Tuesday, November 26

"स्वतंत्र लेखन "24नवम्बर 2019

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ब्लॉग संख्या :-575
दिनांक-24/11/2019
स्वतंत्र सृजन........


थकी दुपहरी में पीपल पर,
कोयल बोलती शून्य स्वरों में,
फूल आख़िरी ये बसंत के,
गिरे ग्रीष्म के उष्म करो मे।

मध्य निशा का यह अभागा,
तेरे प्रेम का है यह त्यागा।।
रात्रि की अंतिम प्रहर तक जागा,
सखा रे !निर्दयी सावन मुझे त्याजा ।।
तेरे प्रेम के प्याले से
अखंड विश्वास के उजाले से
गुप्त हृदय पीड़ा के ज्वाले से
अश्रु नीर बहे फिर भी नयन निराले से

सजी-संवरी तू संध्या सुंदरी सी परी ।
बादलों की गोद में यौवन के उन्माद से भरी।।
कैसे निष्ठुर नयन तुम्हारे कहते
पर इससे जो आंसू बहते
मेरे मृदुल हृदय कैसे सहते

तमन्नाओं के जंगलों में मैं भटकता,
मिन्नतें करता गगन के फुहारों से।
लौटकर चली आओ तुम जन्नतो में,
नफासत गर्दिशों के सितारे से।।

सत्य प्रकाश सिंह
प्रयागराज

विषय : स्वतंत्र लेखन
विधा: गीत

दिनांक 24/11/2019

शीर्षक : स्काउट कैम्प है मेरा

जहाँ प्रकृति की सुंदर गोदी में,स्काउट करता है बसेरा
वो स्काउट कैम्प है मेरा
जहाँ सत्य सेवा और निष्ठा का, हर पल लगता है फेरा
वो स्काउट कैम्प है मेरा

यह धरती जहाँं रोज फहरता, नीला झण्डा हमारा
जहाँ जंगल में मंगल करता है, स्काउट वीर हमारा- २
जहाँ शिविर संचालक सबसे पहले डाले तम्बू डेरा
वो स्काउट कैम्प है मेरा ----

बालचरों की इस नगरी के काम भी नित अलबेले
कभी लेआउट की झटपट है, कभी हाइक के रेले -२
मौज मस्ती का रात में लगता, शिविर ज्वाला घेरा
वो स्काउट कैम्प है मेरा ----------

जहाँ मान सभा में बातें करते, पेट्रोल लीडर सारे
सभी शिविर में नीली ड्रेस पर,गले में स्कार्फ डारे- २
तीन अंगुली से सेल्यूट करता,पॉवेल 'रिखब' तेरा
वो स्काउट कैम्प है मेरा -------

जहाँ प्रकृति की सुंदर गोदी में,स्काउट करता है बसेरा
वो स्काउट कैम्प है मेरा
जहाँ सत्य सेवा और निष्ठा का, हर पल लगता है फेरा
वो स्काउट कैम्प है मेरा

रचयिता
रिखब चन्द राँका 'कल्पेश'@
स्काउट मास्टर
स्वरचित एवं सर्वाधिकार सुरक्षित



विषय स्वतन्त्र लेखन
विधा काव्य

24 नवम्बर 2019,रविवार

राजनीति का खेल निराला
पता नहीं कब क्या हो जाये।
लोकतंत्र चुपचाप देखता
अंकगणित कब बिखर जाये।

जनमत की परवाह है किसको
स्व स्वार्थ सब कुछ बिक जाये।
शकुनि मामा अब भी जीवित
चाल अनौखी चलती ही जाएँ।

कुर्सी खातिर क्या नहीं होता
गीदड़ के संग शेर खेलते।
जनता की परवाह किसको है
अनवरत मावा मिस्री पेलते।

ये भरतों का देश प्रिय भारत
सिंहासन पर नजर टिकी है।
जो नवभारत विकास करता
उसकी धोती विपक्ष खुली है।

जय हिंद हो जय जय भारत
अब भी यह स्वर्णिम चिड़िया।
शस्यश्यामला वसुधा न्यारी
सब देशों में है सबसे बडिया।

स्वरचित मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

कविताओं का व्यापारी हूँ
नाता हूँ और बेंचता हूँ ।।
कभी इसकी तो कभी उसकी
रोज-रोज टाँग खेंचता हूँ ।।

खुद को भी नही मैं छोड़ूँ
कविता को रातों सर फोड़ूँ ।।
कविता से प्यार जो है मुझे
ये प्यार न तोड़ा है न तोड़ूँ ।।

बड़ी ही विकट कहाए जोब
हरदम ही रहे इसमें खौप ।।
कब कौन कहाँ मुकर जाए
हो जाय मित्रता से अलोप ।।

खतरों के हम हैं खिलाड़ी
कोई कहे हम हैं अनाड़ी ।।
पत्नि भी समझे कभी हमें
कभी हम उसे है बीमारी ।।

सौ दिक्कतें इस व्यापार में
नैया रहे सदा मझधार में ।।
बस इक ईश्वर से जोड़े 'शिवम'
ये युक्ति मिली इससे प्यार है ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 24/11/2019
स्वतंत्र विषय लेखन
रविवार

24,11,2019,
चोका, माता

प्रणाम माता
कलश की स्थापना
बोये जवारे
जगदम्बे भवानी
चौक पुराये
नारियल मिठाई
फूलों के हार
चुनरी गोटेदार
बेटी आपकी
आतुर बेकरार
श्रद्धा सुमन
मन में अनुराग
करती भेंट
आशीष मिल जाये
मनोकामना
सिंदूर भरी माँग
माथे बिंदिया
पिय का अनुराग
चिरंजीवी सुहाग ।

स्वरचित, मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश,

24/11/19
स्वतंत्र लेखन


आधार छंद - विधाता (मापनी युक्त मात्रिक)
मापनी - 1222. 1222. 1222. 1222
समांत - ' आया ' , पदांत - ' है ' .
महाराष्ट्र के घटनाक्रम पर
**
निलामी हो रही उनकी,उन्हें बस में बिठाया है,
लगी है हाजिरी उनकी ,उन्हें कैदी बनाया है ।

तमाशा वो दिखाते हैं कपट का खेल जारी है ,
खिलाड़ी वो पुराने हैं,समझ कोई न पाया है ।

कहानी ये पुरानी है ,लिखी हर बार जाती है,
चुनावों का सबब देखो,नतीजा खुद सुनाया है ।

न जाने कल कहाँ होगी ,किसी को ज्ञात कैसे हो,
सियासी चाल में देखो ,सभी को अब फँसाया है ।

मुकद्दर में लिखा क्या है,सभी कल जान जाओगे,
कि दिल ये थाम के बैठो ,कचहरी कल बुलाया है।

किया बदनाम तुमने जो ,छिछोरी हरकतें करके
दिखाना चाहते क्या हो,सभी को आजमाया है!

स्वरचित
अनिता सुधीर

यूँ गमगीन फसाना क्या अच्छा लगता है।
फूलों का मुरझाना क्या अच्छा लगता है।।

कुछ और कहो चलो झूठ सही मानेंगे।
हर दिन एक बहाना क्या अच्छा लगता है।।

इश्क और पागलपन है दोनों इक जैसे।
मुश्किल में आ जाना क्या अच्छा लगता है।।

ढलती सांझ से पूछे मेहनत-कश आंखें।
खाली हाथ घरजाना क्या अच्छा लगता है।।

थोड़ा सब्र जो करते हम तो अच्छा होता।
मंजिल से मुड जाना क्या अच्छा लगता है।।

शर्म हमें अब आती है उनसे मिलने में।
चूका हुआ निशाना क्या अच्छा लगता है।।

रब जाने कब तुमको सूझेगा कुछ अच्छा।
खिचड़ी रोज पकाना क्या अच्छा लगता है।।

लाख तुम्हारे मुर्शिद होंगे इस दुनिया में।
अपनों को तरसाना क्या अच्छा लगता है।।

उम्र हुई छोड़ो अब हो जाएं संजीदा ।
काम कोई बचकाना क्या अच्छा लगता है।।

बच्चों की ही खातिर मां बाप मिटे आखिर।
जीते जी मर जाना क्या अच्छा लगता है।।

बेखुद खुदगर्जी में फिक्र कहांँ औरौं की।
इतना बेहोश जमाना क्या अच्छा लगता है।।

सेहत चीज बड़ी है शौक से पहले सुनिए।
भरी जवानी खंसियाना क्या अच्छा लगता है।।

इन सख्त कायदों के हम भी हैं हामी, पर।
मुफलिस पर जुर्माना क्या अच्छा लगता है।।

बात बड़ी जो बोले मुह खोले बिन तोले।
अपना या बेगाना क्या अच्छा लगता है।।

तंग बहुत मै आया है कितना समझाया।
आगे बीन बजाना क्या अच्छा लगता है।।

फर्ज दिए अंजाम सभी तो डर है कैसा।
फिर नाहक घबराना क्या अच्छा लगता है।।

माफ मुझे करना माताओं और बहनों।
मंदिर में बतियाना क्या अच्छा लगता है।।

कुछ जिम्मेदारी है मेरी और तुम्हारी।
हर मौके हंगामा क्या अच्छा लगता है।।

विपिन सोहल. स्वरचित

24/11/2019
विधा स्वतंत्र (सेदोका)

विषय:कठपुतली

कठपुतली
पारम्परिक नृत्य
उंगलियों की कला
खोता अस्तित्व
कलाकार सम्मान
जरूरी अभियान ।

नारी को मंत्र
रखो अपना ख्याल
शिक्षा अपनी ढाल
सजग शस्त्र
नही कठपुतली
समाज संबोधन ।

घर का मान
कठपुतली रूप
श्रंगारिक संपदा
नही स्वीकार
ज्ञानोदय से करू
रौशन ये संसार ।

स्वरचित
नीलम श्रीवास्तव

दिनांकः-24-11-2019
वारः-रविवार

विधा छन्द मुक्त
मनपसंद विषय लेखन
शीर्षकः- लौट आओ वापस अब सनम

गये हो जब से हमसे रूठ कर तुम सनम।
न होसला न ही बचा जीने का हममें दम।।

बहती हुई आँखे, निरन्तर ही रहती हैं नम।
सात वर्षो से सनम, सिर्फ रो ही रहें हैं हम।।

बरसों गुज़र गये रूठे हुए,मान जाओ सनम।
अपने हमसफर पर करो तुम अब तो करम।।

जन्म-जन्म के साथी पर अपने खा लो रहम।
अगले जन्म का इन्तज़ार नहीं कराओ सनम।।

लौट आओ वापस पास मेरे करो नहीं देर तुम।
घर को अपने आकर, फिर बसालो तुम सनम।।

सुनायें कितनी तुमको हम, अपनी दास्ताने गम।
जानती हो हमको, बड़ी अच्छी तरह से ही तुम।।

बिन तुम्हारे बताओ तुम्हीं, किस तरह जियें हम।
बिन जल के मछली, जी सकती है कहीं सनम।।

डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
“व्यथित हृदय मुरादाबादी”
स्वरचित
Damyanti Damyanti 
संसार एक नाट्यशाला |
मालिक एक औंकार |

अनेक कठपुतलीया बनाई |
सब की डोर उसके हाथ |
नचाता मन मर्जी से |
सिखाता जीवन सघर्ष से |
कैसे निकलना बाहर |
जीवन मृत्यु अपने हाथ |
रखता लाभ हानि यश अपयश भी |
बन आत्मा दिखाये डगर |
चलो उसी डगर बताई उसने |
सफलजीवन उस कठपुतली का |
न माने उसके चलाये तो |
देख रहे गिरते दल दल |
वह हे नट नागर व राधिका |
स्वरचित_ दमयंती मिश्रा

विषय-स्वतंत्र लेखन
विधा -गज़ल

दिनांकः 24/11/2019
रविवार

लोग जीना मुहाल करते हैं ।
बे तुके से सवाल करते हैं ।।

करते हैं प्यार जो इबादत सा।
इश्क वो बेमिसाल करते हैं ।।

तोड़ कर आईने सा दिल मेरा।
देखो कैसे मलाल करते हैं ।।

बाॅटते हैं खुलुस खुद लुटकर ।
लोग ये क्या कमाल करते हैं ।।

चयन के लिए
स्वरचित
डॉ एन एल शर्मा जयपुर' निर्भय,

भावों के मोती
विषय- स्वतंत्र लेखन

__________________
दर्द चीख कर मौन हो गया,
हृदय हो गया बेचारा।
दर-बदर की ठोकर खाता,
फिरता है मारा-मारा।

निशब्द है भंवरों की गुँजन,
दर्द तड़पें मन के अंदर।
मुरझाए पौधे पे फूल,
चुभते हैं हृदय में शूल।

जाने अब कभी चमकेगा,
मेरी भाग्य का सितारा।
दर्द चीख कर मौन हो गया,
हृदय हो गया बेचारा।

फागुन के रंग हैं फीके,
बाग में कोयल न कूके।
अमुवा की डाल पे झूले ,
बिन तेरे अब हैं रीते।

आँखों से सूखे अब आँसू,
हृदय तड़पता आवारा।
दर्द चीख कर मौन हो गया,
हृदय हो गया बेचारा।

पुरवाई अब हौले-हौले,
यादों के देती झोंके।
बैठ कब से खोल झरोखे,
शायद चंदा कुछ बोले।

पीपल पात शोर कर रहे,
जैसे कोई बंजारा।
दर्द चीख कर मौन हो गया,
हृदय हो गया बेचारा।।
***अनुराधा चौहान*** स्वरचित
दिनांक 24-11 -2019
विषय- स्वतंत्र लेखन
जिंदगी हकीकत,आज रूबरू करा रहे हैं।
आँखों के अंधों को, आईना दिखा रहे हैं ।।

हकीकत को बिसरा,अनजान बन रहे हैं ।
अतीत गलती दोहरा,भविष्य बिगाड़ रहे हैं।।

अनीति से पैसा,रात दिन वो कमा रहे हैं।
कोई नहीं देख रहा,गलत कार्य कर रहे हैं।।

माँ-बाप के पूछने पर, पागल बना रहे हैं।
झूठी शानो शौकत,बच्चों संग डूब रहे हैं।।

करनी देख,प्रभु मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं।
तेरे कर्मों की सजा,इसी जन्म में दे रहे हैं।।

लग रही पग पग ठोकर,संभल नहीं रहे हैं।
बच्चों की गलती पर,झूठ पर्दा डाल रहे हैं।।

उनके हर गुनाह पर,सिफारिश लगवा रहे हैं ।
आज का प्यार,कल मौत राह लेजा रहे हैं।।

वक्त रहते नहीं संभले,फिर पछता रहे हैं।
आई जब विपदा, अपने कर्मों पर रो रहे हैं।

जन्नत थी जिंदगी सबकी,जहन्नुम बना रहे हैं।
थोड़ा सुकून, बुजुर्ग आशीष से पा रहे हैं।।

बुजुर्ग स्नेहाशीष को,अब समझ वो रहे हैं।
उनकी छत्रछाया में,अब जिंदगी जी रहे हैं ।।

मात पिता प्रभु समझ,घर मंदिर बना रहे हैं।
सुबह भूले शाम,ऐसे लौट कर आ रहे हैं।।

वीणा वैष्णव
कांकरोली

श्रीवास सर के दोहे:-
विषय......नशा
जनम मिला मानव धरा, दिया ईश उपहार।
नशा करो तन दुर सखा,कर जीवन उजियार।
●●●
देह निरोगी राखिए , कर नित प्राणा याम।
तुलसी रस पावन सुधा, करे पान सुब शाम।
●●●
नशा नाश की जड़ कहे, रहो नशा से मुक्त।
करो जतन काया सदा, भोज करो उपयुक्त।
●●●
मद्य पान नर त्याग ले, कर सतसंग सुजान।
तन घर सुख उपजन लगे,कर नित प्रभु गुणगान।
●●●
स्वलिखित
कन्हैया लाल श्रीवास
भाटापारा छ.ग.
जि.बलौदाबाजार.भाटापारा

1 )आलस में रहती घिरी,अब तो मैं दिन रैन।
पर जब मैं लिखती नहीं,मन रहता बेचैन।
2) हरदम जकड़ा है मुझे,आलस ने आ घेर।

सोचूँ क्या मेरा यहाँ,सब माया का फेर।
3)कहते आलस को बड़ा,दुश्मन अपना जान।
कितना प्यारा ये लगे,मीठा इसका पान।
4)आलस से मिलता नहीं,जीवन का हर स्वाद।
पर कुछ भी भाता कहाँ,मुझको इसके बाद।
5)मैं तो पक्का आलसी,ढीला मेरा नाम।
सब कुछ ऐसे ही मिले,फिर कौन करे काम।
श्रद्धान्जलि शुक्ला"अंजलि"
24/11/19
स्वतंत्र विधा लेखन

विधा -गीत
मौन दर्द

मौन दर्द भी चीख रहा था
बेबस दिल था बेचारा
निष्ठुर प्रहार से ऐसा टूटा
फिर जुड़ ना पाया दोबारा ।

झंझावात में उलझा था मन
सब्र का दामन छूट गया
जो देखा था ख्वाब दिल ने
आंख में आकर बिखर गया ।
मौन दर्द भी चीख रहा था
बेबस दिल था बेचारा ।

ग़म की शाम कभी ना देखी
अब अमावस्या सी छाई है
उम्मीदों के दीप मद्धिम है
कहो!अब कैसी दीवाली है ।
मौन दर्द भी चीख रहा था
बेबस दिल था बेचारा ।

कैसा समय आया जीवन में
सब तिनके सा बिखर गया
एक-एक,जोड़ा था जो मन से
आंधी में क्यों उजड़ गया।
मौन दर्द भी चीख रहा था
बेबस दिल था बेचारा ।

मन पपीहा मूक हो गया
आसियाना बिखर गया
जज़्बातों से सिंचा जिसको
वो गुलिस्तां उजड़ गया।
मौन दर्द भी चीख रहा था
बेबस दिल था बेचारा ।

स्वरचित

कुसुम कोठारी।

24/11/19
स्वतंत लेखन


सभी को हो गया
फेसबुक से प्यार
मुफ्त में मिलता
सारा समाचार
लाइक कंमेंट्स
औऱ पोस्ट करते
बार बार
अकेले का मजा
अनोखा है यार
अकेले में हँसता
अकेले में रोता
नही चाहिए
साथी दो चार
सिमटी दुनिया
सिमट गया प्यार
फेसबुक पर हो गई
रिस्तो की भरमार
फेसबुक बन गई
एक किताब
जरूरत नही
कॉपी औऱ दवात
उंगली फिराओ
मिलता है प्यार
अपनो से हुए दूर
गेरो का साथ
चल पड़ी दुनिया
पकड़ फेसबुक का हाथ

स्वरचित
मीना तिवारी
स्वतंत्र लेखन

"शेर सा दहाड़ता हिन्द चाहिए"

हर जगह फरेब है, इन्साफ चाहिए।
कलयुग में भी हमें,राम राज्य चाहिए।।

जो मांगते हैं पैसा , हर एक काम का।
उनको भी आज देश में, इन्साफ चाहिए।।

लूटा है जिसने हमको, दशकों से आज तक।
उसी को बार -बार , क्यों साम्राज्य चाहिए।।

नेता के भेष में, कुछ छुपे हैं भेड़िये।
इन भेड़ियों को बस ,रक्त पात चाहिए।।

पढा है जो किताबों में,वो देश है कहाँ?
वो शेर सा दहाड़ता , पूरा हिन्द चाहिए।।

जो हाथ रहे खाली, तो उद्दंड करेंगे।
मिले रोजगार ऐसा , तंत्र चाहिए।।

कब तक लड़ेंगे हम ,यों कौमो के नाम पर।
बिस्मिल सा देशभक्त, और कलाम चाहिए।।

तुलसी के इस देश में ,रहीम भी रहें।
ऐसा ही भरा पूरा ,मुझे हिन्द चाहिए।।

शेखर की देशभक्ति हो,राणा सा देश प्रेम।
कृष्ण भक्ति में डूबा हुआ, रसखान चाहिए।।

न हिन्दू चाहिए न मुसलमान चाहिए।
हर घर में भगत सिंह, और पटेल चाहिए।।

सुनलो पुकार वत्स की, मिल जुल के रहो सब।
वो शेर की सी शक्ल वाला, हिन्द चाहिए।।
(अशोक राय वत्स)© स्वरचित
रैनी, मऊ उत्तरप्रदेश
विषय मुक्त लेखन
तिथि _24/11/2019/रविवार

विषय_ *विश्वास *
विधा॒॒॒ _ काव्य

विश्वास उठ गया जमाने से।
नहीं मतलब हमें खजाने से।
चारों तरफ ही दिखें घाती
बेकार है सिर खपाने से।

कुछ नेता समझ से परे हैं।
कुछ आतंकी पाल रखे हैं।
कुछ देशद्रोही बातें करते
कुछ इनके द्योतक बने हैं।

कुछ मानवाधिकार ढूंढते।
कोई कहीं पोषक देखते।
जो बरवादी चाहें मुल्क की
उनकी दिल में खुशबू सूंघते।

उत्पात यही करते रहेंगे।
यूं कब तक पनपते रहेंगे।
जानकर तुम सबको बताओ
वरना खटकते ही रहेंगे।

स्वरचितःः
इंजी शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना मध्य प्रदेश

दिनांक २४/११/२०१९
स्वतंत्र-लेखन


बहु की शांति हो गई भंग
सास की आँखो में चश्मा नही
मुझे चश्मा बहुत पहले से चढ़ी
सास के बाल सफेद नही,
मैं सास से ज्यादा बुढ़ी
ये तो है चिंता की बात,
सोच सोच बहु हुई परेशान।
सास के समक्ष रखी अपनी बात,
सास ने दी बिंदास जवाब-
"तू खाती मिलावटी खाद्य पदार्थ,
हमने लिया शुद्ध आहार।
बड़े बंगले में तुम हो गई कैद,
हमने जिया प्रकृति के संग।
गर हम नही चेतेगे तो
हमारी आने वाली पीढ़ी
बचपन में बुढ़ी हो जायेगी
संतान से प्यार करने का
करते हैं हम दावा
फिर भी नही निभाते हम
अपनी वादा।
शुद्ध आहार, शुद्ध प्राण वायु
मिले हमारी पीढ़ी को,
इसके लिए करने होंगे अथक प्रयास।
"कल"से नही आज से ही सोचना होगा।
रखना होगा प्रकृति का ध्यान
तभी स्वस्थ व खुशहाल रह पायेगी
हमारी संतान।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।

विषय _स्वांत सुखाय
विधा॒॒॒ _अतुकांत

मै प्यार से सूखा
प्रशंसा का भूखा और
पैसे का प्यासा इंसान हूँ।
मुझे प्रशंसा से भूख नहीं लगती
इससे मेरी
जठराग्नि शांत होती है
मगर धनदौलत मिलने पर
कुछ और ही विशेष पाने की
लालसा बड जाती है
बल्कि बडती ही जाती है।
मुझे मात्र तिकड़ी प्यारी है
पैसा प्रशंसा और प्रेम ।
एक बार स्नेह न मिले तो भी चलेगा
मगर प्रशंसा के बिना
ये चित्त रथ का पहिया
अवश्य रुकेगा।
विचारों की तंन्द्रा भग्न होगी
कहीं भी मन नहीं लगेगा
वेचारा अनमना रहेगा ।
मै तो केवल
इसी के लिए जी रहा हूँ
भले ही अंदर कंगाल हो रहा हूँ
लेकिन मात्र पैसा और प्रशंसा में ही
मगन हो रहा हूँ
और यहां अपना
संम्पूर्ण जीवन
निरर्थक खो रहा हूं
क्योंकि सिर्फ भौतिकता में
घुस गया हूं रम गया हूँ ।
सबकुछ इसी को मान रहा हूँ ।

स्वरचितःः
इंजी शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना मध्य प्रदेश

दिनांक:-२४-११-२०१९
वार- रविवार

मनपसंद विषय

बौनी उड़ान
पद, प्रतिष्ठा पाकर आसमान में उड़ते हैं
अपने नीचे वालों को फिर कुछ ना समझते हैं
चंद दिनों में ही पैसे पर अपना रंग बदलते हैं
पुराने भाई,बहनों,रिश्तेदारों को
दुश्मन वह फिर समझते हैं
संपत्ति,ऐश्वर्य पाकर वह अपने आप में अकड़ते हैं
सच है यह की धन-संपत्ति पल भर में बिखरते हैं
दुख,सुख में परिवार साथ निभाते हैं पर कौन समझाएं
इन्हें अकड़ में अपनी सब कुछ खो देते हैं
समय नहीं मिलता उन्हें अपनों के लिए
फिर संग सबका छूट जाता है धीरे-धीरे
अकेले ही वह इंसान रह जाता है सच है
यह..दिन है तो, कभी रात भी आएगी
वक्त का तकाजा है जनाब हर पल
एक सा नहीं होता है,उड़ रहे थे जाकर
आसमान में ऊंचाई पर अकेले एक तेज
झोंका हवा का आया नीचे उड़ गए बिखर गए
फिर सूखे पत्तों की तरह,अकेले रह गयें
खुद को संभाल न पाए पैसे वाले हो कर
भी बौने ही रह जाते हैं हां कुछ लोग
सफलता के पायदान पर चढ़कर भी
नीचे गिर जाते हैं हां फिर से कुछ लोग
दिन है, रात है,सुबह है,तो रात भी होगी
खुशी है तो गम भी होगी इस संदेश को भी
क्यों नहीं समझ पाते हैं अक्सर लोग
पैसे वाले हो कर भी बौने ही रह जाते हैं
ऊंची उड़ान सोच कर बौनी उड़ान में रह जाते हैं
सब कुछ खोकर वह एक दिन अकेले पड़ जाते हैं

मौलिक
स्वरचित-निक्की शर्मा रश्मि
मुम्बई

Hema Joshi 💕🙏🏻

शीर्षक -गमों की नुमाइश

गमो 
के बाजार मे
अपने गमो की, नुमाइश
यूं लगा दी
💕🌹💕
कि ,कोई तो खरीदार होगा
लेकिन खरीदार, तो नही मिला
दिल को एक सुकून मिला
💕🌹💕
कुछ बिका नही तो, क्या
अपने दामन से थोड़ी सी
खुशी उसे दे आये
💕🌹💕
और उसका गम अपने
साथ ले आये
उसके चेहरे की मुस्कान ने
💕🌹💕
हर्षित किया मेरा मन
अब गमो की नुमाइश करना
यही हो गया खत्म
💕🌹💕
गमो से लबालब डूबे हुए
मित्रो का गम हम साझा करेंगे
उनके चेहरे पर आये मुस्कान
यही वादा करेंगे
🌹🙏🏻स्वरचित -हेमा जोशी


स्वतंत्र लेखन विधा लघुकथा

सही निर्णय

रामलाल पैंसठ साल की उम्र को पार करते हुए चिड़चिड़े होते जा रहे थे , और हो भी क्यों न ? सेवानिवृत्ति के दो साल भी उनके ऊपर दो लडकियों की शादी की जिम्मेदारी थी । परिवार में रामलाल अकेले ईमानदारी से कमाने वाले थे परन्तु सीमित आय के चलते भी वह विचारों से खुली मानसिकता वाले हैं । लडकियों की पढाई लिखाई के मामले में उन्होंने कभी समझौता नही किया ।

बड़ी लडकी मंजूषा को इन्जीनियर बनाया था और छोटी सुविधा प्रशासनिक अधिकारी बन गयी थी , लेकिन शादी के मामले में हर जगह दान दहेज पर बता अटक जाती थी ।

रामलाल की पत्नी शांति शुरू से ही कहती रही :

" लड़कियों को ज्यादा मत पढाओ लिखाओ , दो पैसे जमा करो , शादी ब्याह के काम आऐंगे ।"

तब रामलाल कहते :

" लड़कियां हैं तो क्या उन पर हम अपनी इच्छाएं लादेंगे, अपनी राह उन्हें चुनने दो । हाँ पढाई लिखाई के मामले में मैं कोई समझौता नहीं करूँगा "

शायद लडकियों की चिन्ता ने ही रामलाल को इन हालतों तक पहुंचा दिया था ।

इतवार का दिन था , हरीकिसन और उनका लड़का धीरेन्द्र, मंजूषा को देखने आने वाले थे ।

धीरेन्द्र भी इन्जीनियर था । लड़का - लडकी पसंद आने के बाद हरीकिसन ने कहा :

" भाईसाहब लड़के की पढाई पर काफी खर्च हुआ

है, हम चाहते हैं कि दस लाख नगद दें और बाकी शादी भी अच्छी करें "

अभी तक चुप रहने वाले रामलाल ने कहा :

" किसनलाल जी मैंने भी अपनी लड़की की पढ़ाई पर पैसा खर्च कर इन्जीनियर बनाया है । अब आप जो दस लाख मांग रहे हैं वह मेरे किए हुए खर्च से हिसाब किताब बराबर हो गया अब रही शादी की बात तो हर बाप अपनी बेटी के लिए वह सब करना चाहता है जितनी उसकी हैसियत होती है ।"

किसनलाल को रामलाल से ऐसे जबाव की उम्मीद नहीं थी । इसलिए पहले तो उन्होंने अपने तेवर

आड़े -तेड़े किए अब मंजूषा ने भी कहा :

" अंकल जी आपको अपने बेटे के खर्च तो दिख रहे है लेकिन हमारे माता पिता भी उतना ही और कई बार तो उससे भी ज्यादा पढाई लिखाई पर खर्च करके हमें योग्य बनाते हैं । अगर आप शादी में हिसाब किताब करेंगे तो मैं भी अपने पापा की तरफ से हाथ जोड़ती हूँ ।"

रामलाल और मंजूषा की बात से किसनलाल और धीरेन्द्र आसमान से धरातल पर आ गये । इतना अच्छा रिश्ता हाथ से जाते देख , किसनलाल ने कहा :

" भाईसाहब आप सही कह रहे है , बेटे - बेटियों का पालन-पोषण बराबर ही है । "

सुविधा अंदर के कमरे से यह सब देख रहीं थी, आज उसे अपनी बहन पर गर्व था जो उसने पापा का साथ दिया । वह सोच रही थी अगर लड़की वाले सदियों से चली आ रही इस परम्परा कि :

" लड़की वाले दीन हीन होते हैं वह लड़की के लिए लडके को खरीद कर करके हमेशा-हमेशा के लिए लड़के वालों के कर्जदार हो जाते हैं, और उनकी मांग पूरी करते करते खुद भिखारी हो जाते हैं ।"

जैसी गलत बातों को दूर कर बराबरी से चलेंगे तब ही शादी ब्याह में दहेज के नाम पर होने वाला हिसाब-किताब का गणित दूर हो पाएगा ।

स्वलिखित

लेखक संतोष श्रीवास्तव
Pramod Golhani 🙏🌹.
..सादर नमन भावों के मोती"...
विषय - स्वतंत्र लेखन...
ेरी प्रस्तुति सादर निवेदित...
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सोचकर देखिए दुनिया में हमारा क्या है |
देखकर सोचिए दुनिया का इशारा क्या है ||

राज इस जिंदगी के हम समझ सके न मगर,
फिर भी इस जिंदगी से और ही प्यारा क्या है |

आज तो ठीक है पर कल की है खबर किसको,
जो छुपा वक्त के पीछे वो नजारा क्या है |

साथ जब अपने हों तो जिंदगी होती रोशन,
साथ जब अपने ही न हों तो सहारा क्या है |

आओ चैनो अमन के गीत गुनगुनाते चलें,
क्यों उलझना "सरस" कि मेरा तुम्हारा क्या है |

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स्वरचित
प्रमोद गोल्हानी सरस
कहानी सिवनी म.प्र.

विषय-यादों का अलाव
"सालों की दूरियाँ रिश्तों में ठंड
बढ़ा रही है।
लगता है यादों का अलाव जलाना होगा।

बीत रही है घड़ी,बीत रहा है पल,
बीत रहा है आज,बीत रहा है कल।
ज़िन्दगी की धारा उम्र की सिलवटें बढ़ा रही है।
लगता है समय की नदी पर बाँध बनाना होगा।

घुटनों का दर्द,बदन की जकड़न,
आँखों पे ऐनक,बदन की अकड़न।
हिरणी से चंचल मन पे ये फाँस डाल रहे हैं।
लगता है नया नंदंनवन बनाना होगा।

बेसुरे ही सही ,पर गीत प्यारे थे।
बेलय ही सही,पर कदमतल न्यारे थे।
वो साज़,वो साज़िंदे,वो कव्वाली बुला रही है।
लगता है वो महफिल फिर से सजाना होगा।

दोस्तों के ठहाके,दिन भर की धमाचौकड़ी,
परेशानियाँ भी रहती हमसे उदास,
मानों अपने ही जाल में मकड़ी।
सूखे मुरझाये फूल,डायरियाँ दिखा रही है।
लगता है फिर से वो गुलिस्तां सजाना होगा।

लगता है यादों का अलाव फिर
से सजाना होगा।"
स्वरचित-सरिता 'विधुरश्मि'

दिनांक २५\११\२०१९
स्वतंत्र लेखन

विधा लघुकथा
**बटुआ**
----------------
गौरव अपनी दादी का बहुत लाडला था...जब वो आठ साल का था तो रोज स्कूल से आते ही वो अपनी दादी के पास जाता तो दादी उसे अपने बटुये से पाँच रू.या कभी दस रू. पर देती जरूर थी...पर अपने बटुये को किसी को हाथ नही लगाने देती थी....!!!
समय बीतता गया व गौरव अब पच्चीस साल का हो गया और उसकी नौकरी भी लग गयी दस लाख सालाना....नौकरी के लिये उसे गाँव छोड़कर मुम्बई जाना पड़ा...उसे गाँव व दादी की बहुत याद आती थी....!!!!
आज पाँच महीने बाद वो गाँव जा रहा था...आते ही सबसे पहले वो दादी के कमरे में गया पैर छूकर उसने हाथ आगे बढ़ा दिया...दादी हँसते हुये बोली....अब मैं क्या तुझे दूँगी...अब तो तेरा बटुआ भारी है...!!!!!
गौरव ने बोला तो दादी आज तो बटुआ बदल लेते है...आप मेरा बटुआ ले लो व मुझे अपना दे दो...!!!!
दादी की आँखों में आँसू आ गये...वो बोली बेटा...तूने इतना कह दिया वही मेरे लिये बहुत है मैं इस उम्र में अब पैसे का क्या करूँगी....बस तुझे ज़िन्दगी में कोई कमी ना हो यही आर्शीवाद है...!!!
फिर अपना बटुआ खोलकर उसमें से दस रू.निकालकर गौरव को देते हुये बोली...ये बरकत के है हमेशा अपने बटुये में रखना...!!!
गौरव दादी के गले से लग गया व ठिठौली करते हुये बोला.....आपने अपना बटुआ फिर भी नही दिया ना दादी...!!!!!
गुरविन्दर टूटेजा
उज्जैन (म.प्र.)

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