Sunday, May 27

"स्वतंत्र लेखन "-27मई 2018




आज बेटी बिलख रही है 
सारे हिन्दुस्तान की
अस्तित्व अपना ढूंढ रही है 
बेटी हर इंसान की

दर्द में लिपटी सिसक रही है
मांग करे अभयदान की
चीख रही है घर की इज्जत
मांग करे इंसाफ की

मां मैं तेरी प्यारी मैना
बाबा का मासूम सा सपना
क्यूं तूने मुझको प्राण दिया
कोख में क्यूं ना मार किया
क्या मेरा दर्द न तूने जीया
मां मेरा क्या जीवन है
दर्द है और सिरहन है
ये इंसानों की बस्ती नहीं है
भेडियों का कानन है
जब जो चाहे चीर हरे
आवारा भी जुमले कसे
जो मैं डटकर खड़ी रहूं तो
तेज़ाब फेंके वार करे
और अगर कुछ बचा रहा तो
व्यभिचार करे अपमान करे
मां अन्तर्मन मेरा जख्मी है
आत्मा भी घायल है
सम्मान मेरा चिथडे हुआ है
वेदना भी भारी है
क्या बताऊं दिल पर मेरे
कितने गहरे घाव पड़े
आंखों से मेरे नीर बहे और
दिल में मेरे शोले भरे
सांस मेरी उखड़ रही है
रोशनी भी मद्धम है
मां मेरा एक काम तू कर दे
खुशियों का संसार जिला दे
जहां रोशनी सुनहरी हो
इंसानों की बस्ती हो
आत्मा ना सस्ती हो
जो तू ये ना कर पाए तो
फिर से बेटी जनम न दे
फिर से बेटी जनम न दे

आज बेटी बिलख रही है 
सारे हिन्दुस्तान की
अस्तित्वअपना ढूंढ रही है 
बेटी हर इंसान की
चीख रही है घर की इज्जत
मांग करे इंसाफ की

स्वरचित : मिलन जैन
दिनांक २७ मई २०१८


भावों के मोती
तिथि -८/५/२०१८
वार-रविवार

विषय-स्वतंत्र लेखन

-"टूट कर भी कभी रिश्ता मिटता नही।"

किसी ने सच ही कहा है –
"टूट कर भी कभी रिश्ता मिटता नही।"

ये तो बंधन है जन्मों का
यूँ पल भर में टूटता नही
इसलिए तो कहते है -
"टूटकर भी कभी रिश्ता........

नही एहसास ये कच्चे धागों का
ये तो अनुभव है बुजुर्गों के तजुर्बों का
इसलिए तो कहते है -
"टूटकर भी कभी रिश्ता.......

ये रिश्ता ही है जो दुख -दर्द में साया बन जाता है
बाहर वालों से पहले काम, घर का इंसा ही आता है
इसीलिए तो कहते है - 
"टूटकर भी कभी रिश्ता......

चाहे मतभेद कितना भी हो विचारों का 
लेकिन मुड़ता है घुटना,घुटने की तरफ
इसलिए तो कहते है - 
"टूटकर भी कभी रिश्ता.....

संसार तो है मीठी माया ठगनी
जो साथ खड़े हो रिश्ते, तो ये उल्टे पाँव भगती
इसलिए तो कहते है - 
"टूटकर भी कभी रिश्ता.....

रिश्ते तीखे - कड़वे, खट्टे- मीठे होते है पर ये ही तो
जीवन सरिता में नीत नई तरंगे भरते है
इसलिए तो कहते है - 
"टूटकर भी कभी रिश्ता......

माना रिश्ते अधिकतर बेहद दर्दीले होते है
पर बच्चों के बालपन तो इन्हीं से शोभित होते है
इसलिए तो कहते है -
"टूटकर भी कभी रिश्ता......

बड़ो के टूटे रिश्ते से ये मासूम अंजान होते है
इनके लिए तो सारे रिश्ते इनकी जान होते है
इसलिए तो कहते है - 
"टूटकर भी कभी रिश्ता.....

बात है बस सबके, निःस्वार्थ भाव से रिश्ता निभाने की
क्योंकि इसी में छुपी है चाबी पल - पल की खुशियों की
इसलिए तो कहते है-
"टूटकर भी कभी रिश्ता.....

रिश्ते ही जीवन का आधार है
मत भागो इससे ये ही जीवन का सार है।
इसलिए तो कहते है - 
"टूटकर भी कभी रिश्ता......

©सारिका विजयवर्गीय "वीणा"


बचपन खो गया 

जिन्दगी तेज गति से

यूँ ही चलती जा रही है।
सोचती हूँ तो याद आता
वो बचपन जो खो गया।।
पापा से जिद्द करना
माँ की ममता की छांव।
दादी से कहानियाँ सुनना
बाबा से झगड़ा हो गया।
वो बचपन जो खो गया।।
नानी घर छुट्टी बिताना
नाना से मन की करना।
भूलूं पर मैं भूल न पाऊँ
रूठा और मै सो गया।
वो बचपन जो खो गया।।
गुड़िया एवं खिलौने मांगना
मिट्टी से दुनिया बसाना।
दोस्तों संग गप्पें लड़ाना
वो बचपन जो खो गया।
ख्वाब मासूमियत सजाना
हर पल अठखेलियाँ करना।
बारिशों की मस्ती मे ढूंढू
वो बचपन जो खो गया।।
ईष्या अहंकार से दूर रहना
अपने अनमोल सपने चाहना।
चाँद तारो की बातें सोचूं मैं
ताकिये से लिपटा रोया।
वो बचपन जो खो गया।
वो बचपन जो खो गया।।

डॉ स्वाति श्रीवास्तव


 स्वतंत्र लेखन।
"एक कदम स्वच्छता की ओर'


मैं इतराऊँ अपने भाग्य पर।
जन्म लिया स्वर्ग से सुन्दर
भारत देश है मेरा देश।
परन्तु जिस भारत की कल्पना
कि हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने
क्या हम उसे बना पाये
हम अपनी नदानियो से।

बाकी परिदृश्यों को छोड़ भी दे तो,
क्या हम इसे सुन्दर स्वच्छ बना पाये।
इसे सुन्दर बनाने की शुरुआत,
क्यों न करें हम अपने घर से।

हम सुधरेंगे तो जग सुधरेगा।
ये तो हम सभी जानते।
बड़े बुर्जुग रखें सफाई का ध्यान,
तो बच्चे सीखें अपने आप।

पड़ोसी समझे प्यार मनुहार से।
फिर वे भी रखे स्वच्छता का ध्यान।

ब्यक्ति से समिष्टि की ओर,
बढ़ते रहे हमारे कदम।
हमारा एक छोटा सा प्रयास,
बना देगा हमारा देश स्वच्छ महान।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।


 (१)
माँ का रूप अनूप है,आँचल अवनि तुषार
स्नेह सलिल झरता सदा, ऐसा माँ का प्यार

ऐसा माँ का प्यार,बताऊँ कैसे भैया
अपना हर दुख भूल,करें हरदम ता थैया
कहे रागिनी राग,धरणी कि देवी है माँ
बहू बेटी,है बहन,सजती हर रूप मे माँ
(२)
तनया मेरी शान है, परछाई है खास
पावन शुचित सुवास से, मिट जाती हर प्यास
मिट जाती हर प्यास,खिले मुरझाई कलीयाँ
सौम्य सुधा कि धार, फिरे घर आँगन गलीयाँ
कहे रागिनी सूर,स्वरित संगीत असूया
आन बान अभिमान, अबाधित मेरी तनया
(३)
मनसा वाचा कर्मणा, सभी हो एक समान
शायद कहते हैं उसे, मानव वहीं महान
मानव वहीं महान, जटिलता ये है भारी
धरती का हर जन,हो गया एक व्यापारी
कहे रागिनी ज्ञान, रहेगा तब तक झुलसा
धर्म नीति हो न्याय, तभी हो निच्छल मनसा

*रागिनी शास्त्री*
*दाहोद(गुजरात)*

 सदियाँ बीत गईं 
नारी को स्वत की
लड़ाई लड़ते लड़ते

पर हर बार छली ही
जाती है पुरुष के
छल के सामने
हर बार पुरुष की
अनचाही कामनाएँ,
पर-नारी जिस्म की चाहत
विवश कर देती है
नारी को अपमान की
अग्नि में जलने को
तारा,वृंदा,अहिल्या
देवताओं के आगे
विवश उनके कामुक
झणों में छल शापित 
हुईं / सीता भी तो 
पूर्ण समर्पण बाद भी
राम जैसे मर्यादा
पुरुष के हाथों
जिलावतन हुई 
अंबा ,अंबिका
अंबालिका जैसी नारियां
सत्ता स्वार्थ की भेंट चढ़ी
क्या दोष था द्रोपदी का
पति-पुरुष के हाथों ही
दांव लग दंभी पुरुषों की भरी सभा में अपमानित हुई
जब लगन लगाई मीरा ने
कुल कलंकनी, कुल नाशिनी
कहलाई
सदियां बीत गई लेकिन
नारी अब भी छली जाती है
कभी पुरुष के हाथों
कभी अपनी ही जात (नारी)
के हाथों।।
डा. नीलम

प्रथम उषा किरण, सतरंगी दर्शन
ल्पनाओं से सजा,अनवरत सृजन।।

नश्वर देह में मानों प्राणों का सृजन
उल्लास,उमंग,उत्कर्ष का वर्षण।।

चहकी चिड़िया, भँवरों का गुँजन
शीतल पवन,अलौकिक दृश्य आगमन।।

नव चेतन,शुभ प्रभात उषा किरण
संतापों को हरने वाली स्वर्णिम किरण।।

सुक्षुप्त विचार त्यागे आलस्य तन मन
इंद्रधनुषी किरणें स्पंदित करती तन मन।।
**********************************


कुर्सी

कुर्सी बड़ी महान होती हैं

चमचों की गीता और पुराण होती है
पूजी जाती हैं नौकरशाही में
कलियुग में ये भी भगवान होतीं हैं।

कुछ कुर्सियों पे मोह का गोंद लगा होता है
एक बार बैठे तो उठना कठिन होता है
कहीं कुर्सी रेस का समाँ होता है
मौका ताड़ते ही उसे कब्जा लेता है
कुछ कुर्सियों पर पहिए होते हैं
जिन पर बैठकर नीयत फिसलती है
कुछ कुर्सियों का वजन इतना होता है
आदर्शों को ढ़ोना बड़ा मुश्किल होता है
कुछ कुर्सियां बड़ी गरीब होती है 
रिश्वत के पैसों से अमीर होती है
तो कुछ कुर्सियां इतनी खुद्दार होती है
कि बेईमानी की आँधी में टिकी रहती है 
कुर्सियों की महिमा बड़ी न्यारी है 
कुछ को इस पर बैठते ही आती खुमारी है
पद और शक्ति का प्रतीक है कुर्सी
किसी के लिए दौड़ या मौज है कुर्सी
तो कहीं सेवा , समर्पण पे टिकी है कुर्सी

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