Wednesday, January 16

"स्वतंत्र लेखन "13जनवरी2019



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प्यार लिखूं या फिर कोई एतबार लिखूं
दर्द लिखूं या उसका कोई फरेब लिखूं


वो चांद चांदनी सी चकाचौंध लिखूं
या फिर कोई अंधकार रूपी ज्ञान लिखूं 

तुझे सीता जैसी निर्मल काया लिखूं 
या फिर मैं रावण जैसा अभिमानी लिखूं 

तुझे आसमान का हीर लिखूं 
या फिर मैं ख़ुद पाताल लिखूं 

वह महलों की रहने वाली लिखूं
मैं खुद को झोपड़ बंकी पतझड़ की पंक्ति लिखूं 

मैं प्यार लिखूं तेरा कोई एतबार लिखूं
खुद कि वो लाचारी लिखूं या कोई समर्पण लिखूं

तुझे पत्थर दिल लिखूं या फिर कोई मूरत लिखूं
दिल की गहराई से तू वाकिफ नहीं लिखूं

तेरे लिए रोज नए गीत लिखूं या कोई ग़ज़ल लिखू
मेरी पंक्ति मैं तुझे सारस लिखूं 

बंदकी लिखूं या फिर तुझे जिंदगी लिखूं
हे मौला मैं तुझे कितना और लिखूं
Poem by Ankit,





ज़ि
न्दगी की ज़ुल्फ को सॅवारता हूॅ,
गज़ल के नाम से मैं उसे पुकारता हूॅ,
हसीन शब्द चूम कर पूरे अदब से,
उन्हें पंक्तियों में प्रेम से निखारता हूँ।

इन्हीं ज़ुल्फों में सुना, सृजन का गीत भी मैंने,
इन्हीं ज़ुल्फ़ों में चुना, प्रीत का मीत भी मैंने,
इन्हीं ज़ुल्फ़ों में अंगड़ाई, मेरा लेता रहा यौवन,
इन्हीं ज़ुल्फ़ों में देखी है,मैंने भोली सी एक चितवन।

इन्हीं ज़ुल्फ़ों मे परिचय, मेरा हुआ बहारों से,
इन्हीं ज़ुल्फ़ो में तय हुआ,मेरा सम्बन्ध नज़ारों से,
इन्हीं ज़ुल्फ़ों में देखे हैं ,कई पेचोख़म मैने,
गुज़रा हूँ कई बार, मैं जंग में हारों से।

लेकिन खो गया है जो , उसका मलाल क्यों करुँ,
इन सुनहरी ज़ुल्फ़ों को, मैं बदहाल क्यों करुँ,
न मालूम कितनी योनियों से,मुझे गुज़रना पड़ेगा अब
इन सुनहरी ज़ुल्फ़ों को,मैं फटेहाल क्यों करुँ।

कृष्णम् शरणम् गच्छामि





कल, आज और कल

एक कल जो बीत गया, 
खट्टी-मीठी यादें दे गया, 
प्यार और तकरार भी था, 
जीवन का सार दे गया |

आज को जीना है मुझे, 
सोम रस पीना है मुझे, 
संघर्ष भी कर रही हूँ, 
जीवन का सार समझ रही हूँ |

कल जो होगा देख लेगें, 
दु:ख होगा तो मजबूत होगें, 
सुख होगा तो लुत्फ ले लेगें, 
जीवन के यहीं हैं मेलें |

कल आज और कल, 
मानव तू यूँ ही चला चल, 
जीवन नदिया की धारा है, 
जिसमें हमको बहते जाना है |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*




मुस्कुराना भुल कर क्या कर गया
आदमी जिन्दा है लेकिन मर गया।

राह में मोजुद है कई दुश्वारियां
क्या तू इन परछाइयों से डर गया।

ग़म की बैला भी गुजर ही जाएगी। क्यो गमों को देखकर सिहर गया।

तू गुलों से मुस्कुराना सिख ले
देख गुलशन खुशबुओं से भर गया।

ज़िन्दगी में जीत भी उसके ही कदम चुमती
मुश्किलों का सामना जो पुरे दम से कर गया।

था बहुत मैल जौल और भाई चारगी
वतन का वो मुआशरा हामिद किधर गया।

हामिद सन्दलपुरी की कलम से




वैसे कहीं कुछ नही पर तन में सुरूर चाहिये
उमंगों का सिलसिला रोकिये नही बनाइये ।।

जिन्दगी जीना ही होती है हर हाल में हमें 
मायूस मत होइये कहीं न कहीं दिल लगाइये ।।

दुनिया की तरह का कभी कोई न बन पाया
दुनिया की मत सुनिये और न ही सुनाइये ।।

दुनिया सदा दर्द देती है और दिल रोया करता है
दिल को चुप कराइये बेशक झुनझुना पकड़ाइये ।।

सत्य हो या झूठ दोनो से ही दुनिया खफा हुई
बजूद बरकरार बनाइये उदासीनता मत लाइये ।।

झूठ तो झूठ है सतपथ पर काँटे बिखराये हैं
कभी कभी इतिहास के पन्नों को पल्टाइये ।।

हीर तो हीर है ईश भक्ति वालों को भी टोका है
प्रेम दीवानी मीरा का बिष का प्याला मत भुलाइये ।।

जीवन में मस्त रहना सीखिये सदा ''शिवम"
रूह की सुनिये किसी का दिल मत दुखाइये ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 13/01/2018




लोहड़ी का उत्सव है,मिलकर मनाइए
प्रेम भाव अपनाकर एक हो जाइए।

गले शिकवे तो गुलाब काँटों से मेल है
ऐसे में रहकर भी गुलजार हो जाइए।

निकल कर बाहर देखो गुमसुम चहरें
हो सके तो कुछ पल वहाँ खो जाइए। 

गमों का दौर न खत्म हुआ है न होगा
हौसले जगा के ख़ुशियों में खो जाइए।

न तेरी न मेरी, है सभी की ये लोहड़ी
सब मिल कहानी नव लिख जाइए।।

वीणा शर्मा वषिष्ठ
अभी अभी




क्यो रूको हो अभी तक वही पे प्रिये,
रस्ता लम्बा अौर मंजिल बहुत दूर है।
सोचने से भला किसको क्या है मिला,
साथ चलते तो मंजिल नही दूर है।
🍁

बात मन मे तुम्हारे जो है बोल दो,
बन्द दरवाजे मन के सभी खोल दो।
मन मे पीडा बढेगी तुम्हारे अगर,
मन दुखेगा मेरा तुम हृदय खोल दो।
🍁

मान अभिमान मे सच के पहचान मे,
जिन्दगी बँध गयी झूठ के शान मे ।
वक्त लौटा नही जो गुजर जाता है,
क्यो खडे हो पकड टूटती शाख से ।
🍁 

जिन्दगी जंग है मन मे ही द्वंद है,
क्या सही क्या गलत ये मेरा प्रश्न है।
शेर की भावना शब्दों मे गढ दिया,
बात कहनी थी जो वो यही कह दिया।
🍁

तुम भी बोलो नही तो चलो साथ मे,
जिन्दगी ना ही रूकती सुनो ध्यान से।
अब चलो भी प्रिये बात तुम मान लो,
रस्ता लम्बा और मंजिल बहुत है। 
🍁

स्वरचित .. Sher singh sarraf





कविकुल गुरु कालिदास
वाल्मिकी कोकिल वाणी
तुलसी मानस की कल्पना
सूरदास वात्सल्य न सानी
कवि गुण गान करू कैसे
कृपा सागर सदा उमड़ती
वे साधक हैं मात शारदे
कवि रश्मियां आगे बढ़ती
हर दिल मे घुटन होती है
हर दिल मे चुभन होती है
काव्य भाव हृदय को छू ले
सच मे वह् कविता होती है
जंहा रवि की किरण न पहुँचे
वँहा पहुंचती कवि कल्पना
कवि की बातें कवि ही समझे
कवि लखता नित नव सपना
अंतरिक्ष से बातें करता वह्
जगति में सुखद रस भरता
उड़ जाता अड़ जाता जग में
जग में कवि कभी न मरता
वह् सागर के अंतराल में
भावों के नित मोती खोजे
वसुधा के शस्य श्यामल में
वृक्षों पर लेता नित मौंजे
कवि रवि तो कवि शशि है
कवि मुखारविंद काव्य द्वारा
सत्य शिवम सुन्दर गान से
वह् करता जग वारा न्यारा
कवि साधना है कविता की
सहितं भाव सदा वह् होती
कभी रुलाती कभी हंसाती
काव्य विभा भावों के मोती।।
स्व0 रचित
गोविंद प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।




मैं कैक्टस हूँ
एक पौधा,काँटे बेशुमार
कैक्टस यानी काँटो का सिंगार
काँटे-मेरे जीवन का आधार
मैं वंदनवार में सजाए
कहीं किसी गमलों में मिल सकता हूँ।
किसी बेजान जंगल 
या,बियाबान रेगिस्तान में भी
खिल सकता हूँ।
कैक्टस-काँटे जिनके अज़ीज़ है
भला ये भी कोई देखने की चीज है
कैक्टस-और शोभा में सजे गमले
असंगत प्रतीत होते जुमले
पर यही सत्य का ककहरा है
आखिर गुलाब पे भी तो कंटकों का पहरा है
फिर एक मैं ही बिलग,अछूत
विषम परिवेश का अवधूत
मुझे देखो,सिर्फ देखो
पर छूना मत
मुझे दामन में मत समेटों
उँगलियाँ बिंधति है
मेरा दोष नहीं, ये मेरी नियति है
तन बदन,अंग अंग पर
सिर्फ काँटे मिले हैं मुझे
शुष्कता, विषमता से बचाता
काँटों का सुरक्षित ढाल
पर,इन्हीं काँटों के आवरण में
संचित है एक हृदय बेहाल
तुम खंज़र मत चुभाना,
मत करो मुझपे वार।
मेरे इस कंटकी चोला से 
ज्यादा पैनी इसकी धार।
मैं डरता हूँ
विषैले काँटो के मध्य रहकर भी
मेरा अंतस,शूल-सा न तन सका
खंजर का वार सह सके
ऐसा दुर्भेद्य न बन सका।
एक जरा सी चोट से
कमबख्त लहू रिसता है
रिसता ही जाता लगातार
कैक्टस
जिसकी नियति ही है काँटे
उसके दामन में और काँटे न चुभाओ
कुछ तो तरस खाओ
मुझे मत काटो।
मुझे जीने दो।
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित




आँखों में नमी, लबों पर मुस्कान,
तू क्यों रहता है फिर भी अंजान,
अपने दिल में जज्बात लिए,
करूँ इंतजार अश्क लिए,
ना चाहूँ मैं तुझसे उपहार,
प्रेम तेरा बना जीवन आधार,
रूठना तेरा रोक देता हैं साँसे मेरी,
खुशियाँ सारी बाँहों में हैं तेरी,
गमों की बदरी छाई जबसे,
छूटा हाथ पिया जो तुझसे,
वक्त ने मेरी किस्मत लुटी,
फूलों से जैसे खुशबू छूटी,
तरसी आँखें, अब तो आजा,
क्यों है खफा ये तो बता जा,
ऐसा ना हो कर दूँ जिने से इन्कार,
ढूँढ़े फिर तू मेरा प्यार ।
******
स्वरचित-रेखा रविदत्त




हम सच में है इतना ही काफ़ी है।
म टच में है इतना ही काफ़ी है।।
इश्क़ तोड़ देता है सारी हदों को।
हम हद में है इतना ही काफ़ी है।।
लोग हो ही जाते है बाहर आपे से।
हम ख़ुद में है इतना ही काफ़ी है।।
ये ज़माने की चमक पाग़ल कर दें।
हम सुध में है इतना ही काफ़ी है।।
लोग हार मान लेते है एक हार से।
हम युद्ध में है इतना ही काफ़ी है।।
लोग मानके मानते नहीं बात को।
हम ज़िद में है इतना ही काफ़ी है।।
"ऐश"को जरूरत नहीं दिखावे की।
हम चित में है इतना ही काफ़ी है।।
©ऐश...12/01/19✍🏻
🍁अश्वनी कुमार चावला






मैं हूँ 
पर मेरा अस्तित्व क्या है ?
इस समस्त सृष्टि में 
तृण मात्र , 
धूल मात्र ,
तुहिन कण मात्र ,
या महज़ बिंदू मात्र !
यह तय कर पाना ,
शायद ,मुमकिन न हो 
इस दिशा में प्रयास करना भी 
अंतहीन आसमान की परिधि को मापने जैसा
या,
इंद्रधनुष के दो सिरों को पाने जैसा है !
मगर,
सुबह- सबेरे ऊगते सूरज को
पेड़ों की शाख़ों से छनकर हरित धरा को 
अपने में समेटता देख 
मेरे मन का भाव विभोर हो जाना।
वसंत ऋतु के आगमन में
दिशाओं का नव वधू सा 
सजते संवरते देख
मेरे मन का पुलकित हो जाना ।
साँझ ढले क्षितिज में चमचमाते सूरज को
चाँद को निमंत्रण देकर
सागर में विलीन होता देख
मेरे मन का रोमांचित हो जाना ।
माँ का अपने नवजात शिशु को
अपलक निहारते देख 
मेरे मन का विस्मृत हो जाना
गोधूली की बेला में 
निज गृह लौटते खगवृंद का 
मधुर कलरव देख 
मेरे मन का विस्मित हो जाना ।
पतझर में शाख़ से जुदा होते 
पत्तों का मौन रुदन देख 
मेरे मन का क्षत विक्षत हो जाना ।
आँखों को चकाचौंध करने वाली रौशनी कहीं
और कहीं पसरता अँधेरा देख
मेरे मन का भ्रमित हो जाना ।
कया मेरे अस्तित्व को प्रमाणित नहीं करता ?
तृण मात्र ही सही,
धूल मात्र ही सही,
तुहिन कण मात्र ही सही,
एक बिंदू मात्र ही सही,
जब तक मैं हूँ 
मेरा अस्तित्व भी है ।
और ,यही सत्य है !
सरवाधिकार सुरक्षित C)भार्गवी रविन्द्र


 



पहले जब मैं हिसाब रखती थी! 
यकीन मानिए , 
तबीयत नासाज रखती थी॥ 

डूबी डूबी सी रहती , 
किसी की बातों में आहों में , 
आंसुओं को पनाह नहीं मिलती थी! 

छोड़ दिया जब से, 
तरस खाना मैंने खुद पर! 
बुलंदियों पर हूं , 
कांधों की जरूरत नहीं रखती! 

कर ली है वक्त से दोस्ती , 
उम्मीदों का दामन थामे ! 
रब की रजा में राजी, 
अश्कों को सिपहसालार नहीं रखती.. 

पहन लिया है ताज, 
बेफिक्री का सर पे ! 
यकीन कीजिए , 
अंधेरों से सरोकार नहीं रखती

स्वरचित एवं मौलिक
नीलम तोलानी


धड़कता हृदय क्यों मधुर प्रेम में अति,
खनकती क्यों सरगम मनसतल पर शुचि,
लगती प्रकृति भी अल्हड़ निगोड़ी,
लोचन में मुस्कान सजती भी क्यों।

मिलन पल में दृग चमकते क्यों प्रतिपल,
व्यथा उर में आँखें बरसती नित क्यों
कोयल के मधुस्वर अधिक मनभावन,
पिउ पिउ से पिय हित तरसती शुचि क्यों।

कर्म -सिद्धांत हित भू कर्मक्षेत्र शुचि,
मानव प्रवृत्ति हिचकती अति क्यों,
मनुज की प्रजाति कर्मणा जन्म से,
सहज मनुज मन भाती नहीं क्यों।

मानव प्रजाति को नित बसुधा पर
माया मोहक भरमाती अति क्यों,
जीवन के अवसानोपरांत भूमण्डल में,
स्वाँसों की गति टूट बिखर जाती ही क्यों।
--स्वरचित--
(अरुण)




जिदंगी जी ना सिखाती है ग़ज़ल,
ग़म के यारों को हंसाती है ग़ज़ल।।१।।
जो अं धरें में भटक कर रह गये,
रोशनी उनको दिखाती है ग़ज़ल।।२।।
जिदंगी से हो गये है जो हताश,
हौसले उनकी बढ़ाती हैं ग़ज़ल।।३।।
हम सियासत पर रखें अपनी नज़र,
चेतना हम में जगाती हैं ग़ज़ल।।४।।
देवेन्द्र नारायण दास बसना छ,ग,



अपनी भी कुछ कहते जाना कभी कभी |
अपनी भी कुछ सुनते जाना कभी कभी ||

दिल में हमें बसा लो हम ये न कहते |
याद हमें बस करते जाना कभी कभी ||

यूँ तो हमसे होंगी बहुत शिकायत पर |
तारीफें भी करते जाना कभी कभी ||

माना वक्त हमारा है कुछ ठीक नहीं |
इसको भी भरमाते जाना कभी कभी ||

होगा अब दीदार बहुत ही मुश्किल पर |
देखते और दिखाते जाना कभी कभी ||

वक्त कभी भी बुरा ना आए तुम पर |
फिर भी हमें आजमाते जाना कभी कभी ||

*सरस*तेरा गम जान ना पाए ये दुनिया |
गम में भी मुस्कराते जाना कभी कभी ||
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स्वरचित 
प्रमोद गोल्हानी *सरस* 
कहानी सिवनी म.प्र.


बाबुल की पगड़ी( एक होनहार बेटी की कहानी)

ले बेटी दही खाले तेरा आज कॉलेज में पहला दिन है ... 

लायो माँ मुझे देर हो रही है। (दही खाने के बाद सिमरन जाने लगी)

एक मिनट..... वहां से किसी से कुछ भी लेकर मत खाना , सीधी कॉलेज से घर और घर से कॉलेज जाना, रास्ते में कहीं भी रुकना मत... माँ के चेहरे पर एक असहज सी चिंता साफ दिखाई दे रही थी... 

जो अक्सर जवान बेटी और जमाने को देखकर हो ही जाती है। 

बेटी ने हँसकर जवाब दिया.. नहीं माँ मैं जैसे आपने बताया है वैसे ही करूंगी आप चिंता न करो। कॉलेज चली गयी।

शुरुआती दिन अच्छे से बीत गए लेकिन कुछ दिन बाद कॉलेज में दो ग्रुपों में तकरार हो गयी । 

उनमें से एक ग्रुप में सिमरन भी थी और उसने अपने ईमानदार व सादगी भरे रवैये के चलते बहुत कम समय मे ग्रुप में धाक जमा ली। 

लेकिन जब सिमरन शाम को अपने घर गई तो आगे माँ और बाप दोनों गुस्से से तमतमा रहे थे..अच्छे से बुलाया भी

बुलाते भी कैसे ? बात ही कुछ ऐसी थी। 

जब सिमरन ने माँ के हाथ में तस्वीरें देखी तो उसे सारी बात समझ मे आ गई।उसने फट से स्टूडियो वाले को फोन मिला सारी बात साफ कर दी कि वह कृत्रिम फोटोज थी।

अपने पापा को कहा आपकी पगड़ी का ख्याल है मुझे.. पर आपकी चिंता करना भी जायज है जमाना बहुत खराब है ।

पर पापा मैं कभी कुछ ऐसा नहीं करूंगी जिससे आपका सर् शर्म से झुक जाए...सिमरन के पापा की क्रोधी आंखों में आँसू बहने लगे। 

सिमरन की बात सुनकर.. जैसे ही वो थोड़ा नीचे की ओर झुके (माफी के लिए) तो सिमरन ने आपने पापा की गिरती हुई पगड़ी को संभाल लिया और बड़ी शान से अपने पापा के सर् पर वापिस सजा दी ..। सब के चेहरे खुशी से खिल उठे....
वास्तव में दोस्तो *बेटी हो तो ऐसी* जो *बाबुल की पगड़ी* का पूरा ख्याल रखे।

स्वरचित
सुखचैन मेहरा


शुष्क हृदय की आस

रूठ गए तुम रूठा सावन,
शुष्क हृदय यह हुआ वीरान।
स्मृतियों में पल-पल गहरे होते,
तेरे कदमों के निशान।

हर शाख आशाओं के सूखे,
हुई रेतीली मन की धरती।
दुर्भाग्य के इस प्रहार से,
है हृदय पर चोट सी लगती।

चुन लिए थे शूल जो तुमने,
कभी मेरी इन राहों के।
नियति ने फिर उन्हें बिखेरा,
जो हैं सबब मेरी आहों के।

उम्मीद की बदली छाई है,
जीवन के सूने अंबर में।
झीनी सी एक आस है बाकी,
मेरे मन के अन्तर में।

आना ही है लौट के तुमको,
मुँह मोड़ नहीं रह पाओगे। 
थक जाएँगे पाँव तेरे तब,
लौट पास मेरे ही आओगे।

डॉ उषा किरण
पूर्वी चम्पारण, बिहार




" मकर सक्रांति..."

लोहड़ी को अलविदा कहें आगाज़ करें मकर सक्रांति ।
धनु से मकर में प्रवेश करेंगे सूर्यदेव दे हमें सुख-शांति ।।

दक्षिणायन के समाप्ति उत्तरायण की शुभारंभ शुभ क्रांति।इस बार पन्दरह जनवरी को उद्घोष करें मकर सक्रांति ।।

तिल दान तिल प्रसाद तिल ग्रहण पापों का शमन शांति ।माघे संक्रांति कहें तिला सक्रांति कहें या मकर सक्रांति ।।

सूर्य देव का प्रत्यक्ष आराधना प्रत्यक्ष दर्शन मोक्ष प्राप्ति ।तन भी धोएं मन की मैल भी धोएं ना रहे कोई भ्रांति ।।

प्रयागराज में शुभारंभ एक शंखनाद महाकुंभ की क्रांति ।
शाही स्नान अंतःकरण की अंतर्ध्यान जीवन हो कांति ।।

गंगा जमुना सरस्वती की त्रिवेणी संगम में शुभ संत ।
दुनिया भर की दार्शनिक मांगलिक आंतरिक साधु संत ।।

सांगितिक मांगलिक झलक में प्रयागराज सुख शांति ।संपूर्ण की चरण आगमन है महाकुंभ की महा क्रांति ।।

दक्षिण भारत में पोंगल गुजरात में पतंगों की आंधी ।
जमीं से फलक तक हर्षोल्लास आकाशगंगा भी नाची।। 

एक शंखनाद उद्घोष हिंद हिंदी हिंदू हिंदुस्तान के लिए ।
आओ मिलकर आगाज़ करें पावन शाही स्नान के लिए।।

स्वरचित एवं मौलिक
मनोज शाह मानस 
सुदर्शन पार्क 
मोती नगर नई दिल्ली


"गीतिका"
शिकायत नहीं गर हमसे तो,
कहने से क्यों घबराते हो।

अक्सर यूँ काम कर जाते हो,
तू क्यों दिल मेरा जलाते हो।

तीर निगाहों से चलाते हो,
जिगर को घायल कर जाते हो।

शिकवा खामोशी से जताते हो,
अक्सर यूँ मुझे सताते हो।

याद हर शाम तुम आते हो,
रातों को निदें चुराते हो।

दिन को यादों में सताते हो,
रात सपनों में आ जाते हो।

दिलों जान से चाहती हूँ मैं,
बार-बार कयों आजमाते हो।

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल


🙏 ग़ज़ल

बहर - फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन 
वज़न-212 212 212 212
क़ाफ़िया -आया की बंदिश
रदीफ़ - करो

पहले अपने अमल जान जाया करो ।
उंगलियां यू न सब पर उठाया करो ॥

अपनी गर्दन झुका झांक लो खुद में ही ।
आईना बन न सबको सताया करो ॥

बाँट दो प्यार से इल्म की रोशनी ।
नफरतों की शमा मत जलाया करो ॥

पोंछकर आंसुओं को सजा लो हंसी ।
ग़म न अपना किसी को दिखाया करो ॥

आम है गुल बहारों खिलें 'आरज़ू' ।
फूल पतझड़ में भी कुछ खिलाया करो ॥

रचना स्वरचित एवं मौलिक है
©®🙏
- सुश्री अंजुमन मंसूरी 'आरज़ू'
छिंदवाड़ा मप्र


विधा:: ग़ज़ल - ग़मों की ज़िन्दगी में तो कभी मकसद नहीं होते

ग़मों की ज़िन्दगी में तो कभी मकसद नहीं होते...
अगर जो ठान ले तो ग़म ख़ुशी सरहद नहीं होते... 

दफ़न नफरत हमेशा ही हुई है वक़्त-ए-दरिया में.... 
मगर इस इश्क़ के लेकिन कभी कम कद नहीं होते.... 

छुपा कर रख लिया खंजर बड़े इत्मिनान से हमने.... 
जुबां के अस्त्र शस्त्र भी तो कभी बेहद नहीं होते... 

कभी मैं भी चला आता कदे तेरे को सुन साकी... 
खुदा के नूर मेरी रूह की गर हद नहीं होते... 

ज़माना लाख चाहे भी बुरा 'चन्दर' नहीं बनता....
महब्बत करने वाले तो कभी भी बद नहीं होते....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
१३.०१.२०१९




दिन रविवार 
विधा मनहरण घनाक्षरी 
दिनाँक 13,01,2019 

गुजरी है जिंदगी भी बड़े शान से जनाब बची है जो प्रेम से वो आप काट लीजिये ।

मान सम्मान दिया और दिया नाम तुमको , आप भी तो हिन्द से प्यार बाँट लीजिये ।।

कहिएगा जो श्रीमान बुरा है हिंदुस्तान तो फिर दोनों गाल पे आप तो चपाट लीजिये ।

इतना है प्यार तुम्हे तो फिर जा के अपने आतंकी आकाओं को ही आप चाट लीजिये ।।

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नाज ओ नजाकत पे , मुस्काने की आदत पे , 
आज के ये छोकरे तो , अदाओं पे रीझते ।

मन जरा झाकेँ नही ,अच्छा बुरा आँकें नहीं , 
प्रेम की महानता को , कोई नहीं सोचते ।।

वासना के रग रँगे , मर्यादा को भंग करे ,
दूर की तो बात छोड़ो , रिश्ते नहीं देखते ।

घूर घूर देखते है , दिल को भी फ़ेंकते है ।
दाल भात की तरह , प्यार को परोसते ।।

स्वरचित 

देवेंन्द्र देशज 
खैरा पलारी



गजल
इश्क मेरा उन्हें ,रास आने लगा है।
इसलिए पास मेरे ,वह आने लगा है।।

ख्वाहिशें अपने दिल की बताई हैं उसने
इस कदर प्यार हमसे, जताने लगा है

देख कर हमको नजरें, झुकाली हैं उसने
मानो इस कदर इश्क में वो, लजाने लगा है

हसरतें अपने दिल की, जताई हैं ऐसे
कि इश्क के दरिया में हमको, बहाने लगा है

अपनी मासूमियत से यों, रिझाया है हमको
कि उसमें हमदम , हमें नजर आने लगा है

इस कदर याद करता है ,वो अब हमें
कि दर्द सीने मे हर पल, सताने लगा है

दीदार सपने उसका , हुआ आज ऐसे
हमराज उसमें हमें ,नजर आने लगा है

इस कदर नशा उसका, चढा आज हमको
कि खुदा उसमें हमें ,नजर आने लगा है

रुखसत हो जाएगी ,जो वत्स उसे ना मिला
हर धड़कन में दिल उसका, ये कहने लगा है।
(अशोक राय वत्स) स्वरचित
जयपुर


विधा- कविता 
विषय :- ये दूब रूपी नेता ! 
ये दूब रूपी नेता , 
गुच्छे रूपी समूह में
आश्वासन रूपी धरातल पर
नम्रता रूपी बिछाव लिए
फसल रूपी जनता के इर्दगिर्द 
अपनी जड़ रूपी साख जमाए 
पैदा या उदित होते हैं।
इनके उप भाग रूपी भाई-भतीजे 
अपनी जड़ रूपी साख जमाने का
हर सम्भव प्रयास करते हैं ! 
कभी ये अपने तेज पत्ते रूपी गुडों से
हाथों को लहूलुहान कर देते हैं या
सहारा भी छिन लेते हैं।
जब किसान रूपी युवाक्रोश 
अपने नुकसान रूपी बेरोजगारी से
घबरा जाता हैं तो, खुरपी रूपी राईफल से नेता को उखाड़ फेंकता हैं।
या फिर आधुनिक कृषि ट्रेक्टर रूपी नवयुवक, 
हल के फल रूपी तिक्ष्ण बुद्धि से, 
जुताई रूपी निर्वाचन में , 
ढेले रूपी कुर्सि सहित उखाड़ फेंकते हैं ।
धूल के कण रूपी हवाई जहाज में सवार हो , 
खुशबू भरी परिचारीका से मिल
अपनी जड़ रूपी साख गँवा देते हैं।
जब आसमान से टपकते हैं, 
या खजूर में अटकते हैं , 
गधे रूपी मूर्ख इनका आनंद उठाते हैं।
फिर नेता का पुनर्जन्म होता हैं।
स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा "निश्छल",




*मैं क्यूँ लिखती हूँ *

जीवन के झंझावातों से 
मचलते हुए जजबातों से
भीड़ में भी तन्हा दिखती हूँ 
तब ले कलम सहचरी 
मन के भाव लिखती हूँ 

विसंगतियों के इस दौर में 
कुचलती संवेदनाओं की होड़ में 
गलाकाट प्रतियोगिताओं से
सिसकती मानवता की शोर में 

मन की व्यथायें करें आकुल
तब अंतर्मन से चीखती हूँ 
तब ले कलम--

देखूँ पिघलती जवानी को 
होता शोणित सम पानी को
नशे के अमरबेल लिपटी
नैतिक पतन की रवानी को

तब ज्वार उफनता हृदय पट में
नयन पट अश्रुओं से सींचती हूँ 
तब ले कलम--

कलियाँ रोती जब बहारों में 
तिमिर घन चाँद सितारों में 
सीमा पर लड़ते वीर जवान
शीश कफन लिए कतारों में 

आते लिपट तिरंगे से जब 
बलिदानों का अर्थ सीखती हूँ 

तब ले कलम--

जन्मदात्री माँ कोख जननी
जीवन दायी माता धरणी
रोती हैं निज विवशता पर 
संतति की नित निर्दयता पर
पर्वत सी पीर उठाकर तब
बर्फ़ सी पिघल उठती हूँ 

तब ले कलम---

देख अराजकता का मंज़र 
मन चूर चूर होता थककर
मन आक्रोषित होता है तब
माँ भारती का रूप देखकर

ज्वाला मुखी सा हृदय होता 
अक्षर अक्षर धधकती हूँ 
तब ले कलम---

लेखनी यही सुख दुख साथी 
भाव भाव की जलती बाती
शब्द शब्द बहती दिन राती 
अंतर व्यथा नित लिखूं पाती 

जीवन का दर्शन समझाए
अनुभवों से सब सीखती हूँ 
तब ले कलम---

स्वरचित 
सुधा शर्मा 
राजिम छत्तीसगढ़


अरुण.. छंद 
ये छंद नाम की तरह ही अरुण को ही छूना है.. प्रथम प्रयास है.. 
प्रभात जी की प्रेरणा से कोशिश की 
1
आप कौ हो सखा,काहे आए यहाँ l 
बैरी बने सजन, घबराये तन मन ll
हे उधो,नहि आए, वो बैरी कान्हा l
समझाने आये, योगा के प्रवचनll
2
ओ कान्हा सताये, संदेस भिजाये, 
हम जानत, बैरन, बंसी है सौतन ll
हिय पार, तीर भया,घायल तन मन,
बोलो को ओषधि,स्वस्थकरे अंतर्मन ll
कुसुम पंत उत्साही 
स्वरचित 
देहरादून


अरमान दफन न कर चिराग जलने तो देखुशियों के वास्ते एक आस को पलने दे

देर तक अंगार दहकेगे जरा देख तो ले
हवा के झोके को पुरसुकून तो बहने दे

रहें न खामोश मचले अरमान दिल के
जरा मचली बेबाकियों के सर उठने दे

दिल का यह कसूर मचला तेरे नाम से
सितमगर अब गुफ्तगू चार तो करने दे

तेरे नाम से सारे करें तोबा मेरे हमदम
हमें अब सरे महफिल तेरे नाम मरने दे

🌺स्वरचित🌺

नीलम शर्मा#नीलू


परम्परा - लघुकथा 

" बाबू जी मुझे रिटायर हुए तीन साल हो गये मेरी पेंशन अभी तक नही बनी बाबू जी बडी परेशानी में हूँ।"
रामलाल हाथ जोड़ कर पेन्शन प्रकरण डील करने बाबू हरीश के आगे गिडगिडा रहा था। 
लेकिन बाबू उसकी तरफ ध्यान नही दे रहा था। जिनसे पैसों के लेनदेन की बाथ हो गयी थी उनके कैस निपटा कर कमरे से बाहर आ गया ।
रामलाल असहाय सा देखता रहा ।
आखिर वह बड़े अधिकारी के पास जाने लगा लेकिन उसे रोक दिया ।
रामलाल दरवाजे के पास खड़ा हो गया और पेंशन अधिकारी दिनेश के आने पर रोते हुए पूरी बात बताई ।
अधिकारी ने दिन भर की कमाई में से तीन हजार रामलाल को देते हुए कहा :
" कल यह पैसे बाबू को दे देना काम हो जाऐगा ।"
रामलाल उसके पैरों पर गिर गया और बोला :
" माईबाप मैं आपका अहसास जिन्दगी भर नही भूलूंगा। "
रामलाल चला गया और अगले दिन हरीश ने उसका काम कर दिया और यह समझ रहा था रामलाल के पास पैसे कहाँ से आए । 
हरीश को अपने साथी से कह रहा था :
" अगर रह किसी से वह रिश्ता बना कर चलेगा तो कल उसे ही इस सीट से हटा दिया जाएगा और हर कोई बिना पैसों के काम करवाने के लिए ऊपर का दबाव डालेगा , आखिर आफिस की परम्परा को भी तो बनाएं रखना 
है ।"
लेकिन रामलाल यह नहीं समझ पाया उसकी निगाह में तो दिनेश भगवान था , जिसका हरीश पर कोई असर नही पडना था ।

स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल

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