Sunday, May 27

"मंजिल "-26मई 2018



मंज़िल - एक ग़ज़ल 
रदीफ़ :- तो है
क़ाफ़िया:- आती

मापनी :- २१२२ २१२२ २१२२ २१२

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लौ बड़ी छोटी दिये की...... रोशनी लाती तो है 
शोख चंचल सी लहर पत्थर से टकराती तो है 1
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कौन जाने कब मुकद्दर ......दे बदल मेरा खुदा 
हौसला कायम रहे फिर ....ज़िंदगी गाती तो है 2
***
आपने आकर हमें ........जबसे सहारा दे दिया 
हैं बहुत दुश्वारियाँ ...मंज़िल नज़र आती तो है 3
***
कोशिशें करते रहे हम ......ख़त्म हो ये तीरगी 
कौंधती बिजली धरा पे ...राह दिखलाती तो है 4
***
नाव ले अपनी समंदर में चला फिरसे विजय 
टिमटिमाती लौ दिये की जोश भर जाती तो है ५
विजय द्विवेदी 
प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश


 ''मंजिल"

बार बार जो मन करता 

मन जिसमें उमंगे भरता ।।

वो मंजिल का प्रतीक है
वही राह ठानना ठीक है ।।

हालातों को भी समझ
क्षमताओं से नही उलझ ।।

जो है उसको पहचानो 
वो ही राहें तुम ठानो ।।

भले अभी डराती हैं 
मन में कचोट लातीं हैं ।।

मगर आँख तुम बन्द करो
मंजिल की ओर द्वन्द करो ।।

जब आयेगी जीत हाथ में
दुनिया होगी तेरे साथ में ।।

दुनिया पलटा खाती है
सुख में हाथ मिलाती है ।।

जितनी मंजिल होती ऊँची 
ताकत भी लगती समूची ।।

खुद ही सब जानेगा 
मंजिल की जब ठानेगा ।।

आत्म बल है बहुत बड़ा
हिमालय भी छोटा पड़ा ।।

आत्म बल बढ़ाये जा 
विश्वास भी जगाये जा ।।

मंजिल तो खुद भी आती 
जब प्रतिज्ञा दृड़ कहलाती ।।

''शिवम् सफलता के सोपान
गिनता जा होगा उत्थान ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"


 न मंजिल है न , है कोई सफर अब। 
न पाने का है न, खोने का डर अब। 


क्या हम कहें औरो का क्या हाल है।
रहती नहीं हमें खुद की खबर अब।

चलो उनको अपना ठिकाना मिला। 
किसी तरह जिन्दगी होगी बसर अब।

वादा है तुमसे न तुमको चाहेंगे हम। 
शर्त हैं ख्वाबों में न आना मगर अब।

उनसे बडी मुश्किलों से हुई दोस्ती। 
जमाना हुआ है, दुश्मन मगर अब। 

मै क्या करूँ जिक्र उनके सितम का। 
क्या हाले दिल क्या हाले जिगर अब।

पिया गमों गुस्सा विपिन सब्र करके। 
पीने को खाली बचा है तो ज़हर अब।

विपिन सोहल


 नमन मंच।
" मंजिल'


राहे गर भटक गये तो,
कोई बड़ी बात नही।
मंजिल गर पता हो तो,
राहे सही मिल ही जायेगी

ढृढ़ निश्चय ,आत्मविश्वास,
मंजिले करती असान।
गर राहे हो कंटक भरा,
बिश्चवास रखें पुरुषार्थ पर।

तुफानो से लड़ जाये।,
दरिया पार करे तैर कर।
मंजिले कदम दर कदम पास आयेगी।

जब पहूंचे मंजिल तक।
भूलें न हमराही को।
मंजिल तक पहुंचाने तक ,
हमराही ने कितनी मदद।


प्रस्तुति 04

26 मई 2018


" मंज़िल "

मंज़िल तो वही है पर देखो राही अब बदल गये है

लोगों के मंज़िल तक पहुँचने के तौर तरीके बदल गये है

येन केन प्रकरेण ही सही चाहिये मंज़िल उनको

चालाकी ..चोरी ..नकल ..पेपर लीक सब साधन बन गये हैं

मेहनत से जी चुराते ज्ञान नहीं डिग्री का जुगाड़ करते

अब शिक्षण संस्थान पढ़ाई नहीं डिग्री की सच्ची झूँठी दुकान बन गये हैं

कोचिंग का है यह दौर ..कौन पढ़ता पढ़ाता है शिक्षण संस्थानों में

कोचिंग सेंटर परीक्षा अच्छे नंबर से पास कराने की दुकान बन गये हैं

कौन मंज़िल ..कैसी मंज़िल.. बोलता है पैसा..पैसे से सब सामान बन गये है

इतना पैसा खर्च करके पायेगा जो मंज़िल अपनी डिग्री की

वो भी तो अपनी भरपाई करेगा और बच्चों के लिये भी इंतज़ाम करेगा

इसी लिये सारे संस्थान व्यापक भ्रष्टाचार के स्थान बन गये हैं

मंज़िल तो वही हैं पर देखो राही अब कितने बदल गये हैं

(स्वरचित)


शीर्षक: मंजिल

कर अंगिकार

वक्त करे पुकार
जीवन की रफ्तार
मंजिल सूत्रधार

संयम प्रेम लहर
निश्चय सागर ज्वार
लक्ष्य है कश्ती
मंजिल पतवार

जुनून का सागर
गहरा प्रयास
मुट्ठीमें भर ले
तृष्णा का आकाश

स्वरचित : मिलन जैन




 चंद हाइकु 
विषय-मंज़िल 
26/5/2018

(1)
धर्म अनेक
राहें लगे जुदा
"मंजिल"एक
(2)
दौड़ता कर्म 
"मंजिल" पे पहुँच
खिलता श्रम
(3)
वक्त की गाड़ी
मुसाफिर जिन्दगी
ढूँढे "मंजिल"
(4)
हताशा फेंकी 
आशा की सीढ़ी चढ़ी 
"मंजिल" मिली 
(5)
नभ फलक
जुनून ले के जाए
"मंजिल" तक
(6)
आम आदमी 
साँप सीढ़ी का खेल 
दूर मंज़िल 

ऋतुराज दवे

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