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ब्लॉग संख्या :-261
भावों के मोती-परिवार
भावों के मोती का अद्भुत परिवार
सर्जन व साहित्य साधनामय संसार
वयोवृद्ध पितामह लाम्बाजी,व्यासजी
दाहिमाजी संग सर्व बुजुर्ग अधिवासी
छेड़कर, नित प्रवीणा वीणा की तान
पुलकित पूर्णिमा लिए नवल विहान
सतत सज्जित सरगम पूरित संगीता
अग्रजा रागिनी,नीलिमा परम पुनीता
श्रेष्ठ भजन लिए ज्येष्ठ शम्भू परमेश
मुक्त प्रवाह दूनौरिया संग शेर मुकेश
पन्त अनंत लेखन बहु भावविभूषित
चन्दर-चरण,तम हरण,पद्य-परिष्कृत
वर्ण गणन,भाव मनन माहिर ऋतुराज
उत्प्रेरण,नवप्रवर्तन का करते आगाज़
काव्य-सरिता झर-झर,हृदय हरिशंकर
मन की अभिलाषा, रचना करे निरन्तर
भज गोविंद,करते आरती व आराधना
सकल गुणीजन करते निःस्वार्थ साधना
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
भावों के मोती का अद्भुत परिवार
सर्जन व साहित्य साधनामय संसार
वयोवृद्ध पितामह लाम्बाजी,व्यासजी
दाहिमाजी संग सर्व बुजुर्ग अधिवासी
छेड़कर, नित प्रवीणा वीणा की तान
पुलकित पूर्णिमा लिए नवल विहान
सतत सज्जित सरगम पूरित संगीता
अग्रजा रागिनी,नीलिमा परम पुनीता
श्रेष्ठ भजन लिए ज्येष्ठ शम्भू परमेश
मुक्त प्रवाह दूनौरिया संग शेर मुकेश
पन्त अनंत लेखन बहु भावविभूषित
चन्दर-चरण,तम हरण,पद्य-परिष्कृत
वर्ण गणन,भाव मनन माहिर ऋतुराज
उत्प्रेरण,नवप्रवर्तन का करते आगाज़
काव्य-सरिता झर-झर,हृदय हरिशंकर
मन की अभिलाषा, रचना करे निरन्तर
भज गोविंद,करते आरती व आराधना
सकल गुणीजन करते निःस्वार्थ साधना
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
शीर्षक ''पाश्चचात्य की हवा"
अदबी जमाना अब खतम है
पाश्चात्य का हुआ सितम है ।।
हाय हाय बाय बाय छा गई
नमन वन्दन में अब शरम है ।।
किसे कौन समझाये सब में बहम है
बेटा बाप को दे अब ज्ञान के मरम है ।।
हालात दिन न दिन बिगड़ते ही जायें
रोज ही बने अब नये पंथ नये धरम हैं
जमाना अब बड़ा संजीदा हो गया है
जमाना अब ''शिवम" फीका हो गया है ।।
हर पाश्चात्य की हवा ही मानो जैसे कि
हर रोग की दवा या टीका हो गया है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
अदबी जमाना अब खतम है
पाश्चात्य का हुआ सितम है ।।
हाय हाय बाय बाय छा गई
नमन वन्दन में अब शरम है ।।
किसे कौन समझाये सब में बहम है
बेटा बाप को दे अब ज्ञान के मरम है ।।
हालात दिन न दिन बिगड़ते ही जायें
रोज ही बने अब नये पंथ नये धरम हैं
जमाना अब बड़ा संजीदा हो गया है
जमाना अब ''शिवम" फीका हो गया है ।।
हर पाश्चात्य की हवा ही मानो जैसे कि
हर रोग की दवा या टीका हो गया है ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
मन हार गया
तो जग रूठ गया
मन जीत गया
तो जग जीत लिया
मन घूम रहा
तो जग घूम लिया
मन भर गया
तो जग भर लिया
मन ऊंब गया
तो जग ऊंब गया
मन से देख लिया
तो जग देख लिया
स्वरचित एस डी शर्मा
तो जग रूठ गया
मन जीत गया
तो जग जीत लिया
मन घूम रहा
तो जग घूम लिया
मन भर गया
तो जग भर लिया
मन ऊंब गया
तो जग ऊंब गया
मन से देख लिया
तो जग देख लिया
स्वरचित एस डी शर्मा
आज का शीर्षक-स्वतंत्र विषय लेखन
तराना
🌹🌹🌹🌹
प्यार के उजाले में गीत गुनगुनाना है ।
ज़िन्दगी तराना थी ज़िन्दगी तराना है।
फिर मुझे पुकारा है आर्ज़ूू की मंज़िल ने
ज़िन्दगी से मिलने का फैसला किया दिल ने
बे खुदी के आलम में ख़ुद को भूल जाना है।।1।।
दिल का उनकी यादों से क्या हसीन नाता है
प्यार इक फ़रिश्ता है जो क़रीब लाता है
प्यार के उसूलों पर प्यार को निभाना है।।2 ।।
भींगा भींगा मौसम है ओद की फ़ज़ाओं का
मस्त मस्त आलम है सनसनी हवाओं का
आज उनकी आँखों की झील में नहाना है।।3 ।।
ज़िन्दगी के सफ़हों पर दास्ताँ हसीं लिख दें
दिल के गोशे गोशे में नक्श महज़वीं रख दें
राज़ेदिल न खुल जाए इस तरह छुपाना है।।4 ।।
स्वरचित-R.s.DAUNERIA
तराना
🌹🌹🌹🌹
प्यार के उजाले में गीत गुनगुनाना है ।
ज़िन्दगी तराना थी ज़िन्दगी तराना है।
फिर मुझे पुकारा है आर्ज़ूू की मंज़िल ने
ज़िन्दगी से मिलने का फैसला किया दिल ने
बे खुदी के आलम में ख़ुद को भूल जाना है।।1।।
दिल का उनकी यादों से क्या हसीन नाता है
प्यार इक फ़रिश्ता है जो क़रीब लाता है
प्यार के उसूलों पर प्यार को निभाना है।।2 ।।
भींगा भींगा मौसम है ओद की फ़ज़ाओं का
मस्त मस्त आलम है सनसनी हवाओं का
आज उनकी आँखों की झील में नहाना है।।3 ।।
ज़िन्दगी के सफ़हों पर दास्ताँ हसीं लिख दें
दिल के गोशे गोशे में नक्श महज़वीं रख दें
राज़ेदिल न खुल जाए इस तरह छुपाना है।।4 ।।
स्वरचित-R.s.DAUNERIA
**कविता **
भाव अर्चना
धड़कन कविता
साहित्य राग |
भाव के मोती
मन है समंदर
कविता माला |
आवाज ताली
मन मयूर झूमा
कविता प्यार |
नयी रोशनी
होता कर्तव्य बोध
कविता दिया |
लेखन कला
अदुभुत व्यक्तित्व
कविता नाम |
भाव अर्चना
धड़कन कविता
साहित्य राग |
भाव के मोती
मन है समंदर
कविता माला |
आवाज ताली
मन मयूर झूमा
कविता प्यार |
नयी रोशनी
होता कर्तव्य बोध
कविता दिया |
लेखन कला
अदुभुत व्यक्तित्व
कविता नाम |
वक्त
वक्त,वक्त की बात है।
तुम सब जानते हो।
पर वक्त से पहले कुछ, ईश्वर से क्यूँ मागते हो।
करो खूब मेहनत।
मन लगाकर करो काम।
दिन भर व्यस्त रहना।
नहीं करना आराम।
फिर मिलेगा फल मनचाहा।
जो तुम चाहते हो।
पर वक्त................
हुये वही सफल।
जो किये कठिन श्रम।
अनेकों हैं उदाहरण।
फिर तुम्हें क्यूँ है भ्रम।
तुम भी क्यूँ नहीं।
इतिहास रचते हो।
पर वक्त................
सीढियाँ चढ़ते रहो।
ना गिनती करो।
गिर,गिरकर फिर तुम।
सम्भलते रहो।
सफलता मिलेगी फिर तुम्हें।
ज्यादा क्यूँ सोचते हो।
पर वक्त.................
वक्त,वक्त की बात है।
तुम सब जानते हो।
पर वक्त................
💐💐💐💐💐💐
स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
वक्त,वक्त की बात है।
तुम सब जानते हो।
पर वक्त से पहले कुछ, ईश्वर से क्यूँ मागते हो।
करो खूब मेहनत।
मन लगाकर करो काम।
दिन भर व्यस्त रहना।
नहीं करना आराम।
फिर मिलेगा फल मनचाहा।
जो तुम चाहते हो।
पर वक्त................
हुये वही सफल।
जो किये कठिन श्रम।
अनेकों हैं उदाहरण।
फिर तुम्हें क्यूँ है भ्रम।
तुम भी क्यूँ नहीं।
इतिहास रचते हो।
पर वक्त................
सीढियाँ चढ़ते रहो।
ना गिनती करो।
गिर,गिरकर फिर तुम।
सम्भलते रहो।
सफलता मिलेगी फिर तुम्हें।
ज्यादा क्यूँ सोचते हो।
पर वक्त.................
वक्त,वक्त की बात है।
तुम सब जानते हो।
पर वक्त................
💐💐💐💐💐💐
स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
बदलते भाव
**********
रात्री का समय
महानगर का एक सदन
सर्व-सुख-सुविधापूर्ण
पर जन विहीन निर्जन
एक अकेला गृह स्वामी
हाथ लिये मदिरा का गिलास
बज रहा कोई करुण गीत
वो गुनगुनाता रोता जाता
रोता जाता-रोता जाता
और पी लेता एक घूंट तरल
चलता ये कौतुक कुछ देर
फिर सो जाता वह......
फिर भोर में दृश्य बदलता
गृहस्वामी...
हँसता खिलखिलाता
बजता कोई गीत मधुर सा
वो सजता-सँवरता
चल पड़ता निज कर्म पर...
रुकता एक चौराहे के अवरोध पर
एक बालक निरीह सा
देता दस्तक खिड़की पर
नग्न-तन निर्जीव सा
मलिन मुखमण्डल
करता याचना उनसे
बाबूजी-बाबूजी
खिलौने लेलो--खिलौने लेलो
बेचने को बरबस
करता कौतुक अनेक
बताता उसके गुण-दोष
गृहस्वामी हो प्रभावित
होता आतुर लेने को
पूछता कीमत उससे
दस के एक--दस के एक
बाबू जी देखिये न
कितने कुशलता से बने है
ये जहाज मेरे उड़ने को आतुर....
भाव तो थे मन में सहायता के
पर दाम लगे थोड़े ज्यादा.....
कितनी अस्थायी है,
मनुष्य की भावना
जो दया भी मोल कर करता है
कल जो रात में अपनो के लिये
रो रहा था फूट-फूट कर
आज एक बच्चे के
सहायता से मुकरता है....
वह खीच लेता है हाथ
करता वह बालक याचना पुनः
गृहस्वामी झेंपकर कहता
क्या करूँगा खिलौने
ले लेता होता यदि पुस्तक कोई
वह बालक होकर निराश
बुदबुदाते आगे बढ़ता
कहाँ से लायूँ किताबें
इसलिये तो बचपन बेचता हूँ
ताकि ले सकूँ अपने लिये किताबें
मैं अपने लिये किताबें
....राकेश पाण्डेय
**********
रात्री का समय
महानगर का एक सदन
सर्व-सुख-सुविधापूर्ण
पर जन विहीन निर्जन
एक अकेला गृह स्वामी
हाथ लिये मदिरा का गिलास
बज रहा कोई करुण गीत
वो गुनगुनाता रोता जाता
रोता जाता-रोता जाता
और पी लेता एक घूंट तरल
चलता ये कौतुक कुछ देर
फिर सो जाता वह......
फिर भोर में दृश्य बदलता
गृहस्वामी...
हँसता खिलखिलाता
बजता कोई गीत मधुर सा
वो सजता-सँवरता
चल पड़ता निज कर्म पर...
रुकता एक चौराहे के अवरोध पर
एक बालक निरीह सा
देता दस्तक खिड़की पर
नग्न-तन निर्जीव सा
मलिन मुखमण्डल
करता याचना उनसे
बाबूजी-बाबूजी
खिलौने लेलो--खिलौने लेलो
बेचने को बरबस
करता कौतुक अनेक
बताता उसके गुण-दोष
गृहस्वामी हो प्रभावित
होता आतुर लेने को
पूछता कीमत उससे
दस के एक--दस के एक
बाबू जी देखिये न
कितने कुशलता से बने है
ये जहाज मेरे उड़ने को आतुर....
भाव तो थे मन में सहायता के
पर दाम लगे थोड़े ज्यादा.....
कितनी अस्थायी है,
मनुष्य की भावना
जो दया भी मोल कर करता है
कल जो रात में अपनो के लिये
रो रहा था फूट-फूट कर
आज एक बच्चे के
सहायता से मुकरता है....
वह खीच लेता है हाथ
करता वह बालक याचना पुनः
गृहस्वामी झेंपकर कहता
क्या करूँगा खिलौने
ले लेता होता यदि पुस्तक कोई
वह बालक होकर निराश
बुदबुदाते आगे बढ़ता
कहाँ से लायूँ किताबें
इसलिये तो बचपन बेचता हूँ
ताकि ले सकूँ अपने लिये किताबें
मैं अपने लिये किताबें
....राकेश पाण्डेय
।। दिन दीनता ।।
दीन, दिन-दिन बढ़ जाते है
धनाढ्य रोज फूल जाते है
देख यह भरावा सरकार का
रोज आँखों से आँसू आते है।
दीनता मिटती नहीं दीन मिट जाते है
आवारा सड़कों पर रोज धक्के खाते है
बेदर्दी ऊपरवाले की नयनो में देखकर
रात्रि दात्री बने, सोच फिर सो जाते है।
मन करता है कम्युनिष्ट बन जाये
जाने कहाँ बापू नज़र आ जाते है
जंग आखिर जंग है इधर है उधर है
देख धर्मयुद्ध में फिर लग जाते है।
भाविक भावी
दीन, दिन-दिन बढ़ जाते है
धनाढ्य रोज फूल जाते है
देख यह भरावा सरकार का
रोज आँखों से आँसू आते है।
दीनता मिटती नहीं दीन मिट जाते है
आवारा सड़कों पर रोज धक्के खाते है
बेदर्दी ऊपरवाले की नयनो में देखकर
रात्रि दात्री बने, सोच फिर सो जाते है।
मन करता है कम्युनिष्ट बन जाये
जाने कहाँ बापू नज़र आ जाते है
जंग आखिर जंग है इधर है उधर है
देख धर्मयुद्ध में फिर लग जाते है।
भाविक भावी
* यादें और कविता *
००००००००००००
जब पास नहीं होती हो तुम,
वह निकट मेरे आ जाती है।
तुम दिल खाली कर देती हो,
यह खाली दिल भर देती है।
तुम दूर चली जाती हो जब ,
यह निकट मेरे आ जाती है।
तुम रूठी - रूठी रहती हो ,
यह मुझे लुभाती रहती है ।
तुम मुझे प्रेरणा देती हो ,
यह मेरी प्रेरक बन जाती है।
तब याद नहीं आती हो तुम,
यह याद मेरी बन जाती है।
तुम हो,यादों की रची प्रेमिका,
यह पक्की यादों की है-कविता।
( मेरे कविता संग्रह "अनुगूँज" से)
डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी, गुना(म.प्र.)
स्वतन्त्र विषय
एक पुरानी कविता
*बेबस गरीब*
गरीब आदमी तो बेबस है
बस नारा खायेगा
जो गरीबों का कर्णधार,
वो चारा खायेगा
खेल,रेल,कोयला अभिशापम
कहीं टॉपर, तो कहीं व्यापम
मंदिर,मस्जिद और देवालय
खानेवाले, खा गए शौचालय
हुआ है बंटाधार, आधार,
अब क्या वो बेचारा खायेगा?
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
एक पुरानी कविता
*बेबस गरीब*
गरीब आदमी तो बेबस है
बस नारा खायेगा
जो गरीबों का कर्णधार,
वो चारा खायेगा
खेल,रेल,कोयला अभिशापम
कहीं टॉपर, तो कहीं व्यापम
मंदिर,मस्जिद और देवालय
खानेवाले, खा गए शौचालय
हुआ है बंटाधार, आधार,
अब क्या वो बेचारा खायेगा?
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
तदबीर से तकदीर की लकीरें पोंछ डाली है ,
वाह री किस्मत तू ही मेरी जन्नत का माली है।
हाथ की इन लकिरों में आबे हयात की सूरत,
ऐ सनम दिल में तेरी सीरत ही हमने पाली है।
ख्वाबों खयालों मे ही डूबे रहे यूं शामों सहर,
गम की खामोश डगर नींड बियाबां सी खाली है।
प्यार की खुश्क जमीं अश्कों के बाँधों से सींची,
सौंधी खुशबू खुमारी फर्श से अर्श तक उछाली है ।
है यकीं मुझको मेरे वादा ऐ वफा नूर ऐ जमाली,
दिल की सरगम को सुरमयि रागिनी में ढाली है।
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
🌺 स्वरचित:-रागिनी नरेंद्र शास्त्री 🌺
वाह री किस्मत तू ही मेरी जन्नत का माली है।
हाथ की इन लकिरों में आबे हयात की सूरत,
ऐ सनम दिल में तेरी सीरत ही हमने पाली है।
ख्वाबों खयालों मे ही डूबे रहे यूं शामों सहर,
गम की खामोश डगर नींड बियाबां सी खाली है।
प्यार की खुश्क जमीं अश्कों के बाँधों से सींची,
सौंधी खुशबू खुमारी फर्श से अर्श तक उछाली है ।
है यकीं मुझको मेरे वादा ऐ वफा नूर ऐ जमाली,
दिल की सरगम को सुरमयि रागिनी में ढाली है।
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
🌺 स्वरचित:-रागिनी नरेंद्र शास्त्री 🌺
जब भी आते हो तुम मुझ तक
मैं एक सहारा पाती हूँ
फिर थाम तुम्हारे हाथों को
कांधे पर सर रख सो जाती हूँ
कितना सुकून तेरी बाहों में
तुम कभी समझ न पाते हो
कल फिर आने का वादा कर
तुम छोड़ मुझे फिर जाते हो
मैं घण्टों बैठी रहती फिर
डूबी सी तेरे ख्यालों में
क्यों इतना मुझे सताते हो
आ जाओ फिर इन बाँहों में
तुम आ कर गले लगा लेना
मैं दुनिया सारी भूलूंगी
मैं भूल भी जाऊँ जग सारा
पर तुमको कभी न भूलूंगी
सरिता गर्ग
स्व रचित
फिर थाम तुम्हारे हाथों को
कांधे पर सर रख सो जाती हूँ
कितना सुकून तेरी बाहों में
तुम कभी समझ न पाते हो
कल फिर आने का वादा कर
तुम छोड़ मुझे फिर जाते हो
मैं घण्टों बैठी रहती फिर
डूबी सी तेरे ख्यालों में
क्यों इतना मुझे सताते हो
आ जाओ फिर इन बाँहों में
तुम आ कर गले लगा लेना
मैं दुनिया सारी भूलूंगी
मैं भूल भी जाऊँ जग सारा
पर तुमको कभी न भूलूंगी
सरिता गर्ग
स्व रचित
(1)जलाओं सब
ज्ञान भरा अलाव
अज्ञान ठंड
🌹🌹🌹🌹
(2)ठंड में लेना
प्रातःकाल में रोज
धूप का सूप
🌹🌹🌹🌹
(3)ठंड की रात
घर का माल साफ
सोते ही रहे
🌹🌹🌹🌹
(4)सह न सका
फूटपाथ का राजा
ठंड की मार
🌹🌹🌹🌹
(5)मूर्ति पे शाल
ठंड ठिठुर रहा
वृद्ध बाहर
🌹🌹🌹🌹
स्वरचित
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश
ज्ञान भरा अलाव
अज्ञान ठंड
🌹🌹🌹🌹
(2)ठंड में लेना
प्रातःकाल में रोज
धूप का सूप
🌹🌹🌹🌹
(3)ठंड की रात
घर का माल साफ
सोते ही रहे
🌹🌹🌹🌹
(4)सह न सका
फूटपाथ का राजा
ठंड की मार
🌹🌹🌹🌹
(5)मूर्ति पे शाल
ठंड ठिठुर रहा
वृद्ध बाहर
🌹🌹🌹🌹
स्वरचित
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश
विद्या : गजल
शब्द : राज ,हमराही ,तड़प ,आवाज़ ,पल दो पल
ना जाने किस किस शहर से आई दुआ ।
सलामत रहूं सदा आसमां पर मेरा खुदा ।।
#राज जिंदगी की राजदार ही रहने दो ,
जिंदगी की राज यें जिंदगी की फलसफ़ा ।
एे मेरे काबिल दोस्त एे मेरे रहनुमा #हमराही ,
शहीद एे इश्क हो जाऊं गर हुआ इश्क में फना ।
#तड़प तो है दुआओं में याद कर लो मुझे ,
वक्त की शिकंजे में किसका सिक्का है चला ।
चलो मर जाते हैं दफन करोगे सीने में ,
#आवाज दो #पल दो पल का हूं मेहमा ।
ख्वाहिशों की फेहरिश्त में एक ख्वाहिश तेरे ,
हर ख्वाहिश में नहीं मिलता मुकम्मल जहां ।
ना जाने किस किस शहर से आई दुआ ।
सलामत रहुं सदा आसमां पर मेरा खुदा ।।
स्वरचित एवं मौलिक
मनोज शाह मानस
सुदर्शन पार्क
मोती नगर नई दिल्ली
शब्द : राज ,हमराही ,तड़प ,आवाज़ ,पल दो पल
ना जाने किस किस शहर से आई दुआ ।
सलामत रहूं सदा आसमां पर मेरा खुदा ।।
#राज जिंदगी की राजदार ही रहने दो ,
जिंदगी की राज यें जिंदगी की फलसफ़ा ।
एे मेरे काबिल दोस्त एे मेरे रहनुमा #हमराही ,
शहीद एे इश्क हो जाऊं गर हुआ इश्क में फना ।
#तड़प तो है दुआओं में याद कर लो मुझे ,
वक्त की शिकंजे में किसका सिक्का है चला ।
चलो मर जाते हैं दफन करोगे सीने में ,
#आवाज दो #पल दो पल का हूं मेहमा ।
ख्वाहिशों की फेहरिश्त में एक ख्वाहिश तेरे ,
हर ख्वाहिश में नहीं मिलता मुकम्मल जहां ।
ना जाने किस किस शहर से आई दुआ ।
सलामत रहुं सदा आसमां पर मेरा खुदा ।।
स्वरचित एवं मौलिक
मनोज शाह मानस
सुदर्शन पार्क
मोती नगर नई दिल्ली
विधा: छंद मुक्त लघुकविता
कान्हा तेरी मुरली का जादू
कान्हा तेरी मुरली का
ये कैसा जादू ??
चाहकर भी कर न पाएं
हम खुद पर क़ाबू।।
तेरी मुरली की मधुर धुन
करे मुझे गुमसुम।
पहले मैं जाऊं.. पहले मैं..
छिड़े गोपियों में जंग।।
भाता है तेरा नटखटी भाव
बतियाने को करे मन।
सब कुछ किया वश में मेरा
तन, मन और धन।।
या तो बन्द कर मुरली वादन,
या बनो आँखो के उद्दीपन।
जन्माष्टमी के इस पावन पर
हर लो सब के व्याकुल मन।।
स्वरचित
सुखचैन मेहरा।
कान्हा तेरी मुरली का जादू
कान्हा तेरी मुरली का
ये कैसा जादू ??
चाहकर भी कर न पाएं
हम खुद पर क़ाबू।।
तेरी मुरली की मधुर धुन
करे मुझे गुमसुम।
पहले मैं जाऊं.. पहले मैं..
छिड़े गोपियों में जंग।।
भाता है तेरा नटखटी भाव
बतियाने को करे मन।
सब कुछ किया वश में मेरा
तन, मन और धन।।
या तो बन्द कर मुरली वादन,
या बनो आँखो के उद्दीपन।
जन्माष्टमी के इस पावन पर
हर लो सब के व्याकुल मन।।
स्वरचित
सुखचैन मेहरा।
विधा लघु कविता
तन चीरती शीत लहर ने
मचा दिया है कोहराम
थर थर थर बदन कांपता
चैन पड़े सुबह न शाम
उत्तराखंड हिमाच्छादित है
बर्फ जमी है अति भू भारी
श्री नगर डल झील जमी है
धरा वनस्पति श्वेताकारी
ऊनी रूई वसन शीतल
कौन ठंडी हवा को रोके
सनसनाहट अर्जुन शर से
तीव्र गति ले चलते झोंखे
छः ऋतुओं के काल चक्र में
शीत लहर का रूप अनौखा
बूढे बच्चे बदहाल कम्पन में
सबका मिलकर मार्ग ही रोका
जाड़े के भी बड़ा महत्व है
जितना चाहो उतना खाओ
आग जलाकर पास बैठ कर
गीत खुशी मिल सब गाओ।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम्
कोटा,राजस्थान।
तन चीरती शीत लहर ने
मचा दिया है कोहराम
थर थर थर बदन कांपता
चैन पड़े सुबह न शाम
उत्तराखंड हिमाच्छादित है
बर्फ जमी है अति भू भारी
श्री नगर डल झील जमी है
धरा वनस्पति श्वेताकारी
ऊनी रूई वसन शीतल
कौन ठंडी हवा को रोके
सनसनाहट अर्जुन शर से
तीव्र गति ले चलते झोंखे
छः ऋतुओं के काल चक्र में
शीत लहर का रूप अनौखा
बूढे बच्चे बदहाल कम्पन में
सबका मिलकर मार्ग ही रोका
जाड़े के भी बड़ा महत्व है
जितना चाहो उतना खाओ
आग जलाकर पास बैठ कर
गीत खुशी मिल सब गाओ।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम्
कोटा,राजस्थान।
उड़ान बाकी है
**********
अभी तो पंख खोले हैं,
मेरी उड़ान बाकी है।
खिलने अभी चेहरे पर,
कई मुस्कान बाकी है।
हूँ मैं कश्ती कागज की,
अभी तैरना समंदर है।
बुलंद हौंसले हैं मेरे,
ये मन तो सिकन्दर है।
कच्ची डोर संग तेरे,
ये जन्मों का बंधन है।
बगिया जीवन की सुरभित,
महकता मन का नंदन है।
दे हाथों में हाथ तेरे,
कई मंजिल को पाना है।
यह उम्र कटे यूँ ही,
तेरे पहलू में जीना है।
अभी तो पग उठाया है,
अभी अंबर तक जाना है।
आओ संग चलें प्रियवर,
राह तकता जमाना है।
जूझ लूँगी तूफानों से,
तेरा ये साथ काफी है।
अभी तो पंख खोले हैं,
मेरी उड़ान बाकी है।
उषा किरण
पूर्वी चंपारण, बिहार
**********
अभी तो पंख खोले हैं,
मेरी उड़ान बाकी है।
खिलने अभी चेहरे पर,
कई मुस्कान बाकी है।
हूँ मैं कश्ती कागज की,
अभी तैरना समंदर है।
बुलंद हौंसले हैं मेरे,
ये मन तो सिकन्दर है।
कच्ची डोर संग तेरे,
ये जन्मों का बंधन है।
बगिया जीवन की सुरभित,
महकता मन का नंदन है।
दे हाथों में हाथ तेरे,
कई मंजिल को पाना है।
यह उम्र कटे यूँ ही,
तेरे पहलू में जीना है।
अभी तो पग उठाया है,
अभी अंबर तक जाना है।
आओ संग चलें प्रियवर,
राह तकता जमाना है।
जूझ लूँगी तूफानों से,
तेरा ये साथ काफी है।
अभी तो पंख खोले हैं,
मेरी उड़ान बाकी है।
उषा किरण
पूर्वी चंपारण, बिहार
नयनों के आकाश में
बनते अश्कों के मोती
अश्कों को ना रोको
कभी इन्हें बहने तो दो
मन के सागर में
उठ रहे हैं तूफान
लहरों संग इस तूफां को
तट तक आने तो दो
दुनिया ने है बाँधें
अपने-अपने दायरे
तोड़कर बंधन को
कभी उड़ जाने तो दो
बदल रहे हालात
उठते रहे सवाल
भूलाके उन सवालों को
मन को कभी मचलने
तो दो
खिले हैं फूल गुलशन में
इन फूलों के संग
कभी अपने दिल को
खिलने तो दो
चली है पवन पुरवाई
पवन के संग-संग
कभी-कभी ख्वाबों में
अपने मन को बहकने तो दो
अविराम, गतिमान
चल रहा जीवन सफर
पल दो पल कभी तो
इस दिल में ठहरने तो दो
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
बनते अश्कों के मोती
अश्कों को ना रोको
कभी इन्हें बहने तो दो
मन के सागर में
उठ रहे हैं तूफान
लहरों संग इस तूफां को
तट तक आने तो दो
दुनिया ने है बाँधें
अपने-अपने दायरे
तोड़कर बंधन को
कभी उड़ जाने तो दो
बदल रहे हालात
उठते रहे सवाल
भूलाके उन सवालों को
मन को कभी मचलने
तो दो
खिले हैं फूल गुलशन में
इन फूलों के संग
कभी अपने दिल को
खिलने तो दो
चली है पवन पुरवाई
पवन के संग-संग
कभी-कभी ख्वाबों में
अपने मन को बहकने तो दो
अविराम, गतिमान
चल रहा जीवन सफर
पल दो पल कभी तो
इस दिल में ठहरने तो दो
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
हां सचमुच
सच होते हैं ख्वाब
देखा है मैंने ,
मम्मी चिड़िया को ,
चूजों के पंखों में,
हौसलों की उड़ान भरते।
अपनी आंखो का स्वप्न,
उनकी आंखों में भरते।
नया नीड़ निर्मित करने को
हां सचमुच
सच होते हैं ख्वाब
देखा है मैंने,
अक्सर पापा को ,
अपने बच्चों से कहते,
खूब बड़ा आदमी बनना
बच्चों को खूब बड़ा बनते
अपने पालको को छोड़ ,
दूर ,कहीं दूर बसते ।
हां सच में ,
सच होते हैं ख्वाब
मैंने देखा है
कई बालिकाओं को,
पेज 3 सितारा बनने,
की चाह रखते,
उन्हें वही सपना सच करते ,
सपनों की राह,
तन और मन को खोते
मशीन बनते ।
हां सच में ,
सच होते हैं ख्वाब
मैंने देखा है
आज के बच्चों को ,
अपने सपनों के पीछे,
बेतहाशा भागते ,
सुख चैन नींद खोते,
पैसों के पेड़ लगाते।
हाँ... अक्सर सच होते है ख्वाब।
नीलम तोलानी
स्वरचित व मौलिक
विधा: ग़ज़ल - नींद तेरी मैं चुराना चाहता हूँ...
अपने सा तुमको बनाना चाहता हूँ...
प्यार से मैं प्यार पाना चाहता हूँ...
नींद तेरी मैं चुराना चाहता हूँ...
तेरे दिल में घर बसाना चाहता हूँ...
याद कर, मुझपे फ़िदा होना तेरा वो...
दिल को मैं रौशन बनाना चाहता हूँ...
सोच कर के संग मेरे आएगी तू...
आसमाँ मैं घर बनाना चाहता हूँ...
हाथ अपने में तेरा मैं हाथ लेकर...
चाँद तारों को सताना चाहता हूँ....
अब तलक धड़कन मेरे सीने में थी जो...
अब उसे तेरी बनाना चाहता हूँ....
दर्द की बारिश में भीगूँ मैं अकेला...
डूब कर दरिया जलाना चाहता हूँ....
I स्वरचित - सी.एम्.शर्मा I
अपने सा तुमको बनाना चाहता हूँ...
प्यार से मैं प्यार पाना चाहता हूँ...
नींद तेरी मैं चुराना चाहता हूँ...
तेरे दिल में घर बसाना चाहता हूँ...
याद कर, मुझपे फ़िदा होना तेरा वो...
दिल को मैं रौशन बनाना चाहता हूँ...
सोच कर के संग मेरे आएगी तू...
आसमाँ मैं घर बनाना चाहता हूँ...
हाथ अपने में तेरा मैं हाथ लेकर...
चाँद तारों को सताना चाहता हूँ....
अब तलक धड़कन मेरे सीने में थी जो...
अब उसे तेरी बनाना चाहता हूँ....
दर्द की बारिश में भीगूँ मैं अकेला...
डूब कर दरिया जलाना चाहता हूँ....
I स्वरचित - सी.एम्.शर्मा I
अनुपम अद्भुत भारत देश,
अखंड विश्व में है सर्वेश।
बुद्ध, महावीर के उपदेश,
देते हैं अनुपम संदेश।
ऋषि-मुनियों की तपोभूमि,
देवों की ये जन्मभूमि।
वेद, उपनिषद्, पुराण गीता,
रामायण, रामचरित पुनीता।
अनुपम ज्ञान सम्पदा विपुल,
संस्कृति इनमें होती झिलमिल ।
महाकवियों की रचना उत्तम,
साहित्य मनीषियों की वाणी अनुपम।
अनुपम हमारा साहित्य सरोवर,
अतुल साहित्य संपदा से ऊर्वर।
वीरप्रसविनी भूमि है इसकी,
वीर-रत्नों से सजी है संवरी ।
मातृभूमि की रक्षा धर्म,
त्याग-बलिदान है इसका मर्म।
पंचशील सिद्धांत प्रदाता,
शरणागत का शरणदाता।
मानवता का पथ प्रदर्शक,
संस्कृति का है संरक्षक।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
विधा .. लघु कविता
******************
🍁
बातें अब तेरी माई की, मुझको लागे तीर।
अबकी मुझको साथ मे ले चल, ओ ननदी के वीर।
🍁
तेरे बिन ना कटती राते, नैना बरसे नीर।
बात मेरी अब मान भी ले तू , ओ ननदी के वीर।
🍁
ताना मारे बहनें तेरी, सासू मारे तीर।
कहती हूँ मै सुन ना पाऊँ, ओ ननदी के वीर।
🍁
करते विचलित विरह से तन, कोमल मन अधीर।
बीत रहे सावन के पल भी, ओ ननदी के वीर।
🍁
शेर कहे मन कंम्पित मोरा, मन मे जागे पीर।
हाथ जोड विनती करू मै, ओ ननदी के वीर।
🍁
स्वरचित ... Sher Singh Sarraf
******************
🍁
बातें अब तेरी माई की, मुझको लागे तीर।
अबकी मुझको साथ मे ले चल, ओ ननदी के वीर।
🍁
तेरे बिन ना कटती राते, नैना बरसे नीर।
बात मेरी अब मान भी ले तू , ओ ननदी के वीर।
🍁
ताना मारे बहनें तेरी, सासू मारे तीर।
कहती हूँ मै सुन ना पाऊँ, ओ ननदी के वीर।
🍁
करते विचलित विरह से तन, कोमल मन अधीर।
बीत रहे सावन के पल भी, ओ ननदी के वीर।
🍁
शेर कहे मन कंम्पित मोरा, मन मे जागे पीर।
हाथ जोड विनती करू मै, ओ ननदी के वीर।
🍁
स्वरचित ... Sher Singh Sarraf
तेरी आँखों की कशिश,
हम भूल नही पाते,
यादें चली आती हैं,
सनम तुम नही आते,
अश्कों के धागों से,
जख्मों को सीते हैं,
तेरी याद में ए सनम,
मर-मर के जीते हैं,
अश्कों की जमीं पर,
उम्मीद जगाते हैं,
हारे हुए दिल को,
यादों से बहलाते हैं,
चले आओ उस जहाँ से,
जन्नत की राहों से,
पाएँगें तुम्हें अब,
किस्मत की दुआओं से।
*********
स्वरचित-रेखा रविदत्त
हम भूल नही पाते,
यादें चली आती हैं,
सनम तुम नही आते,
अश्कों के धागों से,
जख्मों को सीते हैं,
तेरी याद में ए सनम,
मर-मर के जीते हैं,
अश्कों की जमीं पर,
उम्मीद जगाते हैं,
हारे हुए दिल को,
यादों से बहलाते हैं,
चले आओ उस जहाँ से,
जन्नत की राहों से,
पाएँगें तुम्हें अब,
किस्मत की दुआओं से।
*********
स्वरचित-रेखा रविदत्त
मेरी ये रचना समर्पित है मेरी दीदी को जिसने ११साल पहले इस संसार से विदा ले लिया
भावों के मोती
……………………
स्वतंत्र रचना के तहत
~~~~~~~~~~~~~
दी , तुम सुन रही हो ना.....
******************
छोटी बड़ी कितनी बातें
है तुमसे कहने वाली
कितने किस्से,कितनी कहानियाँ
है तुमको सुनाने वाली ।
तुम सुन रही हो ना , दी !
लगता है हमारे दरमियाँ
कितना कुछ अधूरा रह गया
जैसे मानो जाने-अंजाने
ख़्वाब कोई होते-होते पूरा,रह गया ।
तुम सुन रही हो ना , दी !
एक रिश्ता नहीं
बहुत कुछ टूट गया हो जैसे
पीछे मुड़कर देखते तो लगता है
कोई अपना छूट गया हो जैसे ।
तुम सुन रही हो ना , दी !
इक न ख़त्म होने वाली
उदासी सी बनी रहती है हरदम
तनहाई सिकुड़ती नहीं
बस फैलती जाती है हरदम ।
तुम सुन रही हो ना , दी!
फ़ासले तय करते-करते
लम्हे भर को ठहर गया वकत मेरे दर पे
ज़िंदगी फिसल रही है रेत की मानिनद
मगर,आँसू छोड़ गए हैं निशानी मेरे दर पे।
तुम सुन रही हो ना , दी !
कम अल्फ़ाज़ थे,
पर कुछ ऐसी शख़्सियत थी तुम्हारी
लोग खिंचे चले आते थे
वो मिज़ाज वो तबीयत थी तुम्हारी ।
तुम सुन रही हो ना , दी !
राहों के ख़त्म हो जाने का डर है
मगर अभी सफ़र बाक़ी है
चिराग़ों में वो नूर न रहा शायद
दिलों की मज़बूरियाँ मगर बाक़ी है ।
तुम सुन रही हो ना ,दी !
दी ! तुम सुन रही हो ना ?
स्वरचित (c)भार्गवी रविन्द्र ...२४/१२/२०१८
सर्वाधिकार सुरक्षित
भावों के मोती
……………………
स्वतंत्र रचना के तहत
~~~~~~~~~~~~~
दी , तुम सुन रही हो ना.....
******************
छोटी बड़ी कितनी बातें
है तुमसे कहने वाली
कितने किस्से,कितनी कहानियाँ
है तुमको सुनाने वाली ।
तुम सुन रही हो ना , दी !
लगता है हमारे दरमियाँ
कितना कुछ अधूरा रह गया
जैसे मानो जाने-अंजाने
ख़्वाब कोई होते-होते पूरा,रह गया ।
तुम सुन रही हो ना , दी !
एक रिश्ता नहीं
बहुत कुछ टूट गया हो जैसे
पीछे मुड़कर देखते तो लगता है
कोई अपना छूट गया हो जैसे ।
तुम सुन रही हो ना , दी !
इक न ख़त्म होने वाली
उदासी सी बनी रहती है हरदम
तनहाई सिकुड़ती नहीं
बस फैलती जाती है हरदम ।
तुम सुन रही हो ना , दी!
फ़ासले तय करते-करते
लम्हे भर को ठहर गया वकत मेरे दर पे
ज़िंदगी फिसल रही है रेत की मानिनद
मगर,आँसू छोड़ गए हैं निशानी मेरे दर पे।
तुम सुन रही हो ना , दी !
कम अल्फ़ाज़ थे,
पर कुछ ऐसी शख़्सियत थी तुम्हारी
लोग खिंचे चले आते थे
वो मिज़ाज वो तबीयत थी तुम्हारी ।
तुम सुन रही हो ना , दी !
राहों के ख़त्म हो जाने का डर है
मगर अभी सफ़र बाक़ी है
चिराग़ों में वो नूर न रहा शायद
दिलों की मज़बूरियाँ मगर बाक़ी है ।
तुम सुन रही हो ना ,दी !
दी ! तुम सुन रही हो ना ?
स्वरचित (c)भार्गवी रविन्द्र ...२४/१२/२०१८
सर्वाधिकार सुरक्षित
पल्लवित हो रहे पौधे को जल नही दे सकते
किसी को कभी सुनहरा कल नही दे सकते ।।
ठंड में ठिठुरते को हम कंबल नही दे सकते
जरूरत जिसको उसको संबल नही दे सकते ।।
फोटो खिंचवाने वालों की आज भीड़ है
भरे पेट वालों को ही आज मिलती खीर है ।।
उड़ते हुये परिन्दों के प्रति ठीक न नजर
उनकी जिनका ''शिवम" एक ही नीड़ है ।।
कहते हमारा समाज पीछे है
रहते हरदम आँख मीचे है ।।
दो चार आगे आये , मिला न
मौका कि उनकी टाँग खीचे है ।।
यह है आज समाज का हाल
कैसे न हों प्रतिभायें बेहाल ।।
कुंठित पलायन होंगीं प्रतिभायें
गर समाज की रहेगी यही चाल ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
मन का रथ
मन के रथ पर सवार हो जाऊँ,
एक मनोरथ मै पा जाऊँ l
सुनो... क्या मनोरथ मेरा,
भ्र्ष्टा चार मुक्त देश हो मेरा l
सोच रही कैसे संभव हो,
गर नारी की इज्जत होl
हर संस्था ईमानदार बने,
हर पुरुष संस्कारी हो l
शिक्षक सदाचारी हो,
ना कोई व्यभिचारी हो l
ये जग पाप मुक्त होगा,
गर इज्जत नारी की हो l
नहीं चाहिए मुझको धन-मान
नहीं चाहिए मुझे सम्मानl
देदो मुझे सम्मानित भारत,
फिर बने ये गुरु महान l
विनती करू मै नव युवको से,
करलो थोड़ा साहस तुम तोl
बनोगे अगर तुम ईमानदार,
इक बड़ा इतिहास लिख दो तो l
कुसुम पंत 'उत्साही '
स्वरचित
जय भारत
मन के रथ पर सवार हो जाऊँ,
एक मनोरथ मै पा जाऊँ l
सुनो... क्या मनोरथ मेरा,
भ्र्ष्टा चार मुक्त देश हो मेरा l
सोच रही कैसे संभव हो,
गर नारी की इज्जत होl
हर संस्था ईमानदार बने,
हर पुरुष संस्कारी हो l
शिक्षक सदाचारी हो,
ना कोई व्यभिचारी हो l
ये जग पाप मुक्त होगा,
गर इज्जत नारी की हो l
नहीं चाहिए मुझको धन-मान
नहीं चाहिए मुझे सम्मानl
देदो मुझे सम्मानित भारत,
फिर बने ये गुरु महान l
विनती करू मै नव युवको से,
करलो थोड़ा साहस तुम तोl
बनोगे अगर तुम ईमानदार,
इक बड़ा इतिहास लिख दो तो l
कुसुम पंत 'उत्साही '
स्वरचित
जय भारत
विधा-मुक्तक
=================
1. उम्मीद
उम्मीद का दामन कभी न छोड़ना यारो |
उम्मीद किसी की कभी न तोड़ना यारो |
उम्मीद के दम से ही तोे दुनिया ये चल रही-
उम्मीद से उम्मीद को ही जोड़ना यारो |
*********
2. सफर
जरूरत के मुताबिक ही यहाँ सामान तुम रखना |
जो पूरे हो सकें वो ही नेक अरमान तुम रखना |
सफर ये जिंदगानी का सभी कहते कि मुश्किल है-
न डरना मुश्किलातों से सफर आसान तुम रखना |
====================
प्रमोद गोल्हानी सरस
कहानी सिवनी म.प्र.
=================
1. उम्मीद
उम्मीद का दामन कभी न छोड़ना यारो |
उम्मीद किसी की कभी न तोड़ना यारो |
उम्मीद के दम से ही तोे दुनिया ये चल रही-
उम्मीद से उम्मीद को ही जोड़ना यारो |
*********
2. सफर
जरूरत के मुताबिक ही यहाँ सामान तुम रखना |
जो पूरे हो सकें वो ही नेक अरमान तुम रखना |
सफर ये जिंदगानी का सभी कहते कि मुश्किल है-
न डरना मुश्किलातों से सफर आसान तुम रखना |
====================
प्रमोद गोल्हानी सरस
कहानी सिवनी म.प्र.
6.1.2019 (कुछ हाइकु)
पर्यावरण
संरक्षित करना
जन कर्तव्य।।
पर्यावरण
संरक्षित करना
जन कर्तव्य।।
जीवनदात्री
नदियाँ प्रदूषित
है विडम्बना।।
धार्मिक रीति
जल- वायु- दूषण
का हैं कारण।
वृक्षारोपण
जन- जीवन- हित
करें हमेशा।।
मानव मन
के संग स्वस्थ तन
है सार्थकता।।
स्वास्थ्य हमारा
बिगड़ रहा अब
इसे बचाना।।
योग-ध्यान से
सुखमय जीवन
हमे बनाना।।
(स्वरचित)
स्वतंत्र लेखन
ग़ज़ल
वो हमसे यूँ नज़रें चुराने लगे हैं
कोई राज़ शायद छिपाने लगे हैं
जो साथ चले ,बन कर हमराही
वही आज वफ़ा,आज़माने लगे हैं
फिर, टूटा दिल तड़प कर हमारा
जुड़ने में जिसको ,ज़माने लगे हैं
हर आवाज़ पर, होता है गुमां यूँ
शायद वो मुझको, बुलाने लगे हैं
बड़ी खूबसूरत हैं, दुनिया की रस्में
वो भी अब उनको, निभाने लगे हैं
पल दो पल की बची ज़िंदगी अब
उस पर भी ज़हर, पिलाने लगे हैं
बज़्म में तेरा अब काम नहीं ,'संध्या'
गैरों के नाम से ,सजाने लगे हैं
स्वरचित
संध्या बक्शी
जयपुर।
ग़ज़ल
वो हमसे यूँ नज़रें चुराने लगे हैं
कोई राज़ शायद छिपाने लगे हैं
जो साथ चले ,बन कर हमराही
वही आज वफ़ा,आज़माने लगे हैं
फिर, टूटा दिल तड़प कर हमारा
जुड़ने में जिसको ,ज़माने लगे हैं
हर आवाज़ पर, होता है गुमां यूँ
शायद वो मुझको, बुलाने लगे हैं
बड़ी खूबसूरत हैं, दुनिया की रस्में
वो भी अब उनको, निभाने लगे हैं
पल दो पल की बची ज़िंदगी अब
उस पर भी ज़हर, पिलाने लगे हैं
बज़्म में तेरा अब काम नहीं ,'संध्या'
गैरों के नाम से ,सजाने लगे हैं
स्वरचित
संध्या बक्शी
जयपुर।
ऐ वक्त ठहर ज़रा
आ लिख दूँ
सीने पर नाम तेरा
बाँध लूँ तुझे मुठ्ठी में
मोड़ दूं तेरा रुख
नदी की धाराओं की तरह
सतत अविरल
प्रवाहित कर दूँ
उस ओर
जहाँ मुकम्मल आकाश हो
मन पंछी उन्मुक्त कलरव करता हो
मरोड़ दूँ अपने सख्त कदमों तले रौंद कर
मांसाहारी चीलों के आघाती डेने
और
एक सुखद माहौल का जन्मदिन मनाऊँ ।
तुझे भी एक चिर शान्ति की तलाश है
और मुझे भी अटूट प्यास।
ओ समय !
ठहर जरा
मुझे हस्ताक्षर करने दे
तेरी छाती पर।
सुधा शर्मा
राजिम छत्तीसगढ़ 6-1-2019
आ लिख दूँ
सीने पर नाम तेरा
बाँध लूँ तुझे मुठ्ठी में
मोड़ दूं तेरा रुख
नदी की धाराओं की तरह
सतत अविरल
प्रवाहित कर दूँ
उस ओर
जहाँ मुकम्मल आकाश हो
मन पंछी उन्मुक्त कलरव करता हो
मरोड़ दूँ अपने सख्त कदमों तले रौंद कर
मांसाहारी चीलों के आघाती डेने
और
एक सुखद माहौल का जन्मदिन मनाऊँ ।
तुझे भी एक चिर शान्ति की तलाश है
और मुझे भी अटूट प्यास।
ओ समय !
ठहर जरा
मुझे हस्ताक्षर करने दे
तेरी छाती पर।
सुधा शर्मा
राजिम छत्तीसगढ़ 6-1-2019
गजल
यार रुठा है हमसे,अब मनालो उसे।
इक नजर देखले वो, बता दो उसे।।
#राज दिल में छिपे जो, बता दो उसे।
रह ना पाऊंगा उस बिन, जता दो उसे।।
मैं हूं उसका #हमराही ,बता दो उसे।
खुश ना रह पायेगी वह, समझा दो उसे।।
#तड़प मेरे दिल की, कोई सुना दो उसे।
गहराई मेरे प्यार की, दिखा दो उसे।।
उसकी #आवाज तो अब सुना दो हमें।
रह ना पायेंगे उस बिन , जता दो उसे।।
जिन्दगी है #पल द़ो पल की,बता दो उसे।
यार मिलेगा ना हमसा, समझा दो उसे।।
कर रहा हूं मैं इल्तिजा, कोई बता दो उसे।
रूह भटकेगी मेरी, कोई समझा दो उसे।।
आकर लग जाये गले से, जरा बता दो उसे।
वरना जहाँ से हो जाऊँगा रूखसत,जा कर के अब तो समझा दो उसे।।
(अशोक राय वत्स) स्वरचित
जयपुर
यार रुठा है हमसे,अब मनालो उसे।
इक नजर देखले वो, बता दो उसे।।
#राज दिल में छिपे जो, बता दो उसे।
रह ना पाऊंगा उस बिन, जता दो उसे।।
मैं हूं उसका #हमराही ,बता दो उसे।
खुश ना रह पायेगी वह, समझा दो उसे।।
#तड़प मेरे दिल की, कोई सुना दो उसे।
गहराई मेरे प्यार की, दिखा दो उसे।।
उसकी #आवाज तो अब सुना दो हमें।
रह ना पायेंगे उस बिन , जता दो उसे।।
जिन्दगी है #पल द़ो पल की,बता दो उसे।
यार मिलेगा ना हमसा, समझा दो उसे।।
कर रहा हूं मैं इल्तिजा, कोई बता दो उसे।
रूह भटकेगी मेरी, कोई समझा दो उसे।।
आकर लग जाये गले से, जरा बता दो उसे।
वरना जहाँ से हो जाऊँगा रूखसत,जा कर के अब तो समझा दो उसे।।
(अशोक राय वत्स) स्वरचित
जयपुर
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