Wednesday, January 16

"शहर "14जनवरी2019

ब्लॉग की रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं बिना लेखक की स्वीकृति के रचना को कहीं भी साझा नहीं करें |
             ब्लॉग संख्या :-268




शहरी चकाचौंध में,
गुम होती महक गाँव की।
हो जाता यहीं का,
जो आता यहाँ पर।
भूल जाता मिट्टी वो, 
जिसमें खेल बड़ा हुआ।
भूल जाता गोद वो,
जिसमें वो पला बड़ा।
शहरी चकाचौंध में,
कर आया वो आँगन सूना।
छोड़ आया कुछ सपने,
उन द्वार तकती अँखियों में।
तन्हाईयों में सिसकती,
नजरें ढूँढती गलियों मे।

स्वरचित :- मुकेश राठौड़




विधा- कविता 
**********
शहरों में एक सुन्दर शहर है, 
वो मेरा देहरादून शहर है, 
जन्मभूमि मेरी यही है, 
कर्मभूमि भी मेरी यही है |

सुन्दर वादियों से ये घिरा है ,
उत्तराखंड का खूबसूरत जिला है,
देवी-देवताओं की यहाँ शिला है, 
देवभूमि नाम इसलिए मिला है |

मेरे शहर की बात बहुत निराली है, 
चारों तरफ यहाँ खूब हरियाली है, 
हर मौसम अपना मिजाज दिखाता है,
इसलिए मेरा शहर मुझे खूब भाता है |

पर्यटकों का रोज लगता मेला है, 
पहाड़ी भोज सबको खूब भाता है, 
देखने की जगह यहाँ बहुत सुन्दर हैं, 

मै हूँ शहर 
धुंए से भरा 
लुभाता.. राही को 
मेरी चमचमाती.. इमारते 
लालच भड़काती... 
बेचारा.. गावं.. 
इंसान को तरसता 
यहाँ आकर.. वो सब भूल जाता.. 
मेरी चकाचोंध... और.. धुंए 
में कहीं.. गावं की खुशबु 
भूल जाता.... 
समझ नहीं पाए.. 
कि मै विकास के साथ 
विनाश भी.. 
प्रगति के साथ दुर्गति लाता 
ओ.. मानव सम्भल.. 
राह.. गावं की पकड़ 
स्वस्थ रहेगा तन मन.. 
क्यों.. जीवन गवांता.. 
क्यूँकि मै.. शहर कुछ भी 
नहीं.. बस. धुंध...धुंआ 
हूँ... तम हूँ... इसलिए 
लौट जा... लौट जा.. उस प्रकृति की गोद में... 
कुसुम पंत उत्साही 
स्वरचित 
देहरादून
उत्तराखंड के मस्तक का ये चंदन है |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*

"शहर"
1
घूमते हम
विचारों का शहर
आत्म मनन
2
गाँव के रास्ते
रोजगार के वास्ते
शहर जाते
3
मन भ्रमर
अनजाना शहर
मिला है गम
4
शहरी खुशी 
कराहती जिंदगी
खाली है हाथ
5
ढूँढता मन
फूलों का है शहर
एक मुस्कान

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल

शहर तो भैया शहर होता है
ागता ज्यादा कम सोता है
पता नही कितना कमाता
मगर सदा दिखता रोता है ।।

बड़ी बिडंवना इन शहर में
डाके डल जाते दोपहर में ।।
भीड़ में लुटते देखा लोगों को
संशय रहे सबकी नजर में ।।

अजीब घटनायें यहाँ घटतीं हैं
यहाँ तो औरतें भी लूटतीं हैं ।।
भेष भी पता नही चलते हैं
इंसानियतें यहाँ सिमटतीं हैं ।।

पर क्या करें गाँव बेचारे रोते हैं
अब शहर में धनवान होते हैं ।।
वहीं तो मिलेगा दाना पानी
सब शहर का स्वप्न सँजोते हैं ।।

हकीकत ''शिवम" यही अब 
छीन लिये धन्धे जब सब ।।
उन्हीं के तो पाँव पलोटेंगे 
जहाँ न उसूल न मजहब ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 14/01/2018

गङ्गा यमुना सागर तट पर
चार धाम सुशोभित हैं
बद्री जगन्नाथ द्वारिका
रामेश्वर शिव विराजित हैं
मथुरा वृंदावन और काशी
अवध अवन्तिका भव्य शहर
हरिद्वार ऋषिकेश पूजनीय
फिर भी मिला हुआ जल जहर
पीयर में पपीहा बोलता
ससुराल में नाचते मोर
शहर में कोई न बोलता
फिर भी कितना है शोर
बड़े शहर की चकाचौंध से
पर्यावरण प्रदूषित होता
अस्पताल की खटिया पर
रोता मात्र कभी न सोता
कोलाहल धुंय की चादर में
शहर तड़प तड़प कर रोता
गिने कौन यँहा दुर्घटना को
जो आता है सब कुछ खोता
सत्ता के सिंहासन ऊपर
आँखे मूंदे नेता सोते
सब शहर के वासी होकर
निज कर्तव्य को वे खोते।।
स्व0 रचित
गोविंन्द प्रसाद गौतम
अजनबी शहर में,
कांच का दिल लेके,
भटकता हूँ।
शहर दर शहर,
रोजी रोटी की तलाश में।
गुज़र जाता है दिन,
बीत जाता है हर पहर।
सोचता हूँ के मैं भी बिक जाऊं
एक दिन, 
मग़र ये भूख का मुनासिब इलाज नही।
के छोड़ आया हूँ मैं अपना शहर 
इस शहर के वास्ते, 
भूल गया हूँ इस शहर के लिए
उस शहर के रास्ते 
जिंदगी बहुत तेज़ दौड़ रही है इस शहर में,
एक दिन मैं भी रुकूँगा अपने शहर के वास्ते।
-कल्पना'खूबसूरत ख़याल'
पुरवा,उन्नाव (उत्तर प्रदेश
 शहर रोया
रक्त रंजित धरा
घूमें दंगाई।।


बिजली गुल 
अंधकार का राज
चुप शहर।।

झंडे बैनर
तीब्रतम स्पीकर
गूंजे शहर।।।

हवा न पानी
सब मिले अशुद्ध
अप्राकृतिक।।।

गांव को छोड़
लोग भागे शहर
धोबी का कुत्ता।।।
भावुक


गांव से लोग 
करते पलायन
शहर ओर
🌹🌹🌹
ओढ़ के बैठे
प्रदूषण चादर
सारे शहर
🌹🌹🌹
नहीं आराम 
जाग रहा शहर
दिन व रात
🌹🌹🌹
गांव की सीमा
शहर से विलय
करे विकास
🌹🌹🌹
गांव पहन
शहर का कफन
हुआ दफ़न
🌹🌹🌹
निगल रहा
भारतीय संस्कृति 
आज शहर
🌹🌹🌹
स्वरचित 
मुकेश भद्रावले
हरदा मध्यप्रदेश 
14/1/2019

यह शहर पत्थरों का
हृदयहीन
भावना शून्य
प्रतिस्पर्धा
कदम कदम पर
भागदौड़ से भरी जिंदगी
भोग विलास में लिप्त
नई पीढ़ी ने अपनाई
पाश्चात्य सभ्यता
भूली अपनी संस्कृति
रात भर जागना
भोर में रूपहली किरण
कितनी आनन्ददायी
नही जान पाते
दूसरों के 
सुख दुख से विमुख
कर रहे 
सुंदर प्रकृति का विनाश
पर्यावरण दूषित
हवा दूषित
जल प्रदूषित
खाद्य पदार्थ बन रहे अखाद्य
ले आया 
किस कगार पे हमें शहर
और हमारी
शहरी जीवन शैली

सरिता गर्ग
स्व रचित

*******************
🍁
अजनबी से शहर मे मै, गाँव छोड के आया।
सपनो को सजाने मै, घर को छोड के आया।
🍁
मेरे गाँव मे पगदण्डी, यहाँ चौडी सडक है।
वहाँ बहती है पुरवायी, यहाँ धूल बहुत है।
🍁
मेरे गाँव का जो घर है उसका आँगन बडा है।
पर शहर मे ना आँगन, ना घर ही बडा है।
🍁
रिश्तो को समझना हो तो मेरे गाँव कभी आना।
इस शहर मे तो रिश्ते ना, मतलब ने सबको बाँधा।
🍁
फिर भी सबको छोड के मै, शहर को तेरे आया।
मन शेर का अभी भी, याद गाँव मे ही लागा।
🍁
..
स्वरचित .. Sher Singh Sarraf

शहर दर शहर'
कुकुरमुत्ते से-
उगते कंक्रीट के जंगल!
वाहनों की रेलमपेल...,
लोगों का हुजूम,
घुटता पर्यावरण का दम।
शहरी संस्कृति...!
व्यक्ति से अपरिचित व्यक्ति,
अपने में खोया.….!
करता जीवन के लिए संघर्ष !
शहर ...!
बेहिसाब चकाचौंध,
आपा-धापी,
लंबी कतारें...!
भीड़ संस्कृति इसकी पहचान !
शहर ...
पत्थर का
पत्थर के हैं लोग
दिल भी पत्थर...!
जिसके कान बहरे..!
जो नहीं देख पाता...!
निरीह की पीड़ा..!
बेबस अबला की पुकार..!
जहां कुचलते अरमान,
टूटते सपने,
कीड़े-मकोड़ों सम...,
जीवन जीने को मजबूर
आदमी..!
शहर..!
चालाकी,ठगी..!
बदनीयती से घिरा..!
जहां मुखौटे बनाते हैं
अपना अस्तित्व..!
जहां इंसानियत
खोजती अपना अस्तित्व!!

अभिलाषा चौहान
स्वरचित

मेरे सपनों में आता है कोई,
आंखों में सपने सजाता है कोई,।।१।।
यादों के फूल खिलते हैं रातों में,
सूने घर को महकाता है कोई,।।२।।
सागर की लहरों में डूब जाता है कोई,
सागर को पार कर जाता है कोई।।३।।
निराशा की जब जब कालिया छाती है,
आशा का दीप जलाता है कोई।।४।।
बेरोजगार युवा गांव का,शहर में ही,
शहरी सांप उसे डसता है कोई।।५।।
जिदंगी की धार में कहता है कोई,
चाहत की आग को जलाता है कोई।।६।।
देवेन्द्र नारायण दास बसना छ,ग,।


अब शहर बने आदर्श हमारे गाँव भूल गए प्यारे प्यारे , 

जीवन की आपाधापी ने उडा दिए कुछ पृष्ठ सुनहरे ,

कल तक थे जो सपने हमारे वही हुए अब तेरे मेरे ,

कभी महलों के रहने वाले अब दो कमरों में उम्र गुजारे, 

घी दूध दही ताजी सब्जी के यहाँ नहीं दर्शन होने वाले ,

यहाँ चकाचौंध सपनों की फैली ढूँढ रहे सब अपने सपने ,

लेने को बड़ी बड़ी डिग्रियाँ घर से हो गए कितने अनजाने ,

खुशियों की तलाश में कितने भटक रहे हैं सांझ सकारे ,

मंजिल कभी तो मिल जायेगी इसी उम्मीद को दिल में बसाये,

उम्मीदें पूरी भी हुईं हैं पर अफसोस जो हम पीछे खो आये ,

गाँव में रोजगार जो होते तो युवा शहर की ओर न आते, 

जो समुचित प्रबंध शिक्षा का होता क्यों यहाँ पढ़ने आते ,

स्वास्थ्य सुविधाऐं उपलब्ध जो होतीं शहर के चक्कर नहीं लगाते ,

दिल शहर का बड़ा बहुत है यहाँ थोड़े में ज्यादा रह लेते ,

लिए निराशा जो भी आते वो मेहनत से खुशियाँ पा लेते ,

अशिक्षा के अंधकार को यहाँ शिक्षा के मंदिर दूर भागते ,

उन्नत कृषि के गुरु मंत्र भी सभी शहर में आकर मिलते ,

रहें परस्पर मिलजुल कर जब तब ही नया इतिहास बनाते 

स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,

(1)
वक्त से होड़
"शहर"भागे कहीं
चैन को छोड़
(2)
मन को फेंक
"शहर" पहचाने
धन को देख
(3)
कंक्रीट जाल
किरणें भी अटकी
शहर आ के
(4)
जहर हवा
"शहर" मिलावटी
वृक्ष ही दवा
(5)
"शहर" फ्लैट
कबूतरखाने में
सिमटे पंख
(6)
"शहर" बाग
हास्य क्लब चलते
हँसी सीखते 
(7)
गरीबी डेरा
"शहरी" चकाचौंध 
तले अंधेरा
(8)
दिखावा रोग 
"शहर" में विवाह
छप्पन भोग

स्वरचित 
ऋतुराज दवे


क्षणिका
(1)
श्वासें बेदम हो गई,
मुँह पर,
नकाब लग गए,
स्वयं पैरों पर,
कुल्हाड़ी मारता,शहर
रो रहा है..!

(2)
चिपके पेट,
अंतड़ियों की होती गिनती,
मजबूर करती,
चलो....,
शहर की ओर,
चिथड़े वसन में,कटोरा लिए,
क्षुब्धता मिटेगी।

वीणा शर्मा वशिष्ठ

कोस भर दूर जो चौमुहान है
इलाका जरा सुनसान है
वहीं,बाबूलाल का मकान है
ये गाँव है बाबू
लोग भले नादान
आपस में जान-पहचान है
ये ऊँची ऊँची इमारते
मानो छू रहा आसमान है
गगनचुंबी भवन आलीशान
पर कितने बौने इंसान
चमाचम तड़क-भड़क
खूब चौड़े चौड़े सड़क
इतनी तेज रफ्तार
किसी से न कोई सरोकार 
मुट्ठी भर जमीन में
समाया सकल जहान है
बरसों से पड़ोसी है
आदमी से मगर अंजान है
ये अपार्टमेंट संस्कृति
शहरों की बेजान वृति
भागमभाग और भीड़
अपने आप तक जंजीर
संवेदनहीनता का प्रमाण है
यही शहर का विधान है
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित

आँधी-बादल -सी धुंध
गाडियाँ चलती अंधाधुंध।
श्वास लेना दुश्वार, 
शहर में रहना बड़ा नागवार ।
बस प्रदूषण ही प्रदूषण हैं ।
हर गली भयानक 
रावण -खर -दूषण हैं।
लाज हैं न घूंघट, 
कुआ हैं न पघनट ।
ललनाओं का श्रृंगार 
तो कहीं बलात्कार ।
मान न मर्यादा बडो़ की
देते सभी दुत्कार ।
दुल्हन भी नयी नवेली , 
स्वार्थ इतना बढ़ा , 
चाहिए उसको नयी हवेली ।
कोयल की कू कहाँ ? 
पपीहे की पी कहाँ ? 
हर तरफ चौडी सड़कें 
बड़ी -बड़ी होटले 
खाए कहाँ रोटले ? 
हर तरह बैनर लगे वोट के , 
लोभी सभी हैं नोट के।
गाँव अब लूटने लगे हैं।
लोग वहाँ फूटने लगे हैं , 
ये अब शहरों में सिमटने लगे हैं।
शहर का मत पूछो ! 
हर तरफ शोर -शराबा हैं , 
छोटी-सी बात में चाकू-छूरे ! 
बैंक डकैती खून खराबा हैं।
हर तरफ अजनबी -अपरिचित 
सहायता नहीं कोई समुचित ।
चौबीसों घंटे बस काम हैं।
होड़ हैं दाम की नहीं आराम हैं ।
स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा 'निश्छल',
पत्थरों के शहर में
ज़ज्बात बदल गए
मिट गए आंगन
लोगों के हालात बदल गए
हवाओं को रोकने लगी
यह ऊंचीअट्टालिकाएं
सांप सी फैली सड़कों ने
डसा मानव की खुशियों को आज
हवाओं में जहर घोल रही 
सड़कों पर दौड़ती गाड़ियां
बीमारी को जन्म देती
प्रदूषण की बढ़ती मात्रा
शहर की जिंदगी ने
दिए जितने ऐशो-आराम
बदले में हमसे छीनी
सुकून की सांसें है
खान-पान का स्वरूप
भी बिगड़ा हुआ है
रंग, और रसायनों में
लपेटा शहर का खाना है
पर्यावरण को स्वच्छ बनाने
वाले पेड़ों का कटते जाना
नदी नाले गायब करके
उन पर बंगलें बनते जाते
शहरों की मशीनी जिंदगी
में इंसान मशीन बन गया
स्वच्छ हवा-पानी बिन
बीमारी का पुतला बन गया
अच्छी शिक्षा और रोजगार
भी देता हमें शहर है
अराजकता और गुंडागर्दी का
भी दिन-प्रतिदिन बढ़ता कहर है
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित रचना

No comments:

Post a Comment

"अंदाज"05मई2020

ब्लॉग की रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं बिना लेखक की स्वीकृति के रचना को कहीं भी साझा नही करें   ब्लॉग संख्या :-727 Hari S...