Wednesday, January 9

"अतिथि "9जनवरी2019

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             ब्लॉग संख्या :-263
"अतिथि"



1
अतिथि रिश्ते
खड़ी लक्ष्मी लगते
पल में चलते।
2
चाँद अतिथि
नभ के द्वारे खड़ा
तारे विनीत।
3
जन्म अतिथि
चंद श्वासों की माला
मृत्यु गिनती।
4
मेघ अतिथि
शुष्क गालों पे खुशी
फसल हँसी।

वीणा शर्मा वशिष्ठ

ंद हाइकु.. विषय :-"अतिथि "

(1)
तन सराय 
मोह-माया अटैची 
साँसे "अतिथि" 
(2)
वक़्त अभाव 
"अतिथि" से करती 
दीवारें बात
(3)
मन के घर 
घृणा-प्रेम अतिथि
आते व जाते 
(4)
अतिथि सेवा 
पूजा है संस्कारों की 
आतिथ्य धर्म 
(5)
जिद्दी अतिथि 
ठहरी महंगाई 
रोती गरीबी 

स्वरचित 
ऋतुराज दवे

अतिथि प्राण 
काया सेवा सत्कार 
मोह संसार |


ज्ञान अतिथि 
दावानल जड़ता 
रमता जोगी |

निर्मोही जग 
राह पलक बुहारे
आये अतिथि |

यौवन विदा
अतिथि वन आये 
पिंजर देह |

घर संसार 
अतिथि सा रहता 
किसने जाना |
संस्कारों से संस्कारित
देवतुल्य भारत अतिथि
बड़े भाग्य जिसके होते
उनके घर आते अतिथि
वामन बनकर विष्णु आये
राजा नल ने क्या न दिया 
श्री कृष्ण घर आये सुदामा
सचमुच महल पवित्र किया
कुटिया शबरी राम पधारे
भिलनी झूठे बैर खिलाए
भाव भक्ति विव्हल होकर
श्री राम ने लखन हँसाये
मुख्य अतिथि के गल माला
सुस्वागत करते हैं मिल सब
शाल श्री फल साफा बंधन से
स्वागत गान करते हैं ज्यो रब
पलक पावड़े सदा बिछाते
अतिथि का सम्मान बड़ा है
सत्य सनातन स्वच्छ रीत पे
प्यारा भारत महान खड़ा है
वह् परिवार सौभाग्यशाली
जिस घर में मेहमान पधारे
आगत का नित स्वागत होता
उस गृह के नित वारे न्यारे ।।
सभी अतिथि इस दुनियां में
जन्म मृत्यु निश्चित न तिथि
कठपुतली बन नाच रहे सब
प्रभु देना सबको सद्बुद्धि ।।
स्व0रचित
गोविंद प्रसाद गौतम्


आज बदलते युग में क्या अच्छा क्या बुरा कहें 

सब कुछ बदला बदला है भाव में हम न बहें ।।
नही दूर की बात है बचपन की ही स्मृति ,
थे महीनों महीनों तक लोग मेहमानी में रहें ।।

मगर आज मेहमानी के किस्से सब सुबक रहे
मेजबान और मेहमान दोनो ही अब दुबक रहे ।।
नही हैं वक्त किसी को भी हैं वक्त के लाले ,
बच्चे भी बेचारे अब पलनाघर में सिसक रहे ।।

मेहमानी की खतम कहानी
बदल गई है अब सब रवानी ।।
अतिथि नाम अब डराये 'शिवम'
क्या नसीहत दें , हैं कई हैरानी ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्
अतिथि
🌸🌸
🌸
नमन मन्च।
साथियों नमस्कार।
🌷🌷🌷🌷🌷🌷
1
बिन बताये
आ जाये बिन तिथि
वो है अतिथि
2
आके जाये ना
जीना करे हराम
दुष्ट अतिथि
3
आये अतिथि
डेरा डाले घर में
जाना ना चाहे
4
सभ्य अतिथि
बिना काम ना आये
जल्दी से जाये
5
अच्छे अतिथि
तोहफा लेके आये
हँसे हंसाये
स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
विधा=हाइकु 
==========
(1)बन अतिथि 
सार्थक उपस्थिति 
रहे प्रस्तुति 
🌹🌹🌹

(2)बन अतिथि 
प्यासी धरा पे वर्षा 
खुश प्रकृति 
🌹🌹🌹

(3)तन मकान 
सांसे बन रहती
यहाँ अतिथि 
🌹🌹🌹

(4)रोग अतिथि 
औषधि से स्वागत 
लेकर जाता
🌹🌹🌹

(5)करे सत्कार 
अतिथि आगमन
आपके द्वार 
🌹🌹🌹

स्वरचित
मुकेश भद्रावले 
हरदा मध्यप्रदेश 
(१)
है
धर्म
विनम्र
सदाचार
सेवा के भाव
हमारे संस्कार
अतिथि देवो भव
(२)
हो
भाव
सम्मान
मनप्रेम
दिल में बसा
आतिथ्य सेवा
भारत की है प्रथा

***अनुराधा चौहान***स्वरचित

तिथि आए 
और चले जाए 
मन में कोई रंज नहीं ।
अतिथि आए 
और चले जाए 
मन से कोई तंग नहीं ।।

कहते हैं ...,

'आरंभ' हो और 'अंत' न हो 
मन इतना भी 'स्वतंत्र' नहीं ।
'व्यथित' हो और 'शब्द' ना हो 
मन इतना भी 'परतंत्र' नहीं ।।

जिस तरह हम 

तिथि को वार को 
नए साल को 
स्वागत करते हैं ।
उसी तरह 
अतिथि को भी 
अभिनंदन करें 
स्वागत करें ।।

स्वरचित एवं मौलिक 

मनोज शाह मानस 
सुदर्शन पार्क 
मोती नगर नई दिल्ली
अतिथि (हास्य)

सुबह पांच बजे 
मोबाईल की 
घंटी बजी
उधर से आवाज आई
" आ रही हूँ "
फोन हाथ से
छूटता छूटता बचा
कड़ाके की सर्दी में 
पसीने से तरबतर हुआ ।
मैने कहा :
" कौन हो माई ? 
सुबह सुबह क्यो 
बढा रही हो रक्तचाप?"
उसने कहा :
" अतिथि हूँ
जिसकी हर बात 
"अ" निश्चित होती है
उसकी आने की कोई तिथि
नहीं होती
वह कैसे आऐगी 
बैलगाड़ी घोडागाडी 
रेल बस हवाईजहाज 
या फिर हरफनमौला हुई
तो पैदल भी आ जाऐगी ।"
खैर साहब दिल पर पत्थर 
रख कर कर रहे 
अतिथि का इन्तजार 
घड़ी की सूई जैसे जैसे 
खिसकती रही 
बैचैनी हमारी बढती रही

हम लगे हिसाब लगाने
पत्नी तो मायके में है
साली को बीवी भेजेगी नहीं 
पडोसन तो अभी अभी दिखी

हा कालेज की 
सोमया माया या रोमया 
हो तो मजा आ जाऐ
एक बार दिल बल्ले बल्ले 
हो गया ।

बीवी के नहीँ होने पर
बारह बजे उठने वाले हम
सात बजे उठ गये
फिर लगे हम चाय नाश्ते का
करने इन्तजाम 

ठीक दस बजे 
आ कर रूका एक आटो
उसमें से उतरी हमारी मोटी

हम घबराएं फिर मुस्कुराएँ 
पकडा उसका बेग 
अंदर आऐ छिपाया 
रात का पेग

सब कुछ देख कर बोली वह :
" काला है कुछ दाल में 
पर पकेगी नही अब
दाल तुम्हारी "

अब हो गये हम रुआंसे
कसम से आ गये आंसू 
फिर कह डाली कहानी 
अतिथि वाली
वह बोली :" मेरे जानू
वह अ- तिथि में ही हूँ 
जो बिना तिथि 
कभी ससुराल तो 
कभी मायके में 
पायी जाती है ।

अब मैं नत मस्तक हो गया
और अतिथि सेवा में लग गया ।

स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल






हम
 इस जग में हैं अतिथि
कब जायेंगे नहीं है तिथि
अकस्मात ही जायेंगे
फिर न लौटके आयेंगे।

हमारा तो विचित्र स्वभाव है
सब कुछ है फिर भी अभाव है
जोड़ने की सतत् प्रक्रिया का
हर ओर ही मिलता प्रभाव है।

अतिथि हैं पर भरे राग द्वेष हैं
एक चोले में अलग अलग वेष हैं
मन के अन्दर मैल है भरा हुआ
पर सबके पास निर्मल से परिवेश हैं।

सब जानते अपना अंजाम
सब जानते हैं अपनी शाम
पर एक ही है बोललबाला
बगल में छुरी मुँह में राम।



1
आए बन एक अतिथि
कुछ देर,
निगाहों में बैठे
फिर,दिल में पैठे
घर में पसर गए
आधिपत्य मन पर
साम्राज्य तन पर
बातों ही बातों में
मधुर जज़्बातों में
दिन कैसे गुजर गए
अंजाम-
एक नया अतिथि
किलक से
फिर घर भर गए 
-©नवल किशोर सिंह

2
बदलते मूल्य
सिमटते लोग
निजता का बोध
दिनचर्या अवरोध 
मंहगाई की मार
अतिथि-एक भार
3
पलक पावड़े
बिछे राह में
न जाने कब 
अतिथि बन
आ जाएँ रब
चख लें बेर
बदले,समय का फेर 
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित


आने को है आज अतिथि
होने लगी है घर की सफाई
नये परदे, चादर नया
पंखा, टीवी चमके चमचम

सबने की है अतिथि की तैयारी
बजी घंटी आये अतिथि
मेवा मिष्ठान खूब उड़ाये
शुरू हो गई बच्चों की धमाचैकड़ी

टीवी सिसके,सुबक सुबक
कोई तो बटन बंद करो भाई
थक गया मैं चिल्ला चिल्ला कर
थोड़ा, सुस्ताऊ,फिर देखना जी भर

परदा रोयें अपनी रामकहानी
ठंड बहुत है, नही नहाऊ दूबारा
चादर रोये, बुक्का फाड़
अब तो रहम करो मेहमान

थक गया मै उल्टा,फिर सीधा होकर
मुझे नही श्वास लेने की फुर्सत
इतने फुर्सत मे क्यों आये अतिथि
आ तो गये बिना तीथि बतायें

अब तो बताओ वह कौन सा तीथि
जिस दिन घर लगे घर सा
फिर से तैयारी हो नये अतिथि का,
सुस्वागतम हो नये अतिथि का।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।




अतिथि देवो भवः
हुआ करते थे कभी..?
जिनके आगमन से,
पलक पांवड़े बिछ,
जाते थे कभी..!
छलक उठता था,
अपनापन।
बरस उठते थे,
नेह-घन।
घर भले ही छोटे थे,
पर दिल बहुत थे बड़े।
अतिथि की मान-मनुहार में,
रहते थे हाथ बांधे खड़े।
वक्त ने बदली जो करवट,
संस्कृति धूमिल हुई।
अतिथि देवो भव..!
परंपरा नाम की हुई।
अतिथि से हट गया,
'अ'रह गई बस तिथि..!!
पहले ही बतानी पड़ती,
है पहुंचने की तिथि।
समय की है कमी,
होता नहीं अवकाश है।
मोबाइल अब पास हैं,
बतानी ही पड़ती है तिथि।

अभिलाषा चौहान



"अतिथि"
लघु कविता
मध्यम वर्गीय परिवार था
प्रेम ही परिवार की नींव थी
ईमान और सच्चाई से जीते थे
मुश्किलों से ग्रहस्थी चलाते थे

एक दिन अतिथि देव पधारे
पुराने दिनों के मित्र वो ठहरे
साथ-साथ पल थे बिताये
विश्वविद्यालय के सहपाठी थे

सुबह से शाम खातिरदारी हुई
दो दिनों तक घर में रौनक रही
बच्चों की खुशियाँ भरपूर थी
निगाहें पकवान पर टिकी रही
जमकर दावत खूब हुई

भरे मन से विदाई हुई
स्वागत में ना कुछ कमी रही
हाथ जोड़ मित्र ने कहा
मित्र तू बड़ा खुशनसीब है
घर में तेरे साक्षात् लक्ष्मी है

मुखिया के मन में प्रश्न जागा
घर में इतना रौनक कैसे आया
पत्नी से उसने पूछ ही डाला

गृहलक्ष्मी ने अपनी नजरे चुराई
सहमते हुए यह बात बताई
गृहस्थी के सम्मान की खातिर
बेचे उसने कंगन थे
मुँहदिखाई के रश्म में
सासु माँ से मिली निशानी थी

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल


**************
घर आंगन में रौनक छायी,
अतिथि के आने की तिथि आई, 
ननद-ननदोई का होगा आगमन,
घर में होगी खूब चहल-पहल |

किसी ने दरवाजे की घंटी बजाई,
सासू माँ ने जल्दी दौड़ लगाई, 
दरवाजा खोल के बिखेरी मुस्कान,
आ गये जीे हमारे घर मेहमान |

हम बहुओं ने कमर कस ली, 
मेहमान नवाजी की तैयारी कर ली, 
देखो हमसे कोई चूक न हो जाये,
अतिथि को कोई बात बुरी न लग जाये |

कब दिन हुआ, कब हो गई रात, 
पता न चलता जब खूब होती बात, 
बच्चों की तो जैसे लॉटरी लग गई ,
खेल-कूद की आजादी मिल गई |

हमें हमारे अतिथि खूब हैं भाते,
इन्हीं से हैं हमारे रिश्ते और नाते, 
दिल से करते हम इनका सत्कार, 
यूँ ही आते रहें ये बार-बार |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*



---------------------
अतिथि देवो भव की
रीत है सदियों पुरानी
पीढ़ी दर पीढ़ी हमने
यह सीख सदा ही जानी
वो भी क्या दिन थे
जब रिश्तेदारों का
होता आना-जाना था
यादों की पोटली से
निकलता पुरानी
यादों का बड़ा खजाना था
हर दिन होता उत्सव सा
रातें होती उजियारी सी
खट्टी-मीठी शरारतों के बीच
कब वक़्त निकलता बातों में
धीरे-धीरे वक्त के आगे
हर चीज बदलते देखी है
वक्त की हो गई बड़ी कमी
और प्रीत बदलते देखी है
अतिथि देवो भव की भी
अब रीत बदलते देखी है
आना-जाना तो लगा रहता
पर पहले जैसी बात कहां
घूमने में निकलता वक्त सभी
बातों की किसी को फुर्सत कहां
किस्से, कहानी, हंसी ठिठोली
अब सब सपना सा लगता है
घूमों फिरो सेल्फी खींचो
बस वही अब सब का सपना है
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित रचना


🍁
गये थे जो कभी दिल से, वो वापस लौट आए है।
अतिथि बन कर पुनः यादों को, झिझोर लाए है।
🍁
कभी रहते थे वो दिल मे, अब उनकी यादें रहती है।
कभी वो थे हमारे पर अभी बस याद रहती है।
🍁
मिली इस उम्र मे बिछडी मोहब्बत, तुमसे क्या कहे।
खिजाँबी बाल है उनके तो अपने हाल क्या कहे।
🍁
मगर भावों के मोती फूट कर, बिखरें है राह पे।
ये मन की भावना है शेर के, जो निकले है आह से।

🍁
स्वरचित .. Sher Singh Sarraf



अतिथि तुम देवों की खान
बच्चे हों या बडे समान

आते तुम बिन तिथि महान
जाते तुम खा के रस पान

आते तुमसे मेवा मिष्ठान
गाते हम तुम्हारे गुणगान

सोते तुम चादर को तान
घर के सोते ठिठुरेहै जान

बिन मौसम बिन तिथि न जान
झंट टपक जाते तुम महान

राशन पानी खतम न जान
तुम तो उडाएं मीठे पकवान

स्वरचित
नीलम शर्मा#नीलू



विधा- वर्ण पिरामिड

१)-
थी
स्थिति
अतिथि
देवतुल्य
ईर्ष्या प्रधान
वर्तमान स्थान
संबंध स्वार्थजन्य

२)-
है
निंद्य
अतिथि
मनस्थिति
स्वार्थपरक
घृणित अवंद्य
प्रयोजनपूरक
#,,, __
मेधा.
"स्वरचित"
मेधा नरायण.




भारतवर्ष में देवतुल्य सदा अतिथि की गणना होती आयी है, 

भारतवर्ष की हर परंपरा बड़े दिल वाली ही होती आयी है |

यहाँ पर लोगों ने हमेशा दुरूपयोग परंपरा का कर डाला है ,

आतिथ्य सत्कार को खुद अपने ही कर्मों से डस डाला है |

इन्होंने विश्वास छला है और छलनी दिल को कर डाला है ,

अतिथियों ने संरक्षण के बदले में घर पर आधिपत्य कर डाला है |

अतिथि का आदर करने का हमेशा मिला यही तो बदला है ,

हम रुखी सूखी जो भी खाते थे वो भी छिन गया निवाला है |

परतंत्र हो गया था देश हमारा और हमें भेंट मिली दासता है ,

मिले हुए इस सदमे से अब तक अपना देश नहीं उवर पाया है |

लोगों ने हमारी सहृदयता का मतलब ही गलत निकाला है ,

अतिथि परंपरा का मजाक सबने खूब जी भर कर उडाया है |

सुख दुख भी जीवन में अतिथि की तरह ही आते जाते हैं ,

कुछ खट्टे मीठे अनुभवों से हमारी झोलियों को भर जाते हैं |

जब तक रहें मर्यादा में अतिथि तब तक ही अच्छे लगते हैं ,

रिश्ते नाते दुनियादारी सब कुछ मिल जुल कर ही चलते हैं |

रीति हमारी बनी रहे हम सदैव प्रयास यही तो करते हैं ,

अर्थहीन,दुखदायी कुरीतियों का हम पालन नहीं करते हैं |

स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,



विषय:अतिथि
विधा:पिरामिड

है
तिथि
अज्ञात
खुशी गात
द्वार अतिथि
मन है मुदित
गृह है आह्लादित

ये
रीति
प्रीति की
अतिथि की
व्यवहार की
प्रेम सत्कार की
हमारी संस्कृति की

मनीष श्रीवास्तव
स्वरचित
रायबरेली





एक जमाना था 

अतिथि का आना 
देव समान समझना 
आदर सत्कार करना 
धर्म समझकर 
बड़े प्रेम से किया जाता था ।

अब वो जमाना नहीं 
उस तरह अतिथि का आना भी नहीं 
देव समान समझना भी नहीं 
इसलिए आदर-सत्कार करना भी नहीं 

अब अतिथि आते भी नहीं 
जो आते रुकते भी नहीं 
जो रुकते हैं
वे मुसीबत ही लगते हैं ।
अब जमाना बदल गया है ।
पूनम झा 
कोटा राजस्थान


अतिथि.. 
डमरू प्रयास 
9/1/2019

अतिथि भूखा जाये 
शची घबराये 
रहा चिढ़ाए 
बरतन 
रिक्त 
तो 
कान्हा 
मुस्काये 
दाना खाये 
प्रीत निभाए 
गुरु भरमाये 
ऋषि क्षुदा मिटाये 

कुसुम पंत उत्साही 
स्वरचित 
देहरादून


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