
जीवन की
अट्टालिकाओं में।
काश !
आज,
संजीवनी से,
साक्षात्कार हो।



वीणा शर्मा वशिष्ठ
मौलिक,स्वरचित


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14/12/2018

1 * क्षणिकाएँ
********
रूठना,
तिलमिलाना
क्षण भर का ,
सदियों सा गुजरना।
मात्र...
अधरों का खिलना,
समर्पण की गवाही!
प्रेम !



2*

चाँद
छलिया..
मन ले गया।
आह!
दिन में
वीरान,
मूक,
सूरज सँग
तपन में छोड़ गया।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित


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🌹10/12/2018🌹
🌹पिरामिड"पल"🌹
************



1
ये
पल
चंचल
सुकोमल
मुठ्ठी में बंद
फिसलता रेत
सहारा रेगिस्तान।।©

2
ये
पल
पराग
सुगन्धित
अपराजित
कर्म बना ज्येष्ठ
रचो जीवन श्रेष्ठ।।©

3
ये
पल
उद्धान
सुगन्धित
मन पुष्पित
खिली जग क्यारी
महकी उमंग न्यारी।।©
******************
वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित


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*पिरामिड*
शीर्षक "प्रीत "/"प्रेम"
****************
1
है
धीर
अमूल्य
नेह धार
प्रीत के तार
प्रियतम हार
जीवन का सार।।©



2
वो
प्रेम
उदार
मीठी याद
स्वर्ण किरण
अनमोल पल
नयन भरे जल।।©

3
ये
प्रेम
सरिता
राम सीता
भूमि विच्छेद
विश्चास अभेद
धरा में समाहित।।©

4
ये
प्रेम
झरना
भागीरथी
कथककली
हृदयस्पन्दन
अमूल्य संयोजन।।©
******************
वीणा शर्मा वशिष्ठ


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प्रेम वेदना
6/12/2018



प्रेम की अभिवेदना में
नैन मूँदे ,अश्क बहते
है विकट परिस्थिति में,
क्या यही है प्रेम की अभिव्यंजना?
आह!यही है वेदना।

अनगिनत स्वर्ग थे गढ़े
प्रेम की परिकल्पना में
ढह गए पल पल खड़े,
क्या यही है प्रेम की अभिव्यंजना?
आह!यही है वेदना।

प्रेम की पायल पहन
जग में झनकी जब कहीं
तार टूटे,नैन विगलित,
क्या यही है प्रेम की अभिव्यंजना?
आह!यही है वेदना।

प्रेम मेरा है निरूपित
पतित है नहीं वो कहीं
पुष्प में काँटों को सहना,
क्या यही है प्रेम की अभिव्यंजना?
आह!यही है वेदना।

चर चराचर है जगत में
प्रेम की वर्षा रही
कहीं झोली है भरी
कोई खाली रह गया
क्या यही है प्रेम की अभिव्यंजना?
आह!यही है वेदना।

वीणा शर्मा वशिष्ठ(स्वरचित )




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4/13/2018
सेवा(क्षणिका)

सेवा
कलयुग में माँगे मेवा
सत्यवाद का बोलबाला
जोर पकड़ रहा
स्पष्ट खुले में
मेवा माँग रहा
पुराणों को धिक्कारती
आज की सेवा।



वीणा शर्मा वशिष्ठ




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27/11/2018
असहनीय विदाई
🌹💐🌹💐🌹
विदाई
अपनों से,अपनत्व की विदाई
सँग मधुर क्षणों की विदाई
असहनीय होती विदाई।।
गड़गड़ाहट मेघों की भाँति
विदाई बैचैन करती है
समस्त खोने की भयावहता
सुनामी प्रतीत होती है।।
असहनीय पीड़ा
उद्वेलित करती है
झर-झर झरते अश्कों से
सागर निर्माण करती है।।
जल बिन तड़पती मछली
चाँद बिन चकोरी सी दशा
श्वासों का ठहरना, ऐसी विदाई
मन को 'दशरथ' बना देती है।।
पवित्रता जब मैली समझी जाती है
सात्विक प्रेम में ,कपटता नज़र आती है
हृदय द्रवित होता है
प्रेम की विदाई होती है।।
गजरों में महक जब शेष नही
कर्म निर्वाहन जब सम्पूर्ण हो
शेष अतिरेक पास कुछ न हो
ऐसी विदाई असहनीय होती है।।



वीणा शर्मा 'वशिष्ठ'


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23/11/2018
नसीब/भाग्य
🌹🌹🌹🌹🌹
वीणा के तार
वादक के हाथ
तरंगित सरगम से
भाग्य खिला।।



वीणा मुस्काई
हर पोर खिलखिलाई
खुद के भाग्य पर
इठलाई,हरषाई।।

टूट गया तार
भाग्य लेख माना
तार से वीणा का
तारतम्य था जाना।।

सार जीवन का समझ
स्वयं हाथों
भाग्य बनाया
एक तार नया डलवाया।।

भाग्य,स्व कर्म से बना
तारों से जीवन रचा
सुर लय ताल बना
भाग्य लेख,स्व बल सजा।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ


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19/11/2018
स्मृति

स्मृति विशेष होती है
रोकती, टोकती है हमें
अनुचित क्रिया कलापों पर।
जो कर चुके अनुचित हम
उसकी सलाहकार बन जाती है।
बिन सीखे,सिखाएँ
स्मृति हमें शिक्षा दे जाती है।
भूत में मस्त थे न कोई खबर थी
भविष्य को हमारी ही स्मृति
हमें सँवार जाती है।
साथ-साथ चहलकदमी करती
पटल,हृदय को आगाह करती है।
सूखी रेत के टीले पर न चढ़ना
स्मृति याद दिला देती है।
मन तो सदा बच्चा ही रहता
उम्र ही बड़ी हो जाती है।
स्मृति ही सँगी-साथी है
जो उचित-अनुचित बतलाती है।🙏



वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित




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15/11/2018
संयम

संयम को अपना कर मैंने
बगिया में पौध लगाई थी
प्रेम वार कर कली-कली
मेरे आँगन में मुस्काई थी।।



पल-पल नेह की धारा से
स्नेह-सुधा बरसाया था
उमंग भरी मुस्कानों से
आँगन को महकाया था।।


संयम ,धैर्य,क्षमाशीलता
जब तक मन मे साथ रहे
अपनेपन के गठबंधन पर
मुस्कानों का वास रहे।।


संयम की बाती से मैंने
प्रेम की जोत जलाई थी
थाल सजा जोत की प्रिय
मैंने प्रेम वंदना सुनाई थी।।


डोर बना कर संयम की
चलना साथी साथ सदा
जब -जब छुटे मेरा धीरज
हाथों में लेना हाथ मेरा।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ


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हाइकु
1
गुलाब दिल
तन मन में खिला 
श्वास से जुदा।
-/-/-
2
मन के चोर
दिल की सलाखों में
प्रेम की बेड़ी।
-/-/-/
3
दिल घायल
मासूम तेरी हँसी
कातिल छुरी।
-/-/-?-/
4
प्रेम संचार
दिल से जुड़े तार
मन की बात।
-/-/-/
5
इश्क नौलखा
सांसो का हार बना
दिल पे सजा।
-/-/-
6/चाँद की रात
दिल मदहोश सा
प्रीत के साथ।
-/-/- 
7
लम्हें संजोय
दिल की एलबम
याद पिरोए।।
-/-/-
8
शोख,चंचल
अदा दीवानगी सी
घायल दिल।
-/-/-
9
दिल चँदा सा
उमंग तारों भरी
झलक रही।
-/-/-
10
दिल को थाम
मदमस्त लहर
बह न जाए
-/-/-
11
प्रेम संचार
दिल से जुड़े तार
मन की बात
#
12
दिल मंदिर
प्रेम भावों की शाला
विश्वास माला।
-//-
13
मोहन बंसी
मन मोहिनी काया
अधरों तले।
-/-/-
14
मन मोहिनी
दाबेली स्वाद लगी
जिह्वा सजी।
-/-/-
वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित,मौलिक




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धरती
िरामिड
1
हो
वेद
पुराण
श्रेष्ठ ज्ञान
गीता महान
खेत-खलिहान
धरती में समृद्धि।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित,मौलिक


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लेखन
ेखन शब्दों का संसार,
समाया भावों का उद्गार,
शारदे खूब चले लेखनी
उत्तम रखूं सदा विचार।।

गागर में सागर सी बातें
न दिन देखूं न देखूं राते
कलम मेरी यूँ चलती जाए
निखरे इससे रिश्ते- नाते।

वीणा शर्मा वशिष्ठ




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लेखन
िरामिड
1
है
शब्द
ईकाई
गद्य पद्य
लेखन सार
अद्भुत विचार
भावों,अर्थों का हार।।

2
हो
श्रेष्ठ
सघन
सुलेखन
जाग्रत मन
कलम की धार
शब्द हो तलवार।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित मौलिक


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स्वतंत्र लेखन
िरामिड

1)
मैं 
नारी 
विमान
गतिमान
चाहती मान
कुटुंब विहान
कर्तव्य प्रतिमान।

2)
है
मन
विमान
झूठी शान
नही सम्मान
ये चलायमान
न कर अभिमान।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित मौलिक








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भूख

1
नेता की भूख,
पिशाच भी,
लाचार, बेचारा....
शर्म से हारा।

2
भूख,
आ गई फिर....
शर्म, हया,
क्या बेच खाई.....
सूखे तन पर भी,
दया न आई।

3
भिखारी,
द्वार पर,
भूख से आकुल।
नेता को देख,
स्वागत में...
आगे कर दिया।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित ,मौलिक



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पचपन में भी बचपन रखिये
जवां सदा मन खुद में रखिये

माना तन है थका थका सा
मन मानस को जवां ही रखिये।

बचपन से पचपन है आया
दौरे लुत्फ उठाते रहिये।

खट्मीठी बातों की गठरी 
अंत समय तक साथ है रखिये।

छूट गया सो छूट गया है
हाथ जो आया , थामें रखिये।

बचपन से है कठिन चढ़ाई 
हौसले बुलंद सदा ही रखिये।

वीणा शर्मा वशिष्ठ

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सेवा
कलयुग में माँगे मेवा
सत्यवाद का बोलबाला
जोर पकड़ रहा
स्पष्ट खुले में
मेवा माँग रहा
पुराणों को धिक्कारती
आज की सेवा।
वीणा शर्मा वशिष्ठ

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चली जा रही हूँ
उजाला मैं करने
मुरझाई मुस्कानों में
प्रेम दान करने।
तरसती जो आँखें
प्रिय प्रेम पाने को
न्यौछावर करूँगी
प्रेम दीप सारे।
प्रेम दान देकर
निश्छल है मन
उतारूंगी नजरें
खिली मुस्कानों पर।
अकेले नही तुम
साथ मैं हूँ तेरे
घनघोर नभ सा
प्रेम दान भीतर मेरे।
माना है मैंने
बिन प्रेम जीवन अधूरा
श्वांसों को रोके
ज्यों जीवन का ठेला।

वीणा शर्मा वशिष्ठ



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प्रेम का दीप लो

श्वासों में प्रीत लो
द्वेष,दंभ बातों की
हर कड़ी तोड़ दो।

दीवाली पर्व है
मिलकर मनाएंगे
रूठे हो अपने थे
आज उनको मनाएंगे।

दीपों की माला ले
उमंगे फैलाएंगे
कुत्सित विचारों को
मिलकर जलाएंगे।

हृदय में प्रेम भर
खुशियाँ मनाओ
तेरा मेरा छोड़ कर
प्रेम दीप जलाओ।



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अहंकार की चादर से
स्प्ष्ट नही दिख पाता है
मन है कितना मैला अपना
देख नही खुद पाता है।

अहंकार से भरी ये नैया
हिचकोले खाती रहती है
दम्भ, गर्व से भरी-भरी यह
सागर -विलीन हो जाती है।

आज जन्म तो मृत्यु कल है
अहंकार क्यों पाला है
शान-शौकतऔ झूठी वाह
जीवन का यह हाला है।

अहंकार है जब भी आया
तन-मन क्षीण हुआ है तब
सब कुछ मेरा-मेरा लगता
रिश्ता हुआ पराया सब।

अहंकार का छाता लेकर
कब तक चलते जाओगे
अंत समय मे मानव खुद
मिट्टी में मिल जाओगे।।

वीणा शर्मा 'वशिष्ठ '
स्वरचित


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अतीत के पांव 
आते है चोरी छिपे
यदा-कदा ही सही
कोमल हृदय को
कभी खुशी कभी गम
दे जाते हैं।
अतीत झूलता है
कभी मधुबन के हिंडौले में
कभी हिंडौला
तार-तार नज़र आता है।
हाँ, अतीत के पांव 
ऐसे ही आते है
और हम
अतीत विवश कर देता है
अमृत या विष ग्रहण करने के लिए।
भविष्य की अंधेरी, अनसुलझी 
राहों में
अतीत बन जाता है कभी
चौकीदार
और चेता देता है
राह में आते
आड़े-तिरछे घुमावों को।
अतीत ,निधि है
भविष्य को संवारती निधि।।

वीणा शर्मा 'वशिष्ठ'

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"भाव/भावों के मोती"
1
🎉🎉🎉🎉
भावों के मोती
सर्वोत्तम शिखर
लेख प्रखर।।
🎉🎉🎉🎉
भावों के मोती
सुगंधित बयार
मन का हार।।
3🎉🎉🎉🎉
भावों के मोती
लेखनी अंशुमाली
महाविभूति।।
4🎉🎉🎉🎉
भावों के मोती
शैली में अनुराग
स्याही पराग ।।
**************


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संदेश
1

संदेश जन्म का कर्म रहे
न मृत्यु का कभी भय रहे
सीमित क्षेत्र में रहें असीमित
कर्मों का यहाँ खेल रहे।।

नित नव नीरज खिले कर्म के
उपवन,ताल यहीं सजाना है
सुक्षुप्त अवस्था त्याग सदा ही
जागृति मेला यहीं लगाना है।।

धूप-छाँव सा बना है जीवन
हर मौसम का आना-जाना हैं
सूखे बहते इस जीवन मे भी
अरुण सम तेज सदा फैलाना है।।

उत्सर्ग काम का चलता करना
अमृत संदेश यही फैलाना है
अर्थ,उग्र समभावो को
उर से बाहर करना है।।


वीणा शर्मा

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प्रीत के तार दो
नेह से वार दो
अश्रुधार बह रही
आलिंगन हार दो।।

नयन की पुकार है
गंगा की धार है
निश्छल है बह रही
अमूल्य सा हार है।।

हृदय साकार हो
साथी संसार हो
चंद्र सा खिला-खिला
शीतल बहार हो।।

अनुपम दुलार है
प्रिय उपहार है
बंधन ये जन्मों का
तुझपर निसार है।।

अमूल्य तुम हार हो
इत्र सी बहार हो
हृदय में रम रही
नूतन फुहार हो।।

स्नेह विभूति कार हो
मेरे सृजन कर हो
विपत्तियों को धकेलते
अनादि ,अपार हो।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित
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काश!अभिलाषा मेरी पूर्ण हो जाए
कभी किसी के हिस्से न हताशा आए
हौसलों भरी मुस्कान साथ सभी के हो
टिमटिमाती इच्छाएं नया मुकाम पा जाएं।।
गली,चौबारों,सड़को पर आहें भरती जिंदगानी
काश!की कटोरों की जगह पुस्तकें आ जाएं
धूप में नंगे पैर तपती जिंदगानी इनकी भी
किताबों में सजी धजी कहानी बन जाएं।।
अभिलाषा मेरी,कटुता,दम्भ त्याग दे
खिलखिलाते मन को उपवन सा सँवार दे
नेह,अपनत्व,दया,विश्वास की धार से
इश्क,मोहब्बत का इत्र सभी पर उबार दें।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
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कशिश
वीरवार
**********
मंद-मंद मुस्कान अरु
उज्ज्वल से दो नैन
मातु शारदे तार मुझे
चरणों में तेरे चैन।
भक्ति भाव लिए बैठी हूँ
कर दो अब उद्धार
कशिश तेरी मूरत में है
भटकूँ न दूजे द्वार।
सत्कर्मों की राह पकड़
शरण मे तेरे आ जाऊँ
वीणा के तारों सी मइया
हाथों से तेरे बज जाऊँ।
रूप-सौंदर्य तेरा मइया
अद्भुत अरु निराला है
धरती -अंबर यही मिले
चरणों मे तेरे शाला है।
ज्ञान मंत्र की शक्ति तू
हाथों में वीणा धरती है
यही कशिश तो मइया मुझे
बांधे तुझसे रखती है।
कमलासन पर तू सजी-धजी
पुस्तक में तेरा मॉन है
आकर्षित करती छवि तेरी
वेदों में तेरा ज्ञान है।।

वीणा शर्मा
स्वरचित

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माँ/दुर्गा
*
*******
1
माँ का दुलार
गोदी में भरे स्वप्न
चैन की साँस।
************
2
मन तरंग
माता इंद्रधनुष
भरती रंग।।
***********
3
स्नेहमयी माँ
जीवन दिव्य ज्योति
जगमगाती।।
************
4
माँ की लोरी
मीठी आती निंदिया
स्वप्न से भरी।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ


@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
हे जितेंद्र!
कैसे मैं इंद्रियों को अपनी जीत जाऊँ...
मोह,माया ने ऐसा घेरा है,
इस बंधन से कैसे छूट जाऊँ....
ये जीवन कोरा दलदल है,
जितना निकलना चाहूँ,
ओर समा जाती हूँ।
जो अपना नही है,
क्यो,उसको भी अपना मान लेती हूँ।
हे वर्धमान!
अहिंसा,त्याग,तपस्या ,
अब भी मेरी पूंजी है,
पर,सत्य बतलाना आप....
इन सबसे हो नही रही ठिठोरी है??
जितना त्याग किया मैंने,
उतनी ही ठगी जाती हूँ,
दूसरों के सेवार्थ में लगी,
फिर क्यो अनदेखी की जाती हूँ??

वीणा शर्मा"वशिष्ठ"




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ऋतु कलाएं जीवन महकाएँ
हर ऋतु नव मकसद बतलाए
धूप-छांव सी बन यह आती
नित -नित नव सृजन बतलाती।

जीवन ऋतु समान रूप में
बाधा से लड़ना सिखलाती
जेठ दोपहरी सहन जो कर ले
वसंत ऋतु आगे आ जाती।

मर्म ऋतु का जानो मिलकर
सदा न जीवन रहता मधुकर
सीखो सब इनसे अठखेली
जीवन ऋतु बनी अलबेली।

तपना, खिलना और सँवरना
मंत्र ऋतु का यही समझना
समझ परिवर्तन जो यह जाता
जीवन उत्तम वही बनाता।

भूत,भेद,मंत्र,मधु और मान
ऋतु चक्र में सदा रहता विधमान
जान ज्ञान जो इसका जाता
जीवन ऋतु रूप सदा महकाता।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित

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जिजीविषा प्रबल हर पल हो
निःस्वार्थ भाव,कर्म आतुर हो
विश्वास कहीं न कमतर हो
सेवार्थ,धर्मार्थ सदा तत्तपर हो।

प्रबल वेग उमड़ती आंधी हो
दुःख ताप लिए कितनी भी हो
पराक्रम लिए 'अंगद' सा डटना
मर्त्य देह हेतु स्नेह न रखना।

ता उम्र जिजीविषा से न मुखरना
नश्वर देह में इच्छाएं प्रबल रखना
अपंग,मूर्त-अमूर्त पर दृष्टि डाल
जिजीविषा को 'गंगामय करना।

हिय ऋतु वसंत या पतझड़ हो
जिजीविषा समभाव बरकरार हो
परस्पर सहायतार्थ 'वंशी'रहना
मानव रूप में सदा प्रसन्न रहना।

धनलोलुपता का परित्याग कर
अद्वेत रूप अपनाकर,अपंक बन
उच्चाकांशा तरु,मेघ से सीख 
जिजीविषा का तू अवलोकन कर।

वीणा शर्मा
स्वरचित


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जीवन बहता सागर है,
शांत,उफनता,उथला-पुथला
विपद सुनामी रूप दिखाता
जीवन उथला सागर है।
इस सागर के हम ही नाविक,
पतवार हमी बन जाते हैं।
लहरों के सँग बहना सीखा
फिर लक्ष्य स्वयं पा जाते है।
सागर अंत ,अनन्त है,
जीवन लक्ष्य सीमित।
आडंबरों में बहकर लक्ष्य
हो गए असीमित।
सागर लहरों की ध्वनि,
जीवन विपदाओं की गूंज सुना रही
जीवन की कटुता को विष समान
गरल करने की सलाह दे रही।
जीवन सागर मंथन से
सुधा ,स्नेह भी बरसेगा
कोरी ये बाते नही, पुराण कथाएं बता रही।
सागर कुटिल अधम तो,
सुर,कच्छप रूप समाहित भी
प्रगतिशीलता दर्शाता सागर
अनवरत बहना सिखलाता
जीवन रुकने का नाम नहीं
कर्तव्य पथ है समझाता।।

वीणा शर्मा


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त्योहारअद्भुत तीज-त्योहार भारत भू पर।
स्व योगदान से लंगर लगाए जाते है
'सांझा चूल्हा' साथ लिए वर्तमान में भी
सुमधुर गीत-संगीत सँग
शांत हृदय से लंगर चखे जाते है।
रेहड़ी,फटे हाल,निम्न वर्ग का मानो
त्योहार रोज होता है,जब जब
हर गली-मोहल्ले में
'डोनो' में प्रभु प्रसाद का भोग होता है।
नवरात्रे,होली,दिवाली
निर्जला एकादशी या गुरु पर्व हो
गरीब चेहरे पर ये सदा 
मुस्कान लाते है।
आज जो त्योहार बीत गया,
अगले त्योहार के स्वप्न सजोते है।
मलिन तन बदन हो बेशक
भोजन,वस्त्र की सुविधाएं पा
त्योहारों की स्वर्णिम लड़ियाँ
गरीब चेहरे पर मुस्कुराती है।
ईश्वर,मेरे हाथों में
सदा दान का भाग लिखना
तीज-त्योहार सदा गरीब के बने
ऐसा समर्पण भाव सदा मुझमे जागृत रखना।🙏

वीणा शर्मा


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बच्चों का कोना
😊
😊😊😊😊😊😊😊😊

छुक-छुक करती आती गाड़ी
भरती ख़ूब सवारी गाड़ी
पटरी पर इठलाती गाड़ी
कहते इसको रेल गाड़ी।😊😊
***************************
2
आओ -आओ मिस्टर भालू आओ
अपने बारे में भी तुम बतलाओ
मैं हूँ मोटा ताजा भालू
मेरा काला-काला रंग
मेरा घर बीहड़ जंगल
शहद है मुझको भाता
ठुमक कर नाच दिखाता।😊😊
***************************
3
टन-टन,टन-टन बज गई घण्टी
हुई स्कूल की सारी छुट्टी
भगदड़ मच गई चारों ओर
भागो-भागो घर की ओर।😊😊
****************************
4
चीं-चीं, चीं-चीं, चिड़िया प्यारी
घूम रही थी भूखी प्यासी
दिखे बहुत जब उसको दाने
पेट भरा फिर गाए गाने।😊😊
************************
"बच्चो का कोना "के अंश😊😊😊😊😊😊😊😊😊😊😊😊
वीणा शर्मा


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मुसाफिर खाना कहें या सराय खाना
चंद दिनों के मेहमान,फिर चले जाना।।
क्यों दम्भ,द्वेष,बैर -भाव लेकर बैठे हो
सभी को आज नही तो कल चले जाना।।
मुसाफिर हो यारों ,हँसी ,खुशी टहल लो
कब किसका बुलावा आए,फिर चले जाना।।
ये मुसाफिर खाना ,बेहद अनमोल है
जिसका आज मोल है,कल उसका न कोई रोल है।।
अहंकार किस बात का मुसाफिर तुझे
चलती रेलगाड़ी,कभी तो रूक जानी है।।

वीणा शर्मा


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व्यथित जीवन हर कहीं
क्यो न सभी,
व्यथा में भी मुस्कान,खुशियाँ ढूंढ लें
मुरझाए फूलों में भी,
उसकी अहमियत देख लें।
चलो सँग मेरे,
हर कदम,हर पहलू पर
व्यथा को कहीं झाड़ आएं।
गहन अंधकार में भी
चाँद सा कर्म करना सीख लें
खुद गहन व्यथा में रह कर भी
सभी को चाँदनी दे दें।
चाँदनी सभी को देकर
प्रसन्नता से खिले चेहरों में
स्वयं की मुस्कान देख लें
व्यथित जीवन की चादर हटा
चाँदनी को ओढ़ लें।


वीणा शर्मा
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🌹भावों के मोती🌹
30/7/2018
शिव

शिव तुम,नाद तुम
इस धरा का आधार  तुम।

जग तारण तुम पालन हार
कल्याण करो ए भोले नाथ।

सुख-दुख सब तेरे हाथ
मैं प्रेम की नैया,तुम पतवार।

तुम ही कर्ता, तुम ही धर्ता
मन मानस के तुम दुख हर्ता।

लेकर तेरा एक ही नाम
अमरनाथ जाते सब धाम।

द्वेष,दम्भ को त्याग के मानव
बोलो सब भोले का नाम।

बम बम भोले,जब कोई बोले
कष्ट हरे ये,मेरे भोले।

पिता न शिव के जैसा कोई
अनमोल द्वि रत्न है होए।

शिव गौरी की कथा निराली
दुनिया सुनती कथा ये सारी।

शरण मे तेरे,शिव जो भी आया
झोली भर भर खुशियाँ लाया।


वीणा शर्मा
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🌹भावों के मोती🌹
28/7/2018
स्वतंत्र लेखन

छल-प्रपंच,मोह-माया
ये जीवन के अंत
अखिल ब्रह्मांड में व्याप्त जब
स्वयं सिद्ध ,जीवन गर्क।।

नेत्र पट है भींच लिए
कर्म गति गई मारी
हृदय हूंक डोल रही
सत्य पथ,गई हारी।।

दम्भ-द्वेष भावना छली
जागृत हिय,सुक्षुप्त
सुकर्म गति तीव्र कर
अनिश्चित जीवन अंत।।

जड़-चेतन के मूल का
निश्चित होता अंत
भजो हरि ॐ नाम सब
सर्वम यही सुखद।🙏

वीणा शर्मा

स्वरचित


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मैं, कर्ताधर्ता
पर्वत समान 
अनगिनत दायित्वों को समेटे
अडिग,हर बाधाको निबटने के लिए
निशचिंत खड़ा।
जीवन को झकझोरती विपत्तियाँ
आंधी ,तूफानों से निबटना
तलहटी में सजाई,
बगिया की रक्षार्थ,सेवार्थ में सदा ततपर
स्वयं का दायित्व निर्वाह करता
मैं,हृदय में समाए पर्वताकार पिता हूँ।
नन्ही पौध को वृक्ष बनाता
कभी शुष्क न होने देता
स्वयं दायित्वों को,वज्र सा हाथ मे थामे
कठोरता से सदा उसका पालन करता।
दायित्वों की परिभाषा पहले न जानी थी
कण कण फैला हुआ मैं धरा पर था,
दायित्वों के निर्वाह ने,
कण कण में फैला हुआ मुझे,
दायित्वों के रूप में,पर्वत बना दिया।
लक्ष्य से मैं,डिगा नही,
सोच कर की ये 
तुच्छता होगी।
अंततः विकट परिस्थितियों में भी
कांटो की चुभन,आंधी तूफानों में रहकर
स्व दायित्वों में सफलता पा ली।
दायित्वों की सीढ़ी पार करता हुआ,
आज मैं,कठोर पिता,हृदय में,
कोमल गुलाब छुपाएं बैठा हूँ।
स्वयं के दायित्वों का निर्वाह करता हुआ,
स्वयं पर ही फख्र करता हूँ।
दायित्वों की पूंजी को समेटने का भरसक प्रयास करता हूँ।

वीणा शर्मा

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1
सत्य की ज्योति
गुरु जीवन पुंज
तम से मुक्ति।

2
अथ से इति
सर्वत्र अनुराग
गुरु पराग।

3
गुरुत्व आँच
शिष्य कर्म तपाता
सोना निखरा।

वीणा शर्मा






पिता ही सर्वोच्च
तभी परमपिता कहलाए
हर पल दे हौसला
पल पल है आगे बढ़ाए।
जीवन है नैया
पतवार स्वयं बन जाए
डगमगाए हो कश्ती कभी
स्वयं ही पार लगाए।
अंतस हो गहन पीड़ा
नही किसी को वो दिखलाए
सदा मुस्कान चेहरे पर लिए
संध्या समय वो घर आए।
मेरे परमपिता
तुम ही मेरा अभिमान हो
दुनिया मे न तेरे जैसा
हौसलों का कोई जहां हो।
हाथ जोड़ नतमस्तक रही
सदा तेरे ही चरणों मे
इस जन्म तो क्या,
न सातों जन्म मांगू,
मैं तो मांगू,
लाखों जन्म तेरा साथ।
सदा रखना 
शीश पर मेरे अपना हाथ।
निःशब्द हूँ, मैं मौन हूँ
नही शब्दकोष है मेरे पास
मेरे जन्मदाता पिता
तू ही मेरा मान अभिमान।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏
वीणा वशिष्ठ शर्मा

@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
प्रेम की सौगात

प्रेम की सौगात लेकर आ गए है हम सभी
भूली बिसरी यादों को,,गुनगुनाएं हम सभी।
टूटे दिल को जोड़ कर ,मुस्कुराएं हम सभी
प्रेम की सौगात ले कर आ गए है हम सभी।।
एक कदम जो तू बढ़ाए, दूजा हम तेरा साथ दें
मिल के हम चल पड़े ,गुल खिलाएं हर कहीं
साथ तेरे हम है देखों,नजरें घुमाओ हर कहीं
प्रेम की सौगात लेकर आ गए है हम सभी।।
याद तुम करना सदा,उपवन खिलेंगे हर कही
टूटी कलियाँ देख कैसे,झुक रही है हर कहीं
डाल उसमे नेह की वर्षा,पुष्प खिला दे हर कही
प्रेम की सौगात लेकर, आ गए है हम सभी।

वीणा शर्मा

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संध्या
*******
संध्या के आगोश में
कौमुद तनिक झलक रहे।
मंद हवा संग पर्ण भी
बहके-बहके लहर रहे।
खग-विहग राह अपने नीड़
व्योम दिवा भी बहक रहे।
पल-पल बढ़ती शाम चली
दर्प यूं तमसा निगल रहे।
संध्या मन अति धुति मान
नीरद भी घनघोर रहे।
मन पुलकित तन मुदित से
भ्रमर कुसुम तन डोल रहे।
सुर अमर अनुपम संध्या
संध्या आरती सुरलोक लगे।

वीणा शर्मा,पंचकूला

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सफ

सफर,जन्म से मृत्यु तक
अनवरत सतत क्रियाशील।
आत्मचिंतन,मनन हेतु प्राप्त
दिग्विजय सफर।
कभी चाँद-तारों सी अठखेलियाँ
कभी सूरज की तपती किरणों का सफर।
अनजान,सुनसान राहों को
बखूबी पारदर्शिता से पार करता ये सफर।
जड़ को चेतन में तब्दील करता
सुरभित,मन की आकाशगंगा को
पार लगाता ये सफर।
शून्य से प्रारम्भ
विराटता को समेटता व्योम रूपी सफर।जारी

वीणा शर्मा
स्वरचित


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वीणा का सुर और मोहन की ताल
अब तो आजा साजना ओ मेरे दिलदार।
पलकें हया से , झुकी मेरी यार
काहें तू देर करे,आजा ओ मेरे दिलदार।
हृदय की धड़कन ,सुर लय, ताल
समझे न तेरे बिन, ओ मेरे दिलदार।
सागर है बहता, पलकों के द्वार
संभाल मेरी नैया ,तू ही दिलदार।
पलकों में बंद है, सारे ही ख्वाब
मोती बहते है क्यो ओ मेरे दिलदार।।

वीणा शर्मा

सेना
र गई है धरती अब
जयचंदों जैसे भेदी से
पीठ पर खंजर मार रहे है
सेना को किस बेदर्दी से।

विश्वास तोड़ते लोगो सुन लो
अब अदब रही न तुममें है
अपने घर को तोड़ने वालों
क्या अपनापन तेरे मन मे है।

मन मटमैला तेरा अब ये
भांप लिया अब हमने है
हिम्मत हो तो आओ सामने
वारों से हम न डरते है।

भारत की सेना है हम भी
स्व प्राणों से मोह न रखते है
घर के जयचंदों को बाहर हम
स्व भुजबल से ही करते है।

आन बान शान की खातिर
भूमि के लिए हम मरते है
एक बार नही,सौ सौ बार जन्म
भारत भू पर न्यौछावर करते है।

जिस थाली खाते हो और 
छेद उसी में करते हो
शर्म करो तुम कुछ तो लोगो
भेद अपने दूजे को देते हो।

औकात तेरी दो कौड़ी की
भेड़ खाल में गीदड़ बैठे हो
छुप छुप कर वार क्यो करते हो
भारत सेना से इतना डरते हो?

दम हो तो तुम आओ सामने
जोश हमारे भी देखो
निडर रहे हम पहले-अब है
फौलादी ताकत अब तुम देखो।

तनिक सा लालच इसका अब
इसे माटी में मिलवाएगा
घर का भेदी नही कभी फिर
लौट के घर को आएगा।

मीठी मीठी बातों से तुम
गोली बरसाया करते हो
चुल्लू भर पानी नही कही 
डूब कर तुम न मरते हो।

क्या सेना गोली से ही तुम
नरक सिधारे जाओगे
अनगिनत गज भूमि पर तुम
यहीं दो गज में ढेर हो जाओगे।।

वीणा शर्मा
स्वरचित


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मन की कूची लिए
हरीतिमा भावों से
प्रकृति तस्वीर रँगती हूँ।
इस अनमोल धरा को मैं
पल-पल,प्रतिपल
हर कोने से रँगती हूँ।
उच्च शिखर हो
या हो नभ -तल
या कोयल की कूक रहे
समस्त धरा के अनुभवों को
रंगने की क्षमता मैं रखती हूँ।
कल्पनाओं से सजी-धजी
भारत भूमि की क्षमता को भी
विश्व विख्यात में करती हूँ
तस्वीर मनोहर रंग कर मैं
विश्व के आगे रखती हूँ।
मन की कूची लिए 
हरीतिमा भावों से
मंद मुस्कानों में,मैं
गुलाबी भावों को खिलाने का
प्रयत्न सदा ही करती हूँ।
भाव भूमि के कागज़ पर
तस्वीर नई सी रँगती हूँ।

वीणा शर्मा


@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
स्वतंत्र लेखन
िधा--छंदमुक्त
**************
मैं,
दशावतार,
अखण्डता को,
एकता में तब्दील करता,
आताताईयों के सर्वनाश का कारण हूँ।
जब जब धरती रोइ थी,
मानवता चित्कारी थी,
असत्य की आँधी आई थी,
निर्दोष लहू की नदियाँ कल कल बहती थी,
तब तब मैं,विष्णु,
दशावतार रूप में,
सुखद पलों को,सुख- शांति,सत्य को,
वापिस लाया हूँ।
हाँ, मैं विष्णु दशावतार हूँ, 
भिन्न नामों से पुकारा जाता हूँ,
पर,कर्म सदा,एक रूप ही करता हूँ।
मैं,मानव रूप में भी
अमानवीय कर्मों से दूर रहता हूँ।
मानव, पशुओं के,
विभिन्न रूपों में भी,
जीवन साकार करता हूँ।
हृदय में सागर सी शांत लहरें,
तो,चिंघाड़ भी रखता हूँ।
धनुष,तीर,फरसा,चक्र,तलवार,
सभी से मोह भी रखता हूँ।
पावन पुष्पित धरा को,
मैला करती,विभत्स कृत्यों को,
खत्म भी करता हूँ।
शांति की खातिर,
बारम्बार जन्म ले,
मैं,पृथ्वी को भय मुक्क्त भी करता हूँ।

वीणा शर्मा


@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@

महकपलाश सी ख़ूब रंगत हो तुम
गुलाबी महकती महक हो तुम
प्राण-प्रिय यूँ ही नही कहलाते हो
हृदय तरंगित तरंग हो तुम।।

मन मनुहार स्पंदित करते हो
चाँद-तारों सा सहेजा करते हो
खिली कली मैं उपवन की थी
प्रेम वर्षा बौछारें तुम करते हो।।

महक तेरे आते ही होती सजन
कली खुशी में फूल बनती सजन
तुमने स्नेह इतना बरसा दिया है
प्रेम गगरी तेरे लिए छलकती सजन।

वीणा शर्मा


@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@

वचन अनमोल होते है
नफा,नुकसान से कोसो दूर होते है
स्वयं को तपा कर भी
वचनों को निभाना
वचनों की महत्ता का प्रमाण देते है।
वचन ने ही चौदह वर्षों का बनवास दिया
खुशी-खुशी श्री राम ने स्वीकार किया
अनगिनत पीड़ाओं को सहकर भी
वचन को निभा
स्वयं का जीवन न्योछावर किया।
वचन ने,
रिश्तों को बनाएं रखा
स्वयं टूट कर भी
माँ का मान रखा।
वचन,धैर्यशीलता, शांति,
समर्पण माँगता है,
अद्भुत,प्रेम भावना,शक्ति
अपनत्व का मिलन माँगता है।
एक वचन से,
ग्रन्थ,महाकाव्य रच जाते है
युगों-युगों तक 
वचनों की महिमा का मंडन किया जाता है
निःसन्देह,ऐसे वचनों से
अतुलनीय,अनुपम इतिहास रच जाते है।🙏



@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
वीणा शर्मा

प्रिय,
पाषाण काल से जीवन की
नही रही उमंग,कोरा हो गया मन
राह ताकती ढल गई
यौवन भरी, देह सुकोमल।
अस्थि पंजर बन गई
संध्या में ,मैं ढल गई
सूरज तपन सह कर भी मैं
विरह व्याकुल चंद्र किरणों से जल गई।।
वसंत भी देखो आ गया
क्षुब्ध हृदय भड़का गया
सुप्त इंद्रियों को सजन मेरे
काहें वो सहला गया।।
मौसम भले वसंत का
उष्णता हृदय धधक रही
अति उष्णता प्रकोप से,सजन
हिय अनुराग पिघल रहा
स्नेह अनुराग पिघल रहा।

वीणा शर्मा
स्वरचित


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हिय ,तन मेरा डोल रहा,
कर सोलह श्रृंगार
कब आएगी मधुरिमा,लेकर मधुर बहार
जब कोयल की कूक सुनी,
हिय ,मयूर सा डोल गया
हर गली-गली और उपवन में
श्रृंगार हरीतिमा हो गया।
खग-विहग भी डोल रहे
बरखा भी थी इतरा रही
हौले-हौले ,रिमझिम-रिमझिम
धरा पर पांव पसार रही।
देख हरिमय हरीतिमा,देव भी हर्षा रहे
तन -मन पुलकित हो रहा
बैकुंठ वापिस न जा रहे।


वीणा शर्मा
स्वरचित मौलिक 9/7/2018



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7-7-2018
1 ईश्वर
ईश्वरीय रचना,अद्भुत रचना
खग-विहग,जल ,जंगल
सौंदर्य संपदा अद्भुत रचना।
मैनाक कुंदन मणियों जड़ित
निशा समय मादकता
सम्पूर्ण अनुपम अद्भुत रचना।
देवदूत सी धरा, कनक रूप कामिनी
पल-पल निहारती हरियाली
मनोहारी अद्वेत रचना।
मातृ-पितृ छाया अनमोल
सौभाग्य मुदित,अनमोल रचना।
वंशीधर वंदना धरा
करताल सी तरंगिणी
ईश्वरीय अद्वेत रचना।
अलौकिक चंद्र किरणें
धरा कर रही पान
धुति रूप धारिणी 
प्रभामयी रचना।
महाशंख,महर्षि प्रस्फुटित ज्ञान-वाणी
मनभावनी पवित्र रचना।
भव्य भूमण्डल,तारामंडल
प्रसून रूपी जगतारिणी
अद्भुत ,अमिय रचना।
कृषक हलधर स्वर्णिम भूमि
धान उपजे,लहलहाती धरा
अनुपम अद्भुत रचना।।

*वीणा शर्मा
पंचकूला
स्वरचित मौलिक रचना
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मैं कवि हूँ
स्वयं की भावनाओं ,उमंगों को निखारती
शब्दों से तराशती
अजंता सी बारीकियाँ लिए
कलम से हूँ संवारती।।
मैं कवि हूँ
शब्दों में ओज को भर
मरणासन्न देह में
श्वासों को संभालती
नव जीवन का अहसास कराती।
मैं कवि हूँ
शब्दों में पायल की रुनझुन पिरोती
मानसिक सुक्षुप्त लोगों में 
अलख जगा कर
अंधेरे दिलों में उजाला हूँ करती।
मैं कवि हूँ
दूर बैठे पिया को
स्नेह भावों में रमा कर
कलम से पास होने का
अहसास दिलाती।
मैं कवि हूँ,
समस्त जगत को
भिन्न सुर,लय, ताल में बांध
गीत मंडली बनाने का कार्य कराती।

वीणा शर्मा
स्वरचित



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वीरान शांत से उपवन में
पीहू नृत्य जब देखा था
सूना सूना खाली पन
उत्सव में परिवर्तित देखा था।।
मन मयूर मेरा डोल गया
मन पंछी बावरा हो गया
त्याग दिया क्षण भर में मैंने
बैर-भाव को त्याग दिया।।
इन्द्रधनुष स्वप्न सजोंकर
मन प्रफुल्लित हो गया
उम्मीदों के नव पंख फैलाए
नव उदय धरा पर हो गया।



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मैं कलम हूँ
शांत चित्त कार्यरत
दो उंगली जगह समेटे
संसार रचती हूँ।
अधखुले ख्वाबों को
सम्पूर्ण करने में
मन -मस्तिष्क में दबी
कश्ती तलाशती हूँ।
गहन अंदरूनी
भावों विचारों की कश्ती दौड़ा
अकेले ही अथाह सागर में
निडरता की पतवार लिए
दूर तक चली जाती हूँ।
मैं कलम,
बवंडरों को झेलती
कभी हृदय की धमनी सिकोड़ती
धीमें धीमें श्वासों को लेती
शब्दों को संवारती हूँ।
स्वयं धुंधलेपन को नकारती
स्पष्टता का आगाज़ करती हूँ।
गहन अंधकार में
चपला चमक से कभी न डरती
चमक को ढाल बना
मनसूबों पर अपने 
सुनहरी किरणें लगा
लेखनी को धारदार करती हूँ।
मैं निडर,स्वाभिमानी कलम
पर्वतों की चोटियों को लांघती
कँटीले, भयावह रास्तों से गुजरती
अंततः समाज के सुखद अहसास का सामीप्य पा
स्वयं की चेष्टाओ पर गर्व करती हूँ।
मैं कलम हूँ,
दायित्वों को समर्पित
दो उँगली जगह में राज करती हूँ।

वीणा शर्मा
4-7-2018
गुरुर
गुरुर न कीजिए कभी ,पल भर की ये शान है
चाँद की चांदनी भी ,सदा न उसके साथ है
बादलों की बारात ने,ढक लिया जो चाँद को
चाँदनी भी खामोश है,ये कैसा गुरुर है।।

हुस्न पर ये गुरुर क्यो,छलका सा ये जाम है
बूंद-बूंद जो छलक गई,इसकी क्या बिसात है
हुस्न न रहा एक सा सदा,गाँठ बांध लो सभी
इस हुस्न में जो बह गया,फिर अंधेरी रात है।।

गुरुर कीजिए सदा, धरती पर इस जन्म का
गुरुर कीजिए सदा,मात-पिता वरद हस्त का
पल पल समय बदलरहा,संभल जाओ अब सभी
गुरुर कीजिए सदा, सफलमय मानव जन्म का।।

वीणा शर्मा



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अटल खड़े हिमालय से
विद्रोहियों को ललकारें
देशभक्ति है अपनी सेवा
तन-मन इस पर वारें।।

निडर खड़े हिमालय सा
सीना है हमने पाया
ललकारें जो कभी हमें
सिंह रूप दिखलाया।।

देश की खातिर जीना मरना
हमने ये सब जाना
रहें सारथी कृष्ण जहाँ
फिर कैसे डर जाना।।

युगों युगों रक्षार्थ रहे हम
मातृभूमि सेवार्थ
तन-मन अब क्या चीज रही
रूहें इस पर वार।।

वीर शिवाजीऔर राणा 
रूप था जो दिखलाया
धमनी में वह दौड़ रहा
फिर देशभक्त कहलाया।।

तपती गर्मी जैसे लावा 
नही कभी घबराया
देशभक्ति की ज्योति लिए
सदा आगे मैं आया।।

वीणा शर्मा
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भावों के मोती
2-7-2018
आईना/दर्पण


चुलबुली हंसी
चेहरे नशीं
गमों पर है पर्दे
दर्पण में दिखते।।

लाख छुपाना
गम का फ़साना
आईने से सीखों
हकीकत दिखाना।।

पारदर्शी सा तन
निश्छल हो मन
दर्पण सा बन
सँवारों जन्म।।

वीणा शर्मा
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सुख-दुख
ाप-पुण्य की कर्म भूमि में
सुख-दुख ही दो पहिये है
संभल कर चलना ए मानव तू
जीवन पथ पर गहन अंधेरे है।।

नेत्र लक्ष्य पर साधे रखना
भाग्य विधाता स्वयं का बनना
सुख-दुख तो आना और जाना
इससे न तुम कभी घबराना।।

सुख-दुख तो ये धूप -छांव सी
कभी मावस तो कभी पुनों सी
गहन अंधेरे में भी देखों
टिम टिम तारों की अठखेली।।

सुख-दुख में तुम मेल बैठा कर
धूप छांव के फूल खिला कर
हार न मानो कभी दुख से
चेहरों पर मुस्कान खिला कर।

वीणा शर्मा
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जन्मभूमि

आओ एकता के गीत गुनगुनाएं


जन्मभूमि की शान हम बढ़ाएं


जात-पात से ऊपर उठकर


नव संगीत धरा पर लाएं।।

ताज ही मेरा हिमालय भूषण


कन्याकुमारी चरण आभूषण


मध्य में सांची मन रमता है
ब्रह्माण्ड जन्मभूमि पे सजता है।।

जन्मभूमि कर्तव्य दिखलाती


सहृदयता की सीख सिखाती


सप्तऋषि नभ मंडल में है


माँ गंगा यहाँ गीत सुनाती।।

सदा रहो तुम निश्छल मन के


प्रेम रूप अपना लो सबके


जन्मभूमि है कर्म प्रधान


सदा करो सबका सम्मान।।

वीणा शर्मा




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कुमकुम शीर्षक पर विवाह समय पिता -पुत्री संवाद।::

पिता: 
तू मेरी सुकुमारी कन्या
पतिव्रता धर्म निभाना है
सौभाग्य अब ये कुमकुम है
इसी में घुल मिल जाना है।।

नही,लाल ,सिंदूरी रंग है ये
जीवन अनमोल रत्न है ये
मान-सम्मान का सूचक है
कर्म पथ सदा दिखलाता ये।।

कुमकुम सा लावण्य सदा देना
सीता सा स्नेह दिखला देना
कुमकुम की लाज सदा रखना
नयनतारा प्रिय की बन जाना।।

पुत्री::
मान सदा रखूँगी पिता का
आंच नही आने दूँगी
वचन सुने जो मैंने अभी
जन्मों तक उन्हें निभा दूँगी।।

है कुमकुम भाग्य विधाता ही
उसको सम्मान सदा दूँगी
मैं ,कन्या पिता तेरी ही हूँ
गठबंधन सदा निभा दूँगी।।

देह मेरी जो छूट भी जाए
कुमकुम पे आंच न आने दूँ
सदा सावित्री सी ढाल बनूँ
वो कुमकुम माथे पर लग जाए।

वीणा शर्मा
स्वरचित
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(2)



20-6-2018
ुमकुम

कुमकुम सौंदर्य नारी का
भाग्य विधाता है नारी का
नारी स्वयं पर इठलाती है
जब साथ मिलता साथी का।।
कुमकुम नारी जीवन की बहार है
खिलता इसी से जीवन साज है
बिन इसके है जीवन सूना सा
सुमधुम संगीत की ये बहार है।।
ओढ़ ले लाल चुनर कितनी
बिन इसके न मांग है सजती
यही दाम्पत्य की सुगढ़ता
बिन इसके न नारी रमती।।

वीणा शर्मा
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10/8/2018
धैर्य/संतोष
1

***
मैं लुहार
धैर्य धारण धर
अग्नि की तपन से तपता
संतोष की फुहार
मन मे समा
लोह रूपी मन से
लोह रूपी तन पर प्रहार कर
नव नित सृजन करता हूँ।
धैर्य,संतोष की ओढनी ओढ़
सुई को बारीकी से तपाता
और
बारीक तन में
नन्हा सा छिद्र कर
धैर्य की परीक्षा दे कर
उसके रूप को 
स्वर्णिम बनाता हूँ।
फटे,चीथड़े
आह!!भरते वस्त्र,मन को
धैर्य की मजबूती से सिल
पुराने वस्त्र,मन को 
नव रूप देता हूँ।
मैं लुहार,
धैर्य की अनगिनत परिक्षाएँ देता
किले,बुर्ज,महलों का निर्माण करता
सदा सफलता का नव अध्याय लिखता हूँ,
धैर्य,संतोष की
जोश भरी नई कहानियाँ गढ़ता हूँ।

वीणा शर्मा
स्वरचित




तिरंगे की लाज बचाने
खड़े भारत के लाल है
नही झुका न झुकने देंगे
इसमें भरा अभिमान है।
देख तिरंगा मन हर्षाया
ऐसा मेरा स्वाभिमान है।
मन न्योछावर,तन न्योछावर
तुझपे मेरी जान है।
तू अभिमान,तू स्वाभिमान
तुंग विराजे तू वो शान है।
शहीदों के तन वे सजे
गौरवगाथा की तू पहचान है।
माँ भारती है बलिहारी
भारत की तू शान है।
गर्वित खड़ा हिमालय पे तू
अद्भुत तेरी पहचान है।

वीणा शर्मा




जश्न ए आजादी को मिलकर मनाइए
ापाक निगाहों को सदा धूल चटाइये
करिए सभी एकता की पुरजोर कोशिश
भारत भू पर सदा मस्तक नवाइये।।
स्वतंत्रता मिली थी अनगिनत बलिदानों से
बलिदानों को याद कर चंद अश्क झलकाइये
एकता सूत्र ही भारतीयता का ताज है
इस सूत्र बंधन को सदा मजबूत बनाइये।।
लाख पुरजोर कोशिश कर ले कोई
आपसी स्नेह में न मतभेद घुलाइये
शांति का अग्रदूत भारत है सदा
भारत भू पर सदा अमन के पुष्प खिलाइए।

🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳वीणा शर्मा




अपेक्षा,स्वयं अंतर्मन के कमजोर भाव,
दर्शाती हमारी शिथिल पीड़ा को,
अपंग बनाती स्व मनोबल को।
पथ पर बिखरे काँटों से
पुष्प की अपेक्षाएं बेकार,
राह देख,कांटे चुन
असहनीय पीड़ा चुनते काँटों की
सहन कर
स्व भुजबल पर विश्वास कर
राह नई बुन
आत्ममंथन कर।
अपेक्षाएं अंनत सागर समान
न स्वयं की नाव,न ही पतवार
निश्चित ही लहरों में बहना
नही कहीं बचाव।
हौसले बुलंद कर
अपेक्षाएं स्वयं से कर
लड़खड़ाते कदमों से ही सही
स्व जीवन चरितार्थ कर।

वीणा शर्मा।




हिम आच्छादित उन्मुक्त उच्च पर्वत
निडर खड़े,प्रकृति उपहार लिए
उन्मुक्त पंछी और उन्मुक्त पवन

प्रकृति का उन्मुक्त यौवन दिखा रहे।।
धरा के सौंदर्य को चकनाचूर हम सब कर रहे
उन्मुक्तता के नाम पर,उच्श्रृंखल हम हो रहे
संस्कारों की तोड़ लड़िया,वहशी हम सब हो गए
उन्मुक्तता के नाम पर,यौवन से हम खेल रहे।।
उन्मुक्त रहो सुविचारों से
दुर्भावना तुम त्याग दो
स्वछंद विचारों के नाम पर न
उपहास के पात्र बनो।।

वीणा शर्मा



वचन अनमोल होते है
नफा,नुकसान से कोसो दूर होते है
स्वयं को तपा कर भी
वचनों को निभाना
वचनों की महत्ता का प्रमाण देते है।
वचन ने ही चौदह वर्षों का बनवास दिया
खुशी-खुशी श्री राम ने स्वीकार किया
अनगिनत पीड़ाओं को सहकर भी
वचन को निभा
स्वयं का जीवन न्योछावर किया।
वचन ने,
रिश्तों को बनाएं रखा
स्वयं टूट कर भी
माँ का मान रखा।
वचन,धैर्यशीलता, शांति,
समर्पण माँगता है,
अद्भुत,प्रेम भावना,शक्ति
अपनत्व का मिलन माँगता है।
एक वचन से,
ग्रन्थ,महाकाव्य रच जाते है
युगों-युगों तक 
वचनों की महिमा का मंडन किया जाता है
निःसन्देह,ऐसे वचनों से
अतुलनीय,अनुपम इतिहास रच जाते है।🙏

वीणा शर्मा



सुखद विचारों से भरा संसार हो
श्रेष्ठ से सर्वश्रेष्ठता का विचार हो
किंकर्तव्यविमूढ़ न हो बैठो कभी
कल्पनाओं को साकार करता व्यवहार हो।

कल्पनाओं बिना जीवन अधूरा है
इनसे ही सजता ,सँवरता जीवन है
हाथ पर हाथ रख क्या सोचना
कल्पना साकार हेतु कर्म जरूरी है।।

कल्पना हो गर विश्व गुरु बनने की
उर में ठानों एकता बंधन की
नही ऐसा की अकेले न कुछ कर पाओगे
परन्तु सबका साथ सबका विकास भी जरूरी।।

कल्पना हो सकारात्मक तो
जन मानस गंगामय हो जाए
सज्जनता पग पग ओर दिखे
मन कुटिल दफन भी हो जाए।

सुखद शांतमय जग हो ये जब
कल्पनाएं संस्कृतिपूर्ण रहें
हर आँगन यशोदा मैया हो
हर द्वार पर श्री गणेश रहे।।

सूखे-रूठे से चहरों पर
मुस्कान दुदुम्भी बजा देना
कल्पना सुखद दिखा कर सब
हिय उत्साहित कर देना।

जारी.....

वीणा शर्मा
स्वरचित




दरिया दिल
सम्मानित है कोख
शहीद की माँ।

गृह मंदिर
विश्वास की माला
प्रेम की घंटी

संस्कारी नारी
सदन महारानी
हाथों में चाबी।


प्रेम संचार
दिल से जुड़े तार
मन की बात।




 मन बसंत
पुलकित है अंग
घृणा का अंत।


नारी
स्वतंत्र लेखन

नारी तुम अभ्युदय आधार हो
जीवन का अदभुत चमत्कार हो
राग ,अनुराग का कोष बनी
निर्विवाद करुणामय सार हो।।

घर-आँगन गठबंधन मंजरी हो
संस्कारों से भरी लाजवंती हो
कठिन राहों को पार करती सदा
दुर्गा,अहिल्या,कल्पना,रानी हो।।

तुम ही तीज ,त्योहार हो
सशक्तिकरण भरा हार हो
नारी बिना तुम मानों न मानों
धरती बनती जैसे श्मशान हो।।

तुम स्वाभिमान हो,अभिमान हो
नेह,गगरी से भरा महायान हो
बंदिशें,नकाबों को हटाती हुई
धरा की महामाया अवतार हो।।

पुरातन काल से आदिशक्ति हो
भविष्य संवारती मातृत्व भक्ति हो
निःस्वार्थ भाव से कार्यरत रहती
भावों,विचारों की अभिव्यक्ति हो।।

नारी को कम क्यों आंकते हो
स्वयं अंतर्मन में नही झांकते हो
नारी भी बनी आधारशिला है
क्यों नही रक्षार्थ खड़े हो जाते हो।।

तुम जल,थल,नभ की शक्ति हो
अस्त्र-शस्त्र में भी रखती भक्ति हो
नर सँग कदम मिलाती नारी तुम
समस्त धरा की अनुपम कृति हो।।

वीणा शर्मा
स्वरचित


सफ

सफर,जन्म से मृत्यु तक
अनवरत सतत क्रियाशील।
आत्मचिंतन,मनन हेतु प्राप्त
दिग्विजय सफर।
कभी चाँद-तारों सी अठखेलियाँ
कभी सूरज की तपती किरणों का सफर।
अनजान,सुनसान राहों को
बखूबी पारदर्शिता से पार करता ये सफर।
जड़ को चेतन में तब्दील करता
सुरभित,मन की आकाशगंगा को
पार लगाता ये सफर।
शून्य से प्रारम्भ
विराटता को समेटता व्योम रूपी सफर।जारी

वीणा शर्मा
स्वरचित


ऋतु कलाएं जीवन महकाएँ
हर ऋतु नव मकसद बतलाए
धूप-छांव सी बन यह आती
नित -नित नव सृजन बतलाती।

जीवन ऋतु समान रूप में
बाधा से लड़ना सिखलाती
जेठ दोपहरी सहन जो कर ले
वसंत ऋतु आगे आ जाती।

मर्म ऋतु का जानो मिलकर
सदा न जीवन रहता मधुकर
सीखो सब इनसे अठखेली
जीवन ऋतु बनी अलबेली।

तपना, खिलना और सँवरना
मंत्र ऋतु का यही समझना
समझ परिवर्तन जो यह जाता
जीवन उत्तम वही बनाता।

भूत,भेद,मंत्र,मधु और मान
ऋतु चक्र में सदा रहता विधमान
जान ज्ञान जो इसका जाता
जीवन ऋतु रूप सदा महकाता।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित


हे जितेंद्र!
कैसे मैं इंद्रियों को अपनी जीत जाऊँ...
मोह,माया ने ऐसा घेरा है,
इस बंधन से कैसे छूट जाऊँ....
ये जीवन कोरा दलदल है,
जितना निकलना चाहूँ,
ओर समा जाती हूँ।
जो अपना नही है,
क्यो,उसको भी अपना मान लेती हूँ।
हे वर्धमान!
अहिंसा,त्याग,तपस्या ,
अब भी मेरी पूंजी है,
पर,सत्य बतलाना आप....
इन सबसे हो नही रही ठिठोरी है??
जितना त्याग किया मैंने,
उतनी ही ठगी जाती हूँ,
दूसरों के सेवार्थ में लगी,
फिर क्यो अनदेखी की जाती हूँ??

वीणा शर्मा"वशिष्ठ"


माँ/दुर्गा
*
*******
1
माँ का दुलार
गोदी में भरे स्वप्न
चैन की साँस।
************
2
मन तरंग
माता इंद्रधनुष
भरती रंग।।
***********
3
स्नेहमयी माँ
जीवन दिव्य ज्योति
जगमगाती।।
************
4
माँ की लोरी
मीठी आती निंदिया
स्वप्न से भरी।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ


मंद-मंद मुस्कान अरु
उज्ज्वल से दो नैन
मातु शारदे तार मुझे
चरणों में तेरे चैन।
भक्ति भाव लिए बैठी हूँ
कर दो अब उद्धार
कशिश तेरी मूरत में है
भटकूँ न दूजे द्वार।
सत्कर्मों की राह पकड़
शरण मे तेरे आ जाऊँ
वीणा के तारों सी मइया
हाथों से तेरे बज जाऊँ।
रूप-सौंदर्य तेरा मइया
अद्भुत अरु निराला है
धरती -अंबर यही मिले
चरणों मे तेरे शाला है।
ज्ञान मंत्र की शक्ति तू
हाथों में वीणा धरती है
यही कशिश तो मइया मुझे
बांधे तुझसे रखती है।
कमलासन पर तू सजी-धजी
पुस्तक में तेरा मॉन है
आकर्षित करती छवि तेरी
वेदों में तेरा ज्ञान है।।

वीणा शर्मा
स्वरचित


काश!अभिलाषा मेरी पूर्ण हो जाए
कभी किसी के हिस्से न हताशा आए
हौसलों भरी मुस्कान साथ सभी के हो
टिमटिमाती इच्छाएं नया मुकाम पा जाएं।।
गली,चौबारों,सड़को पर आहें भरती जिंदगानी
काश!की कटोरों की जगह पुस्तकें आ जाएं
धूप में नंगे पैर तपती जिंदगानी इनकी भी
किताबों में सजी धजी कहानी बन जाएं।।
अभिलाषा मेरी,कटुता,दम्भ त्याग दे
खिलखिलाते मन को उपवन सा सँवार दे
नेह,अपनत्व,दया,विश्वास की धार से
इश्क,मोहब्बत का इत्र सभी पर उबार दें।

वीणा शर्मा वशिष्ठ


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