Tuesday, May 8

स्वतंत्र लेखन-6मई 2018


*भावों के मोती*
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दिनाँक- ०६/०५/२०१८
दिन- रविवार
विषय- स्वतंत्र लेखन 
विधा- कविता
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*शीर्षक- माँ ऐसी ही होती है*......
भोर से पहले की जगी होती है,
दिन भर भागदौड़ में रहती है।
मेरे सोने के बाद सोती है,
माँ ऐसी ही होती है। १।
मैं जब दर्द में पुकारता उसे,
अगले ही पल पास खड़ी होती है।
मेरी गलतिया सब भूल जाती वो,
मेरा हर सितम हँस के सहती है।
माँ ऐसी ही होती है। २।
अपने सब त्यौहार पुराने करती वो,
मुझे हर बार नए कपडे लाती है।
जब रूठी हो तो बोलती नहीं मुझसे,
पर तब भी वक़्त पर खाना लाती है।
माँ ऐसी ही होती है। ३।
गृहस्थी में पड़ आँगन जो न लाँघ पाई,
पकड़ के ऊँगली रस्ते वही दिखती है।
कैसे छोड़ आते आश्रम में माँ को लोग,
जो अपनी कोख में बच्चो को घर देती है।
माँ ऐसी ही होती है। ४।
माँ को जो हैं त्यागते पत्थर हैं वे लोग,
बेचैन रहता हूँ जब माँ घर में नहीं होती है।
जीवन के बोझ से जब ऊवने लगता है मन,
वो आंचल की छांव में सुकूं के पल देती है।
माँ ऐसी ही होती है। ५।
इक रोज जिसके लिए सब छोड़ आई वो,
आज मेरे लिए उसी के खिलाफ खड़ी होती है।
जब भी कभी मैं देर से आता हूँ घर,
वो दरवाजे पर ही खड़ी होती है।
माँ ऐसी ही होती है। ६।
लोग गणेश पूजते पहले और मैं माँ,
प्रथम पूज्य देव से माँ बहुत बड़ी होती है।
हर इक नारी के पग को मैं हूँ चूमता,
सबकी सूरतें मेरी माँ जैसी होती हैं।
माँ ऐसी ही होती है। ७।
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*नाम- कुमार कौशल (कवि)©*
*शहर/प्रदेश- बरेली (उत्तर प्रदेश)*
*मोबाईल नम्बर- +९१ ८४४५७२१९२९*
 क्या लिखूं 
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बोल मेरे मन क्या लिखूं 
विषय श्रंगार का अतिरेक या लोचन के अश्रु दाह लिखूं 

अगम चितेरे की तूलिका के रंगो का सत्कार करूं 
नमन करूं प्रकृति को या ईश शीश पर हार धरूं 
तरणी तरंग की अठखेली या कलुष अवरुद्ध प्रवाह लिखूं 

बलिदानों की श्रद्धा सुमन कि जय का गौरव गान रहे 
रोता बिलखता बचपन या कि कच्ची सी मुस्कान रहे 
पनघट वाली बंसी या फिर विरह वेदना आह ! लिखूं 
बोल मेरे मन क्या लिखूं 

सपना सक्सेना


इन्सानियत से आदमी दूर कितना हो रहा है। 
खामखाँ में देखिये मजबूर कितना हो रहा है।


तोलती है आदमी को आदमी की हैसियत ।
मालो जर के नशे में चूर कितना हो रहा है। 

खुद को समझे है खुदा नादानियत देखिए। 
हैरान हूँ देखकर मगरूर कितना हो रहा है। 

बे - अदब माहौल है मगरबी सिलसिलो का। 
मुआशरा इन दिनों बेशऊर कितना हो रहा है। 

जुल्मी है जितना पापी है उतना बड़ा नाम है। 
देखिए तो आप भी मशहूर कितना हो रहा है। 

विपिन सोहल


 वज़्न पर एक ग़ज़ल 
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मापनी -१२१ २२ १२१ २२ १२१ २२ १२१ २२ 

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तुम्हे हमारी हमें तुम्हारी..... .......कमी खलेगी यही कहेंगें 
न दूर जाओ अभी बिछुड़ के..... ..ख़लिश बढ़ेगी यही कहेंगें 1
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नसीब में था मिलन तुम्ही से ...हमें तुम्हारा यकीन भी था 
हसीन रातें गुज़र गयीं जो ...........नहीं मिलेगी यही कहेंगें 2
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करीब इतने अभी तलक थे ....गिरा चुके हम सभी हदों को 
नज़र किसी की लगी हमें जो .......उतर सकेगी यही कहेंगें 3
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कभी अकेले नहीं रहे हैं........... सदा चले साथ हम तुम्हारे 
खुदा की रहमत अभी तलक थी.... ..सदा रहेगी यही कहेंगें 4
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रकीब इतने करीब आये......... दिखे हमें भी गमों के साये 
हसीन महफ़िल बिना हमारे .........तुम्हे डँसेगी यही कहेंगें 5
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तलब अनोखी लगी तुम्हारी ........ उदास रातें हुयी हमारी 
न सो सकोगे बिना हमारे ............तड़प उठेगी यही कहेंगें 6
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पुकारता है विजय अभी तक ..नज़र तुम्ही पे टिकी हुयी है 
खुशी मिली थी हमें मिलन से न मिल सकेगी यही कहेंगें 7
विजय द्विवेदी 
०६ /०५/२०१८

"अंदाज"05मई2020

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