फिर से बच्चा बन के मै खिलौना चाहता हूं।
घर के आगंन मे थी बिखरी हंसी की रोशनी।
उन खुशी की लडियों को पिरोना चाहता हूं।
माँ की गोदी से कोई शै, मुझे प्यारी नहीं थी।
खोई उस जन्नत को फिर से पाना चाहता हूं।
जिसने चलना सिखाया, चल के मिलने जाऊँ।
बाबा के कंधे चढ ऊंचा सबसे होना चाहता हूं।
कितनी यादें बह के आई आसुंओ के साथ मे।
भाई-बहन संग एक थाली में खाना चाहता हूं।
रूठ कर बिछडे मेरे अपने, बड़े सब क्यों हुए।
टूट कर बिखरे ये मोती सब संजोना चाहता हूँ।
लिख रहा हूँ जाने कैसे हाले दिल मत पूछिये।
रोके रुके न अश्क, दामन भिगोना चाहता हूं।
फिर से बच्चा बन के मै खिलौना चाहता हूं।
फिर से बच्चा बन के मै खिलौना चाहता हूं।
विपिन सोहल
बचपन
🔏🔏🔏🔏
बचपन का आॅचल कर देता है मन्त्रमुग्ध
होठों पर हंसी आ जाती है चाहे कितना होऊं क्षुब्ध
यह होता शीतल सरल
नहीं कटुता और गरल।
मुस्कान बचपन की है निश्छल
अध्यात्म का दिखता इसमें तल
अपनत्व से जुड़ते सारे पल
सब कुछ दिखता है निर्मल।
यदि सबको बचपन मिल जाये
फुलवारी सुगन्धित खिल जाये
मानव मानवता से मिल जाये
दानवता ही पूरी हिल जाये।
🔏🔏🔏🔏
बचपन का आॅचल कर देता है मन्त्रमुग्ध
होठों पर हंसी आ जाती है चाहे कितना होऊं क्षुब्ध
यह होता शीतल सरल
नहीं कटुता और गरल।
मुस्कान बचपन की है निश्छल
अध्यात्म का दिखता इसमें तल
अपनत्व से जुड़ते सारे पल
सब कुछ दिखता है निर्मल।
यदि सबको बचपन मिल जाये
फुलवारी सुगन्धित खिल जाये
मानव मानवता से मिल जाये
दानवता ही पूरी हिल जाये।
शीर्षक: बचपन
व्यर्थ ही बैठना
उलटना पुलटना
ख्यालों में खोकर
गुज़रे वक्त को ढूंढना
मन का उच्छृंखल होना
पंछी समान उड़ना
और घनी वादियों में दौड़ना
ये सारे ख्यालात
कितने अजीब होते हैं ख्यालात
नहीं देखते कभी हालात
जीवन के दर्पण में
बचपन की छवि देखना
वह हंसना खिलखिलाना
बात बात पर रूठ जाना
वो तितली पकड़ना
ना मिलने पर मचलना
नव परिधान में इठलाना
गुड़ियों में बहकना
यही सब तो है
बचपन का अनमोल खजाना
ऊंच-नीच दुख दर्द से दूर
उषा की प्रथम किरण के समान
रात्रि के कालेपन को समेटे
सुबह की भोली सी मुस्कान लिए जिंदगी को भूल जाना
मासूम और भोली सी जिंदगी
यही तो है बचपन का नजराना
तारों से खेलना
चंदा को बुलाना
रातों की नींदों में
परियों को दोस्त बनाना
भयानक दानवों को
राजकुमार बन भगाना
और राजकुमारी को
उसके चंगुल से छुड़ाना
नानी दादी की कहानियों
को सपनों में सजाना
क्या कोई इससे भी
बड़ा होता है खजाना
यह सारी बातों को
अब हमने जाना
जब हमने पहना
यौवन का गहना
कि छूट गया है पीछे
बचपन दीवाना
जो हो गया है
सपना सुहाना
स्वरचित मिलन जैन
व्यर्थ ही बैठना
उलटना पुलटना
ख्यालों में खोकर
गुज़रे वक्त को ढूंढना
मन का उच्छृंखल होना
पंछी समान उड़ना
और घनी वादियों में दौड़ना
ये सारे ख्यालात
कितने अजीब होते हैं ख्यालात
नहीं देखते कभी हालात
जीवन के दर्पण में
बचपन की छवि देखना
वह हंसना खिलखिलाना
बात बात पर रूठ जाना
वो तितली पकड़ना
ना मिलने पर मचलना
नव परिधान में इठलाना
गुड़ियों में बहकना
यही सब तो है
बचपन का अनमोल खजाना
ऊंच-नीच दुख दर्द से दूर
उषा की प्रथम किरण के समान
रात्रि के कालेपन को समेटे
सुबह की भोली सी मुस्कान लिए जिंदगी को भूल जाना
मासूम और भोली सी जिंदगी
यही तो है बचपन का नजराना
तारों से खेलना
चंदा को बुलाना
रातों की नींदों में
परियों को दोस्त बनाना
भयानक दानवों को
राजकुमार बन भगाना
और राजकुमारी को
उसके चंगुल से छुड़ाना
नानी दादी की कहानियों
को सपनों में सजाना
क्या कोई इससे भी
बड़ा होता है खजाना
यह सारी बातों को
अब हमने जाना
जब हमने पहना
यौवन का गहना
कि छूट गया है पीछे
बचपन दीवाना
जो हो गया है
सपना सुहाना
स्वरचित मिलन जैन
प्रस्तुति 02
14 मई 2018
बचपन - मेरा बचपन..02
********************
बचपन के दिन भी क्या दिन थे
कितने भोले और प्यारे हम थे
सब प्यार हमें तब करते थे
ललुवा मुनवा हम लगते थे
सब लाली पॉप दिलाते थे
और मँहगी पप्पी ले जाते थे
अंकल हो या फिर ऑन्टी
या मंदिर का पुजारी ले घंटी
सब मुझको यूँ ही भरमाते थे
सब ही अपना प्यार जताते थे
मेरी भोली भाली सी सूरत
सबको लगती प्यारी सी मूरत
वे खेल खेल में मुझे हँसाते थे
मेरे हँसने पर खुश हो जाते थे
अब कैसे लौटे वोह बचपन
कहाँ से पाऊँ वो भोला मन
सोंच सोंच के रह जाता हूँ
बचपन को वापस न पाता हूँ
(स्वरचित)
अखिलेश चंद्र श्रीवास्तव
14 मई 2018
बचपन - मेरा बचपन..02
********************
बचपन के दिन भी क्या दिन थे
कितने भोले और प्यारे हम थे
सब प्यार हमें तब करते थे
ललुवा मुनवा हम लगते थे
सब लाली पॉप दिलाते थे
और मँहगी पप्पी ले जाते थे
अंकल हो या फिर ऑन्टी
या मंदिर का पुजारी ले घंटी
सब मुझको यूँ ही भरमाते थे
सब ही अपना प्यार जताते थे
मेरी भोली भाली सी सूरत
सबको लगती प्यारी सी मूरत
वे खेल खेल में मुझे हँसाते थे
मेरे हँसने पर खुश हो जाते थे
अब कैसे लौटे वोह बचपन
कहाँ से पाऊँ वो भोला मन
सोंच सोंच के रह जाता हूँ
बचपन को वापस न पाता हूँ
(स्वरचित)
अखिलेश चंद्र श्रीवास्तव
ईश्वर की पूजा सा ,
वो बचपन का प्यार।
अल्हड़ अन्जाना दुलारा सा प्यार।
खुशियों से भरा ,गम से परे,
सुन्दर सुहाना मासूम सा प्यार।
बड़ा खूबसूरत निर्मल औ निश्छल,
ना कोई चिंता ना ही फिकर।
शर्मोहया की बंदिशों से फारिग,
सरगम सा सुरीला,छुईमुई सा लजीला,
ख्वाबों सा सुहाना,
वो बचपन का प्यार।
बेफिक्रे हो खेला करते थे हम,
गुड्डे गुड़िया से खुद के सपने सजाते।
चुपके से मुट्ठी में लड्डू ले जाते,
खुद का हिस्सा साथी को खिलाते,
स्वाद उसको मिलता,
तृप्त हम हो जाते।
जब भी गिर जाता,बाहोँ मे भर के
उसको उठाते।
स्कूल में उसको सजा से बचाते,
खुद सजा खा के भी,खुश हो जाते।
ना कोई शिकवा शिकायत सुनाते।
पूजा अर्चना सा वो बचपन का प्यार,
सुन्दर सुहाना वो बचपन का प्यार।
मन बेचैन है,
ना जाने कहाँ होगा,
वो बचपन का प्यार।
नज़रें ढूढती हैं, भरी दुनिया में,
वो बेहद अपना सा बचपन का प्यार.
काश हम बड़े न होते,
न बिछड़ता हमारा
वो बचपन का प्यार।
©प्रीति
वो बचपन का प्यार।
अल्हड़ अन्जाना दुलारा सा प्यार।
खुशियों से भरा ,गम से परे,
सुन्दर सुहाना मासूम सा प्यार।
बड़ा खूबसूरत निर्मल औ निश्छल,
ना कोई चिंता ना ही फिकर।
शर्मोहया की बंदिशों से फारिग,
सरगम सा सुरीला,छुईमुई सा लजीला,
ख्वाबों सा सुहाना,
वो बचपन का प्यार।
बेफिक्रे हो खेला करते थे हम,
गुड्डे गुड़िया से खुद के सपने सजाते।
चुपके से मुट्ठी में लड्डू ले जाते,
खुद का हिस्सा साथी को खिलाते,
स्वाद उसको मिलता,
तृप्त हम हो जाते।
जब भी गिर जाता,बाहोँ मे भर के
उसको उठाते।
स्कूल में उसको सजा से बचाते,
खुद सजा खा के भी,खुश हो जाते।
ना कोई शिकवा शिकायत सुनाते।
पूजा अर्चना सा वो बचपन का प्यार,
सुन्दर सुहाना वो बचपन का प्यार।
मन बेचैन है,
ना जाने कहाँ होगा,
वो बचपन का प्यार।
नज़रें ढूढती हैं, भरी दुनिया में,
वो बेहद अपना सा बचपन का प्यार.
काश हम बड़े न होते,
न बिछड़ता हमारा
वो बचपन का प्यार।
©प्रीति
नमन "भावों के मोती"
चंद हाइकु
विषय -" बचपन "
(1)
शैतानी खेल
बचपन बिंदास
घर था जेल
(2)
उम्र के घर
बचपन की यादें
हटाऐं जाले
(3)
कबाड प्रेम
बचपन की लारी
जुगाड़ ढ़ेर
(4)
ख्वाबों से बना
बचपन घरौंदा
उम्र ने रौंदा
(5)
निश्चिन्त भाव
बचपन सुस्ताता
ममता छाँव
(6)
स्वयं नवाब
बचपन फक्कड़
जेब में ख़्वाब
(7)
ख्वाबों से भरी
बचपन की कश्ती
उम्र ले डूबी
ऋतुराज दवे
चंद हाइकु
विषय -" बचपन "
(1)
शैतानी खेल
बचपन बिंदास
घर था जेल
(2)
उम्र के घर
बचपन की यादें
हटाऐं जाले
(3)
कबाड प्रेम
बचपन की लारी
जुगाड़ ढ़ेर
(4)
ख्वाबों से बना
बचपन घरौंदा
उम्र ने रौंदा
(5)
निश्चिन्त भाव
बचपन सुस्ताता
ममता छाँव
(6)
स्वयं नवाब
बचपन फक्कड़
जेब में ख़्वाब
(7)
ख्वाबों से भरी
बचपन की कश्ती
उम्र ले डूबी
ऋतुराज दवे
आज के विषय "बचपन" पर मेरी ये रचना आप सबकी नज़र--- ऐ दिल जरा बचपन की गलियों से गुजर आऊं!!
ऐ दिल जरा बचपन की गलियों से गुजर आऊं
गरमी की छुटियों को तगङे आलस में जी आऊं
भानुमति के पिटारे से निकलूं छोटी सी छोरी बन
बाईस्कोप में मुंह ढाँप अपना छुटपन देख आऊं!!
आसमान में आंख टांग के कुछ पतंगे लूट लाऊं
पेङों की फुनगी तक जाकर बादल छू के आऊं
छुपन छपाई खेलूं सखा संग रूठूं और मनाऊं
मेरे दाम की बारी आये तो सब पर रोब जमाऊं
ऐ दिल जरा बचपन की गलियों से गुजर आऊं!!
लट्टू को रस्सी पे लपेटूं और दुनियां को घुमाऊं
गुल्ली डंडे से खिङकी के, कांच फोङ के आऊं
रेलगाङी की पटरी से कुछ गुट्टे बीन के लाऊं
गोल गोल से कंचो में, काल्पनिक संसार बसाऊं
ऐ दिल जरा बचपन की गलियों से गुजर आऊं!!
हाथ गुलेल लूं निशाना साधूं ,पके आम टपकाऊं
सितौलिये पर गेंद को मारूं जोर जोर चिल्लाऊं
घोङा बादाम छाई के पीछे, सोटे से मार लगाऊं
राजा मंत्री चोर सिपाही सबको ये खेल खिलाऊं
ऐ दिल जरा बचपन की गलियों से गुजर आऊं!!
खो खो में यूं चौकन्नी हो खुद को ही खो जाऊं
सांप-सीढी पे चढी उतरती जीतूं कभी हार जाऊ
बारिश का पानी गडडों में छपाक छलांग लगाऊं
बरखा के बहते पानी में कागज की नाव चलाऊं
ऐ दिल जरा बचपन की गलियों से गुजर आऊं!!
रंग बिरंगी तितली पकङूं ,खुद तितली बन जाऊं
साईकिल के पुराने टायर संग जमके दौङ लगाऊं
चिङिया जब उङ जाये अंगुली से, भैंस भी उङाऊं
लंगङी टांग से छपट पटक के पलटी मार गिराऊं
ऐ दिल जरा बचपन की गलियों से गुजर आऊं!!
-----डा. निशा माथुर/8952874359
ऐ दिल जरा बचपन की गलियों से गुजर आऊं
गरमी की छुटियों को तगङे आलस में जी आऊं
भानुमति के पिटारे से निकलूं छोटी सी छोरी बन
बाईस्कोप में मुंह ढाँप अपना छुटपन देख आऊं!!
आसमान में आंख टांग के कुछ पतंगे लूट लाऊं
पेङों की फुनगी तक जाकर बादल छू के आऊं
छुपन छपाई खेलूं सखा संग रूठूं और मनाऊं
मेरे दाम की बारी आये तो सब पर रोब जमाऊं
ऐ दिल जरा बचपन की गलियों से गुजर आऊं!!
लट्टू को रस्सी पे लपेटूं और दुनियां को घुमाऊं
गुल्ली डंडे से खिङकी के, कांच फोङ के आऊं
रेलगाङी की पटरी से कुछ गुट्टे बीन के लाऊं
गोल गोल से कंचो में, काल्पनिक संसार बसाऊं
ऐ दिल जरा बचपन की गलियों से गुजर आऊं!!
हाथ गुलेल लूं निशाना साधूं ,पके आम टपकाऊं
सितौलिये पर गेंद को मारूं जोर जोर चिल्लाऊं
घोङा बादाम छाई के पीछे, सोटे से मार लगाऊं
राजा मंत्री चोर सिपाही सबको ये खेल खिलाऊं
ऐ दिल जरा बचपन की गलियों से गुजर आऊं!!
खो खो में यूं चौकन्नी हो खुद को ही खो जाऊं
सांप-सीढी पे चढी उतरती जीतूं कभी हार जाऊ
बारिश का पानी गडडों में छपाक छलांग लगाऊं
बरखा के बहते पानी में कागज की नाव चलाऊं
ऐ दिल जरा बचपन की गलियों से गुजर आऊं!!
रंग बिरंगी तितली पकङूं ,खुद तितली बन जाऊं
साईकिल के पुराने टायर संग जमके दौङ लगाऊं
चिङिया जब उङ जाये अंगुली से, भैंस भी उङाऊं
लंगङी टांग से छपट पटक के पलटी मार गिराऊं
ऐ दिल जरा बचपन की गलियों से गुजर आऊं!!
-----डा. निशा माथुर/8952874359
कहाँ है वो क्षण
रूपहले से कण
शैशवी सु्वास
अनुपम उपहास
अबोध पटल
मनसा चंचल
उन्मुक्त गगन
अवनि अंचल
महकता उपवन
लहराता पवन
वृक्षों की छाया
झाडियों का साया
तीतलीयाँ पकडना
किंचो को छलना
मखमली पुचकार
डांट फटकार
मस्ति भागा दोडी
कच्ची अमराई तोडी
उछलना फिसलना
लडना झगडना
पेम पाटी पोथी
सिहरन कहाँ थी
गुरूजी की सोटी
चूल्हे कि रोटी
अल्हड़ मगराना
इमली चगराना
याद करके बिसराना
छुप के सो जाना
मामा,नानी, दादी का दुलार
माँ का असीम प्यार
भाई बहनों की तकरार
बापु का पुचकार
क्या क्या कुछ कम था?
हां हां वो भोला बचपन था
बचपन था, निर् वसन था..
रूपहले से कण
शैशवी सु्वास
अनुपम उपहास
अबोध पटल
मनसा चंचल
उन्मुक्त गगन
अवनि अंचल
महकता उपवन
लहराता पवन
वृक्षों की छाया
झाडियों का साया
तीतलीयाँ पकडना
किंचो को छलना
मखमली पुचकार
डांट फटकार
मस्ति भागा दोडी
कच्ची अमराई तोडी
उछलना फिसलना
लडना झगडना
पेम पाटी पोथी
सिहरन कहाँ थी
गुरूजी की सोटी
चूल्हे कि रोटी
अल्हड़ मगराना
इमली चगराना
याद करके बिसराना
छुप के सो जाना
मामा,नानी, दादी का दुलार
माँ का असीम प्यार
भाई बहनों की तकरार
बापु का पुचकार
क्या क्या कुछ कम था?
हां हां वो भोला बचपन था
बचपन था, निर् वसन था..
14मई 2018
बचपन
कितनी प्यारी मासूम सी जिंदगी थी।
वो बागों में झूला,वो सरसों का खेत।
आमों का बगीचा और लीची का बाग।
भूले से भी भूलता नहीं वो।
कोई लेके चलो मुझे बचपन के पास।
कितनी प्यारी............
वो बगीचे में जाके अमरुद को खाना।
पेड़ों पर अमरुद तोड़ने को चढ़ जाना।
सखियों के संग पानी में तैरना।
तैरते तैरते नदी के पार चले जाना।
कितनी प्यारी.........
माँ की बातों को अनसुना कर देना।
स्कूल से भागकर बागों में जाना।
बागों से कच्चे कच्चे आमों को तोड़ना।
फिर उसको कच्चे हीं खा जाना।
कितनी प्यारी.........
चाहकर भी वो दिन आयेगा नहीं अब।
कितनी भी चाहे कोशिशें कर लो।
यादे हीं बाकी रह गई अब।
उसीसे तुम तसल्ली अब कर लो।।
कितनी प्यारी..........
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
बचपन
कितनी प्यारी मासूम सी जिंदगी थी।
वो बागों में झूला,वो सरसों का खेत।
आमों का बगीचा और लीची का बाग।
भूले से भी भूलता नहीं वो।
कोई लेके चलो मुझे बचपन के पास।
कितनी प्यारी............
वो बगीचे में जाके अमरुद को खाना।
पेड़ों पर अमरुद तोड़ने को चढ़ जाना।
सखियों के संग पानी में तैरना।
तैरते तैरते नदी के पार चले जाना।
कितनी प्यारी.........
माँ की बातों को अनसुना कर देना।
स्कूल से भागकर बागों में जाना।
बागों से कच्चे कच्चे आमों को तोड़ना।
फिर उसको कच्चे हीं खा जाना।
कितनी प्यारी.........
चाहकर भी वो दिन आयेगा नहीं अब।
कितनी भी चाहे कोशिशें कर लो।
यादे हीं बाकी रह गई अब।
उसीसे तुम तसल्ली अब कर लो।।
कितनी प्यारी..........
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
बचपन
***************
मेरा नन्हा सा बचपन
हर दिन दीवाली मनाता
पापा से जिद्द कर
अपनी फरमाईशें मनवाता।।
पापा हमारे
स्वप्नों को साकार करने
पेट से आती
आवाजों तक को दबाते
और हम बचपन मे
यूँ ही खो जाते।।
बचपन तो मानों
पंख लगा कर उड़ सा गया।
समय वो भी अब आगे आया
पापा की छांव तले
मैं,होनहार बन
रँगीन स्वप्न सजाएं
जवानी में आया।।
पाप से आशीर्वाद ले
मायानगरी में कदम रख
न जाने सबको कैसे भुलाया।
हिचकियाँ तो बहुत थी आई
पर मैं समझ न पाया।।
हाय!ये बचपन फिर न आया
जवानी का दौर मैंने कैसे बिताया।।
एक नया घर सजनी सँग
मैंने बसाया।।
नन्ही किलकारी भरा बचपन
मेरी गोदी में भी आया।
समय तो मानों
पंख लगा उड़ गया
वो सब मुझे समंझ आया
जब वो दौर मैंने बिताया।।
बचपन को साकार करते हुए
मेरा भी बुढापा लड़खड़ाया।।
सब समझ ,मैं पिता जी पास
दौड़ा दौड़ा आया
पर,सन्नाटा उस घर मे पाया।
लड़खड़ाते कदमो से
कदम मैंने आगे बढ़ाया
पर,हाय!दो कंकालों को
मैंने धरा पर पाया।।
चित्कार निकल गई मेरी
मेरा बचपन मेरी आँखों के आगे
सारा नजर आया।
अब,सिवा चित्कार के
कुछ बाकी न था
सारा संसार उजड़ सा गया था।
मेरी श्वासें भी उनके साथ
जाना चाहती थी
पुनः वही बचपन
खेलना चाहती थी।।
वीणा शर्मा
***************
मेरा नन्हा सा बचपन
हर दिन दीवाली मनाता
पापा से जिद्द कर
अपनी फरमाईशें मनवाता।।
पापा हमारे
स्वप्नों को साकार करने
पेट से आती
आवाजों तक को दबाते
और हम बचपन मे
यूँ ही खो जाते।।
बचपन तो मानों
पंख लगा कर उड़ सा गया।
समय वो भी अब आगे आया
पापा की छांव तले
मैं,होनहार बन
रँगीन स्वप्न सजाएं
जवानी में आया।।
पाप से आशीर्वाद ले
मायानगरी में कदम रख
न जाने सबको कैसे भुलाया।
हिचकियाँ तो बहुत थी आई
पर मैं समझ न पाया।।
हाय!ये बचपन फिर न आया
जवानी का दौर मैंने कैसे बिताया।।
एक नया घर सजनी सँग
मैंने बसाया।।
नन्ही किलकारी भरा बचपन
मेरी गोदी में भी आया।
समय तो मानों
पंख लगा उड़ गया
वो सब मुझे समंझ आया
जब वो दौर मैंने बिताया।।
बचपन को साकार करते हुए
मेरा भी बुढापा लड़खड़ाया।।
सब समझ ,मैं पिता जी पास
दौड़ा दौड़ा आया
पर,सन्नाटा उस घर मे पाया।
लड़खड़ाते कदमो से
कदम मैंने आगे बढ़ाया
पर,हाय!दो कंकालों को
मैंने धरा पर पाया।।
चित्कार निकल गई मेरी
मेरा बचपन मेरी आँखों के आगे
सारा नजर आया।
अब,सिवा चित्कार के
कुछ बाकी न था
सारा संसार उजड़ सा गया था।
मेरी श्वासें भी उनके साथ
जाना चाहती थी
पुनः वही बचपन
खेलना चाहती थी।।
वीणा शर्मा
No comments:
Post a Comment