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ब्लॉग संख्या :-278
प्रभु कण-कण में तु समाया,
जग में है तेरी ही माया,
गंगा, जमुना में तेरा ठिकाना,
लहरों में है तेरा नजारा |
हवा में तेरी ही खुशबू,
डाली, डाली में है तेरा ठिकाना,
आँखों में बस तू ही बसा है,
कलियों, कलियों में तेरा नजारा |
सूरज की किरणों में तु शामिल,
चंदा में है तेरा ठिकाना,
रौशन सारे जहाँ को करता,
तारों,तारों में है तेरा नजारा |
रक्त के कण-कण में तु है,
हमारा तो है तु ही सहारा,
शरण पड़े हैं हम तो तुम्हारी,
मत करना हमको बेसहारा |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
ज़र्रा ज़र्रा जानिये
कतरा पहचानिये ।।
सूक्ष्मता में शक्ति है
यह यकीन मानिये ।।
विज्ञान ने यह जाना है
अध्यात्म यह माना है ।।
ईश्वर भी कण कण में
क्यों न उसे पहचाना है ।।
आत्मा क्या हमें दिखती
निराकार परमात्म शक्ति ।।
अहसास सिर्फ होता हमें
ज्यों हवा गर नही दम घुटती ।।
होम यज्ञ हवन यही बताते
कण कण में प्रभु पूजे जाते ।।
वैज्ञानिकता से भरे वेद 'शिवम'
प्रभु तो हैं ही वायु शुद्ध बनाते ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 24/01/2018
श्वेताणु रक्ताणु कण से
जीवाणु हर देह बने
दूर गगन जल कण से ही
श्यामल मेघ सने घने
कण कण में अमर निवास
कण कण में है ज्ञानज्योति
कण कण में उर्वा शक्ति है
देवे धान्य नित हीरे मोती
हर कण का है बड़ा महत्व
कण बनने में बरसों लगते
शिलाखंड विखंडित होकर
बिखर बिखर रेती कण बनते
कण अनाज उदर भरता
क्षुधा मिटा नव जीवन देता
मातृभूमि के हर कण हित
हर विपदा को सैनिक सहता
कण विखंडन परमाणु है
कण मिलकर कनक बने
कण कण परम् शक्ति जग
कण में समूचा जगत तने
हर कण जगति का सूचक
कण कण से बनता संसार
वनस्पति के हर कण से ही
उड़ती सौरभमय प्रिय बहार।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
हृदय नेत्र खोलकर देखें हम,
कणकण में भगवान समाऐ।
ज्ञानचक्षु गर सदगुरू खोलें तो,
यह राज सत्यता हमें दिखाऐ।
सब कुछ मन में मेरे धरा है।
सत्य झूठ सब इसमें भरा है।
जीवन हुआ ये भोगविलासी,
तभी तो मन में रोग भरा है।
हर कण में भगवान बसेरा।
है अंतर्मन में अज्ञान घनेरा।
गर अंतरतम में झांके अपने
दिखे हरक्षण सम्मान सबेरा।
करें प्रभु हमें ज्ञान से पावन।
ईश करें सब लालन पालन।
कण कणिका में राम बसे हैं,
करते रहें हम नाम उच्चारण।
स्वरचितःःः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी "अजेय "
मगराना गुना म.प्र.
विषय - कण
विधा - छंद मुक्त
रश्मि किरणों से
छन कर आते
मनमोहक ये रज कण लगते
मगर एक दिन
उजला था फैला प्रकाश
घिर आई थी पीली आंधी
उड़ने लगे चहुँ ओर
रजत कण घने घनेरे
पत्ते कागज तिनके कपड़े
सबको अपने संग लपेटे
धूल कणों की चादर पीली
घर आँगन में बिछी हुई थी
घर से बाहर निकल नही पायें
आंखों को धुंधला कर जायें
रोक सकें ये उड़ती आंधी
कई टोटके हम आजमायें
बार बार हम कभी घबरायें
उड़ा हमें न ये ले जाये
यही सोच कर मिली दिलासा
कण कण में भगवान समाये
प्रभु का चमत्कार हो जाये
कण में प्रभु दर्शन हो जायें
सरिता गर्ग
विधा - छंद मुक्त
रश्मि किरणों से
छन कर आते
मनमोहक ये रज कण लगते
मगर एक दिन
उजला था फैला प्रकाश
घिर आई थी पीली आंधी
उड़ने लगे चहुँ ओर
रजत कण घने घनेरे
पत्ते कागज तिनके कपड़े
सबको अपने संग लपेटे
धूल कणों की चादर पीली
घर आँगन में बिछी हुई थी
घर से बाहर निकल नही पायें
आंखों को धुंधला कर जायें
रोक सकें ये उड़ती आंधी
कई टोटके हम आजमायें
बार बार हम कभी घबरायें
उड़ा हमें न ये ले जाये
यही सोच कर मिली दिलासा
कण कण में भगवान समाये
प्रभु का चमत्कार हो जाये
कण में प्रभु दर्शन हो जायें
सरिता गर्ग
अमृत कण
-------------हे अमृत कण!
मेरी हृदय-वीणा को झंकृत कर
काव्य की अंतरात्मा,अंतस्तल में मुझे उतार
प्राणों का अविर्भाव कर मुझे सप्राण कर
लयबद्ध कर आत्मा के छंद में
अनहद सा नाद मेरे हृदय में कर।
हे अमृत कण!
मेरे जीवन को सुवासित कर
प्रेम की प्रखरता मुझ में भर
मैं अपना तन मन अर्पित करूँ
परमात्मा के चरणों में
विराट को मेरे आँगन में उतार
अपने जीवन की शत-शत आहुति दूँ
नैसर्गिक, स्वाभाविक मुझे कर
छंद,मात्रा,व्याकरण से मुक्त कर
सरल अलमस्त मुझे कर।
@ राधे श्याम
स्वरचित
1)बन के कण
सुन नैनों से चुभें कठोर बोल
🌹🌹🌹
(2)कोयला खान
उगलती रहती
हीरो के कण
🌹🌹🌹
(3)करे निर्माण
मिल के महाशक्ति
अनेक कण
🌹🌹🌹
(4)बीज के कण
जमी पर उपजे
अद्भुत सृष्टि
🌹🌹🌹
(5)आत्मा का कण
जाता है कब उड़
पता न चले
🌹🌹🌹
रक्त में कण
मानव देह होते
लाल व श्वेत
🌹🌹🌹
हमें है आज
फ्रीज़र के अंदर
हिम के कण
🌹🌹🌹
स्वरचित
मुकेश भद्रावले
1
कण कण में
व्यापक भगवान-
जीव विश्वास
2
रज कण में
व्याप्त है सिलिकॉन-
ज्ञान-विज्ञान
3
बालू के कण
चमकते बिखरें-
नदी का तट
4
द्रव्य निर्माण
कणों से ही है होता-
सम्पूर्ण सृष्टि
5
कण सिद्धान्त
प्रकाश भौतिकी का-
मूल आधार
मनीष श्रीवास्तव
स्वरचित
कण कण में
व्यापक भगवान-
जीव विश्वास
2
रज कण में
व्याप्त है सिलिकॉन-
ज्ञान-विज्ञान
3
बालू के कण
चमकते बिखरें-
नदी का तट
4
द्रव्य निर्माण
कणों से ही है होता-
सम्पूर्ण सृष्टि
5
कण सिद्धान्त
प्रकाश भौतिकी का-
मूल आधार
मनीष श्रीवास्तव
स्वरचित
कतरा-कतरा जी रही हूँ।
ख्वाबों के करवट बदल रही
सपनों से नाता तोड़ रही हूँ।
गमों में डुबकी लगा रही
अश्को को पी मुस्कुरा रही हूँ।
संघर्षों का दामन थाम रही
लबों को अपने सी रही हूँ।
दूविधा के आग में जल रही
मरीचिका में भटक रही हूँ।
दिल के टुकड़ों को समेट रही
भावो की नदी में बह रही हूँ।
स्नेह को अपनी तराश रही
कण-कण में चमक ढूँढ रही हूँ।
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
#कण की महिमा
अपरम्पार
निर्मित है
इनसे संसार
अणु-अणु
मिल जाते जब
ढाते देते हैं
बड़ा गजब
तुहिन-#कणों की
श्वेत चमक
पंखुरियों से
पत्तों तक
हरि बसे हैं
तन-मन में
इस धरती के
कण-कण में
खुशी गमी के
कुछ ही क्षण
करवा दें
जीवन-दर्शन
आज सभी हम
कर लें प्रण
मोल आंकने का
कण-कण
खेतों में जब
अन्न उगे
माटी का #कण-कण
उमगे
#कण की कीमत
है न्यारी
बसी यहीं
दुनिया सारी
-------
#स्वरचित
डा. अंजु लता सिंह
आधार सृष्टि का।
कण-कण तृण,
सृजन प्रकृति का।
कण-कण रज,
सज्जित अविचल।
कण-कण जल,
निर्मित महासागर।
कण-कण किरण,
दिनकर प्रकाशित।
कण-कण अन्न,
धन-धान्य भंडार।
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
कण कण में रहस्य है
कण कण में भगवान।
कण कण का अर्थ है
कण कण में सामर्थ्य।।
हर कण में जीवन है
हर कण में आवेश।
सृष्टि के संचालन में,
स्रष्टा का आदेश।।
कण भर दाने से
चींटी भरती पेट,
कण के संयोजन से
बन जाते हैं सेठ।।
रचनाकार
जयंती सिंह
उसके माथे का स्वेद कण
कह रहे है प्रतिपलमेहनत से रोटी मिलती
नही रोटी परिश्रम बगैर
सृष्टि का कण कण देता
जीवन जीने का संदेश
रज कण कण चहक रहे
अंकुरित हो रहे बीज अंदर
जो आज है बस एक बीज
कल प्रस्फुटित हो बने पेड़
सीमेंट बालू कण जुड़
बन रहे कंक्रीट कठोर
सृष्टि के कण कण मे व्यापक
मेरे प्रभु मेरे भगवान
मेरे भक्ति भाव को देख
दे दो मुझे दर्शन आज।
स्वरचित-आरती -श्रीवास्तव।
कण-कण मिल बादल तना ।
मन-मन मिल समाज बना ,
तन-तन मिल इंसान बना ।।
माटी के कण-कण में सोना ,
क्रांति बीज सबके मन बोना ।
कण-कण से ही मन-मन होता,
व्यर्थ चिंता कर क्यों बोझा ढोता ।।
जैसे रोम-रोम में शोणित बहता ,
हर दिल में देखो दर्द पसरता ।
कण-कण से बन सूर्य बरसता ,
मन-मन कण-कण ईश दरशता ।।
कण-कण से ही तो ये दुनियाँ सारी,
मन में राम बसा सोच न्यारी - न्यारी ।
जगत चराचर कण-कण देहधारी ,
जीव में अंश व्याप्त जगत जननी नारी ।।
स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा 'निश्छल',
कच्छ के रण में
सिकता कण मेंअहर्निश तपते
मरते खपते
मुँह न मोड़ते
चौकी न छोडते
सीमा के रखवाले
मातृभू के मतवाले
अन्न-कण नहीं हाथ
संगीनों का बस साथ
शुष्क ओठ लिए प्यास
देश-प्रेम का अहसास
अविलंब एक क्षण में
मिल जाते माटी के कण में
मिट्टी पर आए जो आँच
हिंद के जाँबाज
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
ख़ुशियों के पल जब जब लगते खिलखिलाने
उन लम्हों को गुनगुनाने को मन ढूँढता बहाने
कभी घर पर कभी दफ़्तर में आयोजन होते
खानपान की एक लम्बी लिस्ट हम बना लेते
जी भर खाते जी भर लुटा देते
मद में झूम बस मौज उड़ाते
कितना खाया कितना व्यर्थ गँवाया
किसकी बुद्धि ने कहो चेताया ???
मैं अक्सर देखती हूँ ऐसा नज़ारा
प्लेटों का बचा भोजन भेद खोले सारा
मन व्यथित होकर रह जाता
विवेक का कहीं दर्शन ना हो पाता
कितनी शिद्दत से किसान यह अन्न उगाता
श्रम की बूँदे बोकर अपनी
भूखों के लिए अन्न उपजाता
भोजन का एक एक कण कहो
कितना मूल्यवान बन जाता ???
उसको बर्बाद करने का हक़ कहो
कितनों का निवाला उदर से वंचित हो जाता ???
वह किसी की भूख मिटाता
उस दुआ का फल हमें मिल पाता !!
उस किसान के अन्न कणों को
शायद कुछ मान -सम्मान मिल पाता ।
संतोष कुमारी ‘ संप्रीति’
उन लम्हों को गुनगुनाने को मन ढूँढता बहाने
कभी घर पर कभी दफ़्तर में आयोजन होते
खानपान की एक लम्बी लिस्ट हम बना लेते
जी भर खाते जी भर लुटा देते
मद में झूम बस मौज उड़ाते
कितना खाया कितना व्यर्थ गँवाया
किसकी बुद्धि ने कहो चेताया ???
मैं अक्सर देखती हूँ ऐसा नज़ारा
प्लेटों का बचा भोजन भेद खोले सारा
मन व्यथित होकर रह जाता
विवेक का कहीं दर्शन ना हो पाता
कितनी शिद्दत से किसान यह अन्न उगाता
श्रम की बूँदे बोकर अपनी
भूखों के लिए अन्न उपजाता
भोजन का एक एक कण कहो
कितना मूल्यवान बन जाता ???
उसको बर्बाद करने का हक़ कहो
कितनों का निवाला उदर से वंचित हो जाता ???
वह किसी की भूख मिटाता
उस दुआ का फल हमें मिल पाता !!
उस किसान के अन्न कणों को
शायद कुछ मान -सम्मान मिल पाता ।
संतोष कुमारी ‘ संप्रीति’
रोज़ सुबह उठता हूँ....
अपना कर्म करता हूँ...
कभी संतुष्ट...
कभी खुद से...
विक्षिप्त रहता हूँ...
कोई जी रहा है....
कोई मर रहा है....
हर पल सृष्टि में....
परिवर्तन हो रहा है...
जीवन का मौत में...
मौत का जीवन में...
देख कर सब...
खुद को ढूंढता हूँ....
कहाँ से आ आया मैं....
कहाँ को जाऊँगा...
वेद...पुराण...शास्त्र....
सभी भरे पड़े हैं....
इश्वर के हम कण हैं...
उसी से निकले हैं...
उसी में विलीन होंगे...
जब आसाँ है सब इतना...
तो फिर...
रोज़ क्यूँ मरना और जीना है...
या कि फिर सब यह खेल तमाशा है....
क्यूँ हैं धर्म जात पात के खाते...
रोज़ ही हम क्यूँ फिर इन्हें...
जोड़ते और घटाते ?
यत पिण्डे तत ब्रह्माण्डे...
यत ब्रह्माण्डे तत पिण्डे....
उद्घोष भारतीय शास्त्रों का...
वैज्ञानिकों का ?
सृष्टि अणुओं से बनी है...
मूल रूप में अणु वही हैं...
परस्पर और उतने ही...
विरोधी....
विद्युत प्रवाह...गतिमान....
निरंतर...
पेड़...पौधे...जीव...जंतु....
मरते रहते हैं...
फिर जन्म लेते हैं....
पर अणु /कण....
न मरता है न जन्म लेता है...
अनादि है....
इस देह में भी....
यही अणु गतिमान हैं...
हर क्षण बदलते रहते हैं...
संघर्षण चलता रहता है...
कहीं कोई मर रहा है...
तो कोई जन्म ले रहा है....
निरंतर....
देह बदल रही है...
आत्मा अनादि है...
अंश है....
प्रतिबिम्ब है...
तुझ में...मुझमें....
उस 'विराट रूप' का...
और यही अंश...
विघटित न हो कर...
जब मूल स्वरूप में...
समाहित हो 'विराट' होता है...
उद्घोष करता है...
'अहम ब्रह्मास्मि'...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
अपना कर्म करता हूँ...
कभी संतुष्ट...
कभी खुद से...
विक्षिप्त रहता हूँ...
कोई जी रहा है....
कोई मर रहा है....
हर पल सृष्टि में....
परिवर्तन हो रहा है...
जीवन का मौत में...
मौत का जीवन में...
देख कर सब...
खुद को ढूंढता हूँ....
कहाँ से आ आया मैं....
कहाँ को जाऊँगा...
वेद...पुराण...शास्त्र....
सभी भरे पड़े हैं....
इश्वर के हम कण हैं...
उसी से निकले हैं...
उसी में विलीन होंगे...
जब आसाँ है सब इतना...
तो फिर...
रोज़ क्यूँ मरना और जीना है...
या कि फिर सब यह खेल तमाशा है....
क्यूँ हैं धर्म जात पात के खाते...
रोज़ ही हम क्यूँ फिर इन्हें...
जोड़ते और घटाते ?
यत पिण्डे तत ब्रह्माण्डे...
यत ब्रह्माण्डे तत पिण्डे....
उद्घोष भारतीय शास्त्रों का...
वैज्ञानिकों का ?
सृष्टि अणुओं से बनी है...
मूल रूप में अणु वही हैं...
परस्पर और उतने ही...
विरोधी....
विद्युत प्रवाह...गतिमान....
निरंतर...
पेड़...पौधे...जीव...जंतु....
मरते रहते हैं...
फिर जन्म लेते हैं....
पर अणु /कण....
न मरता है न जन्म लेता है...
अनादि है....
इस देह में भी....
यही अणु गतिमान हैं...
हर क्षण बदलते रहते हैं...
संघर्षण चलता रहता है...
कहीं कोई मर रहा है...
तो कोई जन्म ले रहा है....
निरंतर....
देह बदल रही है...
आत्मा अनादि है...
अंश है....
प्रतिबिम्ब है...
तुझ में...मुझमें....
उस 'विराट रूप' का...
और यही अंश...
विघटित न हो कर...
जब मूल स्वरूप में...
समाहित हो 'विराट' होता है...
उद्घोष करता है...
'अहम ब्रह्मास्मि'...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
बिखरे ओस कण
विदाई निशा |
उद्योग धंधे
दूषित जल कण
रोग बिस्तार |
भटकते हैं
ईश्वर कण कण
मन दर्पण |
दूषित कण
प्रदूषित हवायें
श्वसन तंत्र |
भूखा गरीब
बचत अन्न कण
आत्म संतुष्टि |
स्वरचित , मीना शर्मा
यूं मुक्तसर सी हो गई वो जिन्दगी।
र॔गो के होने पर भी र॔ग दिखते नही।
सब। ओर हवा है बहारें हैं।
पंख मेरे फिर भी खुलते नही।
आसमां पर चांद है सितारे भी हैं
जमीन पर गुल हैं गुलशन भी हैं
महक फिर मुझे क्यों मभरमातीर्क नही।
दोराहा चौराहे और गलियां भी हैं।
म॔जिले फिर मुझे क्यों बुलाती नही।
फ़िजाओं में है बिखरी खुशबू तेरी।
सूरत फिर भी तेरी नजर क्यों आती नही।
यूं ही मुक्तसर सी हो गई है जिन्दगी मेरी।
कण कण पल पल से बनी हसीन जिन्दगी।
स्वरचित
सुषमा गुप्ता
*क्षणिका*
ओह भाग्य!कृषक,
रज कण
व
स्वेद कणों से
सरोबार
उदर पर गीला वसन बाँधे
संसार की
क्षुधा का
साधन मात्र!
विकट परिस्थिति।
वीणा शर्मा वशिष्ठ
स्वरचित,मौलिक
दर ओ दीवार कि हर झिर्रि,
फुसफुसाती है कानो में,
पूछती है, कहां है वो?
होने के जिससे,
हंसी गुनगुनाती थी,
रवि की रश्मियां,
पर्दों के छोरों से ,
कण कण में बसेरा,
पाती थी....
देखकर आंखों में शरारत ,
लबों पर मुस्कान आती थी,
कहां है वो?
तुम्हारी पहचान ,
पायल की खनक,
वह सोलह श्रृंगार,
वह ठंडी सी बयार
कहां है वो?
नीलम तोलानी
स्वरचित
विधा-दोहे
कण कण मैं भगवान बसे, बसे सभी जग धाम ।
कोइ कहे मधुकर तुझे, कोइ पुकारे
श्याम ।।
कण कण मे कान्हा दिखे, दिखे मुझे
घन श्याम।
दर्शन को आँखें दुखी, जिव्हा थके न
विराम ।।
कण कण मे भगवन बसे, ढूढें कस्तूरी मन ।
हिरणी बन कर भटक रहा,हरे तू मन का तम ।।
जन जन की यही पुकार,कण कण में घनश्याम ।
आँखें खुले मिले श्याम ,आऊँ वृंदावन धाम ।।
स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू
विधा-दोहे
कण कण मैं भगवान बसे, बसे सभी जग धाम ।
कोइ कहे मधुकर तुझे, कोइ पुकारे
श्याम ।।
कण कण मे कान्हा दिखे, दिखे मुझे
घन श्याम।
दर्शन को आँखें दुखी, जिव्हा थके न
विराम ।।
कण कण मे भगवन बसे, ढूढें कस्तूरी मन ।
हिरणी बन कर भटक रहा,हरे तू मन का तम ।।
जन जन की यही पुकार,कण कण में घनश्याम ।
आँखें खुले मिले श्याम ,आऊँ वृंदावन धाम ।।
स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू
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