Monday, March 25

'''किनारा " 23मार्च 2019

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             ब्लॉग संख्या :-336
सभी लोग रहने लगे हैं किनारे।
डूबती कश्तियां किसे है पुकारे।


तरक्की पसन्द घर गये छोडकर।
बुढापे मे मां अब किसके है सहारे।

मेहरबानी जब से हुई है आपकी।
किस्मत के चमकने लगे हैं सितारे।

आपने नजर भर जो देखा इधर।
सोये थे अरमां अब जगे है हमारे।

हम से क्या शिकवा हम तो गैर थे ।
हुए जिनके तुम क्या सगे हैं तुम्हारे।

साफगोई से बडा जुर्म कोई नहीं।
लफ्ज क्यूं तीर लगने लगे हैं हमारे।

विपिन सोहल

सजग जाग्रत रहते जग में
उन्हें किनारा मिल जाता है
कर्मवीर कर्मो के बल पर ही
संघर्षी ,जीवन मे हँसता है
तट लहरों की गिनती करना
काम नहीं है यह नर तेरे
दूर क्षितिज पर डाल निगाहें
मोती मिलते सदा जल गहरे
भवसागर में बैठ किनारे
अर्जित कुछ भी नहीं होता
बहुमूल्य रत्न संग्रहण हेतु
जो मारे जलनिधि में गोता
असंभव जग में नहीं होता
कर्महीन जीवन भर रोता
कर्मवीर संघर्षी रत नित
वह जीवन कभी न सोता
जीवन लक्ष्य किनारा होता
खुद मांझी को चलना पड़ता
नाविक खुद पतवार सम्भाले
फिर सागर में आगे बढ़ता
इस जगति से पार लगादो
दीन दयालु है प्रभु सबको
दूर बहुत् है मोक्ष किनारा
हिय में ज्ञान भक्ति भरदो
अर्जित होता दूर किनारा
श्रम और सेवा के बल पर
प्रश्न बहुत हैं इस जगति में
तू निष्ठा त्याग से हल कर।।
स्व0 रचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

पतवार पर रख भरोसा किनारे का क्या
ऐसी जल्दी डर आँसू के पनारे का क्या ।।

किनारा तो महज तसव्वुर कहलाये है
झूठे तसव्वुरों के हसीन द्वारे का क्या ।।

बार बार बह जातीं हैं यहाँ कश्तियाँ 
हवा भी दे इशारे तो इशारे का क्या ।।

देगीं कुछ दूर ये हवायें साथ मगर 
जो खुद से हारा उस हरे का क्या ।।

काम आये जिन्दगी में जो वो है 
सहारा वरना एेसे सहारे का क्या ।।

भीड़ में लुटते देखा लोगों को 'शिवम'
ऐसे शहर गली और चौबारे का क्या ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 23/03/2019

लेखन शब्द- *किनारा *
विधा-मुक्तक द्वय
=======================
(01)
इश्क़ दरिया वो कहीं ढूँढ़ो किनारा लापता ।
प्यार तेरा वो सिकूँ ग़ायब ,सहारा लापता ।
शौक़ जितने थे मेरे बेकार, निष्फल हो गये,
नाज़ था जिस पर नसीबा का सितारा लापता ।।

(02)दूसरे अर्थ में
मीत !तुमने बे वफ़ाई ढब गवारा कर लिया ।
जानिए, तुमसे भी अब हमने किनाराकर लिया ।
जो कुछ मुकद्दर में लिखा वह झेलना वाजिब हमें,
बे वफ़ा कितने हो ?तख़्मीना तुम्हारा कर लिया ।।
=======================
' अ़क्स ' दौनेरिया


विषय - किनारा

सागर तट
हो रही खटपट
बिखरी लट

सरिता तट
सम्भल झटपट
छूटे न तट

नदी किनारे
तुम रहो हमारे
प्रिय पुकारे

दिल पुकारे
हम सदा तुम्हारे
नदी किनारे
8
नयना द्वारे
समंदर किनारे
प्रिय पधारे

सरिता गर्ग
स्व रचित

नमन भावों के मोती🙏
ज़ल🌹23मार्च शनिवार
~~~~~
मेरे खयालात का वज्न न रख अपने सीने में
दो दिल की जरूरत नहीं होती अब जीने में।

गर्दिशे दौरा मारा गया मैं तो आखरी दम तक ,
जाने कब आएगा मुकाम टूटे दिल सफीने में

हर मौज मरती रही किनारों पे आते आते
मर्जी पता होती तो ढल जाते उनके करीने में।

उन्हें लगते हर मौसम सुहाने रिम झिम से,
मेरी आँख से रोता है सावन सावन के महीने में।

न पूछिए शौक ए साहिल , की दास्तां #राय से
क्या क्या न हुआ दरम्यान उन पे मरकर जीने में।
_______________________________________

गर्दिशे दौरा_रोज रोज के गम
सफीने,_नांव, कश्ती
शौक ए साहिल,_किनारों की चाहत
शिकस्ता__टूटी हुई
करीने ,व्यहवार, रीति 
मौज_<लहर

दिल के हाथों न सताये होते जुवा तक अगर आये होते
देख लेते हाल-ए-दिल सनम चाक गिरेबान दिखाये होते

किनारों पर भी डूबती हैं कस्तियाँ अगर जानते हम भी
तो दिल के सिक्के को यूँ उछाल न हम दिखाये होते

न नहाते अश्कों मे रात भर हम यूँ ही लेकर गम सारे
सुबह होते ही हंसी को चहरे पर जबरन न दिखाये होते

रह न जाये गुमान हमें कोइ मोहब्बत में बाकी अब
भूल से ही बहलाने का खयाल उनको दिखाये होते

विरह की तडप क्या होती है दिल जानता है वो भी
आँख करती बगावत अगर दिल ने छाले दिखाये होते

💕स्वरचित💕
नीलम शर्मा #नीलू


हाइकु
विषय किनारे

बहते अश्रु
नयनों के किनारे
वीर शहीद

नदी किनारे
हिरण विचरते
बीच जंगल

पथ किनारे
छायादार वृक्ष हैं
नीरव शान्ति

सरिता तट
सुंदर किनारे हैं
नौका विहार

किनारे खड़े
प्रतीक्षा में नयन
पिया मिलन

बीच भवंर
पतवार सहारा
देती किनारा

मनीष श्री

शीर्षक-किनारा

जो किनारा छोड़,जाते धार में
हौंसला रखते हैं,जो पतवार में
मिल ही जाती है उन्हें मंज़िल कभी
ढूंढ लेते रास्ता मझधार में।

छूट जाता है सहारा भी कभी
टूट जाता है किनारा भी कभी
मुश्किलों से वो कभी डरते नही
जो चले हो खार पे ,अंगार पे।

बस यही है ज़िन्दगी का फलसफा
तू किये जा प्यार में केवल वफ़ा
छोड़ खुदगर्जी ,समझ संसार में
साहिल और मंज़िल मिलेगी प्यार में

~प्रभात
स्वरचित

विषय -किनारा
विधा -हाइकु

कभी न मिले
है अधूरा हमेशा
नदी किनारा।

आफत आए
किनारा काट लेते
अपने प्राय ।

नदी किनारा
हरियाली जीवन
होता सदैव ।

सुफिया पंथ
न ढूंढते किनारा
रहते मस्त ।

नदी किनारे
रास लीला रचाते
किशन राधे।

ज्योति अरूण जैन " अनु"

स्वरचित

"शीर्षक-किनारा"
जीवन है सागर
मोक्ष किनारा
मेरी नैया पार लगाओ
खेवनहार हो प्रभु हमारे

दूर खड़े सब संगी साथी
डूबे जब नैया मेरी
तुम तिनका बन जाओ
गिरि रोके जब राह हमारा
तुम पतवार बन जाओ

शैने शैने बढ़े नैया मेरी
किनारे तक पहूचाँओ
तेरे अतिरिक्त न कोई सहारा
तुम सहचर बन जाओ

है अपेक्षा सिर्फ तुमसे प्रभु
तुम केवट बन जाओ
भव बंधन में फंसीं है नैया
तुम उदारता दिखलाओ

नैया फंसी मझधार मे मेरी
तुम किनारे पहूचाँओ
इतनी अरज है प्रभु मेरी तुमसे
तुम उदारता दिखलाओ
स्वरचित-आरती -श्रीवास्तव।

ढूंढ रहा हूँ मंजिल किनारा।
प्रभु मिल जाऐ तेरा सहारा।
अपना किसी को कहूं कैसे,
झटके लगे सचमुच करारा।

नैया मेरी बीच डगर में पडी।
बीच मझधार में कश्ती खडी।
सोंप दी पतवार जब हाथ तेरे,
क्या चिंता किनारे की पडी।

मुझे सदैव सहारा मिलता रहे।
हृदय सुमन सही खिलता रहे।
नहीं आऐं जिंदगी में मुश्किलें,
अगर प्रभु आसरा मिलता रहे।

तेरे हाथों का खिलौना हूँ प्रभु,
खेलता रहूं सदा मझधार में।
तुझसे रहे हरदम संवाद मेरा,
कब किनारे रहूँ या रसधार में।

स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.

विधा=हाइकु 
=========
करे किनारा
जेब में नहीं पैसा
तो जग सारा

कभी ना मिला
तरसता बेचारा
नदी किनारा

किया किनारा
उंचे ओहदे बेटा 
बूढ़े माँ-बाप 

आज का युग 
निकला मतलब
किया किनारा

अद्भुत दृश्य 
संध्या काल आरती
गंगा किनारा 

करे किनारा
फैलता भ्रष्टाचार 
आप व हम

एक ही नारा
चीनी वस्तु का हम
करे किनारा 

गंगा किनारे
हम नहाने जाते
पुण्य ही पाते

वृद्धा पुकारे 
प्रभु लगाए कब
नाव किनारे

===रचनाकार ===
मुकेश भद्रावले 

लघु कविता"
###############
इस किनारे मैं हूँ खड़ी
उस किनारे है तू खड़ा
हमारे बीच बह रही
नदी की कलकल धारा।

तेरे बिन मैं अधूरी
मेरे बिन तू अधूरा
हमारी नियति है यही
दूर से ही बने सहारा।

कश्तियों को मौजो ने लुभाया
कितनी कश्तियाँ डूबते देखी
किसी को तूने है संभाला
किसी को मैंने भी संभाला।

हम दोनों हैं दो प्रेमी
मिलन नही है हमारा
जैसे हो समानांतर रेखा
बीच बह रही जीवन धारा।

स्वरचित पूर्णिमा साह(भकत)
पश्चिम बंगाल


1
किनारा
किनारा का अर्थ
वो कुछ यूं समझाते है
कि
बीच मँझधार में छोड़
किनारा कर जाते हैं
2
बड़े जतन से
दलदली रेत पर यूं धर रहे
जैसे
मँझधार से उबार कर
किनारा कर रहे
3
किनारा
चल पड़े दरियाव में
एक छोटी-सी नाव में
मगन मन हुये सवार
तेरे हाथों में पतवार
फिर एक मँझधार में
किसी भवंरावृत धार में
डगमग हुई ऐसी नैया
विचलित हुआ खेबैया
मन में मेरे प्रबल आस
हे मांझी तेरा विश्वास
पाल का लिए सहारा
संग पा लेंगे किनारा
उठी कितनी ज्वार भाटाएँ
जाने कितना भटकाये
हर बार पार हम पाये
क्यों अबकी तुम घबराए
दिखा दूर कोई जलयान
निज मन में कुछ ठान
असंतुलित हुये या स्वांग
लगा चुके पर तुम छलांग
लिए दशा-दीन,मैं दिशाहीन
तुम एकल गंतव्य लीन
किनारे का देकर दिलासा
जाग्रत कितनी अभिलाषा
रही ऊहापोह में उलझी
मैं ही,बाते तेरी न समझी
पग-पग जो किए इशारा
मुझसे ही किए किनारा
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित

विधा-हाइकु

1.
स्वार्थ हमारा
सब कुछ है पैसा
दोस्ती किनारा
2.
डूबती नैया
पार लगाओ भैया
दूर किनारा
3.
नदी किनारे
कौन है निहारता
फैली गंदगी
4.
बनो सहारा
अवगुण किनारा 
दीन दुःखी का
5.
पार्क किनारे
चलते हैं फव्वारे
खिलते फूल
6.

बैठे किनारे
अठखेली पानी से
खेलते बच्चे
7.
भटक रास्ता
बिन पतवार के
कैसा किनारा
***********
स्वरचित
अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर(झज्जर)
हरियाणा


समन्दर का *किनारा 
ठंडी रेत पे नंगे पाँव
हाथों में हाथ लिए 
दुनिया जहान से दूर 
अपने में रहते मशगूल
वो दिन भी क्या दिन थे।

वक़्त ने क्या सितम किया
गलतफहमियां दीवार बन खड़ी हो गईं
रिश्ते बिखरते जा रहे थे 
एक दूजे से दूर जा रहे थे
*किनारे की तलाश में
बेड़ियोँ के भँवर में डूबते जा रहे थे ।

समय के चक्रव्यूह में
उलझ कर रह गए हम
तुम तो गैर हो गए थे 
अपनों ने भी *किनारा कर लिया।

नदियों के दो *किनारों की तरह 
हम समानांतर चलते रहे
मिलना न था नसीब में
*किनारे की तलाश में 
हम सहारा ढूँढते रहे ।

जल नदियों का *किनारा 
छोड़ता जा रहा है
सिकुड़ती हुई नदियां 
सूखे की स्थिति ला रही हैं
जल अगर *किनारा तोड़ निरंकुश हो जाये 
प्रलय और बाढ़ के हालात बनते जाएं ।
स्वरचित
अनिता सुधीर श्रीवास्तव

चाहत किसकी किनारा नहीं है ,
मिलता सब को किनारा नहीं है |

दुनियाँ में लोग जी रहे लेकिन ,
खुशी का मिला इशारा नहीं है | 

धारा नयी देती जिदंगानी ,
तट पे बैठे गुजारा नहीं है |

शजर एक ऑगन में है जरूरी ,
ऐसा कोई सहारा नहीं है |

संगम दो दिलों का हो जहाँ पर ,
इसके जैसा नजारा नहीं है |

बेवफा सनम दुश्मनी ही करता ,
मिल सकता फिर किनारा नहीं है |

मुरादौ की दुनियाँ सामने हो ,
देखा हसीन किनारा नहीं है |

स्वरचित , मीना शर्मा , मध्यप्रदेश 

रचयिता पूनम गोयल

देखकर ,समूह के
दिग्गज कलमकारों की रचनाओं को ,
यदा-कदा 
सोचती हूँ मैं
कि किनारा कर लूँ समूह से मैं ।
क्योंकि केवल
भाव हैं मेरे पास , 
न विभिन्न विधाओं का ज्ञान मुझे ,
न अलंकृत भाषा है मेरी🤔
फिर कैसे मैं कर पाऊँ कुछ ख़ास ।।
यहाँ तो सभी
ऊँच कोटि के
महाविद्वान सुशोभित हैं ।
फिर कैसे मैं टिक पाऊँ यहाँ ,
यह सोचके , 
मन भयभीत है 🧐🙄🤪।।
नहीं , मैं ग़लत थी सर्वदा ,
क्योंकि समूह का नाम ही 
भावों के मोतियों को जोड़कर बना ।।
रही बात 
विधाओं व अलंकारों के ज्ञान की ,
तो हर क्षेत्र में
उसकी कलाओं का
विशेष योगदान है ।
इसलिए समय के साथ-साथ
उनका करना पड़ता अभ्यास है ।।
इसके अतिरिक्त
इस समूह की है ,
एक बहुत बड़ी विशेषता ।
कि ज्ञानी होने के साथ-साथ ,
है यहाँ सबमें
बहुत विनम्रता ।।
माला के मोती बनकर ,
एक-दूसरे को 
सब जोड़ते ।
सहृदयता से 
हाथ थामकर ,
कला के मार्ग पर
हैं आगे बढ़ते ।।

क्यों करते हो #किनारा अपने संस्कारों से 
मत करो #किनारा अपनी सभ्यता से। 
ये हमारे अनमोल धरोहर हैं, 
जो बांधते हैं हमे मर्यादा की परिधि में! 
हाँ शोभा देता है हमें मर्यादा में रहना! 
हम भारतीय हैं हमारे सुन्दर संस्कार हैं। 
क्यों भागना पश्चिमी सभ्यता के पीछे?
क्यों अनुसरण करना संस्कार हीनता का?
हमारे रिश्ते भी मर्यादा की मज़बूत गांठो में बांधे जाते हैं 
जिनके साक्षी होते हैं ज़मीन आसमान चाँद सितारे 
वायु और पावन अग्नि !!
तभी तो हमारे ऱिश्तों में मजबूती आती है। 
ये बंधन नहीं टूटते आंधी तूफ़ां में 
नहीं डूबते मझधारों में। 
क्यूंकि हमारे मांझी संस्कारो के पतवार थामे होते हैं। 
हम प्यार की कश्ती में सवार होते हैं। 
वो हमे पहुंचाते हैं #किनारे तक!! 
# मणि बेन द्विवेदी

हो सकता है शायद,
कि किसी खुशबू 
के बदन का माप
फूलों की मुट्ठियों से
बड़ा हो जाए , और
एक वयस्क नदी की 
पीठ की पगडंडियों पर,
किसी सांझ की चहलकदमियों को
स्वीकृति मिल जाए,
लेकिन याद रखना,
हवा के नाभियों के इर्द-गिर्द 
महींन तिनकों के #किनारों के बीच
कोई कविता 
सहज व स्वीकार्य हो,
ऐसा शायद नही होता है,
या...
ऐसा हो सकता है शायद...?

(स्वरचित)


..✍️शैलेन्द्र श्रीवास्तव..

करता हैं नाकाम
कोशिश इंसान
उकेरने की इबारत
अपनी,
जिंदगी की डायरी के हर पन्ने के आखिरी किनारे तक
वो खाली छूट ही
जाते हैं
जीवन के कुछ खाली हिस्सों की
मंनिन्द,जैसे कोई
आते आते अचानक दूसरे रास्ते पर मुड़ कर
किनारा कर ले
न देखे फिर कभी
मुड़ कर
वो हिस्सा खाली ही रहता है,खाली
पन्ने की तरह जिस
पर कोई इबारत नही
उकेरी जा सकती
नदी के दो किनारों
की तरह जो कभी
नही मिलते 
बस यूँ ही----।।


प्रेषित शब्दावली -किनारा
-------------———-
फिर उतर आई शाम सागर किनारे
फिर खुशियों के दीप जले !

अधखिली कलियों ने खिलना सीखा
अनकहे सपनों ने मुस्कुराना सीखा ।
सागर की लहरों ने छेड़ा नगमा कोई
अधूरे गीतों ने फिर गुनगुनाना सीखा ।
फिर हवा छेड़ गई आँचल सागर किनारे।
फिर ख़ुशियों के दीप जले !

बादर - कारे नयनों के अँजन बन गए
रिमझिम बूँदें आशाओं के दरपन बन गए।
जहाँ क़दम रुके , जहाँ नज़रें उठीं
दिशाएँ मुस्कुराईं ,गलियाँ मधुवन बन गए।
फिर थके-हारे क़दम थिरकने लगे सागर किनारे।
फिर ख़ुशियों के दीप जले !

लहरों सा उन्मादित जीवन है आज
सुमन सा आलहादित मन है आज।
सहज सरल साँसों में ये हलचल कैसी
सूरज सा आलोकित घर आँगन है आज।
फिर सतरंगी सपने सजने लगे सागर किनारे।
फिर ख़ुशियों के दीप जले !

निज नीड़ लौटते विहंगम का कलरव
रेत के घरौंदे बनाते वो अदना शैशव।
नीलाभ को छूता वो मनोहारी पतंग 
जडवत निहारता अचंभित मानव ।
फिर अरमानों के झूले पड़ने लगे सागर किनारे।
फिर ख़ुशियों के दीप जले !

लहरों पर गूँजता संगीत है आज
लहरों पर थिरकता प्रीत है आज।
सुनो आवाज़ ज़िंदगी की साथी रे!
लहरों पर इठलाता गीत है आज।
फिर वही सरगम के सुर बिखरे सागर किनारे ।
फिर ख़ुशियों के दीप जले!
*******************************
स्वरचित (c)भारगवी रविन्द्र ......बेंगलूर


किनारा 
दरकिनार कर रहे , 
मेहनत से डर रहे ।
बेमतलब भर रहे, 
घड़ा पाप मर रहे ।
सारा जग महासागर
चुनना मुश्किल डगर, 
विषमता भरा नगर ।
नदियों में बहता जहर, 
दुश्मनों की कैसी नहर? 
मांझी हैं यहाँ मतंग, 
क्या -क्या उठती तरंग ।
ईश्वर बचा तेरा सहारा , तूझसे मिले किनारा ।
स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा 
'निश्छल',


विषय- किनारा

जीवन नाव
सुख-दुख लहरें
मोह किनारा

वयस्क नदी
मिलन को तरसे
किनारा ढूँढ़े

विपदा भारी
अपनों से किनारा
रीत पुरानी

झूठ चिंगारी
जीवन सुलगाती
सत्य किनारा
***
स्वरचित-रेखा रविदत्त
23/3/19

यादों की बिजली चमकी....
सिहरन सी लहरी...
सिर्फ एक किनारे पर....
दूसरे छोर से नहीं मिली....
आँखों के किनारों से... 
फिसली दो बूंदों कि तरह...
जो गाल तक भी नहीं पहुँच पायीं...
कि गर्म हवाओं ने उड़ा लिया...
हाँ...एक महीन सी लकीर छोड़ गयीं...
बिजली की तरह...
यादों की...

शायद ज्वार की कमी है....
या किनारे...तट मजबूत हैं...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II

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