तृष्णा की है खुशी संग रार
गुलशन ये जग रूठी बहार ।।
अपनी खुशी में हर इंसा
है बेताब और बेकरार ।।
बदले बदले तेवर हैं
बदला हर व्यवहार ।।
औपचारिकता ही रही
हो समाज या परिवार ।।
क्या खुशी मिल पायेगी
जब तृष्णा मन में सवार ।।
पैसों में खरीदी जाय
खुशियाँ यहाँ अपार ।।
पैसों के ही रिश्ते हैं
और पैसों का ही प्यार ।।
खुशी अलौकिक भी है
उसका न खरीदार ।।
ये कैसा ''शिवम" खुमार
ये कैसा अब संसार ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
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युगों युगों की मेरी तृष्णा
कब मिलोगे तुम कृष्णा
क्या यही नियति मेरे हिस्से
बस तड़पना और मरना।
क्या बनूंगा तुम्हारे रास का पात्र
या मानूं इसे मेरी कल्पना मात्र
ठीक है माना इसमें है मेरा स्वार्थ
पर तुम्हारे हाथ ही तो है यथार्थ।
मेरा जीवन वैसे तो निर्मल नहीं है
पर इसमें ऐसी भी दलदल नहीं है
किसी को मारुति किसी को लूटूं
मेरे मन में कोई छल नहीं है।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा
मोहि कपट छल छिद्र न भावा
मैं तेरी बात नहीं यह पूरी करता
कैसे दूँ आख़िर तुझको बहकावा
कृष्णम शरणम गच्छामि
ये इच्छा ,ये तृष्णा,
कभी ना पूरी होती है।
लालसा का कोई अन्त नहीं,
सन्तुष्टि नहीं मिलती है।।
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कभी होती है धन की इच्छा,
कभी होती है मन की इच्छा।
इस पर कोई जोर नहीं,
इसका कोई छोर नहीं।।
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इच्छा मेरी कहती हैं,
कर लु दुनिया मुट्ठी में।
फिर भी उसको पकड़ ना पाऊ,
अपने आप की दृष्टि में।।
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कभी चाहिए हेलिकॉप्टर,
कभी चाहिए मोटरकार।
तृष्णा कभी मिटती नही,
इसके बिना जिन्दगी नहीं।।
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इच्छाओ का पूरा होना,
मुश्किल सा लगता है।
फिर भी सपनो में इसे देखना,
सच्चा सा लगता है।।
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स्वरचित---ममता सकलेचा
२२/५/१८
शीर्षक : तृष्णा
जीवन तृष्णा
प्रीत अभिलाषा
मन बड़ा चंचल
भागे बेतहाशा
तृष्णा कुंठित
बनी मधुशाला
झूमती फिरती
जैसे हाला
जीवन दर्पण
तृष्णा छाया
सबको निगले
बनकर माया
पाया जिसने
चैन न पाया
खोया जिसने
मन बौराया
मानव जीव
तृष्णा है जाला
जो भी उलझा
जीवन गंवाया
स्वरचित मिलन जैन
*तृष्णा*
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जिंदगी माया -तृष्णा में
भागती रही ताउम्र
बचपन के उजाले से
जीवन की सांझ तक
सपनों की डोर लिये हाथ में
आसमान की अनंत उँचाई
उड़ते रहे पतंग की मानिंद
जमीं कहाँ याद नहीं था
पहुँचे पाँव जब कब्र किनारे
चेत गये अंग प्रत्यंग सारे
तृष्णा भीगी बिल्ली बन गई
तन में थिरता हो गई सारी
याद आये पल फिर वो सारे
जब कर सकते थे कर्म सारे
अब पछताए होत क्या प्यारे
अब तो रामनाम भज लो प्यारे।।
डा.नीलम.. अजमेर..
२२.५.२०१८मंगलवार
* तृष्णा *
है
तृष्णा
गहरा
समंदर
असीम राग
मृगमरीचिका
ठोर नही इसका...
नाचती है फिर जिन्दगी,बन तृष्णा के गुलाम
कुछ खोने कुछ पाने का अहसास रहा
होंठों पे हंसी लिए उम्र भर उदास रहा
ये आंखें प्यासी थी और प्यासी मरी
जबकि हकीकत रूबरू बेलिबास रहा
सागर भी साथ मेरे, दरिया भी है पास
कैसी ये तृष्णा मेरी, बुझती नहीं क्युं प्यास
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