Sunday, September 23

"भावना "22सितम्बर2018





अहंकार का भाव ना रखूँ,
नही किसी पर खेद करूँ,

देख दूसरों की प्रगति को,
कभी न ईर्ष्या भाव धरूँ,

रहे भावना ऐसी मेरी ,
सरल सत्य व्यवहार करूँ,

बने जहाँ तक इस जीवन में,
औरों का उपकार करूँ,

ऐसी भावना रहे मन में
हीन भाव कबहुं ना धरूँ,

लेकर ध्येय जनहित का,
सुमार्ग पर रमता फिरूँ,

स्वरचित:-मुकेश राठौड़



दिल में बहुत भावनायें होती हैं, 
कुछ अच्छी व बुरी भी होती हैं, 
सभी के लिए अच्छी भावना हो, 
हमेशा प्रयास मेरा ये रहता है |

अपनी तो ये लेखनी साथी है, 
मैं हूँ दिया तो ये बाती है ,
मन के भावों को बखूबी, 
लिखना ये जानती है |

लेखनी जब उत्साहित होती है, 
तो जग में क्रान्ति भी ले आती है ,
कुछ भावनाएँ है मेरी दिल से, 
कह रही हूँ आज आप सभी से |

*भावों के मोती* मंच ,
ऊँचाई के शिखर को छुये,
स्वच्छ भारत अभियान का, 
सुन्दर स्वप्न सच हो जाये |

पावनी गंगा मैया का जल, 
कभी मैला न हो पाये, 
बेटियाँ खूब पढे-लिखे, 
साथ ही सुरक्षित भी हो जायें |

देश में भाईचारा खूब फैले,
भ्रष्टाचार दूर हो जाये, 
धर्मों का सम्मान होवे, 
शान्ति देश में बन जाये |

भावनायें साकार हों प्रभु, 
तार भावना के तुमसे जुड जायें, 
काँटो भरे उन पथों पर,
फूल सुन्दर से खिल जायें |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*



Sher Singh Sarraf 
आओ दोनो साथ मिलके, मुस्काया जाए।
बिन माचिस के कुछ को, जलाया जाए॥
🍁
आग नही ये चाहत होगी,
औरो मे सुलगेगी ।
जाने कितने सुप्त हृदय मे,
प्रीत के दीप जलेगी ॥
🍁
आओ दीपो को जलाया जाए।
मन के अंधियारो को ,मिल मिटाया जाए।
🍁
आँखो मे मादकता झलके,
अधरो से झलकाये ।
कोई कुछ भी कह ना पाये,
ऐसी बात बनाये॥
🍁
आओ थोडा प्यार जताया जाए।
बिन बातों के बात बढाया जाए॥
🍁
शायद कुछ टूटे से दिल मे,
चाहत भर दे हम दोनो।
शर्म के तटबंधो को तोड के,
कुछ दिल जोडे हम दोनो॥
🍁
आओ भावों को भडकाया जाए।
पढने वालो मे भावना जगाया जाए॥
🍁
बिन बातो के मुस्काने से,
जीवन मे गति मिलती है।
शूल भरे से इस जीवन मे,
पुष्प अनेको खिलते है॥
🍁
आओ थोडा खिलखिलाया जाए।
इस प्रेम गली को मिल महकाया जाए॥
🍁
स्वरचित .. Sher Singh Sarraf




 कुचल कर मेरे भावनावोंको,
जीवित रखा है तुमने,,,
अपने अभिमान ,को स्वाभिमान को,

सम्मान को।
कई बार,,,, कई बार
कई बार भाग्य की काली स्याह रातों में,
तुमने कुचला था,
मेरे गजरे के फूलों को,
रौंदा था हथेली की मेहंदी को।।

मैंने सही थी समस्त पीड़ा,
जो दुस्सह थी।
मेरी बेड़ी थीं वह ,
जो तुमने मेरे माँग मे,
आलेख भर रखी थी,,,
मेरी बेड़ी थी,,,,,
धागे में पिरोई,
मंगलसूत्र की वो लड़ियाँ,,,

आखिर कब तक ???
सहती मैं आघात,
निर्जीव सी,,
आखिर कब तक?
प्रतिकार न करती।
आखिर कब तक?
तुम्हारे अहम को सींचती।
मेरा भी तो हृदय है,
जो मुझसे प्रतिकार करता है।
की जो दैत्य है,
ओ स्वामी कैसा,,,,,,
जो दैत्य है ओ स्वामी कैसा,,,,,,,,,,

(राकेश पांडेय)....स्वरचित



भाव से भगवान है भावना का मोल है

भावनायें सजाइये जीवन अनमोल है ।।

सबरी के झूठे बेर राम खाये चाव से 
सँवारिये परिवेश को निर्मल स्वभाव से।।

एकलव्य की गुरूभक्ति आज भी अमर है
पाषाण मूरत में साक्षात गुरू का असर है ।।

भावनायें छुपती नही कभी भी छुपाये
फरेबी रूप को हम फिजूल हैं बनाये ।।

प्रेम की भावनायें प्रेम को ही सरसाये 
नफरत की भावनायें आग ही लगाये ।।

अहम की भावना लंका को जलवाये 
द्रोपदी की कुटिलता महाभारत कराये ।।

भावनायें मचलती हैं भावनायें सम्हालिये
सूझबूझ का ''शिवम" इन्हे जामा पहनाइये ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 22/09/2018
*************
(मनुष्य से अर्ज)

दुर्भावना के आगे आज
सद्भावना नतमस्तक है।
हां मनुष्य तेरे कारण आज
ऐबी भावना की दस्तक है।।

भावना तेरी कदर नही है
बुद्धिजीवियों के जग में।
हां, आहत होती भावनाएं
हर मनुष्य की रग रग में।।

सद्भावना से चले जिंदगी.
भावना बदले की से रुके।
क्यूँ भावनाओं से तू खेले
जो तेरे आगे प्रेम से झुके।।

अपनों की भवनाओं की 
कदर कर, अब मान ले।
भावनाएं आहत होती है
होता है दुख, ये जान ले।।

-:-स्वरचित-:-
सुखचैन मेहरा

(1)
शक्ति के सम 
भावना का आवेग 
बहे नियम

(2)
 प्रेम कीमती 
हृदय के सागर 
भावना मोती

(3)
आस्था में प्राण 
शिला में भी भावना 
ईश्वर नाम

(4)
चढाये आंसू
गरीब ने लगाया 
भावना भोग

(5)
आस्था में प्राण 
शिला में भी भावना 
ईश्वर नाम
(6)
शबरी बेर
राम चखे भावों को 
सौगात प्रेम

स्वरचित
ऋतुराज दवे



*****************
बाह्य मनस से अभिप्रेरित,
किसी क्रिया का क्रियान्वयन,
नित्य कराता बसुधा तल पर,
वह मनोभाव एक भावना।

सुरम्य बसुन्धरा के तल पर,
मनोभाव संवेदन मानव के
बाह्य मनस संबंधित वृत्ति,
भौतिकता के प्रति प्रेरित।

मुखरित सदा भावना कोई,
दम्भ भाव से संबद्ध तनिक,
पंचेन्द्रिय से एकाकार कर,
भौतिक जग संलिप्त प्रखर।

राग-द्वेष, आसक्ति, स्वार्थमय,
मानव की प्रायः भावनाऐं,
नहीं कदापि धर्मानुरूप,
सदा ईश से करें विमुख।

सुख -दुख के चक्रानुक्रम की,
कारक सशक्त भी यही भावना,
आध्यात्मिक विकास के पथ पर,
भावनाऐं मात्र बाधाऐं।
--स्वरचित--
(अरुण)


घर का सारा काम निबटाकर चन्दा बाई जाने लगी ,तो सुधा ने आवाज लगाते हुए कहा,
चन्दा बाई आज सुप्रिया का जन्म दिन है ;शाम के समय तू अपने बच्चों को भी ले आना यही खाना खायेंगें ।
ठीक है मेम साब ,कहते हुए चन्दा चली गई ,वह मन ही मन बहुत खुश हो रही थी कि आज मेम साब ने मेरे बच्चों को भी बुलाया है।पर कुछ उपहार भी तो देना पड़ेगा बिटिया को।

शाम का समय हो चला था ,गुलाबी फ्रॉक में सुप्रिया बहुत सुंदर लग रही थी,उसके सभी दोस्त आ गए थे, मौज मस्ती शुरू हो गई ।सुप्रिया ने केक काटा मम्मी पापा और सभी दोस्तों को खिलाया, तभी चन्दा अपने बच्चों के साथ आ गई ।
सभी लोग सुप्रिया को गिफ्ट दे रहे थे, चन्दा भी अपने साथ लाये डिब्बे को खोलकर चम्मच से सुप्रिया को खीर खिलाने लगी तो सुधा एकदम से बोल पड़ी ।
अरे चन्दा ये सब रहने दो,
सुप्रिया अभी केक खा रही है न;
चन्दा सहम गई उसे लगा जैसे उससे भूल हो गई हो। वह तो मंहगे उपहार दे नहीं सकती थी इसलिए दूध वाली खीर बनाकर कर लाई थी ।

एक चम्मच खीर खा लेती 
बिटिया तो क्या हो जाता । 
ये अमीर आदमी ये भी नहीं समझते कि गरीब आदमी में भी भावनाएं होती है
चन्दा मन ही मन दुखी हो गई
उसकी" भावना "को चोट जो पहुंची थी।

रचनाकार
जयंती सिंह

"भावना"
उमर घुमर उठे भाव मन मे

भावना जगाये मन मे अनेक चाँदनी रात मे चाँद को देख
मंद मंद मुस्काये हम

समुँद्र की लहरें उफान जब मारे
मन मे आये भावना एक
जीवन मे भी तो सुख दुःख की
लहरें आये और जाये

खग कुल जब कूजन करे
पंक्षी के प्रति प्यार उमर आये 
रंग बिरंगी पुष्पो को देख
मन पुलकित हो जाये

कुछ फूल तोड़ अर्पित करें हम ईश को
भक्ति भाव मन मे जग जाये
पाश हरे प्रभु हमारे
रखे हाथ सर पर हमारे

करो प्रभु ऐसी कृपा
भावनांए शुद्ध रहे हमारे
नही करे हम बुराई किसी की
भाव जागे बस शुद्ध अंर्तमन मे
विचार सुन्दर तो आचरण हो सुन्दर
निर्मल सुन्दर इंसान बन जाये हम।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।


ना कूकती कोयल थी
और ना पीहू के गीत 
चहक उठी थी भावना मेरी
जीवन की बगिया में 

ना फूलों की खुशबू थी
और ना मतवाला भँवरा 
महक उठी थी भावना मेरी 
झूठी सतरंगी सपनों में 

ना सावन की घनघोर घटायें थी
और ना ही चमकी बिजुरिया 
टकराई थी भावना हमारी 
संग विश्वास से

ना थी मुस्कुराती रात चाँदनी 
और ना ही मनमोहक छटाएँ
उथल-पुथल मची भावनाओं की
हृदय पटल पर हमारे

ना था मौसम बहारों का
और ना ही चली पवन पुरवईया 
सनसनाहट थी भावनाओं का
दिल में हमारे 

स्वरचित पूर्णिमा साह बांग्ला



भावना अंतस में बहती एक बयार है 
जिसकी लहरों में गोता लगाता हर इंसान है 
प्रेम की भावना,रिश्तों को एक सूत्र में बांधती है 
वातसल्य की भावना,ममता का शृंगार करती है 
श्रद्धा की भावना, पाहन में परमेश्वर ढूंढ़ लेती है 
दया की भावना, दीनों की पीड़ा हर लेती है 
ज्ञान ज्योति की भावना, विकास का आधार बनती है 
मर्यादा की भावना, एक परिधि में बाँध कर रखती है 
श्रम की भावना, शुभ परिणामों का आगास करती है 
देश भक्ति की भावना, शहादत का वंदन करती है 
दान की भावना, महानता का वरण करती है 
आत्म सम्मान की भावना, निज मूल्यों का संधान करती है 
कवि की भावना, कलम से अलख जगाती है 
भावनाओं के वेग को बाँध कर सब रखो 
ज्यादा बहना भी, परेशानी का सबब है 
निर्मोही होना भी, कठोरता का वरण है 
तो........ 
श्रेष्ठ भावनाएं ही..... 
जीवन के साथ भी 
जीवन के बाद भी 
आपको शाश्वत रखती है 
स्वरचित सीमा गुप्ता 
अजमेर 

भावों के मोती से शब्दाकुंर खिलें,
मन में सद्भावना हो, जग में हो शान्ति,
कलम के सहारे ,का़गज में दिल केभाव,
मै राह चलते बेसहारे को सहारा दे,सकूँ,
मनस पटल में भावों का चलता खेल,
सहानुभूति के बहते सागर मे फिसलें,
दुखद क्षणों में भावों की बहते बूदें,
भीगे आँचल उर में धैर्य गीत गायें,
अन्तर्मन से बहती समीर सी बयार,
कोयल का मनहरण मधुर संगीत,
भावों के महासागर में डोलता प्राणी,
हिंसा,राग,द्वेष मिटाकर प्रेम बढायें,
माँ की ममता के भावों से लोरी सुनायें,
दानवीर कर्ण की दया बनकर मान बढायें
शिष्य के श्रद्धा भाव से गुरु सम्मान,
दया प्रेम भाव से ईश्वर हर ले मनु पीड़ा,
ज्ञान ,प्रकाश किरणों से मिटें, हियशूल,
नित-नित परिश्रम करता प्राणी छूयें गगन,
देश प्रेम भक्ति से वीरोचित शहादत पातें,
भावना कोमलता का अगर ओढे आवरण,
मानव बन जायें ,सृष्टि में व्यवहार कुशल,
भावनाओं के तीव्र वेग में हो ,नियंत्रण,
हमारे व्यवहार में हो, सदा सम सन्तुलन,
नित -नित समाज में हो, सकारात्मक परिवर्तन,

***** ***** ***** ***** ******

स्वरचित :- सुनीता पँवार ,उत्तराखण्ड

भावनाऐं मानस की अभिव्यक्ति।
ये है अपने मानव मन की प्रकृति।

भावनाऐं विभिन्न प्रकार की होती,
उभरे हृदयपटल पर इनकी आकृति।

जाग्रत होती निष्ठा श्रद्धा हृदय में।
दयाभावना होती प्रगट आलय में।
कुछ कलुषित भावनाऐं होती हैं तो,
हमें साफ दिख जाती प्रेमालय में।

पाषाण भावनाओं से पूजे जाते हैं।
आदर्शों से श्री रामजी पूजे जाते हैं।
हमने सहिष्णुता सद्भाव दिखाऐ,
भारत में तो पत्थर भी पूजे जाते हैं।

हेभगवन सुखद सद्भावनाऐं हों सबकी,
परस्पर एक दूजे से मिलकर चल पाऐं।
प्रेमपूर्ण प्रस्फुटित हों अंन्तर्मन में भाव,
प्रेमानुरागी हों हम प्रेमालय में पल पाऐं।

स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.


 

विषय- भावना
1

द्वेष भावना
विचलित हृदय
बुरे विचार
2
माँ का हृदय
भावना भरपूर
संतान प्राण
3
भक्ति भावना
निश्छल है संसार
मोह से दूर
4
दया भावना
ना कोई निराहार
मिले आशीष
5
कुंठित मन
भावनाएँ दमन
बैरी संसार
स्वरचित-रेखा रविदत्त

मेरी चिठ्ठी, लेटर बॉक्स के नाम..

बहुत दिनों बाद दिखे तुम....
एक खुले फटे लिफ़ाफ़े की तरह लगे मुझे...
जिसपर लिखा पता भी तुम्हारा हीं था
पर ऐसे पते का क्या...?
जहां आज कोई पहुंचना हीं नहीं चाहता...

सबकी भावनाओं का कतरा-कतरा जमा कर 
तुम एक दरिया की तरह बहते रहे...
और सबकी प्यास तक पहुंचते रहे...
एक छोटी सी खिड़की हमेशा खुली रखी तुमने,
जहां से तुमने सब कुछ किया स्वीकार...
आशा-निराशा, सुख-अवसाद, घृणा या प्यार
मान-तिरस्कार, अभिलाषा, मनुहार
इंतज़ार हो या आभार...

सबका स्वागत करने वाले 
तुम्हारे विशाल हृदय का स्पंदन
आज थम गया है,
हम बुद्धिजीवियों को अब
दूसरा आयाम रम गया है।

अब कोई तुम्हारा सजदा नहीं करता,
नहीं बढ़ते अब हाथ
तुम्हारी खिड़कियों की ओर,
अब कोई तुम्हारी ओर नहीं झांकता।
समय की बांसुरी के पास
अब तुम्हारे लिए कोई राग नहीं बचा..

आज निश्चित हीं मेरा पत्र पाकर
तुम बहुत खुश होगे,
जैसे मैं हुआ करती थी पहले...

एक कबूतर को बुलाया है..
तुम तक चिठ्ठी जो पहुंचानी है ...

आशा करती हूं ,
यह पत्र एक सिलसिला बन जाए
और सबको तुम्हारे पते का पता चल जाए
फिर से तुम्हारी उदास अंधेरी खिड़की 
रोशनी से जगमगाए...
और मेरा ये कबूतर
तुम्हारे लिए गज़ल गुनगुनाए....

स्वरचित 
,पथिक रचना'


संसार माया 
जीता जागता इंसां
भावना छाया

अक्षत दाना 
भावना रंग चढी
कृष्ण सुदामा

प्रेम भावना
अंतरंग मित्रता
भावों के मोती

स्वरचित- आशा पलीवाल पुरोहित राजसमंद

भावनाओ में बहा श्रृंगार पर लिखता रहा।
कल्पनाओं में बसें संसार पर लिखता रहा।
चुप रहा ना मैं कभी भी जुल्म होतें देखकर,
मैं सियासत के सभी किरदार पर लिखता रहा।
तू अकेला छोड़ भी मुझको गया तो क्या हुआ,
आज तक मैं यार तेरे प्यार पर लिखता रहा।
लुट रही थी द्रोपदी पूरी सभा जब मौन थी,
चक्रधारी कृष्ण के प्रतिकार पर लिखता रहा।
लग रही नीलामियां है बिक रहा है रोज तन,
नारियों पर ज़ुल्म के बाजार पर लिखता रहा।
चाहिये सत्ता सभी को देश की चिन्ता किसे,
डूबती नैया रही मझधार पर लिखता रहा।
रो रही इंसानियत भी कलयुगी इंसान पर,
साँप फन फैला रहे फुंकार पर लिखता रहा।
न्याय को बरसो लगे इंसाफ अब मिलता नही,
झूठ की होती विजय मैं हार पर लिखता रहा।
आत्महत्या रोज करते है कृषक इस देश मे,
देश की सरकार के व्यवहार पर लिखता रहा।
लोग आये रोकने सच्चाई' अब मत लिख "निगम",
मैं चला तलवार की बस धार पर लिखता रहा।
------
बलराम निगम

22सितंबर 2018
भावना की नदी मे, 
गोते तू लगाए जा, 
किसी को ना ठेस पहुंचा, 
बस हँसले और हँसाये जा l

सदभावना जग जिताये, 
अपनों से हमें मिलवाये, 
दुर्भावना नरक दिखाए, 
मित्रो को भी शत्रु बनाएं l

भावना गर अच्छी हो तो, 
खोई हुई प्रीत मिल जाए, 
जीवन मे खुशियों के, 
नन्हे नन्हे दीप जलायें l
कुसुम पंत 'उत्साही '
स्वरचित 
देहरादून

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