Thursday, April 2

"वसुंधरा/धरा/पृथ्वी "31/3/2020

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ब्लॉग संख्या :-697
"वसुंधरा/धरा/पृथ्वी आदि"
31/3/2020
*
**************
कोरोना मार
वसुंधरा को मिली
चैन की साँस।

चहकी भोर
सूरज किरणों से
धरा विभोर।

महकी धरा
वसंत आगमन
मन भी हरा।

स्वरचित,वीणा शर्मा वशिष्ठ
31/3/20
पृथ्वी करे पुकार......

****************
आज देखो किस तरह से मचा हाहाकार है...
मौत का मंजर लाशों का अम्बार है..
जिनको था खुद पर गुमान...
आज बेवश देश वो..
विज्ञान भी मौन है
चुपचाप सर झुकाये...
धरा को जिस तरह नोंचा
उसका ये अंजाम है...
मूक पशुओं को भी न छोड़ा..
वेदना न जानी किसी की हमने
सबको अपना गुलाम जाना..
आज देखो भर रहे उन सभी का
हम हर्जाना...
विपदा में मानव जाती खड़ी है...
मिल रहा न कोई ठिकाना...
रूह तक प्रकृति की घायल...
अब तो मानव कुछ जाग जाना..
वरना अब इस जलजले को....
मुश्किल ही होगा रोक पाना....
घायल है सारी कायनात..
मानव तेरे प्रहार से...
अब भी न समझा तो...
न जाने होगा क्या तेरा मुकद्दर...
नामों निशा भी न होगा
इस जहाँ में अब तुम्हारा...
पूजा नबीरा काटोल
नागपुर
धरा आकाश
हैं आलिंगनबद्ध
क्षितिज पार


अमृत बूँदें
अम्बर बरसाए
धरा हर्षाये

सो जाते सब
ओढ़ कर धरती
चिर निंद्रा में

आया बसंत
सरसों के गहने
धरा पहने

स्वरचित
राजीव गोयल
बसुन्धरा

बसुन्धरा की गोद में पलते है मधुर स्वप्न सब।

कहीं हिमगिरि, कहीं रत्न है, सुवास भरा है सब।
प्रभाकर चकित हो हर सुबह ताकता रहता सब।
साँध्य बेला सुधाकर आ निहारता रहता है तब।
आँख में मोती सजाये रातभर देखता रहता जब।
धरती की हरितिमा को, सागर की लहरों में जब।
खेतों में फसलों को, नदियों में अमृत नीर जब।
बागों में पक्षियों संग, वनों में वनराज हो जब।
बसुन्धरा की शोभा, पर्वतराज हिमालय हो जब।
शस्यश्यामला बसुन्धरा की बात निराली है तब।
सुखद दिगंतो में समीर सुवासित होता है जब।
हे प्रभु तुम्हारा कोटि कोटि अभिनंदन है तब।।

स्वरचित कविता प्रकाशनार्थ डॉ कन्हैयालाल गुप्त किशन उत्क्रमित उच्च विद्यालय सह इण्टर कालेज ताली सिवान बिहार 841239


बिषय - वसुंधरा

प्रकृति की छटा निराली बस चमत्कार देखो।
कुदरत की अनमोल कृति अद्भुत संसार देखो।।

सूरज उदय होता पूर्व से पश्चिम में होता अस्त।
लावण्य रूप पूर्णमासी चाँद का दीदार देखो।।

ठंडी हवा चली पुरवैया पत्ते भी लहराने लगे।
रंगीन है फिजायें और मौसम में बहार देखो।

हरियाली से शोभित बसुंधरा फुलवारी चहुँओर है,
उपवन में खिलते हुए फूलों का गुलज़ार देखो।।

तितलियाँ बैठीं फूलों पर भवरों का आगाज।
चहकती चिड़ियों की प्यारी सी झंकार देखो।।

मयूर नृत्य करे जमीं पर खुशी से पंख फैलाय।
मेघों के बरसने का अब थोड़ा इंतज़ार देखो।।

खुशहाल है वातावरण हर्षोल्लास है "सुमन"।
हर्षित से झूम रहे मेरे मन के उदगार देखो।।

सुमन अग्रवाल "सागरीका"
आगरा
विषय वसुंधरा
विधा काव्य

31 मार्च 2020,मंगलवार

जयति जय हो माँ वसुंधरा
जयति जय करुणा सागर।
तुम पालन करता सृष्टि की
माँ तुम जग नटवर नागर।

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर से
झर झर करते निर्झर शौर।
फल फूलों से लदी डालियां
वन उपवन नित नाचे मोर।

हीरे मोती माणक नीलम
बहूमूल्य खनिज माँ दाता।
सोनाचांदी पीतलतांबा लोह
माँ नर गर्भ तुम ही से पाता।

अति विशाल भव्य महासागर
अद्भुत अतिशय जल धारा है।
जीव जंतु पलते जलनिधि में
माना सलिल उसका खारा है।

अति विहंगम सुन्दर दृश्य है
विश्व स्वर्ग कश्मीर सुहाना।
केसर गन्ध सुवासित रहती
भव्य भारती तेरा क्या कहना?

वसुंधरा तू सब कुछ देती है
बदले में माँ कुछ नहीं लेती।
ऋण उपकार चुकाएँ कैसे?
अति अद्भुत माँ तेरी खेती।

यशगान में शब्द बहुत कम
धन्य धन्य भू वसुन्धरे माते।
तुम हो तो यह जग सारा है
कीर्तिगान ही माँ हम गाते।

स्वरचित, मौलिक
गोविंद प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
विषय - धरती/धरा

धरती के सारे पशु पक्षी
आज ढूढ़ें उस इंसान को।
हैरान हैं परेशान हैं
देखकर आनबान शान को।

किसी मामूली जीव जैसा
दुबका घरों में असहाय है।
लगता ज्यों पड़ी हो उस पर
किसी की बददुआ हाय है।

धरती भी आखिर कहाँ तक
सहन करती वो मजबूर है।
फिर भी हमें घरों में बिठाय
सुरक्षित रखे गम से चूर है।

जैसे कि माँ अपना उद्दंड
बालक आँचल में छुपाय है।
वैसे ही वो हमें अब भी
घरों में बैठाकर बचाय है।

कहीं ऐसा न हो कि हम इस
कृपा लायक न रह पायें।
रहम के आँसू ममतामयी
माँ धरती के सूख जायें।

आज जरूरत इंसान को
यह चिंतन करने की 'शिवम'
धरती माँ कब तक झेलेगी
मानव के बढ़ते पाप करम।

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 31/03/2029
वसुन्धरा
💐💐💐
नम
न मंच भावों के मोती समूह। गुरुजनों मित्रों।
1
हमारी धरा
कितने बोझ ढोए
ये वसुन्धरा
2
चैन है मिला
पवन हुआ शुद्ध
मुस्काए धरा
3
बोझ है ढोती
वसुन्धरा हमारी
हमेशा मुस्कुराती
4
अनेकों गाड़ी
वसुन्धरा का बोझ
ये है लाचारी
5
बोझों के तले
कराहती है रोती
ये वसुन्धरा

वीणा झा
स्वरचित
बोकारो स्टील सिटी
विषय-वसुंधरा
विधा-काव्य

दिन - मंगलवार
30-03-2020
_____-____________


हे ममता मूरत वसुंधरा
___________________
अनंत युगी इतिहास समेटे
ह्रदय सृजन की आस लिए
गतिमान सदा सापेक्ष काल के
तुम ममता मूरत वसुंधरा

कभी सूर्य का अंश रही हो
तप्त तापसी बन कर तुम
शून्यभाव को त्याग बन गई
तुम ममता मूरत वसुंधरा ।

पंचभूत को संतुलित कर
जीव जगत का सृजन किया
वसुओं का आवास बनी हो
तुम ममता मूरत वसुंधरा ।

देश काल की सीमाऐं भी
साक्षी हैं पुनर्उद्भव की
विविध रूप की हो सृष्टा
तुम ममता मूरत वसुंधरा ।

सकल जीव पशुवत होकर
अपना जीवन पूरा करते
वात्सल्यभाव से पोषणकर्ती
तुम ममता मूरत वसुंधरा ।

निज तनयों के हित हे देवी
शष्य श्यामला रूप धरा
विविध भोग की वृष्टिकर्ती
तुम ममता मूरत वसुंधरा ।

हर कोई परिपुष्ट यहां पर
हर कोई संतुष्ट यहां पर
सदा सहज ही स्नेह लुटाती
तुम ममता मूरत वसुंधरा ।

कनिष्ठ पुत्र के अनुरंजन को
चित्रित कर अलौकिक बगिया
हव्वा संग आदम आनंदित
तुम ममता मूरत वसुंधरा ।

कितनी हुई तुम आनंदित
हम जब जब जिम्मेदार हुए
पोषक मानव मूल्यों की
तुम ममता मूरत वसुंधरा ।

हरित वृक्ष को नहीं काटना
प्राणी मात्र संग मंगळाचार
पंचभूत हित सीख हो देती
तुम ममता मूरत वसुंधरा ।

अविकारी था जब तक मानव
अन्न जल के रहे भंडार
अपने आंचल नीर बहाती
तुम ममता मूरत वसुंधरा ।

जबसे मानव हुआ स्वार्थी
असंवेदी और अभिमानी
ह्रदय विदीर्ण चित्कार सुनाती
तुम ममता मूरत वसुंधरा ।

जिसको इतना प्यार दिया
उसने ही दुख दर्द दिया
अति विश्वास पर शोक मनाती
तुम ममता मूरत वसुंधरा ।

कितने प्राणी मूढ़भाव ले
पंचतत्व दूषित करते
कितना धेर्य ले पोषण करती
तुम ममता मूरत वसुंधरा ।

जीवन की जिस शाख है बैठा
मुर्ख काटता अंधा बन
पुन: वही इतिहास बताती
तुम ममता मूरत वसुंधरा ।

अभी हुआ है नहीं अंधेरा
अभी तलक नहीं है दैर
अभी बचाएं अपनी बगिया को
हम ममता मूरत वसुंधरा ।
_____________________
गोविंद व्यास रेलमगरा
दिनांक-31-03-2020
विषय - वसुंधरा




धरा आकर कह रही है....
आज अपने पिया का
गूढ़ चुंबन पाऊं आज
देह तृप्ति हो रसधार से
कृषक की सुधि आई आज
मेघ गंभीर अकुलाई आज
मिल गया मुझे आज
असिंचित अंबर का प्यास
गंध व्याकुल कर गई
मेरी मूर्छित श्वास को
स्पर्श छुवन भड़क गई
उस सुनहली आग को
धरा तो प्यासी स्वयं थी
पी रही थी उस रूप को
झिलमिलाती स्वप्न दूर
नीर तृप्ति कर रही थी भू को.....

स्वरचित..
सत्य प्रकाश सिंह
प्रयागराज
दिनांक :31.03.2020
विधा :बाल कविता

शीर्षक :पृथ्वी

सब ग्रहों में
अदभुत
ग्रह हमारा है
पृथ्वी पर
जैवमंडल
बहुत प्यारा है
जीवन केवल
सम्भव इस पर ही
सब प्राणियों का
सहारा है
वनस्पति,खनिज
धरती ही देती है
बदले में
बहुत ही कम लेती है
वसुंधरा, धरा
पर्यायवाची शब्द
कहलाते है
जमीन ,धरती भी
समानार्थी
बताए जाते हैं
अपने अक्ष के
चारों ओर
घूमे तो
परिभ्रमण गति
कहलाती है
सूर्य के
चारों ओर
घूमे तो
परिक्रमण
बताई जाती है
अब तो
पर्यावरण की चिंता
खूब सताती है
ग्लोबल वार्मिग
बढ़ती जाती है
पानी भी
डार्क जोन में
चला गया है
इसका संकट भी
गहरा गया है
1970 में था
विश्व अर्थडे मनाया
1992 में
रियो डी जेनेरो में
सम्मलेन करवाया
22 अप्रैल को
विश्व पृथ्वी दिवस मनाया
आओ मिलकर
पर्यावरण को
सुंदर बनाएँ
पृथ्वी को
भविष्य के
खतरों से बचाएँ

हरीश सेठी 'झिलमिल'
स्वरचित
विषय: वसुंधरा
विधा: छंद मुक्त

दिन: मंगलवार
31.03.2020

धरती माँ

क्या हुआ धरती माँ ???
कुछ नही बेटा...
फिरी तेरी आंखों में आंसू कैसे?
बस ऐसे ही निकल आये बेटा...
फिर भी कुछ तो बात होगी।
चल ले फिर सुन बेटा...
हा.... माँ (ध्यान लगा मैं सुनने लगा)
आप लोग मुझे माँ कहते हो ना??
हा, माँ....कहते है
तो फिर क्यों वन क्यों काट रहे हो
मेरे शरीर के अंगों को क्यो आपस मे बांट रहे हो.?
कई किसान तो पराली को जलाते है
मेरे सीने में आग लगाते है
ले सुन अब...कुछ लोग मुझ पर
कूड़ा करकट फेंकते है।
जहा जी किया वहा फेंकते है।
ट्यूबेल लगाकर मेरा सीना छलनी करते है
इस तरह मुझे चोट पहुँचाते,
लोग मनमानी करते है ।
अब तू बता क्या करूँ मैं ?
रोने के अलावा कुछ कर भी नही सकती।
ओह! माँ आँखो में नीर बह आया है
तेरी दुखदायी कहानी सुनकर
अपने आप को जगाया है
जितना होगा मैं करूँगा
माँ तेरी इस कहानी का
प्रसार जन जन तक मैं करूँगा।

स्वरचित
सुखचैन मेहरा
दिनांक: 31-03-2020
विधा : मुक्तक

विषय: वसुंधरा / भूमि



****
पशेमां है परिंदा कहाँ बनाए आशियाँ
मनुष्यों ने विटप को धरा से ही हटा दिया।
विषाक्त हो गए वायु,जल के स्रोत सब कृती
मशीनी युग ने श्रंगार भूमि का मिटा दिया।
****
हरी-भरी वसुंधरा क़ुदरत का आशीर्वाद है
किन्तु स्वार्थवश मनुज करता इसको बरबाद है
पर्यावरण नष्ट हुआ तो मानव बच न पाएगा
निसर्ग का विनाश करके ख़ुद पर संकट लाएगा।
📝 वेदस्मृति ‘कृती’
धरा ज्यादतियों का शिकार बन गई
बो लुका छिपी के इस खेल में दब गई


ना कुछ बो सुन पा रही ना देख पा रही
अपने खुद के आंसुओं के घुट रही

सर दर्द बन चुकी मनुष्य की ये लोलुपता
उठापटक खोज में छटपटाती फिर रही

बहुत इठलाई मनुष्य के इन कोमल हाथों में
उन्ही के हाथो से बिलबिलाती पिस रही है

स्वरचित एस डी शर्मा
वसुंधरा ओ सुंदरा
हम जन की धरा
प्यार का पालना

लाड़ का झालना
हम ही कर गए
खिलवाड़ सारे
तुम सहती रहीं
चुप बहती रहीं
माफी मांगने की
भी गुंजाइश
ना छोड़ी हमने
वापस लौटने की
इच्छा है मन में
रास्ता लगता ज़रा
उलझा सा
सुलझाने का हुनर
भी तो लाना ही होगा
धरा को सुंदर
बनाना ही होगा
तभी हम भी
बन पाएं उम्दा
बनें जब धरा
के सेवक सजग
वसुंधरा ओ सुंदरा
हममें आयी लहक
हमनें आयी लहक
डॉ. शिखा
बृज व्यास नमन भावों के मोती पटल
आज का विषय : वसुंधरा
दिन : मंगलवार

दिनांक : 31.03.2020
विधा : स्वतंत्र

गीत

वसुंधरा , भू , धरती के ,
हम पर हैं उपकार बड़े !!

जननी सा लालन पालन है ,
भूख प्यास सब दूर करे !
धूप घनेरी सही न जाये ,
वृक्षों की छाया उतरे !
अपना सब कुछ सौंपा हमको ,
हम नालायक हैं तगड़े !!

खनन किया है हमने ऐसा ,
पर्वत , सागर , नदिया का !
गहरे , गहरे इतने उतरे ,
धरा रह गई भौचक्का !
कानन कानन चले काटते ,
हरियाली पर प्रश्न खड़े !!

पृथ्वी बनी आग का गोला ,
मौसम कहाँ नियंत्रित है !
दावानल हैं , ज्वालामुख हैं ,
तूफाँ उठे असीमित हैं !
अपना सारा किया धरा है ,
हमीं धरा से हैं उखड़े !!

चलो आज दायित्व निभायें ,
पौधों का रोपण करना !
अपनी श्वासें करें नियंत्रित ,
वरना तिल तिल कर मरना !
हरा भरा आँचल हो माँ का ,
भाव भरे मोती ये जड़ें !!

स्वरचित / रचियता :
बृज व्यास
शाजापुर ( मध्यप्रदेश )
दिनांक- 31/3/2020
शीर्षक-वसुंधरा
िधा- छंदमुक्त कविता
******************
वसुंधरा की है ये कथा,
सुनना जरा ध्यान लगा,
मिट्टी से बनी वो नारी,
गोदी में गूँजे किलकारी,
माँ हम सबकी वो प्यारी |

सदियों से हमकों सींचती,
कम न हो उसकी कीर्ति,
दु:ख-सुख,बहुत उठाये,
हम सब उसी के बसाये,
फिर मनवा क्यों करराये |

हरियाली है उसका गहना,
प्रकृति उसकी है बहना,
अंबर उसको खूब समझता,
प्यासी होने पर बरसता ,
फिर भी मनु क्यों तरसता?

कोई विपदा जब आ जाती,
वंसुधरा बैचेन हो जाती,
सूना पन माँ को न भाता,
हमसे जन्म-जन्म का नाता,
प्रेम मां का हर प्राणी चाहता |

शीश झुकाकर नमन,हे माँ!
कीचड़ हम,तू कमल है माँ,
बाहें अपनी खुली तु रखना,
स्नेह की चादर ओढ़ायें रखना,
हर बला से बचाये रखना |

स्वरचित- संगीता कुकरेती

विषय- वसुन्धरा
सादर मंच को समर्पित -

🍇🍋 हाइकु 🌻🌹
***************************
🐦🐥 वसुन्धरा 🐋🌴
🍊🍎🌻🍑🌲🌹🌴🍑🍀🌹🐹🐦

धरती धन
प्रकृति धरोहर
बचायें जन

🐦🐤

वसुन्धरा माँ
कण कण सोंपती
कुछ न लेती

🌴🍒

वसुधा रक्षा
जीवन की सुरक्षा
कर्म है अच्छा

🍈🍎

शुभ हो सोच
हरियाली बचायें
धरा सजायें

🌲🌹

धरा को पोषें
प्रकृति रक्षा हेतु
दोहन रोकें

🌷🍃

धरा बचायें
प्रदूषण रोकने
पेड़ लगायें

🌹🍀

उर्वर भूमि
वसुन्धरा हर्षाई
कृषि सुहाई

🍑🌱

वसुन्धरा ही
खनिज की सम्पदा
जीवन रक्षा

🐇🐋

धरा की शान्ति
प्रकृति संरक्षण
हरित क्रांति

🌺🌻

जीव भक्षण
कोरोना आगमन
करें रक्षण

🍇🍎

एक ही नारा
पेड़ जल बचायें
स्वच्छ सहारा

🐯🐧

करोना मार
प्रकृति का बदला
दोहन रोकें

🐋🐙

मनन करें
उत्तरदायी हमीं
भू ,वृक्ष सींचें

🌲🌹

जल जंगल
वसुन्धरा बचायें
त्रास न पायें

🌷🌵🌸🌴

🌴🌹🌱****... रवीन्द्र वर्मा, आगरा
31 /3 /2020
बिषय, बसुंधरा
नयन अश्रुपूरित बसुंधरा का आंचल
इंसान दिन व दिन हो रहा पागल
रात दूनी दिन चौगुना बढ़ते जाते अनाचार
कब तक सहन करेगी ए अत्याचार
मानवों के पापों के बोझ कब तक ढोएगी
वजन इतना भारी कैसे चैन की नींद सोएगी
जागो रे जागो इंसान ज्यादा दुःखी मत करो
क्यों अति करने पर तुले कुछ तो अब शर्म करो
हाथ न कुछ लगने वाला भूखे प्यासे मर जाओगे
हाथ मरोगे सिर धुनोगे पछतावा करते रह जाओगे
स्वरचित सुषमा ब्यौहार
दिनांक-31-3-2020
विषय-वसुंधरा

धरती माँ बड़ी हैरान हैं
कितना अजीब इंसान है
आज थोड़ी उसने राहत पाई
जब मानव रहित
प्रकृति दी दिखाई ।

क्या खज़ाना वो ढूंढ़ रहा था
क्यों उसकी छाती रौंद रहा था
मानुष को तीव्र बुद्धि मिली
जिसका उसने दुरुपयोग किया था

अब कोरोना का असर देखो
वन्य जीव निर्द्वंद्व विचरने लगे हैं
क्योंकि आदमी घरों में रहने लगे हैं।

अपने निज स्वार्थ की खातिर
आसमान को भी न छोड़ा था
गगन चुम्बी इमारतों का,
कंक्रीट का जंगल किया खड़ा था

सागर में भी उसने
गहरी डुबकी लगाई
तेल की खातिर
नापी गहराई।

वसुंधरा अब भी कराह रही है
आर्त स्वर में पुकार रही है
अब तो सुनो तुम उसकी दुहाई

अपनी इस हरित वसुंधरा को
आओ सब जन मिलकर
दुल्हन सा सजाएं
प्रत्येक पावन अवसर पर
एक पौधा रोपें

ये शुभ संकल्प करें
और अमल में लाएं
ग्लोबल वार्मिंग जैसे दानव से
स्वयं को और प्रकृति को
अथक प्रयास से बचाएं ।

निजी वाहन का कम प्रयोग करें
खूब पैदल चले,साइकिल से चलें

नई पीढ़ी की की खातिर
कुछ नियम बनाये व उपयोग करें।

फिर अपनी ये वसुंधरा खिल के मुस्करायेगी।
आपदा धरती पर आने से ही
कतरायेगी।।

*वंदना सोलंकी*©स्वरचित
शीर्षक:- वसुन्धरा
🌹🌹🌹🌍🌹🌹🌹
अब जागो और सब जागो
भारत वसुधंरा निवेदन करे
मत निकलो घर से बाहर
लाल मेरे हमको दुख होवे
आंसू झर झर बहते रहते
कब समझोगे मेरे लाल
कैसे गर्त से लाकर यहाँ
खड़ा किया विश्व पटल
अब त्यौ मानो अब जानो
कुछ समय की बात है
दुबके रहो दुबके रखो
बाल गोपाल ईष्ट मित्रों को
को ई रो ड पर ना आओ
यह कोरोना कहर है
🚩🌳🚩🌍🚩🌳🚩
स्वरचित
राजेन्द्र कुमार अमरा

शीर्षक- वसुंधरा/धरा/वसुधा
दिनांक 31/03/ 2020
दिन- मंगलवार

आशा -निराशा के भाव लिए
बढ़ा कारवां घर की ओर ।
तपती धूप, झुलसती काया,
ताक रहा वो नभ की ओर ।

टपकी बूंदे गिरी धरा पर,
हल्का सा स्पंदन करती।
आंचल फैलाये खड़ी वसुधा,
बूंदों का आलिंगन करती।

सिर पर गठरी पैरों में छाले,
क्षुधा पेट को तड़पाती.....
सजल नेत्र सहलाती वसुधा
निशा अंगीकार करती..... ।

भूख प्यास से विहल कारवां
बढ़ चला मंजिल की ओर।
बच्चों को गोदी में उठाये,
बढ़ रहा कारवां गांवों की ओर।

आशा की एक नई किरण
नई चेतना से भर देती ।
जागृत करती चाह हृदय की
नई स्फूर्ति से भर लेती।।

स्वरचित, मौलिक रचना
रंजना सिंह
प्रयागराज
विषय-वसुंधरा
विधा-हाइकु
31-03-2020मंगलवार
🌳🌳🌳🌳🌳🌳
माँ वसुंधरा
एक दो तो हजार
वापस देती👌
🌻🌻🌻🌻🌻🌻
हरी-भरी हो
वसुंधरा मुस्काती
ऋतु पावस👍
🏅🥇🎖️
लागे वीरान
ऋतु पतझर में
प्यारी धरती💐
🌷🌷🌷🌷🌷🌷
🌹श्रीराम साहू
दिनांक- 31/03/ 2020
वार- मंगलवार
आज का विषय- वसुंधरा/धरती
*************************************

धरती है हम सब की माता
हम इसकी संतान हैं
धरती से है अन्न-जल-जीवन
धरती से ही सकल जहान है।
कहीं नदी कहीं है झरना
कहीं पर्वत-वृक्ष विशाल हैं
धरती है हम सब की माता
हम इसकी संतान हैं।
पले-बढ़े हम इस धरती पर
इस धरती पर हमको नाज़ है
धरती है हम सब की माता
हम इसकी संतान हैं।
धरती अपनी करुणा का सागर
ममता का भंडार है
धरती अपनी स्वर्ग से सुंदर
महिमा इसकी अपरंपार है
धरती है हम सब की माता
हम इसकी संतान हैं।

स्वरचित- सुनील कुमार

जिला- बहराइच,उत्तर प्रदेश।

दिनांक- 31/03/ 2020
वार- मंगलवार
आज का विषय- वसुंधरा/धरती
*************************************

धरती कहे पुकार के
सारे इस जहान से
बहुत बुरा है मेरा हाल
मत बढ़ाओ अब तुम भार।
पहले से ही है इतना भार
हो गई अब मैं बहुत बेहाल
आबादी ऐसे ही जो तुम बढ़ाओगे
सुखी कभी नहीं रह पाओगे
हे मानव अब तो चेतो
बढ़ती आबादी का
कोई हल तो सोचो।
कहीं ऐसा न हो जाए
तुम्हारे कर्मों की सजा
मुझे मिल जाए
और असमय ही
मेरे प्राण निकल जाएं।

स्वरचित-सुनील कुमार
जिला- बहराइच, उत्तर प्रदेश।
विषय-वसुंधरा
दिनांक 31-3-2020



माँ वसुंधरा गोद, देखो उजाड़ रहा नादान।
अपने स्वार्थ अंधा हो,मनु बन रहा हैवान।

करता नित काम खोटे,और बनता महान।
नहीं किया कोई सत्कर्म,कैसे करूं बखान।

हर तरफ गंदगी फैलाता,चलता सीना तान।
प्रभु श्रेष्ठ रचना मनु,क्यों खोता तू पहचान।

अनमोल जीवन को मनु,मत कर यूं बर्बाद।
माँ को हरा भरा कर,तू है माँ की ही संतान।

अपना सबको मान,रहने को दिया स्थान।
इतिहास गवाह,इसे तुने बनाया शमशान।

मतलब का लग गया रोग,बन गया बेईमान।
भुला दी इंसानियत तुने,और हो गया हैवान।

जहर घोल धरा,बना दिया इसे तुने विरान।
अब भी वक्त संभल जा,बन जा तू इंसान।

कहती वीणा वसुंधरा,है तेरी माँ के समान।
मां को कष्ट दे रहा,खो रहा अपना ईमान।


वीणा वैष्णव"रागिनी"
स्वरचित
कांकरोली
दिनांक ३१/३/२०२०
शीर्षक-वसुंधरा/,धरा

तांका
१)
रहे धरती
हरी भरी हमेशा
मेरा कर्त्तव्य
हम रहेंगे आगे
तब दुनिया जागे

२)

दायित्व मेरा
धरती रहे हरी
प्रयत्न सदा
फसल ही उपजे
बंजर भूमि हँसे।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव

31/3/2020/मंगलवार
*वसुंधरा*काव्य

आज अनवरत रो रही मां वसुंधरा।
सोच रही क्यों कर मैंने मौन धरा।
सब मेरी छाती पर मूंग दलते हैं,
फिर क्यों लगे राज काज मुझको गहरा।

यहां सबको ताल‌ तलैयां सरिता दी।
सभी सुन्दर बाग बगीचे बगियां दी।
फैला दी हरियाली सुखद चहुंओर,
इस जग को सुख मनोरंजन खुशियां दी।

फिर भी लूट रहा मानव निशदिन मुझको।
यहां खोद रहा पर्वत नदिया सबको।
मैं ही धरनी,धरती, वसुधा,वसुंधरा,
तुम्ही सब नोंच रहे नित मेरे तनको।

इस प्रकृति से करो छेड़छाड़ जितनी,
तुम सारे उतने ही कष्ट उठाओगे।
अभी देख रहे और देखोगे कहीं,
इस रोग से तड़प-तड़प मर जाओगे।

स्वरचित,
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र

*वसुंधरा*काव्य
31/3/2020/मंगलवार
भावों के मोती ।
३१-३-२०
बिषय- वसुन्धरा ।

जयति जननी ,धरनी धरा ।
बन्दनिय है भूमि बसुन्धरा ।

रक्षक भी भू भक्षक भी भू ।
है गर्भिणी रत्न गर्भा भी भू ॥
भरणी भी भू तरणी भी भू ॥
बिकरालिनी शुभ सुन्दरा ।

अकालिनी प्रति पालिनी ।
सरताजनी जग साधिनी ।
कंकालिनी जो स्वामिनी ॥
हरित हितकर जग धरा ।

आधारणी भू भारणी ।
स्वरूपिणी धारणी ।
फलनी तू करतारणी ॥
मूल तू ही धरती धरा ॥

मदनगोपाल शाक्य ।पान्चाली ।
कम्पिल ।फर्रूखाबाद । उ .प्र . ॥
आज का विषय- वसुंधरा
स्वरचित।

बसंत आ गया और
सारे जहां पर छा गया।
वसुंधरा को सतरंगी
सुंदर चुनरी पहना गया।।

श्वेत-जामुनी रंग सुनहरे
लाल-गुलाबी,नीले-पीले
हरियाली इसके कण-कण में
महके सुमन खिले खिले।।

सबको धारण करती है
सबका पोषण करती है।
सितम सह रही सबके हंसकर
फिर भी शिकायत ना करती है।।

हे इंसा! तुम क्यों हो?
इतने संवेदना विहीन।
जिस डाल पर बैठे सुरक्षित
उसको काट रहे मतिहीन।।

भौतिक सुख-सुविधा में खोए
फैला रहे कचरा प्रदूषण दीन।
मां जब रूठेगी कोप करेगी
समझोगे शायद उसी दिन।।

निकल चुकेगा समय हाथ से
तुम फिर बहुत पछताओगे।
देर हो चुकी होगी तब तक
कुछ ना तुम कर पाओगे।
अपने ही पैर पर मार कुल्हाड़ी
पीढ़ियों तक संभल ना पाओगे।।
****
प्रीति शर्मा"पूर्णिमा"
31/03/2020
मंगलवार/31मार्च/2020
विषय - वसुंधरा
विधा - स्वतंत्र
" वसुंधरा "

वसुंधरा आज मौन है,
एकाकीपन लिए ....
सब जीवन में चल रही ,
कब क्या हो जाए ....
सहम कर सबसे बोल रही !!

अंतर्मन की पीड़ा को,
चेतन मन में ढो रही ...
जन जीवन अस्त व्यस्त
विश्व वेदना में सिसक रही!!

ओहः वसुंधरा होना भी,
एक अभिशाप सा लगता है।
मानव व्यर्थ में ही मरता है ।
आज चीन के गलती का
परिणाम हर कोई भुगत रहा !!

मैं मौन भाव से खड़ी ...
स्मृतियों के आँगन में-
कभी खुद को कभी
गगन निहारा करती हूँ!!

स्वरचित मौलिक रचना
सर्वाधिकार सुरक्षित
रत्नों वर्मा
धनबाद -झारखंड
31/3/20



आये ऋतुराज देखो बहार के दिन है।
महक उठी बसुंधरा बहार के दिन है।

आगमन कर रही पहन पीली चुनरिया।
गगन देख मगन हुआ बहार के दिन है।

कली कली खिल उठी भ्रमर भी बहक उठे।
मधुर गीत गान कर रहे बहार के दिन है।

नवीन पात झूमते समीर सङ्ग है खेलते।
नही रहे वो पत्ते विहीन बहार के दिन है।

हवाये भी है झूमती नशे मेंबहकी बहकी सी
कोयल भी गीत गा रही बहार के दिन है।

ऋतु राज छ। गया फागुन भी लो आ गया।
लौट आओ न ओ सनम बहार के दिन है।

स्वरचित
मीना तिवारी
वसुंधरा

बेरहम इन्सान
प्रकृति से खिलवाड़
बढ़ता प्रदूषण
घटता जल स्तर
कांक्रीट के महल
कटते वृक्ष
घटते जंगल
बिगड़ता पर्यावरण
तबाही ही तबाही
बिलखता इन्सान
बैचैन वसुंधरा

माँ का प्यार
धरती का दुलार
सहती विपदा
बनाती संतुलन
देती चेतावनी
बार बार
अब भी चेतो
हे इन्सान
मत बनो हैवान
आत्मा है सब में
जीव जन्तु हो या
इन्सान
करते क्यों बेजुबां
पर अत्याचार
बन कर कहर ढाता
कोरोनावायरस

व्याकुल है धरा
रूक गयी
दुनियां की धारा
अब भी सुधर जा
ऐ इन्सान
व्याकुल है वसुंधरा

स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
विषय : वसुंधरा
तिथि : 31.3.2020
विधा : कविता

करते हैं दुआ हमारी वसुंधरा
पाप, प्रदूषण से होवे मुक्त,
शुद्धता, शुभता,खुशहाली व-
नव दीवाली से,सदा रहे युक्त।

बहुत विध्वंस किया इसका
बहुत किया इसका विनाश,
टुकड़ों टुकड़ो मे बांट कर
किया हृदयविदारक उत्पात।

देशों और राज्यों के टुकड़े
धार्मिक भूखंडों के दुखड़ै
क्योकर यह विचार हुए पुष्ट!
विश्वबंधुत्व क्यों हुआ रुष्ट!

हो पुनः हरियाली-खुशहाली
आओ धरा को करें संतुष्ट
बनाना है इसे पूर्व सा स्वस्थ-
सुंदर, निरोग और तंदुरुस्त।

जंगल कटने पर लगे टोक
स्वार्थी वृत्तियों पर लगे रोक,
प्रेम प्यार हो पुनः हृष्टपुष्ट-
विषैले विचार हो जाएं लुप्त।

करते हैं दुआ हमारी वसुंधरा
पाप, प्रदूषण से होवे मुक्त
शुद्धता, शुभता,खुशहाली व-
नव दीवाली से,सदा रहे युक्त।

-रीता ग्रोवर
-स्वरचित
विषय:-वसुंधरा
विधा:-हाइकु
1
जीव पालना
वसुंधरा की गोद
ममतामयी
2
सूर्य प्रकाश
वसुंधरा की ऊर्जा
जीवन आस
3
प्रकृति प्यार
हरीतिमा बिखरी
वसुधा पर
4
धरा हमारी
हम पे बलिहारी
सबसे प्यारी
5
आगत जन्म
धरा के आँचल में
खुशियां लिए
6
समाधि स्थल
मोक्ष दायक धरा
जीवन मृत्यु
7
प्रकृति निधि
वसुंधरा सुरक्षा
प्राणी कर्तव्य।

मनीष श्री
विषय-धरा/वसुंधरा/
31/03/2020

बोझ धरा पर था अधिक,अकुलानी अति जोर।
साँसें भी घुटने लगी,चली नाश की ओर।।

प्राणवायु प्रतिशत घटा, इक्किस से अब बीस।
घोर प्रदूषण था रहा,वसुंधरा को पीस।।

जहरीली गैसें बनीं, तीखी छेदक यंत्र।
छेद किया ओजोन में,बिगड़ा भू का तंत्र।

वसुंधरा जलने लगी,गरमी से अति त्रस्त।
पराबैंगनी किरण ने,किया धरा को पस्त।

भृकुटि प्रकृति की तब चढ़ी,हुआ क्रोध विकराल।
कोरोना के रूप में,बढ़ा आ रहा काल।।

वाहन, मोटर ,परिवहन,सब कुछ है अब बंद।
साँस धरा अब ले रही, उमग रहा आनंद।

सजा मनुज को मिल गई, जीव-जंतु हैं मुक्त।
मानव घर में बंद है,घोर वेदना युक्त।।

आशा शुक्ला
शाहजहाँपुर, उत्तत्तरप्रदेश
भावों के मोती
३१/३/२०२०
विषय _वसुंधरा
वसुंधरा
हरी भरी यह धरा हमारी
कश्मीर से कन्याकुमारी
गंगा कल कल निर्झर बहती है।
कितना पावन‌ कितना निर्मल
है इसकी जलधारा
कितनी प्यारी है हमारी वसुंधरा ।
जी करता है यहीं बस जाएं
छोड़ के मोह माया
ये कश्मीर की हरी वादियां
ये आवारा बादल
रुई के फाहे से श्वेत बर्फ
सूर्य की रश्मियों से
झिलमिल सितारों से चमकते हैं
दूर दूर तक बर्फ फैले है
मन बच्चा बन जाता है।
गंगा की लहरों की बात निराली
सूफी संत का डेरा है
ऋषि मुनियों की पावण वाणी
गंगा तट पर ही सुनने मिलती है।
ऊंचे पर्वत नील सिन्धु
इसका छटा निराली है ।
जहां खेतों ‌में लहराती
फसलों हरियाली है
जहां बैलों की घंटी बजती
हर घर में खुशहाली है
मंदिर ‌मस्जिद‌ गुरुद्वारा
हमारी वसुंधरा की शान है।

माधुरी मिश्र
जमशेदपुर
तिथि-31/03/2020
विषय-वसुंधरा

शीर्षक-वसुंधरा

हरी-हरी वसुंधरा,नीला-नीला ये गगन
बादलों के उर में मन्द-मन्द मुस्कुरा रहा पवन
अपने वसुंधरा की रुप छटा ही निराली है
धरती हमारी माता,ऋषि-मुनि भी करते इसका बखान है।

तपस्वी से अटल खड़े ये पर्वतों की तुंग चोटियाँ
इन रास्तों से गुजरती सर्पीली घुमावदार घाटियाँ
इसके उर में बहती नदियों की रसधार है
कहीं अनंत,विशाल सागरों का विस्तार है

कहीं जंगलों से भरा,कहीं हरित खेतों का नव रुप,नव शृंगार है।
हमारी वसुधा का रुप है मनोहर
हर ऋतु में प्रकृति का ये मनुहार है।

बसंत में खिले चटक फूल,कोयल की होती कूक
गर्मी की दोपहरिया है अनमनी सी
वर्षा रानी की चुनर है धानी सी
शीत की ठिठुरती रातें,कम्बल में लिपटा संसार है।

छायी प्रकृति पर यौवन की बहार,
सूर्य की स्वर्णिम रश्मियों से हमारी शस्य श्यामला ने किया नव शृंगार है
निहारें हम,,,ये उस,,अनंत-विराट की कल्पना का रुप साकार है!


अनिता निधि
न्यू बाराद्वारी,साक्ची
जमशेदपुर,झारखंड
विषय वसुंधरा

मन मे भाव यही है भरा
हरी भरी रहे ये वसुंधरा

कल कल बहे निर्झरा
बसंत हो चहुं ओर भरा
महक वासंती बहती रहे
मौसम सदा रहे हरा भरा
पंछियों का मधूरम गान
करे मन को नित मनोहरा

मन मे भाव यही है बस
हरी भरी रहे ये वसुंधरा

काटे न जाए पेड कभी
न पहाडो पे सितम हो
नदियों का जल हो शुद्ध
पवन मे ना प्रदूषण हो
पंचतत्व का हो संयोजन
प्रसन्नचित रहे विश्वंभरा

मन मे भाव यही है बस
हरी भरी रहे ये वसुंधरा

कमलेश जोशी
कांकरोली राजसमंद

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