Monday, November 19

"स्वतंत्र लेखन "18नवम्बर 2018


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कुछ कही अनकही बातें
अंतरतम में,
सदा मचाती शोर है ।
उत्ताल तरंगें भावों की,
लहराती पुरजोर हैं।
अनुभूति की अभिव्यक्ति में,
मुझको आता जोर है।
मेरे मन की मैं ही जानूं,
न जाने कोई और है।
भावों की इस नगरी का,
न कोई ओर या छोर है।
शब्द चुनूं तो कम पड़ जाए,
वाणी में न जोर है।
कैसे बांधू मन को मन से,
पकड़ बडी़ कमजोर है।
सपने बुनती खुली आंखों से,
बंद आंखों की किनोर है।
भावमेघ ऐसे उमडे हैं,
बरसी बूंदे जोर है।
बरस बरस के ऐसे बरसी,
भीगी आंखों की कोर है ।

अभिलाषा चौहान




ऊँचे पर्वत की ओट से

झांकती हैं किरणें
घर आंगन ताल पोखरें
सब चमकाती हैं किरणें
पेड़ों के पत्तों पर बिछी
ओस की बूंदों पर पड़कर
हीरा उसे बनाती हैं किरणें
चिरैयों के मधुमय स्वर में
मधुमयी राग सुनाती हैं किरणें
सागर की गिरती उठती लहरों पर
चित्र नया रचती हैं किरणें
रौशनदान से झांकती
खिड़कियों से खुलखुलाती
घर में बिछ जाती हैं किरणें
जाड़ों में सुगबुगाते ठिठुरते प्राणियों को
नेह बहुत देती हैं किरणें।
"पिनाकी"




तलाश हर किसी को है, स्वप्न के जहान की 


किसी सुखद व मनोहर आलोकित जहान की |

अनुभूति दुख की न हों एक सुख के आसमान की 

सब साथ में हों चाँद तारे एक परियों के खयाल की |

कोई चिंता न हो चुनाव की न बढती हुई मंहगाई की 

न फिक्र हो कोई रोजगार की न बात हो आरक्षण की |

प्यार ही प्यार हो बस नहीं कोई चाल हो नफरतों की 

अपनापन हो हर तरफ न हो कहीं बात अत्याचार की |

सुरक्षित रहे स्त्रियाँ व बेटियां हो न घात बलात्कार की 

भ्रूण हत्या न हो कभी कामना है नारियों के सम्मान की |

ज्ञान का फैले उजाला है चाहत अज्ञान के विनाश की 

हो समानता समाज में पूरी हो कामना सबके स्वाभिमान की |

स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,




पाप पुण्य होते रहते हैं।
रातदिन कुछ रोते रहते हैं।
सुखदुख का नहीं ठिकाना,
आजकल सब होते रहते हैं।

आनाजाना है अपना काम।
जीवन मृत्यु ईश्वर का काम।
कहीं प्रकाश अंधेरा कहीं पर,
आश निराश हम सबके आम।

अमीर गरीब मिलें हर जगह पर।
सत्य असत्य मिले हर जगह पर।
आदर अनादर है अपने हाथों में,
जय पराजय मिले हर जगह पर।

सुबह शाम चिकचिक अच्छी नहीं।
सचझूठ की बातें कभी टिकती नहीं।
कालेगोरे रंगोंवर्णोमें कबतक बांटोगे,
लाभहानि की बात सदा जंचती नहीं।

स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय





कुछ पल याद आते है हमें

जब देश मे जंग लगी थी।
घर पर सुरक्षित थे हम सब
सरहद, मौत के संग लगी थी।।

वो तिरंगे में लिपटी लाशें
मचा था हर तरफ कोहराम।
वो देखा था मौत का मंजर
1965 का करगिल मैदान।।

वीरता से लड़ रहे थे वीर
घर जैसे था ही नहीं उनका।
हां,देश ही देश दिख रहा था
कुल तो जैसे नही था उनका।।

तिरंगे की शान बचाने को 
जान न्यौछावर कर गए वो।
जुग - जुग याद आएंगे लाल
नाम देश का कर गए जो।।

आओ आज याद करें हम
सरहदी वीर जवानों को।
जिन्होंने दुश्मन से डरकर
नही छोड़ा था मैदानों को।।


क्यो रूके हो अभी तक वही पे प्रिये।
रस्ता लम्बा और मंजिल बहुत दूर है।
सोचने से भला किसको क्या है मिला,
साथ चलते तो मंजिल नही दूर है।
🍁
बात मन मे तुम्हारे जो है बोल दो।
बन्द दरवाजे मन के सभी खोल दो।
मन मे पीडा बढेगी तुम्हारे अगर,
मन दुखेगा मेरा तुम हृदय खोल दो।
🍁
मान अभिमान मे सच के पहचान मे।
जिन्दगी बँध गयी झूठ के शान मे।
वक्त लौटा नही जो गुजर जाता है,
क्यो खडे हो पकड टूटती शाख से।
🍁
जिन्दगी जंग है मन मे ही द्वंद है।
क्या सही क्या गलत ये मेरा प्रश्न है।
शेर की भावना शब्दों मे गढ दिया,
बात कहनी थी जो वो यही लिख दिया।
🍁
कुछ भी बोलो नही तो चलो साथ मे।
जिन्दगी ना ही रूकती सुनो ध्यान से।
अब चलो भी प्रिये बात तुम मान लो,
रस्ता लम्बा और मंजिल बहुत दूर है।
🍁

स्वरचित .. Sher Singh Sarraf

ये उंगलियाँ भी कमाल करती है
बचपन में दोस्त बनाती थी 
अब मोबाईल पर दोस्ती निभाती है

ये उंगलियाँ भी कमाल करती है
जिनकी उंगलियों ने चलना सिखाया
आज उन्हीं पर ये उंगलियाँ उठती है

ये उंगलियां भी कमाल करती है
जिनकी जुबां ने बोलना सिखाया
आज उन्हीं की जुबां बंद कराती है

ये उंगलियां भी कमाल करती है
जिनके कंधों बैठकर मेले देखे
आज उन्हें वृद्धाश्रम छोड़ आती है

स्वरचित :- मुकेश राठौड़


''सकारात्मक सोच"

कमियाँ हजार हैं इंसान में निकालते रहोगे

चाँद की तलाश में जुगनुओं को टालते रहोगे ।।
एकलव्य तो एकलव्य बन गया पाषाण मूर्ति से
क्या भेड़ चाल वाले विचार सदा पालते रहोगे ।।

बात श्रद्धा की होती है श्रद्धा जमाना होती है
सकारात्मकता में शक्ति है यह लाना होती है ।।
भावना अच्छी तो पत्थर हीरे का अहसास देते
हीरा दिखावा है पहने तो कीमत चुकाना होती है ।।

ज्यादा ऊँचा ज्ञान प्रेम नही ,देता है नफरत 
आलोचक बनना जीवन में देता है गफलत ।।
हमने तो अच्छाइयों में निगाह टिकाई है
बड़ा सुकून है ''शिवम" मिली है मुहब्बत ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 18/11/2018




**तलाश **

तलाश हर किसी को है, स्वप्न के जहान की 

किसी सुखद व मनोहर आलोकित जहान की |

अनुभूति दुख की न हों एक सुख के आसमान की 

सब साथ में हों चाँद तारे एक परियों के खयाल की |

कोई चिंता न हो चुनाव की न बढती हुई मंहगाई की 

न फिक्र हो कोई रोजगार की न बात हो आरक्षण की |

प्यार ही प्यार हो बस नहीं कोई चाल हो नफरतों की 

अपनापन हो हर तरफ न हो कहीं बात अत्याचार की |

सुरक्षित रहे स्त्रियाँ व बेटियां हो न घात बलात्कार की 

भ्रूण हत्या न हो कभी कामना है नारियों के सम्मान की |

ज्ञान का फैले उजाला है चाहत अज्ञान के विनाश की 

हो समानता समाज में पूरी हो कामना सबके स्वाभिमान की |

स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,


बंद खिड़कियों के
उघडें कपाट
सीढी़ दर सीढ़ी 
साक्षी विराट 
शीर्ष सतह पर 
विध विध विधाऐ
लिपटती सिमटती 
अक्षुण्य मूर्छाऐ
टटोलते रहे 
क्षुब्ध संवेदनाऐ
मुक्ताकाश सी खिलती
स्वरमय ऋचाऐ
कुछ तो कुंठीत सी
सिसकती वेदनाऐ
निश्चेष्ट अनिमेष दृग दल
अभिसिंचित आरोहण
समवेत परिमल संवेदना 
अभिशप्त पर्यावरण 
एक छोटे से कंदुक में 
दौडती सहस्त्रों शिराऐ
अनगिनत एहसास 
परिलक्षित आभास 
स्वयमेव उश्रंखल
उद्बोधित मेखलाऐ
हठात भग्नावशेष 
संदिग्ध चैतन्य चेतनाऐ
अनर्गल प्रलाप और 
सुरमय स्वरित आलाप भी
पर जो भी 
हां एक अमीमय हर्षातिरेक
मूर्धज के आँगन में 
सागर की हिलोरे
मृदु कटु तीक्ष्ण क्षारिय
अवचेतन अभिव्यंजना 
अदृष्य परम तत्व 
उर ओट भरती में
"अनभिज्ञ अस्तित्व "
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿
रागिनी नरेंद्र शास्त्री 
दाहोद(गुजरात)


********************
खौफ में पली
डरी-डरी सहमी हूँ ,
जिने से पहले
कितनी बार मरी हूँ ।
शरहद पर गुंजते
इन धमाकों से
भयभीत और चकित हूँ ,
छीन चुकी अपनों की छाया
माँ के लिए चिंतित हूँ ।
अंधेरे में यहाँ सब दिखता है
हो रही ये बमबारी और,
असहनीय चिख सिहराता है
देखकर सना सपूतों को लहु से
ह्रदय खण्डित हो जाता है ।
क्या हमारा कल भी
इसी खौफ में पले-बढ़ेंगे
जिने से पहले वों भी
बार-बार यूँ ही मरेंगे ?

स्वरचित:-मुन्नी कामत ।


जग तारिणी!!!
अविरल अमृत धार!!!
सतत प्रवाहित।
करती अपने मे समाहित,
गंगा विराट!!!
चक्षु अचंभित!!!
देख
अनन्त पाट!!!

यही वह घाट 
राजा, बना था चाकर
था चांडाल स्वामी
कर कर्तव्य निर्वाह
अपना धर्म निभाया था
सत्य को तपाया था।
सत्य तप कर और निखर आया था।
हरिचन्द्र!!!
सत्य से नहीं डिगे थे।
फूट फूट कर रोया था हृदय
फिर भी वो
अश्रुनीर में नहीं भीगे थे।

सत्य उस दिन 
जलते चिता में कहां भस्म हुआ था?
गर्व से 
सिर ऊंचा किये
आसमान को छुआ था।
सत्य!!!
है अजर !अमर!!
नश्वर मिथ्या को भस्म करता 
महा श्मशान घाट।
अनवरत जलते चिता
के साथ
सत्य से अवगत कराता है।
असत्य का आवरण हटाता है।
'हरिश्चन्द्र घाट'
काशी!!!मोक्ष द्वार!!
करता उद्धार।




अब क्या कहूॅ
🔏🔏🔏🔏🔏

रात आये कुछ इस तरह हसीन ख़्वाब,
ले आये तुम्हारी यादों भरी सुन्दर किताब,
कहीं चेहरे पर आईं उन ज़ुल्फों पर मन बँटा,
कहीं ज़ुल्फ़ों की दिखी सुन्दर सी काली घटा,
कहीं ऑखों में शरारत का अन्दाज़ था,
कहीं ऑखों में छिपा कोई राज़ था,
कहीं तिल की अलग शान थी
सौन्दर्य का एक संक्षिप्त बयान थी
बोलने का अन्दाज़ शायराना था,
होठों से निकलता हर शब्द दीवाना था,
होठों पर तो जैसे रसों का मेला था,
पर न जाने क्यों ये मन अकेला था।

वैसे बताऊँ ख्वाब बहुत पकाऊ होते हैं,
बेकार के ही बतियाऊ होते हैं,
आ गये नींद बेकार कर दी
किस्मत से तकरार भर दी।

स्वरचित 
सुमित्रा नन्दन पन्त 
जयपुर

आज का विषय चोका जापानी गीत विधा,
पानी लिखे वसुधा के गीत,
-------------------------------

पानी लिखता,
वसुधा की कहानी,
हंसते प्राणी,
हर पल लिखता,
जीवन गीत,
पानी से खुश हाली,
गाते हैप्राणी,
जल प्राणों का रानी,
निर्मलजल,
जीवन दायिनी है,
प्राण सरसे,
वसुंधरा हरषे,
मेघ बरसे,
नभ में विचरते,
बादल बन,
जल मोती भरते,
मेघ देवता,
प्यासी धरती मांगे,
शुष्क अधर,
रसमय कर दो,
मेघा पानी दो,
घमंडी सूरज का,
तोड़ दो प्रिय,
उसका अहंकार,
ऐसे बरसों,
अंग-अंग सींच दो,
हंसे प्रकृति,
ताल तलैया हंसे,
मैहंसू,जंग भी हंसे।।
देवेन्द्र नारायण दास बसना छ,ग,।।६२६६२७८७९१, मोबाइल नं।




*गजल*
बात पूरी ना सही,कुछ कुछ समझ आती तो है।
ये सियासत भी ,बदलते वक्त की साथी तो है।

कुछ कहेंगे कुछ करेंगे ,क्या करें इनका यकीं।
मतलबों से बात इनकी भी ,बदल जाती तो है।।

देश को किस राह पर, लाकर खड़ा है कर दिया।
देखकर हालात अब ये, रूह डर जाती तो है।।

चल अमन ओ चैन का,दरिया कहीं होगा जहां।
इस नदी की धार में ,ठंडी हवा आती तो है।।

अब बदलता वक्त भी ,हमको पुकारे सुन जरा।
चल पड़ें सब साथ,तस्वीरें बदल जाती तो हैं।।
------------🙏

प्रमोद गोल्हानी "सरस"
कहानी-सिवनी म.प्र.


" प्रीत के धागे"
आंखों में बसा था
ख्वाबों का एक शहर

सागर सा गहरा कोई अपना सा
मन में रह गया ठहर

धड़कनें शोर मचाती रही
लहरें थीं तेरी यादों का सफर

सागर तट बैठ सोचती रही
क्या अब भी हो बेखबर

सागर भी सिमटता रही
देख मेरी बेबसी का कहर

घुट-घुट कर पीती रहीं
तेरी जुदाई का जहर

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल



" रेत और ज़िन्दगी "

वक़्त है रेत की भांति प्रीतम
आओ प्रेम के साथ बहें हम
चलो भरपूर जी लें ये सफर
यादें गठरी भरी रहे न हों कम
माना तुम्हें नहीं आता प्यार जताना
तुम्हारी आदतों से ही मैंने ये है जाना
धूमिल ज़िन्दगी होने से पहले
रेत अंजुली से निकलने से पहले
एहसासों के हवा होने से पहले
हाथ थाम कर लो इक़रार ए इश्क
मैं नहीं जाना चाहती मिलन से पहले
यूँ तो फिसल ही रही रोज़ ज़िन्दगी हाथों से 
हर पल,हर लम्हा चलो कर लें सराबोर प्रेम से
डर है कहीं खो न जाऊँ इस रेत के अंधड़ में
थाम लो प्रिय कहीं दूर न हो जाऊं मैं तुम से

स्वरचित
स्वपनिल वैश्य " स्वप्न"
अहमदाबाद


विषय- विलोम- शब्दयुग्म
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देव-दनुज, मानव- दानव मे, पाप-पुन्य तकरार है ।
एक उजेला दूजा तम का, रखे सदा विस्तार है ।।

-1-
तेज स्वयं निस्तेज बने जब, सुकर्म-कुकर्म मे बदले ।
सत्य-असत्य छिपा सकता गर,असली हो नकली चेहरे ।।
नर-नारी, मिथ्या और सच का, मनमे रखें विचार है ।
एक उजेला दूजा तम का, रखे सदा विस्तार है ।।

-2-
अच्छे-बुरे विचारों को, दिन-रात समझकर कर्म करें ।
सुख-दुख मे ही हार-जीत है, भाव-कुभाव विनम्र करें ।।
जीवन-मरण और उदय-अस्त का, मृत्यु द्वार संसार है ।
एक उजेला दूजा तम का, रखे सदा विस्तार है ।।

-3-
आस्तिक-नास्तिक विवश बनें जब,अनुकूल समय प्रतिकूल बने ।
पालक-संहारक सा लागे, अमृत-विष भरपूर दिखे ।।
गुण-अवगुण का बने न " राही ", नफरत बनता प्यार है ।
एक उजेला दूजा तम का, रखे सदा विस्तार है ।।

राकेश तिवारी " राही " स्वरचित

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गीतः
सत्य संकल्प लेकर , बढ़ें हम सभी;
शीश-आतंक , निर्भय चढ़ें हम सभी;
शान्ति का शुभ्र उत्पल ,खिलेगा तभी।

अर्थ के दास कायर अतंकी अबुझ,
नाम मनुजत्व बदनाम करते असुझ।
माँ - बहन - बेटियों की , शरम लूटते,
रक्त पी बेकसूरों का' , गम घूँटते।
'हिन्द जय' बोलकर,जोश भर हम सभी;
चल पड़ें रोध-गढ़ , तोड़कर हम सभी;
विश्व को शान्ति - संबल मिलेगा तभी।
शान्ति का शुभ्र - उत्पल खिलेगा तभी।।
चन्द्र-मौली - कपाली महाकाल हम;
रौद्र काली सजे मुण्ड की माल हम।
हम नृसिंहावतारी भरत -भूमि पर,
गुंजरित स्वर हमारे अनश्वर-अजर।
नाद बज्रांग हुंकार , भर हम सभी;
चल पड़ें कर विकम्पित,धरा-नभ सभी।
कर विजय - लक्ष्मी का, हिलेगा तभी।
शान्ति का शुभ्र उत्पल ,खिलेगा तभी।।
पग बढ़ें , बढ़ चलें , फिर न पीछे हटें;
लक्ष्य पूरा करें , प्राण - पण से डटें।
आत्म - उत्सर्ग कर, मातृ - भू के लिए; 
वर अमर कीर्ति , वीर - प्रसू के लिए।
हों अमृत -पुत्र शाश्वत सजग हम सभी;
अक्षरी अंश , डगमग न हों , हम सभी।
वज्र - आघात झेले , झिलेगा तभी।
शान्ति का शुभ्र उत्पल,खिलेगा तभी।।

--डा.उमाशंकर शुक्ल'शितिकंठ'



ऊंचाई पर जाकर जो, 
भूल जाते है जमीन को।
देख लें एक बार सिर्फ,
उस ऊंचे पेड़ खजूर को।।

काफिला बनाने की जिद,
करनी पड़ती है दिल से यार।
खोना पड़ता है कभी कभी,
इसके लिए अपने वजूद को।।

सोचना अब तो अकेले होगे,
किसे किसकी कितनी जरूरत।
कही सर ना पीटना पड़े,
रोएं फिर अपने फूटे नसीब को।।

तो अच्छा है जमीन पर रहें,
बने सहारा निशब्द रहकर ही।
नाम भले पत्थरों पर ना हो,
भूलेगा नही तब कोई गिरीश को।।

#सोचना
#गिरीश 18.11.2018





सुख -दुख नाम जिंदगी
पल में "धूप" और "छाँव" 
कैसा "हर्ष- विषाद" फिर 
चलना ही है हर ठाँव ।

"फूल- काँटे" दोनों से ही
सज उठते हैं गुलशन
एक दे खुशियाँ सदा तो 
दूजा देता बस चुभन

"जीत -हार" की बाजी है
फैली पल- पल बिसात 
कभी किसी को "शह" मिलती 
और किसी को मिले "मात।"

चलता है "निशी- दिवस" संसार में अजीब खेल
कहीं "नफरत "की ज्वाल 
और कहीं "प्यार" का मेल।

जीवन के कई रंग है
"तिमिर" कहीं "उजास" 
प्रेम कभी मरता नहीं 
कोई "दूर" रहें या "पास"

"शान्ति" कहाँ इस जग में 
है जीवन इक संग्राम 
रोक सका है कौन रे ?
है आता जब "तूफान"। 

"जीवन- मृत्यु" समय संग 
है सदैव नियति के हाथ
राम नाम कर ले जाप 
कोई ना आएगा साथ।

स्वरचित
सुधा शर्मा 
राजिम छत्तीसगढ़ 
18-11-2018




मैं हूँ 
पर मेरा अस्तित्व क्या है ?
इस समस्त सृष्टि में 
तृण मात्र , 
धूल मात्र ,
तुहिन कण मात्र ,
या महज़ बिंदू मात्र !
यह तय कर पाना ,
शायद ,मुमकिन न हो 
इस दिशा में प्रयास करना भी 
अंतहीन आसमान की परिधि को मापने जैसा
या,
इंद्रधनुष के दो सिरों को पाने जैसा है !
मगर,
सुबह- सबेरे ऊगते सूरज को
पेड़ों की शाख़ों से छनकर हरित धरा को 
अपने में समेटता देख 
मेरे मन का भाव विभोर हो जाना।
वसंत ऋतु के आगमन में
दिशाओं का नव वधू सा 
सजते संवरते देख
मेरे मन का पुलकित हो जाना ।
साँझ ढले क्षितिज में चमचमाते सूरज को
चाँद को निमंत्रण देकर
सागर में विलीन होता देख
मेरे मन का रोमांचित हो जाना ।
माँ का अपने नवजात शिशु को
अपलक निहारते देख 
मेरे मन का विस्मृत हो जाना
गोधूली की बेला में 
निज गृह लौटते खगवृंद का 
मधुर कलरव देख 
मेरे मन का विस्मित हो जाना ।
पतझर में शाख़ से जुदा होते 
पत्तों का मौन रुदन देख 
मेरे मन का क्षत विक्षत हो जाना ।
आँखों को चकाचौंध करने वाली रौशनी कहीं
और कहीं पसरता अँधेरा देख
मेरे मन का भ्रमित हो जाना ।
कया मेरे अस्तित्व को प्रमाणित नहीं करता ?
तृण मात्र ही सही,
धूल मात्र ही सही,
तुहिन कण मात्र ही सही,
एक बिंदू मात्र ही सही,
जब तक मैं हूँ 
मेरा अस्तित्व भी है ।
और ,यही सत्य है !
(C)भार्गवी रविन्द्र ....oct 2018

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