आओ ! मेरे गाँव चलो ,
गाँव का जीवन बताता हूँ ।
हरी-भरी पहाड़ियों के बीच ,
बहुत ही सुकून पाता हूँ ।।
सुबह सवेरे जल्दी उठकर ,
खेतों की सैर कर आता हूँ ।
कुँए के नीर से नहाकर ,
आनंदमय हो जाता हूँ ।।
गाँव की पुरानी बावड़ी से ,
ठंडा जल ले आता हूँ ।
कच्ची सड़को के ऊपर ,
सरपट दौड़ लगाता हूँ ।।
दिन को भरी धुप में ,
नीम की छांव में सो जाता हूँ ।
शाम को बड़े बुजुर्गों संग ,
चाय की चुस्की लगाता हूँ ।।
मेहनत करके पेट भरते ,
इज्जत की रोटी खाता हूँ ।
गाँव की छोटी सी कुटिया में ,
जीवन बसर कर जाता हूँ ।।
गाँव के सब लोगो से ,
प्रेम का रिश्ता निभाता हूँ ।
गाँव लगता " कवि जसवंत " को प्यारा ,
गाँव की महिमा गाता हूँ ।।
गाँव का जीवन बताता हूँ ।
हरी-भरी पहाड़ियों के बीच ,
बहुत ही सुकून पाता हूँ ।।
सुबह सवेरे जल्दी उठकर ,
खेतों की सैर कर आता हूँ ।
कुँए के नीर से नहाकर ,
आनंदमय हो जाता हूँ ।।
गाँव की पुरानी बावड़ी से ,
ठंडा जल ले आता हूँ ।
कच्ची सड़को के ऊपर ,
सरपट दौड़ लगाता हूँ ।।
दिन को भरी धुप में ,
नीम की छांव में सो जाता हूँ ।
शाम को बड़े बुजुर्गों संग ,
चाय की चुस्की लगाता हूँ ।।
मेहनत करके पेट भरते ,
इज्जत की रोटी खाता हूँ ।
गाँव की छोटी सी कुटिया में ,
जीवन बसर कर जाता हूँ ।।
गाँव के सब लोगो से ,
प्रेम का रिश्ता निभाता हूँ ।
गाँव लगता " कवि जसवंत " को प्यारा ,
गाँव की महिमा गाता हूँ ।।
मेरा हरा भरा हरियाला,
प्यारा प्यारा सा गाँव।
खुशियों से भरा ,
पूरा एक परिवार,
सुख दुख का आधार।
ये शहर बड़ा अन्जाना है।
सब अजनबी से लगते।
ये लम्बी चौड़ी सड़कें,
रातों मे भयावह सन्नाटा।
ना सुनता यहाँ कोई,
निर्भया की चीख पुकार।
ये शहर बड़ा बेगाना है।
आलीशान कोठियां,
ऊँचे ऊँचे मकान,
हरे भरे पेड़ों का,
नहीं कोई नामोनिशान।
भू तल का जल
सब सूख गया हाय!
पशु पक्षी इन्सान,
प्यास से हुए बेचैन।
ये शहर बड़ा वीराना है।
चकाचौंध कृत्रिमता,
मानव मे छिपी है पशुता।
बाह्य आडम्बर और दिखावा,
प्यार में भी होता छलावा।
दूधिया रौशनी में नहाया,
इस शहर मे बड़ा अँधेरा है।
©प्रीति
वो भोर की बेला
पंछियों का मेला
सौंधी सी खुशबू
करे दे बेकाबू
लहलहाती फसले
मन को जैसे छूलें
खेतों की मैंढ़े
सुधबुध मेरी खो दें
रहट की आवाज़
और हंसी ठिठोली
वो पोखर का पानी
और बच्चों की मस्ती
वो खरबूज मतीरे
और ऊंटों के गाड़े
वो मेले की रौनक
और पनघट के नज़ारे
वो केरी का पना
और चूल्हे की रोटी
वो दादी का प्यार
और दादा की झिड़की
मेरे गांव की यादें
पुरानी हो गई है
एक अरसे से लिखी
कहानी हो गई है
स्वरचित मिलन जैन
**"गांव"**की याद
****"""****
बचपन का गांव
भोर की चौल
रंभाती संझा
स्वेदसने अहसास
ठहाके , कराहें
ईख की मिठास
सरसों की सुवास
फागुन, सावन
चटक,चहक
पनघट-पनिहारिन
अवगुंठन से झांकती
नथनी, बेसर
पेड़ों तले चौपाल
साझा-चूल्हा
रोटी गुड का स्वाद
नहीं है महक
सोंधी-सोंधी
नानी के हाथ की
पनैथी रोटी
कहां हैं वो,
आदि अनुच्छेद
इक परिच्छेद।
रंजना सिन्हा सैराहा...
हकीकत नही तो ख्वाबों में मन समझाते हैं
ख्वाबों में हम रोज गाँव घूम आते हैं ।।
वही आँगन वही चबूतरा हमें बहुत लुभाते हैं
वही नीम का पेड़ बरगद की छाँव पास बैठाते हैं ।।
हम भले ही अपने शहरीपन पर इतराते हैं
पर गाँव के भोले लोग वैसे ही हाथ मिलाते हैं
वो तालाब वो नदी के किनारे आज भी भाते हैं
थोड़ी देर को मानो हम बचपन में खो जाते हैं ।।
क्या कहें इस तरक्की को ''शिवम"समझ न पाते हैं
हो रहे शहरीकरण बडी बिचित्र स्थिति दर्शाते हैं ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
गाँव
(1)
दौडता, व्यस्त
गाँव जीवन देख
ठिठका वक्त
(2)
गाँव में जल्दी
रवि को सुलाकर
रजनी आई
(3)
गाँव की छाँव
मन को सुकून भी
खुल के साँस
(4)
प्रेम का फेरा
गाँव बैठा आँगन
शाँति का डेरा
(5)
सबको पूछे
गाँव चौपाल बैठ
हुक्के को फूँके
(6)
हँसे लाईट
गाँव की सडक पे
छेडते गड्ढे
(7)
गाँव के खेत
श्रम करे बुवाई
उगता धन
(8)
पक्षी चहके
मिट्टी एवं शुद्ध घी
गाँव महके
(9)
गोधूलि वेला
घंटिया बजी गाँव
गायों का रेला
10
खेलें गोपाल
गाँव के चबूतरे
बैठे चौपाल
आदाब
मेरे गाँव की तस्वीर दिखा रहा हू
देखते ही देखते बहुत बडा हो गया मेरा गांव
बैठने को नही मिलती इमली वो पीपल की छाॅव।
जिधर देखो उधर इमरतो का मुजस्मा बन गया
झोपडी थी जहां वही बहुमंजिला भवन तन गया,
वो ठुठ भी नही रहा जिस पर कौवे करते थे कांव कांव।
पुछते नये वाशिन्दे तुम रहते कहां पुरानो से,
वे खुद पर शर्मिन्दा है जो रहते यहां जमानो से,
नये नये लोगो ने आकर जमा लिये यहां पांव।
नये नये चैहरो से बदल रही है पिढीयां,
चढता ही जा रहा हे ये नित तरक्की की सिढीयां,
स्कूल से कालेज तक अब हो गया फैलाव।
बिडी यहां की लंगर मशहुर देश मे,
बेटे डटे है सरहद पर फौजी के भेश मे,
देखो गांव का मेरे कितना है वतन से लगाव।
हामिद को ये चिंता हरदम ही सताती है,
इसकी तरक्की के आगे हरदम राजनिती ही आती है,
सोच मे नेतागण की जाने कब होगा बदलाव।
दखते ही देखते बहुत बड़ा हो गया मेरा गांव
हामिद सन्दलपुरी की कलम से
जहाँ स्वर्ग है,
अवतरित।
जहाँ धरा है,
हरित।।
जहाँ ममता की,
छाँव है....
जहाँ प्रखर,
प्रपात है।
जहाँ मनोरम,
प्रभात है।।
ओ मेरा गांव है.....
जहाँ जीवन,
वरदान है।
जहाँ गोरस की,
खान है।।
जहाँ वर्षा कि पानी में,
कागज की नाव है....
ओ मेरा गांव है.....
जहाँ गीतों की,
गुनगुन।
जहाँ पायल की,
रुनझुन।।
संगीतों के धुनपर,
थिरकते जहाँ पाँव है...
ओ मेरा गावँ है....
जहाँ नैना है,
मधुशाला।
यौवन है,
मतवाला।।
जहाँ नैनन जुड़ाव है...
ओ मेरा गाँव है.....
जहाँ बूढ़ों का,
ज्ञान है।
जहाँ जीवन,
वरदान है।।
जहाँ मनोहर पहीनाव है,,,
ओ मेरा गाँव है....
(राकेश)
"गांव'
वह गांवो का मेला, वह गांवो का ठेला।
कितना याद आता है मुझे वह गांवों का मेला।
वह आम के बगीया मे कोयल का कूकना।
वह सरसों के फूलों से खेतो का सजना
कितना याद आ ता है मुझे वह गावं का कोना
वह कठपुतली का नाच वह बाइसकोप का सिनेमा।
कितना याद आता है मुझे
वह गांवो का सिनेमा।
वह पेड़ के झुरमुट मे गुरु जी का पढ़ाना
वह पहाड़ा वह गिनती का रटा मारना।
वह गुरु जी के डंडे से बच्चों का भागना
कितना याद आता है मुझे वह गांव का कोना।
वह लूका -छिपी खेलना, वह डंडा से गिल्ली का मारना
कितना याद आता है वह गांवो का खेलना।
वह मिट्टी की सोधीं महक,वह बारिश की फुआर
वह चारपाई पर बैठ कर खाना खिलाना।
वह मक्के की भूजा, वह चना चबेना
कितना याद आता है वह गांव का भूजा।
मेरे भारत के गांवों की महिमा अपरंम्पार।
जिनकी माटी से है मेरा सोने सा संसार।
इनमें रहने से हीे जीवन में उजयारा आऐ,
गांवों की झोली से मिलते सबको उपहार।
इनकी रजकण में रहते हैं चंदन और अबीर।
इनके कणकण से ही उपजे धीर वीर गंभीर।
अनाज गांवों में उपजाऐं कृषक जो हमखाते,
ये अन्न धान्य को खाकर विकसित हुए शरीर।
कलरव पक्षी करते चिडियाँ रोज चहकतीं।
मयूर यहां नृत्य करते गौरैयाँ खूब फुदकतीं।
मनोबाँछित वातावरण इन गांवों में मिलता,
गांव गांव चौपालें लगें बगियाँ खूब महकती।
कृषक सृजन करते सब अच्छा नेह बरसता।
गेहूँ चना उपजता जब गांव मधु मेह बरसता।
वैरभाव नहीं दिखता जैसाऔर कहीं है देखा,
गांव गांव मिलजुल रहते खूब स्नेह बरसता।
स्वरचितःःः
इंजी. शंम्भूसिह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
शुभसंध्या, जय जय श्री राम राम जी।