ब्लॉग की रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं बिना लेखक की स्वीकृति के रचना को कहीं भी साझा नहीं करें |
ब्लॉग संख्या :-260
"मोह"
रे कान्हा तेरा मोह न छूटे
बंधन जग से चाहे टूटे
निस दिन देखूँ राह मैं तेरी
तू मेरे मन आँखों से न छूटे
2)
लाज के मारे मैं शरमाई
कर के घूँघट मैं इतराई
मोह तेरा मुझसे न छूटे
साँझ परे अँखियाँ मटकाई
3)
मैं कान्हा दर्शन की प्यासी
मोह मे बंध तुझ संग मैं भागी
मेरी दशा मछली के जैसी
लाज तू रख कृष्ण मुरारी
4)
मोह तेरा बाँधे है मुझको
रिक्त हृदय बस गया तू तो
तनिक शरम तुझको नहीं आती
निस दिन बंशी सुनाई दे मुझको
स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू
रे कान्हा तेरा मोह न छूटे
बंधन जग से चाहे टूटे
निस दिन देखूँ राह मैं तेरी
तू मेरे मन आँखों से न छूटे
2)
लाज के मारे मैं शरमाई
कर के घूँघट मैं इतराई
मोह तेरा मुझसे न छूटे
साँझ परे अँखियाँ मटकाई
3)
मैं कान्हा दर्शन की प्यासी
मोह मे बंध तुझ संग मैं भागी
मेरी दशा मछली के जैसी
लाज तू रख कृष्ण मुरारी
4)
मोह तेरा बाँधे है मुझको
रिक्त हृदय बस गया तू तो
तनिक शरम तुझको नहीं आती
निस दिन बंशी सुनाई दे मुझको
स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू
मोह
🎻🎻🎻
तुतली तुतली प्यारी बात
मन को मोहता वार्तालाप
उसके नन्हें भोले हाथ
छू गये मेरा तपता माथ
खुशी की मोहक पदचाप
मेरा मन रही थी माप।
उसने मरोड़ मेरे कपोल
अमृत होठों का डाला घोल
एक से एक रस अनमोल
बोल रहे थे मीठे बोल।
यह एक तरफा था संवाद
कितना अनुपम यह प्रसाद
अप्रतिम मोह का अनुपम नाद
रहेगा मरते दम तक याद।
मेरी नन्हीं इजा का यह दुलार
एकदम एकदम खालिस प्यार
फीकी इसके आगे हर बहार
अदभुत खुमार अदभुत खुमार।
नन्हें करते अनुपम बरसात
देते सुन्दर अपनी मधुर सौगात
इनकी हर मुद्रा सुन्दर मोहक
जो पीडा़ओं को देती मात।
कृष्णम् शरणम् गच्छामि
🎻🎻🎻
तुतली तुतली प्यारी बात
मन को मोहता वार्तालाप
उसके नन्हें भोले हाथ
छू गये मेरा तपता माथ
खुशी की मोहक पदचाप
मेरा मन रही थी माप।
उसने मरोड़ मेरे कपोल
अमृत होठों का डाला घोल
एक से एक रस अनमोल
बोल रहे थे मीठे बोल।
यह एक तरफा था संवाद
कितना अनुपम यह प्रसाद
अप्रतिम मोह का अनुपम नाद
रहेगा मरते दम तक याद।
मेरी नन्हीं इजा का यह दुलार
एकदम एकदम खालिस प्यार
फीकी इसके आगे हर बहार
अदभुत खुमार अदभुत खुमार।
नन्हें करते अनुपम बरसात
देते सुन्दर अपनी मधुर सौगात
इनकी हर मुद्रा सुन्दर मोहक
जो पीडा़ओं को देती मात।
कृष्णम् शरणम् गच्छामि
विषय मोह
रचयिता पूनम गोयल
मोह नगरी , माया नगरी ,
जिसे कहते हैं
लोग संसार ।
भिन्न-भिन्न रिश्तों का यहाँ ,
होता रोज़ व्यापार ।।
मोहजाल में फँसा हुआ है ,
लगभग हर मानव यहाँ ।
और इसीलिए
कुकर्मों की दलदल में ,
जकड़ा हुआ यहाँ ।।
हर रिश्ता बिकाऊ है ,
चाहे कोई भी ले लो ।
रिश्तों के बाज़ार में ,
चाहे किसी को भी ख़रीद लो ।।
कहते हैं संत-मुनि ,
मोह से दूर रहो , प्राणी ।
संसार के बन्धनों में ,
मत जकड़ तू , रे प्राणी ।।
रचयिता पूनम गोयल
मोह नगरी , माया नगरी ,
जिसे कहते हैं
लोग संसार ।
भिन्न-भिन्न रिश्तों का यहाँ ,
होता रोज़ व्यापार ।।
मोहजाल में फँसा हुआ है ,
लगभग हर मानव यहाँ ।
और इसीलिए
कुकर्मों की दलदल में ,
जकड़ा हुआ यहाँ ।।
हर रिश्ता बिकाऊ है ,
चाहे कोई भी ले लो ।
रिश्तों के बाज़ार में ,
चाहे किसी को भी ख़रीद लो ।।
कहते हैं संत-मुनि ,
मोह से दूर रहो , प्राणी ।
संसार के बन्धनों में ,
मत जकड़ तू , रे प्राणी ।।
प्रदत्त विषय- मोह
विधा- वर्ण पिरामिड
विधा- वर्ण पिरामिड
प्रस्तुत मेरी दो रचना, -
१)-
ये
जग
बंधन
मोहमात्र
मनु विचित्र
इस दलदल
फँसते पलपल
२)-
ले
अब
चिंतन
अति सूक्ष्म
गूढ़ मनन
मोह निस्तारण
प्रभु-श्रद्धा-शरण
#
"स्वरचित"
-मेधा नरायण.
१)-
ये
जग
बंधन
मोहमात्र
मनु विचित्र
इस दलदल
फँसते पलपल
२)-
ले
अब
चिंतन
अति सूक्ष्म
गूढ़ मनन
मोह निस्तारण
प्रभु-श्रद्धा-शरण
#
"स्वरचित"
-मेधा नरायण.
1
सिक्कों को झाड़
मोह ने भरवाया
संध्या का झोला।
2
स्नेह तंदूर
तप कर महका
माता का मोह।
3
पैसों ने खोया
बंद पल्लों में कैद
आशीष मोह।
वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित
सिक्कों को झाड़
मोह ने भरवाया
संध्या का झोला।
2
स्नेह तंदूर
तप कर महका
माता का मोह।
3
पैसों ने खोया
बंद पल्लों में कैद
आशीष मोह।
वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित
विद्या : छंद मुक्त कविता
विषय. : " मोह "
मेरे ही मोह का घेरा है
मेरे ही बंधनो का पहरा है ये
उड़ना मैं चाहूं,चल भी ना पाऊं
मकड़जाल सा सेहरा है ये।
धागे उलझे बंधन बने,
रोज-रोज नए रिश्ते बुने,
तन के कपड़े का मोह भी न था,
आया था जब तू इस दुनिया में।
बुद्धि उलझी,बडा दायरा
मान प्रतिष्ठा सम्मान मिला
मैं मेरा और सब कुछ मेरा
खूब नचाया माया ने।
पांच विकार सभी विषम,
मोह खत्म तो सब खत्म,
काम क्रोध लोभ अहंकार
चारों है मोह पर आधार।
कर विचार अब बाहर निकल,
ताला जो लगाया तूने,
अब तू ही खोल।
मिष्ठी अरुण
स्वरचित रचना
अमृतसर पंजाब
विषय. : " मोह "
मेरे ही मोह का घेरा है
मेरे ही बंधनो का पहरा है ये
उड़ना मैं चाहूं,चल भी ना पाऊं
मकड़जाल सा सेहरा है ये।
धागे उलझे बंधन बने,
रोज-रोज नए रिश्ते बुने,
तन के कपड़े का मोह भी न था,
आया था जब तू इस दुनिया में।
बुद्धि उलझी,बडा दायरा
मान प्रतिष्ठा सम्मान मिला
मैं मेरा और सब कुछ मेरा
खूब नचाया माया ने।
पांच विकार सभी विषम,
मोह खत्म तो सब खत्म,
काम क्रोध लोभ अहंकार
चारों है मोह पर आधार।
कर विचार अब बाहर निकल,
ताला जो लगाया तूने,
अब तू ही खोल।
मिष्ठी अरुण
स्वरचित रचना
अमृतसर पंजाब
विधा-पिरामिड
विषय-मोह
है
मन
अस्थिर
माया-लिप्त
मोह में फंसा
दायित्व-विहीन
चुनें आकाश पुष्प।
है
मोह
अज्ञान
मृगतृष्णा
छाया अंधेरा
दूर है किनारा
छटपटाती आत्मा।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
विषय-मोह
है
मन
अस्थिर
माया-लिप्त
मोह में फंसा
दायित्व-विहीन
चुनें आकाश पुष्प।
है
मोह
अज्ञान
मृगतृष्णा
छाया अंधेरा
दूर है किनारा
छटपटाती आत्मा।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
हाइकु.. विषय :-"मोह"
(1)
सेवा को छोड़
"माया" के संग गया
कुर्सी का मोह
(2)
"मोह" ने लिखी
युद्ध की पटकथा
महाभारत
(3)
प्राणों का "मोह"
अटकी रही साँसे
तन बिछोह
(4)
तराजू फेंक
मोह ने किया सौदा
रूठा विवेक
(5)
"मोह" के घर
भेदभाव भी आया
लड़ाई लाया
स्वरचित
ऋतुराज दवे
(1)
सेवा को छोड़
"माया" के संग गया
कुर्सी का मोह
(2)
"मोह" ने लिखी
युद्ध की पटकथा
महाभारत
(3)
प्राणों का "मोह"
अटकी रही साँसे
तन बिछोह
(4)
तराजू फेंक
मोह ने किया सौदा
रूठा विवेक
(5)
"मोह" के घर
भेदभाव भी आया
लड़ाई लाया
स्वरचित
ऋतुराज दवे
विषय मोह
वर्ण पिरामीड
है
जग
झंझट
मोह माया
नश्वर काया
फंसता मानव
आचरण दानव
है
मोह
जंजाल
विकराल
जीवनकाल
मानव अटका
सद्मार्ग से भटका
स्वरचित मुकेश राठौड़
वर्ण पिरामीड
है
जग
झंझट
मोह माया
नश्वर काया
फंसता मानव
आचरण दानव
है
मोह
जंजाल
विकराल
जीवनकाल
मानव अटका
सद्मार्ग से भटका
स्वरचित मुकेश राठौड़
"मोह"
(सौजन्य पौराणिक ग्रंथ)
माया की नगरी में
महामुनि भी
मोह से ग्रसित हुए
श्रीमती से विवाह की
लालसा लिए
विष्णु से हरिरुप का
वरदान माँग लिए
अपने रुप का
अहंकार लिए
स्वयंबर मे पहूँचे
हरि का वानर रुप लिए
अपमानित हो
वहाँ से चल दिए
देख जल में
अपना प्रतिबिंब
विष्णु को अभिशाप दिए
हरि समक्ष तत्काल पहूँचे
विष्णु से सवाल किये
शांतमुद्रा से नारायण ने
उनके जवाब दिए
"मोहभंग" हूआ जब नारद का
मन में क्षोभ भरे
तत्काल विष्णु चरण में पड़े
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
(सौजन्य पौराणिक ग्रंथ)
माया की नगरी में
महामुनि भी
मोह से ग्रसित हुए
श्रीमती से विवाह की
लालसा लिए
विष्णु से हरिरुप का
वरदान माँग लिए
अपने रुप का
अहंकार लिए
स्वयंबर मे पहूँचे
हरि का वानर रुप लिए
अपमानित हो
वहाँ से चल दिए
देख जल में
अपना प्रतिबिंब
विष्णु को अभिशाप दिए
हरि समक्ष तत्काल पहूँचे
विष्णु से सवाल किये
शांतमुद्रा से नारायण ने
उनके जवाब दिए
"मोहभंग" हूआ जब नारद का
मन में क्षोभ भरे
तत्काल विष्णु चरण में पड़े
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
1)नभ अंजुलि
रवि मोह परम
सिन्दूरी सन्ध्या।
2)तज दे मोह
जीवन उपवन
मृग कस्तूरी।
3)पंच विकार
जीवन रणक्षेत्र
मोह आधार ।
4)मोहित जग
खन खन सुनता
कर शोभित।
5)मोह जीवन
माया सह गमनी
क्षणभंगुर।
6)कोख उजाड़े
बेटियाँ अभिशाप
पुत्र का मोह।
7)मोह सरिता
शिशु खिलखिलाये
माँ स्पर्श पाये।
स्वरचित
गीता गुप्ता 'मन'
हमें नाच नचावै है नट नागर, यह संसार मोह का सागर ,
नाचे है तन,मन नाच नचावै, शीश धरी है मोह की गागर,
यहाँ उबर न पाये ज्ञानी ध्यानी, बात है ये जानी पहचानी,
धाक मोह ने खूब जमाई , यह कर्म गति जग में कहलाई,
बेटी बेटा पिता और माता, सब रिश्तों का मोह विधाता ,
मित्र पडोसी कुटुंब कबीला, ये सब कुछ मोह का खेला,
लालच लोभ जैसा अवगुण,भेजा हुआ है मोह का चेला ,
बन जाता जब मित्र मोह , तब सत्कर्म कराता हमसे ,
दुश्मन बन जाता जब मोह, पापी भी बना देता हमको ,
जब मोह ज्ञान से हो जाता , तब विकास की राह दिखाता ,
जबमोह देश से हो जाता , देश भक्ति का जज्वा बढता,
ईश्वर से मोह जब हो जाता , मुक्ति का मार्ग खुल जाता ,
जब मोह शक्ति बन जाता है, मानव को राह दिखाता है ,
राष्ट्र समाज रिश्तों के लिए, वरदान मोह बन जाता है,
होता सदुपयोग मोह का जब, संजीवनी ये बन जाता है,
जीवन जीने की लालसा को, अमरत्व यही दे जाता है |
स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,
विधा=हाइकु
🌹🌹🌹🌹🌹🌹
छूटे ना प्राण
यम भी परेशान
धन का मोह
🌹🌹🌹
कैसा है जग
भ्रूण में बेटी हत्या
बेटे का मोह
🌹🌹🌹
छला ही जाता
राजन हो या रंक
मोह का डंक
🌹🌹🌹
संतान मोह
परखनली शिशु
खुशियाँ लाया
🌹🌹🌹
बचा न कोई
ईश्वर व इंसान
मोह का जाल
🌹🌹🌹
मुझे भी मोह
आपकी प्रतिक्रिया
उर्जा का स्रोत
🌹🌹🌹
स्वरचित
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश
🌹🌹🌹🌹🌹🌹
छूटे ना प्राण
यम भी परेशान
धन का मोह
🌹🌹🌹
कैसा है जग
भ्रूण में बेटी हत्या
बेटे का मोह
🌹🌹🌹
छला ही जाता
राजन हो या रंक
मोह का डंक
🌹🌹🌹
संतान मोह
परखनली शिशु
खुशियाँ लाया
🌹🌹🌹
बचा न कोई
ईश्वर व इंसान
मोह का जाल
🌹🌹🌹
मुझे भी मोह
आपकी प्रतिक्रिया
उर्जा का स्रोत
🌹🌹🌹
स्वरचित
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश
जीवन सरिता गति विलोम में,
नित बहती जरा अवस्था में,
किंचित अतीव सा मोह प्राण प्रति,
जीवन पर्यन्त मनुज मन में।
जीव चराचर की आसक्ति,
माया प्रति ब्रह्माण्ड सकल में,
आकर्षण का जाल सघन अति,
बसुधा -तल के कण-कण में।
प्रेम-भाव आधार मूल शुचि,
बीज-स्वरूप मोह अति सूक्ष्म,
प्रत्येक जीव में भाव प्रमुखता,
आसक्ति विषयान्तर शुचि से।
परमशक्ति के प्रति यदि किंचित,
मोह हृदय में पल जाए,
अवतरण धरा पर हो सार्थक,
मानव ईश्वर में मिल जाए।
--स्वरचित--
(अरुण)
नित बहती जरा अवस्था में,
किंचित अतीव सा मोह प्राण प्रति,
जीवन पर्यन्त मनुज मन में।
जीव चराचर की आसक्ति,
माया प्रति ब्रह्माण्ड सकल में,
आकर्षण का जाल सघन अति,
बसुधा -तल के कण-कण में।
प्रेम-भाव आधार मूल शुचि,
बीज-स्वरूप मोह अति सूक्ष्म,
प्रत्येक जीव में भाव प्रमुखता,
आसक्ति विषयान्तर शुचि से।
परमशक्ति के प्रति यदि किंचित,
मोह हृदय में पल जाए,
अवतरण धरा पर हो सार्थक,
मानव ईश्वर में मिल जाए।
--स्वरचित--
(अरुण)
रंगबिरंगे मोह धागों से
रब जीवन वितान तना है
मन आकर्षण मोह बंध में
पूरा विश्व आज सना है
मोह अर्थ सिर्फ मेरा होता
पर,ऐसा तो होता नहीं है
पुत्र मोह दशरथ ने पाला
जो मुक्ति का मार्ग नहीं है
माया ममता मोह के पीछे
मरु मरीचिका बनकर भागे
संघर्षों से सदा जूझ कर
दया स्नेह हृदय नर त्यागे
मोह काया कन्चन पीछे
कर्तव्य जग भूल गया है
अति मोह सदा दुखदायी
जीवन खुद नष्ट किया है
स्वर्ग दिलाता सकारात्मकता
नरक दिलाता नकारात्मकता
रंगमंच के पात्र जग जीवन मे
नायक भी खलनायक कहा ता
मोह आत्मा का बंधन है
कँही क्रंदन कही चंदन है
भक्ति सागर में जो तेरा है
करे सदा प्रभु का वन्दन है।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
रब जीवन वितान तना है
मन आकर्षण मोह बंध में
पूरा विश्व आज सना है
मोह अर्थ सिर्फ मेरा होता
पर,ऐसा तो होता नहीं है
पुत्र मोह दशरथ ने पाला
जो मुक्ति का मार्ग नहीं है
माया ममता मोह के पीछे
मरु मरीचिका बनकर भागे
संघर्षों से सदा जूझ कर
दया स्नेह हृदय नर त्यागे
मोह काया कन्चन पीछे
कर्तव्य जग भूल गया है
अति मोह सदा दुखदायी
जीवन खुद नष्ट किया है
स्वर्ग दिलाता सकारात्मकता
नरक दिलाता नकारात्मकता
रंगमंच के पात्र जग जीवन मे
नायक भी खलनायक कहा ता
मोह आत्मा का बंधन है
कँही क्रंदन कही चंदन है
भक्ति सागर में जो तेरा है
करे सदा प्रभु का वन्दन है।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
तक तक तेरी ओर सांवरे,
मे बावरी बोरा गई,
भीगे अंगिया, काजल लब पे,
अंखियों से रिमझिम झड़ी लगी,
इक जोड़ी नैना तेरे ने,
मोह पाश में ऐसा बांधा...
भूली सुधबुध, रूप मनोहर,
ओ मुरली वाले,
एक और मीरा दीवानी हुई।
कजरी आंखों,नीले मोरपंख,
जादू मुझ पर यूँ डाला,
जन्म जन्म तुझको चाहूँ,
छोड़ मोह माया का,
जोगन तेरी बन जाऊ।
कर जोड़े करूं यह विनती,
नैया सागर पार लगाना !
लेकर शरण नीलम को
मझधार न छोड़ जाना।
नीलम तोलानी
स्वरचित
मूक शब्द,सांसे स्तब्ध,शिथिल काया,
चला नए सफर को,नई डगर को,
बंधन खींचें, मोह जकड़े,
बनके जड़े मजबूती से पकड़े,
काल चक्र बडा विषम,
सब पर लागू कुदरत का नियम,
कल था जो शुरू आज खत्म,
शून्य की ओर बढ़ते कदम,
खूब जिया अब मोह से निकल,
सत्य की और दृढ़ हो चल,
था जो भी सफल आज सब वो विफल,
मौत हमेशा से रही है अटल,
हंसते-हंसते कर तैयारी,
कर्मों के लेखे जोखे कि अब बारी,
क्या कमाया कैसे कमाया
पुण्य पाप का होगा बकाया
परमात्मा से मिलन को,
तड़प रही आत्मा प्यारी,
मौका मनुष्य जन्म का मुश्किल,
अब मिलन में मत कर देरी।
मिष्ठी अरुण
अमृतसर पंजाब
विषय -मोह
1
मृत मधुप
वैतरणी क्यों मौन
मोह मृणाल
2
साधना पथ
चलना कठिनाई
मोह की काई
3
दौलत मोह
चरित्र का पतन
करो जतन
4
मोह महल
दुख लगाए सेंध
सुख की चोरी
5
वैरागी मन
जग से मोह नहीं
मिले मोहन
6
मोह की नदी
मझधार टूटी नाव
बहा ले गई
(स्वरचित )सुलोचना सिंह
भिलाई (दुर्ग )
1
मृत मधुप
वैतरणी क्यों मौन
मोह मृणाल
2
साधना पथ
चलना कठिनाई
मोह की काई
3
दौलत मोह
चरित्र का पतन
करो जतन
4
मोह महल
दुख लगाए सेंध
सुख की चोरी
5
वैरागी मन
जग से मोह नहीं
मिले मोहन
6
मोह की नदी
मझधार टूटी नाव
बहा ले गई
(स्वरचित )सुलोचना सिंह
भिलाई (दुर्ग )
मोह(छंदमुक्त)
मोह के हजारों रूप...
बदलता हर रोज स्वरूप...
मन पर मोहमय एक उन्माद की छाया...
वशीभूत होती मानव-काया...
मोह की माया से कोई बच न पाया।
मोह का होना है जरूरी...
अनुचित मोहभंग भी जरूरी...
परन्तु यूँ हीं नहीं होता मोहभंग!
नहीं! यूँ हीं नहीं होता कोई गौतम-बुद्ध...
यूँ हीं नहीं होती किसी की आत्मा-शुद्ध...
यूँ हीं नहीं होता प्राप्त ज्ञान...
सहज नहीं! यधोधरा के दर्द का भान...
निर्मोही वो!जिसका हो जाता है मोहभंग...
फिर कहाँ छू पाता है उसे कोई भी रंग...
जीने की इच्छा हीं तो होती है मोह!
इच्छाशक्ति की अभिव्यक्ति है मोह!
आकांक्षा पूर्ण करने की युक्ति है मोह!
लाख कह लो चाहे मोह को मिथ्या...
पर मोहभंग हीं कराता आत्महत्या ।
जब तक जिस्म में है जान,
इंसान है सिर्फ इंसान...
नहीं वह भगवान!
फिर कैसे हो आत्मा महान...?
कैसे मोहभंग इच्छाओं से...?
मोहभंग आकांक्षाओं से...?
क्या मोह को समझना खुद को मिटाना नहीं...?
क्या नहीं यह उदासीकरण...?
युवा पीढ़ी अपने लिए सुख सुविधा जुटाती...
आज बच्चों की जिम्मेदारी से कतराती...
ऐसा मोहभंग व्यर्थ...
जो न माँ-बाप बनना चाहे,
न माता-पिता की सेवा को हो समर्थ...
स्वरचित "पथिक रचना"
मोह के हजारों रूप...
बदलता हर रोज स्वरूप...
मन पर मोहमय एक उन्माद की छाया...
वशीभूत होती मानव-काया...
मोह की माया से कोई बच न पाया।
मोह का होना है जरूरी...
अनुचित मोहभंग भी जरूरी...
परन्तु यूँ हीं नहीं होता मोहभंग!
नहीं! यूँ हीं नहीं होता कोई गौतम-बुद्ध...
यूँ हीं नहीं होती किसी की आत्मा-शुद्ध...
यूँ हीं नहीं होता प्राप्त ज्ञान...
सहज नहीं! यधोधरा के दर्द का भान...
निर्मोही वो!जिसका हो जाता है मोहभंग...
फिर कहाँ छू पाता है उसे कोई भी रंग...
जीने की इच्छा हीं तो होती है मोह!
इच्छाशक्ति की अभिव्यक्ति है मोह!
आकांक्षा पूर्ण करने की युक्ति है मोह!
लाख कह लो चाहे मोह को मिथ्या...
पर मोहभंग हीं कराता आत्महत्या ।
जब तक जिस्म में है जान,
इंसान है सिर्फ इंसान...
नहीं वह भगवान!
फिर कैसे हो आत्मा महान...?
कैसे मोहभंग इच्छाओं से...?
मोहभंग आकांक्षाओं से...?
क्या मोह को समझना खुद को मिटाना नहीं...?
क्या नहीं यह उदासीकरण...?
युवा पीढ़ी अपने लिए सुख सुविधा जुटाती...
आज बच्चों की जिम्मेदारी से कतराती...
ऐसा मोहभंग व्यर्थ...
जो न माँ-बाप बनना चाहे,
न माता-पिता की सेवा को हो समर्थ...
स्वरचित "पथिक रचना"
विधा- छंद मुक्त
मोह पिपासा
मायावी बन्धन
एक जकड़न है मोह
ग्रसता है जीवन
ताउम्र
छूटता न मन से
स्व का मोह
मोह परिवार से
परिजनों से
बच्चों से बूढ़ों से
नही होने देता अलग
धन से मोह
ओर अधिक पाने की इच्छा
अलमारियां बनी वस्त्र भंडार
नित नवीन परिधान का मोह
गहने जेवर से मोह
अपने घर, धरती
और देश से मोह
क्या हम छोड़ पाते हैं
जीवन क्षणभंगुर
पल में छूट जाएगा
सब कुछ
फिर भी आसक्त हैं
खाली हाथ आये थे
खाली हाथ जाना है
फिर क्यों मोह माया में
फँसा ये जमाना है
सरिता गर्ग
स्व रचित
मोह पिपासा
मायावी बन्धन
एक जकड़न है मोह
ग्रसता है जीवन
ताउम्र
छूटता न मन से
स्व का मोह
मोह परिवार से
परिजनों से
बच्चों से बूढ़ों से
नही होने देता अलग
धन से मोह
ओर अधिक पाने की इच्छा
अलमारियां बनी वस्त्र भंडार
नित नवीन परिधान का मोह
गहने जेवर से मोह
अपने घर, धरती
और देश से मोह
क्या हम छोड़ पाते हैं
जीवन क्षणभंगुर
पल में छूट जाएगा
सब कुछ
फिर भी आसक्त हैं
खाली हाथ आये थे
खाली हाथ जाना है
फिर क्यों मोह माया में
फँसा ये जमाना है
सरिता गर्ग
स्व रचित
भजन
"मोह"
कान्हा तुझसे मोह लगाके,
भूली सब तेरे कदमों में आके,
जीवन नैया गोते खाए,
श्याम तू ही अब पार लगाए,
इस जीवन से अब मोह छूटा,
क्यों प्रभू तू मुझसे रूठा,
कान्हा......ओ...... कान्हा,
सुन ले तू पुकार मुरारी,
दे दे दर्श अब गिरधारी,
मोह जीवन का मैंनें तजा है,
तुझ बिन तो जीना भी सजा है,
अब तो तू राह दिखादे,
पथ से काँटे तू हटा दे,
कान्हा.......ओ...... कान्हा,
सुन ले तू पुकार मुरारी,
दे दे दर्श अब गिरधारी।
*******
स्वरचित-रेखा रविदत्त
"मोह"
कान्हा तुझसे मोह लगाके,
भूली सब तेरे कदमों में आके,
जीवन नैया गोते खाए,
श्याम तू ही अब पार लगाए,
इस जीवन से अब मोह छूटा,
क्यों प्रभू तू मुझसे रूठा,
कान्हा......ओ...... कान्हा,
सुन ले तू पुकार मुरारी,
दे दे दर्श अब गिरधारी,
मोह जीवन का मैंनें तजा है,
तुझ बिन तो जीना भी सजा है,
अब तो तू राह दिखादे,
पथ से काँटे तू हटा दे,
कान्हा.......ओ...... कान्हा,
सुन ले तू पुकार मुरारी,
दे दे दर्श अब गिरधारी।
*******
स्वरचित-रेखा रविदत्त
No comments:
Post a Comment