Monday, July 9

"स्वतंत्र लेखन "08जुलाई 2018


रविवार 
स्वतंत्र लेखन 


अल्फाज 
--------

हर सुबह बदलता है हर शाम बदलता है
मौसम की तरह हर पल इंसान बदलता है,

क्या करिये यकीं उसका जो खुद को नहीं हासिल
आईना भी है शर्मिंदा,ईमान बदलता है'

कहता है जिसे अपनी जागीर,नहीं उसकी
ये वक्त सदा होके मेहरबान बदलता है'

उलझा है इस तरह अपने ही सायों में
कभी राहें कभी मंज़िल ,नादान बदलता है,

जो साथ नहीं कोई, ग़म ना करो इसका
गिर-गिर कर उठना ही पहचान बदलता है ।

सपना सक्सेना 
स्वरचित




**** सरस्वती वंदना****
-------------------

तुझे शारदे मां नमन कर रहा हूँ।
तेरा नाम लेकर सृजन कर रहा हूँ।

हे ज्ञान देवी मुझे ज्ञान दे दे।
मेरे अवगुणों को सदा दूर कर दे
करूं राष्ट्र चिन्तन करूं आत्ममंथन।
न भटके मेरा मन जतन कर रहा हूँ।
तेरा नाम लेकर -------

सदा सच की राहों पे चलता रहूँ मैं।
कदम डगमगाये न, बढ़ता रहूँ मैं।
कर्मों से मेरे भला राष्ट्र का हो।
तेरा हाथ जोड़े भजन कर रहा हूँ।
तेरा नाम लेकर -------
स्वरचित
शिवेन्द्र सिंह चौहान(सरल)
ग्वालियर म.प्र.



जलाओ चमन पर 
रहे ध्यान इतना 
रूह किसी अबला की 

कहीं जल ना जाए 

नये उड़ान के हौंसले
नये नभ की ऊँचाई 
भटक कर राह 
कहीं मधुशाला 
न चल जाए
घेरे तिमिर है
राहों में ऐसे
कि रवि का निशान 
कहीं दूर तक मिलते नहीं 
जलाओ मन का दीप ऐसे 
तम छँट जाए 
विभा हो जाए

जलाओ चमन पर 
रहे ध्यान इतना 
रूह किसी अबला की 
कहीं जल ना जाए 

चमन है उजड़ा 
अगर वतन का कहीं
किसी भी घर में 
है नारी प्रताड़ित जहाँ
आदमी नहीं तब तक 
आदमी रहेगा 
कि जबतक अबला 
अधिकार से वंचित की 
जाती रहेगी 
वतन रोता रहेगा 
धरा रोती रहेगी 
भले ही चमन में 
हजारो फूल खिल जाए 

जलाओ चमन पर 
रहे ध्यान इतना 
रूह किसी अबला की
कहीं जल ना जाए

सिर्फ होंठो की हँसी से 
नहीं हट सकी है 
नारी की उदासी 
चाहे उड़ क्यों न जाए 
कोई नारी ऊँचे गगन में 
नहीं कर सका है प्रीत 
कभी आदमी ह्रदय से 
मिलेंगे तभी यह अधिकार 
स्वयं नारी जब
दुर्गा का रूप हो जाए 

जलाओ चमन पर 
रहे ध्यान इतना 
रूह किसी अबला की 
कहीं जल न जाए
@शाको 
स्वरचित
पटना

 कैप्टन विकृम बत्रा के शहीदी दिवस पर उन्हे शत- शत नमन
उनकी याद मे उसी दिन लिखी ये रचना----



" ये दिल मॉगे मोर"
एै मां तुझको कर्म समर्पित
कर्म क्या मेरा धर्म समर्पित
पर हमको दे वीर कुछ और,
एक फतह, दूजी फतह,तीजी फतह
जीत का एक लम्बा दौर
फिर भी कहते तान के सीना
"ये दिल मॉगे मोर" l

मेरे तुझको गीत समर्पित
गीत क्या सारी जीत समर्पित
पर मांगू अमन की भोर,
बहन का भाई , मॉ का बेटा
वीरांगनां का अमर सुहाग
पापा का गर्वित होकर कहना
होता एेसा एक बेटा और,
फिर ये कहते तान के सीना
" ये दिल मॉगे मोर"l

ये तन मन सब कुछ तेरा है
जीवन का हर पल तेरा है
हो जाता मन भाव- विभोर,
जब देखूं बढते कदमों को
हंस-हंस के सहते सदमों को
भूल न जाएं ऐसा दौर,
कहते रहें हम तान के सीना
" ये दिल मॉगे मोर" l

ऐ जन्म दायिनी जन्म समर्पित
जन्म और मेरा मर्म समर्पित
पर मॉगू देश में शांति हर ओर,
हिन्दू को हो मुसलमॉ प्यारा
सिक्ख ईसाई का हो सहारा
सबमें बहे तेरी ही धारा
लहराए तिरंगा प्यारा,
देश भक्ति हो मन मे घोर
और कहें फिर तान के सीना,
" ये दिल मॉगे मोर"
" ये दिल मॉगे मोर" l

Srilal Joshi "sri" 
Mysore



कितना भी प्रयास करे कोई ,
भावनाऐं हमारी बदल नहीं सकते।

जबतक हम स्वयं नहीं चाहें,
कामनाऐं हमारी बदल नहीं सकते।
इंन्द्रियों को दूसरा कोई वश में 
कभी कर नहीं सकता
जबतक हम मानसिक रूपसे
ये दुर्भावनाऐं बेदखल नहीं करते।

इन प्रवृत्तियों पर कोई नहीं 
हम स्वयं लगाम लगा पाऐगे।
यह तभी संभव होगा जब हम
सुसंस्कृति संस्कार अपनाऐंगे।
मानवीय संवेदनाओं को हमें
मनसे कभी दूर नहीं करना,
कामनाऐं परिमार्जित करें हम,
तभी शुद्ध मानस बना पाऐंंगे।
स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जय जय श्री राम राम जी




धीरे -धीरे उठ मेरे नाविक,उठकर के पतवार पकड़।
विकल व्यथित भ्रममय जीवन मेँ
थोड़ा पर उजियारा कर।।

मुट्टी का रेत समय बन फिसला।
वातहत लतिका सा झकझोर दिया।
मृदुल उर के कोमल भावों को ।
छण में छिन्नधार किया ।।
उठकर प्रिय इस नवबेला में ,
नवगति, नवलय, नवरस भर ।।धीरे -धीरे .......।।

प्रिय शांध्य गगन को त्यागो अब,
घिरता विषाद का तिमिर सघन ।
ज्योतिर्मय शक्ति समेटो तुम ,
अपनी ज्वाला खुद ही बनकर ।
भर लो जीवन में मृदु उमंग ,
इस मधुरिम बेला में उठकर ।।
धीरे-धीरे उठ ........................।।



 चलो फिर से मिलाएं दिल -

हुआ तन्हा सफर मुश्किल 

चलो फिर से मिलाएं दिल। 
समय ने जख़्म दे फाड़ी है,
अपनी प्रीत की चादर 
चलो फिर जोड़ देते हैं 
इसे हम प्रेम से सिल सिल 
हुआ तन्हा सफर मुश्किल 
चलो फिर से मिलाएं दिल। 
उन्हें हम मिल के दें खुशियाँ 
जो गुरबत में मरें तिल तिल 
किसी की आँख का पानी 
धवल मोती बनाएं मिल 
हुआ तन्हा सफर मुश्किल 
चलो फिर से मिलाएं दिल। 
किसी मरुभूमि पर जाकर,
विहंस हम फिर खिलाएं गुल
व्यथित भटके मुसाफिर को 
मिले उसकी नई मंजिल 
हुआ तन्हा सफर मुश्किल 
चलो फिर से मिलाएं दिल। 
चलो लेकर शपथ हम सब
बनाएं एक बेहतर कल
ये छोड़ो बैर का नाता 
रहें हम लोग सब हिल मिल 
हुआ तन्हा सफर मुश्किल 
चलो फिर से मिलाएं दिल। 

अनुराग दीक्षित





No comments:

Post a Comment

"अंदाज"05मई2020

ब्लॉग की रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं बिना लेखक की स्वीकृति के रचना को कहीं भी साझा नही करें   ब्लॉग संख्या :-727 Hari S...