Sunday, July 15

"स्वतंत्र लेखन "15जुलाई 2018


स्वतंत्र लेखन
िधा--छंदमुक्त
**************
मैं,
दशावतार,
अखण्डता को,
एकता में तब्दील करता,
आताताईयों के सर्वनाश का कारण हूँ।
जब जब धरती रोइ थी,
मानवता चित्कारी थी,
असत्य की आँधी आई थी,
निर्दोष लहू की नदियाँ कल कल बहती थी,
तब तब मैं,विष्णु,
दशावतार रूप में,
सुखद पलों को,सुख- शांति,सत्य को,
वापिस लाया हूँ।
हाँ, मैं विष्णु दशावतार हूँ, 
भिन्न नामों से पुकारा जाता हूँ,
पर,कर्म सदा,एक रूप ही करता हूँ।
मैं,मानव रूप में भी
अमानवीय कर्मों से दूर रहता हूँ।
मानव, पशुओं के,
विभिन्न रूपों में भी,
जीवन साकार करता हूँ।
हृदय में सागर सी शांत लहरें,
तो,चिंघाड़ भी रखता हूँ।
धनुष,तीर,फरसा,चक्र,तलवार,
सभी से मोह भी रखता हूँ।
पावन पुष्पित धरा को,
मैला करती,विभत्स कृत्यों को,
खत्म भी करता हूँ।
शांति की खातिर,
बारम्बार जन्म ले,
मैं,पृथ्वी को भय मुक्क्त भी करता हूँ।

वीणा शर्मा


☆☆ये जीवन हैं ☆☆

कड़ी धूप सा है जीवन
उस पर बादल जैसा मन 
ठंडी छाँव की आस लिए 
परछाई के पीछे भागे तन 

मेहनत की आँच पर तपता
दुःखों के तूफानों से लड़ता
विरह वेदना के शूल सहता
गहरा इसका पीड़ा से नाता

कुछ कुछ खुशियाँ भी हैं 
संग हैं उनके कुछ कुछ ग़म
हँस कर जी लो इसको तो
भर जाए खुशियों से दामन
-मनोज नंदवाना



"अंतिम यात्रा"
मै भूला नहीं सका

बीती हुई बातों को
टूटे हुए सपनों को,
मैं मना नहीं सका
सोचे हुए ख्वाबों को
रूठे हुए अपनों को
और आ गई
'अंतिम यात्रा 'l

बड़ी जल्दी- जल्दी
मैनें जिन्दगी को जी लिया
बड़ी खामोशी के साथ
हर दर्द को पी लिया,
रूकना चाहता था
अपनें पुरानें आसरे में,
कहना चाहता था
जीवन की हर दास्तान
अपनों के मुशायरे में,
सोचता था कुछ और ठहरूं
कहां, कब, किसके संग ?
ये तय कर न सका
और आ गई
'अंतिम यात्रा 'l

मेरे पत्र, मेरी रचनांए, मेरी तस्वीरें
रह गई संदूकों में कहीं,
जीवन साथी के अधूरे ख्वाब
लिपट गये बातों में यहीं
और सफेद बालों वाला 
झुर्राता चेहरा, कुछ कर न सका
खाली पन्नों को भर न सका
और आ गई
'अंतिम यात्रा'l

मित्र, बंधु, अपनें खून
खिलाए दुलारे अपनें जिस्म
दिखे नहीं मुझको कहीं
मेरी किताबें, मेरे विचार,
मेरे अँधेरे, मेरे उजाले, मेरे इरादे
जीवन पर मेरा अधिकार l
समेटता हूं जल्दी-जल्दी
निपटाता हूं जल्दी-जल्दी,
नितान्त अकेला, अपनी धुन में
सब कर जाता हूं जल्दी-जल्दी,
चाहता हूं कुछ और जी लूं
हसरतों के लज़ीज रस को
सबड़-सबड़ के और पी लूं,
पर ऐसा हो न सका
अगला धागा पिरो न सका,
और आ गई
"अन्तिम यात्रा". I

श्रीलाल जोशी "श्री"
तेजरासर (मैसूरू)
९४८२८८८२१५


तांका विधा
&&&&&&&
1
जीवन यात्रा
है मोड़ चौसठवां
काव्यसर्जना
अनुभूति आयास
गतिशील कयास
2
काव्यसृजना
लोक को समझना
सहज मना
प्रकृति की रौनक
दर्शन की ऐनक
3
सुखद निष्ठा
संस्कारगत आस्था
धूप चांदनी
सर्जना का सीमांत
होगा जीवन पार

रंजना सिन्हा सैराहा...




" प्रेम"
तु सावन, मै तीज, 
प्रेम हमारा अजीज, 
मिलकर बोयें हम, 
प्यार के कुछ बीज, 
खाद हो नि:स्वार्थ की, 
धूप मिले सदभाव की, 
बरसा हो प्रेम की, 
फसल हो आपसी मेल की! 

स्वरचित 
"संगीता कुकरेती "



"स्वतंत्र लेखन"

परछाई है साथ ,साथ महि है और हजारों हाथ
रवि रश्मियाँ लिए दिवाकर, पहुनाई सौगात। 
आभासित अंबर अवनि का मिलन भी करे अगवानी
सोच रहा क्या पथिक पूर्णकर, जो तूने मन में ठानी। 

लहराया गहराया सागर,सरि नेअस्तित्व डुबोया है 
वसुधा ने माटी कण कण में,मूर्त संजीवन बोया है ।
विधिना की वैचित्र्य विधा पर, क्यों कर इतनी हेरानी,
सोच रहा क्या पथिक पूर्णकर,जो तूनें मन में ठानी। 

डगर कठीन है, सफर मुश्किल ,है,फिर भी ना तू हिम्मत हारे 
राह खडी मंजिल को अपनी, सब होंगे न्यारे वारे।
देगें प्रतिपल साथ हाथ ये, धीर धरे मतिधर ज्ञानी, 
सोच रहा क्या पथिक पूर्णकर, जो तूने मन में ठानी। 



नीर छिपाये अन्तर में अपार,
बादल है चला बन मतवाला ।
काली अलकों से सजाधजा,
नयनों में लिए चंचल चपला ।
या चपला संग में जैसे बाला ,
चंचलता बालसुलभता वाला।
सारा जग ढूँढ़े पाहुन सा उन्हे,
विहर रहे इतउत हो मतवाला।
कहते किसान उनको पुकार ,
आओ बुझाने धरा की ज्वाला।
है धरा तप्त ,बनउपवन प्यासे ,
जग का जनजीवन है प्यासा ।
मत करो अधीर समझो पीर,
भर-भर अमृत तुम बरसाना ।
नदियाँ कलकल करती पुकार ,
प्यारे घन अब तो तू आजा ना ।
जलचर थलचर नभचर सबमिल,
मेघा अब तो जल्दी से तू आना।

डॉ.सरला सिंह



* सत्य *
पहचान ही क्या है मेरी

रिश्तों की एक धूरी हूँ 

अरमान भी क्या है मेरी 
सबके सुखों को ही जीती हूँ 

सपने भी क्या हैं मेरे
टूटे घरौंदों को ही सजाती हूँ 

वसंत भी क्या है मेरी 
सूखे रंगों को ही उड़ाती हूँ 

हसरतें क्या है मेरी 
लबों को ही सी लेती हूँ 

रोशनी क्या है मेरी 
बुझते दीपों को जलाती हूँ 

अपने कौन हैं मेरे 
गिरते अश्रु को पी जाती हूँ 

किस्मत ही क्या है मेरी 
वक्त के हाथों का खिलौना हूँ 

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल


सतगुरु शरण जगत की तरनी। 

मोह माया है ज्ञान कतरनी 

सतगुरु शरण जगत की तरनी। 
लख चौरासी योनि भटकनी 
जैसी करनी वैसी भरनी 
पाप की गठरी शीश न धरनी 
सतगुरु कृपा पार वैतरनी 
मोह माया है ज्ञान कतरनी 
सतगुरु शरण जगत की तरनी। 
मन की गति है सतत् विचरनी 
फिर फिर आकर फिर वही करनी
कटुक वचन पर अमृत वरनी 
सकल जगत पर पीड़ा हरनी 
मोह माया है ज्ञान कतरनी 
सतगुरु शरण जगत की तरनी। 

सतगुरु की महिमा अनत जानहिं जाननहार,
जो जानेह सो तर गये हुइ भव सागर पार। 

अनुराग दीक्षित



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