Wednesday, April 29

" मनपसंद विषय लेखन"27अप्रैल2020

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ब्लॉग संख्या :-719
विषय मन पसन्द लेखन
विधा काव्य

27 अप्रेल 2020,सोमवार

काली रात अम्बर में छाती
आच्छादित होती कालिमा।
बाल सूर्य उदित होता तब
खिल उठती जग लालिमा।

तपती धरती बरसे अंगारे
जेष्ठ माह जब आता भू पर।
त्वचा जले बबंडर चलते
बादल छाते आकर नभ पर।

दुःख चिंताए अति आवश्यक
सदा सीख सिखाती हम को।
नहीं किया पीड़ा का अनुभव
वह क्या जाने सुन्दर सुख को?

कोरोना अति कठिन परीक्षा
हमें लड़ना है डरना नहीं है।
हम मानव नित आगे बढ़ते
कभी काल से डरते नहीं हैं।

जग श्रेष्ठ हम नर कहलाते
भय हमने सीखा कभी नहीं।
कोरोना ओरोना आखिर क्या?
हम भारतीय डरते कभी नही

है वैभवशाली अतीत हमारा
हम फ़ौलादी सीने से लड़ते।
जँहा चरण पड़ते महामानव
कष्ट संकट नित दूर ही रहते।

स्वरचित,मौलिक
गोविंद प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
विषय : स्वतंत्र लेखन
दिनांक : 27.04.2020

विधा : कविता

शिक्षा कहती है
उस भगवान से डर।
शिक्षा कहती है
तू गुनाह न कर।
शिक्षा कहती है
रख दुनिया की खबर।
शिक्षा कहती है
ना रह बेखबर।
शिक्षा कहती है
उतार तनाव का ज्वर।
शिक्षा कहती है
जी चाहे वो कर।
शिक्षा कहती है
बोल मीठे मीठे स्वर।
शिक्षा कहती है
कदर माँ बाप की कर।
शिक्षा कहती है
अपराध न कर।
शिक्षा कहती है
तू संघर्ष कर।
शिक्षा कहती है
तू सही है तो मत डर।
शिक्षा कहती है
सामना बाधाओं का कर।
शिक्षा कहती है
सहायता निर्धनों की कर।
शिक्षा कहती है
दुःखियों के दुखों को हर।
शिक्षा कहती है
मत रह गवार बनकर।
शिक्षा कहती है
जी इंसान बनकर।
शिक्षा कहती है
बन तू सच्चा हमसफ़र।
जी तू इंसान बनकर, जी तू इंसान बनकर।।

(सच मे शिक्षा बहुत कुछ कहती है,
जो कहती है अच्छा कहती है, सच कहती है।
जरूरत तो है बस चुपकरके सुनने वाले की और शिक्षा के बताए रास्ते पर चलने वाले की)

स्वरचित
सुखचैन मेहरा
विषय - स्वतंत्र लेखन
विधा- कविता

😩😭😩

।। शहर आए मजदूर की पीड़ा ।।

अब अखरने लगी है ये दिल्ली ।
अच्छा था घर पर पालते बिल्ली ।।

लुटाते उस पर ये प्यार भरपूर ।
इंसानों में तो नही दूर दूर ।।

कर लेते छोटा सा रोजगार ।
हो जाती ये जीवन नैया पार ।।

यहाँ तो बिमारी का अंबार है ।
और अब ये करोना की मार है ।।

जिसका अब तक नही उपचार है ।
कर दिया लाचार को लाचार है ।।

बड़े तो मस्त हैं मौज़ बहारों में ।
छोटे हैं भोजन को कतारों में ।।

अब आगे कब क्या कुछ है होना ।
यह बताएगा हमको कोरोना ।।

क्रिकेट की कॉमेन्ट्री से सुनें हाल ।
होय मरीजों की संख्या विकराल ।।

प्रभु घर पर दे सबको रोटी दाल ।
नही हैं बड़े शहर 'शिवम' खुशहाल ।।

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 27/04/2020

मुंबई गुम सुम हैं

हर समय चकाचौंध,

रेल पटरी पर दौड़ती ।
भीड़ भरें स्टेशन,
भागते लोग,
सब सुनसान हैं ।
मुंबई गुमसुम हैं ।

गरीब हो या रंक,
रहते यहाँ निशंक ।
नही फुरसत यहाँ,
किसी को रुकने की ।
नही बात करता,
कोई यहाँ थकने की ।
लग रही थमी थमी सी ।
मुंबई गुमसुम हैं ।

हर पल चारों तरफ नूर ।
मुंबई कर होने का,
सबको गुरुर ।
देती जिसको जो चाहे,
नहीं कोई सुरुर ।
रुकी है अब अावाजावी,
गाडीयों की भूर भूर ।
मुंबई गुमसुम हैं ।

देखें हैं उसने,
कई चढ़ उतार ।
बारिश हमले,
कई प्रकार ।
निर्गुण निराकार,
करता हर बार,
उसकी नैया पार ।
अभी भी करना,
संकट निहार ।
अाएगी मुंबई में,
फिर बहार ।

प्रदीप सहारे
दिनांक 27।4।2020 दिन सोमवार
विषय स्वतंत्र लेखन पद्य


भारत की बेटी

कन्याकुमारी से कश्मीर तलक यह एक राष्ट्र दिलवाला है।
भारतमाता के मस्तक पर शोभित गिरिराज हिमाला है।।
तीन रंग का ध्वज भारत का गौरव गान कराता है।
भारत का बच्चा-बच्चा उसपर निज जान लुटाता है।।
वाणी एक विचार एक है, हृदय एक है भाव एक है।
दीप एक है ज्योति एक है, चाह एक है चाव एक है।।
बेटियाँ अकम्पित भाव लिए, करती हों जहाँ निगहबानी।
उनकी अदम्य पौरुष गाथा का नहीं कहीं कोई सानी।।
जहाँ देशभक्ति रग-रग में हो,और रोम-रोम मतवाला हो।
दुश्मन क्या आँख दिखाएगा, चाहे कितना बल वाला हो।।
प्रण करती हूँ मैं भुजा उठा,दुश्मन को मार भगाऊँगी।
जो भुजा वस्त्र तक आ पहुँचे, उसको मैं काट गिराऊँगी।।
हम वीर बाल हैं भारत के, संसार एक दिन देखेगा।
दुनिया का होगा श्रेष्ठ देश,ध्वज विश्व गगन में फहरेगा।।
बेटियाँ बढ़ रही हैं आगे,मानवता के अरि सावधान।
अहि फन सम कुचलेंगी तुमको,खुद को बदलो मत बन अजान।।

फूलचंद्र विश्वकर्मा

दिनांक-27/04-2020
विषय - नया सवेरा


पथ पर चला पंथी अकेला
संग लेकर स्वर्णिम रश्मियों का मेला।
भास्कर का दो उदय हुआ
ढूंढ रहा है नई यामिनी का डेरा।।
व्यथित था रजनी के अंगों पर
दिग्भ्रमित होकर अपने दर्द को उकेरा।
कंटक राहों पर चलकर
पथिक ढूंढ रहा है जीवन का नया सवेरा।।
स्मृतियों की बांहों में यामिनी
व्यथित व्याकुल खड़ी थी।
दृग में अश्रु छलके उषाकाल की बेला।।
उत्कर्ष हर्ष का लिए किरन अंबर में
पथिक ढूंढे जीवन का नया सवेरा।

मौलिक रचना
सत्य प्रकाश सिंह
प्रयागराज
भावों के मोती
विषय - मनपसंद।
शीर्षक - देश का भावी भविष्य??

भूख जब जगती मन में तो
पहले अपना पेट समझ आता है।
जब हो ज्यादा तब
अपनों का भी ख्याल आता है।।

यह हैं वो बच्चे जो भटक रहे
मां बापू के पापों को गटक रहे।
छोड़ दिए भूखे नंगे
खुद अपना पेट पालने को।
मिल जाए जो कहीं भीख,दान
पेट की भूख मिटाने को।।

यह हैं कुछ भाग्यशाली?
जो मिल गया पैकेट में सुच्चा खाना।
वरना तो ढूंढ रहे होते
कहीं गंदगी में पड़ा हुआ
झूठन टुकड़ा या सड़ा हुआ दाना।।

पर क्या हैं ये
हमारे देश के कर्णधार?
भावी भविष्य या....
या प्रश्न चिन्ह???
***


प्रीति शर्मा"पूर्णिमा"
27/04 /2020

दिनांक :- 27/04/2020
वार :- सोमवार

विषय :- मनपसंद विषय लेखन

स्त्री !
स्त्री वो शब्द है जिसमें सम्पूर्ण संसार समाया है
स्त्री वो शख्स है जिससे चारो ओर उजाला छाया है
हर रुप में अपनी एक अहम भूमिका निभाती है
संपूर्ण परिवार को एक माला में पिरो जाती है
खुद दिपक की तरह जल कर हमें उजाला देती है
जिंदगी के हर मोड़ पर हमारा सहारा बनती है
घर हो या सरहद खेल का मैदान हो या जंग का मैदान
हर क्षेत्र में कंधे से कंधा मिला कर चलती है हर क्षेत्र में अपना नाम करती है
स्त्री खुशहाली का रंग है ममता का स्वरुप है
स्त्री त्याग का प्रतीक है स्त्री सम्मान का प्रतीक है

स्वरचित रचना
- प्रतिक सिंघल

27/04/2020
मनपसंद विषय लेखन


**काली बिल्ली **
एक गहरी काली रात में।
मगन दो जन थे शह-मात में।।
भवन बंद कपाट में किल्ली।
बातें थी पर केवल खिल्ली।।

दौड़-दौड़ कर आँखें फाड़े।
दूजा, बिन आँख ही ताड़े।।
खोज रहे वो बिल्ली काली।
भरकर गरल-गंग से प्याली।।

बिल्ली का कहीं निशान नहीं।
वो थी ही नहीं, गुमान नहीं।।
पकड़ कौन बिल्ली को पाया?
कबीरा मौन क्यों अपनाया?

बिन पावक सुलगे धुँआ-धुँआ।
धृतराष्ट्र पुनः अंधा हुआ।।
पट्टी पलक धरे गांधारी।
सम्मुख ही बैठी मार्जारी।।

अमरबेल झड़बेर तना है।
शैवाल सतहों पर घना है।।
विवश मराल बैठ पछताये।
चपल बिलैया कहाँ बिलाये।।
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
साथियों,
27/4/2020/सोमवार
मनपसंद विषय लेखन

*दिलवर दिलदार*
मुक्तक

दिलवर ओ दिलदार हम करते हैं तुमसे प्यार।
तुम बनकर रहना मेरे सनम करो इकरार।
कभी रुसवाई न करना न वेवफाई हमसे,
मंजूर अगर ये तुमको तो अभी करें इजहार।

हम मशहूर साथ में होकर नाम कमाऐंगे।
दुनियादारी क्या होती समझें समझाऐंगे।
रहें प्रेम प्रीत से मशगूल सदा संसार में,
मंजूर किया सनम प्यार यहां कुछ बतलाऐंगे।

तुम दिलवर हो दिलदार हमारे बनकर रहना।
सजन प्रेम प्रीत की पीग सदा बढ़ाकर रहना।
रुसवाई मंजूर नहीं ये अच्छी तरह समझें,
कभी वेवफाई नहीं तुम बस वफ़ा कर रहना।

जनम जनम तक साथ रहें हम ईश्वर कृपा करें।
अखिलेश्वर हैं संरक्षक अपने हम पर कृपा करें।
जहां अपना जीवन मरण परमेश्वर के हाथों,
रहें सदैव अलमस्त यहां कभी क्यों फिकर करें।

स्वरचित,
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र


*दिलवर दिलदार*
मुक्तक

विधा.. मनपसंद
विषय...सफर

ये जीवन का सफर,
यूहीं चलता रहेगा
क्यो होता है साथी
तू इतना विकल..
दुख सुख इक रेला है
इक पल इधर,इक पल उधर
नीर सा बहे इधर उधर..
ये जीवन का सफर भी
यूहीं चलता रहेगा..
माना, जीवन मे आते कष्ट,
कुछ सिखाते,कुछ घबराते
पर तू सम्भल,मत हो विकल
ये गम की परछाईयाँ है.
सुख के आते ही गायब ,होगी,
भोर आते ही तम जैसे जाता गुजर
अरे मानव तू क्यो होता विकल,
युद्व के मैदान मे सैनिक,
लडता आखिरी लम्हे तक,
और जीतता है !यही तो सफर है,
और हमे हर साल मे इसे,
तय करना है बिना रूके।।
स्वरचित
ऋतु

नमन भावों के मोती
२७-०४-२०
विषय-भविष्य का विश्व और भारत

भविष्य का विश्व और भारत
—————————-
भविष्य वाला विश्व चलेगा
भारत के पदचिह्नों पर,
उनके चलने हेतु भारत ही
नए मार्ग बनायेगा।

जिन बातों की कभी हँसी
उड़ाते थे विश्व के देश,
आज उन्हीं बातों पर उनका
लगा है पूरा ध्यान।

अपनी सभ्यता और संस्कृति
जीवन धन है अपना,
अपनाने को अब इसे सोचते
विश्व देख रहा सपना।

हाथ जोड़ नमस्कार करने को
अब विश्व भी है तैयार,
संकट में कैसे एकजुट हैं हम
सोच रहा बारंबार।

विश्व गुरु बनने की राह पर
अब भारत है तैयार,
श्रम, संयम, तप, त्याग, समर्पण
मार्ग को दे रहे आकार।

भारत के विश्व गुरु बनने की बातें
चारों ओर छा जायेंगी
सब देंगे एक-दूजे को समाचार
वो सुबह कभी तो आयेगी।
———————————
डा० भारती वर्मा बौड़ाई
(स्वरचित)


27/04/2020
विषय -स्वतंत्र लेखन

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अभिनंदन गीत
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अभिनंदन..... ...अभिनंदन.....
अभिनंदन...........अभिनंदन.....

यह मंच सजा है प्यारा।
बहे सुंदर काव्य की धारा।।
सबकी लेखनी का हम तो।
अब करते हैं हम वंदन।।...

अभिनंदन......अभिनंदन.....
अभिनंदन.......अभिनंदन..... ....

फैले किरणें अब जग में।
बनकर रवि पुंज सदा ही।।
चहुँ ओर अब तो फैला।
साहित्य की गुंज सदा ही।।
माँ शारदे का हम सब तो।
नित नित करते हैं वंदन।।.....

अभिनंदन.......... अभिनंदन.....
अभिनंदन........... अभिनंदन..... ....

लेखनी में हो अब पावनता।
दिखे जग में अब तो मानवता।।
साहित्य के दीप जलायेंगे।
अंधियारा जग से मिटायेंगे।।
आप के स्वागत में हम तो।
करते हैं नित नित वंदन।। .........

अभिनंदन......अभिनंदन.....
अभिनंदन...... अभिनंदन..... .......
....भुवन बिष्ट
रानीखेत (उत्तराखंड)
(स्वरचित/मौलिक रचना)

दिनांक - 27,4, 2020
दिन - सोमवार

विषय - जीवन (मन पसंद लेखन)

एक बार बस जीवन मिलता,
बात नहीं ये कौन समझता।
फूल और काँटों का संगम -
ज्ञानी इसको जीवन कहता।।

जीवन का आधार कर्म है,
भले बुरे का ज्ञान मर्म है।
राह नहीं वो कभी भटकता -
जिसके उर में बची शर्म है।।

मकसद जीवन का पहचानें,
दुःख दर्द दीनों का जानें ।
दिवस बिताये खाते सोते -
अनादर भगवान का मानें ।।

स्वरचित, मधु शुक्ला .
सतना , मध्यप्रदेश .
नमन मंच -भावों के मोती।
दिनांक-27-04-2020

सोमवार ।
विषय- रक्त
माँ के गर्भ में एक रक्त की बूंद से नवसृजन हुआ।
बना सूक्ष्म नन्हा सा रक्त का पुष्प सजीव बना।
जन्म हुआ मेरा रक्त आकार लिऐ।
दूध भोजन पानी हवा ने लहू रंग दिया
बह रहा लहू रग -रग नस -नस में भरपूर ।
चलना, फिरना ,दौडना ,भागना भी भरपूर ।
कट फट जाये तो निकले लहू।
रोए भी तो आँसू रक्त है का एक प्रारूप ।
कितना पानी कितना लहू है शरीर में रक्त रूप।
क्रोध बढ़े तो रक्तसंचार गर्माहट लाऐ क्रोधित रूप।
बी०पी०,ब्लड प्रेशर, शुगर सब लहू के रूप ।
रक्त जब पानी बन जाऐ छोड जाऐ ये मृत रूप ।
अंत में लहू भी छोडे साथ न बैरी, न मित्रता न प्रेम, सब छूटे, छूटे मृत शरीर ।
ले जाओ इस मृत काया को लकडी की डोली में !!!!
जला दिया रक्त और पानी और अस्थि पिंजर को पल भर में
माटी का ढेर बन गया। लहू और शरीर मोह माया को
रोया लहू अपनी बरवादी पर।
न जीते जागते रक्तदान किया खाया पिया
पचाया और जोड़ा धन।
खाली आया खाली जाना रे मन के रूप।
किसी के जीवन को तन मन न दान किया
रक्तदान अंगदान महादान।
स्वरचित ।
पूनम कपरवान।
देहरादून।
उत्तराखंड

27 - 04 - 2020
मन पसंद विषय लेखन
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
"बुराई का समर्थन क्यों"
******************

महिषासुर का महिमामंडन,
करते देखे लाखों लोग।
लगे पूजने रावण को भी,
कैसा आया यह दुर्योग।।

बहकाते हैं ये लोगों को,
जिनको नहीं तनिक भी ज्ञान।
अय्याशी में अव्वल था जो,
अकबर को ये कहें महान।।

तार तार कर दी मानवता,
रचता था वो नित्य फरेब।
मान रहे पैगम्बर उसको
बड़ा दुष्ट था औरंगज़ेब।।

जे अन यू के बुद्धीजीवी,
नफरत फैलाते हैं रोज।
संख्या इनकी बहुत बड़ी है,
आओ कर लो इनकी खोज।।

वामपंथ का कुत्सित चेहरा,
करे शहीदों को बदनाम।
आतंकी भी कह डाला था,
लिया भगत सिंह का भी नाम।।

जो लिख डाला वही सत्य है,
भोली जनता लेती मान।
अजब बात, इतिहास सदा ही,
पापी को कहता श्रीमान।।
~~~~~~~~~
मुरारि पचलंगिया

तिथि-27/04/2020
विषय- मनपसंद


"ओ मेरे चाँद"
***********

मेरी खिड़की से झांकता चाँद
आज फिर बहुत कुछ याद दिला गया
कहाँ हो तुम?
आज तन्हा हूँ मैं
कभी साथ गुजारा हुआ वक्त
तुम्हारे साथ याद आता है
तब ये चाँद
हमारे दरम्याँ हुआ करता था
हमारा हमदम,हमारा हमराज चाँद
कर देता था हमें चाँदनी से सराबोर
आज चाँद है
पर तुम नहीं हो
देती हूँ आवाज तुम्हें
पर एकान्त से टकरा कर
लौट आती है मेरी हर एक सदा
मेरी हर उम्मीद,मेरा हर सपना
मायूस होकर
कभी इनके साथ तुम भी
लौट आओ ना!

अनिता निधि
जमशेदपुर
विषय : स्वतंत्र लेखन
दिनांक : 27.04.2020

विधा : लघुकथा

बुजुर्गों से मिली सीख

बात उस समय की है जब मैं अपने दोस्तों के साथ शिमला घूमने गया था। इसी दौरान मेरे पास फोन आया कि "शिवम, तेरी अम्मा शहर के सरकारी अस्पताल में है" इतना सुन मेरे पैरों तले जमीन निकल गयी।

मैं उसी शाम घर के लिए निकल पड़ा। मैं सीधा अस्तपताल पहुंचा, माँ के वार्ड में। तब माँ को ठीक हालत में देखकर मेरे सांस में सांस आये।

मैंने कहा, " माँ अपना ध्यान रखा करो"

मेरी बुजुर्ग माँ बोली, "बेटा मेरी बात सुन, जितना ध्यान रखना था हम रख चुके अब आपकी बारी है हमारा ध्यान रखने की"

मतलब? मैंने माँ से पूछा।

बेटा जिस प्रकार तु बचपन मे अपना ध्यान रखने के लायक नहीं था तब मैंने तुम्हारा ध्यान रखा था और आज मैं अपना ध्यान रखने लायक नही हूँ तो तुम्हारा भी फर्ज बनता है कि मेरा ध्यान रखो।

मैं मेरी बुजुर्ग माँ से काफी प्रभावित हुआ और निर्णय लिया कि कभी माँ से अलग नहीं होऊंगा, उनका ध्यान हमेशा रखूंगा ।

लेखक कथन

ये सीख केवल मेरी माँ की ही नही बल्कि पूरे बुजुर्ग समाज की सीख है उपेक्षा है हम यवनों से।

स्वरचित
सुखचैन मेहरा

दिनांक 27 अप्रैल 2020
वार सोमवार

विषय मनपसंद

जीना है तो
कुछ दिन दूर रह ले
मित्रों से,मोहल्ले से,सब से
संक्रमण से देश लड रहा है
वो भी लड रहे हैं
जिनको हम नही जानते
जो हमे नही जानते
वो लड रहे रात दिन
डॉक्टर, पुलिस, प्रशासन
सफाईकर्मी, नर्स वगैरह सब
सबका एक लक्ष्य
कि हम सब स्वस्थ रहे
लेकिन हम तुम क्या कर रहे
सब मजाक समझ रहे
सबको यह खेल लग रहा
मैसेज विडियो चुटकुले
इधर से उधर कर रहे बस
या देखने निकल रहे बाहर
बिना किसी काम के ही
कि कौन क्या कर रहा है
अपनी व दूसरो की
जान को जोखिम में डालने
क्या होगा इससे सबका भला
नही कभी नही
अच्छा है इससे
एकांत मे रह ले
कुछ दिन अलग रह ले
अपने घर मे बंद रह ले
आओ सब सहयोग करे
छोटी सी कोशिश रंग लाएगी
बीमारी कोरोना दूर हो जाएगी

कमलेश जोशी
कांकरोली राजसमंद

मंज़िल

थक गई थी मैं
प्रहार थे ज़िंदगी के
हाँ गिर गई थी मैं।

ज़माना आया मुझे उठाया
थोड़ा समझाया
संभल गई मैं

गिरी थी
बेहाल पड़ी थी
संभल संभल के उठ गई मैं।

ज़िंदगी मुझको देख रही थी
दूर खड़ी वो देख रही थी
रूठी थी मुँह फेर गई मैं।

वो आई फिर पास मेरे
मुझे मनाने मुझे समझाने
थोड़ा रूठी पर खड़ी हुई मैं।

हिम्मत को वो साथ में लाई
दोस्ती उससे मेरी कराई
थामा हाथ चल पड़ी मैं।

गिरती उठती फिर संभलती
साथ मेरे थी हिम्मत भी
पहली सीढ़ी चढ़ गई मैं।

ज़माना आया
ज़ोर से चिल्लाया
देखा पीछे रुक गई मैं।

सहारा तुम्हें मैंने दिया था
तुम पीछे मैं आगे था
उसने खींचा बढ़ गई मैं।

ज़िंदगी फिर से देख रही थी
वो आई मैंने भी आँखें मिलाई
बड़े गुमान से हँस दी मैं।

ख़ाली नहीं वो अभी भी आई
मेरे लिए अब कामयाबी लाई
किया अभिनंदन साथ ले चली मैं।

पकड़ के फिर दोनो का हाथ (हिम्मत,कामयाबी )
ज़माना भी था मेरे साथ
अपनी मंज़िल चढ़ गई मैं।

कंचन वर्मा
स्वरचित
नई दिल्ली
नमन मंच ------ *भावों के मोती*
दैनिक विषय ---- *मनपसंद विषय लेखन*

कविता का शीर्षक -- *आनन्द निधि*
कविता का विषय -- *अलंकृत सौंदर्य*
~~~~~~~~~~~~~~~~~~

नयन मे है आदित्य द्युति,
रोशन दीप तिमिर में।
सूर्य सी खिली धूप हो,
आनन्द निधि शिशिर में।

चंद्र किरण स्वेत कोई,
स्नेहि शुभांगी हो।
इंद्रलोक की मेनका,
सनिध कामांगी हो।

चंचल गति हृदय स्पंदन,
नयन गति झिर- झिर मे।
सूर्य सी खिली धूप हो,
आनन्द निधि शिशिर मे।

शोभन देह सुहासिनी,
रति संतृप्ति तुल्या।
कामदेव की सहचरी,
निरखिहिं छवि अमुल्या।

आदिदेव तकै कामिनि,
कामदेव शिविर मे।
सूर्य सी खिली धूप हो,
आनन्द निधि शिशिर मे।

युवती योजन मुग्धेही,
निरिखहिं मन ललचाय।
अठिमील से देखि परत,
योवन रूप सुहाय।

निरखि वह्नि मौन साधले,
वह्नी खण्ड मिहिर मे।
सूर्य सी खिली धूप हो,
आनन्द निधि शिशिर मे।

कवि कल्पना मोहिनि हो,
या हो तुम साकार।
देही हो या विदेही,
रति तन मुख आकार।

निर्गुर मौन तोड़ने को,
हलचल बदन रूधिर में।
सूर्य सी खिली धूप हो,
आनन्द निधि शिशिर में।
~~~~~~~~~~~~~~~
स्वंय रचित रचना द्वारा--
मंगल डेढा उर्फ Nirgur Besur Sa
नई दिल्ली
~~~~~~~~~~~~~~~~~

#शब्दार्थ
आनन्द निधि = सुखदायक संपदा
द्युति = सूर्य का प्रकाश
तिमिर =जाड़ा
स्नेहि =प्रेम करने वाला / वाली
शुभांगी = सुंदर महिला
सनिध = मेल या समीप
कामांगी =मोहक अंग स्त्री
झिर-झिर = धीरे-धीरे
(विशेष)- झिर =झिरी
सुहासिनी = सुंदर हँसी हँसने वाली स्त्री
शोभन =शोभायुक्त
संतृप्ति =पूर्णतया संतुष्ट होने वाला भाव
योजन = दूरी का माप
मुग्धेही =मुग्ध कर देने वाली स्त्री
वह्नि =पावक, अग्नि
वह्नी खण्ड = सूर्य के समान धधकता गोला
रूधिर = खून, लहू
मिहिर = सूर्य, सूरज
भावों के मोती
दिनांक- 27/04/ 2020

दिन- सोमवार
आयोजन- मनपसंद विषय लेखन
शीर्षक-तुम कब आओगे
विधा- कविता
**************************************
मेरे इस दीवाने दिल को
कब तक ऐसे तड़पाओगे
सच बतलाओ तुम कब आओगे।

गुनगुनाते थे अक्सर तुम
देखकर मुझको जो गीत
गीत वो फिर कब गुनगुनाओगे
सच बतलाओ तुम कब आओगे।

तरस गई हैं आंखें तेरे दीदार को
सूरत अपनी कब दिखलाओगे
सच बतलाओ तुम कब आओगे।

बेचैन है ये दिल मेरा
तुझसे मिलने की चाह में
मुझे गले कब लगाओगे
सच बतलाओ तुम कब आओगे।

उम्र भर साथ निभाने का
वादा किया था तुमने एक रोज
वादा अपना कब निभाओगे
सच बतलाओ तुम कब आओगे।

दिन जिंदगी के हैं बहुत कम
झलक अपनी कब दिखलाओगे
सच बतलाओ तुम कब आओगे।

स्वरचित-सुनील कुमार
जिला-बहराइच,उत्तर प्रदेश।


भावों के मोती
दिनांक- 27/04/ 2020

दिन- सोमवार
आयोजन-मनपसंद विषय लेखन एवं ऑडियो-वीडियो प्रस्तुति
शीर्षक-खुशियों की तलाश में
विधा- कविता
*************************************
खुशियों की तलाश में
राह कांटों की चलना होगा
तप कर सोने की तरह
तुमको निखरना होगा।
देखें हैं जो तुमने ख्वाब सुनहरे
सच उनको करना होगा
दिन हो चाहे रात
आंधी हो या तूफान
तुमको निरंतर चलना होगा।
निकलोगे जब तुम घर से बाहर
खुशियों की तलाश में
ये दुनिया तुमको बहुत कुछ सुनाएगी
इतना कि आंखें तुम्हारी नम हो जाएगी
पर अश्रुधारा तुमको नहीं बहाना होगा
मंजिल की ओर कदम बढ़ाना होगा
सफलता जिस दिन तुम्हारे हाथ आएगी
यह दुनिया तेरे कदमों में झुक जाएगी
खुशियों पर राज तुम्हारा होगा
सुंदर कल वो तुम्हारा होगा।

प्रस्तुति-सुनील कुमार
जिला- बहराइच, उत्तर प्रदेश

तिथि-27/04/2020
विषय- मनपसंद विषय लेखन

शीर्षक - माँ

माँ....
नहीं मात्र एक शब्द,
ये है पूर्ण ग्रन्थ,
जिसको पूजे
हर पन्थ ।
माँ का ममत्व,
जहाँ में सर्वश्रेष्ठ
माँ के लिये सब समान,
कनिष्ठ हो या ज्येष्ठ ।
माँ.. जननी.. जन्मभूमि..
एक दूजे के पर्याय..
इनकी रक्षा की खातिर
चाहें रक्त भी बह जाये..

- मोहित अग्रवाल
(स्वरचित)

दिनांक 27/04/2020
विषय-मनपसंद लेखन


विनती "

हाथ जोड़ विनती करूं ,
करूं मैं बारंबार।
प्रभु मोरी विनती सुन लीजिए ,
सुन लीजिए करुणाधार।।

हे दया निधि प्रभु दया करो ,हम पर भीर
पड़ी है भारी ।

काटो तुम प्रभु तम के बंधन को, कष्ट हरो तुम
हे त्रिपुरारी।

जग पर विपदा आन पड़ी है, दूर करो
हे बनवारी ।

कष्टों को तुम हरने वाले, कष्ट हरो
हे कृष्ण मुरारी।

जग का पालन करने वाले, दया करो
हे पालनहारी ।

हे दयानिधे प्रभु दया करो.......

जगत की रक्षा करने वाले, जगत पिता
अब आ भी जाओ ।

सबकी रक्षा करो प्रभु तुम ,नया रूप
दिखला जाओ ।

हे प्रभु अब आ भी जाओ.....

आरोग्य के देवता, हे सूर्य देव, हर काया करो
निरोगी प्रभु।

स्वर्णिम किरणों में तेज भरो,इस महामारी को
दूर भगाओ प्रभु ।

हे दयानिधे प्रभु दया करो........।।

स्वरचित, मौलिक रचना
रंजना सिंह प्रयागराज

27.4.2020
सोमवार

आज का आयोजन
मनपसंद
प्रस्तुत है कुछ मन के भाव

अकेलापन

अकेलेपन के
अँधेरे से
मन ऊब चला है
अब वह
कोलाहल की
तलाश में है
कहीं से कोई
पदचाप
की आहट
सुनाई दे
अपनों को
साथ ले आए
जीवन में
नए पन का
उजाला
थोड़ा सा तो
भर जाए
जीवन फिर से
गतिमान हो सके
बाहर का शोर
अब
अंदर उठने लगा है
असीम शांति
भी
जीवन में
उथल-पुथल
मचाती है ।।

डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘उदार ‘

दिनांक-27-4-2020
विषय-मनपसंद लेखन


"मन की डोर"


जो मिला है उसी में संतोष धरे रहना
मन की डोर को उम्मीद के धागे से बांधे रखना
संतोषी स्वभाव तो होता है बड़ी नियामत
अधिक की आस को मन में कदापि न रखना
बिन प्रयास किये कितना कुछ मिला है रब से
उसका सदा शुक्रिया अदा करते रहना
अति संग्रह की आदत है बुरी बीमारी
सरल निर्मल मन को भार हीन सदा ही रखना।
सुखी है वही इंसां,जिसने मन को अंदर मोड़ा
थोड़ा है थोड़े की आस में प्रसन्न मन को रखना।।
शुद्ध भाव विमल हृदय हैं प्रभु को भाते
ईश्वर के प्यारे वंदे तुम हमेशा ही बने रहना।।

*वंदना सोलंकी मेधा*©स्वरचित
25-4-2020
आज फिर से
बहुत खल रहा है अकेलापन
याद ही नही मुझे
कि कब हुई थी
मेरे तुम्हारे बीच अनबन
याद ही नही मुझे कि
क्या था अनबन का कारण
याद ही नही मुझे कि
तुमने मुझे मनाया भी था
गीत प्यार का कोई
गुनगुनया भी था
याद नही मुझे कि
देखा भी था तुमने
जाते हुए मुड़कर
रोक लेते शायद
तुम मुझे बड़कर
हाँ इसिलिए खल रहा है मुझे
अकेलापन
कि यादों का नही है सहारा
तन्हाई ने इस तरह घेरा है
कि क्या करे दिल मेरा बेचारा

स्वरचित
सूफिया ज़ैदी
विषय-मनपसन्द लेखन
दिनाँक-27/04/2020


🍁हाइकू🍁

 सूखा चमन।
तपती दोपहरी।।
जले बदन।
लकड़हारे।
पेड़ो को काटकर।।
छांव निहारे।
बने दरिन्दे।
शज़र काटकर।।
मारे परिन्दे।
भरे बाज़ार।
परिन्दो को हो गया।।
तारों से प्यार।
बांध परिंडे।
जेठ की तपन से।।
बचा परिन्दे।
हमारा फ़र्ज।
दो पेड़ लगाकर।।
उतारो कर्ज़।
"ऐश" पुकारे।
पेड़ पौधे लगाके।।
धरा श्रंगारे।
🍁ऐश...(स्व रचित)🍁
🍁अश्वनी कुमार चावला"ऐश"
दिन - सोमवार
दिनांक - 27/04/2020

विषय - मनपसंद लेखन


गुड्डा-गुड़िया

बहुत याद आते हैं मुझे,
बचपन के गुड्डा गुड़िया ,
कितने प्यारे दिन थे वो ,
जहां होती थी बस मस्तियां ।

जिस पर लगाते थे हल्दी,
और कराते थे उनकी शादी,
हम बनते थे लड़की वाले,
दोस्तों को बनाते थे बाराती ।

दहेज भी रहता था देने को
घर वालों से मंगते थे सिक्के
मिल बांटकर खा जाते थे
जो भी खरीदते उन पैसों से ।

रसोई में बनता था खीर पूरी,
मम्मी के हाथ के लड्डू, गुझिया,
एक बार चखने को मिले जाये,
तो चाट लेते थे अपनी ऊंगलियां ।

दीपमाला पाण्डेय
रायपुर छग
स्वरचित
दिनांक 27-04-2020
विषय- मृगतृष्णा


बड़ा अनोखा है सफर यह,
भ्रम में यहां जिंदगानी है ।
वैभव,ऐश्वर्य,सुख की चाह,
मृगतृष्णा यह रेगिस्तानी है ।

हासिल करने को आतुर नित,
मन व्यथित मौन क्रंदन करता ।
यथार्थ नहीं कल्पित है किंतु,
मिथ्या मृगतृषा वंदन करता ।

पथरीला रेतीला मग जीवन,
कंटक शूल कई राहों में
मृगमरीचिका में गुमराह,
मन न सुख की पनाहों में।

रूप अनेक हैं मृगतृष्णा के,
तन मन धन मधुबन इच्छा ।
सुख समृद्धि व यश प्रतिष्ठा,
अप्राप्य बिन कठिन परीक्षा ।

प्राप्त नहीं यह सकल सुख,
भीषण अतृप्ति हमेशा रहती।
क्षुधित तृषित बावरा जीवन,
मन सरिता में वेदना बहती ।

मृगतृष्णा भटकन चित्त की,
तपन जलन गरल बन जाए।
कामनाएं उत्पन्न अपरिमित,
अंतस में यह दुख उपजाए।

सुख लिप्सा का अंत न कोई,
एक बुझे असंख्य पनपती।
आत्मसंतोष अबूझ अनगढ़,
मृगतृष्णा आमरण जनमती।

प्रयास जितेंद्रिय करें यदि तो,
मन मरीचिका न विकल बने ।
कर्म करें फल हेतु न भटकें,
मानव जीवन यह सफल बने।

कुसुम लता 'कुसुम'
नई दिल्ली

★आयोजन👉मन पसंद विषय लेखन
★दिनांक👉२७-०४-२०२०
★दिन👉
सोमवार
★शीर्षक👉हमें यह देश प्यारा है
★विधा👉विधाता छंद
मात्रा भार:-१४,१४ पर यति(कुल २८)
🌼👇रचना👇🌼

हमें ये देश प्यारा है,यहाँ का वेश प्यारा है।
यहाँ के शैल भी प्यारे , यहाँ का खेल प्यारा है।।०१।।

यहाँ के लोग हैं प्यारे, रहे जो वीरता धारे।
यहाँ पन्ना अहिल्या भी , सदा जो प्राण को वारे।।०२।।

नहीं है वीर जी ऐसे , कहीं भी देखिए जाओ।
यहाँ राणा शिवा बन्दा ,सभी के गेह में पाओ।।०३।।

यहाँ की नारियाँ सारी , हया की मूर्तियाँ न्यारी।
खिलाएँ ईश गोदी में , कहे श्रद्धालु संसारी।।०४।।

हमेशा धैर्य को साधें , न डालें वे कभी काँधे।
कहा प्राणेश का मानें, जपें वे नित्य श्रीराधे।।०५।।

उठा स्वातंत्र्य का बीड़ा , किया आजाद भारत को।
चटाई धूल उनने भी , दिया सुख सत्य आरत को।।०६।।

हमारा है नमन उनको , चढ़े जो वीर हँस फाँसी ।
अरे आजाद भारत हो,गए जो खेल बिलगाँसी।।०७।।

भुलाते हम नहीं उनको,चढ़ाते अर्घ्य हम उनको।
गँवाए प्राण हँस-हँस जो,सदा करते नमन उनको।।०८।।

रहें हिलमिल सभी भाई , बने यह देश भी न्यारा।
इसे सर्वस्व दे अपना , रहे ये तंत्र भी प्यारा।।०९।।

रचें कवि दिव्यतम कविता , मनोहर शान्ति हो शुचिता।
बहे सुख नेह की सरिता , रहे पूज्या सदा वनिता ।।१०।।

न हो कोई तेरा मेरा , रहे मोहक सदा घेरा।
मनोरथ पूर्ण हो मेरा , अमर गणतंत्र हो मेरा ।।११।।

रचनाकार:-
अनिल कुमार शुक्ल 'अनिल'
दुर्गाप्रसाद , बीसलपुर
पीलीभीत , उत्तरप्रदेश
👉स्वरचित/स्वप्रमाणित/एवम अप्रकाशित

दिनाँक-27/4/2020
बिषय-मनपसंद लेखन

विधा काव्य
शीर्षक-सहमी कली

अलवेली मतवाली रानी
कहती एक कहानी है,
मधुर धारा छलके जिससे
वही आज वीरानी है!

सप्त दुग्थ की धारा
जो चित में भर लायी
दग्ध हुयी अँगारों से
वही कली मुरझाई है!

ये मूरत है ममता की
ये कौन किसे समझाये
अपनी ही बगिया के काँटे
जब दामन को उलझाये!
स्वरचित
साधना जोशी
उत्राखणड
उत्तरकाशी
आयोजन। मनपसंद विषय लेखन
27/04/2020


ढलती शाम के इन हसीं पलों में हम भी साथ होते
काश तुम मेरे पास होते

देखकर मिलन का यह नजारा
खुश है यह जग सारा
हमारे भी हाथों में हाथ होते
काश तुम मेरे पास होते

तुम आनन्द की बाहों में होतीं
मैं कामिनी के आलिंगन में होता
वो पल हमारे प्रेम रास होते
काश तुम मेरे पास होते

तुम शर्माकर अपनी पलकें झुकातीं
मैं प्यार से तुम्हारा चेहरा उठाता
कितने हसीन हमारे अहसास होते
काश तुम मेरे पास होते

ढलती शाम के इन हसीं पलों में हम भी साथ होते
काश तुम मेरे पास होते

स्वरचित
मीना कुमारी

सोमवार/27अप्रैल/2020
आज के मन पसंद विषय पर हमारी रचना ....

विषय - " मैं, वो और पहला प्यार "
विधा - संस्मरण

बंद कमल की पंखुड़ियों सा तुम्हारा मासूम चेहरा ,
कोमल हृदय की अनुभूति अभी भी मुझे कभी - कभी
उकसा जाती है - अपने पहले प्यार को छूने के लिए।
वो खामोशी के लम्हे को याद कर मन विचलित होने
लगता है कि - मुझे समझ क्यो नहीं आ रही थी तुम्हारी ख़ामोशी।
उम्र कोई तेरह साल की, वो थें छब्बीस के। छुपा -छुपी के खेल में जब पकड़ा था हाथ नहीं जानते थें .........!
मैं ही बनूंगी तुम्हारी खामोशी की राज!
बाबूजी ने माँ से कह रखा था, कल कुछ लोग रिया को
देखने आएंगे। दूसरे दिन माँ ने मुझे खेलने को मना किया
लेकिन मैं कब मानने वाली थी । मेरी आंखो पर पट्टा बाँध
कर मुझे चोर बनाया गया । दौड़ कर मैने उनको ही पकड़
लिया था - और ज़ोर से चिल्ला कर कहा था - अब तुम चोर !
बड़े भाई जी ने आकर कहा हाथ छोड़- मैं बोली ना रे बाबा
आपलोग बहुत बईमान हो -" मैं छोड़ दूंगी तब आप कहोगे खंभा पकड़ा था !और जब आंखो का पट्टा
खुला तो - वो आवक् से मुझे देख रहे थें।
मैने झट से हाथ छोड़ दिया- गोरे बदन पर काला लिवास
बहुत खिल रहा था । वो अज़नबी बड़ी खासियत से
मुझे घूरे जा रहा था ।
मैं कुछ समझ न सकी थी !"- मेरे लिए तो उभरती हुई नमी
की थिरकन ही थी । मैं उन्हें मुँह चिढ़ाती अंदर चली गई।
मेरी सांसो की उष्मा पिघलने लगी थी ।
हम नहीं समझ पाएं थें इन्हीं से मेरी शादी होने वाली है ।
शायद वो भी नहीं!"- यह तो एक इत्तेफाक ही था ।
बाद में समझ में आया वो हमें देखने आएं थें।
शादी के बाद एक दिन वो हमसे पूछने लगे - तुम्हारा
पहला प्यार कौंन है ?"- मैंने भी हँसते हुए कहा आपने
मौक़ा ही कहाँ दिया ! ज़ाहिर है शायद आप! मेरी बात
सुनते ही वो खिल -खिला पड़े।
उम्र की दहलीज पर बहुत ही चढाओ उतार आयें हैं
कभी खुशी कभी गम ! आज किसी बात पर उनसे तूं- तूं
मैं -मैं होती है तो हम अपने पहले प्यार को याद कर
खुश हो जातें हैं।

रत्ना वर्मा
स्वरचित मौलिक रचना
सर्वाधिकार सुरक्षित
धनबाद -झारखंड
27/4/20
खामोश है खुदा भी।

प्रार्थना का जिक्र भी।
बंधी है आसरो की।
उम्मीद पोटली की।
अंतहीन दायरे है।
सूनी पड़ी राहे है।
गुमशुदा से झांके।
गुमसुम से है ताँ के।
अनजान एक दूसरे से।
शंकित से भाव में
वक्त बड़ा ही उलझा।
करते नही है साझा।
सिमटी पड़ी जिंदगी।
कैसी अजीब बन्दगी।
न दिखती कोई परछाई।
उदासी जहाँ में छाई।
युगों युगों तक होगी चरचा।
कैसे हुई थी मौत वर्षा।
छिप कर बैठे परिंदे।
भर रहे उड़ान जो बंदे।
पिंजरे में बंद होकर।
ख्वाबो के वश में होकर।
खयालो का ख्याल रखना।
खामोशियो को है तोड़ना।

स्वरचित
मीना तिवारी
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
🌹जिजीव
िषा🌹

रोज डर डर के ,जिंदगी हर पल ऐसे जी रही थी मैं।
तेज आंधी जब चली,तिनके को निहार रही थी मैं।

कभी इधर उड़ा कभी उधर,ऐसे उड गिर रहा था वो,
हर बार, एक नाकाम कोशिश किए जा रहा था वो,

एक झोंका ऐसा आया,उसे उड़ता देख रही थी मैं।
मिलती है सफलता,यहीं बैठे सब सोच रही थी मैं

बरसों पड़ा था,गलती से आंगन के किसी कोने में,
आज आसमान में,सपने सच होते देख रही थी मैं।

सब्र फल मीठा,ये आज हकीकत होते देखा मैंने,
वरना खो देता अस्तित्व,यही सोच डर रही थी मैं।

मंजिल मिली होगी,या कहीं भटक गया होगा वो,
यही प्रश्न दिमाग रख,अब परेशान हो रही थी मैं।

जिजीविषा रख वो उड़ा ,यह भी तो कम नहीं था।
गिरेगा उठेगा मिलेगी मंजिल, खुश हो रही थी मैं।

कहती वीणा धरा वो मरा, जो कुछ भी ना किया।
हिम्मत मिली,आखिरी पड़ाव ऐसे लड़ रही थी मैं।

वीणा वैष्णव"रागिनी"
राजसमंद


शीर्षकः-पसंद मेरी है तुम्हारी पसंद से बढ़िया
रहने वाला गाँव का, मैं एक सीधा सादा सा बन्दा ।

पर थीं प्रिय सुन्दर तुम इतनी, शरमाता था चन्दा ।।
रहतीं थीं तुम जहाँ, है राजधानी भारतवर्ष की वहाँ ।
रहता था परन्तु मैं जहाँ, थीं धूल भरी गलियां वहाँ ।।
अधिक क्या बताऊँ, बारे में उनके आपको जनाब ।
आती थी पसंद उनको वस्तु वही, होती जो नायाब ।।
वस्तुऐं प्रथम श्रेणी की केवल, थीं पसंद उन्हें आतीं ।
दूसरी श्रेणी की वस्तु कोई भी थी नहीं उन्हें भाती ।।
लातीं थी प्रत्येक वस्तु वह,अपने लिये केवल उत्तम ।
परन्तु मेरे प्रयोग की वस्तु पर,लातीं थखीं सर्वोत्तम ।।
रही उनको हम से केवल, एक छोटी सी शिकायत ।
श्रंगार पर उनके प्रतिक्रिया,थी ही नहीं मेरी फितरत ।।
पहने कितने सुन्दर, बढ़िया कपड़े या कीमती गहने ।
निकले मुँह से शब्द प्रशंसा का,तो फिर क्या कहने ।।
इन साधारण वस्तुओं पर, बताओ ध्यान मैं क्यों देता ।
मैं तो केवल मुखड़ा ही, उनका सदा तकता रहता ।।
वह श्रंगार से नहीं, श्रंगार ही था उनसे था भाया जाता ।
किया हुआ श्रंगार भी तो था, सुन्दरता ही उनसे पाता ।।
परन्तु अब न तो वह ही रहीं, न रही उनकी पसन्द ।
जीवन से व्यथित हृदृय के,उड़ गया समस्त आनन्द ।।
डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
"व्यथित हृदय मुरादाबादी"
स्वरचित
दिनांकः- 27-4-20
वारः-सोमवार
विधाः- छन्दमुक्त
27/4/20


चरण में तेरे करू मैं बंदन।
हे नाथ जग के प्यारे भगवन।
न देख पाई कृपा को तेरी।
न बन सकी मै तेरी पुजारन।
बनी रही मैं सदा भिखारन।
न देख पाई कलुष स्वयं का।
रही देखती कलुष जगत का।
दिया जो तूने न रख स्की मैं।
बनी रह गई मैं सदा भिखारन।
हैं कैसा जीवन न मैंने जाना।
न तय कर सकी क्या मुझको पाना।
रही तरसती क्या मुझको पाना।
सदा भटकती रही प्रभु मैं।
न देख पाई न जान पाई।
तेरी बरसती सदा की कृपा को।
इन्ही सवालों की पोटली ले।
खड़ी द्वार पर है एक भिखारन।
तिमिर हटा कर दीप जला दो।
विनय हमारी सुन लो भगवन।

स्वरचित
विषय - मनपसंद
27/04/20

सोमवार
दोहे- जीवन

मानव- जीवन श्रेष्ठ हैं , रक्खें इसका मान।
अपने सत्कर्तव्य से , गढें प्रगति- सोपान।।

जीवन का प्रत्येक पल, होता बहुत विशेष।
उसको हँसकर हम जिएँ, रहे नहीं दुख शेष।।

हमें विरासत में मिले, जो संतुलित विचार।
उन्हें बनाएँ हम सभी, जीवन का आधार।।

मधुर वचन बोले बिना , कहीँ न उपजे प्रीत।
जीवन के व्यवहार की , यही सनातन रीत।।

सदा हृदय में राखिए , सबके हित की बात।
इससे जीवन में मिले , खुशियों की सौगात ।।

स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर
भावों के मोती
दिनांक - 27/04/2020


" आंखें "

पढ लेना आंखों की भाषा
ये भी एक कला है,
क्योंकि बोलती हैं आंखे वह सब
जो न कह पाता मनुष्य मुखरित होकर।।

व्यक्त कर देती हैं आंखें
मौनावस्था में भी बहुत कुछ,
आंखों का सूनापन या शून्य आंखें
कर जाती है बयां दिल का दर्द ।।

जब दिल में हो असीमित खुशियां
चमक उठती हैं ये आंखें,
दिलो दिमाग का आईना है आंखे
सेहत का राज बयां करती हैं आंखें ।।

छिपा होता है चेहरे का सौंदर्य इन्हीं आंखों में,
ईर्ष्या,द्वेष,क्रोध,कायरता का भाव भी प्रकट कर देती हैं आंखें ।
व्यक्त कर देती हैं गम्भीरता,बहादुरी,कृतज्ञता के भावों को सहज ही ये आंखें ।।

अपराध बोध को भी प्रदर्शित करती हैं आंखें,
बोलती तो बहुत कुछ हैं हमारी आंखें,
किन्तु चाहिए आंखों को पढ सकने वाली आंखें ।।

स्वरचित मौलिक रचना
"उषा जोशी"

27/04/20
दोहा

कलम
***
कलम दुधारी जब चले , करे काम तलवार ।
पहली चोटिल मन करे, तन पर दूजो वार ।।
***
कलम पकड़ के पद रचें,अद्भुत मीठे गान ।
लिये खड़ग जो हाथ में ,लड़े बीच मैदान ।।
***
प्रबल भाव मन में उठे ,कलम लिखे जो बात।
मन कुत्सित कैसा हुआ,खड़ग करे जो घात ।।
***
कलम सत्य गाथा लिखे,करे हृदय पर वार।
और खड़ग चोटिल करे ,मारे नर अरु नार ।।
***
अब मिल कर लो फैसला,छोड़ो सब तलवार।
कलम शक्ति सबकी बने, उत्तम करो विचार।।
**
अनिता सुधीर आख्या

दिनांक २७/४/२०२०
मनपसंद लेखन


लघुकथा।

हद हो गई लापरवाही की, उसने भुनभुनाते हुए अपनी टेलर को फोन लगाया,और उसकी बात सुने बिना ही उसपर चिल्ला उठी"एक महिना से ज्यादा हो गया आपने अभी तक मेरे कपड़े नहीं दिए,दो महीने पहले जब मैं फोन की थी तो आपने मुझे बताया की अभी एक हफ्ता में आपका काम हो जायेगा और काम हो जाने से मैं फोन कर दूंगी, लेकिन आज एक माह से उपर हो गया,ऐसी लापरवाही मुझे कतई पसंद नही,"और भी न जाने क्या क्या नेहा अपनी ही रौ में बोलती चली गई। लेकिन उधर से कोई आवाज नही आ रही थी, सिर्फ सिसकने की आवाज आ रही थी,और उसे चुप होते ही वह बहुत ही विनम्रता से बोली"पिछले माह मेरे पति का हृदय गति रुकने के कारण देहांत हो गया है,और मैं अपने दुःख से उबर ही नही पाई,मेरे दोनो बच्चे अभी बहुत छोटे हैं,एक हफ्ता का समय और दे दीजिए मैं आपके कपड़े सिलकर अवश्य दें दूंगी"।
अब नेहा को अपनी गलती का एहसास हुआ कि बिना सामने वाले का बात सुने, दूसरों पर चिल्लाना अच्छा नही होता,और उसने उससे माफी मांगी और बहुत ही विनम्रता से कहा"आप खुद को और बच्चों को संभालिए,होनी को कौन टाल सकता है,और हां कुछ जरूरत हो तो बेझिझक बताइएगा"।और नेहा अपनी आदत सुधारने का प्रयास करने लगी,कि बिना सामने वाले के बात सुने किसी पर अपनी बात नही थोपनी चाहिए।
विषय:- मनपसंद रचना
दिनांक 27-4 -2020

विधा:-गीत

राहे जिंदगी अब क्यों,
हर तरह सताती है |
मेरी ही परछाइयां,
मुझको अब चिढ़ाती है |

अपनी ही बनाई दीवारें ,
हमको अब डराती हैं |
चैन से सोते थे जहां हम,
अब वही न नींद आती है|

कौन कहता खुद को है बुरा,
फिर भी बुराई कैसे जिंदा है|
दूसरों पर अपनी गलती,
थोपने कि रीत चली आई है|

यह सराय है किसी को भी,
मालिकाना हक नहीं देता|
फिर भी तेरे मेरे की,
हवस क्यों न जाती है |

कौन खुद मुख्तार है यहां,
वक्त के सभी गुलाम हैं |
घटते बढ़ते चांद की तरह,
सबकी ही कहानी है |

मैं प्रमाणित करता हूं कि
यह मेरी मौलिक रचना है |
विजय श्रीवास्तव
बस्ती
२७/४/२०२०

कुछ पलों में ही रिश्तों को जान लें,
यूँ ताउम्र भी कम तो पड़ जाती है ।
रूप क्षण-क्षण बदलता है इंसान का,
बात छोटी सी हो गाँठ पड़ जाती है ।
फ़र्ज़ का नाम देते हैं स्नेह प्यार का,
एकतरफ़ा है कर्तव्य सिर्फ़ आपका ।
चल दिये मोड़कर मुँह जाने किधर,
आस विश्वास से देखते रह गये।
कोई शिकवा करूँ ऐसी जुर्रत नहीं,
मृग तृष्णा ही थी भागते रह गये ।

स्वरचित
चंदा प्रहलादका

दिन। - सोमवारदिनांक - २१/१०/१९
कचरा
——————
अत्र तत्र ना फेंको गन्दगी ।
प्राकृति भी रूष्ट होती ।
मानव कब सुधरेंगे ।
बार बार ये कहती ।

जीवों पर दया करते ।
उनके ख़ातिर सम्भलते ।
प्लास्टिक कचरा जूठन ।
सब जानवर खा लेते ।

मक्खि मछर के जन्मदाता गन्दगी ।
बीमारियों को भी मनभाते गंदगी ।
स्वच्छता के संग अब रहना होगा ।
सफ़ाई को अब समझना होगा ज़िंदगी।

प्रण अब ये कर लो ।
सफ़ाई का महत्व समझ लो।
घर आँगन रहे सुंदर ।
आस पड़ोस भी साफ़ कर लो ।

घर घर जागरूकता लाएँगे ।
राज्य को स्वच्छ बनाएँगे ।
देश स्वस्थ रहे हमारा ।
यही नारा बस लगाएँगे ।


स्वरचित - अनामिका जूही

विषय :मनपसंद विषय लेखन
विधा : कविता

तिथि : 27.4.2020

शुक्र कर
----------

मिले तो शुक्र कर, न मिले तो सब्र कर।

अच्छा बुरा जो भी पाया,कर्मों का खेल है
कभी सज़ा,कभी इनाम, कर्मों का मेल है
ऊपर वाले के हिसाब पर सदा फ़खृ कर-
चाहा मिले तो शुक्र कर,न मिले तो सब्र कर।

जलन न मन रख, मैत्री सब के संग रख
प्यार बांट खुल कर, हाथ न तूं तंग रख
कर्म लेखा तेरा है, न्याय पर न शक रख-
चाहा मिले तो शुक्र कर,न मिले तो सब्र कर।

गलत राह तकना नहीं, सही राह तजना नहीं
निगाह भी खुली रख, बुद्धि भी संतुलित रख
ठीक चुना तो सवेरा है,गलत चुना भी तेरा है-
नज़र कभी न वक्र कर,क्रोध न कर ज़ब्र कर।

. मिले तो शुक्र कर, न मिले तो सब्र कर।

-रीता ग्रोवर
-स्वरचित

दिनांक -27-4-2020
विषय - स्वतंत्र


पग धरकर उस पर चलना सीखा
पावन रज में ख़ूब खेलना सीखा
सुंदर और आलीशान भवन बनाया
प्राकृतिक सुषमा ने उसे सजाया
कितना कुछ मैंने धरती से पाया ।
प्राण वायु हरे भरे पेड़ पौधों से पाई
उदर अग्नि मिटाने को फ़सल उगाई
नदियों के जल से अमृतपान किया
अपनी पावनता से गंगा ने उद्धार किया
इस धरती माता ने कितना उपकार किया ।
बहुमूल्य हीरे रत्नों से मेरी झोली भर दी
खनिज पदार्थों ने सारी कमी पूरी कर दी
कहीं मैदान कहीं पहाड़ कहीं फेनिल झरने
ऋतुओ का परिवर्तन चला आता मन हरने
करने को प्रतिदान काम मुंझे भी हैं करने ।

संतोष कुमारी ‘संप्रीति ‘


दिनांक - 27-4-2020
विषय - स्वतंत्र


मेरे पहलू में बैठ जा
ज़िंदगी अब ठहर जा
कितना कुछ बाक़ी है
ग़म के प्याले साक़ी है
उन अंधेरों को भगाना है
बुझा दीया भी जलाना है
कितनी राहें यूँ सूनी पड़ी हैं
तरसती आँखें पथरी पड़ी हैं
कुछ ख़्वाब अलसाए हुए हैं
आशा हम अभी जगाए हुए हैं
तन्हाई से नही फ़ुरसत हमको
फ़िक्र हिचकी की लगी तुमको
काग़ज़ और क़लम से गहरी यारी
साहित्य साधना की अभी हुई तैयारी
तू ज़िंदगी है मेरी , मेरा कहना मानना
अपने तेज़ क़दमों को तुम्हें पड़ेगा थामना ।

संतोष कुमारी ‘ संप्रीति’

दिनांक -27-4-2020
विषय-स्वतंत्र



कल ख़्वाबों में तुम मेरे आ गए
बदरिया विरह बन तुम छा गए

अश्कों ने भिगोया बिछौना मेरा
क्यों इन आँखों में अश्क आ गए

कसूर आँखों का भी मानूँगी कैसे
बेवफा ...अश्कों को तुम भा गए

तार मन वीणा के बज उठे संप्रीति
वह फिर से आहों के गीत गाा गए

संतोष कुमारी ‘संप्रीति ‘

पाली,हरदोई(उत्तरप्रदेश)
विषय -पुलवामा हमले में शहीदों को श्रद्धांजलि


पुलवामा हमले में शहीद सैनिकों को श्रद्धांजलि😢😢😢

बहनों की राखी,
भाई का प्यार....
हो गया सूना संसार..
आंखे पुरनम बहती धार
पूछे हमसे बार बार
बोलो वो सब कहाँ गए.....

सूनी गलियां.....
बसंत बहार.....
सूना फागुन.....
रंग की बौछार....
पूछे हमसे बार बार.....
बोलो वो सब कहाँ गए...

बूढ़ी मां की आंख का तारा..
बूढ़े पिता का एक सहारा..
नाव फंसी बीच मझधारा...
ढूंढे मिलता नही किनारा..
बोलो वो सब कहाँ गए...

बच्चों की वो सर की छाया
ज्यों आगे पीछे हो साया
छुट्टी में क्यों घर न आया
एक मासूम समझ न पाया
बोले माँ वो कहाँ गए..

हाथों की भी न छूटी मेहंदी..
सर से भी न उतरी बेंदी..
निरपराध मासूम बाग की
जीते जी ही बलि क्यों ले ली..
पूछे "पी.के." सब कहाँ गए...

*उन वीरों की शहादतों की चेतावनी*
👇👇

चालीस सहस्त्र हो जाते चार,
गर वार सामने से करते।

बोटी बोटी होतीं हजार,
गर वार सामने से करते।।

आजाद, भगत अब्दुल हमीद,
होती पूजा वंदनाचार,

गर वार सामने से करते।।
पर...
पर...
पर....

सुअरों को क्या शिष्टाचार,
जो वार सामने से करते।।

आशुकवि
प्रशान्त कुमार"पी.के."
पाली, हरदोई(उ.प्र.)

27/4/20
विषय- स्वतंत्र लेखन

विधा- दोहे

कलम नहीं तलवार है,ताकत इसकी जान।
लिखती है सच ये सदा,कहना मेरा मान।


सच्ची बातें ही सदा,लिखे लेखनी धार।
अपनी ताकत से सदा,करती सबसे वार।


रोके ये रुकती नहीं,करे झूठ पे वार।
ताकत इसकी मान लो,करती तेज प्रहार।


लिखती मन के भाव को,प्रीत विरह के गीत।
छेड़े दिल के तार को,कलम बनी है मीत।


कोरे कागज में भरे,जीवन के यह रंग।
कलम कहे कवि से यही,मुझ बिन सब बेरंग।

अनुराधा चौहान'सुधी'


सियासतदार सियासत खेल करते रह गये,
गरीबों के बच्चें भूख से बिलबिलाते रह गये

भारत के असंख्य नौनिहालों की कहानी है
सड़क पर खाना, सड़क पर सोना, खेलना
राजनीतिक भारत की गरीबी को झेलना,
सियासतदार आते,सियासत कर चले जाते,
देश का भविष्य सड़कों पर है धूल फाँकते,
धूप, धूल, गर्मी, सर्दी, आँधी सहते बड़े होते
बड़े हुए बेरोजगारी का आजन्म दंश झेलते
या राजनेताओं के झंडे या चाटुकारी करते
इन नौनिहालों को देश भूख से आजादी दे,
शिक्षा दे, स्वास्थ्य दे, जीने का अधिकार दे.

स्वरचित कविता प्रकाशनार्थ
डॉ कन्हैयालाल गुप्त किशन उत्क्रमित उच्च विद्यालय सह इण्टर कालेज ताली सिवान बिहार 841239



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