तनिक न साहस तोड़े हम।।चलते चलते यहां आऐ अब।
उन आंधी तुफानों में।।
कंटक आच्छादित पथ पर।
निरंतर बढते आऐ आऐ है।।
फिर आज के इन क्षणों में।
हम क्यूं घबराऐ है।।
हम धीर वीर अधीर न हो।
बढते रहे कदम हमेशा ।।
मानवता के पथ पर सबके।
बढते रहे कदम हमेशा ।।
हर पल क्षण चलते रहना है।
स्वरचित ः
राजेन्द्र कुमार#अमरा#
मुद्दतें हो गई वो पल आ न सका।
तुम मुझे और मै तुम्हें पा न सका।
दौरे दस्तूर नुमाया बनावट का है।
सजा न सका कुछ मै बना न सका।
कहने को मुहब्बत थी हमनें भी की।
तुम जता न सके मै निभा न सका।
तुम समन्दर बहा कर विदा हो गए।
चुप रहा अश्क दो मै बहा न सका ।
जख्म सब भर गए पर निशां खूब है।
था अजब हादसा मै भुला न सका।
आज हंसता है मुझपे यूं सारा जहाँ।
बैठ दरिया किनारे मै नहा न सका।
तेरी चाहत की तुझपे लानत सोहल।
लूट के दौर भी कुछ कमा न सका।
विपिन सोहल
लघुतम अंश समय का पल
चारु स्वरूप पल वर्तमान का,
कर्म सुनिश्चित हों प्रतिपल।
सूर्योदय से सूर्योदय तक,
एक दिवस में साठ घटी
साठ पलों की एक घटी,
पल में होते साठ विपल।
पल शक्ति-पुंज होता सदैव,
परिवर्तन का कारक सशक्त,
जिसके प्रभाव से घटनाऐं नित
होतीं प्रघटित जगतीतल पर।
पल के प्रभाव से भिक्षुक भी,
आमूल-चूल नृप बन जाता,
रूप अंतरित होता नरेश का,
पल ही रंक बना जाता।
दुर्दिन में युग के समान पल,
सुख में असंख्य खुशियों के पल,
विरह -काल में ढलते आँसू बन,
मिलन क्षणों में दृग की मुस्कान।
--स्वरचित--
(अरुण)
कुछ लम्हे हमें रूलाते हैं ।।
दोनो ही कुछ कहते हैं
क्यों न हम सुन पाते हैं ।।
चील जब उड़ता प्रतिरोध बल जगाते हैं
जितनी तेज हवा उतना बल बढ़ाते हैं ।।
घिरे दरख्त जो तूफानों में उनसे पूछो
कैसे कितनी गहरी वो जड़ें जमाते हैं ।।
अच्छे लम्हे थके तन में मरहम लगाते हैं
करके उन्हे याद हम सारे गम भुलाते हैं ।।
तालमेल का नाम है जीवन जानो ये
क्यों न ''शिवम्" तालमेल बैठाते हैं ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 29/09/2018
हर पल
कहता है कुछ
फुसफुसा कर
मेरे कानों में
मैं जा रहा हूँ
जी लो मुझे
चला गया तो
फिर लौट न पाऊंगा
बन जाऊंगा इतिहास
करोगे मुझे याद
मेरी याद में
कर दोगे फिर एक पल बर्बाद
इसलिए हर पल को जियो
उठो सीखो जीना
अतीत के लिए क्या रोना
भविष्य से क्या डरना
यह जो पल वर्तमान है
है वही परम सत्य
बाकी सब असत्य
यही कहता है हर पल
फुसफुसा कर मेरे कानों में ।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
वो पल ज़ब उसका मेरी जिंदगी में आना,
जैसे हवाओं का हौले से गुनगुनाना।
जैसे पतझड़ में फूलो का खिलना,
और मेरा ह्रदय का उस से मिलना ।
जैसे एक ख्वाब का पूर्ण होना,
उससे मिलकर सम्पूर्ण होना ।
हर लम्हा को अब मैनें जाना,
यूं उसका मेरी जिंदगी में आना ।
स्वयंरचित
छवि शर्मा
गीतों का सृजन चलता रहेगा।।1।
मोह की कंदील को बुझा देना,
मर्म का अकंन चलतारहेगा।।2।।
जीवन पल पल जा हैं रहाहै,
शब्द ब्रम्ह संधान चलता रहेगा।।3।।
मनकलुषित न होने पाये,
हर पल मार्जन चलता रहेगा।।4।।
धूल कण भी कभी चंदन बनते,
मातृ प्रेम नर्तन चलतारहेगा।।5।।
मन में सदा नाद होते रहेगें,
गीतों का अर्पण चलतारहेगा।।6।।
देवे न्द्र नारायण दास बसना छ.ग
तुम्हें समर्पित चरणों में।
हर लम्हा भक्ति में खोऐ,
श्रीसियाराम के चरणों में।
कुछ परोपकार मै कर लूँ।
धन्य हर लम्हों को करलूँ।
पुरूषार्थ करूँ परमार्थ करूँ,
पुण्य पुष्प अंक में भर लूँ।
क्षणभंगुर जीवन है अपना,
मिलजुलकर हम सब काटेंः
जो भी सुख दुख आऐ हम
सभीसाथ मिलकर ही बांटें।
लम्हा लम्हा प्यार जिऐं हम
व्यर्थ नहीं जाऐ कोई लम्हा।
पलपल अपना बहुमूल्य है,
सदकर्म करें हर कोई लम्हा।
निश्चित प्रेम पल्लिवित होगा।
ये मानवमन प्रफुल्लित होगा।
आज रहें कल नहीं होंगें हम,
मगर नाम यह सुरभित होगा।
स्वरचित ः
इंजी.शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
तेरे संग खुशियों को ढूँढती रही
गमों की परछाई मुझे मिलती रही
नैय्या मेरी बीचमझधार जूझती रही
साहिल से टकराकर टूटती रही
यादें तेरी मुझे पल पल सताती रही
धड़कन मेरी बेगानों सी गुनगुनाती रही
ये मस्तानी शाम तुझे बुलाती रही
तेरा ही नाम लेकर पुकारती रही
रातों को सितारों संग बातें होती रही
अंधेरों में भी रौशनी मिलती रही
सूनी सूनी रातों को सपने सजाती रही
बुझी बुझी सी पलकें निन्दें चुराती रही
सांसे मेरी मुझसे रुठती रही
खुद को खुद में ही तलाशती रही
स्वरचित पूर्णिमा साह बांग्ला
क्या सोचा और क्या हो गया,
जो न चाहा वही हो गया;
अब जो-जैसा है चलने दो,
बचा हुआ वक़्त गुजरने दो;
बहुत जिए औरों की खातिर,
अब अपने मन सा जीने दो;
तन्हा रहे भीड़ में रहकर,
जरा अकेले भी चलने दो;
ख्वाब तो ख्वाब ही हैं आख़िर,
इन्हें भी हक़ है बिखरने दो;
हूँ दो दिन का मुसाफिर सही,
चंद पलों को सहेजने दो;
काफी है महज इतना भी सुकूँ,
जाते वक्त मैं ये कह सकूँ;
ख्वाब तो ख्वाब ही होते हैं,
ये कभी नहीं सच होने हैं;
और कुछ हो-न-हो दुनिया में,
चन्द लम्हे 'तलब' अपने हैं.
#
"स्वरचित"
- मेधा नारायण,
२९-९-१८,
छंदमुक्त कविता :-वो लम्हें याद आते हैं...
वो लम्हें याद आते हैं
कभी मन में गुनगुनाते हैं
जीत की ख़ुशी हार के आँसू
पलकें भिगो जाते हैं
वो लम्हें याद आते हैं....
कभी मन में गुनगुनाते हैं
जीत की ख़ुशी हार के आँसू
पलकें भिगो जाते हैं
वो लम्हें याद आते हैं....
पहला प्यार,वो इकरार
बेसब्र था, वो इंतज़ार
अब,दिल में मुस्कुराते हैं
वो लम्हें याद आते हैं.....
बेसब्र था, वो इंतज़ार
अब,दिल में मुस्कुराते हैं
वो लम्हें याद आते हैं.....
कहानी, वो शैतानी
बेफिक्र बचपन की
मासूम सी नादानी
गुदगुदी कर जाते हैं
वो लम्हें याद आते हैं....
बेफिक्र बचपन की
मासूम सी नादानी
गुदगुदी कर जाते हैं
वो लम्हें याद आते हैं....
वक़्त के केनवास पर
रूठने मनाने के
वो दौर उभर आते हैं
वो लम्हें याद आते हैं....
रूठने मनाने के
वो दौर उभर आते हैं
वो लम्हें याद आते हैं....
किताबों के सायों में
ख्वाबों की राहों में
वो जोश फिर बुलाते हैं
वो लम्हें याद आते हैं....
ख्वाबों की राहों में
वो जोश फिर बुलाते हैं
वो लम्हें याद आते हैं....
स्वरचित
ऋतुराज दवे
ऋतुराज दवे
कहीं दूर सुन्दर पहाडों पर सुकून लें,
बीते हुए उन लम्हों को फिर से जी लें,
जिम्मेदारियों में किस कदर हम घिरे,
एक -दूसरे का दीदार भी न हो सकें |
ये पल -पल कैसे बीतता जा रहा है,
वक्त रेत की तरह हाथों से फिसल रहा है,
उन बीते लम्हों को चल फिर से जीते हैं,
बीते पलों के मोतियों को फिर से पिरोतें हैं,
जीवन की वो उमंगे, तरंगें फिर से संजोते हैं |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
हर सफर जिंदगी का आनंद देगा ये भी जरूरी नहीं,
गम मे जो ख़ुशी ढूंढे...
इंसान है वही l
गमो की दुनिया छोटीहोती है,
गर सब मे एकता होती है,,
जब जीतलिया कार्गिल,
क्युकि हिंद मे अनेकता मे
एकता होती है l
होश मे आओ विदेशी,
दिल से हम है देसी,,
वस्त्र हमारे भिन्न भिन्न है,
पर जान हमारी है स्वदेशी l
कुसुम पंत 'उत्साही '
स्वरचित
देहरादून
उत्तराखंड
पल
सुहाना
मुस्कुराना
मुख दमके
जीवन महके
यादें जीवन भर
ये
लम्हें
सुन्दर
चितवन
खिले चमन
करुणा जीवन
सजे घर आँगन
स्वरचित :- मुकेश राठौड़
जब तुम मुस्कुराया करते थे
तेरी आँखों के सागर में
जब मेरे अक्स उभरते थे
जब थाम के यूँ तुम हाथ मेरा
विश्वास जताया करते थे
वह लम्हें कितने अच्छे थे...
जब भी तुम हँसकर मुझको
इक चपत जमाया करते थे
और सोने जो लग जाऊँ मैं
गुदगुदी लगाया करते थे
मेरी इक आवाज जो सुन लो
तुम भागे आ जाते थे
वह लम्हें कितने अच्छे थे....
जब किसी खेल में हारूँ तो
तुम बहुत चिढ़ाया करते थे
और जब मैं रुठ जाती थी
तुम मुझे मनाया करते थे
यूँ हीं बेमतलब दूर कहीं
हम दूर कहीं हो आते थे
वह लम्हें कितने अच्छे थे...
तुम मेरी सुबह के सूरज
जीवन में रंग यूँ भरते थे
जब भी होती थी धूप कभी
तुम छतरी बन कर तनते थे
मेरी खुशियों के लिए सभी
तकलीफ उठाया करते थे
वह लम्हें कितने अच्छे थे...
तुम हीं मेरी अमावस में
दीपक प्रकाश बन जलते थे
तुमसे हीं थी चाँद रात
बन चादर लिपटे रहते थे
मुझपर कोई मुश्किल आये
"मैं हूँ न" ऐसा कहते थे
वह लम्हें कितने अच्छे थे...
संग तेरे चाहे आँधी हो
मेरी हिम्मत बन जाते थे
चाहे टूटे बिजली कोई
तुम मेरा साथ निभाते थे
मुझको घमंड हो जाता था
जब हाथ पकड़ तुम लेते थे
वह लम्हें कितने अच्छे थे...
फिर धीरे से सबकुछ बदला
था वक्त रेत जैसे फिसला
हम मिलने से मजबूर हुए
और दो दिल गम से चूर हुए
कुछ घाव दिलों में गहरे थे
वादों के धागे कच्चे थे
वह लम्हें कितने अच्छे थे...
स्वरचित 'पथिक रचना'
माँ -बाप के साथ बिताये वो हर पल
याद आते है बार बार
उन लम्हों को याद करते हुये मैं
आँसू पोछती हूँ हर बार
पर हर बार उठ जाती हूँ मैं
एक नये बिश्वास के साथ
'परिवर्तन ही जीवन है'
जान गई हूँ मैं आज
जो बित जाये वो कभी न आये
मान गई हूँ मैं आज
सुख दुःख है दोनों जीवन में
समझ गई हूँ मैं आज
लौट आये है मेरे जीवन मे भी
बच्चों के रूप में खुशियों के पल
पल मे तोला, पल मे माशा
मानव जीवन यूं ही बदलता
आने वाला पल,यूं ही न चला जाये
जाते जाते ये पल सबके जीवन मे
खुशियाँ भर जाये।
पल दो पल के जीवन को
हम सब मस्ती मे बिताये।
स्वरचित-आरती-श्रीवास्तव।
देखा जिंदगी को जिंदगी के राहों से गुजरते हुए
कैसे टूटते हैं लोग और ख्वाबों को बिखरते हुए
मैंने अक्सर तन्हाई में देखा है उसकी उदासी को
वक्त को जलते हुए और लम्हों को पिघलते हुए
क्या बताएं के वक्त कितना तन्हा तन्हा गुजरता है
कैसे तेरे बगैर जिंदगी का लम्हा लम्हा गुजरता है
मुद्दतों से प्यासी है नजरें तेरी दीद के वास्ते सनम
दिखे ना तू , ख्वाब में यादों का कारवां गुजरता है
किताबें जिंदगी के पन्ने, बिखरे चुरा के लाया हूं
वो खुशी के पल , कुछ शिकवे चुरा के लाया हूं
आ बैठ ज़रा, खोलकर देखें जिंदगी की गठरी को
मैं बीते वक्त के घर से कुछ लम्हे चुरा के लाया हूं
लम्हों के सूत से वक्त की बुनी चादर
रंग बहुत छोड़ती है जिंदगी की चादर
मेरी आंखों से मेरे सपने बिखरते, टूटते हैं
जब वक्त के पेड़ से लम्हों के पत्ते टूटते हैं
स्वरचित अभिमन्यु कुमार
दादी माँ की ममता दुलार
ग्राम्य जीवन की सुखद वयार
सखी सहेलियों का हुल्लड़पन
यौवन का वह अल्लहड़पन
पेड़ की छांव और गुरु की थपकार
विद्या के मंदिर की वह किलकार
प्रतियोगिताओं का ज़ोर शोर
आँखों में उड़ती सपनों की डोर
थी वक़्त ने जब पलटी मारी
परिणय सूत्र की आई बारी
नया माहौल बहु कर्तव्य भोग
कुछ पीछे छूट गए लोग
साँझ सवेरे ढलते चले गए
जीवन में आगे बढ़ते गए
उम्र का यह पड़ाव आज
करने लगा है भाव विभोर
बीते हुए उन लम्हों का रंग
स्मृति पटल को करे सरोबार ।
स्वरचित
संतोष कुमारी
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वो लम्हें जब याद आते हैं
दिल बेचैन-सा हो जाता है।
उसकी बेकरारी की बातें
मेरी तड़प यूं बढ़ा जाता है।
प्यार भरे लम्हें जब आते
वह बेतहाशा घर आता है।
उसके चेहरे की मासूमियत
पल-पल नयनों को भाता है।
खुशी बेहद उसे होती तो
मेरे बालों को सहलाता है।
बीते लम्हों के ख्यालों में
वह मुझे निहारा करता है।
बिन बोले नयनों की बातें
वह तुरंत समझ जाता है।
मुझे भी अच्छा नही लगता
जब वह दूर चला जाता है।
उससे जुदाई सही नही जाती
पल-पल नागिन सा डँसता है।
--रेणु रंजन
( स्वरचित )
सुनहरी स्याही से लिखे हैं
कहीं कहीं तो मोती माणिक
से सजे है
खुशियों के वो पल जो
पतंग की डोर,कंचों की चोट
अंधेरी रात की छुपन छुपाई और जात -पांत से बेखबर
लम्हों को क्षण क्षण जीते हैं
सलमें सितारे उन लम्हों में
जड़ते हैं
कुछ पल रोमानियत के घने
झूलों में रमकते हैं
अधपके वादों की पेंग चढ़ा कर आसमान को छूते हैं
ऐसे पलों में चाँद- सितारे
जड़े हुए रहते हैं
उम्र पचपन की में जब
बचपन को खोते हैं तब,
लम्हें ठहर- ठहर आगे बढ़ते हैं/ कहीं कहीं पीछे आकर
फिर नई राह चुनते हैं
तब लगता है सुनहरे अक्षर
में ये जगमगाते हैं
उम्र के पन्नों पर........
डा.नीलम.अजमेर
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