पर्यावरण पोषक रहा।
सचराचर मे इह धरा का।।
मानवीय सभ्यता पोषक।
उत्कृष्ट प्राकृत्यै विज्ञान।।
धर्म कर्म से जुडा विषय।
मानवता का परिचायक ।।
फिर भी लिऐ कुठार हम।
वृक्षों काट रहे अधाधुंध।।
वृक्ष पर्यावरण के रक्षक।
उत्तम स्वास्थ्य के दाता।।
वह वुजुर्ग देखो हमेशा।
वृक्ष लगाते आऐ। है।
क्या हम.अपने लाऐ ।।
वृक्षो से फल पाते।
हमआज कटिबद्ध हो।
वृक्ष नही अब काटने हैं।
मिलजुल कर वृक्ष लगाऐ।
जो जड़ निकले वृक्ष हो।
उन पर मिट्टी चढबाऐ।
पालीथीन न उपयोग करे।
पर्यावरण के ना माफिक।।
पढ लिख कर हम मूरख है।
बहोत चाव से कहलाते।
शिक्षक शिक्षित पढेलिखे।।
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🌍🌍🌍🌍🌍🌍🌍
स्वरचित/अप्रकाशितः/स्वानुभूत
राजेन्द्र कुमार#अमरा#
१९/०९/२०१८@०५:५९
प्रकृति तो सब सुख प्रदाता।
प्रदूषण हर मानव फैलाता।
ईश्वर की अलौकिक निधि ये,
जनजन को शुभफल दाता।
रोज काट रहे बृक्षों को हम।
नहीं संवार रहे बृक्षों को हम।
नित पर्यावरण प्रदूषित करते ,
नहीं सींच रहे बृक्षों को हम।
प्रकृति हमें चेतावनी दे रही,
फिर भी ना समझ बने हम।
ये जीवन दूभर हुआ हमारा,
रोज विपत्तियां झेल रहे हम।
प्रकृति पोषक है हम सबकी।
सुंंन्दरता द्योतक सब इसकी।
पर्यावरण प्रदूषित नहीं होने दें,
यह जिम्मेदारी है हम सबकी।
दूर रहें पालीथिन से हम सब।
कपडे कागज का उपयोग करें।
शुद्ध रखें वातावरण मिलकर के,
नहीं पालीथिन का उपयोग करें।
स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
🌴
हरा आवरण पृथ्वी का तुम,
उससे तो ना छिनो ।
आधुनिकता के दौड मे मानव,
पर्यावरण को ना छेडो॥
🌴
जंगल कटते पेड है रोते,
शुद्ध नही है वायु ।
पृथ्वी क्षरण की ओर बढी है,
नदियाँ बनी विषौली ॥
🌴
गर्म हो रही धरा निरन्तर ,
बढते कल-कारखाने ।
प्लास्टिक कार्बन के कचरो से,
भूमि बन रहा मरूवन॥
🌴
आओ मिल कर पेड लगाये ,
पृथ्वी मे हरियाली लाए।
आधुनिकता और पर्यावरण के,
बीच नया सायंजस्य बनाए॥
🌴
शेर कहे जब हरा हो हर घर,
पेड लगे पौधो का उपवन।
पर्यावरण की रक्षा होगी,
धरा रहेगा सुन्दर सुरवन ॥
🌴🎄🌴🎄🌴🎄🌴🎄
स्वरचित .. Sher Singh Sarraf
पर्यावरण बचाना होगा संकट बड़ा खास है ।
जहाँ देखिये तहाँ आज हर जीव उदास है ।
मानव मानव न रहा बदला अब लिबास है ।
प्रकृति से प्रेम नही भौतिकता का दास है ।
भौतिकता की चकाचौंध में नित नई नादानी है ।
सुख सुविधाओं की सोचे पर सोचे कहाँ हानी है ।
भौतिकी का कम प्रयोग हो भलाई इसमें मानी है ।
मगर यहाँ सुशिक्षित ही करें ज्यादा शैतानी है ।
औरों का हक छीने चार गाड़ी घर में बेमानी है ।
आम आदमी कहाँ चलेगा कठिन भई रवानी है ।
AC की बिष उगलती वायु सबको आनी है ।
किसी ने सुख भोगा किसी को भई हैरानी है ।
खुद में कुछ सुधार नही औरों में चाहें सुधार ।
इसी सोच के चलते बढ़ रहे हैं संकट हजार ।
सोच बदले बिना सम्भव नही हैं बेडा़पार ।
चाहे हो पर्यावरण चाहे या हो समाज परिवार ।
समझो ''शिवम" आज ये वक्त की है दरकार ।
कौन भूलें हैं हमारी करो तुम उन्हे स्वीकार ।
बीमारीं बढ़ रहीं हर एक जीव अब है लाचार ।
अभी अगर हम न बदले दूर नही है प्रलयंकार ।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 19/09/2018
*****वृक्ष की पुकार*****
मैं वृक्ष बहुत आघात हो गया हूँ,
मानव तेरी कुल्हाड़ी से परेशान हूँ,
क्यों तु बार-बार प्रहार करता है,
क्या तुझे बिल्कुल डर नहीं लगता है |
पर्यावरण के हम वृक्ष गहने हैं,
यूँ सीने में हमारे आरी मत चला,
हम नहीं तो तेरा भी क्या होता भला?
क्यों बन बैठा तु इतना मनचला |
हम तुझको क्या कुछ नहीं देते,
फल,सब्जी,प्राणदायक हवा,
बारिश में भी सहायक हैं हम,
बाढ़ की रोकथाम खूब करें हम |
पंछियों के घरोंदें हैं हम,
ईंधन के स्रोत भी हैं हम,
पथिक को छाया देते हैं हम,
औषधि में भी नहीं हम कम |
समय पर महत्व हमारा समझ ले,
जीवन में ये संकल्प कर ले,
पर्यावरण को स्वच्छ रखेगें,
वृक्षारोपण खूब करेंगें |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
रोते है वृक्ष
***********
रोते है वृक्ष ,
सुबकती लताएं हैं,
भूल चुकी वृन्दन,
क्रन्दन और चिताएं हैं।
हो रहा दोहन धरती का,
और शोषण प्रकृति का,
महत्वाकांक्षा की सीढी पर,
आज इंसानी कृति का,
शापग्रस्त है प्रकृति
कहीं जा नहीं सकती,
और ..
धरती अपने बच्चों को छोड,
कहीं भाग नहीं सकती,
अरे... !!!
जिनसे जीवन हमें मिला हैं,
उन्हीं का जीवन छीन रहा,
स्वयं पैर कुल्हाडी मार,
दंभ मनुष्यता का किया?
बढती जनसंख्या,
बढता प्रदुषण,
और....
होड भौतिकता की,
किसे कहां ले जाएगी,
"पयार्वरण" सन्तुलन बिगड गया
तो...
सब यहीं धरी रह जाएगी।
फैलाए हुए अपनी जडें,
खामोश है बूढा बरगद भी,
गवाह प्राचीन से अवार्चीन का,
अपनी आबादी से बरबादी का
लाचार है कहीं जा नहीं सकता,
परायों के बीच रहकर,
अपनों सा सुख पा नहीं सकता,
जीवन भर दिया है उसने,
पाने को आसमां तकता है,
देख मानव की खाली झोली,
वो फिर भर-भर उठता है,
है कृतध्न मानव इनका,
यदि...
अब भी सम्भल न पाएगा,
समूल सृष्टि की विनष्टी का,
स्वयं कारण बन जाएगा,
स्वयं कारण बन जाएगा।
स्वरचित
ऋतुराज दवे
अंतिम ईच्छा
शुद्ध पर्यावरण ही स्वस्थ जीवन का आधार है ।
प्यारे बच्चो एक पौध रोपी है मैंने आज ,
चाहती हूँ तुम भी लगाओ पौधे हजार ।
शुद्ध हो पर्यावरण हमारा ,
प्रदूषण मुक्त हो संसार सारा ।
मै तुम्हे मिलुंगी फिर इसी पावन महकी हवा मे ,
इसी खुबसूरत फ़िजा मे ,
हवा का झोंका बन तुम्हे प्यार से छू जाऊँगी, चिडिया बन तुम्हारे ऑगन मे चहचहाऊॅगी, कभी फूलो की खुश्बू बन तुम्हारा जीवन महकाऊॅगी,मुस्कुराएगा पर्यावरण तो मै भी खिलखिलाऊॅगी सलोने बच्चो (नेहा , निधि )ना व्यर्थ ऑसू बहाना तुम ,
पापा को भी ढांढस बंधाना ,मेरे अंग दान करवाना तुम ।
मेरी ऑखो से कोई देखेगा दुनिया ,किसी के भीतर दिल मेरा धड़केगा ।
किडनी व लीवर किसी को जीवन दे जायेगा ।
लाडलो तुम्हारे प्रेम भरे साहस से कईयो का परिवार मुस्कुराएगा ।और मेरी चिता मे मुझसे पहले अग्नि मे प्रवेश करने वाला एक वृक्ष भी बच जाएगा अपनी गौरैया व गिलहरी के साथ ।
बिजली के दाहघर मे करना प्यारे बच्चो तुम मेरा अंतिम संस्कार ।।।।।
(स्वरचित )सुलोचना सिंह
प्रकृति का अनुपम उपहार,
पर्यावरण है जीवन आधार,
आओ हम पर्यावरण बचाएं,
यह संदेश सब तक पहुंचाएं,
पेड़ों को कटने से बचाएं,
प्रदूषण से मुक्ति पाएं,
प्लास्टिक का उपयोग बंद कराएं,
ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाएं,
कचरे का करें सही निपटान,
पर्यावरण है जीवन दान,
लेकर स्वच्छ समाज का सपना,
अमूल्य योगदान दें अपना,
प्राणवायु है इसका उपहार,
इसका करें विस्तार,
जीव जन्तु नदियां, सागर,
इसकी गोद मे पले संसार,
प्रकृति का अनुपम उपहार,
पर्यावरण है जीवन आधार,
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
लेकिन वह अभी लड़खड़ाया ही था चलने में सक्षम था। थोड़ा आगे चला तो पता लगा कि जंगल में कई व्यक्तियों का समूह पेड़ों को काट रहा था।कुछ शहर का कचरा यहां फैला रहे थे। जैसे-जैसे वो पेड़ों पर प्रहार करते वैसे-वैसे पर्यावरण घायल हो रहा था व कचरे की दुर्गंध भी आने लगी थी पर्यावरण के शरीर से।असामंजस्य में पड़े लोगो को धीरे धीरे घायल होता पर्यावरण इशारा करते हुए कह रहा था कि, ' देखो मेरे घायल होने का का कारण पेड़ काटना है,कचरा फैलाना है।
पर्यावरण की तबियत कुछ ज्यादा ही गंभीर होती जा रही थी।
लोगों ने चलकर उनको लोगों के ग्रुप से पेड़ न काटने व कचरा न फैलाने की गुहार लगाई । लेक़िन नहीं माने । थोडा ओर प्रयास करने पर वो मान गये ।
लेकिन अब तक पर्यावरण घायल हो कर जमीन पर पड़ा तड़फने लगा। वो कहते है न बस 100 फ़ीसदी में से 90 फ़ीसदी खत्म हो चुका था।
थोड़ी देर बाद एक चमत्कार हुआ कि पर्यावरण की तबियत में कुछ सुधार आ रहा था, धीरे-धीरे।
वो हुआ यूँ , शहर के कुछ बच्चों ने ये ठान लिया कि हम इन बड़े मूर्ख लोगों का मुकाबला नहीं कर सकते लेकिन ये जितने पेड़ काटेंगे उतने ही पौधे हम लगाएंगे।
इस तरह तबियत खराब होने में तो थोड़ा ही समय लगा (क्योंकि पेड़ तेजी से कट रहे थे, मैं पौधों की बात नहीं कर रहा हूँ,ज़नाब पौधे से पेड़ बनने में वर्षों लग जाते है ।)
लेकिन ठीक होंने में तो समय लगना ही था।
इस तरह आज भी लोग जब पेड़ काटते है, कचरा फ़ैलाते है और दूसरी ओर कोई पेड़ लगाते है, सफाई अभियान चलाते है तो पर्यावरण की तबियत में उतार- चढ़ाव लगातार आ रहा है।
चिंता का विषय ये है कि पर्यावरण की तबियत में उतार चढ़ाव यूँ ही आता रहा तो हम सब को पता ही है कि पुश-अप कब तक काम करता है । आखिर में थकना ही पड़ेगा। यदि एक बार पर्यावरण थक गया तो उसका उठ पाना लगभग असम्भव हो जाएगा। क्योंकि पेड़ की कमीं पूरी पेड़ ही कर सकते हैं पौधे नहीं।
इसलिए पयार्वरण प्रेमी बनो... क्योंकि वो हमें निःस्वार्थ भावना से प्रेम करता है।
शुद्ध हवा का झोंका तो सब के मन को भाता है....
लेकिन
पर्यावरण बचाने की कसम कोई विरला ही खाता है।
कोई विरला ही खाता है...
-:-स्वरचित-:-
सुखचैन मेहरा
पेड़ पौधे सब दुःखी हैं |
वन्यजीवों का घर उजाड़ कर,
मानव, अपना आशियाना बना कर सुखी है |
कट रहे जंगल निरन्तर,
फैल रही आबादी है |
वर्तमान तो जैसा भी है ,
भविष्य में तो बर्बादी है |
कारखानों का धुआँ हो,
या नालों का बहता गंदा पानी |
हर पल बढ़ रहा है प्रदूषण,
मनुष्य करता रहता मनमानी |
जो भी लिया है इस प्रकृति से,
उसे ही वापस देना होगा |
पर्यावरण संरक्षण का,
संकल्प सभी को लेना होगा|
स्वरचित ****
सुनील दत्त बडथ्वाल
19/09/2018
तपती धूप
भयभीत किसान
हैं सूखे खेत
बदरा तुम
कहाँ बरस रहे
तड़पें हम
कौन बचाये
अब पर्यावरण
सब सो रहे
जंगल जला
और पर्यावरण
दूषित हुआ
सड़कों पर
वाहन फैला रहे
धुआं धुआं सा
स्वरचित रचना
अखिल बदायूंनी
आज सुबह की बात है... किसी दोस्त के फंक्शन में बाहर गया हुआ था...वापिस अपने स्टेशन और ऑफिस आने के लिए सुबह जल्दी ही निकल आया.... रास्ते में एक ढाबे पे रुका... नाश्ता करने को... एक जगह कुर्सी पर बैठ गया... वहां पहले से एक बुजुर्ग नाश्ता कर रहा था... मैले से कपडे थे...दांत २ ही दिखाई दे रहे थे... दाल में डुबो कर परांठा खा रहा था.... मेरा नाश्ता आता इस से पहले वो खत्म कर चुका था... ७०-७५ वर्ष का लग रहा था शक़ल से....नाश्ता करने के बाद वो कुछ मुझे बोला पर मैं समझ नहीं पाया.... बहुत कोशिश की पर मैं समझ नहीं पाया.... फिर उसने हाथ जोड़े कुछ बोला...मुझे समझ आया कि वो चाय पिलाने को बोल रहा.... मैंने उसकी चाय का आर्डर भी दे दिया....नाश्ता कर मैं वहां से चला आया... उसने जो नाश्ता किया था उसके भी पैसे दे दिए थे मैंने.... पर अंदर ही अंदर न जाने मुझे घुटन होने लगी...सोच कर कि वो मुझसे बातें कर रहा था पर मुझे चाय पिलाने के इलावा कुछ समझ नहीं आया उसका... दांत नहीं थे मुंह में शायद इस वजह से या मैं सुन नहीं पाया...
बच्चा जब बोल नहीं पाता.... आ ऊँ ही करता है... तब भी माँ बाप समझ लेते कि वो क्या कह रहा है... फिर उसकी तुतलाती बातें भी समझ जाते हैं.... और वही बच्चे जब बड़े होते हैं... माँ बाप कुछ कहते हैं तो वो सुनते नहीं हैं... हाँ आगे से जवाब उनके त्यार मिलते हैं... लम्बे चौड़े भाषण के रूप में और फिर शब्दों को जो वो 'वस्त्र' पहनाते हैं उनका भी जवाब नहीं होता.... बूढा और बच्चा एक सामान होते हैं सुना... पढ़ा मैंने... और जब यही माँ बाप बूढ़े हो जाते हैं उनकी बातें न समझ आती न कोई सुनना चाहता है.... रह रह के मुझे वो बुजुर्ग याद आता है...भिखारी तो था नहीं वो... फिर...
वो मुझसे बातें कर रहा था... मैं समझ नहीं पाया.... उसकी आँखें धंसी थी... चहरा भी स्पॉट सा... क्या था दिल में उसके.... मैं वापिस मुड़ा... उसी जगह गया.... पर वो मुझे नहीं मिला... दूर दूर तक नज़र दौड़ाई... पर नहीं मिला.... अपने आप पर मुझे घिन्न आने लगी है... अपने इंसान होने पर... जो भावों को नहीं पढ़ पाया दूसरे इंसान के.... काश ! मेरे मन में भावों का अकाल न होता... ज़िन्दगी मेरी यंत्र जैसी न होती तो शायद में उसके भाव आँखों के... चहरे के... पढ़ पाता या कम से कम सुन सकता... कर बेशक मैं कुछ नहीं सकता था... पर उसके भाव पढ़ सकता...सुन सकता उसके दिल की...काश !!
क्या पर्यावरण नुक्सान सिर्फ पेड़ पौधे काटने से या गाड़ियों से या चिमनियों से निकलते धुएं से हो रहा है.... या हम समझ कर भी नहीं समझ पा रहे हैं.... हम मशीनों का प्रयोग करते करते खुद भी मशीन जैसे हो गए है ... एक यंत्र कि तरह... रोबोट की तरह... जिसमें भाव नहीं हैं... और संस्कार...प्यार... लुप्त हो रहे हैं.... सबसे बड़ा अकाल पड़ रहा है... घरों के वातावरण दूषित हो रहे हैं....घर टूट रहे हैं.... समाज खंडित हो रहा है... जिसका हम इलाज नहीं कर रहे.... प्यार और संस्कार के बीज हम बो नहीं रहे हैं.... न प्रोत्साहन दे रहे ऐसे भावों को..... और यही यंत्र कहीं आग लगा रहे हैं... किसी का खून कर रहे हैं...किसी का बलात्कार कर रहे हैं.... किसी बुजुर्ग को बेघर कर रहे हैं.... इंसानियत का हर पल खून हो रहा है... इतना ज़हर वातावरण में.... और हम सब मूक...बधिर बने बैठे हैं.... क्यूंकि भावों का अकाल है सब में.... घिन्न आती है ऐसे वातारण से.... पर इलाज नहीं करेंगे हम....
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा
यह कर्तव्य हमारा है 🌲
वृक्षों से छाई हरियाली
मिलते पथिक को छाया है
है वृक्ष जीवन दायिनी
यह धरती का श्रृंगार है
इनसे ही आते जीवन में
सुन्दर सुहावना सवेरा है
है वन्यजीवों का घरौंदा
और चिड़ियों का बसेरा है
इनसे झोली भर भर लेते हम
और सिर्फ जख्म ही देते हैं
एक वृक्ष के बदले सौ वृक्ष
यह संस्कार बच्चों को सिखाना हैं
पौधे लगाकर नहीं भूलें
इसकी देखरेख भी हमें करना हैं
🌲🌳🌲🌳🌲🌳🌲🌳🌲
स्वरचित पूर्णिमा साह बांग्ला
बढ़ा अब इतना प्रकोप
आज फिर से काँप उठी
देखो धरती माता की कोख !!
समय समय पर प्रकृति
देती रही कोई न कोई चोट
लालच में इतना अँधा हुआ
मानव को नही रहा कोई खौफ !!
कही बाढ़, कही पर सूखा
कभी महामारी का प्रकोप
यदा कदा धरती हिलती
फिर भूकम्प से मरते बे मौत !!
मंदिर मस्जिद और गुरूद्वारे
चढ़ गए भेट राजनितिक के लोभ
वन सम्पदा, नदी पहाड़, झरने
इनको मिटा रहा इंसान हर रोज !!
सबको अपनी चाह लगी है
नहीं रहा प्रकृति का अब शौक
“धर्म” करे जब बाते जनमानस की
दुनिया वालो को लगता है जोक !!
कलयुग में अपराध का
बढ़ा अब इतना प्रकोप
आज फिर से काँप उठी
देखो धरती माता की कोख !!
!
!
!
स्वरचित :- डी. के. निवातिया
कुल्हाड़ी लेकर जा रहा था
तेज कदमों से जंगल की ओर,
आते देख लकड़हारे को
जंगल के पेड़-पौधे
कुहकने लगे
आज किसकी बारी है कटने की
जंगल में मच गया शोर।
लकड़हारा आया
काटने लगा
एक हरे-भरे पेड़ को,
कुल्हाड़ी की प्रत्येक चोट से
पेड़ लगा 'आह' भरने-
"हा-मानव, हा-मानव
क्या करोगे मुझे काटकर
पलंग बनवाओगे,
किवाड़-खिड़कियाँ बनवाओगे,
फर्नीचर बनवाओगे?"
झल्लाकर लकड़हारा बोला-
"तुझे काटकर
मन की आस पुराऊंगा,
नाना प्रकार के सुख-साधन जुटाऊंगा,
आराम से जीवन सुख भोगुंगा।"
पेड़ बोला- "ना-ना-ना,
तुम कुछ न कर पाओगे,
पर्यावरण के रक्षक हम
अभाव में मेरे
प्रकृति अपना रूप दिखाएगी,
तूफान आएगा
बसेरा उड़ा ले जाएगा,
बाढ़ आएगी
सब बहा ले जाएगी,
दिनकर प्रचंड बनकर
प्राणियों को झुलसाएगा,
धरती पर जीवन का
नामोनिशान नहीं रह पाएगा
तब तो तुम्हारा भी
अस्तित्व ही मिट जाएगा।"
--रेणु रंजन
(स्वरचित )
हमारा हो रहा हर दिन ही भीषण क्षरण
हम ही तो करते हमारे मरण का वरण
हमने वन बुरी तरह काट दिये
नदी के वक्ष भी पाट दिये।
रस्ते के पेड़ उजाड़ दिये
सारे समीकरण बिगाड़ दिये
विस्फोट भयंकर कर कर के
पर्वत भी खूब पछाड़ दिये।
गंगा सारी कर दी मैली
पापों से भर दी थैली
केवल झंडे गाड़ने को
निकाल दी एक लम्बी रैली।
धरती के सीने में वाहन बढ़े
सब लोग कार्बन के हत्थे चढ़े
पैस्टीसाइड्स उर्वरा से रोज़ लड़े
ताज़े फल भी शीघृता से सड़े।
कुछ दिन पहले दिल्ली थम गई
कोहरे की परत भी जम गई
साँस लेना दूभर हो गया
पूरी मानवता सहम गई।
ओजोन परत पर संकट है
हरियाली का भी बंद पट है
यदि अब भी नहीं सम्भले तो
बस झंझट ही झंझट है।
पेड़ों को बच्चों सा पालो
नदियों में मैला मत डालो
ये काम भी कल पर मत टालो
वन जीवन हैं इनको बचालो।
खड़ा है किस धरा पर तू
इतनी सुंदर धरती को क्यों
नष्ट कर प्रदूषित कर रहे हो
पर्यावरण तुम
आज सुधर जा मनु तु वरना
हो जायेगा सृष्टि का विनाश
वृक्ष जो काट रहे बेशुमार
नही चिंता आने वाली पीढ़ी
कैसे लेगी सुन्दर श्वास
कल-कारखाने घर के कुड़े
बेधड़क जो नदी मे रहे हो डाल
गर नही चेते तो अगली पीढ़ी
हो जायेगी तबाह
पेड़ की जगह मोबाइल टावर
खड़े क्यों कर रहो हो आज
बेघर हो रहे है खग हमारे
घट रहे है उनके वंशज आज
ओजोन परत मे छेद हो रही है
कर रही है तुम्हें बीमार
इस्तेमाल करो और फेको
सभ्यता ले जा रही
विनाश के कगार
रिसाइकिलिंग हो तो कुछ हो
समस्या का समाधान
बैठा लो हमारे साथ सामंजस्य
मैं प्रकृति तुम्हारी माँ समान
तभी खुश रह सकोगे तुम
खुश रहेगी अगली पीढ़ी तुम्हारी
विकास तो जरूरी है पर जरूरी है
तालमेल हमारे साथ
संतान का कर्तव्य निभा लो
और बचा लो प्रदूषण से पर्यावरण को आज
मैं प्रकृति, तुम्हारी माँ,
मानो बस मेरी एक सलाह
पर्यावरण को प्रदूषण से बचा लो
तुम मेरे संतान।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।
धरा खडे ये वृक्ष हमारे
मूक विनती करते ये सारे
काट काट मत करो प्रहार
मच जाएगा हाहाकार
स्वार्थ लिप्त तुम काट रहे हो
जंगल भी अपना बना रहे हो
निरीह जानवर मार रहे हो
पंछी डाल से उड़ा रहे हो
तापमान ज़ब धरा बढ़ेगा
जीवन सबका झुलस पड़ेगा
पर्यावरण के प्रेरक बनकर
पेड़ लगा, हरियाली लाओ
शीतलता जग में बरसाओ
प्राण वायु है, हर साँस तुम्हारी
भोजन बनता, अमृत रस की प्याली
ओषधियाँ हैं, शक्ति तुम्हारी
जन्म, मरण से जुड़ती सारी
पथिकों की छाया की छतरी
मंद हवाएं सरगम फैलाती
शीतलता से तुम्हे नहलाती
प्रकृति का मैं उपहार अनुपम
मत करदो श्मशान मुझे तुम
शिक्षा पा तुम बनो जागरूक
जनसंख्या को करो नियंत्रित
भौतिक जीवन शैली बदलो
सहज प्रकृति से जुड़कर जी लो
सरिताओं का संचित कचरा साफ कराओ
पानी इनका निर्मल पावन शुद्ध बनाओ
कारखानों से चिमनी धुएं दूर कराओ
सोलर ऊर्जा की शक्ति को काम में लाओ
यूरिया खाद कम से कम तुम खेतों में डालो
कम्पोस्ट खाद से उर्वरा शक्ति मजबूत बनाओ
ओजोन मंडल का बढ़ता छेद है ज्वलंत समस्या
1995से पहले के फ्रीज तुम दूर हटाओ
धुँआ प्रदूषण, ए सी की गर्मी इस मंडल पर पड़ती भारी
इनसे बचने की,अब तो तुम कर लो तैयारी
साइकिल को आधार बनाओ, धुँआ गाड़ियों की हरदम तुम जांच कराओ
खनन बढ़े, भूकंप बढ़ेंगे, प्लास्टिक पर्यावरण हरेगी
गर तुम चाहते हो जीवन में अमृत रस पाना
पर्यावरण संतुलन में दृढ़ता के संग साथ निभाना
पर्यावरण को जागरूक करती........
हर मोती की कविताओं को तुम चस्पा करदो
एक एक पेड़ उगाने का बस बिगुल बजा दो
स्वरचित सीमा गुप्ता
अजमेर
मानव रे! क्यों दूषित करता तू ? निर्मल पानी,
जीवों पर,तुम क्यों करते, हो ये अत्याचार,
रसायनयुक्त जल से,मुझ पर क्यों करतें? प्रहार,
वृक्षों के जड़ों मै देती पानी, तुम खाते फल,
फिर क्यों विलासिता के मोह में करते दोहन,
अशियानों के सपनों में न कर,रे ! मानव अति खनन,
न छेड़ो नदियों के प्रवाह को रे ! खनन माफिया,
बिजली की चमाहट के खातिर न रे ! डामीकरण,
पीने को पानी मिलेगा नही रे ! मानव इतना समझ,
नदी,तालाब, सागर, वातावरण न कर दूषित,
भला तेरा होगा रे ! मानव तब, ये ले आज प्रण,
जगंलों की धधकती,अग्नि ज्वाला में मरते जीव,
क्यों रे ! मानव ? तू करता ,ये पाप कर्म ,
व्यथित होता, मन मेरा ये देख,आखिर क्यों रे! मानव,
वन्यजीव जन्तु वृक्ष मित्र झुलसे,बहते आँसू,
पिघलता हिमालय फैले, जब ये वनाग्नि,
मानव रे ! प्रकृति है ,हमारा अनमोल उपहार,
इसकी हरियाली,शाश्वत जलधारा से खिलता संसार,
हरे-भरे वृक्षों की है, पुकार मत करो प्रहार,
गौरा देवी का यही है,सन्देशा, सुन ले रे ! उत्तराखण्डी,
भाले-कुल्हाड़ी चलाओगें, हम पेडो़ के संग कट जायेंगे,
हमारे लहू की बूदं से बचेंगे जंगल ,ये हमारी है ललकार,
आज फिर सड़कों के भेट चढ रहे है,वृक्ष मित्र,
फिर कहाँ से रे ! मानव आबोहवा की बहार,
हमारी प्रकृति ही है, जीवन का आधार,
चंडीप्रसाद भट्ट जी का वृक्ष मित्र स्वपन करें हम साकार,
पद्मश्री सुन्दर लाल बहुगुणा जी के सपनों का बनाये ,
रे ! मानव अपना सुन्दर स्वच्छ पर्यावरण,
स्वरचित :-
'सुनीता पँवार' 'देवभूमि उत्तराखण्ड ' ( १९.९.२०१८)
सुनलो अब तो ओ नर नारी l
पर्यावरण किया दूषित भारीll
फैल रही है अब बीमारी l
सृष्टि भी अब बिलकुल हारीll
ओज़ोन भी हो गई छिद्रित भारीl
तन की फैल रही बीमारी ll
ऑक्सीजन अब कहाँ हमारी l
श्वांस की फैली अब बीमारी ll
काट रहे हो वृक्ष फुलवारीl
धरती बन गई बंजर सारीll
कहीं बाढ़ है कहीं सूखा भारी l
कैसे सहेगी प्रकृति हमारी ll
अब तो मानो बात हमारीl
वृक्ष लगाओ बारी बारीll
कसम लेलो आज ही सारे l
वापस लाओगे तुम हरयालीll
कुसुम पंत 'उत्साही '
दोहे -
१-
जीवन स्वस्थ बना रहे, कुछ तो करें प्रयास ।
पर्यावरण सँवारिए, साँसें बने सुहास ।।
२-
क्षय-ओजोन रोकिए, पेड़ लगाएँ एक ।
प्राणवायु को लें बचा, कार्य करें यह नेक ।।
३-
जगत-ताप आपद बड़ी, करें निदान-विचार ।
विद्युत-नीर बचाइए, रोपें वृक्ष हजार ।।
४-
रोज वृक्ष रोपण करें, और प्रकृति-सहयोग ।
शुद्ध रहे वातावरण, जीवन जिएँ निरोग ।।
५-
वृक्ष बिना जीवन नहीं, न ही जीव-संसार ।
अविकल जीने का यही, मात्र एक आधार ।।
६-
घटन-ओजोन रोकने, रोज लगाएँ वृक्ष ।
शुद्ध प्राणवायु भी, आबहवा समकक्ष ।।
७-
जीवों से यदि प्यार है, पेड़ लगाएँ चार ।
ओटू (O2) जीभरकर मिले, जीवन बचें हजार ।।
८-
श्रेष्ठकृति हो सृष्टि की, करो प्रकृति-सम्मान ।
बिजली-नीर बचाइए, भू हो आयुष्मान ।।
#
"स्वरचित"
- मेधा नारायण,
धुंधला कर दिया प्रदूषण भर
सर्जन के लिये उपहार था जो
सृष्टि अनुपम उपकार था वो ।
मानव ने लोभ वश दोहन कर
सबको हर लिया प्रलोभन कर
पर भूल गया वह मद में अपने
झूठे हैं उसके यह सारे सपने ।
धरती पर सबकी ही सृष्टि है
जड़ -चेतन जिसकी मुष्टि है
आओ!संरक्षण दे इसको
भक्षण से रक्षण दो सबको।
तब धरा स्वयं हरषायेगी
जीवन संगीत सुनायेगी ।
स्वरचित -उषासक्सेना
जिसमें हैं हमारी ख़ुशियाँ सारी
प्यारी सी हैं हरियाली
प्रकृति में हैं छाई हैं फूलों की क्यारी.
कहीं हैं सुन्दर पहाड़ पर्वत
कहीं हैं हरे भरे वृक्ष
कहीं हैं बहती जीवनदायनी बहती सरिता और झरने
कहीं हैं खूबसूरत प्यारे पंछी और वन्य जीव .
लेकिन आज का मानव
बन गया हैं दानव
लोभ लालच में आकर
नष्ट कर रहा हैं अनमोल प्रकृति को .
जंगल काट कर रहा हैं बेखौफ होकर
जिससे कहीं भूकंप कहीं बाढ़ का हो रहा हैं आगाज
मानव जीवन बन रहा हैं बेहाल
जीवन हो रहा हैं बेहाल .
रोक लो इस महाकृत्य को
रोक लो इस तूफ़ान बर्बादी को
प्रकृति हैं हमारी माँ
जीवन देती हैं हमें.
इसे रखो संजो कर
आने वाली पीढ़ी के लिये
खिलकर इसे फिजा में
बिखरने दो .
स्वरचित:- रीता बिष्ट
1
पर्यावरण
जीवन की जीविता
अन्योन्याश्रित
2
करो विचार
पर्यावरण सुरक्षा
बचाए धरा
3
पर्यावरण
वनस्पति उद्भव
बढ़ा विकास
4
छाया संकट
रोया पर्यावरण
वृक्ष हैं लुप्त
5
हरित मिल्यु
देता पर्यावरण
स्वच्छ माहौल
स्वरचित-रेखा रविदत्त
19/9/18
बुधवार
मिल्यु- चारों ओर के वातावरण का समूह
पर्यावरण
जीवन की जीविता
अन्योन्याश्रित
2
करो विचार
पर्यावरण सुरक्षा
बचाए धरा
3
पर्यावरण
वनस्पति उद्भव
बढ़ा विकास
4
छाया संकट
रोया पर्यावरण
वृक्ष हैं लुप्त
5
हरित मिल्यु
देता पर्यावरण
स्वच्छ माहौल
स्वरचित-रेखा रविदत्त
19/9/18
बुधवार
मिल्यु- चारों ओर के वातावरण का समूह
प्रभु का उपहार वृक्ष
फल फूलों की खान वृक्ष
हमको औषधियां देते वृक्ष
ऐसे त्रिदिव महान वृक्ष
इस धरती का श्रृंगार वृक्ष
कितने हैं उदार वृक्ष
हमको ऑक्सीजन देते हैं
उसका है वरदान वृक्ष
प्राणवायु देते हमको
ऐसे परम उदार वृक्ष
देते शीतल छांव वृक्ष
ऐसे परम उदार वृक्ष
हम सब की भूख मिटाते हैं
ये सुंदर फलदार वृक्ष
ये तो है जीवन के आधार वृक्ष
पर्यावरण को तुम बचाओ
कसम खाओ है नर-नारी
हरियाली को वापस लाओ
कर दो तुम अब तैयारी
अपने देश को हरा-भरा बनाओ
ये बात मान लो हमारी
. स्वरचित हेमा जोशी
फल फूलों की खान वृक्ष
हमको औषधियां देते वृक्ष
ऐसे त्रिदिव महान वृक्ष
इस धरती का श्रृंगार वृक्ष
कितने हैं उदार वृक्ष
हमको ऑक्सीजन देते हैं
उसका है वरदान वृक्ष
प्राणवायु देते हमको
ऐसे परम उदार वृक्ष
देते शीतल छांव वृक्ष
ऐसे परम उदार वृक्ष
हम सब की भूख मिटाते हैं
ये सुंदर फलदार वृक्ष
ये तो है जीवन के आधार वृक्ष
पर्यावरण को तुम बचाओ
कसम खाओ है नर-नारी
हरियाली को वापस लाओ
कर दो तुम अब तैयारी
अपने देश को हरा-भरा बनाओ
ये बात मान लो हमारी
. स्वरचित हेमा जोशी
'मै प्रकृति हूंँ '***
मै प्रकृति हूंँ, तुम से है,एक आशा,
न करना बेटा मुझको निराश,
प्लास्टिक का बन्द कर उपयोग,
ये दर्द देता मुझकों,करता है खोखला,
गौ माता का फंसता हैं, पेट,बनता जह़र,
दूषित गैसे ,ना रे ! बेटा क्लोरोफ्लोरो, कार्बनमोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन आक्साइड,हाइड्रोकार्बन जह़र,
ये जह़र भरता ओजोन परत में,
धुआँ भरता आबो हवा में,
मै प्रकृति हूंँ, बेटा सवार मुझकों ,
हरियाली के लिए कर वृक्षारोपण,
प्राणों की प्राणवायु मिलेगी तुझकों,
वातावरण के सभी जीव,जल,थल,वायु,
धरती माँ के ,आश्रय में रहतें,
बेटा मै तुम सभी जीव,जन्तु की प्रकृति माँ हूंँ,
जल जीवन है, न करो बर्बाद,
ग्लोबिग वार्मिंग से जो धरती जलती,
उष्णता की ज्वाला, से पिगलते ग्लेशियर,
संरक्षण करो प्रकृति ,का नही तो होगा महाविनाश,
मै प्रकृति प्राण त्याग दूगीं, ना धरती बचेगी ना जीव,
आधुनिकता के चश्मे पहनो कम, बेटा,न कर दोहन मेरा,
कलकारखानों के जहरीले धुएँ से घुटना दम मेरा,
मै प्रकृति माता हूंँ, संरक्षण करो मेरा,
पर्वतराज रक्षक भारत का संवार दो, हरियाली से,
औषधियों की बहारहोगी , पाओगे निरोगी काया तुम,
फूलों की घाटी वैभव है,हमारे भारत का,
ये महक बनाये रखना रे ! उत्तराखण्डी,
सुन्दर सुन्दर बुग्याल, नदी,घाटी,झरने,
नैनी झील,पर्वत पठार,उद्यान जीव विहार है,सुन्दर गहने,
मै प्रकृति माता हूंँ, तुम करो बेटा मेरा संरक्षण,
स्वरचित :-
'सुनीता पँवार' 'देवभूमि उत्तराखण्ड', (१९.९.२०१८)
मै प्रकृति हूंँ, तुम से है,एक आशा,
न करना बेटा मुझको निराश,
प्लास्टिक का बन्द कर उपयोग,
ये दर्द देता मुझकों,करता है खोखला,
गौ माता का फंसता हैं, पेट,बनता जह़र,
दूषित गैसे ,ना रे ! बेटा क्लोरोफ्लोरो, कार्बनमोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन आक्साइड,हाइड्रोकार्बन जह़र,
ये जह़र भरता ओजोन परत में,
धुआँ भरता आबो हवा में,
मै प्रकृति हूंँ, बेटा सवार मुझकों ,
हरियाली के लिए कर वृक्षारोपण,
प्राणों की प्राणवायु मिलेगी तुझकों,
वातावरण के सभी जीव,जल,थल,वायु,
धरती माँ के ,आश्रय में रहतें,
बेटा मै तुम सभी जीव,जन्तु की प्रकृति माँ हूंँ,
जल जीवन है, न करो बर्बाद,
ग्लोबिग वार्मिंग से जो धरती जलती,
उष्णता की ज्वाला, से पिगलते ग्लेशियर,
संरक्षण करो प्रकृति ,का नही तो होगा महाविनाश,
मै प्रकृति प्राण त्याग दूगीं, ना धरती बचेगी ना जीव,
आधुनिकता के चश्मे पहनो कम, बेटा,न कर दोहन मेरा,
कलकारखानों के जहरीले धुएँ से घुटना दम मेरा,
मै प्रकृति माता हूंँ, संरक्षण करो मेरा,
पर्वतराज रक्षक भारत का संवार दो, हरियाली से,
औषधियों की बहारहोगी , पाओगे निरोगी काया तुम,
फूलों की घाटी वैभव है,हमारे भारत का,
ये महक बनाये रखना रे ! उत्तराखण्डी,
सुन्दर सुन्दर बुग्याल, नदी,घाटी,झरने,
नैनी झील,पर्वत पठार,उद्यान जीव विहार है,सुन्दर गहने,
मै प्रकृति माता हूंँ, तुम करो बेटा मेरा संरक्षण,
स्वरचित :-
'सुनीता पँवार' 'देवभूमि उत्तराखण्ड', (१९.९.२०१८)
नदियों की दुर्दशा के बारे मे पढ़ रही थी । बहुत दुःख होता है ।
मेरे अन्दर भी है, बहती सी एक नदी कोई.......
पानी मुझे अपनी तरफ़ खींचता है हमेशा से, बेपनाह.....
पोखर, झील, नदी सब मेरे बचपन के मीत....
पागल हीं हो जाती हूँ पानी को देख कर । उससे खेलने और पाँव डुबाकर खड़े होने के लिए, कभी किनारे पर बैठकर बतियाने के लिए,
जहाँ मेरा बचपन बीता वहाँ भी एक नदी थी, बूढ़ी गंडक ।
बचपन में मेरे भाई-बहन और कुछ दोस्त, हफ़्ते में एक बार तो नदी हो हीं आते । इस पार से उस पार गाँव आने जाने के लिए नावें थीं । हम नाव में बैठते और बैठे हीं रहते । लोग चढ़ते उतरते । हमारी जगह 2-3 घन्टे के लिए फिक्स.....
नाविक माँ बाबूजी लोग को जानता था, मुस्कुराता.... कहता शिक़ायत करेंगे, पर कभी की नहीं...
छठ का इंतज़ार करते की बड़े वाले घाट पर जाने को मिलेगा । जहां उस पार के लोग भी छठ पर्व मनाते । दीप मालाएं और दिए की जगमग लिए दोनों घाट नदी से भी इन रंगों का साझा करते, सूरज की रश्मियाँ अपने आँचल में उतार, उनमें सितारे जड़, जब मेरी प्यारी नदी झिलमिलाती.... गुमान से मुस्कुराती... खूब इतराती बलखाती.... मैंने देखा है ।
हम बड़े होते रहे और वक़्त की रफ्तार ने हमारे कदमों की दिशा बदल दी । अब यह क्रम कम हो गया पर जब भी मौक़ा मिला नदी को यानी अपनी सबसे प्यारी सखि को अपना हाल बताने पहुंच हीं जाती हूँ ।
अभी कुछ साल हुए जब नदी तक जाना हुआ तो कुछ समझ में नहीं आया कि क्या कहूं ।
जहां नदी होती थी वहाँ रेत के मैदान थे । उन्हें तय करते हुए लगा कि नदी मुझसे रूठकर बहुत दूर चली गई है । मेरी नदी का हाल तो ख़ुद हीं बदहाल था, जैसे वो कोई नदी हीं न थी कभी... क्षीणकाय.....बूढ़ीगंडक जैसे सच में बुढ़ा गई हो ।
नहीं ये वो नदी न थी । वो नदी...जो हमको घंटो अपनी पीठ पे बिठाए घुमाती थी दुलराती थी । नदी को देखकर मन बहुत आहत हुआ ।
लौट आई जैसे मायके से बीमार माँ को छोड़कर आना पड़ा हो ।
सभ्यताओं को रचनेवाली हमारी जीवनदायनी नदियो का जीवन तो आज स्वयं हीं खतरे में है । शस्य श्यामला कहलाने वाले हिन्दुस्तान की धरती का स्वरूप क्या होगा, नदियों के बिना .....?
नदियां अपने हीं धार के बहाव से स्वच्छ होती हैं । पर आज हम इंसानों ने उसकी जलधार हीं बाधित कर दी है । यह कहाँ की सभ्यता हुई जो अमृत को विष बनाने पर तुली है ।
अपने और अपनी आने वाली पीढ़ियों के अस्तित्व को बचाये रखने कर लिए हमें प्रकृति की जरूरत है ।
प्रकृति से हम है..... हमसे प्रकृति नहीं.....।
अगर हम अब नहीं सम्भले तो सब समाप्त हो जानेवाला है....
बहुत उदास होती हूँ ।
मेरे सपनों में आती है एक सुंदर हहराती हुई नदी ... मुझे दुलराती हलराती है । मुस्कुराना सिखाती है मुझे । मैं उसके पानी को अंजुरी मे भरकर पूछती हूँ... तुम तो यहां नहीं थी, फिर कहाँ से आ गई ? वह कहती है... तुम्हारे लिए.... तुम्हारे लिए आ गई यहाँ.... तुम्हारे साथ होने के लिए । अब मुझे छोड़कर कहीं मत जाना ।
नींद टूट जाती है और मैं फिर से उदास हो जाती हूँ... यादों की नदी में बाढ़ आ जाती है । ऐसी नदियाँ कहाँ सूख पाती हैं । भीतर कहीँ अनवरत बहती रहती है । बस क्षण चुराकर किनारे ठहरने की देर होती है..... सपनों का टूटना मर्मान्तक होता है ना !
स्वरचित
मेरे अन्दर भी है, बहती सी एक नदी कोई.......
पानी मुझे अपनी तरफ़ खींचता है हमेशा से, बेपनाह.....
पोखर, झील, नदी सब मेरे बचपन के मीत....
पागल हीं हो जाती हूँ पानी को देख कर । उससे खेलने और पाँव डुबाकर खड़े होने के लिए, कभी किनारे पर बैठकर बतियाने के लिए,
जहाँ मेरा बचपन बीता वहाँ भी एक नदी थी, बूढ़ी गंडक ।
बचपन में मेरे भाई-बहन और कुछ दोस्त, हफ़्ते में एक बार तो नदी हो हीं आते । इस पार से उस पार गाँव आने जाने के लिए नावें थीं । हम नाव में बैठते और बैठे हीं रहते । लोग चढ़ते उतरते । हमारी जगह 2-3 घन्टे के लिए फिक्स.....
नाविक माँ बाबूजी लोग को जानता था, मुस्कुराता.... कहता शिक़ायत करेंगे, पर कभी की नहीं...
छठ का इंतज़ार करते की बड़े वाले घाट पर जाने को मिलेगा । जहां उस पार के लोग भी छठ पर्व मनाते । दीप मालाएं और दिए की जगमग लिए दोनों घाट नदी से भी इन रंगों का साझा करते, सूरज की रश्मियाँ अपने आँचल में उतार, उनमें सितारे जड़, जब मेरी प्यारी नदी झिलमिलाती.... गुमान से मुस्कुराती... खूब इतराती बलखाती.... मैंने देखा है ।
हम बड़े होते रहे और वक़्त की रफ्तार ने हमारे कदमों की दिशा बदल दी । अब यह क्रम कम हो गया पर जब भी मौक़ा मिला नदी को यानी अपनी सबसे प्यारी सखि को अपना हाल बताने पहुंच हीं जाती हूँ ।
अभी कुछ साल हुए जब नदी तक जाना हुआ तो कुछ समझ में नहीं आया कि क्या कहूं ।
जहां नदी होती थी वहाँ रेत के मैदान थे । उन्हें तय करते हुए लगा कि नदी मुझसे रूठकर बहुत दूर चली गई है । मेरी नदी का हाल तो ख़ुद हीं बदहाल था, जैसे वो कोई नदी हीं न थी कभी... क्षीणकाय.....बूढ़ीगंडक जैसे सच में बुढ़ा गई हो ।
नहीं ये वो नदी न थी । वो नदी...जो हमको घंटो अपनी पीठ पे बिठाए घुमाती थी दुलराती थी । नदी को देखकर मन बहुत आहत हुआ ।
लौट आई जैसे मायके से बीमार माँ को छोड़कर आना पड़ा हो ।
सभ्यताओं को रचनेवाली हमारी जीवनदायनी नदियो का जीवन तो आज स्वयं हीं खतरे में है । शस्य श्यामला कहलाने वाले हिन्दुस्तान की धरती का स्वरूप क्या होगा, नदियों के बिना .....?
नदियां अपने हीं धार के बहाव से स्वच्छ होती हैं । पर आज हम इंसानों ने उसकी जलधार हीं बाधित कर दी है । यह कहाँ की सभ्यता हुई जो अमृत को विष बनाने पर तुली है ।
अपने और अपनी आने वाली पीढ़ियों के अस्तित्व को बचाये रखने कर लिए हमें प्रकृति की जरूरत है ।
प्रकृति से हम है..... हमसे प्रकृति नहीं.....।
अगर हम अब नहीं सम्भले तो सब समाप्त हो जानेवाला है....
बहुत उदास होती हूँ ।
मेरे सपनों में आती है एक सुंदर हहराती हुई नदी ... मुझे दुलराती हलराती है । मुस्कुराना सिखाती है मुझे । मैं उसके पानी को अंजुरी मे भरकर पूछती हूँ... तुम तो यहां नहीं थी, फिर कहाँ से आ गई ? वह कहती है... तुम्हारे लिए.... तुम्हारे लिए आ गई यहाँ.... तुम्हारे साथ होने के लिए । अब मुझे छोड़कर कहीं मत जाना ।
नींद टूट जाती है और मैं फिर से उदास हो जाती हूँ... यादों की नदी में बाढ़ आ जाती है । ऐसी नदियाँ कहाँ सूख पाती हैं । भीतर कहीँ अनवरत बहती रहती है । बस क्षण चुराकर किनारे ठहरने की देर होती है..... सपनों का टूटना मर्मान्तक होता है ना !
स्वरचित
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