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ब्लॉग संख्या :-264
हिय मे शूल उठता है अब।
कुछ करने को मन करता है।
बहोत सहे अब अत्याचार ।
मानवता को किया शर्मसार।
कैसे कहे हम हारे है अब।
हम खडे रहे इक दर्शक से।
कब तक ऐसा चलेगा ।
अपनो का छीनता स्वाभिमान।
अपनों का हरता स्वाभिमान।
हब सब कब तक देखेगे।
कब तक शूल से प्रहार सहेगे।
अब जागो और सब जागो।
हर हाथ अब त्रि शूल संभालो।
अभी नही फिर कभी नही।
ऐसा दृढ निश्चय मानों।
कुछ करने को मन करता है।
बहोत सहे अब अत्याचार ।
मानवता को किया शर्मसार।
कैसे कहे हम हारे है अब।
हम खडे रहे इक दर्शक से।
कब तक ऐसा चलेगा ।
अपनो का छीनता स्वाभिमान।
अपनों का हरता स्वाभिमान।
हब सब कब तक देखेगे।
कब तक शूल से प्रहार सहेगे।
अब जागो और सब जागो।
हर हाथ अब त्रि शूल संभालो।
अभी नही फिर कभी नही।
ऐसा दृढ निश्चय मानों।
स्वरचितः
राजेन्द्र कुमार अमरा
शूलों की सेज पर फूल सोये हैं
ऐसे ही न सुगंधित वो होये हैं ।।
कुछ पाने को कुछ यहाँ खोये हैं
तपकर ही सूरज रोशनी सँजोये है ।।
*************************
नायक खलनायक की भूमिका अहम
एक से क्या नाटक होता है मात्र वहम ।।
किसे जरूरत तपने की कुछ करने की
जो सब होता यहाँ सीधा सरल सुगम ।।
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शूल ही शायद रक्षक हों फूल के
दोष नही देना उन्हे कभी भूल के ।।
फूल कोमल हैं 'शिवम' कोई छेड़ता
रहस्य बहुत हैं यहाँ हर शै के मूल के ।।
****************************
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 10/01/2018
जब चरण में शूल चुभते
अन्तर्मन कराह उठता हैअपने ही अपरिचित बन
तब नयन में नीर भरता है
दैहिक दैविक भौतिक पीड़ा
यह शूल से क्या कम होती
जो संघर्षी बन कर जीता है
किस्मत उसकी कभी न सोती
शूल चुभे वन श्री राम के
शूल चुभे थे गांडीव धारी
शर शय्या पर पितामह ने
सहन किये मह दुःख भारी
सद कर्मो से फूल खिलते
दुष्कर्मो से शूल बनते हैं
जैसी करनी वैसे भरनी
चिंतन जैसा वह् करते हैं
जलधि मंथन जब हुआ तो
गरल धारक शूलपाणि
कभी फूल सी कभी शूल सी
बनती है नित अपनी वाणी
फूल सबका है प्रशंसक
फूल सा जीवन मिला है
शूल से नित दूर रहकर
नवजीवन जीवन जिया है
भूल ही तो शूल सम है
भूल को न अब दोहराओ
जग में कोई शत्रु नही है
दिल से दिल को मिलाओ।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
भारत देश
आरक्षण है शूल
असंतोष है |
नाम सवर्ण
शूल बन चुभता
द्वार बंद हैं |
सौगात प्यार
वेदना हृदय की
शूलों की सेज |
गृहस्थी शूल
बढती मँहगाई
छोटी चादर |
राजनीति है
दुरुपयोग धर्म
आवाजें शूल |
आरक्षण है शूल
असंतोष है |
नाम सवर्ण
शूल बन चुभता
द्वार बंद हैं |
सौगात प्यार
वेदना हृदय की
शूलों की सेज |
गृहस्थी शूल
बढती मँहगाई
छोटी चादर |
राजनीति है
दुरुपयोग धर्म
आवाजें शूल |
विषय. : शूल
सड़क का धूल हूं मैं ..,
सड़क का धूल हूं मैं ..!
धूल में लिपटी हुई ..,
पैर तले का फूल हूं मैं !!
कुचलकर जाओ, लेकर मत जाओ !
कुचलकर जाओ ,लेकर मत जाओ !!
सड़क का धूल हूं मैं ..,
सड़क का धूल हूं मैं ..!
धूल में लिपटी हुई ..
पैर तले का फूल हूं मैं !!
सड़क पर बजने वाली मादल हूं मैं !
बिना सावन की घटा ..,
आकाश का बादल हूं मैं !!
सड़क पर ही बजाओ लेकर मत जाओ !
सड़क पर ही बरसाओ लेकर मत जाओ !!
सड़क का धूल हूं मैं ..,
सड़क का धूल हूं मैं ..,!
धूल में लिपटी हुई ..,
पैर तले का फूल हूं मैं !!
रक्षक हो भक्षक हो ..,
प्यासा मन हो ..!
टूटा अंतःकरण हो ..!!
सबका प्यास बुझाने का कूवां हूं मैं !
सुलगती चिंगारीयों का धुआं हूं मैं !!
समाजों के लिए चुभती हुई शूल हूं मैं ।
सड़क का धूल हूं मैं ..,
सड़क का धूल हूं मैं ..!
धूल में लिपटी हुई ..,
पैर तले का फूल हूं मैं !!
स्वरचित एवं मौलिक
मनोज शाह मानस
सुदर्शन पार्क
मोती नगर नई दिल्ली
विधा .. दोहा
********************
🍁
फूल शूल काँटे भये, जीवन जिय जंजाल।
प्रीत बिना कैसे जिये, राधा मोहन श्याम।
🍁
राधा तरसे श्याम को, नैना बने ह मेघ।
वृन्दावन मे भटक रही, मन मे लेकर नेह।
🍁
मीरा बनके जोगिनी, हृदय बसे घनश्याम।
भावों मे है श्याम बसे, शेर के मन मे राम।
🍁
स्वरचित .. Sher Singh Sarraf
परिस्थिति की विषमताओं
और
काल के कुचक्र से जूझता
आज का हर युवक
गरीबी,भुखमरी
और बेरोजगारी से त्रस्त
एक प्रश्नचिन्ह बना
त्रिशंकु की भांति
अपने ही सीने पर उगे
अवसादों के शूल की
असह्य वेदना
कुण्ठाओं में घोलकर
चुपचाप पी रहा है ।
( मेरे कविता संग्रह की कविता "काल चिंतन ")
डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी, गुना(म.प्र.)
विधा: ग़ज़ल
चुपके चुपके कोई दिल में रोता है....
धीमें धीमें शूल कहीं पे चुभता है....
हर पल यूं तो आना जाना रहता है...
रूह बिना भी कोई जीता रहता है...
नाग नयन का डस के गुम हो जाए है...
मीठा ज़ह्र जिगर में चढ़ता रहता है...
अजब तमाशा दिल मेरे का देखा है...
रोज़ धुंआ सा निकले पर ना जलता है...
छलनी कर के दिल को आँखें भरता है...
ज़ख्मों पर मरहम खारा सा रखता है...
'चन्दर' मत बोलो दुनियाँ में बोल ऐसे....
जिनसे दिल अपनों का जलता रहता है....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
१०.०१.२०१९.
चुपके चुपके कोई दिल में रोता है....
धीमें धीमें शूल कहीं पे चुभता है....
हर पल यूं तो आना जाना रहता है...
रूह बिना भी कोई जीता रहता है...
नाग नयन का डस के गुम हो जाए है...
मीठा ज़ह्र जिगर में चढ़ता रहता है...
अजब तमाशा दिल मेरे का देखा है...
रोज़ धुंआ सा निकले पर ना जलता है...
छलनी कर के दिल को आँखें भरता है...
ज़ख्मों पर मरहम खारा सा रखता है...
'चन्दर' मत बोलो दुनियाँ में बोल ऐसे....
जिनसे दिल अपनों का जलता रहता है....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
१०.०१.२०१९.
विषय-शूल
बन राही धुन का मतवाला तू,
हर हाल में चलते जाना तू।
कितने ही शूल बिछे हों मग में,
या घने अंधेरे छा जाएं..!
जब साया भी न चले,
तब दृढनिश्चय की ज्योति जला,
हर हाल में बढ़ते जाना तू
पथ घने अंधेरे छाएंगे,
अपने भी न साथ निभाएंगे
जब शूल ही शूल नजर आएं
तब दिल तेरा घबराएगा।
तब भी आगे बढ़ते जाना तू,
संघर्ष किया न जी्वन में
तो मंजिल कैसे पाएगा?
संघर्षों की ही ज्वाला में
तपकर कुंदन बन पाएगा।
तू तरूण शक्ति का पुंज अभी
फूलों का न बन परवाना,
शूलों की राह चलेगा गर,
तो जग रोशन कर जाएगा।
पल में संकट टल जाएंगे,
शूल भी फूल बन जाएंगे।
अपने जग को रोशन करके,
ये गुलशन भी महकाएगा।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
**********
दिल में बसााया था जिनको,
हमने फूलों की तरह,
नाजुक थे वे बिल्कुल,
पंखुड़ियों की तरह |
सहसा एक दिन कुछ,
बेवफाई उनसे हो गई,
फूल बिखर गये और,
दिल में शूल चुबो गई |
हाले दिल कैसे बयां करें,
अरमानों की माला बिखर गई ,
न जाने किसकी नजर लग गई,
गले शूलों की माला पड़ गई |
अब विश्वास नहीं कर पायेंगें,
प्यार पर इतबार न कर पायेंगें,
फूलों से शुरू हुई कहानी,
शूल पर खत्म हो गई |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
लाज-आबरू रही सुरक्षित
शूलों के मध्य ही परिलक्षित
फूलों की मधुर मुस्कान
सखे,मैं इससे अंजान
एक दिन जो देखा छूकर
रह गई उँगलियाँ बिंधकर
शूल खड़े सीना तान
सखे,मैं इससे अंजान
भूल भयंकर अपनी माना
मर्म सृष्टि का पहचाना
इन शूलों से रक्षित शान
सखे,मैं इससे अंजान
माली,तना क्यों छील रहे
सौंदर्य उपवन का लील रहे
मत कर शूलों को निष्प्राण
सखे,मैं इससे अंजान
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
विधा कविता
वाणी में ही फूल हैं
वाणी में ही शूल।
ह्रदय विदीर्ण न हो जाए
मत करना ऐसी भूल।।
कटु वचन के शूल से,
मृत्यु तुल्य कष्ट होता है
मधुर वाणी है अमृत सम
जीवन दायनी दुख हरता।।
जीवन में मिलते सदा
तरह तरह के शूल।
धैर्य और सद्भाव से
करो इन्हें निर्मूल।।
रचनाकार
जयंती सिंह
अगर फूलों के संग
शूल ना होता
महकता हुआ गुलाब
आकर्षक ना होता
अगर ये दिल तेरा
कायल ना होता
मजबूरियों से भरा
ये हालात ना होता
अगर मन में जज्बात
भरा ना होता
शब्दों के तीर से
घायल ना होता
अगर अपने पराये का
बोध ना होता
तिरस्कार के शूल से
दिल छलनी ना होता
ऐ काश!प्यार का
नशा ना होता
काँटों की सेज पर
लेटा ना होता
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
क्षणिका
कोमल सरल-सहज हृदय,
जब करता हो अनुनय विनय!
कोप भाजन बने दिन-रात
कोई न सूने उसकी बात
बात-बात पर हो तकरार
बोल मीठे मगर करते रार
बैठ रोती घर में जार- जार!
जाने उसकी कौन -सी भूल
फूल बन जाए किसी की धूल
तब बन जाता हैं ह्दय शूल!
रचनाकार- चन्द्र प्रकाश शर्मा "निश्छल", उदयपुर
शूल उसकी जुदाई के,
अक्सर चुभते जाते है।
वो ख्वाबों की दहलीज पर आकर,
अक्सर रुक से जाते है।
यादों के दरमियां ,
ख्वाबों के सिलसिले,
बात दिलों की कह जाते है।
शूल उसकी जुदाई के,
अक्सर चुभते जाते है।
खोया खोया रहता हूँ,
अक्सर तन्हाईयों में।
शूल बनकर यादें उसकी,
हर जख़्म ताजे कर जाती है।
सोचता हूँ कभी,
अब मरहम ही बना लूं,
यादों को उसकी।
जीवन तो जहर है,
पीना तो पड़ेगा।
लाख हो गम भले ही,
जीना तो पड़ेगा।
शूल उसकी जुदाई के,
अक्सर चुभते जाते है।
तड़प उठती हर आह मेरी,
यादों की गर्माहट से।
कम्पित हो उठता हूँ,
हर तिनके की आहट से।
कैसे कहूँ उसको बेवफा,
नसीब ही अपना,
जब दे गया दगा।
शूल उसकी जुदाई के..
अक्सर चुभते जाते है
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
विधा - तांका
===============
1.
हैं कष्टप्रद
किसी को न सुहाते
नहीं ये भाते
करें ताने कबूल
फूल खिलाते #शूल .
2.
हैं सलामत
महक बिखेरते
खूबसूरत
खिलखिलाते फूल
#शूल की बदौलत .
****************
स्वरचित
प्रमोद गोल्हानी सरस
कहानी -- सिवनी म.प्र.
शूल ह्रदय में इसने बोये,
थोड़ा मीठा जो भी बोले,
बस सारा जग अपना होए l
पांडवो ने महल बनवाया,
उसमे कौरव को बुलवाया,
महल मे रचा था भ्रृमभारी
दुर्योधन मिलने को आया l
महल ऐसा पांडव बनवाये
जल थल कुछ समझ न आये,
दुर्योधन हैरान हो गया,
उसने आगे कदम बढ़ाया l
जल समझ पैर पीछे हटाया,
थल था वो समझ ना पाया,
द्रुपद पुत्री देख रही थी,
अंधे का पुत्र अंधा कह डाला
वाणी पांचाली की चुभ गयी,
उसके दिल मेबात येलगगयी,
फिर द्युत में उन्हें बुलाया,
पासा शकुनि से डलवाया l
पांडव सब कुछ हार गये,
द्रोपदी को भी वार गए,
शूल बन गयी उसकी वाणी
सभा मे खींची उसकी साड़ी
कान खोल के सुन नर नारी
कलह भी करवाती वाणी,
सोच समझ कर तुम बोलो,
न तो रचे महाभारत भारी l
कुसुम पंत
स्वरचित
समझ न पाया तेरी माया,राह गया क्यों भूल
देख देख माया भरमाया ,पथ में बिखरे शूल
शूल उठे मनवा में भारी , तड़पत हूँ दिन रैन
अब प्रभु राखो लाज हमारी , कैसे पाऊँ चैन।
कर्मो से तेरा नाता है , नैया है मझधार
ये दुनिया है रैन बसेरा,आना जाना पार
शूल शूल चुनता जाता है,समझत किया विशेष
खत्म हुई स्वांसों की माला , बाकी रहा न शेष।
~प्रभात
स्वरचित
प्रकृति जो बोती शूल
वो तो हो सकते निर्मूल
पर हम देते जो शब्द शूल
वो ही पकड़ लेते हैं तूल।
शब्द होते जब गरिमामय
व्यक्ति को करते तन्मय
अच्छा मरहम लग जाता
शब्द शूलों का होता क्षय।
महाभारत देन शब्द शूलों की
एक से एक भयंकर भूलों की
तो ऐसी स्थिति में कैसे सुनते
कृष्ण की बात कोमल फूलों की।
घृणा के शूल काट दो
पथ के शूल पाट दो
जीवित मानवता रहे
प्रेम के फूल बाँट दो।
बन जाये किसी का शूल
वैमनस्य न मन मे पालिए
ये चूभते है बन के शूल
बूरी व्यसन से दूर रहिये
बन न जायें जीवन मे शूल
संतानों मे भेद मत करिए
बन जाये परिवार में शूल
बेटा बेटी एक समान
यह मत जाइए भूल
इन सब शूलों का एक ही मूल
मोह माया से रहिये दूर
भजिए नित राम को
मिट जाये सब शूल।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
काँटा तन को भेदता ,देता तन को खोल
बात न मन को भेद दे,तोल तोल के बोल
दुख के कांटे हों बिछे, काँटे दओ निकाल
पर पीड़ा गर जान लो,सुख पाओ तत्काल
कटु वचन नहीं बोलिये, गड़े हृदय में शूल मीठी वाणी बोल कर , शूल बनाओ फूल
नैनन तीर चलाय के , करो न मुझपे वार
तीर निशाने पे लगा , हो जाएगा प्यार
सरिता गर्ग
स्व रचित
हरेक साल वही फिर गुनाह करते हैं।
फिक्रो- गम में जिन्दगी तबाह करते हैं।
बेपत्ता हो जो शजर तो पहचानते नहीं।
ऐसे दरख्त पे कहां पंछी पनाह करते हैं।
उनकी बनती ही नहीं है फूलों से कभी।
ये हमीं हैं जो कांटों से निबाह करते हैं।
सरे बाजार मिले सनम हंसते हमीं पर।
भूले वो इश्क जब से निकाह करते हैं।
हम पे असर कैसा है तेरी सोहबत का।
तुम ही तुम हो जिधर निगाह करते हैं।
विपिन सोहल
मग शूल तेरे मैं चुन पाती
मन मन्दिर हो जाता पावन,
अभिलाषा पूरी हो जाती।
दीपक उर का इस आस जले
नेत्रों में दर्शन प्यास पले
हिय द्वार खुले है स्वागत को
स्वांसों की गति अविराम चले,
उद्विग्न हृदय होता व्याकुल,
जब जब तेरी आहत आती।
मन मन्दिर हो------------।
मन में फिर प्रीति के गीत बजे,
नैनों में तेरे ही स्वप्न सजे,
राहों में बिछाये नयन पुष्प
अब खड़े है द्वारे सजे धजे...
तेरी वेदमंत्र सी वाणी से
अभिसिंचित स्मृति हो जाती ।
मन मन्दिर----------
स्वरचित
गीता गुप्ता 'मन'
भारत ऋषियों की भूमि है,
देवों ने इसको सींचा है।
ये शब्द शूल से चुभते हैं,
भारत में कायर रहते हैं।
बलिदानों की है भूमि यह,
वीरों से अटि पड़ी है यह।
जिस रोज न होंगे वीर यहाँ,
उस रोज न होगी भूमि यह।
साहित्य , कला की भूमि यह,
नित होते नए सृजन इस पर।
ये शब्द शूल से चुभते हैं
अज्ञानी इस पर बसते हैं।
संगीत बसा हर रग रग में,
कण-कण में इसके ईश्वर है।
ये शब्द शूल से चुभते हैं,
यह धरा सर्वथा नीरस है।
हर मन में इसके प्यार भरा,
हर कोना इसका उपजाऊ है।
यह शब्द हृदय में चुभते हैं,
बंजर इसकी हर क्यारी है।
अभिमान त्याग कर कहता हूँ,
यह देश स्वर्ग से भी प्यारा है।
जिस रोज ना होंगे वीर यहाँ,
उस रोज ना होगी धरा यहाँ।।
(अशोक राय वत्स) स्वरचित
जयपुर
जिदंगी की राह में वरदान शूल हैं कभी |
फूल की हिफाजत हर डाल पात की ,
आ रहा जो दरमियाँ उस आघात की ,
आँसू भी आँख के लिये सांस राहत की ,
चमन की हर कली के शूल ही हैं बांगबां ,
हर एक विकास के आधार बने शूल ही |
राह जो हो मखमली तो जिंदगी क्या जिंदगी ,
जब चोट पत्थर पर पड़ी बन गई मूरत नयी,
जब तप गया सोना घना तो वही कुदंन बना ,
दीप जब तक जला किया उजाला रहा बना ,
शूल से दोस्ती भी कभी कभी हो जाती भली |
शूल हो न भूख प्यास का कोई चेहरा उदास का ,
अज्ञानता के डर में पल रहे दैत्य अंधविश्वास का ,
भटकते हुये मासूम सिसकते बचपन की आँख का ,
विश्वासघात करने वाले किसी भी देश के गद्दार का ,
लाल अपने ही तो पालकों को शूल बन जाते कभी |
मौसमों की मार में और कठिन से कठिन हाल में भी ,
जो रिश्तों की मार में और अपनों के अविश्वास में भी,
कदम कभी डगमगाते नहीं न ही छोडते हैं जो जमीं ,
हौसला ही है जिनका यकीं शूल उन्हें कुछ भी नहीं,
कभी रूके नहीं घर घड़ी यूँ ही चलती रहे ये जिंदगी |
स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,
पादप शुचि की एक डाल पर,
शूल फूल प्रकृति उपहार,
मात्र शुष्क जीवन शूलों का,
पाता फूल मृदुलता प्यार।
आकर्षण सिद्धान्त जगत में,
ध्यानाकर्षित करता शुचि फूल,
शूल चुभन अनुभूति करा कर,
ध्यान त्वरित कर लेता अनुकूल।
जीवन फूलों की सेज न सर्वदा,
जीवनपथ पर मानव प्रजाति को,
नित प्रति - पग पर संघर्षों के,
मिलते कटुतम घातक शूल।
चारू धरा के प्राँगण मे नित,
मनोविकार के शूल विविध,
शब्दों की माधुर्य मधुरता,
झर झर बरसाती मृदुतम फूल।
--स्वरचित--
(अरुण)
(1)
है
शूल
कुबोल
उर बेधे
निंदा कराए
जगत हँसाए
मन पीर बढ़ाए
(2)
है
शस्त्र
त्रिशूल
भूतनाथ
असुर डरे
जग पाप बढ़े
नृत्य- तांडव करे
-- रेणु रंजन
( स्वरचित )
10/01/ 2019
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