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ब्लॉग संख्या :-274
अब नव सोपान गढ़ो
सफर है संघर्ष भरा
हौसलों के पहाड़ चढ़ो
सिंह सी हो गर्जना तेरी,
ऐसी तू ललकार कर।
दुश्मनों के सीने पर,
हरकदम तू वार कर।
मातृभूमि की रक्षा में,
रहे अडिग तेरा हौसला,
सदा विजय हो तेरी,
मौत से रहे सदा फासला।
नमन तेरी शक्ति को,
मातृभूमि की भक्ति को।
करे तिरंगा गर्वित सदा,
तेरी मातृ शक्ति को।
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
( 1 )
आओ यारो अब चले, हो जाओ तैयार,
चलते पार्क खेत नदी,या चलते बाजार,
या चलते बाजार, बैठकर गप्पें मारे,
छुट्टी का दिन आज,काम न कोई हमारे,
सुनो कहत बलबीर,रविवार मौज मनाओ,
चाय पकोड़ी संग,गप्पें मारते आओ,
( 2 )
मारो गप्पें जोर की,जो सब को हंसाय,
ऐसी गप्पें मारना, पेट दुखन लग जाय,
पेट दुखन लग जाय,हंसकर ताली मारे,
बस कर अब तो यार,कहने लगे जब सारे,
खूब हंसाय आज, मजा भी आया यारो,
किसी का दिल दुखाय,ऐसी गप्प ना मारो,
स्वरचित
बलबीर सिंह वर्मा
कौन पढ पाएगा ?
पढा तो कौन
मौन रह पाएगा ?
हमने पूछा
मन से 'तुम बोलो',
अपने राज
कहकर तो खोलो,
वो मुस्कुराया
कहा किससे कहूँ,
सुनेगा कौन
मैं तो मौन ही रहूँ,
सुनाया नहीं
इसीलिए खुश हूँ,
औरों के नहीं
अपने वश में हूँ,
मुस्कुराती हूँ
आंसू भी बहाती हूँ,
आत्मबल से
खुद को मनाती हूँ,
आगे बढ जाती हूँ ।
--पूनम झा
कोटा राजस्थान
ऐ दर्द....
कुछ तो रहम कर,
मै तेरा रोज का ग्राहक हूँ.....
खुशिया छोड चुका हूँ, गम निचोड चुका हूँ ।
आँखो मे तुमको भर कर, यही बात कहा है।
🍁
ऐ दर्द...
कुछ तो रहम कर,
मै तेरा रोज का ग्राहक हूँ....
****
है राज बहुत गहरा, वो दिल मे समाया है।
सागर के मौजो मे भी, सन्नाटा सा छाया है।
खुशियो के भीड मे भी, अब तेरा सहारा है।
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ऐ दर्द...
कुछ तो रहम कर,
मै तेरा रोज का ग्राहक हूँ....
****
आँखे खुली रहेगी, सोऊँगा भला कैसे।
सपनो मे ना जो तू है, जीऊँगा भला कैसे।
हम याद तुम्हे हर पल, हर बार करेगे।
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ऐ दर्द...
कुछ तो रहम कर,
मै तेरा रोज का ग्राहक हूँ...
****
बिछडी हुई मोहब्बत , टूटा हुआ सहारा ।
कैसे कहे हम अपना, जो ना हुआ हमारा।
फिर भी हम उन्हे याद, दिन-रात किया है।
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ऐ दर्द....
कुछ तो रहम कर,
मै तेरा रोज का ग्राहक हूँ....
****
चढता ही जा रहा है, आँखो मे नशा मेरे ।
बढता ही जा रहा है , बेचैनी मेरे दिल मे ।
पागल नही हूँ पर वैसा ही, हाल हुआ है।
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ऐ दर्द....
कुछ तो रहम कर ,
मै तेरा रोज का ग्राहक हूँ....
****
लिखता ही जा रहा हूँ, रिसते हुए जख्म को।
शायद वो पढ सकेगी, हालात मेरे दिल के ।
कोशिश तो कर रहा हूँ , नाकाम हुआ है ।
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ऐ दर्द....
कुछ तो रहम कर,
मै तेरा रोज का ग्राहक हूँ....
****
पन्नो पे नाम लिख कर, तेरा फाड दे रहा हूँ।
रोते हुए भी खुद पे , हँसता ही जा रहा हूँ ।
तुझे भूलने की कोशिश , बार-बार किया है।
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ऐ दर्द....
कुछ तो रहम कर,
मै तेरा रोज का ग्राहक हूँ...
****
ये शेर की है कविता, भावों से जुडी बातें।
आसू नही थमे तो, शब्दों मे पिरो डाली ।
कहना ना चाहूँ फिर भी, दिल का हाल कहा है।
🍁
ऐ दर्द....
कुछ तो रहम कर,
मै तेरा रोज का ग्राहक हूँ.....
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स्वरचित... Sher Singh Sarraf
सतयुग द्वापर आप पधारे
प्रभु कलियुग में भी आओ
चौराहे पर असुर विराजित
आओ,त्वरित इन्हें भगाओ
अब भी शकुनी चाल चल रहा
जन समुदाय खौप डर रहा
कई दुःशासन छिपछिप बैठे
नित ललना की इज्जत हरता
रक्षक ही बन बैठे भक्षक
संसद पावन देवालय में
छीना झपटी शौर शराबा
कत्लेआम कोई न भय में
अर्जुन के शर फ़ीके पड़ रहे
भीष्म द्रोण सब चुप्पी साधे
अभिमन्यु घिर रहा चक्र व्युह
साबित मिथ्या हो रहे हैं वादे
यँहा शिखंडी शूरवीर मिल
दिन भर गाल बजाते हैं
गठबंधन का खेल निराला
मिलकर स्वप्न सजाते हैं
आओ मनमोहन गिरधारी
जनकल्याणी ओ रिपुमर्दन
सुदर्शन प्रभु धारण करलो
विलग करो देशद्रोही गर्दन।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
स्वतंत्र लेखन - लघुकथा
बदलते परिदृश्य
जैसे जैसे घर पास आता जा रहा था कुसुम का मुँह कलेजे को आ रहा था , कैसे करेगी वो माँ का सामना उसने माँ को हमेशा गहरी लाल साडी, आधे हाथों तक कड़े और चूडियों, माथे पर लाल बड़ी बिन्दी और , शायद यह उसके विचार क्षेत्र से अब बाहर हो गया था
" जब वह सोचती और सिर पर काफी दूर तक गहरी
माँग
लेकिन अब सफेद साड़ी, माथे की बिन्दी और हाथ की रंगीन चूडियां नही होंगी ।"
वह सोमेश के साथ विदेश में थी उसका भाई रतन और भाभी संगीता भारत में ही थे ।
पिता जी के देहान्त का समाचार मिलने पर वह सोमेश की छुट्टी और आने के लिए कोई फ़्लाईट नहीं मिलने से आ नही पाऐगे थे । अब वह जब पूरी सुविधा हुई तो एक महिने के लिए भारत आई थी । सोमेश भी उदास था वह भी अपने विचारों में खोया था ।
टैक्सी घर के सामने रुकी, संगीता ने दरवाजा खोला ।
सामान अंदर रख कर मैं सबसे पहले माँ के कमरे की तरफ भागी । माँ ने गले लगा लिया , लेकिन जैसा उसने सोचा था वैसा कुछ नहीं था ।
रात को सब खाना खाने बैठे , घर का माहौल हल्का था , भैया भी आफिस से आ गये थे । संगीता खाना परोस रही थी ।
माँ बता रही थी :
" बेटी तेरे पिताजी मेरे पति जरूर थे लेकिन उन्होंने मेरे चेहरे पर कभी उदासी नही देखी, समय समय पर हर क्षण वह मेरे साथ रहे । यदा कदा वह कहते भी रहते थे :
" मैं भले चला जाऊं लेकिन मैं सदा तुम्हारी यादों में बना रहूँगा समाज में तुम सम्मानजनक जीवन जीना तुम जैसी अभी खूबसूरत मुझ दिखती हो वैसी ही रहना "
इतना कह कर माँ रो पड़ी थोडी देर रोने के बाद जब उनका गुब्बार निकल गया फिर बोली :
" संगीता को उन्होंने हमेशा बेटी की तरह रखा और अक्सर वह संगीता से भी ऐसा ही कहा करते थे ।
सवा महिना होने के बाद एक दिन संगीता ने पिता जी के चाहेनुसार साडी , चूडियां पहनाई और माथे पर बिन्दी लगाई और जगह साथ ले कर जाती है ।"
मैं सोच रही थी :
" अब ऐसा ही बदलाव होना चाहिए विधवा होना एक सामान्य घटना हो सकती है लेकिन अभिशाप नहीं। औरत के मानसिक क्लेश को बढाने के बजाऐ उसे साथ रखने और साथ ले कर चलना समसामयिक है ।"
लौटते समय मैं बहुत निश्चिंत थी पिता जी के विचारों और माँ भाभी के निर्णय से ।"
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
अभी तो आप, बैठे भी नहीं ठीक से,
मुझे तो लगते नहीं , मेरे अभिन्न मीत से,
हमेशा ही बना देते,पुराना सा बहाना,
कि जाना है ,जाना है ,जाना है जाना।
इन धड़कनों को देखो,और थोडा़ विश्राम दे दो,
मुझे आज अपनी,ये निराली शाम दे दो,
अभी तो चाँद भी,मुस्कराया नहीं है,
चाँदनी का सुरुर भी,आया नहीं है,
अभी तो तुमको ,निहारा नहीं है,
भावों से तुमको,सँवारा नहीं है,
शब्दों में तुमको,उतारा नहीं है
अलंकारों से तुमको,वारा नहीं है।
अभी ही तो साँसों में, बिखरी खनक है
अभी ही तो आँखों में,निखरी चमक है
अभी तो उम्मीदों की,अंगड़ाई है बाकी,
अभी तो मन में, शहनाई है बाकी,
अभी तो दिल भी कुछ , बोला नहीं है,
आरजू ने भी मुँह को,खोला नहीं है।
आज मेरी मानों, और ठहर भी जाओ,
रिमझिम की तरह,इस मन में झर जाओ।
लोकप्रिय
****
लोकप्रिय सबको होते देख
मेरा भी मन ललचाया
पर क्या करें ऐसा
कुछ समझ ना आया
टीवी खोल कर बैठे जब
तब मामला समझ में आया
लोकप्रिय हो जाते वो
जो पानी पी देते गाली देते
या हजम कर खाते गाली ।
टीवी पर बैठ रोज चिल्लाते हैं
यह सब बिके हुए नजर आते हैं
लोकप्रिय होने के लिए
प्रायोजित कार्यक्रम चलवाते हैं
कोई हो रहा लोकप्रिय
तोड़ के सगाई
कोई है लोकप्रिय
जिसने कम उम्र से शादी रचाई
बैंक लूट के कोई नाम बटोर रहे
देश विरोधी नारे लगाकर
कोई लोकप्रिय हो रहे
राम को तारीख दे
कोई सुर्खियां बटोर रहे
तरह-तरह के हथकंडे हैं
देख के माथा ठनके हैं
लोकप्रिय ना होने में ही
अपनी समझी भलाई
सीधी साधी जनता है हम
दो जून की रोटी खाते है
कर के गाढ़ी कमाई ।
लोकप्रिय होने का विचार
जब त्याग दिया
फिर कुछ महापुरुषों के
जीवन की पुस्तके मंगाई
सोचे कुछ उनके जैसा कर जाये
कि लोकप्रिय हो जाए
टीवी पर आए चाहे ना आए
किताबों में अमर हो जाए ।
स्वरचित
अनिता सुधीर श्रीवास्तव
भोर सुहानी जब-जब आये
*********************
प्राची में ढलके स्वर्ण कलश
पूरे भूमंडल पर बिखराये
अम्बर का तिमिर-ताल सूखे
हर्षित-आनंदित दसों दिशायें
हर प्राणी सुख पा जाये----
भोर सुहानी जब-जब आये----
नव सृजन की आशा में
कुछ मिलने की अभिलाषा में
रजनी के स्वप्न-जटिल कटे
दुख हारे अवसाद मिटे
मिले स्वपन हँसकर-खिलकर
हों पूर्ण सजल आँखे बहकर
पाकर प्रेम सहज-सुखकर
हृदय का कुंज हर्षाये---
भोर सुहानी जब-जब आये----
खग-दल-बल तृण-तन्दुल लेकर
भोर मधुर गीतों में खोकर
घर-आंगन-मुँडेर-छतपर
अपने-अपने दल सँग सजकर
प्रणय-कलह को शोर मचायें---
भोर सुहानी जब-जब आये----
धरती के कण-कण में
अनल-पवन-जीवन-जल में--
अमृत जीवन भर-भर लाये
हो कर्मलीन-तल्लीन सहज
प्राणी झूमे नाचे गायें
न करुणा न ताप कोई
न पीर कोई संताप कोई
चलकर सतपथ-सुपथ
लक्ष्य स्वं का पा जाये--
भोर सुहानी जब-जब आये---....राकेश पाण्डेय, स्वरचित,
कविता
फखत इतनी सी बात है
चलता रहा मैं,
तुझ और हमेशा,
तुम भी चले,
दूर जाने के लिए .
फकत इतनी सी बात है ...
करता रहा,
यादों को इकट्ठा,
गुनगुनाता रहा...
तुमने भी संभाला,
बनाई कुछ और भी..
बस गुल्लक में,
तुम्हारी सुराख था...
फकत इतनी सी बात है ..
गम दूरियों का न था,
तकदीरों का ना मिलना ,
लाजिमी था..
मैं खुदा का खिलौना सही..
तुमने शिकायत भी न की...
फकत इतनी सी बात है..
बसते गए .....रिश्तो में,
मसरूफियत ए जिंदगी में...
मुड़ के भी देखा,
फुर्सत के लम्हों में,
तुमने मेरे शहर से ही दूरी बना ली...
..
फकत इतनी सी बात है...
नीलम तोलानी
स्वरचित व मौलिक
शीर्षक- 🌳पेड़ की खामोशी🌳
खामोशी से भी होते हैं नेक काम
पेड़ तले कहाँ हुआ करते हैं घाम ।।
क्या वो इस छाँव के कभी पैसे लेते
क्या वो इस नेकी के विज्ञापन देते ।।
उनकी यह शख्सियत होती महान है
देते हैं वह लेने का न कभी अरमान है ।।
छोटे शजर जरूर मांगते हैं पानी
बड़ों ने वह भी न मांगने की ठानी ।।
कुदरत ही मेहरबां होकर करे बरसात
उसी से बुझ जाती है उनकी प्यास ।।
बादल उनकी महानता देख आते हैं
हम इस महानता का फायदा उठाते हैं ।।
अब वह भी चक्कर होगा खतम
मानव जो हो रहा इस तरह बेरहम ।।
मार रहा वह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी
ऐसी मति गई 'शिवम' इंसान की मारी ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
कुछ अनकही बातें हैं जहन में मेरे,
कहना चाहूँ पर परिस्थितियाँ घेरें,
एतबार भी न कर पाऊँ किसी पे,
जहन में रख पाऊँ इन्हें मैं कैसे?
काश कोई यूँ ही इन्हें समझ लेता,
आँखों में वो मेरी इन्हें पढ़ लेता,
अनकही बातों का पैमाना नाप लेता,
मेरे दिल को थोड़ा-सा सुकून दे देता |
एक चुभन सी होती है दिल में,
बात नहीं कह पाती मैं हर किसी से,
हर किसी की खुशी की परवाह है मुझे,
चाहे कोई समझे या न समझे मुझे |
कभी जब मन भारी होता है मेरा,
मंदिर का डाल आती हूँ मैं फेरा,
कान्हा मेरी अनकही बातों को समझ जाते हैं,
दिल को मेरे वो ही सूकुन दे जाते हैं |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
भारत भूमि
वसुंधरा वीरों की
माटी के लाल |
आध्यात्मिकता
भारत का सपना
सत्य की खोज |
अधिनायक
विशाल लोकतंत्र
भारत देश |
कृषि प्रधान
ग्रामीण परिवेश
खाद्यान्न पूर्ति |
जय जवान
भारत का गौरव
एक सपना |
तिरंगा झंडा
भारत अभिमान
देते सम्मान |
भारत पर्व
गणतंत्र दिवस
शान हमारी |
स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,
विधा:: ग़ज़ल - ख़ाक में गम को मिलाना सीखिए...
ज़िन्दगी में मुस्कुराना सीखिए...
ख़ाक में गम को मिलाना सीखिए...
बन हकीकत खिल उठेंगे ख्वाब भी...
कर्म की चक्की चलाना सीखिये...
मुश्किलों का दौर भी मिट जायेगा...
धैर्य को सम्बल बनाना सीखिए...
इक न इक दिन जाना है सब ने यहां...
सच गले अपने लगाना सीखिए....
यह ज़मीं क्या आसमां झुक जायेगा...
मौत से पंजा लड़ाना सीखिये....
फूल बन कर के खिलो तुम रोज़ ही...
यह जहां गुलशन बनाना सीखिए...
तुम ज़रा अपनी अदा की होश लो....
मार कर 'चन्दर' जिलाना सीखिये....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२०.०१.२०१९
हे भगवान हमें आरक्षण से बचाइये।
पागल हो रहे यहाँ कुछ तो कराइये।
डिग्रियों यहां आपके चरणों में पडीं,
जलाऐं इन्हें कहाँ कुछ तो बताइये।
आरक्षण से जातियों में द्वेषभाव बड रहा।
इसी कारण आपसी में वैरभाव बड रहा।
कुछ नफरतों की आँधियाँ चलाईं धर्म से,
तो अधिकांश जहर आरक्षण से बड रहा।
क्यों समाज में हम बिखराव चाहते।
नहीं क्यों कहीं हम ठहराव चाहते।
प्रतिभाओं का कहीं दमन नहीं करो,
सब मिल क्यों नहीं सदभाव चाहते।
स्वरचितःःः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
स्वतंत्र लेखन
प्रेम माँ -बाप पर लुटाओ
तू उनकी जिंदगानी है
कभी थोड़ी इज्जत कमाओ
सदा दौलत क्यों कमानी है
कभी किसी की बात तो सुनो
सदा अपनी ही क्यों सुनानी है
कभी खुलकर हंसा करो
इसकी कीमत थोड़े चुकानी है
कभी दुश्मन को कम मत आंको
बखूबी जानता है कैसे निभानी है
कभी सभा से यूँ मत भागना
लोग कहेगे तेरी ही कारीस्तानी है
क्या तेरा क्या मेरा जरा बताओ
एक पाई भी साथ थोड़े जानी है
कभी अपना सर मत झुकाओ
गर्व से कहो हम हिन्दूस्तानी है
जाम सड़को पर भी होते है देखो
जाम शब्द का अर्थ थोड़े मयखानी है
स्वरचित
शिल्पी पचौरी
स्वतंत्र लेखन -
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सुबह -शाम दिल में आजकल अदना सा सवाल रहता है
ऐसा क्या हो गया कि मेरे वतन का यूँ बुरा हाल रहता है ।
आसमा की दूरी तय करना आसाँ हो गया बशर को,
वले , दिलों के दरमियाँ न जाने क्यों मलाल रहता है।
न जाने ये किसकी नज़र लग गई इस गुलिस्ताँ को
कलियों में दहशत,गुलों में सहमा सा ख़याल रहता है ।
क्यों बदहवासी का आलम है हर सूँ ,ये कैसा ख़ौफ़ है ?
कयों नमी सी आँखों में और दिलों में बवाल रहता है।
वकत की रफ़्तार से करने चला है बग़ावत आज हर शख़्स
जिंदगी है तलातुम हरदम आजमाइशों का जंजाल रहता है।
ज़मीं और आसमा मोहताज़ नहीं,वो ख़ुश है अपने दायरों में
बस ख़ुश नहीं है इंसान यहाँ,हर लम्हा बेबस,बेहाल रहता है ।
न जाने वो कौन लोग थे जो हँसते देश पर क़ुरबान हो गए,
अब तो देश की ही क़ुरबानी दे रहे हैं ऐसा मिसाल रहता है ।
स्वरचित (C)भार्गवी रविन्द्र
१५ अगस्त २०१८
बशर -इंसान ,वले -लेकिन , तलातुम -तूफ़ान
धरा
उर्वर मृदा सोंधी महक
मैं प्रकृति का वरदान हूँ
नहीं आदि अंत हैं मेरा
मैं सृष्टि का मन प्राण हूँ
वक्ष पर शोभित है सारे
विपिन पर्वत श्रृंखलायें
झील समंदर महासागरें
कलकल करती सरितायें
सदियों से हूँ रत्न गर्भा
हेम हीरक खनिज खान हूँ
मेरे दामन में पलते हैं
जीव जन्तु सकल प्राणी
अन्न धन उपजा कर बनी
सबकी हूँ जीवन दानी
मुझ बिन कहाँ जीवन बोलो
आन बान और शान हूँ
मेरी ही छाती पर लगते
सृष्टि के सुख दुःख मेले
साक्षी बनती सदियों सदी
छोड़ा ना किसी को अकेले
जाता अनंतिम पथ कोई
गोद में देती सम्मान हूँ
सूरज चंदा करे आलोकित
मेरी असीम काया को
देवता भी पाने को तरसते
मेरी अदभूत माया को
दुश्मन को भी गले लगाती
देती जीवन दान हूँ
स्वरचित
सुधा शर्मा राजिम
रचना=मानवता के दीप
हम तो सदा ही मानवता के दीप जलाते हैं,
उदास चेहरों पर सदा मुस्कराहट लाते हैं।
हार मानकर बैठते जो कठिन राहों को देख,
हौंसला बढ़ाकर उनको भी चलना सिखाते हैं।
कर देते पग डगमग कभी उलझनें देखकर,
मन में साहस लेकर हम फिर भी मुस्कराते हैं।
मिल जाये साथ सभी का बन जायेगा कारंवा,
मिलकर आओ अब एकता की माला बनाते हैं।
लक्ष्य को पाने में सदा आती हैं कठिनाईयां,
साहस से जो डटे रहते सदा मंजिल वही पाते हैं।
राह रोकने को आती दिवारें सदा बड़ी-बड़ी,
सच्चाई पाने को अब हम दिवारों से टकराते हैं।
फैलायें आओ मानवता को मिलकर चारों ओर,
दुनियां को अपनी एकता आओ हम दिखाते हैं।
..........भुवन बिष्ट
रानीखेत (उत्तराखण्ड)
जिनको अपना समझा वो ही बेगाने निकले |
जान रहे थे जिनको वो ही अनजाने निकले ||
ख्वाब सुनहरे देख रहीं थी ये आँखें |
पूरे न हो पाए वो बस अफसाने निकले ||
साथ निभाने का दम हरदम भरते थे |
देख लिया दौलत के ही वो दीवाने निकले ||
रुसवा होकर भी हम तो खुश हो जाते |
भर आया दिल जब अपनों के ही ताने निकले ||
बीत गया नादानी में जीवन जिनका |
अब देखो हमको ही वो समझाने निकले ||
*सरस* बता अब दोष किसे देगा भला |
टूटे सभी तेरी किस्मत के पैमाने निकले ||
==========================
स्वरचित
प्रमोद गोल्हानी सरस
कहानी सिवनी म.प्र
"स्वतंत्र लेखन "
शत-शत नमन भावों के मोती
कोरे कागज को
रंग रहे हो तुम
धुँध में भी गीत
लिख रहे हो तुम
सरिताएँ ठहरी हुई हैं
काले बादल बिखरे हुए हैं
धरती फटी हुई है
पवन शुष्क हुआ है
बेचैन नजरों से
किधर देख रहे हो तुम ?
क्या स्याही से
नभ रमणीक होगा ?
क्या सरिताएँ प्रवाहित होगी ?
क्या आँसूओं के बदले मेघ बरसेंगे?
क्या धरती अँगड़ाई लेगी ?
लिखो खूब लिखो तुम
कोरे कागज पर
आशा ही आशा लिखो तुम
जब तलक स्याही है कलम में
किसानो की मौन की बात लिखो तुम
@राधे श्याम
छंद मुक्त कविता (संवादयिक)
खराब-है-हालत (एक वार्तालाप)
खड़ी द्वार पर एक गाय
दोउ आँखों में आंसू लिये |
क्या हुआ आज आपके...
तुम्हें ये आंसू किसने दिए ||
गाय
तूने ही आज देखे है बेटा
आज के नहीं वर्षों से है..|
हालत बिगड़ रहे है हमारे
इसलिए आये सड़कों पे है ||
मैं
क्या-क्या सहना पड़ता है
तुम्हें बता दो जमाने को |
मैं लिखूंगा आपके लिए..
तेरे हरेक वयाननामें को ||
गाय
ले सुन खराब-है-हलात मेरे
लोग दूध पी छोड़ देते है...|
किसी काम की नहीं रहती
तो चमड़ी ही उधेड़ लेते है ||
मैं
सरकार की काफी योजनायें
तो फिर क्यों ऐसा होता है |
बतायो तेरा घर है गौशाला
क्या उसमें भी ऐसा होता है||
गाय
हाँ, सरकार ने की है मदद
ठेकेदार पर ही छोड़ देते है|
मेरे घर में जितना खिलाते
उससे ज्यादा निचोड़ लेते है||
मैं
गिर चुकी है कलम मेरी दो
बार तेरी ये कहानी सुनकर |
लेकिन उभरूंगा अब मैं माता
तेरा सहायक तानी बनकर ||
गाय
ठीक है तू भी कर कौशिश
मैं भी हिम्मत करती हूँ...|
धन्यवाद बेटा तूने समझा
अब अगले द्वार चलती हूँ ||
स्वरचित
सुखचैन मेहरा
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