Thursday, January 17

"प्रवाह "17जनवरी2019

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             ब्लॉग संख्या :-271


भाव प्रवाह
मन स्फूर्ति सदा
गूँजती धरा

२)
सत्कर्म बना
ले आकर प्रवाह
सद्गुणों सदा

३)
नदी प्रवाह
कल कल सी ध्वनि
तन निर्मल

४)
श्वेत आँचल
प्रवाह नदी जल
शीतल धार

स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू

विधा .. लघु कविता 
*******************
🍁

मन बाँधो ना सुनो सखी,
तुम भाव को प्रवाह दो।
श्रीकृष्ण अरू राधा को देखो,
तब प्रेम को सराह दो।
🍁

गंगा सी निश्छलता रहे,
निर्मल तेरा सौभाग्य हो।
संगगामिनी मनभावनी,
सीता के जैसा त्याग हो।
🍁

माधुर्य हो वृन्दावनी,
भक्ति मे मीरा नाम हो।
रैदास हो रविदास हो,
भावों मे बस भगवान हो।
🍁

बहे काव्य की मंदाकिनी,
अमृत सी गुरू की बात है।
सुनो शेर की कविता सभी,
मनभावो का प्रवाह है।
🍁

स्वरचित .. Sher Singh Sarraf

किस प्रवाह की बात करें
हर प्रवाह उत्साहित करता
देश भक्ति प्रवाह में भरकर
सैनिक निज शहादत देता
भक्ति प्रवाह में भरकर ही
तुलसी सूर मीरा सद वाणी
अंतःकरण बहा छंद मय
कविता बनी नित कल्याणी
जल प्रवाह आता नद सागर
नैया डोले जल मझधार
तट पर स्थित महानगरों को
करता जल पल तारतार
अनल प्रवाह से कौन बचा
करदेता जग को विध्वंस
आसमान चिंगारी छू कर
करता घर को तहस नहस
पवन प्रवाह के झोंको से
सर्दी में तन कम्पित करता
भीषण गर्मी पवन प्रवाह में
जग हर प्राणी भू पर रोता
ध्वनि प्रवाह में बहकर के
कई अनिष्ठ नर कर लेता
अपनों से ही बन पराया
द्वेष भाव हिय में भर लेता
मात शारदे वरदा सुखदा
कवि प्रवाह काव्य रचता
सहित भाव लेकर रचना में
कल्याणी नित रस भरता।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।


ये जीवन एक नदिया है, 
मन की लहरें उठती इसमें,
बह जाने दो इसके प्रवाह को, 
सुकून दे दो इसके भावों को |

इसकी लहरें तो मनमौजी हैं, 
अपने प्रवाह में बहती हैं, 
कभी उठती कभी गिरती, 
जीवन धारा यूँ ही बहती है |

धारा प्रवाह को मत रोकना, 
रुक गई तो जम जायेगी,
दुष्परिणाम बहुत दिखलायेंगी, 
मन को भारी कर जायेंगी |

कभी बाढ़ का रूप लें लेंगी,
गन्दगी, कीड़ों को जगह दे देंगी,
प्रवाह निरंतरता में गर रहेगा,
सुख-दुःख समय समय पर बीतेगा |

जीवन में प्रवाह हर जगह जरूरी, 
जीवन के लक्ष्यों की पूर्ति होती पूरी, 
जीवन जीने का ये ही मूल मंत्र ,
इसको अपना लो हर एक जन |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*


मन भावों से हो भरा,बहती हो रस धार
कर में पकड़ें लेखनी , रच डालें संसार

चपला बहती तार में ,मत छूना तुम तार
पकड़ेगी चिपकायेगी , पल में देगी मार

रक्त शिराओं में बहे , साँसों में हो जान
धड़कन जिसकी रुक गई,वो मुर्दा इंसान

सरित का धारा प्रवाह, निर्मल पावन धार
गंगा कहलाती वही , है जीवन आधार

बादल बहती चंचला,चमचम चमकी जाय
जिस पर गिरती मेखला,वह फौरन जल जाय

देशभक्ति की भावना , बहे प्रेम की धार
भारत माँ का लाल वो,देता तन मन वार

सरिता गर्ग
स्व रचित

प्रवाह 

प्रवाह है तो 
जीवन है
स्थिर जल 
होता है दूषित 
स्थिर विचार 
होते हैं प्रभावहीन 
और
स्थिर लेखनी 
वंचित करती है
समाज को
मनोरंजन, 
मार्गदर्शन 
देने से

पर्यावरण है शुद्ध
जल वायु के प्रवाह से 
ब्रह्माण्ड चलायमान है
ग्रहों के प्रवाह से

प्रवाह के बिना
निरस है जीवन
जीवनशैली को बनाओ
गतिशील
जीवनसाथी और
बच्चों के साथ गुजारो
उन्मुक्त स्वछन्द 
गतिशील प्रवाहयुक्त
जीवन अपना

स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल

मत रोको तुम, मन में उठती लहरों को,
भाव को प्रवाह दो, शब्द को सराह दो।।
गर रोकोगे इस वेग को,तो भीषण बाढ़ आएगी।

सुकून सारा साथ अपने, ये बहा ले जाएगी।।

मत रोको....

निरन्तर बहना ही है, जीवन होने की निशानी।
थम गये तो, खत्म हो जाएगी तेरी कहानी।।

मत....

बहती रहे भावों की गंगा, अमृत उर में भरती रहे।
शीतल, कोमल, निर्मल,हर हृदय को करती रहे।।
निलम अग्रवाला, खड़कपुर

जब हो अविरल प्रवाह जीवन जन तो बन जाय त्रिवेणी खुशियों की, 

सांसों की सरगम पर हों गुँजिंत लहरें मानव की जीवन नदिया की | 

अपनों के लिये ही जीने से मिल जातीं हैं खुशियाँ जीवन की |

जो जग के लिये जीता जीवन कुछ बात अलग उस जीवन की |

माना कि होती इस जीवन में कुछ अधिक जरूरत ही धन की |

जो भूखे के काम में आ जाये सार्थकता बढ जाती उस धन की |

है ज्ञान पिपासा जग में बहुत कभी भूख मिट पाती नहीं ज्ञानार्जन की |

ज्योतिर्मय जो जग को कर दें यहाँ पर कीमत है उन्ही किताबों की |

इस जग में होती पूँजी अनमोल हमेशा से सत्संग मानव जीवन की 

जो दिशा हीन को दे दे दिशा बहे अविरल धारा उस सत्संग की |

यहाँ धारा प्रवाह वक्ता होना भी होती बडी खोज इस जीवन की |

जो न्याय दिलाये निर्बल पीड़ित को होती कुछ बात उसी ही वक्ता की |

यहाँ सुयश सुर्कीति सम्मान सदा होती है दासी उस मानव की |

संवेदनाऐं प्रवाहित रहतीं जब मन में हर प्राणी के सुख और दुख की |

अनमोल बड़ा जीवन अपना इसे हम ले आयें काम में दुनियाँ की |

हो निर्मल मन जब भी भाव प्रवाह मिल जाती हमें भक्ति ईश्वर की |

हम गतिमान रहें हो मानवता प्रवाह तब बदलेगी सूरत दुनियाँ की |

स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,


थम सी गई थी जिन्दगी रूक गया था प्रवाह
तुमने नजर क्या डाली जीने की जागी चाह ।।

कितने काँटे चुभे हैं मेरे इस दुखते दिल में
पर अब नही करता हूँ उस दर्द की परवाह ।।

फिजूल ही जाया करते हैं लोग मयखाने में 
काश मेरी तरह खुदा उन पर कर दे निगाह ।।

जाती जब जब बिजली लोग देखते हैं तार 
हमें नही पड़ी जरूरत ऐसा प्रवाह अथाह ।।

जब से जुड़े इस दिल के उस दिल से तार
लगी झड़ी गीत ग़ज़लों की लोग करें डाह ।।

मेरा यह प्यार ईमान से लबरेज़ है ''शिवम"
मैं भला क्यों डरूँ नही है यह कोई गुनाह ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 17/01/2018

जन प्रवाह
युग युगांतर से
ये प्राकृतिक।।


जल प्रवाह
जीवनदायी क्रिया
चले दुनिया।।

धन प्रवाह
रोके नही रुकता
चलायमान।।

मन प्रवाह
है जैविक प्रक्रिया
तन विज्ञान।।

साहित्य कोष
प्रवाहित भावांश
ज्ञान के पुंज।।

ज्योति प्रवाह
दृष्यमान संसार
छटता अंध।।

भावुक

विधा=हाइकु 
=========
(1)साहित्य कुंभ 
छलक रहे भाव
धारा प्रवाह 
🌹🌹🌹
(2)ज्ञान प्रकाश 
प्रवाह निरंतर 
संतों की वाणी 
🌹🌹🌹
(3)उम्र सरिता 
निरंतर प्रवाह 
लक्ष्य की ओर
🌹🌹🌹
(4)करे तबाह
लेकर बाढ़ रूप
जल प्रवाह 
🌹🌹🌹
(5)उम्र के फूल
प्रवाह करे हम
वक्त सरिता 
🌹🌹🌹
स्वरचित 
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश

विधा:: हाइकु 

१.
भावातिरेक 
रूह का अभिषेक 
काव्य प्रवाह

२.
कवि स्वभाव 
विचारों का प्रवाह 
बिम्ब निर्वाह 

३.
'भावों के मोती' 
प्रवाह अभ्यंतर 
कवि स्वतंत्र 

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 


मन प्रवाह रूकता नहीं, वेग बडत बिकराल।

जितना इसको रोकते, उतना करे बवाल।

मनमौजी इसकी गति, बहुत प्रचंड प्रवाह।
कैसे इसे काबू करें, चाहें उचित सलाह।

जीवन सरस सरल रहे, यह सिद्धांत हमार।
हो प्रवाहित प्रेमरस,सुखद शील व्यवहार।

सुखी रहें सबजन यहां, नहीं हो कपट क्लेश।
दुख भंजन करते रहें, बृह्मा बिष्णु महेश।

स्वरचितःःः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.


नदी के प्रवाह से नारी गुणोँ को समझने का प्रयास..
.….

अवांछित बंधनो मे जकड़े जाना 
खोता इसका नैसर्गिक रूप
अविरल अविराम प्रवाह नदी का
है स्वच्छ जीवनदायिनी स्वरूप।

पथरीले पथ पर इसका प्रवाह
देता अदम्य जिजीविषा का भाव
अस्तित्व त्याग जा मिले सागर से
सिखाता निस्वार्थ समर्पण का भाव।

नारी तुम भी नदिया जैसी
निर्मल अविकारी अभिलाषी
खो देती अपना स्वरूप जब 
सामाजिक बंधनों में जकड़ी सी ।

तुम चंचल चपला मंगलदायिनी
वर्जनाओं को तोड़ बढती जाओ
कहीं जन्मती कहीं जा गिरती (जन्म से विवाह)
कर्मपथ पर अडिग ,चलती जाओ ।

स्वरचित
अनिता सुधीर श्रीवास्तव
लखनऊ



है प्रवाह भावों का..
ख्वाबों खयालों का..
सरिता सा शब्दकोश..
कलकल नाद उद्गारों का...

भावों के प्रवाह में...
बहने लगी कलम मेरी..
दर्द की हर आहट पर..
कराहने लगी कलम मेरी..

प्रवाह है शब्दों का..
बहने लगी भावनाएं मेरी..
कागज पर उतरती गई..
हर एक संवेदनाएं मेरी..

प्रवाह चंचल मन का..
भटकता रहा वन वन..
ठौर न मिला जिंदगी को..
उजड़ सा गया उपवन..

स्वरचित :- मुकेश राठौड़


ऐ मनु
कुछ तो समझ
क्या है सच
ये धरा चाँद-सितारे देखो
निरन्तर गतिशील
प्रवाहमान रहते
सृष्टि का कल्याण करते
तू भी मत बैठ थक हार कर
निरन्तर प्रवाहमान रहकर
प्राप्त कर मंजिल को 
देख नदी 
रह कर सदा प्रवाहित
बहा ले जाती 
उन अवरोधों को 
जो कोशिश करता है
बाधा बनने की
तू भी नदी सा बन कर
जीवन की कठिनाइयों को
बहाता चल
निरंतर प्रवाहमान रहकर
बादलों सा उठकर
सत्कर्मों की वर्षा से
समाज रूपी धरा सिंचित कर

स्वरचित
बलबीर सिंह वर्मा
रिसालियाखेड़ा सिरसा (हरियाणा


विधा-हाइकु
1
निर्बाध गति
समय का प्रवाह-
जीवन चक्र
2
जल प्रवाह
कल-कल आवाज-
सरिता तट
3
तीव्र गति से
मन का हो प्रवाह-
मस्तिष्क ज्ञान
4
धारा प्रवाह
भाषण मंच पर-
विद्वान सभा
5
वायु प्रवाह
मन है विचलित-
सर्दी की रात

मनीष श्री.
स्वरचित
रायबरेली


विरह,विदग्ध हृदय में करुण प्रदाह
अक्षि-झरनों से झरते तरल प्रवाह
उमड़ घुमड़ पीर अधीर सरल स्राव
छटपट हियपट उत्कट शुचित भाव
कपोल-कल्प अल्प प्रगल्भ पिरोती
गूँथ श्रृंखला में बनते भावों के मोती
चुनते रत्न सुयत्न अलंकरण अथाह
आशय अथोर,अविरल भाव प्रवाह
संयोजन हेतु किंतु हृदय का तपना
शब्द-मनके को हेर फेर कर जपना
सत्कर्म समाहित धर्म सम है रचना
वाच्यार्थ,लक्ष्य सन्निहित या व्यंजना
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित



प्रवाह है निरंतरता,
अनवरत गतिशीलता।
जो अनिवार्य है तत्त्व,
इस सृष्टि चक्र का।
समय के प्रवाह में,
मिटते गए कालखंड,
भोग प्रकृति का दंड।
युग बदलते गए,
इतिहास बनते गए।
संस्कृति प्रवाह बनी,
सभ्यता गवाह बनी।
विचार गढ़ते गए,
परंपरा बनते गए।
समय के साथ जो चले
आदर्श बन कर पले।
थमे जो बने रूढ़ियां,
या बने थे बेड़ियां।
प्रवाह जब भी थमा,
छा गई थी कालिमा।
क्रांति के फिर स्वर उठे,
प्रवाह को गति मिले।
काव्य के प्रवाह में,
छुपी है नवचेतना।
भावों के रसधार में,
निहित है संचेतना।
उम्र के प्रवाह में,
सृष्टि की निहित संरचना।
नदियों के प्रवाह में,
अतिक्रमण जब हुआ।
रौद्र रूप धर सरिता ने,
उसका था विनाश किया।
जीवन का प्रवाह ,
सनातन और शाश्वत है।
रूकता नहीं कभी,
सत्य ये चिरंतन है।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित

्षणिका

समय का प्रवाह
न रुका है
न रुकेगा।
कुत्सित कर्मों ने
प्रवाह में
तेजी ला दी,
काश!
यह प्रवाह रुकता।

(2)
प्रेम प्रवाह,
धरा पर खिलता,
गुलाबी समां।
वर्तमान में,
दौलत की खनखन से,
सजा
रँगीन समां।।
(3)हाइकु
प्रेम प्रवाह
धरा पर खिलता
गुलाबी समां।।

स्वरचित
वीणा शर्मा वशिष्ठ

विधा -पिरामिड

है
नीर
प्रवाह
अविरल
धरा आँचल
धवल निर्मल
प्रगति प्रतिपल।

है
ज्ञान
त्रिवेणी
अविकार
धारा प्रवाह
जीवन निर्वाह
प्रशस्त कर राह।
स्वरचित
गीता गुप्ता 'मन'

"प्रवाह"
1
प्रेम प्रवाह
आलाप व विलाप
मन के भाव
2
पुष्प स्वछंद
प्रवाह मकरंद
पवन मंद
3
बेला,चमेली
प्रवाहित खुशबू
महकी धरा
4
सार्थक कर्म
निरंतर प्रवाह
प्राप्त सुफल
5
ओस की बूँदें
तरुवर प्रवाह
शीतल धरा
6
उज्ज्वल चाँद
प्रवाहित चाँदनी
सुंदर निशा
7
निर्झर धार
सरगम प्रवाह
मन झंकार
8
जीवन कश्ती
चली धारा प्रवाह
मौजों की मस्ती
9
सूर्य किरण
त्वरित विकिरण
उर्जा प्रवाह
10
प्रेरणास्रोत
अन्तर्मन प्रवाह
जागा कर्म
11
भक्ति प्रवाह
है प्रेम सुधा रस
जाग्रत चक्र
12
सुख व दु:ख
कजरारे नयन
अश्रु प्रवाह
13
ध्वनि प्रवाह
वायु समानांतर
तरंग मध्य
14
"भावो के मोती"
साहित्यिक प्रवाह
सृजन धार
15
"भावो के मोती"
साहित्यिक सरिता
प्रवाहमान

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल

 वक्त के बदल जाने से मेरे अपने बदल गये 
एक पल में मुझसे बहुत दूर चले गये
बहुत दिखाते थे मुझसे अपनापन 

वक्त की प्रवाह में रेत की तरह ढह गये.

वक्त का का ये कैसा हैं फेर 
हर कोई मुझसे हो गया दूर 
वक्त के प्रवाह में मेरा सब कुछ हो ढेर 
फिर भी खड़ी हूँ मन में लिये उम्मीदों का भोर .

ये वक्त का प्रवाह ही था जब हर कठिन डगर मुस्कराते हुये को पार कर लेते थे 
अब तो घर से बहार निकलते ही डर जाते हैं 
अब तो ऐसा लगता हैं वक्त का प्रवाह बदल गया हैं 
हर इन्सान एक अलग राह चला हैं .
स्वरचित:- रीता बिष्ट



विषय--प्रवाह
क्षणिका

प्रवाह तेज पानी का
गौरव वाणी का प्रवाह से
प्रवाह खत्म
जीवन का सार

प्रवाह युक्त जीवन
सरस सरल उपवन
प्रवाह विहीन
मृत प्रायः 
(अशोक राय वत्स) स्वरचित
जयपुर

जीवन का हस्ताक्षर ,है प्रवाह
हर बात की ही रीढ़, है प्रवाह
बिना इसके, होता नहीं निर्वाह
इसी में हर बात, की है थाह।

नदी का प्रवाह, खुशहाली लाता
खेतों में सरसों की, उजियाली लाता
पर्यटन में, चमकती लाली लाता
सबके लिए गेहूँ जौ की, बाली लाता।

रुपये का प्रवाह ,अभाव मिटाता
सबके घर ,समृद्धि लाता
गरीबी को, दूर भगाता
सबके चेहरे पर ,रौनक लाता।

ज्ञान का प्रवाह, है सबका मूल
जीवन के यहीं से ,खिलते फूल
कई पीडायें इनसे, होतीं निर्मूल
अध्यात्म सरिता के, ये देते कूल।

साँसों के प्रवाह में ,जीवन है
इच्छाओं में ,मचलता मन है
बहारों में उमड़ता, जन जन है
सुगन्ध सबको लुटाता, उपवन है।

प्रवाह अवरुद्ध ,घोर निराशा
प्रवाह अवरुद्ध ,मरती अभिलाषा
प्रवाह अवरुद्ध ,विनाशीय आशा
प्रवाह अवरुद्ध,विघटित परिभाषा।

शाश्वत गतिमयता मे जीवन,
ठहराव प्रतीक शुचि जीवनान्त,
ऊर्जा प्रवाह ब्रह्माण्ड परिधि में,
परमशक्ति का अंश प्रशान्त।

अति शुद्ध समीर प्रवाह.धरा पर,
स्वाँसों की गति को देता बल,
किंचित अभाववश प्राणवायु के,
निर्जीव चारु यह भौतिक देह।

प्रवाहमान जलधारा अवनितल,
शुचित सदैव पावन अतिशय,
ठहरा हुआ नीर बसुधा पर,
पूर्ण अशुद्ध असीम प्रदूषित।

विचार प्रवाह मनस अन्तर्गत,
होते यदि सदभावों से शुचि प्रेरित,
हो जाता मानव भूतल पर,
काल अल्प अति मे महामानव।
--स्वरचित--
(अरुण)

"प्रवाह" 
(1)
ले गया उम्र 
समय का प्रवाह 
पकड़े हाथ 
(2)
हालात वही 
वादों के प्रवाह में 
जनता बही 
(3)
रंक तबाह 
नीतियों ने मोड़ा है 
धन प्रवाह 
(4)
मन के तट 
चेतना का प्रवाह 
उठते भाव 
(5)
पूनम रात्रि 
चाँदनी प्रवाह में 
धरा नहाती 

स्वरचित 
ऋतुराज दवे


🙏 एक बहती नदी हूँ मैं

एक बहती नदी हूँ मैं,
मुझे बस बढ़ते जाना है ।
कि भूधर से उतर कर के, 
धरा मुझ को सजाना है ॥

मैं पर्वत से चली जब थी,
मुझे नीचे उतरना था ।
फिसल कर भी न घबराई,
मेरा वह रूप झरना था ।
गिरि* से मैं गिरी* फिर भी,
मुखर मेरा तराना है ।
एक बहती नदी हूँ मैं,
मुझे बस बढ़ते जाना है ॥1॥

मेरा झुकना मेरा रुकना, 
मेरा मुड़ना मेरा बढ़ना ।
मेरा हर रूप प्रेरक है,
कवि ने काव्य में वरणा ।
रुकावट के हर कंकर को, 
मुझे शंकर बनाना है ।
एक बहती नदी हूँ मैं,
मुझे बस बढ़ते जाना है ॥2॥

बुझाई प्यास प्राणी की,
धरा की चूनर धानी की ।
कहीं लहराती शाली* है,
कहीं रंग जाफ़रानी की ।
फसल से ही सफल धरती,
पे जगजीवन सुहाना है ॥3॥
एक बहती नदी हूं मैं,
मुझे बस बढ़ते जाना है ।

जनम से ही मैं तन्मयता,
से अपने काम में रत हूँ ।
तभी तो छोटी होकर भी,
समंदर की जरूरत हूँ ।
समंदर के उदर में भी,
मेरे दम से खजाना है ।
एक बहती नदी हूँ मैं, 
मुझे बस बढ़ते जाना है ॥4॥

सहज ना था मगर फिर भी,
सहेजे सीप में मोती ।
चुनौती देख जीवन की,
न धीरज खोकर मैं रोती ।
मेरी हिम्मत को झुक झुक के,
नमन करता जमाना है ।
एक बहती नदी हूँ मैं,
मुझे बस बढ़ते जाना है ॥5॥

मैं मुश्किल से लड़ी ऐसे,
अमर मेरा फसाना है ।
एक बहती नदी हूँ मैं,
मुझे बस बढ़ते जाना है ।
कि भूधर से उतर कर के,
धरा मुझ को सजाना है ॥

स्वरचित एवं मौलिक रचना 
©®🙏
-अंजुमन मंसूरी 'आरज़ू' 
छिंदवाड़ा म•प्र•

_____________________________
शब्दकोष :-
*गिरि = पर्वत 
*गिरी = गिरना
*शाली = शालपर्णी,मेथी 
*जाफरानी = केसरिया

शीर्षक - प्रवाह
सु
जन
विचार 
प्रवाह का
पड़ता सदा
अद्भुत प्रभाव
मानव मन पर ।।
जो
श्वास 
प्रवाह
प्रदाता है
जीवनदाता
वह परब्रह्म 
परमेश्वर ही है।। 
जो
जल
प्रवाह
नदियों का 
है अविच्छिन्न
निर्मल पावन
तारक उद्धारक।। 
है
वायु 
प्रवाह 
प्रवाहित 
तन मन में 
औ उपवन में 
शीत मन्द सुगन्ध।।

------------------------
भावों के प्रवाह को
बनकर कविता बहने दो
शब्दों के सुंदर संसार में
सपनों को जीने दो

यह ऐसा संसार है
जिसमें रंग हजार है
जो काम न हथियारों से होता
वो करती कलम की धार है

मत रोको बहने दो
भावों के सुंदर झरने को
सरगम सा यह गीत बने
सजनी की इसमें प्रीत जगे

आओ हम सब मिलकर
इसके प्रवाह में बह जाएं
भावों के सुंदर मोती से
सपनों का सुंदर हार बनाएं
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित रचना

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