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ब्लॉग संख्या :-319
घायल दिल को राहत है
मुहब्बत यह इबादत है ।।
कलम में जादू कर गई
ये अजीबोगरीब चाहत है ।।
बर्षों देखा न लफ़्ज़ कहा न
आखिर कैसी ये रिवायत है ।।
लब पे मुस्कान सुर में तान
तन में सांस कैसी हिमायत है ।।
किस्मत की ही थी अदावत
न शिकवा है न शिकायत है ।।
उदास दिल को यादें काफी
कैसी शिफ़ा कैसी इनायत है ।।
मुहब्बतों में दम तो है ''शिवम"
मगर सबको क्यों न आमद है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
मुहब्बत यह इबादत है ।।
कलम में जादू कर गई
ये अजीबोगरीब चाहत है ।।
बर्षों देखा न लफ़्ज़ कहा न
आखिर कैसी ये रिवायत है ।।
लब पे मुस्कान सुर में तान
तन में सांस कैसी हिमायत है ।।
किस्मत की ही थी अदावत
न शिकवा है न शिकायत है ।।
उदास दिल को यादें काफी
कैसी शिफ़ा कैसी इनायत है ।।
मुहब्बतों में दम तो है ''शिवम"
मगर सबको क्यों न आमद है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
तेरी सोचों के
नीले आकाश में
पंछी बन
विहार करती हूँ
तेरे ख्यालों के समंदर में
मैं डूब डूब जाती हूँ
इक पल मैं
राहत नहीं पाती हूँ
ये सिलसिले
क्यों खत्म
नहीं हो पाते हैं
उगते सूरज में
क्यों चेहरा
तेरा दिखता है
ऊषा की लाली
खोल जाती है
यादों की पोटली
एक एक लम्हा
उसमें से
चुन चुन कर
उठाती हूँ
आंखों में भर लेती हूँ
पल पल उन्हें जीती हूँ
इक तेरा ख्याल
सजा रहता है
दिन भर
पलकों पर
घिरती साँझ
मुझे क्यों उदास
कर जाती है
रात बैरन बन
सामने आ जाती है
तुझे पाने को
मेरी सांसें
फिर पंख फड़फड़ाती हैं
ये सिलसिले क्यों
खत्म नहीं हो पाते हैं
क्यों एक पल भी मैं
राहत नहीं पाती हूँ
एक बार चले आओ
धीरे से सुला जाओ
थोड़े से लम्हें
राहत के
मेरे नाम कर जाओ
सरिता गर्ग
स्व रचित
नीले आकाश में
पंछी बन
विहार करती हूँ
तेरे ख्यालों के समंदर में
मैं डूब डूब जाती हूँ
इक पल मैं
राहत नहीं पाती हूँ
ये सिलसिले
क्यों खत्म
नहीं हो पाते हैं
उगते सूरज में
क्यों चेहरा
तेरा दिखता है
ऊषा की लाली
खोल जाती है
यादों की पोटली
एक एक लम्हा
उसमें से
चुन चुन कर
उठाती हूँ
आंखों में भर लेती हूँ
पल पल उन्हें जीती हूँ
इक तेरा ख्याल
सजा रहता है
दिन भर
पलकों पर
घिरती साँझ
मुझे क्यों उदास
कर जाती है
रात बैरन बन
सामने आ जाती है
तुझे पाने को
मेरी सांसें
फिर पंख फड़फड़ाती हैं
ये सिलसिले क्यों
खत्म नहीं हो पाते हैं
क्यों एक पल भी मैं
राहत नहीं पाती हूँ
एक बार चले आओ
धीरे से सुला जाओ
थोड़े से लम्हें
राहत के
मेरे नाम कर जाओ
सरिता गर्ग
स्व रचित
आहत को राहत देता बस
परमपिता सबका परमेश्वर
करो भरोसा उसके ऊपर
परम् पूजनीय वह् सर्वेश्वर
राहत देते मातपिता निज
राहत दे आदरनीय गुरुजन
राहत तिनके का काफ़ी है
आनंदित कर देते तन मन
पंचतत्व प्रकृति की राहत
जीवन का सुखद संचरण
स्वस्थ सुखद रखे चराचर
प्राणवायु मिंले आमरण
राहत देते सदा पूजनीय
नित नव सीख वे देते
मन ही मन वे खुद रोते
सदा जीवन हमें हंसाते
अस्वस्थ को स्वस्थ बनाते
चिकित्सक स्वयं रब होता
दुःखी अपाहिज रोते आते
मर्ज हटाकर सदा हंसाता
नमन करते जय जवान को
सदा वतन को राहत देता है
गरल घूंट निशदिन वह पीता
सुख शांति वतन नित भरता है
सुपात्र राहत नित देना
यही हमारा सद्कर्म है
परहित जीना मरना ही
यही हमारा परम धर्म है।।
स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
परमपिता सबका परमेश्वर
करो भरोसा उसके ऊपर
परम् पूजनीय वह् सर्वेश्वर
राहत देते मातपिता निज
राहत दे आदरनीय गुरुजन
राहत तिनके का काफ़ी है
आनंदित कर देते तन मन
पंचतत्व प्रकृति की राहत
जीवन का सुखद संचरण
स्वस्थ सुखद रखे चराचर
प्राणवायु मिंले आमरण
राहत देते सदा पूजनीय
नित नव सीख वे देते
मन ही मन वे खुद रोते
सदा जीवन हमें हंसाते
अस्वस्थ को स्वस्थ बनाते
चिकित्सक स्वयं रब होता
दुःखी अपाहिज रोते आते
मर्ज हटाकर सदा हंसाता
नमन करते जय जवान को
सदा वतन को राहत देता है
गरल घूंट निशदिन वह पीता
सुख शांति वतन नित भरता है
सुपात्र राहत नित देना
यही हमारा सद्कर्म है
परहित जीना मरना ही
यही हमारा परम धर्म है।।
स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
राहत का आशिक तो है सारा जमाना ,
मुमकिन नहीं है सबको इसका मिलना l
दस्तूर दुनियाँ के जो हैं निभाना ,
होगा जरूर मुश्किलों से भी सामना |
होती काँटों भरी जीवन की डगर है ,
फूलों की तमन्ना भूलकर भी न करना |
बस कर्मों की लाठी का ही है सहारा ,
जग में धीरज ही साथी बनेगा हमारा |
परवाह धूप की नहीं हमको है करना ,
कोई तपकर ही तो बन पायेगा गहना |
गिरकर ही तो हमने सीखा है चलना ,
आ जाता है फिर खुद ही सम्हलना |
यहाँ दिल को दिल से राहत है मिलना ,
अपने दिल का दर्पण उजला ही रखना |
सफर जिंदगी का अगर आसान रखना ,
हमेशा राहों में खुशियों को बाँटते चलना |
सदा राहत भरा ही हमें लगेगा जमाना ,
अपनी नजरें हरि चरणों में झुकाये रखना |
स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश
मुमकिन नहीं है सबको इसका मिलना l
दस्तूर दुनियाँ के जो हैं निभाना ,
होगा जरूर मुश्किलों से भी सामना |
होती काँटों भरी जीवन की डगर है ,
फूलों की तमन्ना भूलकर भी न करना |
बस कर्मों की लाठी का ही है सहारा ,
जग में धीरज ही साथी बनेगा हमारा |
परवाह धूप की नहीं हमको है करना ,
कोई तपकर ही तो बन पायेगा गहना |
गिरकर ही तो हमने सीखा है चलना ,
आ जाता है फिर खुद ही सम्हलना |
यहाँ दिल को दिल से राहत है मिलना ,
अपने दिल का दर्पण उजला ही रखना |
सफर जिंदगी का अगर आसान रखना ,
हमेशा राहों में खुशियों को बाँटते चलना |
सदा राहत भरा ही हमें लगेगा जमाना ,
अपनी नजरें हरि चरणों में झुकाये रखना |
स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश
(1)कर्म के बीज
उम्मीद की फसल
देती राहत
(2)परीक्षा खत्म
मिली अब राहत
पार्क में बच्चें
(3)राहत लड्डू
चाहते सभी टट्टू
जो है निखट्टू
(4) शब्द राहत
लॉलीपॉप के जैसा
लगाते आशा
(5)बिना आहट
किया आतंक अंत
मिली राहत
(6)देती राहत
उमस ज़मीं पर
ठंडी बयार
===रचनाकार ===
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश
उम्मीद की फसल
देती राहत
(2)परीक्षा खत्म
मिली अब राहत
पार्क में बच्चें
(3)राहत लड्डू
चाहते सभी टट्टू
जो है निखट्टू
(4) शब्द राहत
लॉलीपॉप के जैसा
लगाते आशा
(5)बिना आहट
किया आतंक अंत
मिली राहत
(6)देती राहत
उमस ज़मीं पर
ठंडी बयार
===रचनाकार ===
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश
हाइकु
1
लंबे हैं पाँव
कैसे मिले राहत
छोटी चादर
2
नशे की लत
परिवार आहत
गुम राहत
3
रूठा है भाग्य
राहत के मंसूबे
झूठे दिखावे
4
मुस्कान बाँटे
वेदना को राहत
सार्थक जीना
5
भूख ने मारा
राहत की चाहत
रोये गरीब
6
शीतल जल
प्यास ढूंढे राहत
मिले मटके
(स्वरचित )सुलोचना सिंह
भिलाई (दुर्ग )
1
लंबे हैं पाँव
कैसे मिले राहत
छोटी चादर
2
नशे की लत
परिवार आहत
गुम राहत
3
रूठा है भाग्य
राहत के मंसूबे
झूठे दिखावे
4
मुस्कान बाँटे
वेदना को राहत
सार्थक जीना
5
भूख ने मारा
राहत की चाहत
रोये गरीब
6
शीतल जल
प्यास ढूंढे राहत
मिले मटके
(स्वरचित )सुलोचना सिंह
भिलाई (दुर्ग )
फड़फड़ाता है
मन का पंछी
उड़ने को
अपनी चाहतों के संग
विस्तृत अंबर में
बंदिशों की
कितनी बेड़ियाँ
जकड़ा हुआ वजूद
लहुलुहान सा
मन का
कोना - कोना
अन्तर में अंकुरित
कितने स्वप्नों के बीज
अगर मिले
नेह की मिट्टी
तो हो पल्लवित
हर आस
जो थी अब तक
आहत !
साँस के उस
कतरे - कतरे को
तब फिर
मिले राहत...!!
स्व रचित
डॉ उषा किरण
मन का पंछी
उड़ने को
अपनी चाहतों के संग
विस्तृत अंबर में
बंदिशों की
कितनी बेड़ियाँ
जकड़ा हुआ वजूद
लहुलुहान सा
मन का
कोना - कोना
अन्तर में अंकुरित
कितने स्वप्नों के बीज
अगर मिले
नेह की मिट्टी
तो हो पल्लवित
हर आस
जो थी अब तक
आहत !
साँस के उस
कतरे - कतरे को
तब फिर
मिले राहत...!!
स्व रचित
डॉ उषा किरण
सुबह से शाम
दौड़ रहा इंसान
भाग रही जिंदगी
रात भी है गमों के नाम
राहत कहाँ ढूँढें ये मन
सामाजिक व्यभिचार
कचोटता है बार-बार
सभी को है अपनी फिकर
मिल रहा आघात
राहत कहाँ ढूँढें ये मन
कर्णभेदी स्वर
मासूमों का चित्कार
सिहर उठा रोम-रोम
असहाय हुआ नादान
राहत कहाँ ढूँढें ये मन
भारतीय परंम्परा
खो रही अपनी गरिमा
भूल रहे हम संस्कृति
पनप रही विकृति
राहत कहाँ ढूँढें ये मन
वीरों की जन्मभूमि
आतंकियों से लहूलुहान
मिट्टी भी रक्तरंजित
राहत कहाँ ढूँढें ये मन
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
दौड़ रहा इंसान
भाग रही जिंदगी
रात भी है गमों के नाम
राहत कहाँ ढूँढें ये मन
सामाजिक व्यभिचार
कचोटता है बार-बार
सभी को है अपनी फिकर
मिल रहा आघात
राहत कहाँ ढूँढें ये मन
कर्णभेदी स्वर
मासूमों का चित्कार
सिहर उठा रोम-रोम
असहाय हुआ नादान
राहत कहाँ ढूँढें ये मन
भारतीय परंम्परा
खो रही अपनी गरिमा
भूल रहे हम संस्कृति
पनप रही विकृति
राहत कहाँ ढूँढें ये मन
वीरों की जन्मभूमि
आतंकियों से लहूलुहान
मिट्टी भी रक्तरंजित
राहत कहाँ ढूँढें ये मन
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
चलते चलते
चाहतों के अंतहीन सफर
मे दूर बहुत दूर चले आये
खुद ही नही खबर
क्या चाहते हैं
राह से राह बदलते
चाहतों के भंवर जाल में
उलझते गिरते पड़ते
कहाँ चले जा रहे है ।
कभी कभी
मेरे पाँवों के छाले
तड़प तड़प पूछ लिया करते हैं
चाहतों का सफर
अभी कितना है बाकी
मेरे पाँव अब थकने लगे है
मेरे घाव अब रिसने लगे है
आहिस्ता आहिस्ता ,रुक रुक चलो
थोड़ा थोड़ा #राहत लेते चलो
हँसते हँसते
बोले हम अपनी चाहतों से
कम कम ,ज्यादा ज्यादा
जो जो भी पाया है
सहेज समेट लेते है
चाहों की चाहत से
अब हम विराम लेते है
अब तन मन दोनों आहत है
#राहत की अब चाहत है
ख्वाहिश को ख़्वाब मे सुला देंगे
अब सिर्फ और सिर्फ़
#राहत ही #राहत की चाहत है ।
स्वरचित
अनिता सुधीर श्रीवास्तव
चाहतों के अंतहीन सफर
मे दूर बहुत दूर चले आये
खुद ही नही खबर
क्या चाहते हैं
राह से राह बदलते
चाहतों के भंवर जाल में
उलझते गिरते पड़ते
कहाँ चले जा रहे है ।
कभी कभी
मेरे पाँवों के छाले
तड़प तड़प पूछ लिया करते हैं
चाहतों का सफर
अभी कितना है बाकी
मेरे पाँव अब थकने लगे है
मेरे घाव अब रिसने लगे है
आहिस्ता आहिस्ता ,रुक रुक चलो
थोड़ा थोड़ा #राहत लेते चलो
हँसते हँसते
बोले हम अपनी चाहतों से
कम कम ,ज्यादा ज्यादा
जो जो भी पाया है
सहेज समेट लेते है
चाहों की चाहत से
अब हम विराम लेते है
अब तन मन दोनों आहत है
#राहत की अब चाहत है
ख्वाहिश को ख़्वाब मे सुला देंगे
अब सिर्फ और सिर्फ़
#राहत ही #राहत की चाहत है ।
स्वरचित
अनिता सुधीर श्रीवास्तव
अजनबी से मुहब्बत हुई।
भूले खुद को है, मुद्दत हुई।
दांव हमने लगाया मगर।
न, मेहरबान किस्मत हुई।
मुझसे झुकना नहीं आया।
यू, बेड़ियाँ मेरी गैरत हुई।
न वो कुछ मेहरबां हुए।
न कुछ हमसे खिदमत हुई।
वो मसरूफ है अपने घर।
न हमें उनकी आदत हुई।
देख लेता है बंद आंखों में।
दिल को जब भी जरुरत हुई।
हम जां - बे - हक हो जाएंगे।
हाय यह कैसी शरारत हुई।
अब तो ईमान डरने लगा।
है ऐसे रुसवा शराफत हुई।
चार बूंदों से बुझती है क्या।
खैर मौसम को राहत हुई।
जब से गिरने लगा मयार है।
नाकाम हर हिफाज़त हुई।
हवस ने किया दिल में घर।
बस खतरे में अमानत हुई।
'सोहल 'बात दिल की कही।
ऐसी भी क्या हिमाकत हुई।
विपिन सोहल
भूले खुद को है, मुद्दत हुई।
दांव हमने लगाया मगर।
न, मेहरबान किस्मत हुई।
मुझसे झुकना नहीं आया।
यू, बेड़ियाँ मेरी गैरत हुई।
न वो कुछ मेहरबां हुए।
न कुछ हमसे खिदमत हुई।
वो मसरूफ है अपने घर।
न हमें उनकी आदत हुई।
देख लेता है बंद आंखों में।
दिल को जब भी जरुरत हुई।
हम जां - बे - हक हो जाएंगे।
हाय यह कैसी शरारत हुई।
अब तो ईमान डरने लगा।
है ऐसे रुसवा शराफत हुई।
चार बूंदों से बुझती है क्या।
खैर मौसम को राहत हुई।
जब से गिरने लगा मयार है।
नाकाम हर हिफाज़त हुई।
हवस ने किया दिल में घर।
बस खतरे में अमानत हुई।
'सोहल 'बात दिल की कही।
ऐसी भी क्या हिमाकत हुई।
विपिन सोहल
तरसती धरा को..
वर्षा की बूंद से राहत..
बेचैन किसान को...
उमड़ते मेघों से राहत...
बिलखते शिशु को...
मातृ आँचल मे राहत...
डगमगाती नौका को..
पतवार से राहत..
बेचैन भंवरों को..
खिलते पुष्पों से राहत..
बेचैन हृदय को..
प्रभु भक्ति से राहत...
स्याह अंधियारों को..
नन्हे दीपक से राहत..
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
वर्षा की बूंद से राहत..
बेचैन किसान को...
उमड़ते मेघों से राहत...
बिलखते शिशु को...
मातृ आँचल मे राहत...
डगमगाती नौका को..
पतवार से राहत..
बेचैन भंवरों को..
खिलते पुष्पों से राहत..
बेचैन हृदय को..
प्रभु भक्ति से राहत...
स्याह अंधियारों को..
नन्हे दीपक से राहत..
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
1. राह राहत
अभी भी है आहट
वो कदमों की
2. जड़ से खत्म
करना होगा अब
आतंकवाद
3. जो देश हित
बात ना करें वो है
दोगले बाज
4. अपनी कुर्सी
पद नेतागिरी के
मशक्कत में
5. ऐसी नेता को
प्रतिबंध लगाओ
सरकार जी
स्वरचित एवं मौलिक
मनोज शाह मानस
सुदर्शन पार्क
मोती नगर नई दिल्ली
अभी भी है आहट
वो कदमों की
2. जड़ से खत्म
करना होगा अब
आतंकवाद
3. जो देश हित
बात ना करें वो है
दोगले बाज
4. अपनी कुर्सी
पद नेतागिरी के
मशक्कत में
5. ऐसी नेता को
प्रतिबंध लगाओ
सरकार जी
स्वरचित एवं मौलिक
मनोज शाह मानस
सुदर्शन पार्क
मोती नगर नई दिल्ली
अतल जलधि में
क्षण-क्षण की अवधि में
उठती गिरती लहरें
विविध विचारों से भरे
उद्धत ज्वार-भाटाएँ
किस ओर लिए जाए
भाव-भरे चक्रवात
इतना प्रबल आघात
टूट गया तटबंध
संग बोझिल संबंध
बरसों से घुट-घुट तरसे जो
मूसलाधार आज बरसे वो
अविरल प्रवाहित द्रव
दारुण जल-विप्लव
बहिर्सतह निमग्न जल धार
अंतस में हूक-हाहाकार
जलप्रलय की विभीषिका मूल है
या खंडित बंध का शूल है
कुहक,क्लेश मन आहत है
विधना,अब क्या आगत है
वो सत्ता बनकर आए तभी
क्षुधा-समिधा बिखराये तभी
समिधा में कोई नेह डोर
मन खींचा चला उस ओर
पनपी जीने की फिर चाहत है
चलो कुहक से कुछ तो राहत है
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
क्षण-क्षण की अवधि में
उठती गिरती लहरें
विविध विचारों से भरे
उद्धत ज्वार-भाटाएँ
किस ओर लिए जाए
भाव-भरे चक्रवात
इतना प्रबल आघात
टूट गया तटबंध
संग बोझिल संबंध
बरसों से घुट-घुट तरसे जो
मूसलाधार आज बरसे वो
अविरल प्रवाहित द्रव
दारुण जल-विप्लव
बहिर्सतह निमग्न जल धार
अंतस में हूक-हाहाकार
जलप्रलय की विभीषिका मूल है
या खंडित बंध का शूल है
कुहक,क्लेश मन आहत है
विधना,अब क्या आगत है
वो सत्ता बनकर आए तभी
क्षुधा-समिधा बिखराये तभी
समिधा में कोई नेह डोर
मन खींचा चला उस ओर
पनपी जीने की फिर चाहत है
चलो कुहक से कुछ तो राहत है
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
----------------------------------------------------------
तेरी चाहत में मुझे राहत नजर आने लगी |
याद मुझको अब तेरी शाम ओ श़हर आने लगी ||
मैं कहीं पर भी रहूँ बैचेन रहता हूँ सदा |
इक नशा बनकर तू मेरी रूह पर छाने लगी ||
हो गई तुझसे मुहब्बत लग रहा शायद मुझे |
इसलिए अब रात आँखों में गुजर जाने लगी ||
हाल अपने दिल का मैं किस तरह कह दूँ तुझे |
बढ़ रही बेताबी ये अब तो कहर ढाने लगी ||
चैन दिल को है कहाँ इस इश्क़ के बाजार में |
फिर भी चाहत में मुझे राहत नजर आने लगी ||
****************************************
प्रमोद गोल्हानी सरस
कहानी सिवनी म.प्र.
#स्वरचित
तेरी चाहत में मुझे राहत नजर आने लगी |
याद मुझको अब तेरी शाम ओ श़हर आने लगी ||
मैं कहीं पर भी रहूँ बैचेन रहता हूँ सदा |
इक नशा बनकर तू मेरी रूह पर छाने लगी ||
हो गई तुझसे मुहब्बत लग रहा शायद मुझे |
इसलिए अब रात आँखों में गुजर जाने लगी ||
हाल अपने दिल का मैं किस तरह कह दूँ तुझे |
बढ़ रही बेताबी ये अब तो कहर ढाने लगी ||
चैन दिल को है कहाँ इस इश्क़ के बाजार में |
फिर भी चाहत में मुझे राहत नजर आने लगी ||
****************************************
प्रमोद गोल्हानी सरस
कहानी सिवनी म.प्र.
#स्वरचित
फुटपाथ पे जिंदगी, और तन बीमार है,
उजाले है दूर, मज़बूर, अँधेरा स्वीकार है,
बेहाल है आज भी, लाचार बदनसीब,
दर्द की झोंपड़ी को राहत का इंतजार है l
घायल रिश्तों से,और तन भी दिव्यांग है,
जीवन जँग कहीं,कहीं मिले तिरस्कार है,
मदद का हाथ हो, स्नेह का मरहम,
दो बोल मीठे भी, राहत की फुहार है l
शिक्षा से वंचित, कोसों दूर बहार है,
नन्हें हाथों पत्थर है,ममता न प्यार है,
आशीष बन बरसेगी राहतें उन पे कभी,
वक़्त को उस दिन का बेसब्र इंतजार है l
विषमता पसरी है,रोते अधिकार है,
हो चुके त्रस्त, अब चाहिए संहार है,
बेरोजगारी,भ्रष्टाचारऔरआतंकवाद,
असुर हो नष्ट,राहत का इंतजार हैl
स्वरचित
ऋतुराज दवे
उजाले है दूर, मज़बूर, अँधेरा स्वीकार है,
बेहाल है आज भी, लाचार बदनसीब,
दर्द की झोंपड़ी को राहत का इंतजार है l
घायल रिश्तों से,और तन भी दिव्यांग है,
जीवन जँग कहीं,कहीं मिले तिरस्कार है,
मदद का हाथ हो, स्नेह का मरहम,
दो बोल मीठे भी, राहत की फुहार है l
शिक्षा से वंचित, कोसों दूर बहार है,
नन्हें हाथों पत्थर है,ममता न प्यार है,
आशीष बन बरसेगी राहतें उन पे कभी,
वक़्त को उस दिन का बेसब्र इंतजार है l
विषमता पसरी है,रोते अधिकार है,
हो चुके त्रस्त, अब चाहिए संहार है,
बेरोजगारी,भ्रष्टाचारऔरआतंकवाद,
असुर हो नष्ट,राहत का इंतजार हैl
स्वरचित
ऋतुराज दवे
सूखती फसलों में पानी की चाहत,
वर्षा का हो जाना
कृषक को राहत!
बिमार को निशूल्क दवा
देती हैं बहुत राहत!
छात्रों को अतिरिक्त कक्षाएँ
देती हैं राहत!
बाढ़ -सूखे में मदद
कहलाती राहत!
गरीब की बिटिया की शादी
दिलाती हैं राहत!
पैदल आने-जाने पर
साईकिल भी दिलाती राहत!
बेघर को आश्रय देना ,
बुजुर्गों के लिए वृद्धाश्रम भी
पहुँचाता राहत ।
अकेले से बतियाना भी राहत! स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा
'निश्छल',
वर्षा का हो जाना
कृषक को राहत!
बिमार को निशूल्क दवा
देती हैं बहुत राहत!
छात्रों को अतिरिक्त कक्षाएँ
देती हैं राहत!
बाढ़ -सूखे में मदद
कहलाती राहत!
गरीब की बिटिया की शादी
दिलाती हैं राहत!
पैदल आने-जाने पर
साईकिल भी दिलाती राहत!
बेघर को आश्रय देना ,
बुजुर्गों के लिए वृद्धाश्रम भी
पहुँचाता राहत ।
अकेले से बतियाना भी राहत! स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा
'निश्छल',
दिल में आज मेरी बहुत बेचैनी सी हैं
तस्वीर तेरी देखी दिल को कुछ राहत मिल गई
याद तेरी दिल में मेरे कुछ इस तरह से आई
जिंदगी के बंजर रूह पर खुशियों की मुस्कान दे गई .
सब जिंदगी में खुशी का ही सुकून ढूँढ रहे हैं
हर नई उम्मीद से ख़ुशी का पता पूछ रहे हैं
बस दिल की राह और राहत को तलाश रहे हैं
इसी सोच में जिंदगी जिये जा रहे हैं .
तुम मेरी जिंदगी का अहम हिस्सा
तुम्हारी मेरी मोहब्बत का अजब हैं किस्सा
आरजू हैं बस मेरे दिल की यही
बनकर रहें हम हमेशा हमराही .
स्वरचित:- रीता बिष्ट
तस्वीर तेरी देखी दिल को कुछ राहत मिल गई
याद तेरी दिल में मेरे कुछ इस तरह से आई
जिंदगी के बंजर रूह पर खुशियों की मुस्कान दे गई .
सब जिंदगी में खुशी का ही सुकून ढूँढ रहे हैं
हर नई उम्मीद से ख़ुशी का पता पूछ रहे हैं
बस दिल की राह और राहत को तलाश रहे हैं
इसी सोच में जिंदगी जिये जा रहे हैं .
तुम मेरी जिंदगी का अहम हिस्सा
तुम्हारी मेरी मोहब्बत का अजब हैं किस्सा
आरजू हैं बस मेरे दिल की यही
बनकर रहें हम हमेशा हमराही .
स्वरचित:- रीता बिष्ट
कौन कहां कैसे रहता है
नहीं किसी की कोई चिंता।
राहत कहां कैसे पहुंचाऐं,
सबसे बडी हो अपनी चिंता।
रोजगार मिल जाऐ हाथों में,
पालनपोषण हो जाऐ निश्चित।
राहत मिले हम सबको जब,
जीवन ना कहीं बने निरर्थक।
राहत अपनों से नहीं मिलती
समस्या सबसे बडे विपक्षी।
सेना को ही ये शर्मिंदा करते,
ज्यों यहां पाकिस्तानी पक्षी।
कुछ गद्धार देश में पलते हैं,
खाते पीते भारत का सारे।
राहत इन्हें राष्ट्र से मिलती है,
फिर भी रोते गाते हैं बेचारे।
बंद करें इन्हें राहत पहुंचाना।
बंद करें हम सब पानी दाना।
जयचंदों को ढूंढ कर मारें हम,
बंद करें मीरजाफर का खाना।
स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
नहीं किसी की कोई चिंता।
राहत कहां कैसे पहुंचाऐं,
सबसे बडी हो अपनी चिंता।
रोजगार मिल जाऐ हाथों में,
पालनपोषण हो जाऐ निश्चित।
राहत मिले हम सबको जब,
जीवन ना कहीं बने निरर्थक।
राहत अपनों से नहीं मिलती
समस्या सबसे बडे विपक्षी।
सेना को ही ये शर्मिंदा करते,
ज्यों यहां पाकिस्तानी पक्षी।
कुछ गद्धार देश में पलते हैं,
खाते पीते भारत का सारे।
राहत इन्हें राष्ट्र से मिलती है,
फिर भी रोते गाते हैं बेचारे।
बंद करें इन्हें राहत पहुंचाना।
बंद करें हम सब पानी दाना।
जयचंदों को ढूंढ कर मारें हम,
बंद करें मीरजाफर का खाना।
स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
तिश्रंगी में जो डूबे रहे राहत को बेकरार है
उजड़े घरौदें जिनके वह ही परेशान है ।
रात के काफिले चले कौ़ल करके कल का
आफताब छुपा बादलों में क्यों पशेमान है
बसा लेना एक संसार नया, परिंदों जैसे
थम गया बेमुरव्वत अब कब से तूफान है
आगोश में नीदं के भी जागते रहें कब तक
क्या सोच सोच के आखिर अदीब हैरान है
शजर पर चाँदनी पसरी थक हार कर
आसमां पर माहताब क्यों गुमनाम है।
स्वरचित।
कुसुम कोठारी।
उजड़े घरौदें जिनके वह ही परेशान है ।
रात के काफिले चले कौ़ल करके कल का
आफताब छुपा बादलों में क्यों पशेमान है
बसा लेना एक संसार नया, परिंदों जैसे
थम गया बेमुरव्वत अब कब से तूफान है
आगोश में नीदं के भी जागते रहें कब तक
क्या सोच सोच के आखिर अदीब हैरान है
शजर पर चाँदनी पसरी थक हार कर
आसमां पर माहताब क्यों गुमनाम है।
स्वरचित।
कुसुम कोठारी।
1
बारिश हुई
अब राहत मिली
उमस दिन
2
जारी है आज
राहत व बचाव-
बाढ़ आपदा
3
सस्ता अनाज
राहत में जनता -
महंगाई से
4
आतंकी मरे
राहत भरी सांस
सेना का शौर्य
5
राहत नहीं
बहुत तेज लू से
गर्मी के दिन
6
औषधि मिली
हुई कुछ राहत -
बीमार रोगी
मनीष कुमार श्रीवास्तव रायबरेली स्वरचित
बारिश हुई
अब राहत मिली
उमस दिन
2
जारी है आज
राहत व बचाव-
बाढ़ आपदा
3
सस्ता अनाज
राहत में जनता -
महंगाई से
4
आतंकी मरे
राहत भरी सांस
सेना का शौर्य
5
राहत नहीं
बहुत तेज लू से
गर्मी के दिन
6
औषधि मिली
हुई कुछ राहत -
बीमार रोगी
मनीष कुमार श्रीवास्तव रायबरेली स्वरचित
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वो अमन- ओ - सुकून की ज़िदगी ,वो राहतें कहाँ
दिलों के दरमया दीवारें खड़ी हैं अब वो चाहतें कहाँ ?
वो दोस्तों की महफ़िलें नहीं रही ,वो भाईचारा नहीं
वो हँसी ठिठोली का माहौल नहीं ,वो मुहब्बतें कहाँ ?
आकाश भी सिहर उठा देख कर ये आलमे-तबाही
दुल्हन सी सजी रातें कहाँ,वो तारों की बारातें कहाँ ?
होठो पे वफ़ा के वो गीत,वादी में तैरता वो संगीत नहीं
सो गए वीणा के तार भी ,वो प्यार की सौग़ातें कहाँ ?
हर सूँ है यहाँ महज़ दंगा फ़साद,हर ज़ानिब है लूट मार
ख़ून सबका सफ़ेद होगया है ,वो रंगों में डूबी रातें कहाँ ?
गलियाँ वीरान सी,आँखें बेनूर सी और दिल ख़ौफ़ज़दा
कहाँ खो गईं वो रानाईयाँ ,वो दिल वो ज़जबातें कहाँ ?
सोचते हैं जाने किसकी नज़र लग गई मेरे गुलिस्ताँ को
ओस में भीगी सुबह कहाँ ,वो चाँदनी में नहाई रातें कहाँ ?
स्वरचित (c)भार्गवी रविन्द्र.....२०१९
वो अमन- ओ - सुकून की ज़िदगी ,वो राहतें कहाँ
दिलों के दरमया दीवारें खड़ी हैं अब वो चाहतें कहाँ ?
वो दोस्तों की महफ़िलें नहीं रही ,वो भाईचारा नहीं
वो हँसी ठिठोली का माहौल नहीं ,वो मुहब्बतें कहाँ ?
आकाश भी सिहर उठा देख कर ये आलमे-तबाही
दुल्हन सी सजी रातें कहाँ,वो तारों की बारातें कहाँ ?
होठो पे वफ़ा के वो गीत,वादी में तैरता वो संगीत नहीं
सो गए वीणा के तार भी ,वो प्यार की सौग़ातें कहाँ ?
हर सूँ है यहाँ महज़ दंगा फ़साद,हर ज़ानिब है लूट मार
ख़ून सबका सफ़ेद होगया है ,वो रंगों में डूबी रातें कहाँ ?
गलियाँ वीरान सी,आँखें बेनूर सी और दिल ख़ौफ़ज़दा
कहाँ खो गईं वो रानाईयाँ ,वो दिल वो ज़जबातें कहाँ ?
सोचते हैं जाने किसकी नज़र लग गई मेरे गुलिस्ताँ को
ओस में भीगी सुबह कहाँ ,वो चाँदनी में नहाई रातें कहाँ ?
स्वरचित (c)भार्गवी रविन्द्र.....२०१९
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