कहीं समर्पण अब न दिखता
चंद पैसों में इंसा बिकता ।।
डांवाडोल है मन की सुई
बड़ी बिडम्बना अब ये हुई ।।
कैसे टिके रिश्तों की जड़
देर सबेर जाती उखड़ ।।
कुर्सी से न सही जुड़ाव
सबको ही है आज अभाव ।।
मानव मूल्य खतम हुये
मानवता पर सितम हुये ।।
जीवन का सच्चा आनन्द
क्या लिखूँ अब उस पर छंद ।।
गायब ही है आज ''शिवम"
आँखें भी हो रहीं हैं नम ।।
रोको कुछ जो रूकें कदम
वरना अन्तिम पडा़व पर हम ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
कभी न किसी का अहित करूं
सहज रुप से ध्यान धरूं मैं
मन में समर्पण भाव रखूं
ऊंच नींच का भेद हटाऊं
मन में समता भाव धरुँ
निर्बल निरीह का कष्ट हरूं मैं
सच्चा समर्पण भाव रखूं
मात पिता की सेवा करूं मैं
मातृभूमि सम्मान करूं
हैं समर्पण भाव दिल में
सम्पूर्ण जीव जगत कल्याण करूं
हदय समर्पित लक्ष्य समर्पित
दृढ़ता का आगार करूं
जीवन का हर क्षण समर्पित
अर्पित अपने प्राण करूं
स्वरचित मिलन जैन
29/5/18
समर्पण
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चाहिए समर्पण किसी का
तो ,रखिए ता का मान
प्रेम, त्याग और सत्य से
कीजिए पूर्ण सम्मान
रत्न से भी अनमोल है
जिसके मन ये भाव
उसके सम्मुख क्षीण हो
दिनकर का प्रभाव
मिल जाये जो जीवन में
ऐसा साथ एक बार
कुरूक्षेत्र के व्यूह से
जानिए बेड़ा पार
ऐसे पावन रूप पर
तन मन धन सब अर्पण
दो क्षण को ही दीजिये
नाथ पूर्ण समर्पण ।
समर्पण
नही बात अब अर्पण,तर्पण,समर्पण की,
बात अब है मात्र तेरे मेरे विश्वास की।।
न छिन्न भिन्न उसे होने देना चाहती हूं
अपने ही हाथों से उसे सँवारना चाहती हूँ।।
विश्वास के धरातल पर कर समर्पण,
खिला खिला हो आँगन,सत्यता का दर्पण।।
चेहरे पर मुस्कान हो,हृदय में हो स्पंदन,
तेरे आते ही महकता हो मन मेरा चंदन।।
पूंजी सदा विश्वास की मुझे समर्पण करना,
बेशक हो सूखी रोटी,अमृत्व समर्पण रखना।।
राह अनजानी साथ चली मैं कोसो दूर,
उस अनजान सफर में ऋतु वसंती भरना।
वीणा शर्मा
आज के विषय "समर्पण" पर मेरी ये कविता आप सबकी नजर...जिसमे नायिका का समर्पण प्राण निमंत्रण के माध्यम से प्राण निमंत्रण
चाँद तू कुछ और निखर, अपनी चंद्रिका पे इनायत कर,
उर बीच पनार के छालों को, हाथों पे सजाकर रक्खा है।
प्राण का फागुन खिल रहा, मेरी सांसों में धुंआ धुंआ सा,
प्रीत की बासंती हवाओं को , खिड़कियो पे बुला रक्खा है।
गुनकी महकी यादें संजोयी है, किताबों में अब मुरछाने को
गुलाब तू भी हंस के देख ले, पत्ता पत्ता बिखरा रक्खा है।
अरे पावस के पहले बादल ,उमङ घुमङ घिर के बरस जरा
अंतस की तृष्णा को, बारिश की बेखुदी ने तरसा रक्खा है।
बर्फ के धुऐं पे बना रही हूं हौले से आशियाँ कुछ ख्वाबों का
मेरे ही शे के सदके जाऊं मैने एक शहर भी बसा रक्खा है।
तेरे कदमों में हो तो जाऊं निछावर इन गुलाबी फूलों सी ,
खाक में मिलके भी तेरे लिये खुशबू को बचा कर रक्खा है।
घटाओं पे हया की बंदिश है,झट से चाक कलेजा कर देंगी,
इन जुल्फों की शोखी को हौले से भी तो संभाले रक्खा है।
झौंका हवाओं का उन्मन नाच रहा,लेकर सुधियां साजन की,
घूंघट में अपने चुपके से वो आधा चांद छुपा के रक्खा है।
मैं, लतर सलोनी क्यूं नी भीगूं, मधुबन के तरूवर से मिलकर
चांद चांदनी की मदिरा में इस निशा को भरमा के रक्खा है।
अब चंचल मंदाकिनी उतर रही है चुरा के मेरी चितवन को,
प्रियवर! मिलन यामिनी का तुम्हैं प्राण निमंत्रण दे रक्खा है।
डा. निशा माथुर- जयपुर ( राजस्थान)
8952874359
"समर्पण"
हे प्रभु। समर्पण देख लो मेरा।
न करूं दिन -रात तेरी पूजा।
ना करूँ दान-धर्म का आडम्बर।
मैं तो समर्पित दायित्वों के प्रति।
हे प्रभु समर्पण देख लो मेरा
न करूं मैं तीर्थ-यात्रा।
न करूं व्रत ओ त्योहार।
मैं करूँ दीनन की सेवा।
हे प्रभु समर्पण देख लो मेरा।
थोड़ी भक्ति, थोड़ी मस्ती,
थोड़ी करूँ मैं समाज सेवा।
अरज करूँ मैं, विनती करूँ मैं।
हे प्रभु समर्पण देख लो मेरा।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।
विधाःकविताःः
ये तन समर्पण मन समर्पण।
है प्रभु तुम्हें जीवन समर्पण।
जो कुछ मिला मुझे जगत से
वह सभी कुछ तुम्हें समर्पण।
तुम्ही से मिला है मुझे ये जीवन।
सबकुछ दिया है तुमने ये भगवन।
क्या लाया था मै साथ यहां पर,
जो कर पाऊँ मै सचमुच समर्पण।
प्रभु को समर्पित सारा ही जीवन।
जो मिला है इनसे इन्हें ही समर्पण।
सबकुछ मिला है मुझे इस वतन से,
वतन से मिला वो सब इसे समर्पण
क्या कुछ मेरा जो कर पाऊँ अर्पण।
देख लिया मैने अंतरतम का दर्पण।
विनय करुँ बस भगवान मै इतनी,
विध्वंस नहीं मै करूँ शुभ सृजन।
प्रभु को मेरे श्रद्धा सुमन हैंअर्पण
मेरा सब इस वसुधा को समर्पण।
मिला मान सम्मान इस धरा से ,
जो भी मिला वो इसे ही समर्पण।
स्वरचितः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जय जय श्री राम राम जी।
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