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ब्लॉग संख्या :-266
विधा .. लघु कविता
*******************🍁
निश्चय ही ये भ्रम है मेरा,
उसके मन मे मै ही हूँ।
लेकिन ये लगता है जैसे,
उसके मन मे मै ना हूँ।
🍁
राते आँखो मे कटती है,
लेखन मै नैना जगती है।
सुबह सबेरे भी यादों मे,
हर पल तेरी राह तकती है।
🍁
दरवाजे पर बार-बार,
आँखे मेरी रूक जाती है।
शायद वो गुजरे इस रस्ते,
ऐसा एहसास कराती है।
🍁
भाव मेरे कुछ उथल-पुथल है,
संसित मन अधीर लगे।
शेर की कविता भ्रम सा लागे,
भाव नही स्पष्ट लगे।
🍁
स्वरचित ... Sher singh sarraf
सभी मुखौटे पहन घूमते
असली सूरत जाने कैसेभ्रम में हम सारे भरमाये
सच्चाई को माने हम कैसे
भ्रम होता है परमपिता पर
कैसा अद्भुत जगत बनाया
परिवर्तित होती नित प्रकृति
वसुधा सुन्दर रंग सजाया
भ्रम कारण परिवार टूटते
सत्य का होता नित खंडन
भाई भाई बहिन बहिन में
नित होती रहती जग घुटन
मन मानस संदेह भ्रम है
कभी सत्य कभी मिथ्या
भ्रमवश अपने लगे पराये
अपनों की हो जाती हत्या
भ्रम होता सत्ताधारी पर
वे रक्षक ही भक्षक बनते
मेवा मावा मिस्री खाकर
जन जन के सपने मुरझाते
भ्रम होता है जीवन पर
शैशव से बुढ़ापा आता
जन्म मृत्यु इस बंधन में
कैसे जीवन है कट जाता
मकड़जाल में बंधे हुए सब
भ्रम मायावी जग में जीते
सब पाकर भी इस जीवन में
अंत समय सब रहते रीते
भ्रम जीवन है भ्रम जगति
भ्रम में भरमाये हैं हम सब
भ्रम पर्दा कभी न खुलता
भ्रम में करते हैं सब करतब।।
स्व0 रचित
गोविंन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
संसार मायाजाल
नश्वर तन |
परम सत्य
होती अमर आत्मा
बंधन भ्रम |
जोडते धन
कल का पता नहीं
कैसा ये भ्रम |
करते पूजा
चढ़ावा भगवान
पुण्य का भ्रम |
कर्म गठरी
दुनियाँ भटकाती
भ्रम है खुशी |
स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,
भ्रम की दवा न मिली है कभी
भ्रम को त्यागो ईश मिलेगा तभी ।।
विश्वास ही शक्ति विश्वास ही भक्ति
भ्रम कहाँ करना यह जानो अभी ।।
सत्य और ईश्वर पर भ्रम नही करना
सत्य तो सनातन है सत्य से निखरना ।।
सत्य से प्रीत करना ईश्वर की प्रीत है
माया भ्रमजाल है संभलकर गुजरना ।।
रिश्ते कुछ ऐसे फायदा न भ्रम से
प्यार से जीतो दिल दूर रहो गम से ।।
बात कुछ गहरी समझिये ''शिवम"
सुखी जीवन होता सत्य और श्रम से ।।हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
भ्रम को त्यागो ईश मिलेगा तभी ।।
विश्वास ही शक्ति विश्वास ही भक्ति
भ्रम कहाँ करना यह जानो अभी ।।
सत्य और ईश्वर पर भ्रम नही करना
सत्य तो सनातन है सत्य से निखरना ।।
सत्य से प्रीत करना ईश्वर की प्रीत है
माया भ्रमजाल है संभलकर गुजरना ।।
रिश्ते कुछ ऐसे फायदा न भ्रम से
प्यार से जीतो दिल दूर रहो गम से ।।
बात कुछ गहरी समझिये ''शिवम"
सुखी जीवन होता सत्य और श्रम से ।।हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
मेरा भ्रम है या तारो की टोली
ले सजना मैं अब तेरे साथ होलीसाँसो के उच्छवास पर मैं डोली
तेरे लब की दहकन मे भिगोली
वो हुस्न, वो नखरों मे डोली
निकली तेरे साथ ,कयामत होली
वो गुजरा जमाना ,वो प्यारी सी बोली
करु याद उनको तो आँखें भिगोली
आओ सजन एक बार मैं बोली
ले चलो जीवन पथ पर मैं संग होली
जाए न अब बवालों की झोली
हुजूर लाजमी हो तो देखो इधर भी
🌺स्वरचित🌺
नीलम शर्मा#नीलू
1
टुटा भ्रमअपनों का दुत्कार
कैसा संसार
2
ये झूठा भ्रम
मोह,माया बन्धन
नश्वर तन
3
दुनियाँ भ्रम
आत्मा सदा अमर
भटके मन
4
झूठी है माया
छोड़े जब ये तन
टूटे ये भ्रम
5
रूठा ये जग
तब टुटा ये भ्रम
व्यर्थं जीवन
🌼🌼🌼🌼🌼🌼
वीणा झा
स्वरचित
बोकारो स्टील सिटी
कितना भ्रम हम
पाले है जिन्दगी में कौन अपना
कौन पराया
नहीं जान पाये
जिन्दगी में
भ्रम के संसार में
जीने का मजा ही
अलग है
जो अपने भी न थे
उन्हें गले लगाये रखे हम
भ्रम में काटी जिन्दगी
राधा ने
कृष्ण सिर्फ उसका है
लेकिन वो था
पूरी गोपियों का
भ्रम था सीता को
वो है पवित्र
लेकिन अग्नि परीक्षा
ने तोड़ा भ्रम उनका
बच्चे है उनके
भ्रम पाला माँ बाप ने
टूटा उस दिन भ्रम उनका
जिस दिन भेजा वॄध्दाश्रम
जिन्दगी मेरी है
जाऊँगा सालो साल इसे
टूटा भ्रम उस दिन
जिस दिन उठा चले
उठा चले लोग
अंतिम यात्रा पर
इसलिए यथार्थ में
जियो दोस्त
मत पालो भ्रम
जीवन में अनेक
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
भ्रम ज्वाला से
जल जाते हैं रिश्ते
बिना आग के
दो बूंद भ्रम
कर दे जहरीली
रिश्तों की नदी
टूटता भ्रम
जब जाता है पिता
वृद्ध आश्रम
जल जाते हैं रिश्ते
बिना आग के
दो बूंद भ्रम
कर दे जहरीली
रिश्तों की नदी
टूटता भ्रम
जब जाता है पिता
वृद्ध आश्रम
उम्र भर दरअसल ,
वही मरघट निकला ।
जहां से प्रत्येक क्षण
लाशें निकलती है ।।
जिसको मरघट समझता रहा ,
जिंदगी भर दरअसल ,
वही बस्ती निकला ।
जहां एक बार पहुंचने के बाद ,
फिर कभी वापस नहीं आता ।
जिंदगी भर इसी भ्रम में
गोता लगाता रहा ।।
एक भ्रम और टूटा ,
जब अपने ही रूठा ,
जिसके लिए रोता रहा उम्र भर ।
उनके आंखों में कभी नहीं आया ,
पानी एक बूंद एक थोपा ।।
आखरी में सारे भ्रम टूट गए !
'वो अच्छे इंसान थे'
यह सुनने के लिए मरना पड़ा !
मरने के बाद पता चला ।।
स्वरचित एवं मौलिक
मनोज शाह मानस
सुदर्शन पार्क
मोती नगर नई दिल्ली
मिथ्याबोध तनिक मेधा को,
भ्रम का शुचि प्रादुर्भाव,भाव सशंकित चारु हदय के,
निश्चितता का सूक्ष्म अभाव।
मानवीय विश्वास ठोस एक,
भावहीन भ्रम की स्थिति,
संशयजनित आवरण मन पर,
तनिक कराता भ्रांति प्रतीति।
अनुभूति असत्य में सत्य की,
होती प्रबल अतीव,
बुद्धिमान सर्बाधिक खुद को,
समझे मनुज प्रबीण।
बोध निरन्तर भौतिकता का,
भ्रम का श्रुत साकार रूप,
लोभ-मोह का भ्रामक जाल,
नहीं सत्यता के अनुरूप।
--स्वरचित--
(अरुण)
कविता -भ्रम
अद्भूत दुनियाँ की धारणा ,
अनोखे विचार
झूठ पर यकिं सत्य पर पहरा ।
हर कोई अपने आप में हैं डरा ।।
कोई तन से पालता ,
तो एक मन से पालता ।
घेरा सा पड़ा दिल पर
मकड़जाल हैं तना
सुनी-सुनाई बात पर विश्वास,
सच्ची जुबानी से नहीं आस।
इंसान में भगवान्
दानव में इंसान,
जब नजर आने लगे तब
वह फिर सुधरे निभे कब?
एक जाल माया का हैं ,
तो एक भयभीत काया हैं।
कमजोर को जान का खतरा ,
तो कहीं आन-बान का खतरा ।
पति-पत्नी के द्वंद्व
भाई-बहन का रिश्ता मंद,
पिता-पुत्र, बहू सास-ननंद ।
एक दूसरे से को निचा दिखाते हैं,
बात परम्परागत सिखाते ,
नहीं तो फिर अंगुली-आँखे दिखाते हैं।
हर एक मनोरोगी खुद में ,
बस अपनी ही चलाते हैं ।
मानों न मानों तो
इंसान बस भ्रम जाल बिछाते हैं।
भ्रम एक रोग जो लाईलाज हैं।
विचल स्वंय "निश्छल",,नासाज हैं।
स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा "निश्छल", उदयपुर राज
अद्भूत दुनियाँ की धारणा ,
अनोखे विचार
झूठ पर यकिं सत्य पर पहरा ।
हर कोई अपने आप में हैं डरा ।।
कोई तन से पालता ,
तो एक मन से पालता ।
घेरा सा पड़ा दिल पर
मकड़जाल हैं तना
सुनी-सुनाई बात पर विश्वास,
सच्ची जुबानी से नहीं आस।
इंसान में भगवान्
दानव में इंसान,
जब नजर आने लगे तब
वह फिर सुधरे निभे कब?
एक जाल माया का हैं ,
तो एक भयभीत काया हैं।
कमजोर को जान का खतरा ,
तो कहीं आन-बान का खतरा ।
पति-पत्नी के द्वंद्व
भाई-बहन का रिश्ता मंद,
पिता-पुत्र, बहू सास-ननंद ।
एक दूसरे से को निचा दिखाते हैं,
बात परम्परागत सिखाते ,
नहीं तो फिर अंगुली-आँखे दिखाते हैं।
हर एक मनोरोगी खुद में ,
बस अपनी ही चलाते हैं ।
मानों न मानों तो
इंसान बस भ्रम जाल बिछाते हैं।
भ्रम एक रोग जो लाईलाज हैं।
विचल स्वंय "निश्छल",,नासाज हैं।
स्वरचित -चन्द्र प्रकाश शर्मा "निश्छल", उदयपुर राज
विधा- कविता
**************कल रात मैं गहरी नींद सो गई,
सपनों की दुनियां में खो गई,
बचपन की यादों में बह गई,
चंचल, नटखट मैं हो गई |
बेफिक्र होकर में जीने लगी,
माँ के आँचल में सोने लगी,
पापा की बांहों में झूलने लगी,
भाई-बहनों संग खेलने लगी |
सखियों संग स्कूल जाने लगी,
बागों से फल-फूल चुराने लगी,
माँ के हाथों से रोटी खाने लगी,
दादी भी कहानी सुनाने लगी |
अचानक नींद मेरी टूट गई,
मैं तो जैसे बिखर सी गई,
जिम्मेदारियों में कितना घिरी थी मैं,
बस अभी भ्रम की नींद से जगी थी मैं |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
दृष्टि सिकुड़ जाती है
गहराता अंधेरा देखकरदृष्टि फैल जाती है
कलयुगी चकाचौध देखकर।
दृष्टि स्थिर हो जाती है
कोई सूनी गोद देखकर
दृष्टि भ्रमित हो जाती है
भीड़ में होड़ देखकर ।
स्वरचिर:
डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी, गुना म.प्र.
पाल ले इक भ्रम सेहत के वास्ते ,
हकीकत-ए- जमाना कब कहां,चैन से सोने देता है?
ख्यालों में सही,
कुछ पल तो सोच!
आबाद है यह दुनिया!
चैन अमन सब और
मोहब्बत का मंजर है..
शांति सम्मान विश्व धरोहर !
भूख लाचारी नफरते,
कहीं पलती नहीं!
छोटा सा यह भ्रम,
भ्रम ही सही !
पाल ले एक भ्रम नादा जिंदगी के वास्ते,
हकीकतो के सहारे जिंदगी कटती नहीं।
नीलम तोलानी
स्वरचित
"भ्रम"
लघु कविता
शकुन का बचपन था
आइसक्रीम के पहाड़ थे
चाकलेट की नदी थी
ख्वाबों की दुनिया में
प्यारा सा भ्रम था
सिंड्रिला व थम्बालीन
की कहानी जुबानी थी
परीयों की दुनिया थी
उम्र की नादानी थी
निश्छल भ्रम में जीती थी
सतरंगी सपने अपने थे
चाँद तारों संग रिश्ते थे
फूलों की बरसात थी
आकाश छूने की चाहत थी
मन को जगाता भ्रम था
नैनों में चमक रही ज्योति थी
बढ़ रही उम्र थी
यथार्थ से हो रही रुबरु थी
नाजुक सा दिल में
हो रहा प्रहार था
वास्तव दुनिया सम्पूर्ण
अलग थी
आहिस्ता-आहिस्ता
टुट रहा भ्रम था।
लघु कविता
शकुन का बचपन था
आइसक्रीम के पहाड़ थे
चाकलेट की नदी थी
ख्वाबों की दुनिया में
प्यारा सा भ्रम था
सिंड्रिला व थम्बालीन
की कहानी जुबानी थी
परीयों की दुनिया थी
उम्र की नादानी थी
निश्छल भ्रम में जीती थी
सतरंगी सपने अपने थे
चाँद तारों संग रिश्ते थे
फूलों की बरसात थी
आकाश छूने की चाहत थी
मन को जगाता भ्रम था
नैनों में चमक रही ज्योति थी
बढ़ रही उम्र थी
यथार्थ से हो रही रुबरु थी
नाजुक सा दिल में
हो रहा प्रहार था
वास्तव दुनिया सम्पूर्ण
अलग थी
आहिस्ता-आहिस्ता
टुट रहा भ्रम था।
चहुँ ओर नगाड़ों का शोर ही शोर बस सुनता है...
बिजलियाँ चमकती हैं, ज्वार बादलों में उठता है....
भावों के धारों में, डूब जाते हैं तैराक भी कभी....
लुट जाते हैं पर न, परवरदिगार कहीं मिलता है....
दुनियां भावों अभावों में ही, बस उलझी फिरती है....
ज़मीं समतल नहीं कहीं आस्मां नकारता दिखता है...
दुःख सुख बेजोड़ संगम भूल, भ्रम में जीते हम सभी...
वो दूर क्षितिज में, कहीं पे ज़मीं से आस्मां मिलता
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
बिजलियाँ चमकती हैं, ज्वार बादलों में उठता है....
भावों के धारों में, डूब जाते हैं तैराक भी कभी....
लुट जाते हैं पर न, परवरदिगार कहीं मिलता है....
दुनियां भावों अभावों में ही, बस उलझी फिरती है....
ज़मीं समतल नहीं कहीं आस्मां नकारता दिखता है...
दुःख सुख बेजोड़ संगम भूल, भ्रम में जीते हम सभी...
वो दूर क्षितिज में, कहीं पे ज़मीं से आस्मां मिलता
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
अद्भुत बडी प्रभु की माया, भ्रम का रंग भर के जगत सजाया ,
माया मोह के संग साथ में, यहाँ ममता का भी चक्र चलाया ,
सबको घर गृहस्थी लड़का बच्चा,यहाँ रिश्ते नातों में उलझाया,
काम क्रोध मद लोभ बसाकर, घड़ी घड़ी भ्रम में भटकाया ,
बहुत गजब हुआ ऊपर वाले ने, जब दिल और मन को बनाया ,
उसने दिल को आँख न दे के, जैसे मानव का बेड़ा गर्क कराया ,
समझ कर भी दिल न समझे , इतना भोला भाला उसको बनाया ,
उसने चक्रव्यूह कुछ रचा है ऐसा, भ्रम सागर में जा मन को डुबोया ,
बस एक पतवार दिमाग की दे दी, खूब भँवर जाल भ्रम का फैलाया ,
सदा रहे भटकता प्राणी दुनियाँ में, झूठी चाह में उसको भरमाया ,
यहाँ रहा जागता जो न सोया, सब भेद उसी के समझ में आया ,
यहाँ प्रभु चरणों में शीश नवाकर, जिसने जीवन को अपनाया ,
सदा भ्रम जाल से बचा रहा वो, उसने अंत वास हरि पुर में पाया |
स्वरचित, मीना शर्मा, मध्यप्रदेश,
भ्रम में रहता भटका-उलझा।
भ्रम में अपना जीवन जीता,
भ्रम में ही मर जाता।
मैं , मैं, मैं, करता रहता,
नश्वर को है अपना कहता।
प्राण-सांस-धड़कन पर,
कहां किसी पर उसका बस है।
मिथ्या जीवन जीने वाला,
सत्य से दूर ही रहने वाला।
आने-जाने वाले कल पर
नहीं किसी पर उसका वश है।
जीवन भर जो संचय करता,
जिसके लिए है लड़ता-मरता,
अंत समय आता है जब
कुछ भी तो साथ न जाता।
न ये जग उसका न वो जग उसका,
फिर भी रहता भटका-भटका।
भौतिकता को सत्य मानकर,
संकट जीवन भर उठाता।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
आँखें तो होती रहेंगी नम
जब जब पालेंगे हम भ्रम
लोग सब्ज़बाग दिखाते हैं
और बातों से भरमाते हैं।
काम तो करने से होता
अकर्मण्य तो सदा ही रोता
फल तब तक नहीं मिल सकता
जब तक कर्में बीज न कोई बोता।
रोज़गार उपलब्ध नहीं है
पेट भर सके ऐसा शब्द नहीं है
मै बेरोज़गारी मिटा दूँगा कहदे
ऐसा कोई भी वचनबद्ध नहीं है।
सब भ्रम का चोला ओढा़ते हैं
सपनों के मरुस्थल में ले जाते हैं
पानी का तो पता नहीं मिलता
पर सब प्यासे ही रह जाते हैं
असन्तोष का पर्वत है ऊँचा
विजय पताका लहराऊँ,पा लूँगा जीवन सुख सारे,
सोच स्वयं ही हर्षाऊँ।
जीवन से कभी नही जाती
सुख पाने की हार्दिक आशा
दुःखो से पाये छुटकारा
मन की बढ़ती अभिलाषा।
मरुथल में दिनकर आभा से
चहुँ और हुए सलिल दर्शन
है पथिक चल रहा मीलों से
करने जल से तन मन अर्चन।
है ज्ञात सभी को मृगजल है,
भ्रम ने ये माया जाल बुना,
प्राणी सभी हुए भ्रमबस
किसने कब क्या कहा सुना ।
होकर गर्वित अपने प्रताप पर
मिथ्या दम्भ दिखाता है,
दूर क्षितिज में धरा गगन को
एकसार कर जाता है ।
दुखों को भूल सभी प्राणी
सुखों के भ्रम में जकड़े है
उलझ रहे इनके फन्दों में,
आत्म मोह से अकड़े है।
स्वरचित
गीता गुप्ता 'मन'
दिल मेरा टूटा तो क्या
तेरे वादों का भ्रम छूटा
छाई थी तेरे प्यार की धुंध
अब छंटने लगी है
तन्हाईयां बन गई साथी
रुसवाईयां डसने लगी हैं
सोचती हूं क्यों तेरे
वादों पर यकीन करके चली
भूल जाना चाहती हूं
मैं तो अब तेरी गली
मुकद्दर में शायद मेरे
ग़म बेतहाशा लिखे थे
इसलिए आज हम तुम
अजनबी बनकर चले थे
यह हसीं फिजाएं कभी थी
गवाह हमारी खुशियों की
आज ग़म के दायरे में
यह सिमट कर रह गई
पेड़ों से गिरते पत्ते
कभी लगते थे फूलों से
यह भी चुभने लगे हैं
आज मेरे बदन को शूलों से
सोचती हूं यह शाम ढले
एक नई सहर हो जाए
भूल जाऊं मैं तुम्हें
तो यह जिंदगी बसर हो जाए
***अनुराधा चौहान***मेरी स्वरचित
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