हर कदम पर हैं समस्या से दंगल
आज मुझको काटा जा रहा है
कॉलोनियों में बांटा जा रहा है
आज वहीं इंसान जाकर जंगल मे रहते है
जो जंगल को जानवरों का घर कहते है
बेजुबान जानवरो का घर इंसान उजाड़ रहे है
तुम्हारी वजह से ही शहरोँ में शेर दहाड़ रहे है
जंगल मे भी तुम कब्जा कर रहे हो
गंगा में भी गंदगी भर रहे हो
देश को लूटने में पीछे कहा रहते हो
खुद लूट कर लुटेरा नेताओ को कहते हो
शहरो को लूट अब जंगलों को भी नही बख्शा
हमको भी बताओ कहा चलती है ये लूट की कक्षा
आज उन जानवरो के लिए हम चीखना चाहते है
हम भी लूटने की कला सीखना चाहते है
जिस दिन विपिन ये लूट का हुनर सीख जायेगा
उसदिन हे इंसान हर तरफ जंगल ही पायेगा
मैं विपिन हर दिल पर विजय करना चाहता हूँ
इस भारतवर्ष के लिए मरना चाहता हूँ।।।।
उस दिन सारी कायनात पर छाऊंगा
जिसदिन तिरंगे में लिपटकर आऊंगा
स्वरचित--विपिन प्रधान
विजय हमें अब करना हैं।
भारत के गौरव में हमको,
मिलकर आगें बढना हैं ॥
🍁
कन्याओं का भाग्य बनाए,
पढा- लिखा समृद्ध बनाए।
हर बालक को स्वस्थ बनाए,
खेल-कूद में आगें लाए ।
🍁
मात-पिता का मान रखें हम,
हर दिल का सम्मान करें हम।
गौधन पशुधन बढे देश में,
कृषको का आभार करें हम॥
🍁
रहें सुरक्षित दशो दिशाएं,
भारत की सीमा सुदृढ़ हों।
विजय सदा कदमों को चूमे,
ऐसा मेरा देश सदा हों ॥
🍁
शेर कहें आओ मिल गाये,
भारत का आभार जताएं।
भावों के मोती को भर के,
विजयश्री पर आप लुटाए॥
🍁
स्वरचित.. Sher Singh Sarraf
विजय पताका वो फहराये
जिनको खुद पर विश्वास है
दृढ़ इच्छा शक्ति भी जिनकी
आम नही खास है.........
सतत इरादों पर चलना
विपरीत परिस्थति में ढलना
भूल कर भी न भूलना
जो मन का उजास है.........
अपनी प्रतिभा को पहचाने
संघर्षों में रहे सीना ताने
भूले न जो मन में ठाने
किये मंजिल का प्रयास है......
असफलतायें आयीं हजार
किये उन्हे सहर्ष स्वीकार
करते रहे आत्म सुधार
हुआ मंजिल का आभास है......
दूर दृष्टि रखी सदा
मंजिल पर रहे फिदा
हँसे भले रहे गमजदा
मन परिस्थति का न दास है...
शक्ति को वो स्वयं जगाये
अँधेरों को दूर भगाये
अर्जुन जैसे वाण वो पाये
मन का बड़ा उल्लास है.....
मंजिल या तो स्वयं ही आयी
या किसी से खबर भिजवायी
तिलक की है तैयारी भाई
गम हुये ''शिवम" खल्लास है......
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 27/09/2018
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टूटने लगी थी मैं, बिखरने लगी थी,
फिर से आकर वह मुझे जोड़ गया,
सपने टूट गए थे, फिर से दिखा गया,
मन में मेरे नया एहसास वह जगा गया।
खिलने लगी हूं मैं, महकने लगी हूं,
फिर से आकर वह मुझे सौरभ दे गया,
जीवन में बहारों का गुलशन खिला गया,
नव उमंग से तन-मन मेरा फिर भर गया।
हमारा खुबसूरत पल यादों में कैद था,
वह फिर उस पल को आजाद करा गया,
जीवन में मेरे आनंद भरा क्षण दे गया,
भूलायी नहीं, वह मेरे रूह में ही बसा रहा।
जब-जब जीवन धारा क्षीण होती थी,
आकर धारा को प्रवाहमान करता रहा,
मेरी खुशियों खातिर तकलीफें सहता रहा
मुझे आग में तपा-तपा कुंदन बनाता रहा।
जब जब जीवन हारने लगती थी,
वह मुझे फिर से विजय-श्री दिलाता रहा,
साहस बनकर मेरा हर दुख हरता रहा,
जीवन को मेरे ऊंचाईयों तक पहुँचाता रहा।
--रेणु रंजन
( स्वरचित )
संघर्ष से न मैं घबराऊँगा,
दुश्मन को वहीं ढेर करूंगा,
ध्वज विजय का फहराऊँगा|
याद हमेशा मैं रखूँगा उन,
वीरों की कुर्बानी को,
संघर्ष के उस पथ पर चल,
मैं गीत विजय के गाऊँगा |
नहीं चाहिए वो सुन्दर खिलौना,
नहीं चाहिए वो मखमली बिछौना,
पहरा कड़क मैं दूँगा सीमा पर ,
घुसने नहीं दूँगा दुश्मन की सेना |
सेना का सिपाही बनूगाँ,
बन्दूक हाथ में थामूगाँ,
इरादे दुश्मन के ध्वस्त करूंगा,
मैं विजय तिरंगा लहराऊँगा |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
सर्वोत्कृष्ट कृति मानव सृष्टा की,
चर- अचर जीव के मध्य सृष्टि मे,
एकमात्र बसुधा -तल पर वह,
मेधा विवेक वैभव सम्पन्न।
भूमण्डल में चेतन जीवों का,
संघर्षशील जीवन अतिशय,
भौतिक लाभ प्राप्ति के हित में,
मिले पराजय कभी विजय।
मानव स्वहित चिन्तन उपरान्त,
औचित्यपूर्ण निर्णय को सक्षम,
मनोविकार पर तनिक नियन्त्रण,
सदा सुनिश्चित विजय प्रदायक।
संकल्पशक्ति की प्रकृति,दिशा,
मानवीय निर्णय निर्धारक,
संकल्पशक्ति अनुरूप कर्म भी,
भाग्यविजेता उत्तम शुचि कर्म।
आवेगों के घातक प्रभाव में,
बाह्य -आंतरिक दशा संतुलन,
निर्णय उचित मात्र मानव का,
करे सुनिश्चित विजय श्री।
सांसारिक मानव जीवन की,
अंन्तिम विजय मोक्ष एकमात्र,
इन्द्रिय विजय मोक्ष का सत्पथ,
मानवाधीन जीवन का रथ।
--स्वरचित--
(अरुण)
भारत मां की बेटी हूं मैं
विजय के गीत सुनाऊंगी
कलम को हाथ में लेकर
मैं इक पहचान बनाऊंगी
घर में सबकी आशा बनकर
दीप नया मैं जलाती हूं
अटकी बीच में नैया को
हुनर से आगे चलाती हूं
हुनर के जोश से अपने
मैं सबका मान बढ़ाऊंगी
भारत मां की बेटी हूं मैं
विजय के गीत सुनाऊंगी
कलम को हाथ में लेकर
मैं इक पहचान बनाऊंगी
मालुम है हम सबको ये
नदियों को प्यास सताती है
सदमार्ग में चलने में हरदम
बाधाएं बहुत ही आती है
बाधाओं से डटकर के
नया इतिहास बनाऊंगी
भारत मां की बेटी हूं मैं
विजय के गीत सुनाऊंगी
कलम को हाथ में लेकर
मैं इक पहचान बनाऊंगी।
इति शिवहरे
स्वरचित
विजय वही मानूँ मै भगवन,
हृदय अगर आमजन जीत सकूँ।
जय पराजय सब ईश हाथों में,
प्रभु मै जीत हिया मनमीत सकूँ।
नहीं विजय दिल दुखाऐ मिलती।
कर्म करें हम शुभ दुआऐं मिलती।
हार जीत होती रहती है जीवन मे ,
नहीं कभी विजय बुलाऐ मिलती।
दुश्मन का भी दिल जीत सकूँ गर
सत्य विजय इसे बतला पाऊँगा।
बंन्दूकों के बल जीत सकूँ कुछ ,
ना कभी उपलब्धि बतला पाऊँगा।
प्रेम प्यार से मै कुछ कर पाऊँ।
निश्चित विजय वरण कर लाऊँ।
यदि सौहार्द परस्पर बडे हमारा,
जब जिसे चाहूँ हरण कर लाऊँ।
जीत अगर मुझे कहीं मिल जाऐ,
प्रभु गरिमा विजय की रख पाऊँ।
नहीं प्रशंसाओं में खो जाऊँ मै,
ना कभी दंम्भ विजय कर पाउँ।
स्वरचित ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
अपने कर्म पथ पर चलते रहना
ये वक्त की पुकार हैं
तुम्हें विजय पथ पर चलना हैं .
आयेंगे राह में पर्वत पहाड़
नहीं रोकना अपने जीतने जाने की सिंह की दहाड़
ह्रदय में विजय की ज्योति को बुझने ना दो
जीतने की ज्वाला से एक नया इतिहास लिख दो .
मन में विजय गीत गाता जा
मन में जीत का जज्बा लहराता जा
गगन में एक दिन तुम्हारी विजय पताका लहरायेगी
अथक प्रयास से मंजिल भी मिल जायेगी.
गिरकर ही उठना और संभलना जिंदगी हैं
हौसला और हिम्मत कर आगे बढ़ना ही जिंदगी हैं
उलझनों को सुलझाना ही जिंदगी हैं
निडर होकर हालात से लड़कर आगे बढ़ना ही जिंदगी में विजय के एक नई कहानी हैं .
स्वरचित :- रीता बिष्ट
अर्थव्यवस्था मे सुधार आ रहा,
पर मन व्यवस्था का क्या होगा,
जो ये अत्याचार हो रहा l
बहन बेटी की इज्जत उतार,
कर रहे है समाज सुधार,
बालिका गृह बनाकर उसमे,
खुद ही कर रहे बलात्कार l
कैसा मेरा देश बन गया,
अपना घर विदेश बन गया,
तिरंगा रोये अपने बेटो पर,
जो माँ बहन का शिकार कर गया l
व्यथित हो रहा है 'उत्साही 'ह्रदय,
है ये कैसी भारत की विजय,
जब अपने ही खंजर भोंक रहे
तो क्यूँ नहीं आएगी प्रलय l
कुसुम पंत 'उत्साही '
स्वरचित
देहरादून उत्तराखण्ड
अनगिनत लकीरें
लकीरों में भी लकीरें
चाहे धरती पर हो
या हाथ में
लकीरों का जाल हैं
कोई नहीं जीत पाया
सर टकरा कर लौट आया
चाहे नेपोलियन हो
या हो सिकन्दर
उनका दुनिया को जीतना
भी काम ना आया
किसी के हक को छीनना
किसी निर्दोष को मारना
कहाँ की विजय
सच्ची विजय तो है
स्वयं को जीतना
दिलों को जीतना
अपने हक के लिए
अपनों की रक्षा के लिए
लड़ना या मर मिटना
मंगल पांडे से लेकर
शहीद भगत सिंह तक
अनगिनत वीरों ने
सिखाया है हमें
हार कर भी जीतना
स्वरचित
मनोज नन्दवाना
न डरना न रूकना न हारना
कभी
रहता सदा सुरक्षित मेरा देश है तभी
सीमा पर चलती गोली
शत्रु की हो बंद बोली
खेलें वे खून की होली
सीने पर खाते गोली
विजय श्री मिलती है देश को तभी
न रूकना न थमना न हारना कभी
शत्रु के छुड़ाए छक्के
हैं इरादों के वे पक्के
दुश्मन के घर में घुसके
होश उड़ाए जो उसके
पाई थी विजय उन्होंने लक्ष्य पर तभी
लहराता है तिरंगा बड़े शान से तभी
मेरे देश की है सेना
उसका क्या कहना
झुकने कभी न देती
मातृभूमि का शीश है ना
बन राह का रोड़ा शत्रु की राह में खड़ी
देख उसका हौंसला शत्रु की नींद है उडी
अभिलाषा चौहान (स्वरचित)
जा पहुंचे हैं आज चाँद तक
अब मंगल की तैयारी है
धरा पे हारे मानवता
विजय अभी बाकी है ..
देश की खायें परदेस की गाएं
जयचंद से भीतरघाती है
आज़ादी अधूरी है अभी
शहीदों का कर्ज़ चुकाना बाकी है
विजय अभी बाकी है....
जहाँ पशुओं की भी होती पूजा
जीवन दर्शन राम और सीता
भूले संस्कृति और गौरव
एकता मंत्र अधूरा बाकी है
विजय अभी बाकी है....
एकजुट हो इनके विरूद्ध
कुरीति हो या भ्रष्टाचार
उत्पीड़न या व्यभिचार
जंग जीतना बाकी है
विजय अभी बाकी है...
सद्भाव की ज्योत जलाकर
अगड़ा-पिछड़ा भेद बुझाकर
देशभक्ति कहलाये धर्म
राष्ट्र को देव बनाना बाकी है
विजय अभी बाकी है...
स्वरचित
ऋतुराज दवे
हम जैसे ही थोड़ा बड़े होते हैं हमारे लिए हमारी हर क्रिया खेल ही होती है और हर क्षेत्र खेल का मैदान होता है। चाहे फिर वो मौज मस्ती हो, पढ़ाई का विषय हो, बरसात में कागज की नाव या फिर गीली मिट्टी में खिला ठोकना,सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लेना, रस्सी कूदना,दौड़ लगाना, लिंबू चम्मच, कब्बडी वगैरे। हर खेल में हम सबसे आगे निकलना चाहते हैं। मेरा भी यही हाल था में हर खेल में भाग लेती पर शरीर के भारी होने की वजह से हर बार मैदान में हार जाती। तब साथ वाले बच्चे छूपकर हँसते। मुझे अपने आप पर बहुत गुस्सा आता। पर मेने प्रतियोगिता में भाग लेना कभी बंद नहीं किया। जब मैं दसवीं कक्षा में थी घर से सभी ने मना किया कि इस बार तुम किसी भी खेल में भाग मत लेना। पर मैं तो पराजय को भी विजय ही समझती थी इसलिए मेने दौड़, लंबी कूद व भाला फेक में नाम लिखवा दिया। उस वक्त मैं गरोठ हायरसेकन्ड्री स्कूल में पढ़ती थी और तब वहां आसपास के गांवों से भी लड़कियाँ खेलने आती थी।
पास के ही गांव शामगढ से भी लड़कियाँ आई थी। वहाँ की विशेषता ये थी कि वहां का पानी बहुत खारा था और ज्यादातर लोग काले ही होते थे। जो लड़कियां आई थी वो भी सब काली ही थी। तो हमारे साथ वाली सभी लड़कियां उन्हें परेशान करने के लिए बोल रही थी शामगढ का काला पानी, समझे खुद को महारानी। झगड़े की शुरुआत हो गई। पर उनके साथ आई एक लड़की सबको चूप करवाते हुए बोली, हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं।
मैं तो ये सिर्फ देख सुन रही थी और मुझे उस लड़की की बात बहुत अच्छी लगी। कितनी सहजता से उसने सबको चूप करवा दिया। कितनी समझदार व हिम्मत वाली है। उसकी बात में दम था उसने ये भी कहा कि लड़ाई ही करनी हो तो मैदान में करो और जीत के दिखाओ। बस मेने भी ठान ली की जीतना तो है।
पहले दौड़ में मैं हार गई पर हिम्मत नहीं हारी और फिर दुगनी ताकत के साथ भाला फेंक व लंबी कूद में हिस्सा लिया। सोचा भी नहीं था के मेरा नंबर आएगा। पर जैसे ही फस्ट,सेकंड,थर्ड की घोषणा हुई मेरा नाम भी बोला गया। जो मुझे मेरी सहेली ने हिला-हिला कर बताया। क्योंकी में तो विश्वास ही नहीं कर पा रही थी की मेरा नंबर भी आ सकता है और वो प्रथम।
लंबी कूद व भाला फेंक में
स्वरचित कुसुम त्रिवेदी
कारगिल पर तूने विजय दिलाया
विजय पताका फहरा कर
द्रास, बटालिक को तुमने
दुश्मनों से मुक्त कराया
पाक के नापाक इरादों को
तूने खूब धूल चटाया
परातंत्र की पीड़ा से तूने
मुझे खूब बचाया
अपने प्राणों की आहुति देकर
जिन वीरों ने किया देश को आजाद
उन वीरों के शीश तुमनें
झुकने से बचा लिया
भारत माँ की जय घोष से
तुमनें मेरा मान बढा़या
अत्याचार न करो किसी पर
नही किसी का सहो अत्याचार
पाक तो दुश्मन है हमारा
गर अपना भी स्वधर्म भूल जायें
याद करो उस प्रार्थ को
जिसनें परिजन पर गाडिंव उठाया
गीता का मर्म यही है
अपनो के भेष मे है गर दुश्मन
तो देश हित मे फैसला हो
कदम दर कदम चल कर
तुम पहुँच जाओगे विजय द्वार
विजय पताका फहरता रहेगा
मस्तक ऊँचा रहेगा हमारा।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
"विजय "
हाइकु
1
शक्ति स्वरूपा
विजय दशहरा
असुर हारा
2
महा सम्राट
'कलिंग " की विजय
धर्मं शरणं
3
विश्व विजय
लहराता पताका
शान्ति के दूत
4
"बुद्ध " विजय
देते प्रेम संदेश
"अंगुलीमाल"
5
हिन्द तिरंगा
"एवरेस्ट "विजय
हिम श्रृंखला
6
हिन्द की सेना
"कारगिल "विजय
वीर नमन
7
विजयी सेना
"सर्जिकल स्ट्राइक "
आतंकी हारा
स्वरचित पूर्णिमा साह बांग्ला
बहुत युद्ध जीते हैं भारत के वीरों ने।
मानें बहुत खून पिया इनकी शमशीरों ने।
युद्धवीर भले बने हम मन मानस में,
सोचें क्याकुछ पाया अपने बलवीरों ने।
खूनखराबे बहुत हुऐ इतिहास बताता।
कुछ नहीं मिलता हमें सब समझाता।
सम्राट अशोक का हृदय परवर्तन देखें,
शांतिदूत बनें वही महावीर कहलाता।
बुद्ध भगवान बने इंन्द्रियां विजय कर।
महावीर महान हैं इंन्द्रियां विजय कर।
तृष्णाओं से जब विचलित हुई विभूतियां,
कैसी छोडी छाप मनहृदय विजय कर।
हृदय सभी के झगडों से आहत होते।
अरमान यहां एकदूजे के आहत होते।
जीतहार किसी कोभी मिल जाऐ भैया,
विजय पाऐं मगर नहीं हम चाहत होते।
स्वरचित ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
मै बाजार को जाऊंगी,
थोड़ा शॉपिंग कर आऊंगी,
बहुत दिन हुए गयी नहीं बाजार,
बस थोड़ा मन बहला लुँगी l
तेरा तो दिमाग़ ख़राब हुवा है,
हर वख्त भूत सवार हुवा है,
कभी सिनेमा कभी बाजार,
जीना दुश्वार किया है l
इसी बात पर हुई लड़ाई,
थोड़ी सी खटपट हो गयी,
कौन अब है विजय पाता,
दोनों के समझ ना आयी l
बोलो तुम क्या करती हो,
सारा दिन गप शप करती हो,
मै कोल्हू का बैल सा,
छुट्टी मे भी बिलकती हो l
मै बोली आज हड़ताल करूंगी,
किसी काम को हाथ ना दूंगी,
करो घर का सारा काम,
मै तो बस आराम करूंगी l
सोच मे पड़ गये पति बेचारे,
जीत करके भी वो हारे,
बोले तू मेरी विजयी अर्धांग्नी,
चूहे कूद रहे है मेरे भीतर,
अपने हाथो से खाना खिला प्यारी l
कुसुम पंत 'उत्साही '
देहरादून
उत्तराखंड
गर्व है मुझे उन वीरो पर
जो मान बड़ा कर आये हैं
दुश्मन की टोली में घुसकर
उनको मार भगाये है
वो तो अपने देश की
शान बड़ा कर आये है
ऐसी माँ के सपूत हैं हम
छप्पन इंची सीना है
कुचल कुचल कर मारा उनको
जिन्होंने मेरे देश का सुख चैन छीना है
रीत है हमने ये अपनायी एक मरा तो सौ मारेंगे
रक्त का बदला सिर्फ़ रक्त हैं बस यही गीत गुनगुनायेगे
सीमा पर हम डटे रहेंगे हम कभी नहीं घबरा आयेगे
अब बारी है उन गद्दारों की जो हमारे ही घर में रहकर सर्पों की तरह ड़सते हैं
हमारे देश का खा कर उसी पर हसँते हैं
उनको भी हम मारेंगे यही ऐलान अब कर आये हैं
विजय हमेशा से थे हम विजेता ही कहलायेगे
ना झुका है ना झुकेगा तिरंगा हम यूं लहरायेगे
वीर जवानों को शत शत नमन
जय हिंद जय भारत
स्वरचित हेमा जोशीली
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