विधा - गज़ल
जितना जानो उतना कम पड़ जाता है
बड़े से बड़ा ज्ञानी कभी उखड़ जाता है ।।
वाह जिन्दगी तेरा जबाव नही
तुझसे कौन नही डर जाता है ।।
आखिर कितने रूप हैं तेरे
एक सम्हालो दूसरा लड़ जाता है ।।
नारदमुनि जैसा ज्ञानी तपस्वी
भी नारी के पीछे पड़ जाता है ।।
लक्षमण शक्ति पर श्री राम का
मन भी टूट कर बिखर जाता है ।।
हिरन मोह की सजा देखो
रावण सीता को हर जाता है ।।
कैकई जैसी माँओं के मन में
अपना परायापन भर जाता है ।।
मत सोचो ''शिवम" क्यों न खुद
को पात्र समझ निकर जाता है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
एक कमरे में बसर करती ये जिन्दगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिन्दगी!!
खिलखिलाते से बचपन लिये खिलती
कभी बहकती जवानी लिये जिन्दगी
लङखङाता बुढापा लिये लङखङाती
आती जन्म मरण परण लिये जिन्दगी!
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिन्दगी!!
चादर से बङे होते पाँव की सी फैलती
या रिश्तो संग बहती नाव सी जिन्दगी
अनजाने से अनचाहे घाव सी दे जाती
बबूल कभी बरगद के छाँव सी जिन्दगी!
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिन्दगी!!
दोनों हाथों को फैला चांद को छू आती
भाई भाई के मन को ना छूती जिन्दगी
कहने को तो हमें समृद्दि आज छू आती
माँ बाप को घर में ना छू पाती जिन्दगी!
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिन्दगी!!
अनकही यादों की गलबहियाँ सी हंसती
समय शून्य में अठखेलियों सी जिन्दगी
मुट्ठी में बंद कुछ निशानियों को कसती
दीवार टंगी अपनो की स्मृत्तियाँ जिन्दगी!
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिन्दगी!!
खाली कोना बंद दरवाजे चुप सी सन्नाती,
खुली खिङकी से झाँकती आती जिन्दगी!
दरारों की वजह से दीवारों को यूं दरकती
कभी बङी खाइयों को भी पाटती जिन्दगी!
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिन्दगी!!
-------डा. निशा माथुर/8952874359
एक दिन सब ढह जायेगा।
ना कुछ लेकर आया था तु,
ना कुछ लेकर जायेगा।।
धन-दौलत के लालच मे,
सारे नाते तोड़ रहा ।
प्रेम की पूंजी छोड़ के तु,
ठगनी से नाता जोड़ रहा।।
अकल ठिकाने आयेगी,
जिस दिन ठोकर खायेगा....
जीवन मे तो सब -कुछ नश्वर है,
एक दिन सब ढह जायेगा।
ना कुछ लेकर आया था तु,
ना कुछ लेकर जायेगा।।
अंधा होकर दौड़ रहा है,
क्या साथ तेरे ये जायेगा।
ले भी जाता साथ मगर,
कफन मे जेब कहां से लायेगा।।
सुन ले मौत का मौन निमन्त्रण,
नही बहुत पछतायेगा।।
जीवन मे तो सब -कुछ नश्वर है,
एक दिन सब ढह जायेगा।
ना कुछ लेकर आया था तु,
ना कुछ लेकर जायेगा।।
मात -पिता की सेवा करले ,
करले जग में काम भला।
भाई बंधु से नेह बना कर ,
करले अपना नाम भला।।
होगा जग में नाम तेरा,
गर कर्म भला कर जायेगा...
जीवन मे तो सब -कुछ नश्वर है,
एक दिन सब ढह जायेगा।
ना कुछ लेकर आया था तु,
ना कुछ लेकर जायेगा।।
...राकेश पांडेय
सुबह होती है शाम होती है,
यूँही ज़िन्दगी तमाम होती है।
कभी धूप कभी छाँव,
कभी खुशनुमा शाम होती है।
कभी सुबहे बनारस,
कभी शामेअवध,
कभी गंगा की लहरों पे ,
रात होती है।
कभी दुखों की तपन,
कभी सुखों की सहर,
कभी मिली-जुली,
एहसास होती है।
हर हाल मे मुस्कुराना,
हँसना हँसाना,
कभी न घबराना।
क्योंकि ज़िन्दगी,
खट्टा मीठा अंगूर का दाना होती है।
कभी धूप कभी छाँव,
कभी खुशनुमा शाम होती है।
©प्रीति
केवल जीवित रहना ही जीवन है,
याऔर कुछ मतलव है जीवन का।
खाना पीना हंसना गाना अथवा,
अन्य कुछ मकसद भी जीवन का।
जीवनशैली कुछ ऐसी हो जीने की,
हम स्वयं गौरवांन्वित इसपर हो पाऐं।
जिऐं विवेकशील संयमित जीवन हम,
कभी स्वयं पर हम लज्जित हो पाऐं।
धीर वीर गंभीर बनें जीवन में हम,
सदा संस्कृति सुसंस्कार अपनाऐं।
नहीं जिऐं पशुवतजीवन हम भैया,
क्यों सत्य सनातन संस्कृति लजाऐं।
स्वरचितःःः
इंजी. शंम्भूसिह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जय जय श्री राम राम जी
प्रदीप्त है प्रचण्ड है
अमिलाषाओं का दण्ड है
उत्सर्जन को मापता
जीवन का मापदण्ड है
पस्त है समस्त है
वेदना से त्रस्त है
अवसरों को ढूंढता
जीवन का मापदण्ड है
सुख है सौन्दर्य है
सम्पदा से पूर्ण है
लक्ष्यों को भेदता
जीवन का मापदण्ड है
वेदों का वेद है
ये गुत्थी अभेद है
चेतना को खोजता
जीवन का मापदण्ड है
स्वरचित मिलन जैन
🎈🎈🎈
हम ही बनाते निर्जन वन
हम ही बनाते हैं उपवन
हम भर देते इसमें जब अपना मन
खुशी की किरणें आती हैं छन छन
जो मिले उसे स्वीकार कर लें
खुश हो अंगीकार कर लें
दुनियां भर की आकांक्षाओं से
क्यों स्वयम को बीमार कर लें।
ईश्वर तो सबको कुछ देता
वही होता सबका प्रणेता
कर्म प्रधान है धरती सारी
उसके अनुसार ही मनुष्य कुछ लेता।
हमें तो करना केवल कर्म
यही होता जीवन का मर्म
कर्म छोटा बड़ा नहीं है
फिर क्यों करें हम कोई शर्म।
"कविता का शीर्षक
जीवन एक क्रिकेट"
जीवन की क्रीज़ पे खडा,
आत्मरक्षा व आक्रमण् का,
बल्ला लिए अडा,
लडा जा रहा हूँ
मित्रों,
जीवन समझ
क्रिकेट का खेल,
खेले जा रहा हूँ
गली से मिडान तक,
मिडान से लांग आन तक,
शोषण के दानव खडे हैं,
प्रशासनिक फास्टर,
आैर..
राजनैतिक स्पिनर,
स्लिप में ही लगें हैं
लिए आस सिक्सर की,
बचाए हुए अपने स्टम्प
इनके बाउंसर भी,
झेले जा रहा हूँ,
नहीं चाहता टुक-टुक,
मजबूरी है किए जा रहा हूँ।
हूँ मजबूर अकेला,
भूख्,भ्रष्टाचार आैर बेरोजगारियों के
प्रतद्वंदियों से घिरा,
समझ रहा हूँ बकरे की माँ हूँ
फिर भी खैर मनाए जा रहा हूँ
मन में लिए जीत की चाह,
विरूद्व उनके जिए जा रहा हूँ।
उपलब्धियां जीवन की,
रूक जाती हैं,
जब..
असामाजिक तत्वों की,
फील्डींग कस जाती हैं,
आैर डर अधिक तब लगता हैं,
जब एंपायर भी मिला हुआ लगता हैं,
रिश्वत से खरीदा हुआ दिखता है,
खेल से खिलवाड कर रहा,
बडा ही बेरहम दिखता है,
कइयों को भेज चुका पेवेलियन,
अब मेरी भी बारी हैं,
इस देश के मैदान पे,
भ्रष्टाचार आैर आतंक की,
जैसे महामारी है।
हर बाल एक दिन की तरहा,
अमूल्य जीवन की तरहा,
बस खोए जा रहा हूं,
विश्वास किए उस
थर्ड एंपायर पर,
दो स्टम्पों के बीच,
बंधी दौड जीवन की,
दौडे जा रहा हूँ।
ऋतुराज दवे