Monday, March 25

" स्वतंत्र लेखन "24 मार्च 2019

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             ब्लॉग संख्या :-337

विषय -इंद्रधनुष 
विधा -दोहा गीत
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इंद्रधनुष छाये गगन,खिले धरा का रूप ।
कुछ ऐसा ही है सखी, जीवन का प्रारुप ॥

इंद्रधनुष सा नेह तो, सतरंगी संसार ।
रंग मिलें मिलकर सजें, पायें रूप अनूप ॥
कुछ ऐसा ही है सखी, जीवन का प्रारूप ॥

एक से दूजा यूँ जुड़ा, इंद्रधनुष पहचान ।
आकर्षण हे साथ में, बिछड़े रूप कुरूप ॥
कुछ ऐसा ही है सखी, जीवन का प्रारूप ॥

इंद्रधनुष में सात हैं, जीवन रंग हजार ।
जो सब धीरज से सहे,@ वही रंग का भूप ॥
कुछ ऐसा ही है सखी, जीवन का प्रारूप ॥

सुख दुख दोनों ही मिलें, जीवन पथ में साथ ।
इंद्रधनुष बनता तभी, संग घटा के धूप ॥
कुछ ऐसा ही है सखी, जीवन का प्रारूप ॥

आशा और उमंग से, इंद्रधनुष के रंग ।
आशा बिन जीवन लगे, अंधकार का कूप ॥
कुछ ऐसा ही है सखी, जीवन का प्रारूप ॥

इंद्रधनुष छाये गगन, खिले धरा का रूप ।
कुछ ऐसा ही है सखी, जीवन का प्रारूप ॥

रचना तिथि 23/03/2019
रचना स्वरचित एवं मौलिक है ।
©®🙏
-सुश्री अंजुमन मंसूरी 'आरज़ू'
छिंदवाड़ा मप्र


आज का कार्य- स्वतंत्र लेखन
विधा-गीतिका
==================
उसे देख मन हर्षाता है ।
दृष्टि मिले तो खिल जाता है ।।

नित्य मिले सम्भव कब-कब है?
कभी-कभी वह टकराता है ।।

कैसे मेरी अर्ज़ सुने वह,
अक्सर मुझसे कतराता है।।

सच्चा प्यार किसे कहते हैं ?
मेरी समझ नहीं आता है।।

नहीं पुकार मेरी सुनता वह,
मर जाऊँ अब अभिलाषा है ।।

उसकी बातें बे मतलब सब,
भेजा सुनकर चकराता है ।।

यही प्रश्न पूछा है उससे ,
क्यूँ कर मुझ को तड़पाता है ।।
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स्वरचित-राम सेवक दौनेरिया "अ़क्स"
बाह -आगरा (u.p.)

 विधा - बंधन मुक्त गीतिका 
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पिता जीवन का आधार है !! 
*********************** 
खुशहाल परिवार की ,पिता एक बड़ी शान है ! 
पिता बिन बनाया ,सुन्दर घर का संविधान है !! 

पिता साथ है तो हर बात बनती है यहाँ देखो ! 
पिता है तो बाज़ार की ,हमारी ,ये सारी दूकान है !!

हर सपने को सच करने की ताकत है इसमें !
अरे पिता ,हमारे लिए एक झुकता आसमान है !!

स्वयं अंधकार से लड़ता है ,हरदम हमारे लिए ! 
पिता घर का जीता जागता , एक रोशनदान है !! 

मजदूरी करता , रिक्शा चलाता , लक्ष्य लाता है ! 
पिता कठिनाइयों को पाटने का एक आव्हान है !!

यदि ,किन्तु ,परन्तु शब्द ,जिसकी डिक्शनरी में नहीं होते ! 
पिता सचमुच में , संघर्ष करता एक महान इन्सान है !!

सही राह दिखाता ,ना थकता ,ना रुकता कभी देखो ! 
अपनी संतान की , पिता एक मुकम्मल पहचान है !!

सबकी जरूरतों की ,परीक्षा में उत्तीर्ण होता हरदम !
एक पिता समझो तो हर समस्या का निदान है !! 

जिनके पिता नहीं होते इस महकती दुनियाँ में ! 
उस परिवार में देखो , आज कितने व्यवधान है !! 

पिता सख्त आवरण है फिर भी बरसाता प्यार है ! 
सच तो यह है कि पिता जीवन का आधार है !! 

* प्रहलाद मराठा
* चित्तौडग़ढ़ ( राजस्थान ) 
* रचना स्वयं रचित ,मौलिक सर्व अधिकार सुरक्षित 


मैं हूँ एक नेता का सन
ुझमें हैं हजार फ़न ।।

राजनीति विरासत में मिली
कई पीढ़ियों से यह गली ।।

इसी में मैं सदा से घूमूँ 
नसीबा मैं अपना चूमूँ ।।

राजनीति अनुवांशिकी हो गई 
मुझको इससे आशिकी हो गई ।।

मुझे लगे यह महबूबा
इसी में मैं रहूँ डूबा ।।

मैं सच्चा आशिक महबूबा न और 
मेरे इस हालात पर कीजिये गौर ।।

हालात बड़े जटिल हैं
लोग बडे़ कुटिल हैं ।।

मेरे हालात पर हंसते हैं
मुझमें कुछ न दिखते हैं ।।

क्या मैं अपवाद हूँ
क्या मैं प्रतिवाद हूँ !!

हाथ का इसारा है 
दूसरा न चारा है ।।

आचार संहिता लागू है
यह दिल बड़ा बेकाबू है ।।

खोल दिया है पोथन्ना 
रहना भाइयो चौकन्ना ।।

प्यार 'शिवम' जो करते हैं
इस दर्द से वो गुजरते हैं ।।

दर्द मेरा यह जानिये 
मुझमें कुछ पहचानिये ।।

लाज पूर्वजों की बचाऊँ 
मैं भी कुछ कर जाऊँ ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"

लम्बी जिन्दगी
"""""""""""""""""""

तकदीर की रूसवाई है या
जमाने का दस्तूर
खुद को सम्हालूं तो खुदा रूठ जाता है
खुदा की इबादत में 
अपनों का वक्त छूट जाता है...।

बड़ी उलझने है चार दिन की
लम्बी जिन्दगी में
बचपन को जीने की हसरतों में
जवानी को गम मिल जाता है..
ढ़लती सांझ की बात ही मत करो
कदमों से निकल अपना ही साया
अजनबियों की तरह दूर चला जाता है....।

उदास भी रहा और 
हँस कर भी जीया था जमाने में
आँसुओं की लकीरों में
अक्सर खुद ही पाया जाता था
नज़ूमी बहुत मिले थे राहों में
हथेलियों में खुद ही 
गुम जाया जाता था..।

बड़ी ज़द्दोज़हद के बाद आया है
हुनर जिन्दगी जीने का
पत्थरों को देखते ही दिल
नाचने लग जाता है
राहें नहीं बदलता अब उनको देख
खंजरों के बीच भी साबूत
जिस्म निकल जाता है...।।

स्वरचित
✍🏻 गोविन्द सिंह चौहान

जिंदगी चार दिन की ,अहसान तो मान
जी भर के जी ,थोड़ा गुमान तो मान।

चल पतंग को आकाश से ही लूट लाते है
हौसलों में जिंदगी को उड़ान तो मान।

क्यूँ बैठे हम ,तन्हाई बनकर कौनो में
जी भर के हँस इसे मुस्कान तो मान।

जो गुजर गया जाने दे, जज्बों में जी
इस जिंदादिली को पहचान तो मान।

जवानी में ही क्यूँ बूढ़े हो के मरते हो
हर फलसफे को थोड़ा जवान तो मान।

मेरा बस चले तो ता उम्र खिलखिलाऊँ
जिंदगी से दिल लगा अपनी जान तो मान।

यहाँ सर पे हाथ रख कौन बैठा #राय
ख़ुद में खुद होने के दरमियान तो मान।


पी राय राठी
भीलवाड़ा, राज
मैंने आदिकाल से ,
संघर्षों को देखा है, सहा है,
मेरे ही आंखों से पानी,
आँचल से दुध बहा है,
मैं 'स्त्री' हूँ,
ये किसे नही पता है...???

पुरातन में जब,
तुम बिना वस्त्र ,
उदर-छुधा मिटाने को,
भटकते थे कंदराओं में,
और फिर जब थककर,
खोजते थे आश्रय तुम,
तब मैंने ही तुम्हे,
प्रश्रय दिया था अपने,
गन्धवाही केशों के छाँव में,

जब विकशित हुई धरा,
तब तुम ही तो थे,
जो भूल गये थे मेरे अस्तित्व को,
और लगा देते थे दांव पर,
जैसे कोई वस्तु हूँ मैं....

विनोद तुम्हारा, क्रीड़ा तुम्हारी,
अहम तुम्हारा, प्रतिशोध तुम्हारा,
पर प्रताड़ित मैं होती,
अपने सारे गुणों को समेटे,
मैं अबतक तुम्हारे जीवन,
को सम्हालती, संवारती आयी हूँ,
पर तुमने तो मेरे अस्तित्व,
को ही नकारा,
मुझे दुत्कारा...

जब काम-अग्नि,
हावी होती तुम पर
तब तुम मुझसे,
करते हो अभिनय प्रेम का,
पर मैं भले कामवश ही सही,
पर जब भी मिला मैंने,
सृजन के वीज को,
अंकुरित किया, सींचा-
रक्त से, स्नेह से,
और इस धरा को,
भविष्य के लिये ---
अग्रसारित किया,

पर तुम्हे क्या पता,
की, हर प्रसव पर,
पुनः जन्मी हूँ मैं,
पर इस पीड़ा को,
कभी बोझ न समझा,
पर तुम कहाँ समझोगे,
तुम तो मासिक धर्म को भी,
समझते हो अभिशाप,
जो की प्रक्रिया है,
सृष्टि के नव-पौध के,
अंकुरण का---

.....जब से विकशित हुये हो,
तब से ज्ञान इतना बढ़ा की,
बेटी के बाप से जो,
अपना वर्षों का संचित-रत्न,
तुम्हे सौंप रहा है,
उससे तुम गाड़ी,बंगला,
मांगते हो,
इस मानवीय मेल को,
जार-जार बना दिया
समाज के सबसे पवित्र रीति को,
बैल-बाजार बना दिया,

तुमने क्या नही किया,
डराया, धमकाया,
रुलाया, जलाया,
हमने इसे अपनी,
नियति मान लिया,
पर तेरा मन न भरा,
तूने मुझे गर्भ में ही मार दिया,

...ऐ निष्ठुर नियति,
तू ही बता क्या,
विधि का यही विधान है,
हर छण नारी जीवन,
मृत्यु के समान है,

मृत्यु के समान है.........

© राकेश पांडेय,

नमन मंच भावों के मोती
शीर्षक स्वतंत्र लेखन
विधा लघुकविता

24 03 2019,रविवार

दया ममता स्नेह समर्पण
त्याग तपस्या की मूरत हो
नारी तुम कुछ और नहीं हो
साक्षात देवी की सूरत हो
नारी तुम सृष्टि की सृष्टा हो
तुम तरंग हो तुम उमंग हो
तेरा आँचल है अवतारित
तुम जीवन प्रिय सुगन्ध हो
भिन्न भिन्न हैं रूप तुम्हारे
तुम माता तुम हो बहिना
तुम बुवा हो तुम दादी हो
तेरा क्या पतिव्रता कहना
हम झूले पावन बांहों में
वात्सल्य से बड़े हुये हम
तेरा स्नेह पावनमय गङ्गा
भूलें अमर प्रेम न हरदम
सागर भी स्याही बन जाये
बने गगन विस्तृत कागज
यशोगान छोटा पड़ता नित
ममतामयी अद्भुत है राज
नतमस्तक सब तेरे आगे
ऋण उऋण नहीं हो सकते
सौ जन्म धारण करके भी
मात्र शीश झुका हम वरते।।
स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

वजह क्या थी !!

मिसाल कोई मिलेगी
उजडी बहार में भी
उस पत्ते सी
जो पेड़ की शाख में
अपनी हरितिमा लिये डटा है
अब भी।
हवाओं की पुरजोर कोशिश
उसे उडा ले चले संग अपने
कहीं खाक में मिला दे
पर वो जुडा था पेड के स्नेह से
डटा रहता हर सितम सह कर
पर यकायक वो वहां से
टूट कर उड चला हवाओं के संग
वजह क्या थी ?
क्योंकि पेड़ बोल पड़ा उस दिन
मैने तो प्यार से पाला तुम्हे
क्यों यहां शान से इतराते हो
मेरे उजड़े हालात का उपहास उड़ाते हो
पत्ता कुछ कह न पाया
शर्म से बस अपना बसेरा छोड़ चला
वो अब भी पेड के कदमो में लिपटा है
पर अब वो सूखा बेरौनक हो गया
साथ के सूखे पुराने पत्तों जैसा
उदास
पेड की शाख पर वह
कितना रूमानी था।

स्वरचित

कुसुम कोठारी।

- स्वामी विवेकान्द के प्रति -
*
पश्चिम को निज संस्कृति का,संबोधन "भाई -बहन दिया।
वैश्विक धर्म -सभा मेंअपना ,भास्वर चिंतन गहन दिया।
विविध धर्म-ध्वजियों के सम्मुख, भारत-संस्कृति वंद्य हुई।
सर्व -धर्म समभाव,स्नेह, मैत्री - स्वर सेअभिनंद्य हुई।

जिसकी गरिमामयी गिरा में गूँजी आत्मा भारत की।
"मानव -पूजा ही सर्वोपरि,करो आरती आरत की।
उठो,जाग्रत हो,अपने अवदात प्राप्य का वरण करो।
धारण कर शुचि सूत्र सनातन, मंगलमुद आचरण करो।

अशिव, अंधविश्वास, अशिक्षा,। कुरीतियों का दमन करो।
ऊँच-नीच का तिमिर मिटा ,मनुजत्व -श्रेष्ठ का वरण करो।
स्वावलंब,साहस, दृढ़ता से ,परवशता पर पावँ धरो।
स्वाभभिमान से उदग्रीव हो,संतप्तों पर छावँ करो।"

जिसके शुचि सन्देश जगाते, कर्म-चेतना जन -जन में।
नव निर्माण स्वप्न सज उठते, युवा-शक्ति के तन-मन में।
नमन कोटिउस ज्योति-पुंज को, जिसकी आभा अमित अमन्द।
धन्य आर्ष प्रग्या पुनीत के मूर्त-स्वरूप विवेकान्द ।।

--डा.उमाशंकर शुक्ल 'शितिकंठ'

पेड़ का सँस्कार
💞💞💞💞💞💞

वो पेड़! गुनगुना रहा था,अपना ही कोई तराना,
मुझे अच्छा लगा,उसका मुक्त हो मुस्कराना।
मुझे देख वो ,अचानक ही बोल गया,
और नीचे से ऊपर तक मुझे तोल गया।

बोला! लो ले लो तुम, चाहे मेरी यह बाँह,
पर थोड़ा तो बैठो ,फैला दूँ तुम्हारे लिये अपनी छाँह,
दे दूँ तुम्हें थोड़ी देर को, अपनी शीतल ये पनाह,
फिर डाल लेना अपनी चाहे, वही बुरी बुरी निगाह।

मैंने कहा, स्वाभाविक है मित्र, तुम्हारा होना खिन्न,
लेकिन चाहे जो हो तुम हो, मेरे बहुत अभिन्न,
देख लो तुम आज मैं, शिव मन्दिर नहीं जा रहा ,
उनके गीत भी ,आज मैं नहीं गा रहा ।

मैं इन आँखों से तुम्हें, अर्ध्य भरपूर दूँगा आज,
इन अश्रुओं में सुनना तुम , मेरी दर्दमय करुण आवाज़,
मैं जानता हूँ,तुम्हारा होना अनगिनत संदेश देता है,
जीवन के कई अनमोल ,सुन्दर परिवेश देता है।

तुम्हारी एक डाल ही,सूर्य के आगे तन जाती ,
उसकी प्रचण्ड धूप भी, इसमें सुन्दर छन जाती ,
तुम्हारी एक डाल ही,प्रदूषण को ललकार जाती ,
और ढीले पड़ते पर्यावरण को,ढंग से सँवार जाती ।

तुम्हारी एक डाल ही, फूलों के अम्बार लाती
खुशबूओं से भरा, एक अनोखा संसार लाती
तुम्हारी एक डाल ही, फलों के उपहार देती
अनोखे रसों से भरा, एक मस्त परिवार देती। 

तुम्हारी एक डाल ही, बच्चों को झूला झूलाती
और ऊचाईयों से उनका, छोटा सा परिचय कराती, 
तुम्हारी एक डाल ही, झुकने के आयाम सुनाती
और सबको ही अपने, अनमोल आशीर्वाद लुटाती। 

हाँ मैं ही हूँ,मैं ही तो हूँ,एहसान फरामोश,
पर अब आ रहा है,मुझे भी कुछ होश,
ये हथौड़ा,ये आरी,और ये सारे औज़ार,
तुम्हें उजाड़ने वाला ये सारा परिवार,
मैं छोड़ता हूँ,तुमसे नाता जोड़ता हूँ
अपने स्वयम् के कान, मरोड़ता हूँ।

खुशी में हवा के साथ,उसने किया फिर साँय साँय ,
यह उसकी स्वीकृति थी, जो कहती थी आप आँय आँय
छोटा हो, बड़ा हो या हो फिर अधेड़
बहुत ही बहुमूल्य हैं, हमारे लिये ये पेड़।

जय श्रीकृष्ण

🌺 गीत 🌺
*********************
☀️☀️☀️☀️☀️☀️☀️☀️

सोंधी-सोंधी याद तुम्हारी ,
रह- रह कर तड़पा जाती है ।
बीते हुये लम्हों की खुशुबू ,
जिय को फिर मचला जाती है।।

तुम आये तो नेहा जागा ,
कोमल मन में प्रीति समाई ।
प्यार का अंकुर जब उगाया ,
दिल ने बरबस ली अँगड़ाई ।।
बातों का फिर चला सिलसिला ,
लगा, वक्त सरपट भागा था ।
सूरज जाने कब ढल जाता ,
रात चाँदनी सब त्यागा था ।।

प्यासी आँख दूर हुई निंदिया ,
बस सावन बरसा जाती है ।
बीते हुये लम्हों की खुशुबू ,
जिय को फिर मचला जाती है ।।

जाने क्या था उन नैनों में ,
मन का पंछी डूब गया था ।
कैसा भोला अपनापन था ,
हक से दिल को लूट गया था ।।
पर दुनिया को रास न आया ,
पावन, निश्छल मिलन,सहारा ।
चंद खोखली जिद ने घोंटा ,
अरमानों का गला हमारा ।।

क्या गुजरी थी दुखते रग पर ,
तड़ित बली दहला जाती है ।
बीते हुये लम्हों की खुशुबू ,
जिय को फिर मचला जाती है ।।



भगवान श्री कृष्ण चन्द्र , रसिक बिहारी बृजमोहन के नाम समर्पित ,,फागुन में *सुंदरीै सवैया छंद ,,,,,,,, ,,,,,,,,,,,,,,जय श्री कृष्णा
******** सुंदरी सवैया,********
112 112 112 112,112 112 112 112 2( सगण (112) 8+एक गुरू
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यमुना तट श्याम बने रसिया,जहॅ फागुन फाग रसाल भयो री /
ब्रजमोहन आय गए छलिया, बृषभानुलली मुख लाल भयो री /
सबहीं सखियाॅ नव रंग भईं , बृजलाल के गाल गुलाल भयो री /
मनमोहन रंग भरैं पिचका,हरि की छवि आजु कमाल भयो री //
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🌿🌹🌿🌹🌿🌹
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ब्रजनंदन खेलहिं -होरिन में, पिचकारिन रंग दई सखियाॅ री /
अॅगिया चुनरी सब भीज गई ,फगुवा रस- रंग भईं गलियाॅ री /
बृज कुॅजन रंग गुलाल उड़ै,बृज के घनश्याम बने रसिया री /
वृषभानुलली मिलिकै सखियाॅ ,चुपके सब ढूँढ रही छलिया री /
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#ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार


एक दीप ही काफी है, सूरज को दहलाने को
गहन अंधेरा गर हो छाया, खुद से हाथ मिलाने को

तूफानों से लड़ते देखा
सदा हौसला अडिग रहा
इक छोटी सी बदली काफी
सूरज आन छिपाने को

सन्ध्या के आगोश जाकर
रजनी सँग वो प्रेम करे
तब दीपक कहता है आकर 
धीरे से छुप जाने को

मैं तो इक छोटा सा दीपक
अँधियारे का साथी हूँ
प्रात अश्व रथ पर तुम आना
खुद महता बतलाने को

सूरज तो सूरज है भाई
मुझ सँग उसका मेल नहीं
रवि प्रकाश की रहे जरूरत
जीवन स्वस्थ बनाने को
रजनी रामदेव
न्यू दिल्ली


**************************
#तुमको_भूल_नही_पाऊंगा
***************************************
मेरे अपयश को अंधियारे के,
घर तक पहुंचाने वाले,
जिस दिन भी उजियार बटेगा,
तुमको भूल नही पाऊंगा !

मेरा नाता बचपन मे ही,
टूट गया था दीवारों से,
और विरासत में पाया,
अपमान पराई मनुहारों से !
मेरा परिचय हुआ अचानक,
दोपहरी के अभिशापों से,
शेष रहा जो पुरस्कार,
मिल गया जनम के संतापों से !
अब मेरे निंदित आंसू को,
सागर तक पहुंचाने वाले,
जिस दिन मन का प्यार बंटेगा,
तुमको भूल नही पाऊंगा !

इतना पुण्य कहाँ था मेरा,
सुख संकल्प फले आंगन में,
इसीलिए मेरे उपवन को,
मिली उपेक्षा हर सावन में !
निश्चय बदल गये हर क्षण में,
भटकी लगे दिशायें सारी,
जो प्राणों से उठी वही,
अधरों को लगी ऋचायें भारी !
धन्यवाद मेरे चरणों को,
पतझर तक पहुंचाने वाले,
जब फूलों का अंबार बटेगा,
तुमको भूल नही पाउँगा !

बीहड़ पथ से अपना ही,
छाया का साथ रहा था बाकी,
उस दिन से मैने अपने को,
समझा नही कभी एकाकी !
केवल झूठे समाधान पर,
सबके नयन रहे अनुरागी ,
रोज समर्पण के क्षण बीते,
तब पाहन की प्रतिमा जागी!
फिर भी मेरी भावुकता को,
मंदिर तक पहुंचाने वाले,
पूजा का अधिकार बटेगा,
तो तुझको भूल नही पाऊंगा !
**************************************
रचनाकार:-राजेन्द्र मेश्राम "नील
चांगोटोला, बालाघाट ( मध्यप्रदेश )


एक गीत की कोशिश

शूलों को तुम फूल बना लो जग मधुबन हो जायेगा,
अश्रु को गंगाजल कर लो मन सावन हो जायेगा।

नेहमयी जल को भर लो तुम
मन की खाली गागर में,
अन्तस में गहराई धर लो
जैसे होती सागर में,

प्रेम से सींचो बेल ह्रदय की मन उपवन हो जायेगा
अश्रु
को गंगाजल कर लो ......

द्वेष,कलुषता को पिघला दो,
क्षमा की तेज अँगीठी में,
वाणी की कर्कशता बदलो,
स्नेहिल भाषा मीठी में,
सरल भाव का इत्र बिखेरो मन चंदन हो जायेगा,
अश्रु को गंगाजल...........

धीर नहीं खोना तुम प्रीतम,
बाधाएं रोकें रस्ता,
करो समर्पित कर्म सदा,
परिणाम रहे तब ही अच्छा,
दृढ़ता से पथ पार करो हर खार सुमन हो जाएगा,
अश्रु गंगाजल कर लो.....

प्रेम ही है आधार जगत का,
प्रेम की भाषा प्यारी है,
मन विकार को सदा मिटाये,
प्रीत की रीत ही न्यारी है,
मन से मन के तार मिले नव गठबंधन हो जायेगा,
अश्रु को गंगाजल कर लो मन सावन हो जायेगा।

प्रियंका त्रिपाठी तरंग
बाँदा उत्तर प्रदेश

आ मिल बैठें कुछ बात करें...
छोटी सी एक मुलाकात करें...
अनंत व्यस्तता भरे पलों से..
कुछ खुशनुमा पल आबाद करें..
आ मिल बैठें कुछ बात करें..
कुछ तुम कहो कुछ हम कहें...
कुछ यूँ रिश्तों का आगाज करें...
चंद पल मिले है फुरसत के आज..
आ एक दूजे को आत्मसात करें...
आ मिल बैठें कुछ बात करें...
दैनिक कामकाज से लेलें थोड़ी सी रजा...
आ लेलें जिंदगी का थोड़ा सा मजा..
आ हँस लें थोड़ा सा..
गीत प्यार के गुनगुना लें..
आ मिल बैठें कुछ बात करें..
कुछ पुरानी यादें...
कुछ पुरानी बातें...
कह दें एक दूजे से..
प्रीत की ऊँची नीची राहों पर...
चलें थामकर एक दूजे का हाथ..
लेकर संकल्प जन्म-जन्म का साथ..
आ मिल बैठें कुछ बात करें...

स्वरचित :- मुकेश राठौड़


आजाद बेटा
मैं गुलाम बाप का आज़ाद बेटा हूँ
क्योंकि वो गुलामी में आये 
और आज़ादी के लिए शूली चढ़े
मैं आज़ादी में पैदा हुआ
और आज़ादी से है पले बढ़े
मुझे आज़ादी है
बोलने की,डोलने की,
रोकने की,टोकने की,
चौंकने की,भौंकने की,
शहीदों को कोसने की,
मैं कायल अपनी आदतों से
मुझे क्या उन शहादतों से
जो शूली चढ़े, मैंने तो देखा नही?
सत्ता-सुख संभव हो,
बाकी कोई लेखा नहीं
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित


सोचती हूँ कभी कभी
तुम कैसे हो ....

कुछ कड़ियाँ हैं जो आज भी
जुड़ी हैं तुमसे ....

कुछ धूप बचा ली थी उसमें
कुछ बारिश भी ....

वो अलसाई रातें और चाँद को
तकना घंटों तक ....

वो हरसिंगार भी जो गिरे थे
रातों में .....

उसकी वो भीनी सी सुगंध जो
तुम्हें महकाती थी ......

कुछ शबनमी सी बूँदें , ओस की जो
हथेली में भरते थे हम ....

हाँ कुछ ख्वाब पुराने इन आँखों में
जागी रातों की नींदें भी ......

तुम्हारे साथ बिताए वो लम्हें
बहुत याद आते हैं .....

कभी हो तो बता देना

तुम कैसे हो ......!

तनुजा दत्ता (स्वरचित )

।। शव की मौत ।।

दो दिन पहले मै घर आया और अपने मित्र से मिलने निकल पड़ा। पता चला कि उसके घर के सामने तीन-चार दिन से पुलिस चक्कर लगा रही थी। उसने बताया कि पति-पत्नी अहमदाबाद में दिहाड़ी मजदूरी करते और जैसे-तैसे कर रोज़ अपना पेट पालते। एक दिन पत्नी जब स्टोव पर खाना बना रही थी तभी अचानक आग लग गयी और पति-पत्नी जल गये जिसमे पत्नी की मृत्यु हो गयी और पति को अस्पताल भर्ती करवाया गया। पत्नी के शव को घर लाया गया। शव को जैसे ही घर पर रखा गया वैसे ही उसके माता-पिता आ पहुँचे और घरवालों से मुआवजे की मांग करने लगे। माता-पिता को इतनी भी शर्म नही आयी कि उनकी बेटी की मृत्यु हुई है आँगन में उसका शव पड़ा हुआ है और वह पैसो की मांग कर रहे है। फिर घर वालों ने समझा-बुझा कर साढ़े-तीन लाख रुपयो में मामला रफादफा किया और बिना दाह-संस्कार के ही चल दिए। 
ना पल भर के लिए अश्क बहे ना कोई बात याद आयी, बस! मुँह उठा कर चल दिये। इस तरह संसार में इंसानियत ही मर गयी। समाज और गांव की भी क्या छोड़े? शव तीन दिन तक आँगन में पड़ा रहा और दाह-संस्कार की भीख मांगता रहा पर किसी के कान में जूं तक न रेंगी। शव ले जाने के लिए चार कंधे ना सही पर कोई जीप या टेक्टर भी शव के दाह संस्कार के लिए नही दे सका। मर कर भी एक शव दाह-संस्कार की विनती करता रहा और दाह-संस्कार के साथ एक सुकून भरी मौत भी न पा सका। अंत में एक अच्छा-भला पुलिस वाला अपने घर से जीप लाया और तब दाह-संस्कार का अंतिम पड़ाव पार हो सका। 

इंसानियत खत्म हुई जहाँ से
लाश से भी पैसे लेते यहाँ से
ज़िंदगी शिकायत करती कि
सुकून की मौत मिले कहाँ से।

भाविक भावी

महिला सशक्तिकरण में साहित्य की भूमिका 

साहित्य की सेवा ने मुझे 
महिला होने का महत्व 
समझाया।
युग के निर्माण में मेरे 
देश का हर योगदान 
बताया।
वेद पुराण ग्रंथ सभी ने 
नारी का गुणगान है
गाया।
जीजाबाई, मीराबाई
लक्ष्मीबाई, सरोजिनी का
इतिहास पढ़ाया। 
इतने महान देश एवं 
संस्कृति पर अपना गर्व 
बढ़ाया। 
विदेश में जाकर कार्य 
करूंगी व्यर्थ अबतक समय
गवाया।
देश में रहकर सम्पूर्ण 
जगत में नाम करुं यह
भाव जगाया। 
सशक्त होकर साहित्य 
की सेवा का दायित्व 
उठाया। 

डॉ स्वाति श्रीवास्तव

कब चुपके से आकर
खड़ी हो जाती है ज़िंदगी
मौत के किनारे पर
तब इंसान बेबस
होकर रह जाता है
जाने वाला कब चुपचाप से
अंतिम सफर पर चल देता है
मौत के किनारे पर आकर
किसी को पता भी नहीं चलता है
यह ऐसा पड़ाव है ज़िंदगी का
जहाँ किसी अपने का साथ
सदा के लिए छूट जाता है
बस यादें जिंदा रह जाती हैं
ज़िंदगी फिर चल देती है
बीते पलों की गठरी खोल
यादों की परछाइयों के साथ
मुश्किल होता है बड़ा
यह वक्त़ जीवन का
जब ज़िंदगी से रिश्तों की कड़ी
एक-एक कर बिखरने लगती है
यहीं इंसान मजबूर हो जाता है
चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता
अजब खेल है ज़िंदगी का भी
इंसान जब तक ज़िंदा है घर में है
दम तोड़ते ही शरीर बन जाता है
अजब ज़िंदगी तेरे गजब खेल
कहीं सुख कहीं दुःख
कहीं जीवन तो कहीं मौत से भेंट
जीवन नैया भवसागर में डोलती रहती है
किनारे को रहती है तलाशती
किस्मत किस किनारे नैया लगादे
यह किसी को भी न खबर रहती
***अनुराधा चौहान***© स्वरचित

गीतिका
##############
इस अनजान शहर में आके होश तेरे चुराने थे।
आँखों में मेरी छलकते जाम के मयखाने थे।।

दास्तां हम अब अपने दिल की सुनाये किसको।
अपने भी अब इस जहां में बने अनजाने थे।।

मेरी धड़कनों में तेरे गीतों के ही नग़में थे।
मेरे होठों पे तेरे मोहब्बत के तराने थे।।

दिल की गलियों ने एक नाम तेरा ही पहचाने थे।
भरी इस महफिल में चेहरा सभी के अनजाने थे।।

दरख्ते उन रिश्तों में भी मुझे प्रीत ही पालने थे।
तूफानी मंजरों में भी इक दीया जलाने थे।।

ये मत पूछो इन आँखों के कितने हुए दीवाने थे।
मुझको तो बस तेरी मुहब्बत में जां लुटाने थे।।

स्वरचित पूर्णिमा साह (भकत)
पश्चिम बंगाल

सारे नेता ही हो मक्कार जरूरी तो नही
सच हो सब इस समय अख़बार जरूरी तो नही

बिक गया झूठ सरे-राह यूँ बाजार में अब
सच का भी कोई हो बाजार जरूरी तो नही

सब चुनावी घुड़की खूब बजाएँगे अब
अब सब प्रत्याशी हो दमदार जरूरी तो नही

ज़िन्दगी के कई रंग देखने को अब मिले हैं
दिल के सब हो ख़रीदार जरूरी तो नही

हम रहे चाहे मंदिर में या हो मस्ज़िद में तुम
सब रखे लोग दिल में रार जरूरी तो नही

मीडिया भी गई बाज़ार में जबसे अब बिक
यों मिले प्यार लगातार जरूरी तो नही

सर-फिरे लोग ही यहाँ करते है यों खून ख़राबा
सब मुस्लिम ही हो गुनहगार जरूरी तो नही

✍️आकिब जावेद
स्वरचित/मौलिक
बाँदा,उत्तर प्रदेश,भारत


विषय -स्वतंत्र लेखन (जल बचायें)
=============================
जल बिन होत जीवन अधूरा।
अब जल संचय से यह पूरा।।
पावन नदी गंग की धारा।
बचे जल से जीवन हमारा ।।
सभी धरा को खूब सजालो।
जल जीवन है इसे बचालो।।
जल बूंदें अब सभी बचाना।
सभी धरा में वृक्ष लगाना ।।
दूषित जल से होते रोगी।
रखें स्वच्छ रहिये निरोगी।।
नदी नदी बन जाये सागर।
बूँद बूँद भर जाये गागर।।
धरा हरी भी जल से होती।
बिन इसके सब सूखी होती।।
हिम शिखरों से नदियाँ आती।
भू को सींचे बढ़ते जाती ।।
जल बिन मीन रह नही पाये।
पाकर जल भी वह मुस्कराये।।
जल भी पावन धरा बनायें।
अब यह हम करके दिखलायें।।
(स्वरचित/मौलिक रचना)
.............भुवन बिष्ट
रानीखेत (उत्तराखंड )

जब हुआ मुझे भूल का एहसास

हद हो गई लापरवाही की, मैंने मन ही मन भुनभुनाते हुए अपनी टेलर को फोन लगाया, और बिना उसकी बात सुने ही उसपर चिल्ला उठी "एक महिने से ज्यादा हो गए आपने अभी तक मेरे कपड़े सिल कर नही दिये, दो हफ्ते पहले जब मैं आपको फोन की थी तो आपने मुझे बताया था कि एक हफ्ते मे आपका काम हो जायेगा, काम हो जाने पर मै फोन कर दूँगी, जैसा कि हर बार मैं करती आई हूँ, आज दो माह से ज्यादा हो गये, और अब सब्र भी मेरी जवाब दे रही है, अगर आपको समय पर कपड़ा नही देना रहता है तो आप लेती ही क्यों है?ऐसी लापरवाही मुझे कतई पंसद नही, मुझे मेरा लहंगा एक शादी सामारोह मे पहना है,अब मैं क्या करूँ, मैं अपना टेलर ही बदल दूँगी, और भी न जाने क्या क्या मैं अपनी ही रौ मेँ बोलती चली गई
उधर से कुछ स्पष्ट आवाज़ नही आने पर मैंने फिर कुछ कहना चाहा तो मुझे लगा कि वह शायद सिसक रही है,और मुझे चुप होते ही वह बहुत ही बिनम्रता से बोली"भाभीजी पिछले माह मेरे हसबैंड का हृदय गति रूकने से देहांत हो गया, और मै अपने दुःख से उबर ही नही पाई,फिर मेरे दो छोटे बच्चे है उन्हें भी सम्भालना है,आप मुझे एक हफ्ता का और समय दे दीजिए मै अपका लहंगा सिल कर अवश्य दे दूँगी।"
मुझे अपनी भूल का तुंरत एहसास हुआ, बिना सामने वाले की बात सुने,बिना सोचे समझे उस पर चिल्लाना मुझ जैसी संभ्रांत महिला को क्या शोभा देता है? कितना उचित होता कि पहले मैं उसे समय पर काम न करने की वजह जान ली होती।
गलती का एहसास होते ही मैं उससे माफी माँगते हुए बहुत ही बिनम्रता से बोली"आप अपना समय लीजिए खुद सम्भलिए और बच्चों को सम्भलिए, होनी को कौन टाल सकता है और मुझे शादी में जाने मे २०-२५दिन बाकी है और फिर मेरे पास और भी दूसरे कपड़ें हैं।
और मैं आगे से बिना सोचे समझे किसी पर चिल्लाने की गलत आदत को बदलने की कोशिश में लग गई।
आरती-श्रीवास्तव

"वह पहले वाले गाँव कहाँ"

वह पहले वाले गाँव कहाँ, जो हमें लुभाया करते थे।
वह बाबा का संवाद कहाँ, जो हमें रिझाया करता था।।

छुट्टी आते ही गर्मी की,हम गाँव को भागा करते थे।
भरी दुपहरी में बच्चों संग, धूम मचाया करते थे।।

दबे पांव घर से बाहर, बागों में जाया करते थे।
कच्ची अमिया को नमक लगा, चटकारा ले खाया करते थे।।

लू लग जाएगी कड़ी धूप में,सभी यही समझाते थे।
लेकिन हम भी तो दबे पांव,घर से बाहर चल जाते थे।।

गिल्ली डंडा, लुका छुपी, ये खेल हमें लुभाते थे।
नदी नहाने बच्चों संग ,हम मीलों दूर तक जाते थे।।

कहाँ गए वह गाँव हमारे, कहाँ गया वह प्यार दुलार।
कहाँ गए वह गाँव के कुँए,जहाँ मेला सा लग जाता था।।

न घर में चक्की दिखती है,न धान कुटाई होती है।
न चौपालों में रौनक है,न गीत सुनाई देते हैं।।

हो गए ओझल वे दृश्य सभी, अब दिखता है परिवेश नया।
न प्यार रहा है वाणी में,न हीं अब गाँव लुभाते हैं।।

छुट्टी लगते ही गर्मी की,हम गाँव को भागा करते थे।
वह पहले वाले गाँव कहाँ ,जो हमें लुभाया करते थे।।
(अशोक राय वत्स) स्वरचित
जयपुर

शीर्षक - नवधा भक्ति
विधा - मनहरण घनाक्षरी
================

ग्यानियों का संग करे , सज्जनों का रंग भरे ,
मेरी नवधा भक्ति में , एक इसे जानिये l

लिखें पढ़ें इतिहास , कथा रस पान करें ,
श्रवण कराके अन्य , दूजे धन्य मानिये l

गुरु सेवा करते जो , भक्त मेरे तीसरे वो ,
चौथे गुणगान करें , चरित बखानिये I

नाम मंत्र जाप करे , अविचल आस करे ,
वेद व पुराण गायें , भक्त पाँच मानिये I

============

छठे वे कहायें भक्त , जन धन से विरक्त ,
महा जन पथ गह , सुख वहीं मानिये I

रूप मेरा सबमें ही , सम भाव देख जग,
मुझसे भी भक्त मेरे , प्रिय सप्त जानिये I

सुख दुःख एक माने , हानि लाभ सम माने,
देखे न पराये दोष , आठवें में जानिये I

छल द्वेष हिय नहिं , खुश रहे दीन नहिं ,
" माधव " सरल जल , नवें पहचानिये I

#स्वरचित
#सन्तोष कुमार प्रजापति "माधव"
#कबरई जिला - महोबा ( उ. प्र. )

मेरे हमवार साथी

मुझे विरासत में मिला था,
स्नेह और मनुहार साथी।
वक्त ने रंग दिखाया है
फिर किया तार- तार साथी।

अमृत कलश छलक रहा था,
स्नेह प्यार के रंगों से।
ये कैसी होली आई,
फीका रंग गुलाल साथी।

रंग अब चढ़ता ही नहीं,
ये कैसा आवरण है।
दर्द की तीखी धूप है,
चुभते सब बयार साथी।

सारा ब्रज सूना लगे,
बरसाना सूखा है।
जाने कब लेगा फिर से,
किसन अवतार साथी।

प्रीती की बाँसुरिया भी,
अब गाए किस धुन में।
टूट गए सप्तम सारे,
वीणा के तार साथी।

दर्द प्रवाहित गंगा में,
सहृदय प्रीत घोल दो।
पुनः ये छलछला जाए,
मन की रसधार साथी।

आ तुझे सीने से लगा लूँ ,
ओ फागुनवा मेरे ।
पाहुन बन आया घर तू,
मेरे हमवार साथी।

स्वरचित
सुधा शर्मा
राजिम छत्तीसगढ़


स्वतंत्र सृजन...... कुण्डलियाँ.....

===========================
आया समय चुनाव का,मचा खूब घमसान |
नेता जी ने खोल दी, वादों की दूकान ||
वादों की दूकान, लुभाते हैं मतदाता |
करें घोषणा खूब, भला इनका क्या जाता ||
छिड़ी जुबानी जंग,सभी ने होश गँवाया |
ठोंक रहे सब ताल, चुनावी मौसम आया ||

==========================

देखो देखो देख लो, लिये हाथ में हाथ।
इक दूजे को कोसते, हुये आज वो साथ।।
हुये आज वो साथ, धनुष हम ही तोड़ेंगे।
सत्ता सुख का स्वाद , भला कैसे छोड़ेंगे।।
कथनी करनी भिन्न, रोटियां अपनी सेंको।
कहें "सरस" चुप होय,तमाशा अब तुम देखो।।
------------------------------------------------

प्रमोद गोल्हानी "सरस
कहानी-सिवनी म.प्र.
#स्वरचित

बस एक बार बना दो नेता मुझको
सच सबको हरामखोर बना दूंगा।
नहीं कोई काम कुछ भी करना तुम,
एक दिन जन जन को धूल चटा दूंगा।

रोज रेबडी बांटूंगा सचमुच भाई,
मै अनपढ अशिक्षित बना दूंगा।
जन्म लिया है गरीब खानदान में,
उनको सच्चा रोटी चोर बना दूंगा।

गरीब पेट काट पढाऐं बच्चों को 
उन्हें बिल्कुल आरक्षण नहीं दूंगा।
दलित अरबपति के नौनिहाल से,
कभी वापिस आरक्षण नहीं लूंगा।

भले दिमाग से खाली दिखता हूँ 
पर चलता मेरे खानदान का नाम।
नहीं जानूं राजनीति की एबीसीडी
लेकिन मुझे पता कैसे बनते दाम।

राष्ट्रद्रोही कहे कोई कितना भी मुझे
मै स्वदेश को टुकड़ों में बंटबा दूंगा।
दुश्मन देश दोस्त है मेरा भइया जी,
सचमुच अपनी सेना को मरबा दूंगा।

स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय

_________________
बड़ी जद्दोजहद के बाद
एक निष्कर्ष निकाला है
बेटी हूं पर ,,बेटियों को
बेटी ना बनने दूंगी।।।

अरमानों के अहूति की
तिलांजलि नहीं चढ़ने दूंगी
रोटी गहने और श्रृंगार की
वस्तु नहीं बनने दूंगी ।।।
बेटी हूं पर.....

खुला व्योम बांह पसारे
स्वतंत्रता की राह दिखाएं
बरसात की हर बूंदों पर
बेटियों को भीगने दूंगी।।।
बेटी हूं पर .......

चूड़ी सिंदूर पायल और
गुड़ियों का ना खेल होगा
विषाग्रह और स्याही का
मिला जुला परिवेश होगा।।।

बंदिशों और पहरों का
अब ना कोई वजूद होगा
आजादी के हर अच्छर को
जर्रा जर्रा जीने दूंगी।।।
बेटी हूं पर बेटियों को
बेटी न बनने दूंगी।

ज्योति अरूण जैन "अनु"
स्वरचित

विधा आलेख 

आलेख
जीवन में नेतृत्व का महत्व 

जीवन में नेतृत्व का बहुत महत्व है । एक कुशल नेतृत्व सफलता के सोपन तक पहुंचाता है । 

कुशल नेतृत्व के तहत ही कृष्ण ने महाभारत में न केवल अर्जुन को कर्म प्रधान रहने की शिक्षा और उपदेश दिये बल्कि एक महा युद्ध का नेतृत्व भी किया जिसका उदेश्य विजय प्राप्त करना था । 
एक व्यवहारिक दृष्टिकोण से हम आज के समय में नेतृत्व पर विचार करें तब पायेंगे कि घर से ले कर अपने कार्यक्षेत्र हर जगह कुशल प्रबंधन और नेतृत्व की जरूरत है ।
कुशल नेतृत्व के लिए निम्न विशेषताएँ जरूरी है :
- टीम भावना 
नेतृत्व के अंतर्गत सबसे पहले टीम भावना को प्राथमिकता दी जानी चाहिए । नेतृत्वकर्ता को टीम बना कर और सब को उनके काम सौंप कर नेतृत्व करना चाहिए , जो उनकी सफलता का कारक होगा । टीम में सबको बराबरी का महत्व देते हुए बढने से सफलता अवश्य मिलती है ।

- जिम्मेदारी लेना ;
कुशल नेतृत्व में जहाँ सफलता का श्रेय टीम को देना आता है वही असफ़लता की जिम्मेदारी स्वयं लेना होना चाहिए । टीम पर कोई समस्या आए तब आगे आते हुए और सामना करते हुए संघर्ष करना चाहिए ।
- प्रोत्साहित करना :
नेतृत्व करने वाले व्यक्ति को अपनी टीम को सतत् प्रोत्साहित करना चाहिए जिससे टीम में जोश बना रहे । टीम लीडर को इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए और जहाँ जरूरत पड़ने पर वहाँ हास्य तो कहीं उपदेश और कठोर निर्णय ले कर अपनी टीम में जोश बनाए रखना चाहिए ।
- सामूहिक विचार विमर्श:
कुशल नेतृत्व के तहत अपने को सर्वश्रेष्ठ नही समझना चाहिए, यहाँ अपनी टीम के साथ यथासमय सामूहिक सलाह लेनी चाहिए। विशेष कार्य के समय साथियों की सलाह से कार्य करने से सफलता मिलेगी।
- समय का निर्धारण:
कुशल नेतृत्व में हर कार्य को पूरा करने के लिए समय निश्चित होना चाहिए। वरना दिशाहीन बढते रहने का कोई औचित्य नहीं है । अपनी योजनाओ का समयानुसार प्रचार प्रसार कर के समय से अपने लक्ष्य की तरफ बढते हुए निर्धारित समय में उन्हें पूरा करना लाभप्रद होता है । 
- योजना बनाना :
कुशल नेतृत्व के तहत कार्य करने के लिए पहले योजना बनाना चाहिए। जिससे टीम का नेतृत्व करना सुगम होगा और योजना के अनुसार कार्य निष्पादन 
होगा । प्रबंधन के लक्ष्यों को पूरा करने में यह सहायक होता है इसलिए जीवन में कोई भी कार्य योजना बना कर और सभी को साथ ले कर करना चाहिए, जिससे सफलता मिलती है ।
- कार्य का मूल्यांकन:
नेतृत्व के दौरान किए गये कार्यों का समय समय मूल्यांकन करना चाहिए और कमियों को दूर करते रहना चाहिए। नेतृत्वकर्ता को टीम के साथ अपनी टीम के साथ किए कार्यों का मूल्यांकन करना उचित रहता है ।
- संप्रेषण बनाए रखना :
कुशल नेतृत्व के तहत टीम प्रमुख को अपनी टीम के साथ स्वस्थ संप्रेषण बनाए रखना चाहिए यहाँ अहं की कोई जगह नहीं होनी चाहिए कई बार छोटे लोगों की भी सलाह उपयोगी होती है ।
- सच्चरित्र होना :
नेतृत्व करने वाले व्यक्ति को सच्चरित्र होना चाहिए उसे अपनी टीम के साथ सादगी से पेश आना चाहिए । तभी वह उनके सामने आदर्श प्रस्तुत कर पायेगा ।

इस तरह हम देखते हैं कि सफलता और नेतृत्व एक दूसरे के पूरक हैं। 
आज के युवाओ को कुशल नेतृत्व के लिए अपनी क्षमताओं को बढ़ाना चाहिए और ईमानदारी, मेहनत और लगन से लक्ष्य प्राप्ति में प्रयासरत रहते हुए सफलता प्राप्त करनी चाहिए।

स्वलिखित

लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल 

(सेवानिवृत यूनियन बैंक)

सत्ता  का खेल

गठबंधन के गड़बड़झाले
कम ही हैं जो न कर डालें
कल तक थे जो सांप-नेवला
फिरते आज गलबहियां डाले
कुर्सी के पीछे लट्टू हैं सारे
देश गिरे चाहे गहरे नाले
स्वार्थ सिद्धि से मतलब इनको
जनता को अब राम बचा ले
स्वार्थ पिपासा की तृप्ति में
नैतिकता पर लग गए जाले
कल के दुश्मन आज यार हैं
सत्ता के खेल हैं अजब निराले

💠💠💠💠💠💠💠💠💠

☠️स्वार्थी नेताओं को चेतावनी☠️

शायद इनको यह पता नहीं है
अब न चलेंगी इनकी चालें
कान खोल कर सुन लें ये सब
भेजे में यह बात बिठा लें
जनता बहुत सयानी हो गई
खुल गए बंद अक्ल के ताले
झूठे वादों से भरमाने की
खुशफ़हमी न मन में पालें
लद गए दिन घोटालेबाज़ों के
कारनामे कितने भी छिपा लें
सीधी राह आ जाएं ख़ुद से
अंतर्मन अपना खंगालें
वरना जनता वो हाल करेगी
पड़ जाएंगे जान के लाले

💠💠💠💠💠💠💠💠💠

🙏जनता से आह्वान🙏

भारत को पतन के गर्त में
गिरने से हम आओ बचा लें
कुर्सी जिनको देश से प्यारी
पटक-पटक उनको धो डालें
सोच-समझकर अपना मत दें
मतदाता का फर्ज़ निभा लें
झाँसे में उनके न आएंगे जिनके
कपड़े उजले पर धंधे काले
भ्रष्ट राजनीति के चंगुल से
भारत की ख़ुशहाली निकालें
सजग, सतर्क और सबल बन
भविष्य देश का चमका लें

💠💠💠💠💠💠💠💠💠

स्वरचित
नीतू राजीव कपूर
पालमपुर(हिमाचल प्रदेश)


*प्राण देकर शहीदों ने सजाया देश को अपने ।* 

जुबां पर गान भारत का नयन में देश के सपने ,
प्राण देकर शहीदों ने सजाया देश को अपने
न ख्वाहिश की इतर कुछ भी, 
न सुख की कामना कोई
जगाया मुल्क में जज्बा,
फसल विश्वास की बोई
चले बन नींव के पत्थर इमारत को खड़ी करने ।

जुबां पर गान भारत का नयन में देश के सपने, 
प्राण देकर शहीदों ने सजाया देश को अपने ।

रखें हम ध्यान भारत का, 
नज़र हर ओर हो गहरी 
रखें हम मान भारत का, 
कि बन कर हिन्द के प्रहरी,
दिया सौभाग्य से हमको जनम इस भूमि पर रब ने ।

जुबां पर गान भारत का नयन में देश के सपने, 
प्राण देकर शहीदों ने सजाया देश को अपने ।

अनुराग दीक्षित

स्वतंत्र लेखन - वो एक क़दम 
************************ 
माना ,
वो एक क़दम उठाना 
बहुत मुश्किल होता है।

बीच में न जाने 
मज़हब की,ऊँच नीच की 
परंपराओं की 
कितनी ऊँची दीवारें होती हैं!

रास्ते कितने दुशवार होते हैं
काँटों से भरे होते हैं
हिम्मत जवाब दे जाती है
हसरतें दम तोड़ने लगती हैं।

अपने अहं को कुचलना
ज़िदद की खाई को पाटना
स्वार्थ के घेरे से बाहर निकलना 
कभी भी आसान नहीं होता ।

बावजूद इसके 
वो एक क़दम उठाना लाज़मी होता है
दिल से दिल तक का सफ़र तय करने के लिए
‘मैं ‘ और ‘मेरा ‘ से ऊपर उठने के लिये।

ताकि,
दिलों के दरमियाँ फ़ासलों में मज़ीद इज़ाफ़ा न हो
ज़िदगी कितनी भी मुख़्तला क्यों न हो
अपनी उलझनों में ,
वो एक क़दम बहुत जरुरी है उठाना ।
किसी की परेशानियों को कम करने में
किसी के आँसू पोंछने में 
किसी के दर्द को बाँटने में 
किसी की तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ाने में ।
वरना हम क्या इंसान कहलाने के योग्य हैं ?

इतना तो हम कर ही सकते है !
किसी के आँसू पोंछकर 
होंटों पर मुस्कुराहट तो ला ही सकते हैं 
इतने तो हम मज़बूर नहीं !!

स्वरचित (c)भार्गवी रविन्द्र ....बेंगलूर 
मज़ीद -और , इज़ाफ़ा - बढ़ोतरी ,मुख़्तला - डूबा हुआ , लाज़मी -जरुरी

विधा-हाइकु

1.
मर्यादा खोते
देश के नेता आज
वोट को रोते
2.
कोई न आया
आज हाथ अपना
वो काम आया
3.
आस पर ही
आसमान थमा है
जग जीवन
4.
संगीत सूत्र
सा रे गा मा पा धा नी
सीखो हे मित्र
***********
स्वरचित
अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर(झज्जर)
हरियाणा

आज सुबह जागते ही , 
उनसे सामना हो गया, 
सुनहरी अरूणाई,
चिड़ियो की चहचहाहट, 
आम के पेड़ पर फुदकती गिलहरी 
और 
खिड़की का पर्दा हटते ही 
गुलाब की मदहोश खुशबु से 
मौसम सुहाना हो गया ।
मंदिर मे बजते शंख, 
घंटियो की स्वर लहरी 
जैसे संदेश दे गई, 
कोई बेगाना अपना हो गया ।
उनसे नजरे टकराते ही , 
पायल सी झंकार उठी मन मे 
लगा पतझड़ सा जीवन 
सावन हो गया ।

(स्वरचित )
सुलोचना सिंह
भिलाई (दुर्ग )




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"अंदाज"05मई2020

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