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ब्लॉग संख्या :-332
"धारा"प्रेम धारा क्यों सूख गई
अविरल बहना भूल गई
कटुता ने पैर जमा लिए
मन बंजर भूमि हो गई।।
तेरी-मेरी दो भिन्न बांटों में
छिन्न सी हो गई राहों में
भटक गए स्व की मंजिल
बैर-भाव की बातों में।।
प्रेम समर्पण की यह धारा
डूब गया,उसने जग तारा
त्याग दिया जो तेरा-मेरा
थाम लिया उसने जग सारा।।
वीणा शर्मा वशिष्ठ
अविरल बहना भूल गई
कटुता ने पैर जमा लिए
मन बंजर भूमि हो गई।।
तेरी-मेरी दो भिन्न बांटों में
छिन्न सी हो गई राहों में
भटक गए स्व की मंजिल
बैर-भाव की बातों में।।
प्रेम समर्पण की यह धारा
डूब गया,उसने जग तारा
त्याग दिया जो तेरा-मेरा
थाम लिया उसने जग सारा।।
वीणा शर्मा वशिष्ठ
सुवह सुवह है अमृत धारा टहल तूँ
अच्छे काम की कर खुद से पहल तूँ ।।
क्यों माया मोह में मन तेरा लिपटा
सांसारिक माया से कभी निकल तूँ ।।
मिल जाये कब कौन सी धारा
क्यों फिरता जग में मारा मारा ।।
उस अखण्ड स्रोत से जुड़ कभी
पाये गा तूँ खुद में ही उजियारा ।।
तिमिर ने तुझको ढका है
जग में माटी मोल बिका है ।।
तेरे अन्दर छुपा खजाना
क्यों न अब तक दिखा है ।।
ज्ञान की धारा प्रेम की धारा
करती ''शिवम" ये पौ बारा ।।
ज्ञान नही तो प्रेम जगा ले
हो जायेगा उआरा न्यारा ।।
अच्छे काम की कर खुद से पहल तूँ ।।
क्यों माया मोह में मन तेरा लिपटा
सांसारिक माया से कभी निकल तूँ ।।
मिल जाये कब कौन सी धारा
क्यों फिरता जग में मारा मारा ।।
उस अखण्ड स्रोत से जुड़ कभी
पाये गा तूँ खुद में ही उजियारा ।।
तिमिर ने तुझको ढका है
जग में माटी मोल बिका है ।।
तेरे अन्दर छुपा खजाना
क्यों न अब तक दिखा है ।।
ज्ञान की धारा प्रेम की धारा
करती ''शिवम" ये पौ बारा ।।
ज्ञान नही तो प्रेम जगा ले
हो जायेगा उआरा न्यारा ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 19/03/2019
तट बन्धों पर
हिलोरे लेते
सागर को '
करते देखा हैं
क्रंदन
नदियोँ की धारा को
समाहित करते "
अपने में "
'उस प्रणय गीत को
मेरा वंदन !
अविराम
अविचलित होकर !
बहती रही
थकी न हारी '
वन जगंल
पाषाण चीर कर
धाराएं
आ मिलती सागर में प्यारी
सागर का मन आतुर
अब मन से
हार रहा है।
सागर कि हदोै में
बंध बेठा सा किन्तु
कब से
पुकार रहा है।
~~~
पी राय राठी
भीलवाड़ा राज
हिलोरे लेते
सागर को '
करते देखा हैं
क्रंदन
नदियोँ की धारा को
समाहित करते "
अपने में "
'उस प्रणय गीत को
मेरा वंदन !
अविराम
अविचलित होकर !
बहती रही
थकी न हारी '
वन जगंल
पाषाण चीर कर
धाराएं
आ मिलती सागर में प्यारी
सागर का मन आतुर
अब मन से
हार रहा है।
सागर कि हदोै में
बंध बेठा सा किन्तु
कब से
पुकार रहा है।
~~~
पी राय राठी
भीलवाड़ा राज
धारा, प्रवाह है हृदय की
सरल विरल भावों की गङ्गा
शांत सौम्य संतोषी मन में
देश भक्ति सर्वोप्रिय तिरंगा
जीवन धारा सुखमय सुन्दर
कर्मो पर होती आधारित
कर्मवीर पाते नित मंजिल
कर्महीन रहते लाचारित
त्रिवेणी की धार मनोहर
राग द्वेष संताप को हरती
पाप विनाशनी निर्मल कर्ता
मोक्ष दायिनी मंगल करती
सरिता सागर की धारा में
परिवर्तन प्रतिदिन ही होता
कोई रोता कोई हँसता जग
नित खाता पुरुषार्थी गोता
भक्तिधारा में जो बहता है
परम ईष्ट की भक्ति तन्मय
मुक्ति मार्ग वह डग भरता
है सर्वस्व जीवन भक्तिमय
जलधारा होली पर बहती
नीली पीली हरी गुलाबी
विमल स्नेह आनंदित मन में
हर चेहरे पर सुन्दर लाली
स्वविवेक से ज्ञान की धारा
बहती चलती रहती अविरल
शांत सौम्य संतोषी मन से
भावों के मोती प्रिय सरल।
स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
सरल विरल भावों की गङ्गा
शांत सौम्य संतोषी मन में
देश भक्ति सर्वोप्रिय तिरंगा
जीवन धारा सुखमय सुन्दर
कर्मो पर होती आधारित
कर्मवीर पाते नित मंजिल
कर्महीन रहते लाचारित
त्रिवेणी की धार मनोहर
राग द्वेष संताप को हरती
पाप विनाशनी निर्मल कर्ता
मोक्ष दायिनी मंगल करती
सरिता सागर की धारा में
परिवर्तन प्रतिदिन ही होता
कोई रोता कोई हँसता जग
नित खाता पुरुषार्थी गोता
भक्तिधारा में जो बहता है
परम ईष्ट की भक्ति तन्मय
मुक्ति मार्ग वह डग भरता
है सर्वस्व जीवन भक्तिमय
जलधारा होली पर बहती
नीली पीली हरी गुलाबी
विमल स्नेह आनंदित मन में
हर चेहरे पर सुन्दर लाली
स्वविवेक से ज्ञान की धारा
बहती चलती रहती अविरल
शांत सौम्य संतोषी मन से
भावों के मोती प्रिय सरल।
स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
💐💐
नदी की चंचल धारा
ये कहती है।
बहते रहना हमको
अपनी धुन में।
चलते रहना हरदम
अपने जीवन में।
कभी ना रुकना
कभी ना पीछे मुड़के देखना।
जो छूट गया पीछे
उसे ना याद रखना।
चलते रहना जीवन का काम
रुकना हीं है मौत।
जबतक जीना है जीवन
धारा सी सदा बहते रहना है अनवरत।।
🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱
स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
नदी की चंचल धारा
ये कहती है।
बहते रहना हमको
अपनी धुन में।
चलते रहना हरदम
अपने जीवन में।
कभी ना रुकना
कभी ना पीछे मुड़के देखना।
जो छूट गया पीछे
उसे ना याद रखना।
चलते रहना जीवन का काम
रुकना हीं है मौत।
जबतक जीना है जीवन
धारा सी सदा बहते रहना है अनवरत।।
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स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
पर्वत का सीना
चीर निकलती
पावन निर्मल
जल की धारा
झरने का सुंदर रूप धरती
उछलती कूदती
इठलाती बलखाती
घाटी से होकर गुजरती
विस्तृत रूप
नदी का धरती
प्यासी धरती
सिंचित करती
जड़ चेतन की तृषा मिटाती
खुद का फिर अस्तित्व मिटाती
सागर में जा कर मिल जाती
विद्युत धारा
बादलों संग
खेलती आंख मिचौली
चमत्कार दिखाती
तन में यदि प्रवाहित होती
तन को जला भस्म कर देती
प्रणय धार
दग्ध हृदय
सिंचित करती
दुख हरती
मन शीतल करती
दुग्ध धारा
शिशु शावक को
पान कराती
अमृत धार बन
जीवन देती
जीवन धारा
बहती पल पल
कभी न रुकती
कभी न थमती
जब तक प्राण रहेंगे तन में
जीवन धार बहेगी तन में
धारा बहे खून की गर तो
देश काम नित ही आये
मातृभूमि की बलिवेदी पर
तन की एक एक
बूंद बहाएं
सरिता गर्ग
स्व रचित
चीर निकलती
पावन निर्मल
जल की धारा
झरने का सुंदर रूप धरती
उछलती कूदती
इठलाती बलखाती
घाटी से होकर गुजरती
विस्तृत रूप
नदी का धरती
प्यासी धरती
सिंचित करती
जड़ चेतन की तृषा मिटाती
खुद का फिर अस्तित्व मिटाती
सागर में जा कर मिल जाती
विद्युत धारा
बादलों संग
खेलती आंख मिचौली
चमत्कार दिखाती
तन में यदि प्रवाहित होती
तन को जला भस्म कर देती
प्रणय धार
दग्ध हृदय
सिंचित करती
दुख हरती
मन शीतल करती
दुग्ध धारा
शिशु शावक को
पान कराती
अमृत धार बन
जीवन देती
जीवन धारा
बहती पल पल
कभी न रुकती
कभी न थमती
जब तक प्राण रहेंगे तन में
जीवन धार बहेगी तन में
धारा बहे खून की गर तो
देश काम नित ही आये
मातृभूमि की बलिवेदी पर
तन की एक एक
बूंद बहाएं
सरिता गर्ग
स्व रचित
सरस् प्रेम झंकार, बहाओ रसधारा
जीवन मे भर प्यार, निभाओ जग सारा
चमको बनकर सूर्य, दिवस को रौशन कर
या उत्तर में रात, बनो तुम ध्रुव तारा
जीवन के दिन चार, जिओ अब जी भर के
हिम्मत से तुम यार, तोड़ दो सब कारा
ईश्वर का वरदान, देह ये मृतिका की
मानव जीवन सार, न मिलता दोबारा
कुंदन बनता स्वर्ण, तपे जब भी ज्वाला
मिट जाते सब खार, लगे हर शै प्यारा
रजनी रामदेव
न्यू दिल्ली
जीवन मे भर प्यार, निभाओ जग सारा
चमको बनकर सूर्य, दिवस को रौशन कर
या उत्तर में रात, बनो तुम ध्रुव तारा
जीवन के दिन चार, जिओ अब जी भर के
हिम्मत से तुम यार, तोड़ दो सब कारा
ईश्वर का वरदान, देह ये मृतिका की
मानव जीवन सार, न मिलता दोबारा
कुंदन बनता स्वर्ण, तपे जब भी ज्वाला
मिट जाते सब खार, लगे हर शै प्यारा
रजनी रामदेव
न्यू दिल्ली
विधा=हाइकु
(1)साहित्य कुंभ
छलक रहे भाव
धारा प्रवाह
(2)धारा प्रवाह
बहती भक्ति धारा
संतो के मुख
(3)विद्युत धारा
जगत में करती
खूब उजाला
(4)इंद्र बहाए
धरा प्यास बुझाए
जल की धारा
(5)भोले की जटा
नहाए जग सारा
गंगा की धारा
(6)लगी है धारा
एक सौ चव्वालीस
चुनाव वक्त
(7)पूर्व का वक्त
बहती थी नदिया
दूध की धारा
===रचनाकार ===
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश
19/03/2019
(1)साहित्य कुंभ
छलक रहे भाव
धारा प्रवाह
(2)धारा प्रवाह
बहती भक्ति धारा
संतो के मुख
(3)विद्युत धारा
जगत में करती
खूब उजाला
(4)इंद्र बहाए
धरा प्यास बुझाए
जल की धारा
(5)भोले की जटा
नहाए जग सारा
गंगा की धारा
(6)लगी है धारा
एक सौ चव्वालीस
चुनाव वक्त
(7)पूर्व का वक्त
बहती थी नदिया
दूध की धारा
===रचनाकार ===
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश
19/03/2019
विधा --काव्य-मुक्तक
1.
परम्परा को छोड़कर, नव धारा का घोष।
सोच समझ करनी करें मिले सफलता तोष।
नव धारा के चयन से,सजते नव आयाम--
सबका जब सहयोग हो,बढ़ जाता है जोश ।
2.
धारा धारा गंग की, होती सदा पवित्र ।
वर्षों जल रहता रखा,होय शुद्ध जस इत्र ।
बड़े शहर की बाढ़ से,हुई अपवित्र धार
स्वयं गन्दगी कर रहे,कैसा हुआ चरित्र ।
******स्वरचित*******
प्रबोध मिश्र 'हितैषी'
बड़वानी(म.प्र)451551
1.
परम्परा को छोड़कर, नव धारा का घोष।
सोच समझ करनी करें मिले सफलता तोष।
नव धारा के चयन से,सजते नव आयाम--
सबका जब सहयोग हो,बढ़ जाता है जोश ।
2.
धारा धारा गंग की, होती सदा पवित्र ।
वर्षों जल रहता रखा,होय शुद्ध जस इत्र ।
बड़े शहर की बाढ़ से,हुई अपवित्र धार
स्वयं गन्दगी कर रहे,कैसा हुआ चरित्र ।
******स्वरचित*******
प्रबोध मिश्र 'हितैषी'
बड़वानी(म.प्र)451551
II धारा - ज़िन्दगी की....II
न जाने क्यूँ मुझे कॉमा...
या और कोई पंक्चुएशन चिन्ह...
रचना में लगाना पसंद नहीं आता...
भावों की नदिया में...
जो भी आता है जैसे आता है....
बस लिखता हूँ....
नदिया की धारा में कंकड़ पथ्थर हों....
आपस में कट कट करते चलते हों....
नदिया के सुर...ताल...लय में...
अवरोध पैदा करते हैं....
इस लिए मैं इन अवरोधों को...
हटाता चलता हूँ....
अपने प्रवाह में लिखता हूँ....
जिंदगी में कितने अवरोध हैं...
अपने ही पैदा किये हुए....
शक...अहम्....स्वार्थ...लालच...
न जाने कितने....
इन्हें हम हटाने की जगह....
बढ़ाते जाते हैं...
जीवन सरिता की मधुर तरंगित धारा में....
अवरोध पैदा करते जाते हैं...
और फिर...
ज़िन्दगी में अवरोधों के पहाड़ के नीचे...
दब जाते हैं...
धारा प्यार की अवरुद्ध हो जाती है...
और ज़िन्दगी घुट घुट के...
सिसकती चलती है....
बिना स्वर...लय...ताल के...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
१९.०३.२०१९
न जाने क्यूँ मुझे कॉमा...
या और कोई पंक्चुएशन चिन्ह...
रचना में लगाना पसंद नहीं आता...
भावों की नदिया में...
जो भी आता है जैसे आता है....
बस लिखता हूँ....
नदिया की धारा में कंकड़ पथ्थर हों....
आपस में कट कट करते चलते हों....
नदिया के सुर...ताल...लय में...
अवरोध पैदा करते हैं....
इस लिए मैं इन अवरोधों को...
हटाता चलता हूँ....
अपने प्रवाह में लिखता हूँ....
जिंदगी में कितने अवरोध हैं...
अपने ही पैदा किये हुए....
शक...अहम्....स्वार्थ...लालच...
न जाने कितने....
इन्हें हम हटाने की जगह....
बढ़ाते जाते हैं...
जीवन सरिता की मधुर तरंगित धारा में....
अवरोध पैदा करते जाते हैं...
और फिर...
ज़िन्दगी में अवरोधों के पहाड़ के नीचे...
दब जाते हैं...
धारा प्यार की अवरुद्ध हो जाती है...
और ज़िन्दगी घुट घुट के...
सिसकती चलती है....
बिना स्वर...लय...ताल के...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
१९.०३.२०१९
विधा हाइकु
1
गिरि से गिर
तीव्रता से बहती
नदी की धारा
2
भाषण होता
छब्बीस जनवरी
धारा प्रवाह
3
रेनॉल्ड पेन
चले धारा प्रवाह
शब्द रचना
4
पुरवा हवा
धारा के विपरीत
कठिन स्थिति
5
सत्य की धारा
संघर्ष उदघोष
विकट मार्ग
6
प्यास बुझाती
शीतल जल धारा
जीवन रक्षा
मनीष श्री
स्वरचित
रायबरेली
1
गिरि से गिर
तीव्रता से बहती
नदी की धारा
2
भाषण होता
छब्बीस जनवरी
धारा प्रवाह
3
रेनॉल्ड पेन
चले धारा प्रवाह
शब्द रचना
4
पुरवा हवा
धारा के विपरीत
कठिन स्थिति
5
सत्य की धारा
संघर्ष उदघोष
विकट मार्ग
6
प्यास बुझाती
शीतल जल धारा
जीवन रक्षा
मनीष श्री
स्वरचित
रायबरेली
शिव की जटाओं से उतरी गंगा की धारा
मिटाये जन जन का संताप ,हरे दुख सारा ।
कूड़ा कचरा न गिरे ,गिरने न दे गंदा नाला
पापी न बने हम ,पाप धो कर इसमे सारा ।
जीवनदायिनी नदियों की अविरल धारा
स्वच्छ ,प्रदूषणमुक्त हो,ये कर्त्तव्य हमारा।
बहती रहे जन जन मे निर्मल ज्ञान की धारा
आनंदित हो अलौकिक ज्ञान से जग सारा ।
दिलों से जब निकलती है प्रेम की धारा
नफरत द्वेष हटा ,करती जीवन में उजाला ।
लेखनी से निकलती जब विचारों की धारा
करुण ,वीर ,वियोग श्रृंगार रस में डूबे संसारा।
संविधान में हमारे कई अनुच्छेद और धारा
बहस का मुद्दा बना आजकल 370 धारा ।
दुश्मनों की गोली से बहे जब लहू की धारा
दिल छलनी हो जाता सबका देख ये नजारा।
जुनून और जज्बे की सदा जलती रहे ज्वाला
जनमानस के दिलों में बहे देशभक्ति की धारा ।
वीर ,कर्मठ ही राह बनाते चल विपरीत धारा
इतिहास मे अमर हो जाते कर कार्य निराला।
स्वरचित
अनिता सुधीर श्रीवास्तव
मिटाये जन जन का संताप ,हरे दुख सारा ।
कूड़ा कचरा न गिरे ,गिरने न दे गंदा नाला
पापी न बने हम ,पाप धो कर इसमे सारा ।
जीवनदायिनी नदियों की अविरल धारा
स्वच्छ ,प्रदूषणमुक्त हो,ये कर्त्तव्य हमारा।
बहती रहे जन जन मे निर्मल ज्ञान की धारा
आनंदित हो अलौकिक ज्ञान से जग सारा ।
दिलों से जब निकलती है प्रेम की धारा
नफरत द्वेष हटा ,करती जीवन में उजाला ।
लेखनी से निकलती जब विचारों की धारा
करुण ,वीर ,वियोग श्रृंगार रस में डूबे संसारा।
संविधान में हमारे कई अनुच्छेद और धारा
बहस का मुद्दा बना आजकल 370 धारा ।
दुश्मनों की गोली से बहे जब लहू की धारा
दिल छलनी हो जाता सबका देख ये नजारा।
जुनून और जज्बे की सदा जलती रहे ज्वाला
जनमानस के दिलों में बहे देशभक्ति की धारा ।
वीर ,कर्मठ ही राह बनाते चल विपरीत धारा
इतिहास मे अमर हो जाते कर कार्य निराला।
स्वरचित
अनिता सुधीर श्रीवास्तव
"धारा"
क्षणिका
1
अमृत धारा, नभ से बरसे
भीगा ,किसलय का आँचल ।
पत्तों से झर रहे,ओस की धारा।
आहा!शबनमी भोर,
मन उमंगों से भर उठा,
देख शीतल धरा।।
2
समय की धारा में,
बह रही जीवन कश्ती।
जूझती लहरों से,
ले पतवार का सहारा।
मौजों से टकराकर,
मिलता मौत का किनारा।।
स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल।
क्षणिका
1
अमृत धारा, नभ से बरसे
भीगा ,किसलय का आँचल ।
पत्तों से झर रहे,ओस की धारा।
आहा!शबनमी भोर,
मन उमंगों से भर उठा,
देख शीतल धरा।।
2
समय की धारा में,
बह रही जीवन कश्ती।
जूझती लहरों से,
ले पतवार का सहारा।
मौजों से टकराकर,
मिलता मौत का किनारा।।
स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल।
विधा - पिरामिड
विषय-धारा
🍀🍀🍀🍀🍀
हैं
धारा
काव्य की
भाव , सार
निर्मित छंद
भावों का उद्गार
मानव का विकास
2)
ये
धारा
निर्मल
श्वेत जल
गरिमामय
जीवन प्रदान
रखना उसे स्वच्छ
स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू
विषय-धारा
🍀🍀🍀🍀🍀
हैं
धारा
काव्य की
भाव , सार
निर्मित छंद
भावों का उद्गार
मानव का विकास
2)
ये
धारा
निर्मल
श्वेत जल
गरिमामय
जीवन प्रदान
रखना उसे स्वच्छ
स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू
धारा
स्याह काली नीरस नीरव सी रात
अंग अनंग बेकस मचले जज़्बात
विरह व्यथा कसक सघन संताप
चाहत चकनाचूर, उड़ती बन भाप
बादल घुमड़े, लगे मेघ ही प्यारा
नभ नैन भरे, झड़े अश्रु की धारा
अंबर से बूंद बरसते बन एहसास
हरते ताप तरस, धरा की प्यास
मेरी आँखों से अविरल जो झड़ते
मन ताप-तड़प क्यों नहीं है हरते
प्यासा मन हिय अथाह जल स्रोत
है भावों के भँवर में डगमग पोत
आओ थाम लो निज कर पतवार
हो तन-मन निहाल भर अँकवार
बना बाँध,साध लो नदी की धारा
संग चले तरंग-संग पाये किनारा
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
स्याह काली नीरस नीरव सी रात
अंग अनंग बेकस मचले जज़्बात
विरह व्यथा कसक सघन संताप
चाहत चकनाचूर, उड़ती बन भाप
बादल घुमड़े, लगे मेघ ही प्यारा
नभ नैन भरे, झड़े अश्रु की धारा
अंबर से बूंद बरसते बन एहसास
हरते ताप तरस, धरा की प्यास
मेरी आँखों से अविरल जो झड़ते
मन ताप-तड़प क्यों नहीं है हरते
प्यासा मन हिय अथाह जल स्रोत
है भावों के भँवर में डगमग पोत
आओ थाम लो निज कर पतवार
हो तन-मन निहाल भर अँकवार
बना बाँध,साध लो नदी की धारा
संग चले तरंग-संग पाये किनारा
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
"शीर्षक-धारा
गंगा की धारा सी निर्मल
है वह बृजबाला
रास रचाये मुरली मनोहर
बहे प्रेम रस की धारा
ममता की धारा बहे अविरल
चाहे हो जाये बृद्ध काया
भाई बहन की प्रेम धारा
बहते सदा जीवन सारा
नदियाँ बहे ,बहे अविरल धारा
चाहे आये कंटक अनेक
मनु जीवन है नदी समान
सुख दुःख बहे बन जीवन धारा
अप्रतिम है देश हमारा
देश भक्ति की बहे रसधारा
मानुष तन जब मिला है यारो
भूल न जायें प्रेम की धारा।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
गंगा की धारा सी निर्मल
है वह बृजबाला
रास रचाये मुरली मनोहर
बहे प्रेम रस की धारा
ममता की धारा बहे अविरल
चाहे हो जाये बृद्ध काया
भाई बहन की प्रेम धारा
बहते सदा जीवन सारा
नदियाँ बहे ,बहे अविरल धारा
चाहे आये कंटक अनेक
मनु जीवन है नदी समान
सुख दुःख बहे बन जीवन धारा
अप्रतिम है देश हमारा
देश भक्ति की बहे रसधारा
मानुष तन जब मिला है यारो
भूल न जायें प्रेम की धारा।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
बहती है बस बहती है
रूकती है ना थकती है
निरंतरता का बोध कराती
समय-धारा बहती ही जाती
इसका प्रवाह अति मूल्यवान
महत्त्व इसका और अर्थवान
रूपयों पैसों से ना इसको तोल
जानो उपयोगिता केवल मोल
जीवन में ना आवे कोई झोल
समय की धारा कहती यह बोल
रोके से ना रूकती है यह धारा
ना किसी बंधन में बँधती धारा
जिसने समय की धारा को पूजा
सफलता का खुल जाए दरवाज़ा
जिसने इसको बहुत दिया मान
उसका जीवन बन पाता पहचान
अनदेखा जो इसको है करता
जीवन मे वह आगे ना बढ़ पाता
समय बीते पड़ता है पछताना
बीता समय वापस कभी ना आना
‘समय पर समझ ‘होती है यह बड़ी बात
‘समय की समझ ‘होना ही सर्वोत्तम बात
संतोष कुमारी ‘संप्रीति’
स्वरचित
रूकती है ना थकती है
निरंतरता का बोध कराती
समय-धारा बहती ही जाती
इसका प्रवाह अति मूल्यवान
महत्त्व इसका और अर्थवान
रूपयों पैसों से ना इसको तोल
जानो उपयोगिता केवल मोल
जीवन में ना आवे कोई झोल
समय की धारा कहती यह बोल
रोके से ना रूकती है यह धारा
ना किसी बंधन में बँधती धारा
जिसने समय की धारा को पूजा
सफलता का खुल जाए दरवाज़ा
जिसने इसको बहुत दिया मान
उसका जीवन बन पाता पहचान
अनदेखा जो इसको है करता
जीवन मे वह आगे ना बढ़ पाता
समय बीते पड़ता है पछताना
बीता समय वापस कभी ना आना
‘समय पर समझ ‘होती है यह बड़ी बात
‘समय की समझ ‘होना ही सर्वोत्तम बात
संतोष कुमारी ‘संप्रीति’
स्वरचित
गंगा की धारा निर्मल है,
वह कलकल करके बहती है।
गंगा की धारा अविरल है,
यह पावन हमको करती है।
मन हो या हो तन ,
यह सबको पवित्र करती है।
प्यासे हों कंठ या धरा हो प्यासी,
यह सबकी प्यास बुझाती है।
निकल पहाड़ों से आगे
जब यह कलकल कर बहती है।
कवियों में भाव जगाती है,
उपजाऊ धरा को करती है।
ऐसी यह अविरल धारा है।
ऐसी यह अविरल धारा है।।
(अशोक राय वत्स) स्वरचित
जयपुर
वह कलकल करके बहती है।
गंगा की धारा अविरल है,
यह पावन हमको करती है।
मन हो या हो तन ,
यह सबको पवित्र करती है।
प्यासे हों कंठ या धरा हो प्यासी,
यह सबकी प्यास बुझाती है।
निकल पहाड़ों से आगे
जब यह कलकल कर बहती है।
कवियों में भाव जगाती है,
उपजाऊ धरा को करती है।
ऐसी यह अविरल धारा है।
ऐसी यह अविरल धारा है।।
(अशोक राय वत्स) स्वरचित
जयपुर
विधा-हाईकु
" धारा"
१
गुरू साहिल
बचपन है धारा
भाग्य सँवारा
२
जीवन धारा
हौंसला पतवार
लक्ष्य किनारा
३
विचार धारा
बदलती जीवन
बन रिवाज
४
धारा-प्रवाह
चंचल बचपन
पिता रक्षक
****
स्वरचित-रेखा रविदत्त
19/3/19
मंगलवार
" धारा"
१
गुरू साहिल
बचपन है धारा
भाग्य सँवारा
२
जीवन धारा
हौंसला पतवार
लक्ष्य किनारा
३
विचार धारा
बदलती जीवन
बन रिवाज
४
धारा-प्रवाह
चंचल बचपन
पिता रक्षक
****
स्वरचित-रेखा रविदत्त
19/3/19
मंगलवार
शीर्षक -धारा
विधा-हाइकु
1.
पौष्टिक चारा
भोजन है हमारा
दुग्ध की धारा
2.
खेत सुधारा
सावन महीने में
बारिश धारा
3.
धारा प्रवाह
जगमग करती
हमारी बस्ती
4.
बरसे मेघ
हरे भरे पौधों में
अमृत धारा
*******
स्वरचित
अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर (झज्जर)
हरियाणा
विधा-हाइकु
1.
पौष्टिक चारा
भोजन है हमारा
दुग्ध की धारा
2.
खेत सुधारा
सावन महीने में
बारिश धारा
3.
धारा प्रवाह
जगमग करती
हमारी बस्ती
4.
बरसे मेघ
हरे भरे पौधों में
अमृत धारा
*******
स्वरचित
अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर (झज्जर)
हरियाणा
समय की धारा संग बह रही हूँ
जो गुजर गया हैं पल उसका किस्सा कह रही हूँ
हवा के संग चल रही हूँ
हर पल जिंदगी की एक नई कहानी कह रही हूँ .
कभी नदी की धारा हूँ कभी सागर का किनारा
हर कदम ढूँढ रही हूँ जिंदगी का सहारा
कभी नीम की तरह कड़वी हूँ कभी अमृत धारा
ऐ जिंदगी हर पल बदल रही हूँ नये रंग में ढल रही हूँ होकर निर्मल धारा.
कभी नाव कभी मांझी हूँ
डूब रही हैं नय्या मेरी
फिर भी उम्मीद की पकड़ी हैं पतवार
बीच में उलझ गई हूँ संग मझधार.
पहेली बन गई हैं जिंदगी मेरी
कभी सिमट रही हूँ कभी बिखर रही हूँ
फिर भी धारा संग बह रही हूँ
हर निशा के बाद उम्मीदों की प्रभात के संग चल रही हूँ एक नई धारा में ढल रही हूँ .
स्वरचित:-रीता बिष्ट
जो गुजर गया हैं पल उसका किस्सा कह रही हूँ
हवा के संग चल रही हूँ
हर पल जिंदगी की एक नई कहानी कह रही हूँ .
कभी नदी की धारा हूँ कभी सागर का किनारा
हर कदम ढूँढ रही हूँ जिंदगी का सहारा
कभी नीम की तरह कड़वी हूँ कभी अमृत धारा
ऐ जिंदगी हर पल बदल रही हूँ नये रंग में ढल रही हूँ होकर निर्मल धारा.
कभी नाव कभी मांझी हूँ
डूब रही हैं नय्या मेरी
फिर भी उम्मीद की पकड़ी हैं पतवार
बीच में उलझ गई हूँ संग मझधार.
पहेली बन गई हैं जिंदगी मेरी
कभी सिमट रही हूँ कभी बिखर रही हूँ
फिर भी धारा संग बह रही हूँ
हर निशा के बाद उम्मीदों की प्रभात के संग चल रही हूँ एक नई धारा में ढल रही हूँ .
स्वरचित:-रीता बिष्ट
बहती धारा यह कहती है सबसे ,
तुम गतिमान बनो व श्रमदान करो |
सदा ही होगे संघर्षों से दो चार हाथ ,
अपनी नजरें मंजिल पर रखा करो |
हर प्राणी है अतृप्त यहाँ पर ,
बर्षा नित प्यार की किया करो |
दुख दर्दों की है तपिस यहाँ पर ,
सुख की छाया बन जाया करो |
वेबस वेसहारा हैं बहुत यहाँ पर ,
उनकी लाठी ही बन जाया करो |
अज्ञानता का अंधकार यहाँ पर ,
ज्ञान की ज्योति बन जाया करो |
ईर्ष्या द्वेष की है बहुत गर्द यहाँ पर ,
मन का आइना साफ किया करो |
दहशत का बड़ा बाजार यहाँ पर ,
कुछ गीत मानवता पर लिखा करो |
एक गहरा सागर दुनियाँ है यहाँ पर ,
जीवन धारा को संयमित रखा करो |
मकसद जीवन का कुछ रखो यहाँ पर ,
हमेशा ही हौसलों को बुलंद रखा करो |
स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश
तुम गतिमान बनो व श्रमदान करो |
सदा ही होगे संघर्षों से दो चार हाथ ,
अपनी नजरें मंजिल पर रखा करो |
हर प्राणी है अतृप्त यहाँ पर ,
बर्षा नित प्यार की किया करो |
दुख दर्दों की है तपिस यहाँ पर ,
सुख की छाया बन जाया करो |
वेबस वेसहारा हैं बहुत यहाँ पर ,
उनकी लाठी ही बन जाया करो |
अज्ञानता का अंधकार यहाँ पर ,
ज्ञान की ज्योति बन जाया करो |
ईर्ष्या द्वेष की है बहुत गर्द यहाँ पर ,
मन का आइना साफ किया करो |
दहशत का बड़ा बाजार यहाँ पर ,
कुछ गीत मानवता पर लिखा करो |
एक गहरा सागर दुनियाँ है यहाँ पर ,
जीवन धारा को संयमित रखा करो |
मकसद जीवन का कुछ रखो यहाँ पर ,
हमेशा ही हौसलों को बुलंद रखा करो |
स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश
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