Sunday, September 16

"स्वतंत्र लेखन "16सितम्बर2018



दिल था खाली खाली कोई करीब न था ,
सहूलियत ये थी की कोई रकीब न था l


आज बहुत है मेरे जानने पहचानने वाले ,
यकीनन मुफलिसी में कोई हबीब न था l

मेरे दिल का सिर्फ अन्दाजा लगाता रहा ,
दिल की पैमाइशी का कोई जरीब न था l

लिखता रहा हरफ हरफ उनके यादों के ,
आँसू थे सबके सब कोई अकिब न था l

बाँट कर पी लेते हम नयनो के नीर को ,
ऐसा हमारा तुम्हारा कोई नसीब न था l

मिटा गए हमको तुमको ये जमाने वाले ,
मिटा दे मुहब्बत ऐसा कोई सलीब न था l


🌻 
खीच लेना रक्त चन्दन,
मध्य मस्तक केन्द्र पर ।
लालिमा भर लेना अपने,
श्वेत नेत्रम कोण पर ॥
🌻
खींच लेना उस जिव्हा को,
बोले जो अपशब्द पर ।
मातृ गौरव क्षीर्ण ना हो ,
याद रखना तुम मगर ॥
🌻
धर-पकड उसको पटक कर,
छाती पर चढ जाना पर ।
शीश कटने से प्रथम,
मरना तू उसको मार कर ॥
🌻
वीर गौरव से भरा,
इतिहास भारत भूमि का।
मार कर मरते है जो,
गर्वित है हम उन वीर का॥
🌻
चीर कर उसके हृदय के,
रक्त से धोना धरा ।
मर के भी ना गिरने देना,
वीर भारत का ध्वँजा ॥
🌻
मान तुम सम्मान तुम हो,
देश के अभिमान तुम।
हम ऋणी है तुम मगर हो,
देश के ऋण उत्तर्णी ॥
🌻
🌻
स्वरचित .. Sher Singh Sarraf





कितनी पीड़ा कौन सँजोये

हँसते हँसते कौन है रोये ।।
मोर को देखो कितना सुन्दर
नचते नचते आँख भिंगोये ।।

बड़ी कठिन है यहाँ दास्ता
बना लेंय सब अलग रास्ता ।।
चार दिना सब देवें साथ
छोड़ देंय फिर सगे वास्ता ।।

माँ बाप के वचन भुलाये
सात वचन कौन निभाये ।।
दुख का पलडा़ दिन व दिन
इंसान का बढ़ता जाये ।।

जिससे पूछो वही दुखी
दिखता न अब कोई सुखी ।।
पशु पंछी की पूछे कौन 
इंसान इंसान में बेरूखी ।।

नदियों में न वो रवानी 
पहले कितनी थीं दीवानी ।।
भूल गईं वो कलकल छल 
नही बचा उनमें पानी ।।

बच्चे भी अब दिखें उदास 
बचपन बचा न उनके पास ।।
खेलें कहाँ वो गिल्ली डंडा 
इतना दबाव है उनके साथ ।।

दिशा दशा अब नही हैं ठीक 
समाज की गाड़ी उतरी लीक ।।
अब भी नही खबर ''शिवम"
लेते नही हैं कोई सीख ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 16/09/2018

हुआ ओझल,
शशि नेत्रों से चकोर,
टूटा तिमिर कलश,

एक लालिमा चहुँ ओर,
चला अंशुमाली,
हुआ जगत में भोर,
......
अलसायी जीवन में,
हुआ नूतन संचार,
जागे नींद से प्राणी,
अपना पथ विचार,
छत-आंगन-मुँडेर,
चारो तरफ घेर-घेर,
खग-दल-बल संग,
कर कौतुक विनोद,
खोजते तृण-तन्दुल-
अन्न सब स्वीकार...
......
खिलि कलि पर,
अलि-दल-बल,
सम्मोहित,आकर्षित,
रसपान को आतुर,
किन्तु एक भौरा,
किंचित अलसाया सा,
कुमुदनी के प्रेम,
में बंध रात भर,
रहा उसके कैद में,
हुआ मुक्त भोर ,
तब आया दल पर,
.......
नवयौवना मुह ढांक,
छुपाती प्रेम साक्ष्य,
पर करती चुगली,
नेत्रों की लालिमा,
अभिसार की बात,
प्रेम कीड़ा की रात,
गुदगुदाती स्मृति,
लज्जा एवं सुख,
से भर जाती,
.......
आंगन में वृद्धा,
स्वेत बस्त्र-स्वेत केश,
सम्भाले थाती,
अनुभव का-जीवन का,
दही-माटकी में,
मथानी डाल महती,
निकालती नवनीत,
जैसे समय मथता है,
जीवन- दुख की,
मथानी से हमको-तुमको,
फिर निकालता कुंदन कर,
.......
कल जो हारे थे,
तज दिये थे अस्त्र अपने,
आज ओ पुनः,
नव-ऊर्जा से है,
चल पड़े रणभूमि के ओर,
कर देंगे धरा बौना,
नाप लेंगे गगन के छोर,
आज फिर कुरु,
जीतने की चाह में,
लगा देंगे सर्वस्य जोर..
........

हे रवि तुम ,
जब आते हो,
धरा का कितना,
कुछ कर जाते हो,
स्वं ताप सह कर,
प्राणी को निसंताप-
निर्भीक कर जाते हो....

स्वरचित....राकेश पांडेय


मेरी कलम से...

विशाल यह नील नभ का निर्वात,
हरितमा बिखेरती वसुंधरा का साथ।
शीतल मलय के झोंके,बेसुध,सुवासित,
दो ऋतुएं मिलकर जैसे स्वयं को करें परिभाषित।
गीली मिट्टी को छूकर आते झोंके मृदु मंद,
चंचला सरिता का स्तब्ध जल,
होकर गुजर रहा जैसे क्षीण स्मित सा कोई पल।
मखमली दूब पर शुभ्र तुहिन, मोती से;
कौतुक किरणों से मिलकर लगे इंद्रधनुषी ज्योति से।
भ्रमर है, प्रतीक्षा में ,पुष्पों के विकसित होने की;
पुष्प है प्रतीक्षारत 
प्रकृति के गुंजरित होने की।
मन को व्याकुल कर देने वाली अपूर्व नीरवता,
वृक्ष आनंदित, पर्वत प्रसन्न,पत्थरों की भी बोल उठी सजीवता।
क्या है यह?
किसी मायावी का अद्भुत मायाजाल,
या किसी चितेरे की तस्वीर बन गई वाचाल।
शांत धरा -आकाश का क्षितिज पर परिरम्भ,
जैसे अवचेतन में सजी किसी प्रेमकथा का आरंभ।
क्या है ये?
क्या कोई कविता है
क्या कोई गान है
सप्राण है,
स्पंदित है,
अनंत अस्तित्व की,
यह 
"ऋचा" 
अनजान है।
ऋचा मिश्रा



अच्छा लगता है 💐🌿
सपना अपना जीवन पथ का सच्चा लगता है !
संघी साथी के साथ में रहना अच्छा लगता है !!
सुब
ह एक कप चाय की प्याली,
भीगी ओस में दूब हरियाली,
उस पर नंगे पांव का चलना अच्छा लगता है !
सपना अपना जीवन पथ का सच्चा लगता है !!
खूब टहलना खूब मचलना ,
दौड़ - दौड़ कर कभी उछलना ,
दिल के हांथों जरा फिसलना अच्छा लगता है!
सपना अपना जीवन पथ का सच्चा लगता है !!
अलोम-विलोम वर्जिस कसरत ,
रहते जवानी हो पूरी हसरत ,
स्वस्थ तन मन सुन्दर जबतक कच्चा लगता है !
सपना अपना जीवन पथ का सच्चा लगता है !!
अच्छा लगता है बहुत कुछ अच्छा लगता है 💦
सन्तोष परदेशी




🌻🙏भावों के मोती 🙏🌻
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
१६.९.२०१८

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🌻🌿गजल 🌿🌺🌻
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रवि प्राची मे खिला,प्रतीची में मदिर हो जाएगा,
दिव्य आलोकित गगन विश्रांति में खो जाएगा।

उडती गाती कोयलें चहुँ ओर से, 
आभ नीला स्याह सा हो जाएगा।

शब्दों की ऊँची उडाने क्षितिज तक,
धवल पृष्ठ यूँ ही श्यामल हो जाएगा।

खग विहग उमगित *उडान*दूर तक, 
शब्द कल्पित को सहारा हो जाएगा। 

ऐ घटा घनघोर बदली ओट में, 
बरखा बुँदिया! क्या समा हो जाएगा।

चाँदनी में यूँ नहाकर चाँद भी 
एक पल मे रात का हो जाएगा।

चपल चंचल खिल उठी सौदामिनी, 
अवनि का आँगन हरा हो जाएगा।

क्षितिज जब अरुणिम सुधा बरसाएगा, 
उदित रश्मि ले सवेरा हो जाएगा।

नियति की सरगम बह चली रागिनी,
भैरवी स्वर का बहाना हो जाएगा।
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🌿🌺स्वरचित:-रागिनी शास्त्री 🌺🌿
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"प्रेम"
मोरनी बन नाचूँ मैं,
चलूँ हिरणी सी मदमाती,
मन मेरा नाचे जैसे बिजुरिया,
मिलूँ साजन से मैं शर्माती ,
लगी प्रेम धुन मुझको,
दिल हुआ दिवाना,
किया जो वादा तुमने,
पिया तुम वो सदा निभाना,
स्वर्णिम किरणें बना तेरा प्रेम,
किया जीवन में उजियारा,
छोड़ घर बाबुल का,
अर्पण किया जीवन सारा।

स्वरचित-रेखा रविदत्त
16/9/18
रविवार

बड़े होकर भाई-बहन 
कितने दूर हो जाते हैं 
इतने व्यस्त हैं सभी 

कि मिलने से भी मजबूर हो जाते हैं 

एक दिन भी जिनके बिना 
नहीं रह सकते थे हम 
सब ज़िन्दगी में अपनी 
मसरूफ हो जाते हैं 

छोटी-छोटी बात बताये बिना
हम रह नहीं पाते थे 
अब बड़ी-बड़ी मुश्किलों से 
हम अकेले जूझते जाते हैं 

-ऐसा भी नहीं 
कि उनकी एहमियत नहीं है कोई 
पर अपनी तकलीफें 
जाने क्यूँ उनसे छिपा जाते हैं 

रिश्ते नए 
ज़िन्दगी से जुड़ते चले जाते हैं 
और बचपन के ये रिश्ते 
कहीं दूर हो जाते हैं 

खेल-खेल में रूठना-मनाना 
रोज़-रोज़ की बात थी 
अब छोटी सी भी गलतफहमी से 
दिलों को दूर कर जाते हैं 

सब अपनी उलझनों में 
उलझ कर रह जाते हैं 
कैसे बताए उन्हें हम 
वो हमें कितना याद आते हैं 

वो जिन्हें एक पल भी 
हम भूल नहीं पाते हैं 
बड़े होकर वो भाई-बहन 
हमसे दूर हो जाते हैं 

सिर्फ बीवी बच्चे ही आपका परिवार नहीं है, 
भाई बहन भी है, जो इनसे पहले से 
आपके साथ थे हैं और रहेंगे।

स्वरचित :- मुकेश राठौड़

निवेदन 
प्रिये, तुम्हारी एक झलक ने , 

कर डाला मन मतवाला, 
जलते अधर प्रेम अगन मे , 
सुलगती यौवन ज्वाला ।
लज्जा की चादर ओढ़े तुम मंजु, 
लगती मुझको मधुबाला, 
धन्य हुआ मै बनकर सखी, 
पवित्र प्रेम उपवन का रखवाला ।
निवेदन बस इतना तुम से आऔ, 
गलबहियां डाल स्वीकारो, 
प्रिये भाव मोतियो की माला
सुलोचना सिंह ।(स्वरचित कविता )

गजल,
गुलशन को महकाने की बातें करों,

नन्है गुलो को जिलाने की बातें करो।।1।।
मिलन को धरती से मेघ तरसते है,
दिल से दिल को मिलाने की बातें करो।।2।।

खेत दरके फसल सारे सूख गये है,
सावन घटा को बुलाने की बातें करों।।3।।
तम में डूबा है घर मेरा यारो,
प्रेम की जोत जलाने की बातें करों।।4।।
दाने के लाले पडे है जिन घरों में,
उनके चूल्हे जलानें की बातें करों।।5।।
स्वरचित देवेन्द्रनारायण दास।।

"बचपन की खूबसूरत यादे
स्कूल ना जाने के इरादे
बड़े भाई को स्कूल जाते देख
खुद जाने की इच्छा
हम भी सोचते थे
कब होगी हमारी परीक्षा
फिर एक दिन आया
हमारा स्कूल में नाम चढ़वाया
पहला स्कूल का दिन
खुद में खुद को मेहमान सा महसूस हुआ
बहुत ही प्यार सम्मान महसूस हुआ
पूरा दिन सबकी नजर हम पर
खूब स्नेह नए एडमिशन के दम पर
तीसरे दिन डांट फिर हल्का चाटा खाया
फिर स्कूल से मन घबराया
6 दिन गए तो इरादे बदले
स्कूल का भूत भाग गया
अंदर का आवारा शैतान जाग गया
अब स्कूल से बचने के बहाने टटोलने लगे
घर वालो से झूट बोलने लगे
अनुभवहीनता में बुखार का बहाना बनाया
Dr ने आते ही मुझको स्वस्थ बताया
बस कर लिया प्रण की अब बुखार की मदद नही लेनी
चाहे उसके लिए कितनी भी सफाई पड़े देनी
सुबह से ही पेट दर्द बढ़ जाता था
स्कूल का समय निकलते ही गायब हो जाता था
जब 2-4दिन की छुट्टी पड़ती
मन खिल जाता 
स्कूल जाने से पहली शाम घबराहट बढ़ना
सुबह के लिए बहाना घड़ना
फिर घरवालों से पिटना
और स्कूल जाकर पढ़ना।।
बहुत मजा आता था
मन को लुभाता था
"बहुत याद आते है वे दिन
मस्त थे पैसे और मोबाइल के बिन""
स्वरचित-- विपिन प्रधान

सास संग्रह ,

सास संग्रह लिख लूँ ,
जिसमे हो सासु की तालीम ,
ग्रहस्थी चलाने का सलीका ,
नाना प्रकार के अचारो की विधियां ,
और सावन से लेकर वैशाख तक 
आने वाले त्योहारो की पूजन विधियां ,
हर बार करूँ हर बार भुलूँ ,इसलिय 
सास संग्रह लिख लूँ ,
अनेको पूजन की कहानी 
गंगौर ,करवाचौथ ,वट सवित्री ,
महालक्षमी आठे , अगोई अष् टमी ,
सारी पूजा की कहानी सासु की जुबानी लिख लूँ ,
सास संग्रह ....
बच्चो की परवरिश ,कैसे डालती वो संस्कार 
लिख लूँ ,उनसे सुने गीत ,बधाय लिख लूँ ,
थोडे मे गुजर करना ,सबकी आ वोभगत करना ,
घर को मंदिर सा सजाना ,
हर चीज को करीने से संवारना ,लिख लूँ ,
सास संग्रह . ..
ये संग्रह होगा अनमोल ,
उम्र के साथ -साथ बडेगा इसका मोल ,
यह बात हिय मे रख लूँ ,
सास संग्रह .......

शिल्पी पचौरी 

स्वरचित



छोटा मेरा आशियाँ…

बेटी..तुझमें मेरा जहां…
आँखों में तेरी मैं देखूं…
तारों भरा आसमाँ….

शोर पवन में सन्न सन्न सन्न सन्न….
पायल तेरी ज्यूं छन् छन्…
चहके बुलबुल कूके कोयल…
संग तेरे मधुर तान….
छोटा मेरा आशियाँ…

सूरत तेरी देख निकले सवेरा..
किस्मत का सूरज चमके मेरा…
तेरे रूप में मिला हो….
जैसे मुझे वरदान….
छोटा मेरा आशियाँ…

कल कल कल कल बातें तेरी…
कलरव सरिता ज्यूं बहती …
चेहरे तेरे में पाऊं मैं…
जीवन की सुबह शाम….
छोटा मेरा आशियाँ…

बेटी बन दादी माँ मेरी…
मुझपे है धौंस जमाती…
कूदे मेरे पेट पे ऐसे…
जैसे हो मैदान….
छोटा मेरा आशियाँ…

बातों में भरी शरारत…
हिमाकत और नजाकत…
नाचे, झूमें, मटके जब तू…
घर लागे परी का जहॉं….
छोटा मेरा आशियाँ…

सारे जहॉं की खुशियां वारूँ…
हर पल तेरी चाह निखारूं…
आदि मेरा अंत भी तुझसे…
लाडो में बसती जान…
छोटा मेरा आशियाँ…

न कोई मुझको ढूंढें कभी…
मिल न पाऊं किसी से…
तेरे मुकाम बेटी मेरी…
बस हों मेरे निशाँ…

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
१६.०९.२०१८

"समय"
समय के साथ चलते - चलते,
कभी हवा के झोंके,

कभी तूफानों से लड़कर,मौसम बदलते गये,
कभी उम्मीदों की आशायें,समय के साथ,
कांच की तरह टूटती गई,
कुछ पल अश्रुधारा बहती गई,समय के साथ,
मन का आत्मविश्वास बढता गया,
कुछ नयी आशा की किरण,समय के साथ ,
मेहनत और विश्वास से,मंजिल को पाने,
समय के साथ,राह के कांटे हटाते - हटाते,
समय के साथ, चलती गई जिन्दगी,
मंजिल के फूलों को, चुनती गई,
समय के साथ -साथ ,कभी धूप कभी छाव मे,
चलती गई ये जिन्दगी,समय के साथ,कभी असहनीय दर्द ,कभी पल - भर की खुशियां,
रंग बदलते मौसम,समय के साथ,
चलती गई ये जिन्दगी....
समय के साथ..।

***************

स्वरचित: - 'सुनीता पँवार' 'देवभूमि उत्तराखण्ड' , ( १६.९.२०१८

शिद्दत से ढूंढते हैं और दरकार भी है

तमन्ना, बेसबरी और इन्तज़ार भी है
जाने क्यों खुशियां, हमारे द्वार नहीं आते है

गरीब की बेटी हूं,चिथडों में लिपटी हूं
अधनंगे लोग कहते हैं, हमें संस्कार नहीं आते है
जाने...

है चाहत भी, नींद भी और ख्वाब भी मगर
ख्वाबों में कभी, राजकुमार नहीं आते है
जाने..

गम के रोज़े तो हर रोज हैं घर में
ईद के मगर, कभी त्योहार नहीं आते है
जाने...

" बिटिया "
देख तेरी मन मोहिनी सूरत
नजरें तेरी उतार लूँ 

देख अधरों पर खिली मुस्कान 
दामन तेरी खुशियों से भर दूँ 

गालों में पड़ते डिम्पल को तेरे
उँगलियों से और गहरे कर दूँ 

प्यारी प्यारी बातों को तेरी 
मन में गिरह बाँध लूँ 

नन्हे नन्हे पाँवो को तेरी 
हथेलियों में कस लूँ 

नयनों में खिले सपनों को तेरे
सात रंगों से सजा दूँ 

मासूम से सवालातों को तेरे
अपने आँचल में छुपा लूँ 

खिलखिलाते जीवन में तेरे
जीवन अपना न्योछावर कर दूँ 

अप्रकाशित एवं स्वरचित पूर्णिमा साह बांग्ला

संध्या /सांझ 
**********
तपन धूप की ढलने लगी है 

रवि संग धरती मिलने चली है 
अस्ताचल किरणें बिखर रही है 
सागर स्वर्णिम लहरा सा रहा है 
ये सांझ सुहानी चमक रही है 
मदमाती हवाएं बहनें लगी है 
नवजोश प्रेम का भरने लगी है 
पंछी कलरव कर गुंजार रहे हैं 
नीड़ों मै जीवन सँभाल रहे हैं 
ये साँझ सुहानी.......... 
गैंया रंभाती घर लौट रही है
सांध्य धूलि चमका सी रही हैं 
घण्टे संग आरती गूँज रही है 
मन तार प्रभु संग जोड रही है 
ये सांझ सुहानी.......... 
हौले से चाँद खिलने लगा है 
तारामंडल भी चमकने लगा है 
संध्या से मिलन की चाह मे, देखो 
नव वधू सा मधुबन सजने लगा है 
ये सांझ सुहानी............ 
ज़ब बैठे तरुवर के तट पर 
कुछ अनुभव सबमें बाँट रहे 
कुछ कष्टों में जीवन ताप रहे 
कहीं राग ख़ुशी के गूँज रहे 
कहीं विरह की अग्नि धधक रही 
ये सांझ सुहानी..........
ये सांझ एकाकी मन मेरा 
जीवन की स्मृतियाँ घुमा रहा 
जो बुरा है उसको बिसराकर 
नव जीवन सुन्दर बना रहा 
मन प्रेम प्यार से भरकर के 
जीवन को प्रेरक बना रहा 
ये सांझ सुहानी............ 
बचपन मेरा हँस खेल बीता 
जिम्मेदारी से भरी जवानी थी 
जीवन की आयी ज़ब संध्या 
सन्नाटा मन में पसर गया 
ये सांझ सुहानी........ 
संकल्प मेरा इस जीवन से 
ना हारूंगा मैं कभी मन से 
इस ढलती संध्या के अंदर 
मैं जोश पुनःफिर भर दूंगा 
ये सांझ सुहानी...... 
स्वरचित सीमा गुप्ता 
अजमेर 
15.9.18

विषय- "स्वतन्त्र लेखन"

प्रस्तुत है एक छंद मुक्त
रचना, -
"घड़ा"
वह,
बहुत देर से खड़ा था
उसके सर पर एक घड़ा था
जो बेहयाई से भरा था
शराफत के एक धक्के से
वह गिर पड़ा था
जो,
काफी देर से खड़ा था,
बेशक वह गिर पड़ा था
पर घड़ा अपनी जगह पर अड़ा था;
लोगों ने अटकलें लगाईं .. !(?)
ये क्या पचड़ा है भाई ..?
वह तो गिरा पड़ा है
पर घड़ा क्यों खड़ा है ..???
तभी,
भीड़ से एक आवाज़ उभरी
ढीली तो नहीं माइंड की ढिबरी
पूछते हैं कि घड़ा क्यों खड़ा है
बेशर्मी से भी भला कोई लड़ा है
यही तो एक स्टेबिल है
जो शराफत के मुकाबिल है
सुनते ही वह जो गिरा था
उठकर खड़ा हो गया
दूर भीड़ में जाकर कहीं खो गया
और जो होना था सो हुआ
पर, -
घड़ा टस से मस न हुआ;
भीड़ का हर शख्स
भौचक्का सा खड़ा था,
क्योंकि घड़ा अब भी
अपनी जगह पर अड़ा था.
#
"स्वरचित"
- मेधा नारायण,
१६/९/१८,

रविवार.

पिया कैसे बिसराए 
--------------------------------

रास्ता देख-देख हारी
पर तुम नही आए, 
अंखिया बिछाई हारी
दरश नहीं दिखाए।

बन योगन ढूंढती हारी
पर नयन नही मिलाए
विरहिणी सी हाल हिय की
मन तरंग नही रिझाए।

हलक से निकलती रही सिसकी
पर तेरा मन नही पिघला
लौटने लगी थकी हारी छांव 
मन मेरा बार-बार कुहका।

निंदिया अपने आगोश दबायी
सपने में ही तुम आए
नयन खुली तो दिन चढ़ आए
पिया तोहे हम कैसे बिसराए।

---रेणु रंजन 
( स्वरचित ) 

---रेणु रंजन
कोरा कागज बन कर साजन, 
तेरे अंगना आयी हूँ, 
रंग बिरंगे अक्षर लेकर, 
उन्हे शब्द बनाने आयीं हूँ l

प्यार तुम्हारा लेखनी बनेगा,
स्याही मेरे धड़कन होंगी, 
तेरा दिल मेरी किताब बनेगा, 
दोनों मिलकर मेरे साजन 
हम दोनों का इतिहास बनेगा l

तेरा आंगन बगिया मेरी, 
फूल खिलाने आयी हूँ, 
माँ के आंगन का कुसुम हूँ, 
तुझे महकाने आयीं हूँ l

कोरा कागज है दिल मेरा, 
नाम अंकित कर इस पर तेरा, 
जीना मरना तेरे संग संग, 
बस हरदम रहें ये दिल तेरा l
कोरा कागज....... 
कुसुम पंत स्वरचित

विधा :-डमरु

अनकहा है शेष
शब्द अंतराल
कागज कोरा
प्रेम व्याल 
फूँकते 
विष
ये
व्यथा 
विरह
तप घोरा
काग़ज़ थोरा
लिखना अशेष
प्रेम है निर्विशेष ।

स्वरचित :-
ऊषा सेठी
सिरसा १२५०५५ ( हरियाणा )

विधा:- दोहा छंद
विषय :-महँगाई
____________________________________________
दोहे-
____________________________________________
महँगाई की मार से, जन-जन है बेहाल।
खाने को रोटी नहीं, नहीं बची है दाल।।1।।

सब कुछ महँगा हो गया, सब्जी, चावल, चून।
और यहाँ सस्ता हुआ, आज बहाना खून।।2।।

माता मैं तेरे लिए, बिकने को तैयार।
महँगा ज्यादा जान से, मगर आज उपचार।। 3।।

बिटिया की शादी भला, कैसे होगी मित्र।
महँगाई से जब मिटी, रोटी, घर का चित्र।।4।।

गर्म बहुत है आजकल, शिक्षा का बाजार।
मुनिया उपले थापने, को है फिर लाचार।।5।।
___________________________________________
✍️ मिथिलेश क़ायनात
बेगूसराय बिहार













अच्छा लगता है 
तुमको मन की बात बताना 
पास बैठना और बैठाना 

कभी रूठ जाने पर तेरे 
प्यार जता कर तुझे मनाना 
अच्छा लगता है ।
कोई सुनें फिर गीत पुराना 
रोते शिशु का मन बहलाना 
बिछुड़ा मीत पुनः मिल जाना 
छोटी छोटी खुशियाँ पाना 
अच्छा लगता है। 
जीवन है नित चलते जाना 
कल का कोई नहीं ठिकाना 
कौन यहाँ अपना बेगाना 
फिर भी अपना प्यार पुराना 
अच्छा लगता है। 
भूखे को भोजन मिल जाये 
और प्यासे को पानी 
रहें कर्मरत जन भारत के 
माँ की चूनर धानी 
सबको सुख का मिले खजाना 
दया धर्म का भाव जगाना 
अच्छा लगता है। 

अनुराग दीक्षित















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