कैसा बंधन .
..............
अदभुत हैं ये बंधन .
जैसे सूरत और दर्पण .
.
सीप और मोती .
आत्मा और अंतर्मन .
.........
पंखुरी गुलाब .
काटो का जाल .
........
मात पिता और ईश .
भक्त और भगवान .
...........
निर्मल मन शीतल पवन .
नेह और बाती .
जीवन साथ .
............
अनमोल हैं सब बंधन .
जीवन का वर्णन .
...........
मीरा पाण्डेय उनमुक्त की कलम से
बादलो के पार उसका छोटा सा संसार है।
अनकही सी अनसुनी वो दिव्य सा संसार है॥
*
उसमे रहते है मेरे अपने जो अब ना पास है।
मेरी ''प्रीती'' भी छुपी है बादलो के पार में ॥
*
कौन देखा था उसे कब कौन जान पाया था।
जानने से पहले वो यमराज बनकर आया था॥
*
तोड के सारे ही बंधन आज ना वो पास है।
बादलो के पार उसका छोटा सा संसार है ॥
*
देखती रहना मुझे तुम अपना वादा याद कर।
मै भी ना तोडूँगा वादा बात पर विश्वास कर॥
*
बादलो के पार से तुम मेरा रस्ता देखना।
वादा पूरा करके अपना आऊगाँ मै भी वहाँ॥
*
फूल सा दिखता हृदय में काँटों का अरण्डय है।
शून्य है प्रारब्ध मेरा शून्य मेरा अन्त है।
*
शेर के तपते हृदय का, अनकहा सा सत्य है।
शून्य है प्रारम्भ मेरा , शून्य सा ही अन्त है ॥
*
स्वरचित... Sher Singh Sarraf
बंधन ही तो हैं जो जीने की आस जगाते
थकेहारे दुखमय जीवन में सुख सरसाते ।।
जीवन में न जाने कितने बंधन हम पाते
बंधन से ही तो मानव , मानव कहलाते।।
बंधन को जानो पहचानो बंधन हमें सजाते
कुछ रूढ़ीवादी बंधन जो तरक्की से गिराते ।।
विवाह के अनुपम बंधन अलग महत्व दर्शाते
दिल के बंधन भी होते जो भुलाये न जाते ।।
बंधन में बँधी दुनिया चाँद संग तारे मुस्काते
रवि देखो धरा से रोज ''शिवम"मिलने आते ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 07/09/2018
कब तक दबे रहोगे
कब तक मौन रहोगे
मुक्त करो स्वंय को ,
इन जात- पात के
बंधनों से
कब तक अपनों के बीच ही
खोये रहोगे ॥
चारों तरह दिखतीं बंधने
कहीं नहीं आजादी है
घुट-घुट कर जीने को
सबकी अपनी लाचारी है ॥
कहीं बुरखे की बंधन
कहीं पाजेब की बंधन
कहीं उँची-उँची दिवार
तो कहीं कर्तव्य और मर्यादा की बंधन
कितनी बंधनों में
बंधा है हमारा समाज
ये बंधन कहीं बेरिया न बन जाएँ
और हम उनके गुलाम ॥
स्वरचित :- मुन्नी कामत ।
यह बंधन...
स्नेह बंधन है....
जो ख़ुशी से बाँधा जाए...
ख़ुशी ख़ुशी मन अपनाये....
बिना किसी शर्त के...
शिकायत के...
खुद-ब-खुद हर कोई....
अपना लगे...अपना हो जाए...
मन पखेरू दूर उड़ा ले जाए...
आजाद खुले आकाश में....
पर वो....
वापिस फिर चला आये....
बंधन में बंधा ....
मौत मिले कहीं तो..भिड़ जाए...
हार जाए पर शिकन न आये....
घूप में ठंडी हवा के झोंके आएं....
धड़कन रुकी हुई भी चल पड़े....
बूढ़े काँधे जवां बच्चे को ढोयें....
मरे हुओं को भी याद कर कर रोएं.....
यह बंधन....
न जाने कितने ज़ख्म सिले...
कितने नए दे...फिर सिले...
सिलसिला यूं ही चलता जाए...
पर बंधन यह कट न पाए.....
परिवार छोड़ सरहद पे हैं खड़े...
घूप..बरसात..बर्फ ठण्ड में लड़ें....
साँसों को रुकने न दें...
पांवों को थकने न दें...
अपनी छोड़ बस...
दूसरों के लिए जीएं...
हर पल जैसे अमृत पीएं....
यह बंधन....
स्नेह बंधन है...
II स्वरचित - सी.एम्. शर्मा II
०७.०९.२०१८
कहां कैसे पता नहीं शायद तेरे सपनों में
शायद तेरी कल्पनाओं में प्रेरणा बनकर
मैं फिर बन्धुंगी तेरे इस प्रेम रूपी बंधन में
शायद तेरी कविताओं में तेरी रचनाओं में
तेरे गीत में तेरे संगीत में
तेरे कलम की स्याही बनकर बैठ जाऊंगी
तेरी डायरी में बिछ जाऊंगी
मैं फिर बन्धुगी तेरी इस प्रेम रूपी बंधन
मे
तेरे चित्रों में छुप जाऊंगी मैं
एक रहस्यमयी लकीर बन कर
कहां कैसे पता नहीं शायद तेरे सपनों में फिर से आऊंगी
,नीरखता, खामोश तुझे देखती रहूंगी
मौन होकर बस तुझे देखती रहूंगी
मे फिर बन्धुंगी तेरे इस प्रेम रूपी बंधन मैं
कहां कैसे पता नहीं शायद दीपक की लौ बनकर
तेरे अंदर समा जाऊंगी
मैं और तू कुछ नहीं जानते बस यह तो प्रेम का बंधन है प्रेम मे घुल जाऊंगी तेरे ख्वाबों में आके
जिस्म खत्म होता है तो सब कुछ खत्म होता है
लेकिन यादों के धागे ताह उम्र रहते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूंगी
उन यादों के धागों को अपने में समेट लूंगी
बस मैं तो प्रेम रूपी बंधन में फिर से बन्ध जाऊंगी
मैं ओस की एक बूंद बनकर तेरे बदन पर मिलूंगी
और एक मीठा सा अहसास बनकर
तेरे सीने से लगूंगी
कहां कैसे पता नहीं शायद तेरी कल्पनाओं में
मैं फिर से मिलूंगी
मैं फिर से बन्धुगी तेरे इस प्रेम रूपी बंधन मैं
स्वरचित ,हेमा जोशी
*मीरा की भक्ति*
तोड के दुनिया के सारे बंधन,
कान्हा में शामिल हो जाऊँगी,
वीणा की तान बजाते हुए मैं,
कान्हा की जोगनिया बन जाऊँगी |
न चाहूँ ये राज ठाट मैं,
न गहने से मुझको प्यार,
इनका बंधन न भाये मुझको,
कान्हा के बंधन में बंध जाऊँगी |
तेरी महिमा मैं गाती जाऊँ,
दरश दिखा दो बस एक बार,
तेरी भक्ति की ख़ातिर कान्हा,
विष का प्याला पी जाऊँगी |
स्वरचित *संगीता कुकरेती*
रूठी हैं ये जिंदगी
मना हम लेंगे
बस साथ मेरा बनाये रखना .
दिल के बंधन से हम तुम्हें बाँध ही लेंगे .
हमारी बातों से बिखर ना जाना
हमारी हर बात को दिल ना लगाना
तुम्हारी चाहत ही मेरी जिंदगी हैं
इस अटूट बंधन को बस दिल से निभाना.
रिश्ता हैं जन्मों का मेरा तुम्हारा
भरोसा हैं प्यार भरा
चलो छोड़कर बन जायें एक दूसरे का सहारा
एक हो जायें छोड़कर जग सारा .
बंधन ये अटूट हैं
बंधन हैं ये गहरा
सारे छोड़कर गिले शिखवे
एक होकर जोड़ ले ये बंधन
स्वरचित :- रीता बिष्ट
मना हम लेंगे
बस साथ मेरा बनाये रखना .
दिल के बंधन से हम तुम्हें बाँध ही लेंगे .
हमारी बातों से बिखर ना जाना
हमारी हर बात को दिल ना लगाना
तुम्हारी चाहत ही मेरी जिंदगी हैं
इस अटूट बंधन को बस दिल से निभाना.
रिश्ता हैं जन्मों का मेरा तुम्हारा
भरोसा हैं प्यार भरा
चलो छोड़कर बन जायें एक दूसरे का सहारा
एक हो जायें छोड़कर जग सारा .
बंधन ये अटूट हैं
बंधन हैं ये गहरा
सारे छोड़कर गिले शिखवे
एक होकर जोड़ ले ये बंधन
स्वरचित :- रीता बिष्ट
"बंधन"
जग के सारे बंधन अनमोल
नही इसका धन से कोई तोल
माँ से तो है जन्मो का बंधन
हर बंधन से अनमोल ये बंधन
सात जन्मों का विवाह का बंधन
मनमीत के संग बिताये हर पल
बच्चों का स्नेह बंधन पर
जग के सारे दौलत न्योछावर
दोस्तो के संग प्यार का बंधन
जीवन बगिया महकाये हर पल
देश प्रेम का बंधन से तो
सुधर जाये हमारा जीवन
सबसे ऊपर प्रभु का हमसे है बंधन
जिसनें यह सुन्दर संसार बसाया
चेतन अचेतन से भरी दुनिया में
हम मानव को श्रेष्ठ बनाया।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।
जग के सारे बंधन अनमोल
नही इसका धन से कोई तोल
माँ से तो है जन्मो का बंधन
हर बंधन से अनमोल ये बंधन
सात जन्मों का विवाह का बंधन
मनमीत के संग बिताये हर पल
बच्चों का स्नेह बंधन पर
जग के सारे दौलत न्योछावर
दोस्तो के संग प्यार का बंधन
जीवन बगिया महकाये हर पल
देश प्रेम का बंधन से तो
सुधर जाये हमारा जीवन
सबसे ऊपर प्रभु का हमसे है बंधन
जिसनें यह सुन्दर संसार बसाया
चेतन अचेतन से भरी दुनिया में
हम मानव को श्रेष्ठ बनाया।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।
कलम तुम मत करना बंधन स्वीकार,
लिखकर यूँ हीं बोते रहना सदा धरा पर प्यार।
जहाँ नेह के पुष्प खिलें,
तुम लिख देना वहाँ आभार।
खुशियों की फुलवारी लिखना,
रचकर नव पल्लव आकार।
शब्द तुम्हारे बने सदा हीं,
निश्छल प्रेम का उपहार।
लिखकर गीत समर्पित करना,
जगे मनुज का उच्च विचार।
हर खुशी के कोश पर,
लिख दो मनुज का तुम अधिकार,
जहाँ दिखे अन्याय कभी भी,
लिख दो तुम वहाँ अंगार।
मिटाना जो चाहे धरा को,
तुम उनको लिख दो धिक्कार,
नतमस्तक हो नमन तुम्हारा करती है "रचना" साभार।
ऐसा गान लिखो तुम कोई,
बहे धरा पर प्रीत-धार।
सजे अधर मुस्कान मनुज के,
हो जाये स्वप्न साकार।
तुम मिटाकर नफरतों को आज केवल लिख दो प्यार,
ओ कलम तुम आज लिख दो,
लिख दो एक नया संसार।
"पथिक रचना"
स्वरचित
लिखकर यूँ हीं बोते रहना सदा धरा पर प्यार।
जहाँ नेह के पुष्प खिलें,
तुम लिख देना वहाँ आभार।
खुशियों की फुलवारी लिखना,
रचकर नव पल्लव आकार।
शब्द तुम्हारे बने सदा हीं,
निश्छल प्रेम का उपहार।
लिखकर गीत समर्पित करना,
जगे मनुज का उच्च विचार।
हर खुशी के कोश पर,
लिख दो मनुज का तुम अधिकार,
जहाँ दिखे अन्याय कभी भी,
लिख दो तुम वहाँ अंगार।
मिटाना जो चाहे धरा को,
तुम उनको लिख दो धिक्कार,
नतमस्तक हो नमन तुम्हारा करती है "रचना" साभार।
ऐसा गान लिखो तुम कोई,
बहे धरा पर प्रीत-धार।
सजे अधर मुस्कान मनुज के,
हो जाये स्वप्न साकार।
तुम मिटाकर नफरतों को आज केवल लिख दो प्यार,
ओ कलम तुम आज लिख दो,
लिख दो एक नया संसार।
"पथिक रचना"
स्वरचित
ये ही वास्तविक सच है बन्धन
इससे ही शुरू होता है जीवन
मोह जब आता है हमारे मन
और अहंकार करता है नर्तन
हृदय गाने लगता अपना राग
मोह से हो जाता है अनुराग
और दुनियां ही सारी बाग
बुद्धि पाती ना उसमें जाग
शरू हो जाता है बन्धन
मोह फिर करता है क्रंदन
मानता मन इसमें रंजन
और कसता जाता बन्धन
छूट जा मानव बन्धन से
मोह के झूठे क्रंदन से
ज्ञान के अब बंध बन्धन से
छूट झूठे गंठ बन्धन से
स्वरचित ,,,रेखा तिवारी
कितने कितने प्रश्न चिह्न हैं
तेरे मेरे बंधन पे
हैं चंद बेअसर पहरे भी
तेरे मेरे बंधन पे
कुछ परिवार के हैं
कुछ हैं अदृश्य समाज के
कुछ नैतिकता के नाम चढ़े
कुछ पे संस्कार अड़े हैं
त्रेता में मैं सीता,तुम मेरे राम रहे
द्वापर में मैं राधा,श्याम सलोने थे तुम मेरे
मैं मीरा दिवानी भटकी बन-बन बंधन निभाने
मैं ही लैला, मैं ही शींरी,
मैं सोहनी,साहिबा भी मैं ही
ढोला की मरवण मैं थी
रतनसेन की पद्मिनी
गालिब के शेरों में थी
मीर की थी गज़ल मैं ही
आज भी जानी अंजानी
कभी ज़हर खाती हूँ
कभी फांसी पर लटक कर
देह त्याग जाती हूँ
कुछ हिम्मत गर कर लेती हूँ तो आनर कीलिंग का शिकार जन्मदाता के हाथों हो जाती हूँ
फिर भी मैं आती हूँ
क्यूंकि सृष्टि के आरंभ से किया काल निभाना है मुझको ।
डा.नीलम.अजमेर
स्वरचित
तेरे मेरे बंधन पे
हैं चंद बेअसर पहरे भी
तेरे मेरे बंधन पे
कुछ परिवार के हैं
कुछ हैं अदृश्य समाज के
कुछ नैतिकता के नाम चढ़े
कुछ पे संस्कार अड़े हैं
त्रेता में मैं सीता,तुम मेरे राम रहे
द्वापर में मैं राधा,श्याम सलोने थे तुम मेरे
मैं मीरा दिवानी भटकी बन-बन बंधन निभाने
मैं ही लैला, मैं ही शींरी,
मैं सोहनी,साहिबा भी मैं ही
ढोला की मरवण मैं थी
रतनसेन की पद्मिनी
गालिब के शेरों में थी
मीर की थी गज़ल मैं ही
आज भी जानी अंजानी
कभी ज़हर खाती हूँ
कभी फांसी पर लटक कर
देह त्याग जाती हूँ
कुछ हिम्मत गर कर लेती हूँ तो आनर कीलिंग का शिकार जन्मदाता के हाथों हो जाती हूँ
फिर भी मैं आती हूँ
क्यूंकि सृष्टि के आरंभ से किया काल निभाना है मुझको ।
डा.नीलम.अजमेर
स्वरचित
शीर्षक:" बंधन "
हाइकु
1
मंगलसूत्र
विवाह है बंधन
जन्मों का नाता
2
धर्म बंधन
कृष्ण संग अर्जुन
गीता का ज्ञान
3
कर्म प्रधान
सांसारिक बंधन
है मृत्यु तक
4
नित्य वंदन
गुरु शिष्य बंधन
शिक्षा प्रदान
5
फूल व काँटे
अनोखा है बंधन
साथ निभाते
6
शाश्वत आत्मा
मुक्त भव बंधन
नश्वर काया
7
प्रेम बंधन
दिव्य ये अनुराग
कृष्ण राधिका
8
विवेक ज्ञान
नीतियों का बंधन
मानव मात्र
9
प्रेम बंधन
गहन अनुभूति
भाव महान
स्वरचित पूर्णिमा साह बांग्ला
हाइकु
1
मंगलसूत्र
विवाह है बंधन
जन्मों का नाता
2
धर्म बंधन
कृष्ण संग अर्जुन
गीता का ज्ञान
3
कर्म प्रधान
सांसारिक बंधन
है मृत्यु तक
4
नित्य वंदन
गुरु शिष्य बंधन
शिक्षा प्रदान
5
फूल व काँटे
अनोखा है बंधन
साथ निभाते
6
शाश्वत आत्मा
मुक्त भव बंधन
नश्वर काया
7
प्रेम बंधन
दिव्य ये अनुराग
कृष्ण राधिका
8
विवेक ज्ञान
नीतियों का बंधन
मानव मात्र
9
प्रेम बंधन
गहन अनुभूति
भाव महान
स्वरचित पूर्णिमा साह बांग्ला
बांध लें बंधन में मुझको प्रीत के तू प्यार के।
रंग तुम पर हों निछावर, रूप के श्रंगार के।
बंध के बंधन में तुम्हारे राग है मन के निराले।
खेल प्रिय मुझको तुम्हारे है जीत के हार के।
तन समर्पित मन समर्पित हैं अवशेष क्या।
सार्थक जीवन किया मैंने तुम्ही पर वार के।
श्वास के अवरोह से मन का स्पन्दन कहे।
संग संग चलते हुए हम गीत गाएं प्यार के।
प्रेम ही पूजा मेरी और प्रेम ही निष्ठा मेरी।
डिग न पाए मन कभी कोप से संसार के।
विपिन सोहल
रंग तुम पर हों निछावर, रूप के श्रंगार के।
बंध के बंधन में तुम्हारे राग है मन के निराले।
खेल प्रिय मुझको तुम्हारे है जीत के हार के।
तन समर्पित मन समर्पित हैं अवशेष क्या।
सार्थक जीवन किया मैंने तुम्ही पर वार के।
श्वास के अवरोह से मन का स्पन्दन कहे।
संग संग चलते हुए हम गीत गाएं प्यार के।
प्रेम ही पूजा मेरी और प्रेम ही निष्ठा मेरी।
डिग न पाए मन कभी कोप से संसार के।
विपिन सोहल
बंधन
व्यक्ति नाम ही दूसरा,
बंधन है,
जीवन से मृत्यु के बीच,
एक..
सुलगता हुआ ईंधन हैं।
हां...
कहीं बंधन एक सजा है,
जो..
नियति की रजा है,
कोई है पीडा में,
तो किसी को ...
इसमें भी मजा है।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता से,
कुछ बंधन भी अच्छे हैं,
होंगे कुछ पुराने ,
तो कहीं कुछ सच्चे हैं।
आखिर..
रिश्तों का अर्थ भी,
बंधन में ही होता है,
कोई हंसता है कहीं पे ,
तो कोई...
इनमें भी रोता हैं।
विवेक रहित स्वतंत्रता को,
स्वछन्दता में बदलने में,
मर्यादा के अंकुश रहित,
हाथी को बिगडने में,
देर नहीं लगती,
उन्मुक्त ,दिशाहीन
आंधियों के आगे भी,
इन बंधनों की नहीं चलती,
इस जमाने में प्रेम भी,
बंधनों में मिलते हैं,
कहीं टिकते है शर्तों पे,
तो कहीं चंद टुकडों में बिकते हैं।
हो सके जितना..
इन बंधनो को ,
प्यार से निभाएं,
टूट के जाएगें कहां,
क्यों न इसमें प्रेम कडियां..
जोडते चले जाएं..
स्वरचित
ऋतुराज दवे
नही स्वीकार्य
बंधन कोई
जिसमे मुक्तता ना हो
मन झूमता ना हो
खुशी से फूलता ना हो
हवा में उड़ता ना हो
पर बंध जाऊं
बिना किसी सवाल
जहां त्याग हो
समर्पण हो
सम्मान हो आभार हो
सँग जीवन आधार हो
आओ मिल बनाये
ऐसा कुछ बंधन
और जीत जाएं दिलों को
साथ साथ मिलकर
करेंगे ना??
कर ही लेंगे।
कर ही लेंगे।।
खून से जुड़ा जिससे मेरा नाता
करता सदा वो मेरी रक्षा का वादा
बंधन डोर से बाँधी उसकी कलाई
कहती हूँ उसको मैं अपना भाई
प्रेम बंधन में बंधी जिसके साथ
देकर उसके हाथ में अपना हाथ
गठ बंधन बाँध,खाये संग अग्नि फेरे
कहलाये वो साजन मेरे
बंधन एक अज़ीब सा जो कभी न छूटा
मौत हो करीब फिर भी नही वो टूटा
कभी काया, कभी माया का करे सदा रुदन
कहते है उसको प्राणी मोह का बंधन
एक और भी बंधन है बहुत न्यारा
बिन गाँठ बाँधे फिर भी वो प्यारा
हर दुख दर्द में वो देता है सहारा
वो है सखा, मित्र , मेरा यारा
स्वरचित
गीता लकवाल
तेरा मेरा रिश्ता ऐसा,
जैसे संगीत से सुर का बंधन,
तेरे मन के जज्बातों को,
समझे पूर्ण रूप से मेरा मन,
फूलों से खूशबू का रिश्ता,
भँवरों का है प्रेम बंधन,
बिन बंधन का रिश्ता अपना,
देता है कितना अपनापन,
रिश्ता अपना अहसास का,
मोहताज नहीं किसी नाम का,
मन में हो कोई खटास,
वो बंधन किस काम का।
स्वरचित-रेखा रविदत्त
7/9/18
शुक्रवार
बंधन
यह मात्र शब्द ही नही
पर्याय है इस धरा का
इस कण-कण की परिभाषा है
हर रिश्तों की अभिलाषा है
इस मूर्त जगत का सार है ये
इस वशुधा का उद्गार है ये ।।
यह ममता का एहसास भी है
यह पुत्र की अविरल प्यास भी है
यह पिता प्रीत का मान भी है
यह कण-कण का सम्मान भी है ।।
इस बंधन में है सार छुपा
विप्लव से सद संहार छुपा
यह अनबुझ अमिट पहेली है
यह एक पल भी ना मैली है ।।
अशोक सिंह अलक
कैसे बन्द कर लें कान हृदय के क्रंदन से
धड़कन नहीं अब चीख निकलती है स्पंदन से
नहीं सह सकता हूं अब मैं जमाने की दुश्वारियां
आत्मा कह रही मुक्त करो मुझे अब बंधन से
थे तमाम संसाधन उस बंधन में
प्रियजन बिछोह के उस क्रंदन में
नहीं था आसां बंधनों से मुक्त हो जाना
सत्य की खोज में लिप्त हो जाना
होता नहीं आसां जगत की पीड़ा से क्षुब्द होना
बड़ा मुश्किल है किसी का बुद्ध होना
बड़ा मुश्किल है किसी....
इस तरह जा रहा हूं सारे रिश्ते तोड़ के
जैसे मुर्दा चिता पे जाये सारे बंधन खोल के
आज मै बंधन मे बंध गयी,
मायके से ससुराल मे बसगयी
आज तक थी मै माँ बाबा की प्यारीl
एक पल मेँ मेरी दुनिया बदल गयीl
ना जानू क्या कर पाऊँगी,
माँ बिन कैसे जी पाऊँगी l
ये कैसा बंधन मिला,
सब कुछ कैसे सह पाऊँगी l
माथे पर पर रोली चन्दन,
हाथो की चूड़ी खन खन,
सब ही है श्रृंगार मेरा,
एक तरह के ये भी बंधन l
बंधन प्रीत का प्यारा लागे,
पियामुझे जग से न्यारा लागे,
रहु सुहागन मै उम्र भर,
मेरे सिंदूर को मेरी नजर ना लागे l
प्रीत कीप्यारी डोर ने बांधा,
तुम मेरे श्याम मै तेरी राधा,
तेरे बिना मै कुछ भी नहीं,
मेरे बिना तू भी तो आधा l
कुसुम पंत
स्वरचित
मायके से ससुराल मे बसगयी
आज तक थी मै माँ बाबा की प्यारीl
एक पल मेँ मेरी दुनिया बदल गयीl
ना जानू क्या कर पाऊँगी,
माँ बिन कैसे जी पाऊँगी l
ये कैसा बंधन मिला,
सब कुछ कैसे सह पाऊँगी l
माथे पर पर रोली चन्दन,
हाथो की चूड़ी खन खन,
सब ही है श्रृंगार मेरा,
एक तरह के ये भी बंधन l
बंधन प्रीत का प्यारा लागे,
पियामुझे जग से न्यारा लागे,
रहु सुहागन मै उम्र भर,
मेरे सिंदूर को मेरी नजर ना लागे l
प्रीत कीप्यारी डोर ने बांधा,
तुम मेरे श्याम मै तेरी राधा,
तेरे बिना मै कुछ भी नहीं,
मेरे बिना तू भी तो आधा l
कुसुम पंत
स्वरचित
पाक् बंधन
प्रेम बंधन
गठबंधन
है अजीब ये
कच्चे धागों का बंधन
श्रद्धा बंधन
स्नेह बंधन
रिसता बंधन
है अजीब ये
लहू का बंधन
जाति बंधन
धर्म बंधन
मानव बंधन
है अजीब ये
समाज का बंधन
जन्म बंधन
जीवन बंधन
जगतबंधन
है अजीब ये
मुक्ति का बंधन
@शाको
स्वरचित
प्रेम बंधन
गठबंधन
है अजीब ये
कच्चे धागों का बंधन
श्रद्धा बंधन
स्नेह बंधन
रिसता बंधन
है अजीब ये
लहू का बंधन
जाति बंधन
धर्म बंधन
मानव बंधन
है अजीब ये
समाज का बंधन
जन्म बंधन
जीवन बंधन
जगतबंधन
है अजीब ये
मुक्ति का बंधन
@शाको
स्वरचित
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