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मैं पुष्प
सौंदर्य से परिपूर्ण
शत्रुता को मित्रता मे
बदलने के गुण से परिपूर्ण
वातावरण को शुद्ध करने का
मुझमें गुण है भरपुर।
पर अंहकार होते ही
विनष्ट हो जाऊँ मैं जरूर
एक हवा का झोंका भी
कर दे मुझे अपनो से दूर
तड़ाग मे अंबुज सामान
बने जब कोई
हर्ष विषाद से ऊपर होई
वक्त का असर मुझपे भरपुर
कभी चढ़े देवालय में
कभी पैरो तले रौंदे कोई
पुष्प सामान ही मानव जीवन
सुख दुःख आवे हरदम
बने अंबुज सामान जब कोई
तब उसका महता समझे सब कोई
स्वरचित-आरती -श्रीवास्तव।
फूल ! तुम इतने मृदु भावों के हो प्रतीक,
कि कोई भी उपमा तुम्हारे लिये नही बैठती सटीक,
तुमसे महकता हर स्थान है,
तुम्हारा होना ही हर ज़गह की शान है ।
तुम सबको महकाते हो,
सबका आनन्द बढ़ाते हो,
हर गौरवमय परम्परा में,
सबसे पहले याद आते हो।
पर जब मैं तुम्हें देखता, मानता भाग्य को सर्वोपरि,
वो भी तो बतला देता, बात सारी खरी खरी,
तुम देव के कंठहार होते, जीवन तुम्हारा धन्य होता,
कपटी के लिये उपहार होते, जीवन तुम्हारा नगण्य होता।
तुफानों की निरंकुशता में, तुम घायल हो जब गिरते,
कितनी विपदाओं से तुम, एकसाथ एकदम घिरते,
कहाँ गरिमामय स्थिति तुम्हारी, और कहाँ यह समय की धूल,
ये ही बस उत्पीड़न भाग्य का, तुम भी तो समझोगे " फूल "।
वीर का शौर्य जब गरजता, तुम्हारी महक का निर्झर झरता,
उसकी यात्रा का पूरा पथ, तुम्हारी सुगन्ध से ही भरता।
प्रिय को जब अर्पित होते, मनोभावों से समर्पित होते,
जब राष्टृ गौरव को अर्पित होते, तो जीवन में तुम गर्वित होते,
लेकिन ये सब भाग्य है, तुम्हारी क्या होगी ऊँचाई,
और ये दुर्भाग्य है, कैसी विकट होगी रूलाई।
कि कोई भी उपमा तुम्हारे लिये नही बैठती सटीक,
तुमसे महकता हर स्थान है,
तुम्हारा होना ही हर ज़गह की शान है ।
तुम सबको महकाते हो,
सबका आनन्द बढ़ाते हो,
हर गौरवमय परम्परा में,
सबसे पहले याद आते हो।
पर जब मैं तुम्हें देखता, मानता भाग्य को सर्वोपरि,
वो भी तो बतला देता, बात सारी खरी खरी,
तुम देव के कंठहार होते, जीवन तुम्हारा धन्य होता,
कपटी के लिये उपहार होते, जीवन तुम्हारा नगण्य होता।
तुफानों की निरंकुशता में, तुम घायल हो जब गिरते,
कितनी विपदाओं से तुम, एकसाथ एकदम घिरते,
कहाँ गरिमामय स्थिति तुम्हारी, और कहाँ यह समय की धूल,
ये ही बस उत्पीड़न भाग्य का, तुम भी तो समझोगे " फूल "।
वीर का शौर्य जब गरजता, तुम्हारी महक का निर्झर झरता,
उसकी यात्रा का पूरा पथ, तुम्हारी सुगन्ध से ही भरता।
प्रिय को जब अर्पित होते, मनोभावों से समर्पित होते,
जब राष्टृ गौरव को अर्पित होते, तो जीवन में तुम गर्वित होते,
लेकिन ये सब भाग्य है, तुम्हारी क्या होगी ऊँचाई,
और ये दुर्भाग्य है, कैसी विकट होगी रूलाई।
भोर हुआ रोशनी बिखरी
फूलों की सुंदरता निखरी
अदभुत छटा पड़ी बिखरी
उपवन की शोभा निखरी
चारों और खुशबू बिखरी
धरती की आभा निखरी
बागों में हरियाली बिखरी
पुष्पों की रंगत निखरी
फूलों पर किरणें बिखरी
धरती की सुंदरता निखरी।
मनीष कुमार श्रीवास्तव
पुष्प हूँ खूश्बू लुटाता
हर पल मेरा ध्येय यही
अर्थी हो या मुर्ति हो
है मेरा स्वभाव यही
अहं भाव ना मैं रखुं
खिलूं कांटों में सही
प्रभु द्वार तक जाऊँ
लेकर संग खूश्बू वही
खूश्बू का ना छोड़ूं दामन
तोड़ो,मसलों या दो फेंक
तन पर वीरों के सुहाऊं
जिनके बलिदान अनेक
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
चाहत है मेरी की-
पुष्प बन मैं महकूँ
और अपने रिस्तों के
बगिया को भी महकाऊँ
रंग-बिरंगे बन कर मैं
तितलियों को बहलाऊँ
भर कर स्वंय में मधुर रस
भौरों को रसपान कराऊँ
जीवन सफल हो जाएं मेरा
जब मैं उदास चेहरे पर
मुस्कान ले आऊँ
फिर नहीं मुझे है भय कोई
हवा के झोंके का
मिट जाउं
या बिखर जाऊँ।
होके विलीन भी
हवा के झोंके संग
अपनी खुशबू बिखेरते जाऊँ।
स्वरचित:- मुन्नी कामत।
वन पर्वतों की कन्दराओं में
खलिहानों में बाग़ानों में
पुष्प पुष्प खिलता जाता
आँधी तूफ़ानों में भी मुसकाता
अडिग रहकर सबको लुभाए
चित्त संग नयनों को भाए
तुझ में मात्र अढाई वर्णों का खेल
विविध रंग रूपों का तुझ में मेल
पतझड़ ऋतु जब तुझे सताए
वसंत ऋतु में तू उसे हराए
बंद कली में तू मुसकाए
भँवरों का गुंजार शोभा बढ़ाए
डाल से चुनकर माली लाता
आजीविका का साधन कहलाता
बालों में गुँथकर गज़रा बन जाए
वनिता के मन को बहलाए
धागों में गुँथकर माला बन जाए
अभिनंदन का साधन कहलाए
वर वधू के कंठ जब साजे
जयमाला की पावन रस्म निभाए
मंदिर.गिरिजाघर और गुरुद्वारे
श्रद्धा भक्ति के काज सँवारे
आराध्य देव के चरणों में चढ़कर
धन्य तेरा जीवन हो जावे
फाग मास में होली जब आवे
गेंदा गुलाब चम्पा जूही रंग बरसाए
देशभक्ति का पर्व जब आता
युद्धवीरों का मान सम्मान बढ़ाता
मातृभूमि हित जब मिले शहादत
तिरंगे में लिपटकर जयकार कराता
पुष्प तुम सदा खिलते ही रहना
जीवन को सुगन्धित करते रहना ।
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
स्वरचित
संतोष कुमारी
पुष्प की जिंदगी बहुत थोड़ी होती है
और उसमें भी तमाम रिस्क होती हैं
पर वो बिना किसी परवाह लुभाता सबको अपने रँग रूप से मनभावन ख़ुशबू के साथ
बिना अपना हश्र जाने वो आज निभाता है जिंदगी का साथ
और हम हैं कि अनजाने कल की फ़िक्र में आज ही जीते जी मरते हैं
क्यूँ नहीं हम पुष्पों से कुछ अच्छे पाठ ग्रहण करते हैं
(स्वरचित)
अखिलेश चंद्र श्रीवास्तव
ईश्वर तेरे चरणों में
नित पुष्प सुमन करूं अर्पित
स्वीकार करो मेरी विनती
प्रभु यह अर्ज करूं इतनी
निर्धनों को थोड़ा धन दो
समृद्ध करो उनके दर को
धनवानों को सद्बुद्धि दो
समृद्ध करो उनकी वृति
ना हो किसी पर अत्याचार
सबके करो सुदृढ़ विचार
आत्मबल दो सबको इतना
जिससे हो जीवन का उद्धार
भौंरों को लेने दो पूर्ण परागण
थोड़ी संध्या देर करो
वह छिप जाते आगोश पुष्प
उनका भी उद्धार करो
मन कहीं ना भटके हमारा
हमको इतना संबल दो
पुष्प आगोश भंवरे रहते
हम सदा रहे तेरे निज द्वार
पुष्प अभिलाषा पूर्ण करते
शीश आपके चढ़ने की
हम तुच्छ प्राणियों की अभिलाषा
पुष्पवत पल्लवित होने की,,,,
यह विनती करते हम बारंबार
स्वरचित आशा पालीवाल के पुरोहित राजसमंद
नित पुष्प सुमन करूं अर्पित
स्वीकार करो मेरी विनती
प्रभु यह अर्ज करूं इतनी
निर्धनों को थोड़ा धन दो
समृद्ध करो उनके दर को
धनवानों को सद्बुद्धि दो
समृद्ध करो उनकी वृति
ना हो किसी पर अत्याचार
सबके करो सुदृढ़ विचार
आत्मबल दो सबको इतना
जिससे हो जीवन का उद्धार
भौंरों को लेने दो पूर्ण परागण
थोड़ी संध्या देर करो
वह छिप जाते आगोश पुष्प
उनका भी उद्धार करो
मन कहीं ना भटके हमारा
हमको इतना संबल दो
पुष्प आगोश भंवरे रहते
हम सदा रहे तेरे निज द्वार
पुष्प अभिलाषा पूर्ण करते
शीश आपके चढ़ने की
हम तुच्छ प्राणियों की अभिलाषा
पुष्पवत पल्लवित होने की,,,,
यह विनती करते हम बारंबार
स्वरचित आशा पालीवाल के पुरोहित राजसमंद
खुश्बू हूँ पुष्प की
सारा जग महकाना चाहती हूँ ।
बस धूल हूँ प्रभु चरणों की
आसमान छूना चाहती हूँ ।
गुंजन हूं
प्रेम राग गुनगुनाना चाहती हूँ
बन राग भैरवी
धरती से अंबर तक
गूंजना चाहती हूँ ।
मैं दूत विश्व शांति का
सद्भाव जगाना चाहती हूँ ।
पुष्प की तरह कांटो भरी
राह पर पर भी खिलखिलाना चाहती हूँ ।
वीरों के पथ पर
पुष्प सा बिखरना चाहती हूँ ।
(स्वरचित )सुलोचना सिंह
निस्तब्ध निशा में अल्कावलि सी,
जगमगाते जूही के फूल।
लाख चाहा भूला ना पाई,
वह महमहाते जूही के फूल।
परकोटे पर फैली -फैली,
लिपटी नाजुक वल्लरियाँ।
झूमती इठलाती जिस पर,
छू -छूकर रंगीन तितलियाँ।
छा रही दूर- दूर तलक,
हैं विहँसते खूल- खूल।
बिल्व -पत्र सा पल्लवित त्रिपात,
स्निग्ध कोमल हरित गात।
खिला- खिला सा यौवन,
सिहरती ज्यूं भरी देह- लाज।
लहराते संग- संग पवन के,
ज्यों कोई यौवना
चुलबुल।
नुपुरों सी नन्ही- कलिकाएं,
लगती नभ की तारिकाएं।
कहीं सप्त, कहीं अष्ट पँखुरियाँ,
खिलखिलाती गुच्छों में कलियाँ ।
भरती सौरभ साँस- साँस में,
उच्छवास प्रवाहित दूर- दूर।
वह नन्ही सी कोमल बेली,
प्रति-पल करती अठखेली।
मासूम बचपन सा मुस्काती,
गुलशन सुवासित कर जाती।
प्यारा रूप धवल शीतल
महकाते जीवन समूल।
अतीत से वर्तमान तक,
स्मृतियों में बसी महक।
गजरा बन बालों में महकती,
कभी ईश पाँवों में सजती।
लघु रूप पर वृहत गुणी,
देते समग्र सुख- समूल।
स्वरचित
सुधा शर्मा
नवकुसुमित निर्मल पुष्प खिले हैं
रंग-बिरंगे,मनभावन,बड़े भले हैं
घर आँगन की रक्षित क्यारी में
मृदु महक यौवन की फुलवारी में
सजे-सँवरे कतार से गुलदानों में
परिपोषित,माली के उपादानों से
निशिदिन सेवित,संरक्षित जीवन में
श्रृंगारित,सुशोभित सतत उपवन में
वो,कुछ और पुष्प भी प्रस्फुटित है
इसे किसने बोया?ये तो स्वघटित है
दप-दप विहँसते, झाड़-झंखाडों में
स्वसिंचित,स्वतंत्र, निज अखाड़ों में
कंटनी,छँटनी विमुक्त,मस्त,निर्भय है
नैसर्गिक सौंदर्य-बोध,बहु विस्मय है
लखता कौन?इन कुसुम कुमारों को
करते क्या सज्जित ये बन्दनवारों को
-©नवल किशोर सिंह
कलियां चटके पुष्प महकते
मलय पवन हर ओर चले
माली सींचे हरियाला उपवन
भिन्न भिन्न नव पुष्प खिले
कई पंखुड़ियों से मिलकर के
एक पुष्प का जन्म हुआ
बिखर गई जब वे धरणि पर
मिलती सब से दिव्य दुआ
प्यार करते सब पुष्पों से
दूर रहे हर कंटक से
बड़े स्नेह से हमे उबारे
जीवन के हर संकट से
पुष्प गुच्छ उपहार अनौखा
कर गजरा गल माल सजे
देवालय में देव सृंगारित
शंख नाद प्रिय घण्ट बजे
पुष्प प्रतीक हैं खुश्बू के
पुष्प प्रतीक अर्चन पूजन
पुष्प प्रतीक हंसीखुशी के
पुष्प प्रतीक जीवन अर्जन
सम्मानित पुष्पों से होते
आनंदित नव पुष्प बिछाते
मृत्यु शय्या पर लेटे शव को
नव पुष्पों से उसे मिलाते
स्व0 रचित
गोविंद प्रसाद गौतम
बगिया में सुन्दर सुन्दर पुष्प खिले हैं
कितने प्यारे कितने अच्छे लगते हैं
सबको मोहित आकर्षित करते हैं
अपनी सुगंध से चमन को महकाते हैं .
पुष्प की खुश्बू हर तरफ
कभी बागों में
कभी घर के आँगन में
कभी मंदिर के द्वारे प्रभु चरणों में .
रंग बिरंगे पुष्प सबके ह्रदय को लुभाये
जिसकी प्यारी कलियों का रूप दिल में बस जाये
मेरी सुगंध महके हर क्षण हर पल
चाहे दिन का हो उजाला या हो अँधेरी रात्रि .
हर मौसम में खिलता हूँ
चाहे ग्रीष्म हो शीतल ठंड हो
या हो तूफ़ान का हो कहर
हर कदम नवीन अनुभव लेता हूँ .
काँटों के संग भी मुस्कराता हूँ
सारे भेद भाव मिटाकर सब पर प्रेम रस बरसाता हूँ
प्रेम प्यार से चमन को खिलकर महकाता हूँ
हँसकर सबको जीना सिखाता हूँ .
स्वरचित:- रीता बिष्ट
मै अदना पुष्प भावों के मोती का,
ऐसे ही यहाँ चहक रहा
सभीजनों से खुशबू ले लेकर ही
सचमुच ही यहाँ महक रहा।
अपने उपवन की तारीफ करूँ क्या
इसमें रंगबिरंगे फूल खिले हैं।
एकदूजे से मुखरित होते
जैसे आत्मिक अनुबंध किये हैं।
आज खिला हूँ कल मुरझाऊँ
मेरा कुछ भी पता नहीं है।
मै लूटना चाहूँ खुशबू सबसे,
मै कब झड जाऊँ पता नहीं है।
कलियां महक रही कलमों से यहाँ
बहुरंगी सृजनशीलता देखी।
मधुर मोहनी सुरभित मैने
सुंन्दर महकित आत्मीयता देखी।
रहें पुष्प महकते अपने उपवन के
कुसुमित हों सब आंगन द्वारे।
रंगबिरंगी कलियां महकें
यहाँ भाव मोती हों सब कचनारे।
स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
ये मां की कोख में पलती कलियां,
ये पुष्प बनने को आतुर कलियां,
अनमोल उपहार हैं ईश्वर का,
ये हंसती-खिलखिलाती कलियां।
खिलने दो ,मुस्कराने दो इन्हें,
गुलशन में सुगंध फैलाने दो इन्हें,
रौनकें हैं ये इस संसार की
न फेंको,न मसलों,न कुचलो इन्हें।
ये पुष्प महकाते दोनों जहान,
खिलते और सजते हैं ये जहां
बड़े नाज़ुक से होते हैं ये पुष्प
क्रूरता से ये खिल पाते कहां?
खिलने का अधिकार है इनका,
मत समझो इनको सूखा तिनका,
अगर पुष्प ये न खिल पायेंगे,
तो गुलशन महकेगा किनका?
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
ये पुष्प बनने को आतुर कलियां,
अनमोल उपहार हैं ईश्वर का,
ये हंसती-खिलखिलाती कलियां।
खिलने दो ,मुस्कराने दो इन्हें,
गुलशन में सुगंध फैलाने दो इन्हें,
रौनकें हैं ये इस संसार की
न फेंको,न मसलों,न कुचलो इन्हें।
ये पुष्प महकाते दोनों जहान,
खिलते और सजते हैं ये जहां
बड़े नाज़ुक से होते हैं ये पुष्प
क्रूरता से ये खिल पाते कहां?
खिलने का अधिकार है इनका,
मत समझो इनको सूखा तिनका,
अगर पुष्प ये न खिल पायेंगे,
तो गुलशन महकेगा किनका?
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
परहित हो जीवन का मकसद , पुष्प हमें यह कह जाता |
है कांटौ भरी राह, जीवन फिर भी इनका मुस्काता |
छोटी सी है उमर, मगर सुरभित कानन कर जाता |
आभा से अपनी पुष्प सदा, सबके मन को हर्षाता |
अपनी कोमल काया से पुष्प सबको सुकून पहुंचाता |
चाहें मंदिर हो या हो मजार, कोई भेद नहीं कर पाता |
बना प्रेमियों का प्रेम संदेश , ये सुलह गीत भी गाता |
ईर्ष्या बैर घात और नफरत, नहीं इनसे पुष्प का नाता |
बलिदान भावना रखता मन में, जीवन उत्सर्ग करता |
सुदंर मन का परिचायक ये ,इसे "सुमन "भी कहा जाता |
हर घर आँगन की बगिया में,सदा श्रृंगार पुष्प ही करता |
हसते रहो हसाओ सबको, पुष्प सर्वदा सीख यही देता ||
स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,
एक उपवन वाटिका में,
मंजरी की तालिका में,
इक सुमन निस्तेज सी....
घोर चिंता में खड़ी,
ज्यों उसपर दृष्टि पड़ी,
हमने पूछा ये सुमन,
कहाँ खोया है ये मन,
खोया क्यों तेरा कन्त है,
यहाँ हर तरफ वसन्त है,
पुष्प ने मुझसे कहा,
सुनले ये सखा,
जिस दिन यौवन खिली,
एक भौरें से मिली,
ओ नटी नटशाल था,
कुटिल औ वाचाल था,
मैं गिरी उस प्यार में,
खो गयी मनुहार में,
भरके नेत्रों में सपना,
दे दिया सर्वस्व अपना,
जिस दिन वसन्त ढल चला,
मुझसे रस ना मिला,
हो विरक्त मुझसे,मेरे प्रेम से,
गया चला इस उपवन से,
विताये पूरे वर्ष उसके आस में,
कि आयेगा वो लौट मधुमास में,
कल मैं पछताई अपनी भूल पर,,,
ओ निर्लज्ज था पड़ा दूसरे ही फूल पर,,
मैं फूल हूँ किन्तु ,
मेरी कांटों की सेज है,
इसलिये मैं मलिन हूँ,
मुख मेरा निस्तेज है।।।
........राकेश,
मंजरी की तालिका में,
इक सुमन निस्तेज सी....
घोर चिंता में खड़ी,
ज्यों उसपर दृष्टि पड़ी,
हमने पूछा ये सुमन,
कहाँ खोया है ये मन,
खोया क्यों तेरा कन्त है,
यहाँ हर तरफ वसन्त है,
पुष्प ने मुझसे कहा,
सुनले ये सखा,
जिस दिन यौवन खिली,
एक भौरें से मिली,
ओ नटी नटशाल था,
कुटिल औ वाचाल था,
मैं गिरी उस प्यार में,
खो गयी मनुहार में,
भरके नेत्रों में सपना,
दे दिया सर्वस्व अपना,
जिस दिन वसन्त ढल चला,
मुझसे रस ना मिला,
हो विरक्त मुझसे,मेरे प्रेम से,
गया चला इस उपवन से,
विताये पूरे वर्ष उसके आस में,
कि आयेगा वो लौट मधुमास में,
कल मैं पछताई अपनी भूल पर,,,
ओ निर्लज्ज था पड़ा दूसरे ही फूल पर,,
मैं फूल हूँ किन्तु ,
मेरी कांटों की सेज है,
इसलिये मैं मलिन हूँ,
मुख मेरा निस्तेज है।।।
........राकेश,
(1)
सौभाग्य मिला
शहीद पर चढ़ा
"पुष्प " इतरा
(2)
काँटो को सहा
क्षण जिन्दगी, "पुष्प "
खिल के जिया
(3)
देख के "फूल"
दौड़ आती आशाएँ
चिंताए भूल
(4)
पैरों से रूँदा
"पुष्प " ने सहा दर्द
खुशी में बिछा
(5)
अच्छाई दंड?
"पुष्प " को तोडा जाता
स्वभाव नर्म
(6)
हश्र का पता
जिंदगी चार पल
"पुष्प " तो हँसा
(7)
गहने खीजे
पुष्प के श्रृंगार से
देवता रीझे
(8)
मित्रता सम
पुष्प का आगमन
ख़ुशी या गम
(9)
घृणा है शूल
जीवन उपवन
प्रेम है "फूल"
स्वरचित
ऋतुराज दवे
आंगन की क्यारी में,
कर रोपित एक,
पाटलपुष्प,
निरंतर, दिवस-मास,
सिंचित भू-जल से,
पोषित उर्वरकों से,
हो विकसित,
फैली डाली,
नव- पत्र हरित,
छठा मतवाली,
कर अवलोकन,
बारम्बार-लगातार,
रुककर कुछ देर,
अपलक लेता निहार,
मैं आसक्त उसपर,
उसका प्रीत,
मुझपर अपार,
जब मैं हँसता,
कुछ कहता,
तब झुककर,
करता अभिवादन,
स्वीकार.....
.........
फिर आया,
उसपर यौवन अपार,
कर वसन्त अपना,
सबकुछ न्योछार,
कुछ कली-कुछ फूल,
लगकर रहे थे झूल,
मदमाता अपने में,
इतराता अपने में,
लहराता अपने में,
उन्मुक्त मन,सिहर,
अपने में कहाँ ठहर?
......
पड़ी दृस्टि उसपर,
हुआ मन प्रफुल्लित,
हरे पत्र के संग,
रक्ताभ पुष्प पल्लवित,
मैने कहा,
सुन रे सखा,
तेरे रूप लावण्य की,
अनुपम छठा,
........
पर वो निर्लज्ज,
अपने में मगन,
कहाँ अब सुनेगा,
मेरा अभिवादन,
एक स्नेह उमड़ा,
हृदय से मेरे,
दो बूंद मोती,
पत्रों पर गिरे,
सही बात कहता,
है ये जहाँ,
छिछिले पत्र में,
जल रुकता कहाँ,,,
रुकता कहाँ.....
.....राकेश
कांटों भरी राहों में भी
मुझे फूलों सा जीवन मिले
ज़ख्मों को झेलकर ही
कर्मों के फूल खिले
जीवन के धूप-छांव में भी
महके और खिलखिलाये
कंकड़ की मार ख़ाके भी
पहचान अपनी ना खोने पाये
सुखते हुए फूलों में भी
महक अपनी छोड़ जाये
डालियों से टूटकर भी
हर दिल की मुस्कान बन जाये
युद्धभूमि को जाते वीरों के पथ में
🏵️ प्राण न्यौछावर हो जाये🏵️
स्वरचित पूर्णिमा साह
पुष्प हूँ
पर कांटो से घिरा
जीवन मेरा
देवों का गहना
वीरों का आभूषण
समान भावना मेरी
अर्थी हो या बारात
जीवन का संघर्ष
मेरी आत्मियता
भक्ति की आस्था
का प्रतीक मैं
पुष्प हूँ
उपवन की शोभा
सुगंध का पर्याय
प्रकृति का सुंदर
श्रंगार हूँ
भंवरों का पालक
मधु भंडार हूँ
लेकर गुण औषधीय
मानवता का संहार हूँ
पुष्प हूँ
हर पल महकना
स्वभाव है
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
पुष्प शृंगार कर ऋतुराज आए
-------------------------------------------
जब धरा पर बासंती ऋतु आए
रंग-बिरंगे पुष्प खिल-खिल जाए
हर युगल के तन-मन में प्रेम पले
चहुँओर रंगीन समाँ घिर आए।
पुष्प बगिया में सौरभ छितराए
गुन, गुन, गुन भंवरा राग सुनाए
मन इस आनंद से हो आनंदित
रंग- रंगीली तितली मन को भाए।
आम महुआ पर मंजर भर आए
बैठ कोयल मीठी कूक सुनाए
पपीहे की बोली सुन मन बहके
बसंती बयार हर ओर समाए।
पुष्प शृंगार कर ऋतुराज आए
हर मुखड़े पर मुस्कान खिल जाए
बच्चों की किलकार आंगन गूँजे
सभी सयाने का दिल जीत जाए।
--रेणु रंजन
(स्वरचित )
21/11/2018
------------------------
पुष्पों की सुंदर सौगात
करती धरा का श्रृंगार
लाल, गुलाबी,पीले
पुष्प यहां कई रंग के खिलते
लाल पुष्प कुमकुम सी आभा
सबके मन को बहुत लुभाता
पीले पीले पुष्प सुनहरे
सोने सी छटा बिखेरे
सफेद पुष्पों की फैली चादर
जैसे आसमां से उतरा बादल
गाल गुलाबी नवयौवना के
पुष्प गुलाबी कोमल ऐसे
धरती की धानी चूनर भी
सतरंगी पुष्पों से सजी है
करने धरा का यह श्रृंगार
प्रभू की यह अनमोल कृति है
सुंदर सुंदर बाग बगीचे
इनकी खुशबू से महके
बने प्रभू के गले का हार
पुष्प बिना अधूरा श्रृंगार
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित रचना
ना कोई इच्छा
ना कोई आशा
ना ही कोई अभिलाषा है।
मै पुष्प था
मै पुष्प हूँ
मैं पुष्प रहूँ
बस इतना अरमान है।
देवों का मान मुझी से है
वीरों की शान मुझी से है
मुझ बिन देवालय सूने हैं
बगिया की शान मुझी से है।
इतना सब होने पर भी
अभिमान नहीं रत्ती भर है
मै जैसा भी हूँ ,वैसा ही रहूँ
अरदास बस इतनी सी है।
मैं पुष्प हूँ
मैं पुष्प रहूँ
अरदास बस इतनी सी है।
(अशोक राय वत्स)स्वरचित
जयपुर 7665994959
चहक रहे
कई रंग के फूल
स्कूलों के बाग
संतों की वाणी-
भींगता मन जैसे
पुष्पों की वर्षा
मुर्दों के लिए
जिंदा फूलों की जान
लेती समाज
स्वरचित
मुकेश भद्रावले
21/11/2018
१
खिलते पुष्प
महकता जीवन
प्रिय का साथ
२
प्रेम की भेंट
किताब में सजते
पुष्प गुलाब
३
देव प्रतिमा
पुष्पांजलि अर्पित
मिले आशीष
४
पुष्पों की ड़ाली
रूत है मतवाली
फैले खूशबू
स्वरचित-रेखा रविदत्त
21/11/18
बुधवार
प्रिय !मेरी बगिया में आना,
जहाँ मिलेगा भौंरा दिवाना,
पुष्प खिलें हैं रंग-बिरगें,
कुछ तुम भी ले जाना |
सुगन्ध इनकी महक रही है,
तितलियाँ मधुपान कर रही हैं,
सुन्दर समाँ यहाँ बंध गया है,
मन मेरा यहीं रम गया है |
चलो प्रिय!बगिया की सैर कराऊँ,
गुलदस्ता तुम्हें उपहार दे जाऊँ,
यहाँ बेला है,गुलाब और कचनार,
यही है मेरा सुन्दर सा संसार |
हम-तुम मिलकर इसे ओर सजायें,
कुछ पुष्प-पौध हम ओर लगायें,
पुष्पों की हमेशा रहेगी बहार,
खिल जायेगा हमारा संसार |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
खुशबू बिखेरो
जीवन चार दिन
हँस कर गुजारो
क्यों बर्बाद करे
जीवन को उत्कर्ष पर लेजाए
फूलों की बगिया महकाएं l
बनकर पुष्प
किसी को हर्षाये
खुशियाँ दे जाएं
जीवन सफल बनाये
न जाने माली कब
ये फूल तोड़ ले जाये,
आओ शहीदों की माला बन जाये,
ऐसा पुष्प बने कि
जगत में इतिहास बनु
सबके दिल का अहसास
बनु
एक ऐसा पुष्प बनु
एक ऐसा पुष्प बनु
कुसुम पंत उत्साही
जो तु सबके मन को है भाता
नारी के बालो मे तू गजरा बनके सुहाता
और उसके सौंदर्य को तू बढ़ाता
दो प्रेमियो के बीच का सूत्रधार तू ही तो है
पुष्प देकर प्रेमी के अंदर
प्रेम का पुष्प तु ही खिलाता
पुष्प तेरी कितनी प्यारी है गाथा
जो तु सबके मन को है भाता
ऐ पुष्प तु ही तो है जो विवाह मंड़प
मे खुशीयो के फुल खिलाता
जयमाला के रूप मे बंधन
तु बँधवाता
सुहाग सेज पर तू बिछ जाता
और नेया पुष्प तु खिलाता
शकुन्तला के तन पर पुष्पो का श्रृंगार
राजा दुष्यंत ने किया उससे प्रेम विवाह
पुष्प तेरी कितनी प्यारी ह्रै गाथा
जो तु सबके मन को है भाता
पुष्प कही बन जाता तु
शुभकामनाओ का प्रतीक
कभी तु भगवान के चरणों
में चढ़ाया जाता है
ऐ पुष्प तेरी ये मुस्कुराहट
कभी कम नहीं होती
जब बिछड़े तू अपने पेड़ से
फिर भी तु मुस्कुराता
काँटो के बीच मे रहकर भी तू
बस मुस्कुराता
पुष्प तेरी कितनी प्यारी है गाथा
जो तु सबके मन को ह्रै भाता
स्वरचित हेमा उत्सुक (जोशी)
(1)
मुकुल पुष्प
नयन अभिराम
सुगन्ध प्रद
(2)
मन्दार पुष्पम्
अर्पण भूतनाथम्
प्रसन्न मुद्राम्
(3)
माँ ज्ञानदात्री
धवल पुष्प वारिज
विराजमान
स्वरचित-राम सेवक दौनेरिया 'अ़क्स'
बाह-आगरा(उ०प्र०)
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सजा-धजा कर प्रेम से उसने,
जीवन ये कर दिया अलंकृत
हुआ सुगंधित मेरा तन-मन
नयनों से छलकाया अमृत
साथ मेरे जो रहने का उसे
मिल जाये अवसर पावन
हो जाता वह पुष्प प्रसन्न
खिल उठता है उसका मन
उसकी कोमलता दुर्लभ है
वो लहराये सावन तब है
देखने उसको आतुर सब हैं
रहूँ दूर मैं संयम कब है?
भँवरों में भँवरा एक मैं हूँ
छू लेता जब उसका तन
हो जाता वह पुष्प प्रसन्न
खिल उठता है उसका मन
स्वरचित-राकेश ललित
पुष्प और ओस....
रिश्ता बहुत नाज़ुक है...
एक धूप लगने से...
जीवन खो देती....
दूसरा...
खिल उठता...
अश्कों के पुष्प....
जीवन मिलता है तो भी निकलते हैं...
खुश होते हैं....
अपने किसी का जीवन जाता है...
तो भी निकलते हैं...
दुःखी होते हैं...
बहुत नाज़ुक रिश्ता है...
जीवन और मौत का...
दोनों ही पुष्प के समान...
खिलते हैं...मुरझाते हैं...
जीवन खिलता है तो...
मौत मुरझाती है...
मौत खिलती है तो...
जीवन....
जीवन को खिलने दो...
महकाओ उसे इतना कि...
जब मौत पुष्प खिले...
तो वो भी महके...
सब को महकाये....
महको...
'पुष्प' की मानिंद...
और...
महकाओ...
II स्वरचित - सी.एम्.श
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