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ब्लॉग संख्या :-253
वहीं तिमिर,जहां प्रकाश नहीं होता।
भूलों के शूलो से बिंध विदीर्ण मन।
करता है नि:शक्त और जीर्ण तन।
आशंकाओं में प्रयास नहीं खोता।
असफलता से मै निराश नहीं होता।
घोर शीत रात्रि का पट जैसे खुलता।
प्रहर, वीर-धीरो का स्वतः बदलता।
किस निशापरान्त प्रभास नहीं होता।
असफलता से मै निराश नहीं होता
बरबस होता वह जो अकल्पनीय है।
मानव नरश्रेष्ठ बना क्यूं दयनीय है।
दैवयोग क्या अनायास नहीं होता।
असफलता से मै निराश नहीं होता।
भीरू मन भय से लज्जित कब तक।
मुक्ति अवश्यमभावी किन्तु जब तक।
स्वयं से स्वयं का उपहास नहीं होता।
असफलता से मै निराश नहीं होता।विपिन सोहल
छोटा सा करवा आज लोन |
ले लिया मैंने आई-फ़ोन ||
देखो रौब सा झलकता था |
हाथ में पकड़े आई फ़ोन ||
कितनों ने दी मुझे बधाई |
कुछ सुनकर ही हो गये मौन ||
झट से गुजर गया महीना |
फिर बैंक से आया एक फ़ोन ||
दो हज़ार की क़िस्त अब भरो |
लिया जो आपने आई फ़ोन |
लेट होने से पहले भरे |
कहने को आज आया फ़ोन ||
पगार अभी मुझे मिली नहीं |
दिल धडक़े बजे जब जब टोन ||
मैंने अपनों से माँगे पैसे |
आवाज़ आयी भाई कौन ||
आँखों में अँधेरा छाया |
हो कर रह गया मैं तो मौन ||
हाई-टेक होना था मुझे |
ले लिया मैंने आई फ़ोन |
पैर चादर देख फैलाओ |
फिर सोचोगे क्यों लिया लोन ||
मनिंदर सिंह "मनी"
रूप दर्शन के नियम पर नेह का प्रतिदान क्या है ?
आकृष्ट हो शाश्वत हुईं स्नेह सिंचित भावनाएं ।
अनुसरण की ओर हैं अनुराग रंजित कामनाएं।
चाहता है मन तुम्हें हिय ज्योति में आवास देना।
साथ आजीवन रहेगा यह तुम्हें विश्वास देना ।
पर तुम्हारी दृष्टि में अनपेक्षता संधान क्या है ?(1)
क्षुब्ध मन को वेधतीं हैं रूप की सज्जित तरंगें ।
गीत लिखने के लिए आकंठ उत्साहित उमंगें ।
ल्खनी रोमांच से यह गात सारा भींजता है।
भाव संप्रेषण निहित कर ध्यान मन को खींचता है।
प्रेरणा मधु गान में तेरा अप्रेरण मान क्या है ?(2)
मीत तेरी प्रीति में अनुरंजना को पर लगाऊँ ।
यह सलज मुस्कान तेरी आज प्राणों में बसाऊँ ।
किन्तु कातरता तेरी आँखें चुराना चाहती है ।
प्राण !तेरी प्यास मन के पार जाना चाहती है ।
सौगंध खाकर 'अ़क्स' फिर संकोच का आह्वान क्या है ?(3)
स्वरचित - मैं.............
भिखारी की फटी झोली
और मेरी जिंदगी
दोनों में बहुत तालमेल है।
उधर,उसके भाग्य की विडम्बना
इधर,मेरी नियति का खेल है।
उसकी फटी झोली
उसपर दर्जनों पैबन्द लगे है
रंग-बिरंगा, बदरंगा।
मेरी जिंदगी
कई मुखौटों से घिरी है
सभ्य,सलज, क्रूर,मोहक,बेढंगा।
उसकी तो झोली फ़टी है।
मेरी जिंदगी,घिसी-पिटी लुटी है।
विवशता के तले
हर किसी के आगे
वह अपनी झोली फैलाता है।
स्वार्थ के वशीभूत
सहजता के साथ मन
हर किसी को आजमाता है।
फिर भी अच्छी है उसकी झोली
गाहे-बगाहे, चन्द गिन्नियाँ तो आ गिरती है।
क्या मायने,मेरी जिंदगी का
तुष्टि-कभी पास न फिरती है।
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
नया सबेरा आयेगा ।
घना कोहरा कितना हो पर,
सूर्य उदित हो जायेगा॥
🍁
कोई भी गम कोई बातें,
इतनी बडी कभी ना होगी।
पानी को जो काट सके,
ऐसी भी शस्त्र नही होगी॥
🍁
मन मे बस संताप रहे और,
भाव प्रेम से भरे रहे।
शेर कहे भावों के मोती,
प्रेम भाव से छलक रहे॥
🍁
आवाहृन हो नये साल का,
बीते से संतुष्ट रहो।
जीवन मे जो यही भाव हो,
तब ये जीवन सफल रहे॥
🍁
स्वरचित ... Sher Singh Sarraf
जिन्दगी के बंद मुट्ठी से
रेत की तरह
आज एक और साल
फिसल गया....!
अलविदा साल २०१८
इसलिए अलविदा, कि,
अब तुम बनने
जा रहे हो इतिहास,
पलट दिए जाओगे और
धुंधली हो जाएगी सब याद.....!
पर, जब भी पलटूँगी मैं तुम्हें
सामने खड़े हो जाओगे
लेकर सारे एहसास,
खोलूँगी जब मैं
अपनी आलमारी
तो याद आओगे तुम
एल्बम में,
डायरी के पन्नों में,
कपड़ों के गट्ठरों में.....!
मनाया जाएगा हर वर्ष
तेरे खट्टे-मीट्ठे यादों के
सालगिरह
कहीं बहेगी आँसू
कहीं मुस्कुराएगी आँखें भी
पर तुम नहीं होगे
तुमसे शुरूआत होगी गिनती
और हर नए साल के नीचे
तुम दबते चले जाओगे
दबते चले जाओगे....!
पर,
जब तुम इतिहास बन
पलटकर ऊपर आओगे
तो मिलेगी प्रेरणा
तुझसे हमें
अपने संयम बनाए रखने की
और एक बड़ी सीख कि-
सबका आना-जाना तय है
पर जब भी
इतिहास के पन्नों से
पलटकर ऊपर आऊँ
तो स्वर्ण अक्षरों सा
चमक जाऊँ
खोकर, दबकर भी
जीवन्त हो जाऊँ....!
स्वरचित: - मुन्नी कामत।
आने वाला सब जन सहर्ष बने।
भरे जो कंकर पत्थर गांठें मन में,
फेंकें आज नहीं कभी संघर्ष बने।
यदि दुर्भाव भरी हो चादर मैली।
कहीं धरी हुई हो बिष अंदर थैली।
सभी समर्पित कर देना शंकर को,
कल दिखे धवल हृदय सुंन्दर रैली।
मनमानस सहज सरल हो अपना।
हर जन मन सफलतम हो सपना।
रागद्वेष वैरभाव मनसे मिट जाऐं,
प्रभुप्रेम भक्तिभाव सम हो भजना।
हरजन मन मनोरंजन कुसुमित हों।
घरघर में खुशियां उर प्रफुल्लित हों।
सहयोग करें सहयोगी बनें यदि हम ,
निश्चित रहें स्वयं सुखीआनंन्दित हों।
स्वरचितःःः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
अनुप्रास उपमा रूपक से
छंद गति लय ताल भर दे
दिकदिगन्त नव सीख सिखाती
रसमय सृंगारित जग कविता
सुख दुःख ज्ञानामृतमय रस से
तिमिर घौर आलोकित सविता
तमसोमाज्योतिर्ग मय सी
ज्ञानलोकित कविता करती
ज्ञान दीप नर हिय में भरकर
विमल नेह निर्झर सी बहती
ग़ज़ल गीत शेर शायरी
मुक्तक छंद दोहा चौपाई
हर युग मे नव रूप काव्य
होती नहीं कभी भरपाई
तुकबंदी कविता नहीं होती
इतिहासों को यही बदलती
सत्य सनातनी संस्कृति से
लक्ष्य पथ निर्धारित करती
नीतिपरक हर इक दोहा
मंत्र बना है नव भारत का
पीर पराई हरण करे यह
मान बढ़ावे हर आरत का।।
स्व0 रचित
गोविन्द प्रसाद गौतम
पग-पग पर बाधाएं आएं ये जीवन एक कंटक वन है
जाने क्या नियति में लिखा है कुछ न समझ में आता है
जो सोचूं होता ही नहीं ना सोचूं वो हो जाता है।
मृगमरीचिका में मन मेरा सदा भटकता रहता है
कहता नहीं किसी से कुछ भी खुद ही सब दुख सहता है।
अंधक वन सा जीवन मेरा दिखता नहीं प्रकाश जरा
फिर भी मैं दुर्भाग्य से अपने तिनका भर भी नहीं डरा।
निष्ठुर मेरा समय हुआ है या अभी परीक्षा बाकी है
इस जीवन गुरुकुल से मिलना कोई शिक्षा बाकी है।
"पिनाकी"
धनबाद (झारखण्ड)
चलती थी जो
कब डोली
बैठ गई,
नन्ही चिरैया
कब अंगना से
उड़ गई ,
आँखें नम करके भी
मुस्कुरा के चल दी
अंगने महकती
खूश्बू छोड़ गई .।
नन्ही चिरैया..
का ठौर बदला....
अब अपने..
नियत ठौर चली...
संग सखियों के....
कलकल करती थी...
फूदक फूदक कर...
अंगने चहकती थी...
छोड़ आँचल ममता का....
खुद ममत्व की ओर चली..
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
नख शिख तलक श्रृंगित द्युति।
सहमी सजीली सद्य कन्या,
नेह की सरसिज श्रुति।
वंद्य नियति वैचित्र्य विधीना,
कैसे समर्पि पुलकित कली।
संगी सखी अठखेलियाँ,
पितु मातु अंचल में पली।
अद्य आच्छादित मदन,
रति काम सरसिज मधु सुमन।
बंदनवार मनोरम आकृति,
मंडप भाँवर पाणिग्रहण।
विगत स्मृति उर में धरी,
आगत संजोए नयन अलि।
प्रमुदित वदन सुरभित अयन,
संग पिय के अभिसार चली।
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
स्वरचित:-रागिनी नरेन्द्र शास्त्री
उजाले की ओर चलें
नव उमंग,स्वप्न सजाए
नव सृजन की ओर चलें।।
त्याग कर कटुता के भाव
चंद्र सी मुस्कान धर
ले,हौसले बुलंदियों के
कुदाल सा तू कर्म कर।।
नेकियों के बीज बो कर
विश्वासकी खुदाई कर
फल मिलेगा देख उत्तम
स्वप्न तू साकार कर।।
बीते कल से ज्ञान ले
भविष्य को संवार ले
मिल गया है जो हुनर
भाल पर उतार लें।।
जोश में तू होश अपना
खो न देना यूँ कहीं
पल-पल समय है जा रहा
लौटेगा न फिर कहीं।।
वीणा शर्मा वशिष्ठ
कभी लम्हों कभी फसानो में याद आएंगे...
न रुका यह वक्त, न बातें ,ना हीं मोहब्बत ..
फिर भला हम कैसे तुझमे ठहर पाएंगे ...
यादों के जहाँ में एक छोटा सा घर बनाएंगे..
धीरे धीरे दुनिया से तेरी चले जाएंगे ...
रवायतें दुनिया की तंग दिल, रोज ही..
नए फसाने ,नई जंग,नए इरादे ,नई उम्मीदें..
कैसे इनमें हम समायेंगे.नहीं टिक पाएंगे..
धीरे धीरे तेरी यादों से भी चले जाएंगे ...
कभी हुई जो किस्सा गोशी यू ही पुरानेलम्हों की,
जुगाली बीते पलो की..
कही किसी छोटी सी बात, छोटी सी खुशी में..
फिर अपनी दस्तक दे जाएंगे..
यूं ही धीरे-धीरे पिघल के मोमबत्ती सा बीत जाएंगे...
स्वरचित व मौलिक
नीलम तोलानी
दो अनजाने, अजनवी जा रहे थे आज मिलने।
दिल में अजब सी बेचैनी, अजब सी व्याकुलता है।।
निगाहें सजनिया को ढूंढ रही थी, प्रणाम करते हुए।
दिल और दिमाग, जहन की तरंगें, आह! भरते हुए।।
कामयाब हुई निगाहें उसे ढूंढ़ने में , मैं होश खो बैठा।
उसका नूरानी चेहरा देख, दिमाग मदहोश हो बैठा।।
हां,माँ की चिमटियों से मैं सम्भल रहा था थोड़ा-थोड़ा।
दूसरे ही पल देखने पहुंच जाता उसे, मन दौड़ा-दौड़ा।।
बड़ो के लव हिलते दिखाई दे रहे थे, कर्ण सुन न रहे थे।
ध्यान तो वहीं था मेरा लव मेरे हां,हूं में जवाब दे रहे थे।।
व्याकुल हो उठा था मेरा मन उसे अपने सामने न पाकर।
फिर चाय लाती देख सुकून मिला दिल को अब जाकर।।
हम व्याह बंधन में बंधने जा रहे है बस शेष है कुछ दिन।
सोचा न था ये 'चैन' इतना बेचैन हो जाएगा इक दिन।।
स्वरचित
सुखचैन मेहरा 'चैन'
गुनगुनाओ मधुर तराना है.....
क्या मिला और रह गया क्या है...
सोच कर ज़िन्दगी गँवाना है....
चाहतें कब कहाँ हुईं पूरी...
मन का संतोष ही खजाना है...
भूल जाओ बिछड़ गया जो भी....
क्यूँ सफर नर्क सा बनाना है....
मौत 'चन्दर' तेरी बने उत्सव....
कर्म ऐसे कमा के जाना है....
साथ मिल कर के "भावों के मोती"...
हर कला को हमें सजाना है....
'नक्श' तेरी ग़ज़ल के क्या कहने....
हर जुबां लब पे यह तराना है....
*यह मुलाक़ात इक बहाना है...
प्यार का सिलसिला पुराना है *
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
संग दौड़ रही जिंदगी यहाँ
नहीं किसी को फुर्सत यहाँ
किसी से नहीं मतलब यहाँ
रुसवाई भरी है बातों में
अपनापन नहीं आँखों में
बेरुखी भरी है जज्बातों में
टूट जाते हैं रिश्ते नाजुक हालातों में
शांति का पैगाम लिए
प्रीत प्रेम का सौगात लिए
मुट्ठी में कुछ आस लिए
आओ मिलकर साथ चले
दो कदम मैं चलूँ
दो कदम तुम चलो
गिले शिकवे भूलकर
एक नई राह चलें
मीठी यादों को साथ लिए
पुराने जख्मों को भूलकर
नववर्ष का स्वागत मिल कर करें
स्वरचित पूर्णिमा साह
परिंदा
है बुद्धिजीवी ज़रा तरस कर
मुझे रिहा कर इस जंजीर से।
है बुद्धिजीवी ज़रा रहम कर
बाहर निकाल सोच गंभीर से।।
शिकारी
कर्म को कैसे भूलूँ ऐ परिंदे?
तूने कर्म कर लिया मैं करूँगा।
अब डाह ना कर मेरी राह में
शिकारी हूँ , शिकार करूँगा।।
परिंदा
मेरी मान ले एक बात ज़रा
दम घुट रहा है रे मेरा कैद में।
उन्मुक्त गगन का पंछी हूँ
क्या तु रह लेगा छोटे *छेद में?।।
* निहायती छोटा सा घर
शिकारी
नहीं रह पाऊँ, प्राणी कुल का मैं
तूने जान देनी है मैंने जान लेनी।
फिर शिकारी कौन कहेगा मुझे?
छोड़ दूँ गर तुझे, देख तेरी बेचैनी।
परिंदा
तो तु ज़रा सा तरस नहीं करेगा?
मुझ बे सहारा पर, ज़रा ये बता।
मार देगा किसी के हाथ बेचकर,
ले मार दे अभी मुझे, मेरा सर झुका।।
(उस परिंदे ने अपनी गर्दन शिकारी के आगे करके कहा।)
शिकारी
कोई अच्छे कर्म किये हे परिंदे.
जो मेरे मन में आ गई है दया ।
जा, उड़ जा उन्मुक्त गगन में
मानुस हूँ पहले, शिकारी न रहा।।
परिंदा : शुक्रिया (खुशी से)
मनुष्य(शिकारी): स्वागत है 😊😊😊
(शिकारी तो रहा ही नहीं बेचारा हार जो गया परिंदे से)
-:-स्वरचित-:-
सुखचैन मेहरा
साल पुराना जा रहा, पुन: साल के बाद ।
देकर विविध मिली जुली, खट्टी मीठी याद ।।
कविता -
सर्दी आई ..
सर्दी आई सर्दी आई ।
मौसम ने ली है अँगड़ाई ।
ठंडे का रँग जमा हुआ है ।
कोहरा थोड़ा घना हुआ है ।
निकले कंबल और रजाई,
सर्दी आई सर्दी आई ।
ठंडी में तन काँप रहे हैं ।
जला बोरसी ताप रहे हैं ।
जाड़े ने काया ठिठुराई,
सर्दी आई ..
टोपी संग पुलोवर आए ।
कोट सुएटर ठंड बचाए ।
गरम शाॅल भी बहुत सुहाई,
सर्दी आई ..
पंखों में रखकर अपना सर ।
बैठे कुछ पंछी छज्जों पर ।
नीरवता तरुओं पर छाई,
सर्दी आई ..
भोर घनेरी शांत शांत है ।
सूर्यकान्ति भी क्लांत क्लांत है ।
मन्द पड़ी रवि की अरुणाई,
सर्दी आई ..
जीवजन्तु सब मौन पड़े हैं ।
गाय-भैंस चुपचाप खड़े हैं ।
बकरी धीमे से मिमियाई,
सर्दी आई ..
विडाल-श्वान मौसम के मारे ।
छुपे शीत में हुए हैं सारे ।
मुर्गे ने है बाँग लगाई,
सर्दी आई ..
पारदर्शिता शून्य हो गई ।
चूल्हे पर आ गई रसोई ।
मकई बाजरे की ऋतु आई,
सर्दी आई ..
बन्द हो गए एसी कूलर ।
शुरू हुए अब गीजर-हीटर ।
शीतल वायु देती कठिनाई,
सर्दी आई ..
पेप्सी, कोला दुबक पड़ी है ।
आइसक्रीम भी दूर खड़ी है ।
गरम चाय-अदरक मुस्काई,
सर्दी आई ..
गरम पेय का मौसम आया ।
सूप-टमाटर अति का भाया ।
पीकर जान, जान में आई,
सर्दी आई ..
वही सड़क है वही काम है ।
वही सुबह है वही शाम है ।
आपाधापी कब रुक पाई,
सर्दी आई ..
बूढ़ा साँसें हाँक रहा है ।
सहमा बचपन झाँक रहा है ।
तरुणाई पर कड़की छाई,
सर्दी आई ..
जल पाएगा कैसे अलाव ।
बढ़े हैं डीजल-लकड़ी भाव ।
कैसे जले अँगीठी भाई,
सर्दी आई ..
तन पर आसमान की चादर ।
नीचे धरती का है बिस्तर ।
आशा जीवन की अकुलाई,
सर्दी आई ..
चन्द जनों की हालत बदतर ।
जीना पशुओं से भी बदतर ।
शरद रूप रख मौत है आई,
सर्दी आई सर्दी आई ।
मौसम ने ली है अँगड़ाई ।
#
स्वरचित,
-मेधा,
(मेधा नारायण).
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ये अजीब दास्तान है--
जीवन कभी हँसता है
तो कभी रोता भी है,
कोई अपना छूट जाता है
तो कोई पराया जुड़ता भी है,
कोई दिल को तोड़े
तो कोई दिल को जोड़ता भी है।
ये अजीब दास्तान है-
अच्छाई पीछे छूट जाती
बुराई तमगा पाती है,
सच्ची भावना मात खाती
छल-प्रपंच जश्न मनाता है,
शोर - शराबा को जाने दुनिया
बेचारा मौन गौण रहता है।
ये अजीब दास्तान है -
चमचागिरी सबको भावे
आलोचनाएँ सही न जाती है,
झूठ के पीछे दुनिया भागे
सच्चाई अकेला रह जाता है,
शिकायत का सिलसिला जारी है
सूक्ष्म भावनाएँ मरती रही है।
ये अजीब दास्तान है --
चोर को सब सलाम ठोकता
ईमानदार बेचारा धोखा खाता है,
प्रतिभाएँ दर-दर की ठोकरें खाती
मूर्ख धन के बल शासन करता है,
आज स्वरूप बदल गया है
शेर की जगह गीदड़ ताज पहनता है।
----रेणु रंजन
क्या कुछ भी शाश्वत है यहाँ,
जो हर जगह बहस और जिरह,
बस आज व्यथित हुवा मेरा ह्रदय l
नेता सोचे वो है कालजय,
किसने पायी यहाँ विजय,
कुछ भी ज़ब शाश्वत नहीं,
किस बात की है ये जिरह l
अपमान भी कभी सहना पड़ता,
घुट घुट कर भी जीना पड़ता,
आसान नहीं है परिवार चलाना,
खून के आंसू भी पीनापड़ता
जितनी ज्यादा गांठे होंगी,
खुलना उतना मुश्किल होंगी,
क्यूँ नहीं खोले है मानव इनको,
काहे बन रहा सच का ढोंगी l
जीवन एक रसीला राग है,
प्यारा सा अनुराग है,
उस ईश्वर ने हमें दिया है,
सिर्फ वही एक शाश्वत है l
मै भी कहाँ शाश्वत हूँ,
फिर भी मै आश्वश्त हूँ,
मेरी रचनाएँ काल जय होंगी,
मै इसी से आश्वश्त हूँ l
विनती है मेरी मानव से,
करलो प्रीत एक दूजे से
काल जय नहीं है कोई,
कैसा झगड़ा इक दूजे से l
कुसुम पंत उत्साही
दिन रविवार
स्वतन्त्र लेखन
विधा भजन
रचयिता पूनम गोयल
भूखे को भोजन ,
प्यासे को पानी ।
सेवा यही है ,
सुन , महाज्ञानी ।।
1)-तीरथ किए तूने ,
सबसे ज़्यादा ।
कोई भी कोना ,
छोड़ा ना आधा ।।
भूल गया पर ,
ममता की वाणी ।
भूखे..............
2)-गंगा नहाए ,
या जाए तू काशी ।
धन की चाहे ,
तूने गठरी बहा दी ।।
मन के मैल को ,
धोया ना प्राणी ।
भूखे................3)-महीनों तक ,
तूने व्रत भी किए हैं ।
काया को अपनी ,
कष्ट दिए हैं ।।
फिर भी मुरादों की ,
मंज़िल ना पानी ।
भूखे...............
4)-तूने सोचा ,
तुझे स्वर्ग मिलेगा ।
शायद इन्द्र का ,
सिंहासन मिलेगा ।।
प्रभु की किताब में ,
सबकी कहानी ।
भूखे..............
5)-तीरथ हैं तेरे ,
माता-पिता बस ।
उन पर लुटा दे ,
तू अपना सरबस ।।
बन जाएगी ,
तेरी जिंदगानी ।
भूखे..............
6)-दर से तेरे ,
कोई भूखा न जाए ।
प्यासे की तू ,
सदा प्यास बुझाए ।।
व्रत ले यही बस ,
जीवन में प्राणी ।
भूखे...............
पूछे मुझसे बात।
मैं तो बदल जाऊँगा कल
कब बदलोगे आप?
जब तक मैं लोगों के काम आया
सबने मुझे रखा सभाँल
नये कलेंडर के आते ही
लोगों ने दिया मुझे डार
जब तक काम आवे हम
दुनिया करें सलाम
मैं तो हारा नियति के आगे
तुम लो अपना भविष्य सवाँर
माया जाल है दुनिया सारी
मान लो मेरी बात
कर लो श्री राम से प्रीति
हो जाओगे पार
धोखा, झूठ फरेब से,कर लो तुम तोबा
प्रीत कर लो राम से ,कभी न होगी धोखा
सुन कलेंडर की ऐसी बात,मैंने जोर से बोला,जय श्री राम।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
भावों के मोती - स्वतंत्र लेखन
~~~~~~~~~~~~~~~~~~
मैं कश्ती हूँ तुम्हारी , तुम पतवार बन जाना
मेरी अनकही कहानी के किरदार बन जाना
जहाँ से तुम गुज़रो ,मैं काँटे समेट लूँ सारे
मुरझाए फूल महक उठे वो बहार बन जाना ।
सब जीते हैं अपने लिए,यही दस्तूरे-ज़माना है
दुनिया बसा लूँ दिल में वो विस्तार बन जाना ।
एक ऐसी इमारत बनाने की चाह है मन में मेरे
प्यार ही प्यार का प्रवेश हो वो द्वार बन जाना ।
पता नहीं कब पूरे होंगे वो वादे जो ख़ुद से किए
वादा ख़िलाफ़ी न हो,तुम वो एतबार बन जाना ।
पाया बहुत इस जहाँ में, दिया बहुत इस जहाँ ने
अब देने की है मेरी बारी ,मेरा संस्कार बन जाना ।
'मैं'और 'तुम' की परिधी से परे सिर्फ़'हम'हो जहाँ
तुम मेरे सपनों का वो सुखद संसार बन जाना ।
इस साल के साथ ही ख़त्म हो जाएँ दिलों की रंजिशें
दिल से जो दुआ बन निकले तुम वो आभार बन जाना ।
स्वरचित (c) भारगवी रविन्द्र ३०/१२/२०१८
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मैं कश्ती हूँ तुम्हारी , तुम पतवार बन जाना
मेरी अनकही कहानी के किरदार बन जाना
जहाँ से तुम गुज़रो ,मैं काँटे समेट लूँ सारे
मुरझाए फूल महक उठे वो बहार बन जाना ।
सब जीते हैं अपने लिए,यही दस्तूरे-ज़माना है
दुनिया बसा लूँ दिल में वो विस्तार बन जाना ।
एक ऐसी इमारत बनाने की चाह है मन में मेरे
प्यार ही प्यार का प्रवेश हो वो द्वार बन जाना ।
पता नहीं कब पूरे होंगे वो वादे जो ख़ुद से किए
वादा ख़िलाफ़ी न हो,तुम वो एतबार बन जाना ।
पाया बहुत इस जहाँ में, दिया बहुत इस जहाँ ने
अब देने की है मेरी बारी ,मेरा संस्कार बन जाना ।
'मैं'और 'तुम' की परिधी से परे सिर्फ़'हम'हो जहाँ
तुम मेरे सपनों का वो सुखद संसार बन जाना ।
इस साल के साथ ही ख़त्म हो जाएँ दिलों की रंजिशें
दिल से जो दुआ बन निकले तुम वो आभार बन जाना ।
स्वरचित (c) भारगवी रविन्द्र ३०/१२/२०१८
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